सन 1966 आते-आते बहुजन समाज के आइकॉनिक नेता कांशीराम पिछड़ी जातियों का नेतृत्व कर रहे नेताओं के निराश होने लगे थे. खासकर, भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं से. उनका मानना था कि दादासाहेब गायकवाड, दादासाहेब रूपवते और रामचंद्र भंडारे जैसे बी. आर. आंबेडकर के पूर्व सहयोगी अब समानता के लिए संघर्ष करने को लेकर पहले की तरह प्रतिबद्ध नहीं रहे हैं. इसके बजाय ये नेता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए उस वक्त की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने या उसके साथ गठबंधन करने के इच्छुक हैं.
2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को मिली करारी हार के मद्देनजर कांशीराम के उपरोक्त विचार आज के उनके अपने नेताओं पर भी फिट बैठते हैं. 1984 में जब उन्होंने बसपा की स्थापना की थी तब यह एक राजनीतिक सोच की परिणीति थी जिसको तैयार होने में सालों लगे थे. कांशीराम के राजनीतिक विचार और उनके द्वारा स्थापित विभिन्न मंच आंबेडकर के “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो” के आदर्शों पर आधारित थे.
1978 में कांशीराम ने पिछड़ी जातियों के सरकारी कर्मचारियों के संगठन अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ (बामसेफ) की स्थापना की. इसका उद्देश्य था ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना में पिछड़ी सभी धर्मों की 6000 जातियों के बीच एकता कायम करना. ये जातियां देश की जनसंख्या का लगभग 85 प्रतिशत हिस्सा हैं. कांशीराम इन जातियों को नाम दिया : बहुजन. कांशीराम का कहना था कि यदि 50 प्रतिशत बहुजन संगठित हो जाते हैं तो केंद्र में पिछड़ि जातियों की सरकार बन सकती है. उनका मानना था कि देश और समाज में सच्ची समानता तब तक नहीं आएगी जब तक पिछड़ी जाति के लोग सत्ता के शीर्ष तक नहीं पहुंच जाते. दूसरे शब्दों में, उनके लिए राजनीतिक सफलता के वास्तविक मायने पिछड़ी जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बदलाव से जुड़ा था. उन्होंने राजनीतिक शक्ति को एक ऐसी चाबी कहा जो उत्पीड़ितों के लिए सभी ताले खोल सकती है.
अक्टूबर 2000 में नागपुर में बसपा कैडर को दिए एक भाषण में कांशीराम ने कहा था, "आरपीआई नेताओं के साथ हुई बातचीत के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वे हमारे आंबेडकर, जोतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज जैसे महान नेताओं की विचारधाराओं पर विश्वास तो करते हैं लेकिन यह नहीं मानते कि इससे उन्हें राजनीतिक सफलता हासिल हो सकती है. मैं उनसे पूछा कि उनके लिए सफलता के क्या मायने हैं. तो मुझसे कहने लगे कि इसका मतलब है विधायक या सांसद बनना.”
लेकिन कांशीराम आंबेडकरवादी विचारधारा के भीतर राजनीतिक सफलता का फारमूला खोज निकालने के लिए दृढ़ संकल्पित थे. उन्होंने फुले, साहू और आंबेडकर के समय में संघर्षों के इतिहास को विस्तार से पढ़ा. फुले और साहू को अपने-अपने समुदायों यानी माली और कुनबी दोनों पिछड़े वर्गों का समर्थन प्राप्त था. लेकिन कांशीराम ने पाया कि इन समुदायों ने आंबेडकर का पूरी तरह से समर्थन नहीं किया क्योंकि आंबेडकर की जाति सामाजिक पदानुक्रम में और उनसे नीचे थी.
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