कश्मीरी पंडित घाटी के अपने मुसलमान भाइयों के बीच सुरक्षित हैं : पूर्व वाइस मार्शल कपिल काक

शाहिद तांत्रे/कारवां
18 September, 2019

एजाज अशरफ : आप सहित छह लोगों ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है जबकि अधिकांश कश्मीरी पंडितों ने जम्मू कश्मीर के संवैधानिक दर्जे पर किए गए बदलाव का समर्थन किया है. एक कश्मीरी पंडित होने के नाते इसे आपने ऐसा क्यों किया?

कपिल काक : मेरी बस एक यही पहचान नहीं है. सबसे पहले तो मैं इस दुनिया का नागरिक हूं और अपने देश पर फक्र करने वाला हिंदुस्तानी हूं. मैं 1960 में भारतीय वायु सेना में शामिल हुआ और मैंने लड़ाकू विमान उड़ाए. वायु सेना में रहते हुए मैं अलग-अलग संस्कृतियों से वाकिफ हुआ. मैं कश्मीरी पंडित होने से पहले एक कश्मीरी हूं. मैं अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने और जम्मू कश्मीर के पुनर्गठन का समर्थन नहीं करता.

एहसास : कश्मीरी होने और कश्मीरी पंडित होने में क्या फर्क है?

काक : कश्मीरी सजातीय-धार्मिक पहचान है और यह रहन-सहन, खानपान, संगीत, धार्मिक ग्रंथों, भूगोल और इतिहास से तय होती है. ये सब ऐसे तत्व हैं जो एक क्षेत्र विशेष में रहने वाले लोगों की मानसिकता और उनके चरित्र का निर्माण करते हैं. मिसाल के तौर पर, कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों के तौर-तरीकों पर वहां के मौसमों का समान असर होता है. जिसे हम ‘कश्मीरियत’ कहते हैं वह कश्मीरी पंडित और कश्मीरी मुसलमान में अंतर नहीं करती. दोनों में बस यही फर्क है कि एक मंदिर जाता है और दूसरा मस्जिद. वहां ऐसे मंदिर और सूफी दरगाहें हैं जहां दोनों जाते हैं. आज भी कश्मीर की मस्जिदों में जिस तरह से दरूद शरीफ को पढ़ा जाता है वह वैदिक और संस्कृत मंत्रों की तरह सुनाई पड़ता है. मैं जब किसी कश्मीरी मस्जिद में जाता हूं और दरूद शरीफ का पाठ सुनता हूं तो मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं किसी मंदिर में पहुंच गया हूं. वह पाठ भजन की तरह सुनाई पड़ता है. दुनिया में कहीं भी यहां तक कि जम्मू में भी, दरूद शरीफ को कश्मीर की तरह नहीं पढ़ा जाता.

हां, कश्मीरी पंडितों की अपनी एक अलग संस्कृति है लेकिन मेरे लिए कश्मीरी पंडित होना व्यापक कश्मीरी पहचान का एक छोटा हिस्सा भर है.

एजाज : लेकिन आपका समुदाय कश्मीरी मुसलमानों को आपके चश्मे से नहीं देखता.

काक : यहूदी मूल के फ्रांसीसी दार्शनिक जाक देरिदा की तरह कश्मीरी पंडितों के विचारों को डिकंस्ट्रक्ट (विरचना) करने की आवश्यकता है. घाटी के हजार साल पुराने भू-सांस्कृतिक परिवेश से 1990 और 1991 में बेदखल कर दिए जाने के दर्द, निराशा और हार के भाव को मैं भी साझा करता हूं. उन सालों में धार्मिक उग्रवाद और उससे संबंधित हिंसा अपने चरम पर थी. मुख्यतौर पर इसे पाकिस्तानी संस्थापक पक्ष ने हवा दी थी. हाल के सालों में कश्मीर के तीन जानेमाने लोगों ने अपनी गलतियां मानी हैं और स्वीकार किया है कि बहुसंख्यक समुदाय को कश्मीरी पंडितों की बेदखली रोकने के लिए ज्यादा प्रयास करने की जरूरत थी. ये लोग हैं : जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फेंस के नेता उमर अब्दुल्ला, राइजिंग कश्मीर के संस्थापक संपादक मरहूम शुजात बुखारी और पत्रकार और कश्मीर : रेज एंड रीजन किताब के लेखक गौहर गिलानी.

एजाज: जिस वक्त कश्मीरी पंडितों का नस्लीय सफाया किया जा रहा था, क्या उस वक्त आपका परिवार घाटी में था?

काक : हमारा और मेरी पत्नी का घर श्रीनगर में था. हमने अपने घरों को कौड़ियों के दाम बेच दिया. अन्य कई कश्मीरी पंडितों ने भी यही किया. हमारे कई रिश्तेदार घाटी में रहते थे. डर और चीजों के हाथों से निकल जाने की सोच के चलते, वे सब घाटी छोड़कर चले आए. उन लोगों को लग रहा था कि वे जल्द वापस चले जाएंगे. घाटी में 700 कश्मीरी पंडित मार दिए गए. यह उस कहावत की तरह था कि “एक मरे और हजार डरे.” मस्जिदों से लाउडस्पीकरों में कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ कर चले जाने की धमकियां दी जाती थीं. इसके लिए सिर्फ पाकिस्तानी गिरोह ही जिम्मेदार नहीं थे. कश्मीर के अपने आतंकी समूह पाकिस्तानी संस्थापक पक्ष की उस योजना का हिस्सा बन गए जिसके तहत माना जाता था कि कश्मीरी पंडितों को घाटी से बेदखल करना निजाम ए मुस्तफा या अल्लाह के शासन के लिए जरूरी है.

एजाज : 1989-1991 की घटनाओं ने कश्मीरी पंडितों के मनोविज्ञान पर निश्चित रूप से असर डाला है.

काक : यहां दो विषयों की वैचारिक स्पष्टता जरूरी है. पहली बात तो यह कि 1990 और 1991 के बीच जो घटित हुआ वह धार्मिक नहीं, राजनीतिक आंदोलन था और यह आज तक ऐसा ही है. जनता के विचार को प्रभावित करने के लिए कहीं-कहीं धर्म का इस्तेमाल हुआ होगा लेकिन कश्मीर और शेष भारत में ऐसे तत्व थे जिन्होंने इसे केवल एक धार्मिक आंदोलन की तरह दिखाया.

दूसरी बात, कश्मीर को छोड़ कर जाने वाले कश्मीरी पंडितों से दक्षिणपंथी ताकतों ने हाथ मिला लिया. कुछ बहुसंख्यकवादी राज्य सरकारों ने सरकारी कॉलेजों में इनके लिए सीटें आरक्षित की जिससे कश्मीरी पंडितों का सामाजिक उत्थान हुआ. निर्वासन की पीड़ा ने इस उदार समुदाय को बहुसंख्यकवादी बना दिया. मैं अपने समुदाय के उदार 20 प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करता हूं. ये 20 प्रतिशत कश्मीरी पंडित, त्रासदी और वंचन के बावजूद, संविधान, लोकतंत्र, समावेशी और बहुलतावादी भारत के प्रति प्रतिबद्ध हैं.

एजाज : अभी आपने कहा कि आप 20 प्रतिशत उदार कश्मीरी पंडितों का प्रतिनिधित्व करते हैं तो क्या आपको समुदाय के उन लोगों से धमकियां नहीं मिलतीं जो 370 को हटाए जाने के पक्ष में हैं?

काक : मैंने भारत-पाकिस्तान की दो जंगों में हिस्सा लिया है और एक बार मेरा लड़ाकू विमान एंटी एयरक्राफ्ट गन के निशाने पर आ गया था. यदि मैं धमकियों की तुलना उपरोक्त घटनाओं से करूं तो ये बहुत कम है. बस इसलिए कि लोग मेरे खिलाफ हैं, मैं अपने विचारों और अपनी प्रतिबद्धताओं से समझौता नहीं कर सकता.

एजाज : आप और आपके जैसे 20 प्रतिशत लोगों पर अन्य कश्मीरी पंडितों की तरह दक्षिणपंथी विचार का असर क्यों नहीं पड़ा जबकि आप के परिवार वालों को भी कश्मीर छोड़ कर आना पड़ा?

काक : बहुत दर्दनाक होता है अपने मंदिरों से दूर कर दिया जाना, उस जमीन से बेदखल हो जाना जो अपनी है, उन मौसमों से दूर हो जाना जिनसे आपको मोहब्बत है. जिन लोगों ने बेदखली को भोगा है वही इस दर्द को भी समझ सकते हैं. लेकिन मैं कश्मीर में हमेशा नहीं रहा, जब नौजवान था तो घाटी से बाहर आ गया और 35 साल बाद रिटायर हुआ तो पारिवारिक संपत्ति खत्म हो चुकी थी और कश्मीर मेरा घर नहीं रह गया था. लेकिन घाटी में शांति प्रयासों के लिए ‘ट्रैक टू पहलो’ से जुड़े होने के चलते मैं हर साल यहां आता-जाता रहा जिससे मेरा भावनात्मक संबंध अटूट बना रहा.

द्वंद्व राष्ट्र के जीवन का हिस्सा होते हैं. इस समझदारी को दर्द पर मरहम की तरह कैसे इस्तेमाल किया जाए? मैं लड़ाई में शरीक रहा हूं और द्वंद को समझता हूं इसलिए मैं समझ सकता हूं जो कश्मीर में हुआ वह एक आंतरिक द्वंद्व था जैसा कि नागालैंड, मिजोरम, असम या छत्तीसगढ़ में है. भारत राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है.

एजाज : क्या आप यह कहना चाहते हैं कि कश्मीरी पंडितों द्वारा अपने दर्द को न भुला पाने के कारण देश पर गहरा असर पड़ा?

काक : यह दुर्भाग्य की बात है कि मेरे समुदाय के मेरे अपने भाई जो बीती बातों को भुला नहीं पाए वे भारत की बहुसंख्यकवादी ताकतों के हाथों की कठपुतली बन गए हैं. यह बात समझनी होगी कि घाटी से कश्मीरी पंडितों की बेदखली ने बहुसंख्यकवादियों को ताकत दी है. कश्मीरी पंडितों का घाटी से पलायन और बाबरी मस्जिद के गिरा दिए जाने में 2 साल का फासला है. उस मस्जिद के गिरने और मुंबई में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने में बस दो महीनों का अंतर था.

एजाज : क्या आपको लगता है कि कश्मीरी पंडितों ने भारत सरकार के हाल के फैसले का स्वागत इसलिए किया क्योंकि उनको लगता है कि सरकार ने उनका बदला लिया है.

काक : जम्मू कश्मीर के दर्जे में बदलाव की सबसे निराशाजनक बात यह थी कि भारत भर में इसे जीत की तरह दिखाया गया. जीत की भावना से बीमारू टिप्पणियां निकली. उदाहरण के लिए एक आदमी ने कहा कि अब लोग गोरी कश्मीरी लड़कियों से ब्याह रचाएंगे. दूसरे ने कहा कि राज्य में स्त्री-पुरुष लिंगानुपात खराब है और अब कश्मीर से दुल्हन लाकर इसे ठीक किया जा सकता है. इससे घाटी में गहरे दर्द और आक्रोश का वातावरण बना क्योंकि कश्मीरी सभ्य और सुसंस्कृतिक लोग हैं. भारत की बहुलतावादी संस्कृति का उद्गम स्थल कश्मीर है जिसे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बार-बार लिखा है. उन्होंने कहा कि भारत का विचार उन्हें कश्मीर से मिला है जहां अलग-अलग धर्मों के लोग सदियों से साथ रह रहे हैं और विरासत साझा करते है.

एजाज : घाटी में फिलहाल कितने कश्मीरी पंडित रहे हैं?

काक : घाटी के सौ से अधिक स्थानों पर तकरीबन 9000 कश्मीरी पंडित हैं. उन्हें किसी तरह की सुरक्षा नहीं मिली हुई है, वे अपने मुस्लिम भाइयों के साथ रहते हैं. मीडिया में इनकी कहानियां नहीं दिखाई जाती.

एजाज : मुझे लग रहा था कि कश्मीर में बहुत कम कश्मीरी पंडित होगें.

काक : 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वादा किया था कि घाटी में कश्मीरी पंडितों के लिए वह 12000 नौकरियों का निर्माण करेंगे. यह केंद्र और राज्य प्रायोजित नौकरियां होंगी. सिंह की इस घोषणा से पहले घाटी में कश्मीरी पंडितों की संख्या 2800 के आसपास थी. सिंह की वजह से 9000 नौकरियां मंजूर हुईं जिनमें से 6000 पदों में नियुक्तियां हो चुकी हैं. इस तरह घाटी में कश्मीरी पंडितों की संख्या 9000 पहुंच गई. शुरुआत में ये लोग ट्रांसलेट कैंपों में रहते थे लेकिन बाद में कश्मीरी भाइयों से मेलजोल बढ़ने के बाद इन लोगों ने शहर में किराए के मकान लेकर रहना शुरू कर दिया.

एजाज : क्या आपने 9000 कश्मीरी पंडितों से कभी बात की है?

काक : हां कई मर्तबा मैंने बात की. इन लोगों का कहना है कि उन्हें घाटी में कोई तकलीफ नहीं है. कभी कभार कोई बदमाश लड़का उनके मकानों में पत्थर मारता है लेकिन उन्हें नहीं लगता कि इसमें घबराने की बात है. उन्हें लक्षित नहीं किया जा रहा है. यह बताता है कि वे लोग खुश हैं. मेरे कुछ रिश्तेदार एयरपोर्ट से दो किलोमीटर दूर रहते हैं. उनका खुला ड्राइंग रूम है. पड़ोस के बच्चे उनके घरों में आते-जाते हैं. उनसे लोग चाय और खाने की दावत लेते हैं. 1980 की बात छोड़िए ये लोग अब तक ऐसे ही रह रहे हैं. सूफी शायर जलालुद्दीन रूमी ने लोगों को सहन करने की नहीं उनसे मुहब्बत करने की बात की है. हमारी संस्कृति की प्रेरणा वहीं से आती है. 14वीं शताब्दी के कश्मीरी संतो, नंद ऋषि और लालेश्वरी, ने भी यही बात कही है.

एजाज : आपने 1950 में कॉलेज में दाखिला लिया. 1947 से 1950 तक कई सारी घटनाएं हुईं, जैसे कबाइलियों का हमला, राष्ट्र संघ के जनमत संग्रह प्रस्ताव, सांप्रदायिक दंगे और 1953 में नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी. इन घटनाओं से कश्मीर में मुस्लिम और पंडितों के संबंधों पर क्या असर पड़ा?

काक : 1990 और 1991 के डरावने वक्त के सिवा, दो समुदायों के रिश्तों में कभी तनाव नहीं रहा. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1947 में पाकिस्तानी घुसपैठ के वक्त कश्मीरी मुसलमानों, हिंदुओं और सिखों ने एकसाथ नारे लगाए थे : “घुसपैठियों खबरदार, हम कश्मीरी हैं तैयार.” उस वक्त कश्मीरी औरतें पाकिस्तानी घुसपैठियों से लोहा लेने के लिए बंदूकें और लाठियां लेकर सड़कों पर उतर आईं थीं. उस वक्त का मशहूर नारा था, “शेर ए कश्मीर सुंद क्या इरशाद-हिंदू, मुस्लिम, सिख इत्तहाद (शेर ए कश्मीर क्या चाहते, मुस्लिम, हिंदू, सिख हो एक).” बंटवारे के वक्त जब शेष भारत जल रहा था, घाटी में एक भी हिंदू को खरोच नहीं आई.

एजाज : भला ऐसा कैसे हुआ?

काक : कश्मीर मेलजोल वाली संस्कृति है, यहां की उदारता और सूफी शैव परंपरा के कारण ऐसा हुआ. जो लोग आपके साथ रहते हैं उनके खिलाफ आप कैसे हिंसा कर सकते हैं?

एजाज : राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को नहीं लगता कि कश्मीरी अवाम सरकार के कदम से नाराज है. हाल में उन्होंने बयान दिया था कि जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में बदलाव करने के बाद से अब तक घाटी में एक भी गोली नहीं चली है?

काक : मरहूम शायर आगा शाहिद अली लिखते हैं, “वे लोग मायूसी को अमन बताते हैं.” मैं कहता हूं कि कश्मीर में कब्रिस्तान वाली शांति है. कश्मीर में हालात बेहद संगीन हैं. मैं हमेशा मानता रहा हूं कि कश्मीर ने हिंदुस्तान को कभी धोखा नहीं दिया बल्कि खुद हिंदुस्तान ने कश्मीर के साथ हमेशा विश्वासघात किया. मेरे विचार से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने को कश्मीरी कभी स्वीकार नहीं करेंगे. यह उनकी विशेष पहचान का प्रतीक था. कश्मीर को भारत के एक महत्वपूर्ण राज्य से कम कर केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने को भी कश्मीरी स्वीकार नहीं करेंगे.

1947 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह की शर्तों पर भारतीय संघ ने उन्हें विलय का प्रस्ताव दिया था. महाराजा ने रक्षा, विदेशी मामलों और संचार भारत को सौंपे थे. अन्य सभी मामलों में राज्य का अधिकार बरकरार था. 1953 में शेख अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी के बाद केंद्र सरकार ने नई नीतियां और विकल्प तैयार किए. पहले समाज को बांधे रखने के लिए भ्रष्टाचार को चुना. मुख्यमंत्री से लेकर चपरासी तक मालामाल हो गए. दूसरा, कठपुतली सरकार बनाई. तीसरा, अपनी चुनिंदा कठपुतली को सत्ता में रखने के लिए चुनावों में धांधली की और चौथा, गुपचुप तरीके से संविधानवाद लागू किया.

एजाज : गुपचुप तरीके से संविधान लागू करने से आपका तात्पर्य कहीं अनुच्छेद 370 को हटाए जाने से तो नहीं?

काक : बिल्कुल यही बात है. इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय संविधान के 97 अनुच्छेदों में से 94 अनुच्छेद और 395 धाराओं में से 260 धाराएं जम्मू-कश्मीर में लागू हैं. यही कारण है कि कश्मीर में भारत के खिलाफ आक्रोश है. 1987 चुनावों में धांधली कराने से रहा-सहा विश्वास भी खत्म हो गया. जिन युवा नेताओं को चुनावी धांधली से हराया गया वे पाकिस्तान समर्थक बन गए क्योंकि पाकिस्तान घाटी में उग्रवाद शुरू करने के लिए उन्हें मदद दे रहा था.

5 अगस्त के निर्णयों से पहले भी राज्य स्वायत्त नहीं था. 5 अगस्त वाले निर्णयों ने बहुत ज्यादा बदलाव नहीं किया. यह बस एक वैचारिक कदम था जिसकी बात भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी. भारतीय जनता पार्टी के 2009, 2014 और 2019 के चुनावी घोषणा पत्रों में इसे हटाए जाने की बात थी. 5 अगस्त के निर्णयों के बाद कश्मीर में अलगाव की भावना गहरी हो गई है क्योंकि लोगों में निराशा और अपमान की भावना है. इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान इस स्थिति का फायदा उठाएगा.

एजाज : भारत सरकार के धोखे की भावना ने क्या कश्मीरी मुसलमानों को वहां के पंडितों के खिलाफ कर दिया?

काक : मैं सामान्यकरण नहीं करना चाहता. मैं कहूंगा कि 1990 और 1991 में जो हुआ वह असाधारण बात थी, नहीं तो भला क्यों 9000 कश्मीरी पंडित आज भी शांति के साथ वहां रह रहे होते. वे लोग सभी जगह रहते हैं, कश्मीर में आतंकवाद का गढ़ माने जाने वाले दक्षिण कश्मीर में भी रहते हैं. वहां आज भी 60 से 70 हजार सिख रह रहे हैं. कश्मीर ऐसी जगह नहीं है जहां पर बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहा है. 1989 और 91 में पाकिस्तान से आए लोगों ने कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया था. हां, कुछ स्थानीय लोगों ने मदद की थी. कश्मीरी मुस्लिम संस्कृति में कश्मीरी पंडित महिला को आरी से कटा नहीं जाता. यह कश्मीरी चरित्र का हिस्सा नहीं है.

एजाज : क्या आपको लगता है कि कश्मीरी पंडित घाटी में जल्द लौट पाएंगे?

काक : वे कश्मीरी पंडित जो कश्मीर लौटने की बात चिल्ला-चिल्ला कर करते हैं, वे 1990 और 91 में बच्चे थे. आज हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में स्थाई तौर पर काम करते हैं. वे अपनी नौकरियां छोड़ कर यहां क्यों आएंगे? उनके नारों में विश्वास करना गलत होगा. नारे हकीकत से अलग होते हैं. ये लोग कहते हैं कि वे घाटी लौट कर आना चाहते हैं. उनके दादा यहां नौकरियां करते थे. उनके दादा अब नहीं रहे. उनके पिता कश्मीर के बाहर नौकरियां करते हैं. भारतीय राज्य ने कश्मीरी पंडितों के लिए घाटियों में पर्याप्त नौकरियां का निर्माण नहीं किया है. जीविका के साधन और रहने की जगह कश्मीरी पंडितों के लौटने से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है.

एजाज : आपको कश्मीर का भविष्य कैसा दिखाई देता है?

काक : मुझे लगता है कश्मीर में लंबे समय तक अस्थिरता का माहौल बना रहेगा चाहे वह हिंसक रूप में प्रकट हो या अहिंसक रूप में. सरकार के पास कोई समाधान भी नहीं है. सरकार एक ऐसे लड़के की तरह है जो 17वें माले से कूद गया है और गिरते हुए चीख रहा है कि “मजा आ रहा है.” कश्मीरी शायद सोच रहे होंगे कि अब तक सरकार उन्हें थका रही थी अब वे सरकार को थका देंगे. यह कोई नहीं बता सकता कि अगले छह महीनों और एक साल के बीच क्या होने वाला है.