आज भी शासक वर्ग की कुर्सी हिला देने का दम रखते हैं कांशीराम के राजनीतिक विचार

इंडियन एक्सप्रेस आर्काइव
14 April, 2022

सन 1966 आते-आते बहुजन समाज के आइकॉनिक नेता कांशीराम पिछड़ी जातियों का नेतृत्व कर रहे नेताओं के निराश होने लगे थे. खासकर, भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं से. उनका मानना ​​था कि दादासाहेब गायकवाड, दादासाहेब रूपवते और रामचंद्र भंडारे जैसे बी. आर. आंबेडकर के पूर्व सहयोगी अब समानता के लिए संघर्ष करने को लेकर पहले की तरह प्रतिबद्ध नहीं रहे हैं. इसके बजाय ये नेता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए उस वक्त की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने या उसके साथ गठबंधन करने के इच्छुक हैं.

2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को मिली करारी हार के मद्देनजर कांशीराम के उपरोक्त विचार आज के उनके अपने नेताओं पर भी फिट बैठते हैं. 1984 में जब उन्होंने बसपा की स्थापना की थी तब यह एक राजनीतिक सोच की परिणीति थी जिसको तैयार होने में सालों लगे थे. कांशीराम के राजनीतिक विचार और उनके द्वारा स्थापित विभिन्न मंच आंबेडकर के “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो” के आदर्शों पर आधारित थे.

1978 में कांशीराम ने पिछड़ी जातियों के सरकारी कर्मचारियों के संगठन अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ (बामसेफ) की स्थापना की. इसका उद्देश्य था ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना में पिछड़ी सभी धर्मों की 6000 जातियों के बीच एकता कायम करना. ये जातियां देश की जनसंख्या का लगभग 85 प्रतिशत हिस्सा हैं. कांशीराम इन जातियों को नाम दिया : बहुजन. कांशीराम का कहना था कि यदि 50 प्रतिशत बहुजन संगठित हो जाते हैं तो केंद्र में पिछड़ि जातियों की सरकार बन सकती है. उनका मानना ​​था कि देश और समाज में सच्ची समानता तब तक नहीं आएगी जब तक पिछड़ी जाति के लोग सत्ता के शीर्ष तक नहीं पहुंच जाते. दूसरे शब्दों में, उनके लिए राजनीतिक सफलता के वास्तविक मायने पिछड़ी जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बदलाव से जुड़ा था. उन्होंने राजनीतिक शक्ति को एक ऐसी चाबी कहा जो उत्पीड़ितों के लिए सभी ताले खोल सकती है.

अक्टूबर 2000 में नागपुर में बसपा कैडर को दिए एक भाषण में कांशीराम ने कहा था, "आरपीआई नेताओं के साथ हुई बातचीत के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वे हमारे आंबेडकर, जोतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज जैसे महान नेताओं की विचारधाराओं पर विश्वास तो करते हैं लेकिन यह नहीं मानते कि इससे उन्हें राजनीतिक सफलता हासिल हो सकती है. मैं उनसे पूछा कि उनके लिए सफलता के क्या मायने हैं. तो मुझसे कहने लगे कि इसका मतलब है विधायक या सांसद बनना.”

लेकिन कांशीराम आंबेडकरवादी विचारधारा के भीतर राजनीतिक सफलता का फारमूला खोज निकालने के लिए दृढ़ संकल्पित थे. उन्होंने फुले, साहू और आंबेडकर के समय में संघर्षों के इतिहास को विस्तार से पढ़ा. फुले और साहू को अपने-अपने समुदायों यानी माली और कुनबी दोनों पिछड़े वर्गों का समर्थन प्राप्त था. लेकिन कांशीराम ने पाया कि इन समुदायों ने आंबेडकर का पूरी तरह से समर्थन नहीं किया क्योंकि आंबेडकर की जाति सामाजिक पदानुक्रम में और उनसे नीचे थी.

अनुसूचित जातियां (अनुसूचित जाति संघ) आंबेडकर के राजनीतिक मोर्चे का मुख्य आधार थीं. 1956 में उनकी मृत्यु के बाद एससीएफ आरपीआई बन गया. कांशीराम ने अपने नागपुर भाषण में कहा, "ब्राह्मणवादी सामाजिक पदानुक्रम में नीचे की जातियां यदि अपने से नीचे की जातियों का समर्थन नहीं करती हैं या जिनकी गैर-राजनीतिक जड़ें मजबूत नहीं हैं, वे राजनीति में भी सफल नहीं हो सकतीं.” इस तरह उन्होंने उत्पीड़ित और पिछड़ी जातियों की सामाजिक और आर्थिक जड़ों को मजबूत करने के महत्व पर प्रकाश डाला. इसके लिए उन्होंने एक सूत्र तैयार किया था : N (जरूरत) D (इच्छा) और S (ताकत) को आपस में गुणा करने पर परिवर्तन आएगा. कांशीराम ने कहा, "जो सबसे अधिक उत्पीड़ित हैं केवल उन्हें बदलाव की जरूरत है. परिवर्तन की इच्छा सबसे पहले उन्हें महसूस होती है. इसलिए जब मैं बहुजन समाज की बात कहता हूं तब मैं ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था में नीचे से ऊपर की ओर जाने की बात करता हूं.”

उनके अनुसार आंबेडकर ने अपने समुदाय के भीतर बदलाव की “जरूरत” और “इच्छा” को उद्घटित किया लेकिन “ताकत” हासिल करना अधिक कठिन था. जो भी ताकत प्राप्त हुई थी वह आंबेडकर की बदौलत थी जिन्होंने अपने अकेले के अपन दम पर ब्रिटिश सरकार से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण हासिल किया. जिसके बाद चुनावों में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण के प्रावधान को भारत सरकार अधिनियम, 1935 का हिस्सा बनाया गया.

आंबेडकर के बाद के युग में उत्पीड़ित समुदायों की “बिखरी ताकत” को संगठित करना कांशीराम का मिशन बन गया. वह कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे ब्राह्मणवादी वर्चस्व वाले दलों के पीछे-पीछे चल कर हाशिए पर पड़े लोगों के लिए राजनीतिक सत्ता अर्जित नहीं करना चाहते थे. उनका मिशन पिछड़ी जातियों को राजनीतिक वर्ग में रूपांतरित करना था ताकि वह वर्ग अपने नेताओं को पैदा कर सके. इस राजनीतिक वर्ग के निर्माण की तरफ बामसेफ उनका पहला औपचारिक कदम था. 1990 के दशक के मध्य तक बामसेफ के 30 लाख सदस्य हो चुके थे. इसका उद्देश्य समुदायों के लोगों की “बुद्धि, कौशल और धन” को उनके राजनीतिक हित के लिए लगाना था. बामसेफ को लेकर कांशीराम का मुख्य लक्ष्य आरपीआई की मदद करना था. यहां तक की बामसेफ के आधिकारिक लॉन्च से पहले ही कांशीराम पुणे में आरपीआई के लिए काम कर रहे थे और फंड जुटा रहे थे. उन्हीं के नेटवर्क की ताकत से 1977 के पुणे नगर निगम चुनाव में छह आरपीआई काउंसलर चुने गए थे.

अक्सर ब्राह्मणवादी दल बहुजन नेताओं को पैसे से खरीदने का प्रयास करते थे लेकिन कांशीराम एक दृढ़ व्यवहारवादी थे. आंबेडकर का मानना था कि उनके राजनीतिक आंदोलन के सफल नहीं हो पाने का एक कारण पैसे की कमी होना भी है. इसलिए कांशीराम ने एक ऐसी व्यवस्था की जिसमें पिछड़े समुदाय के लोग स्वयं के राजनीतिक आंदोलनों के लिए पैसों का इंतजाम कर सकते थे. उन्होंने चुनाव हारने पर भी बहुजन नेताओं के खर्चे और अन्य भत्तों के लिए कर्मचारी संघ से भुगतान कराया. वह अपने कैडर को समुदायों के लोगों से सीधे एक रुपए से 100 रुपए तक चंदा इकट्ठा करने के लिए कहते थे.

इस व्यवस्था के बावजूद आरपीआई नेता अन्य दलों में शामिल होते रहे और आंबेडकर के पूर्व एससीएफ सहयोगी बीपी मौर्य भी 1971 में कांग्रेस में शामिल हो गए. कांशीराम ने मौर्य को  मनाने की कोशिश भी की. उन्होंने 1997 में मध्य प्रदेश में एक पार्टी की बैठक में अपने कैडरों को बताया कि, “मैंने उनसे कहा था कि एक सांसद को जितना भत्ता मिलता है, हम आपको उतना वेतन और हर सुविधा देंगे.”

मौर्य की प्रतिक्रिया कांशीराम के मॉडल को लेकर बहुजन नेताओं के आसंभिक अविश्वास को दर्शाती है. "मैं आपकी सराहना करता हूं लेकिन मैं आपसे सहमत नहीं हूं. यह पढ़े-लिखे कर्मचारी ज्यादा दिन मेरा खर्चा नहीं उठा पाएंगे. मुझे उनके साथ काम करने का आपसे ज्यादा अनुभव है," मौर्य का जवाब था.

अंततः कांशीराम का महाराष्ट्र के नेताओं पर से विश्वास उठ गया. अपने राजनीतिक विचारों पर काम करने के लिए उन्हें आरपीआई छोड़नी पड़ी. 1984 में आज ही के दिन यानी आंबेडकर के जन्मदिवस के अवसर पर कांशीराम ने दलित जातियों के लिए स्वतंत्र रूप से काम करने वाले राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी की शुरुआत की. कांशीराम मानना था कि जो इस व्यवस्था का विरोध करते हैं, उन्हें एक व्यवहारिक राजनीतिक विकल्प भी देना चाहिए. यह पार्टी उनके पिछले संगठन दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) का विस्तार थी. डीएस-4 ने कांशीराम द्वारा बताई गई एक अन्य राजनीतिक अवधारणा "सत्ता संघर्षों से प्राप्त होगी" को मूर्त रूप दिया. उन्होंने बहुजन मतदाताओं को संगठित करने की आवश्यकता को समझा और इस मंच को भविष्य के नेताओं को तैयार करने के साधन के रूप में देखा.

इस बहुजन राजनीतिक दल के साथ उन्होंने एक विस्तृत निर्वाचन आधार के निर्माण का काम शुरू किया और उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों और सबसे पिछड़े वर्गों के साथ गठबंधन किया. उन्होंने अनुसूचित जाति की बहुसंख्यक आबादी वाले क्षेत्रों में सबसे पिछड़े वर्गों के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा और उन लोगों को सीटें दीं जिनकी जातियों का कभी विधानसभा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं रहा था. बसपा के सबसे पिछड़े वर्ग के दो विधायक 1989 में, 1991 में चार और 1993 में 11 विधायक चुने गए. जब बसपा ने 1995 में मायावती के नेतृत्व में सरकार बनाई तब मुख्यमंत्री मायावती ने सभी 11 विधायकों को मंत्री बनाया.

दिलचस्प बात यह है कि उनकी अपनी चमार जाति से कोई मंत्री नहीं बना. 1998 में एक भाषण में कांशीराम ने कहा था, "मायावती खुद चमार थीं, इसलिए मैंने अपने अन्य सभी चमार विधायकों को फोन किया और उनसे कहा... पहले भी कई पार्टियों ने चमार को मंत्री बनाया है. लेकिन केवल उन्हीं को मंत्री बनना चाहिए जिनके अपने समुदाय के विधायक कभी नहीं थे.”

बाद में इन विधायकों ने बसपा के साथ गठबंधन की घोषणा के लिए अपने समुदायों के बीच सम्मेलनों का आयोजन किया. बसपा के गठन के 10 वर्षों के भीतर कांशीराम ने बहुजनों को उनकी सत्ता की चाबी (गुरुकिली) दिला दी थी, हालांकि उस सरकार का कार्यकाल केवल छह महीने का रहा. और मायावती की बीजेपी के साथ गठबंधन करने के लिए भी आलोचना की जाती रही है. अपने कार्यकाल में बसपा ने 50 प्रतिशत अनुसूचित जातियों की आबादी वाले 11524 “आंबेड़कर गांवों” का विकास किया, चार विश्वविद्यालयों का निर्माण किया और अनुसूचित जातियों को सात लाख एकड़ जमीन बांटी.

छह महीने बाद बीजेपी के सत्ता संभालने की बारी तब बसपा ने गठबंधन तोड़ दिया. कांशीराम ने अपने कैडरों से कहा कि किसी भी गठबंधन को लेकर असमंजस का सवाल विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों के लिए है जो पहले सत्ता का सुख भोग चुके हैं. जो कभी सत्ता में नहीं रहे उन्हें अपनी शर्तें खुद तय करनी चाहिए.

1997 में कांशीराम ने कहा था कि उनका मिशन अधूरा रह गया है क्योंकि केवल 30 प्रतिशत बहुजन ही उनके साथ आए हैं. 2006 में उनकी मृत्यु के बाद से अधिकांश पिछड़े वर्गों ने या तो अपनी अलग पार्टी बना ली है या बीजेपी और समाजवादी पार्टी में चले गए हैं. इसके अलावा मायावती के नेतृत्व वाली बसपा को गैर-बहुजन जातियों के साथ गठबंधन करने में कोई गुरेज नहीं रहा.

वर्तमान नेतृत्व भले ही कांशीराम के विचारों पर अमल करने में विफल रहा हो लेकिन पिछड़े वर्ग के लोगों के शीर्ष पर पहुंचने के लिए वही विचार आजमाया और परखा हुआ एकमात्र तरीका आज भी है. उनके मिशन को आर्थिक रूप से सक्षम हर शिक्षित आंबेडकरवादी द्वारा पूरा किया जाना चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि कांशीराम के शब्दों में, आंबेडकर के सपने को पूरा करने के लिए अपनी शिक्षा का इस्तेमाल नहीं करने वाली पिछड़ी जातियां "भाड़े की सेनाएं" हैं.