कारगिल के लोग बाहरी लोगों को पहली बात यही बताते हैं कि लद्दाख क्षेत्र दो अलग जिलों, कारगिल और लेह से मिलकर बना है और यह भी कि लद्दाख में बस मठ या बौद्ध भिक्षु ही नहीं हैं बल्कि यहां कि बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम है. दशकों से दोनों जिले अनुदान और राजनीतिक शक्ति पाने के लिए होड़ करते रहे हैं. हालांकि लेह हमेशा से जम्मू और कश्मीर राज्य से अलग होना चाहता था लेकिन कारगिल किसी भी तरह के विभाजन का विरोधी रहा. 5 अगस्त को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने के बाद लेह के लोगों ने इस फैसले के स्वागत में जश्न मनाया पर कारगिल में लोगों ने इसका विरोध किया. यहां के लोगों ने इसे अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग भी की. भारतीय जनता पार्टी की स्थानीय इकाई को छोड़कर कारगिल में सभी राजनीतिक और धार्मिक संगठनों ने इन मांगों के लिए लड़ने के लिए एक संयुक्त कार्रवाई समिति का गठन किया.
जब मैंने अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में कारगिल का दौरा किया तो मुझे स्थिति सामान्य लग रही थी लेकिन मोबाइल फोन पर इंटरनेट बंद था. लोग 31 अक्टूबर को लेकर कशमकश में थे. इस दिन कारगिल औपचारिक रूप से लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश का हिस्सा बन जाएगा. कारगिल के रहने वाले लोग केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा लेह को तमाम सुविधाएं दिए जाने और उन्हें नजरअंदाज किए जाने से नाखुश थे. वे अपनी आवाज बुलंद करने के लिए लंबे संघर्ष की तैयारी कर रहे थे.
मैंने कारगिल के कांग्रेसी नेता और प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता असगर अली करबलाई से बात की. बातचीत में मैंने समझना चाहा कि जम्मू और कश्मीर राज्य के पुनर्गठन ने कारगिल को किस तरह प्रभावित किया है. करबलाई कारगिल निर्वाचन क्षेत्र से पूर्ववर्ती राज्य की विधानसभा के सदस्य थे. वह लद्दाख क्षेत्र के प्रशासन के लिए 1995 में बनाए गए एक स्वायत्त जिला परिषद, लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद के अध्यक्ष भी थे.
प्रवीण दोंती : कारगिल को नए केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख का हिस्सा बनाए जाने के बारे में आपकी क्या राय है?
असगर अली करबलाई : अगर आप नस्लीय, सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से लेह और कारगिल को देखें तो हमारे बीच किसी भी तरह का अंतर नहीं है. लेकिन कारगिल व्यापार और वाणिज्य और राजनीतिक रूप से श्रीनगर के करीब है. सिर्फ कारगिल ही नहीं बल्कि पूरा लद्दाख भी ऐसा ही है. हम कभी भी लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के हक में नहीं रहे हैं. हम धार्मिक या भाषाई, किसी भी आधार पर राज्य को दो या तीन भागों में बांटने के खिलाफ हैं. राज्य जैसा है, हम उसे वैसा ही देखना चाहते हैं. 1947 के विभाजन के वक्त हमें सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा. 7000 से अधिक परिवार नियंत्रण रेखा के दोनों और बंट गए. हम जुदाई का दर्द जानते हैं.
हमें विकास में समान हिस्सेदारी की जरूरत है, लेकिन लेह को सब कुछ मिलता है. हमने लद्दाख को एक प्रशासनिक डिविजन बनाने के लिए कड़ा संघर्ष किया जो 2019 में बन पाया. 2011 की जनगणना के अनुसार लद्दाख की अधिकांश आबादी यानी 46.4 प्रतिशत मुस्लिम है. लेह के बौद्धों को लगता है कि जम्मू और कश्मीर राज्य में मुसलमानों का वर्चस्व है. लेकिन कारगिल के लोग भी इसी भेदभाव को महसूस करते हैं. राज्य सरकार को लगता है कि हम शिया मुसलमान हैं, केंद्र को लगता है कि हम लद्दाखी हैं लेकिन मुसलमान भी हैं. मिसाल के लिए, 2002 तक लद्दाख के 0.1 फीसदी मुसलमानों को भी लद्दाख स्काउट्स में भर्ती नहीं किया जाता था. लद्दाख स्काउट्स भारतीय सेना की एक पैदल सैन्य रेजिमेंट है जो पहाड़ी युद्ध में माहिर होती है और जिसमें लद्दाखी समुदायों को भर्ती किया जाता है. 14 कोर के गठन के बाद लेफ्टिनेंट जनरल अर्जुन राय ने पहली बार कारगिल युद्ध के बाद मुसलमानों की भर्ती की. सशस्त्र सीमा बल और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के साथ भी ऐसा ही है. उन्होंने मिश्रित आबादी वाले गांवों में केवल बौद्ध लोगों को प्रशिक्षित किया है. वे खुले तौर पर कहते हैं कि वे मुसलमानों को प्रशिक्षित नहीं करना चाहते.
जब तक कारगिल और लेह तहसील थे तब तक लेह मुख्यालय था. 1979 में कारगिल एक अलग जिला बन गया. उस समय भी बौद्धों ने महसूस किया कि यह कारगिल के मुसलमानों को खुश करने के लिए किया गया है जबकि हकीकत यह है कि हमारा क्षेत्रफल 14000 वर्ग किलोमीटर से अधिक है और हमारी आबादी लेह के बराबर है. लेकिन अब वे धर्म के नाम पर जांसकर और नुब्रा को जिला बनाने की मांग कर रहे हैं. 1968 में लद्दाख को एक सांसदीय सीट दी गई थी जिसके बाद दोनों समुदायों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ गई. हमारे यहां कभी दंगे नहीं हुए लेकिन 1989 में लेह में मुस्लिम विरोधी दंगे हुए. बौद्धों ने लोगों का जबरन धर्मांतरण किया. बौद्धों द्वारा मुसलमानों का सामाजिक बहिष्कार अभी भी होता है. मुसलमानों को जमीन नहीं बेची जा सकती. अंतरजातीय विवाह नहीं होते. वे मांस की दुकानों के लिए हिमाचल प्रदेश से लोगों को लाए थे, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चला. यहां से लोग लेह गए और बौद्ध धर्म में रुपांतरित हो गए लेकिन हमने इसे कभी भी सांप्रदायिक मुद्दा नहीं बनाया.
हमारे छात्रों ने एक उच्च शिक्षा विश्वविद्यालय के लिए एकजुट होकर संघर्ष किया लेकिन हमें मिला एक क्लस्टर विश्वविद्यालय. (2016 में श्रीनगर और जम्मू क्लस्टर विश्वविद्यालय अधिनियम, 2016 के तहत पहली बार क्लस्टर विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई थी. कानूनन ऐसे दो विश्वविद्यालय सरकार द्वारा संचालित पांच मौजूदा कॉलेजों के साथ गठित किए गए थे. प्रत्येक विश्वविद्यालय के लिए एक कॉलेज को लीड कॉलेज के रूप में नामित किया गया था और सभी कॉलेजों को नए प्रशासनिक सेट-अप का हिस्सा बनाया गया था.) जबकि कारगिल में छात्रों की संख्या अधिक है, लेकिन उन्होंने लेह को लीड कॉलेज दिया.
लेह हवाई पट्टी को अंतरराष्ट्रीय स्तर के लिए उन्नत किया गया है, लेकिन कोई भी नागरिक या वाणिज्यिक उड़ान 6000 फीट की कारगिल हवाई पट्टी पर नहीं उतर सकती. यहां एक सुंदर टर्मिनल तो है लेकिन वह बस सेना के लिए. लेह प्रभागीय दर्जा दिए जाने का विरोध कर रहा था लेकिन कारगिल ने इसके लिए लड़ाई लड़ी. लेकिन जब आदेश आया तो मुख्यालय लेह को दे दिया गया. शून्य से भी कम तापमान में आंदोलन करने के बाद उन्होंने एक और आदेश जारी कर कहा कि मुख्यालय लेह और कारगिल में बारी-बारी से होगा.
प्रवीण दोंती : लेह और कारगिल के बीच प्रतिस्पर्धा की इस पृष्ठभूमि को देखते हुए कारगिल के लोगों ने एक संयुक्त केंद्र शासित प्रदेश बनने की घोषणा पर कैसी प्रतिक्रिया दी?
असगर अली करबलाई : जब 5 अगस्त को पुनर्गठन विधेयक (9 अगस्त को, संसद ने जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 को मंजूरी दी जिसने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में पुनर्गठित कर दिया) की घोषणा हुई तो यहां विरोध प्रदर्शन हुए. संयुक्त कार्रवाई समिति ने 14 मांगों वाला मांगपत्र पेश किया. कारगिल का दौरा करने वाली सरकारी टीम ने प्रतिबद्धता जाहिर की कि वह हमारी सभी मांगों को पूरा करेगी और पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा कि लेह और कारगिल उनकी दो आंखों की तरह हैं. लेकिन तब से लेकर अब तक लेह को एक मेडिकल कॉलेज और क्रिकेट अकादमी दिया जा चुका है. लद्दाख मामलों के विभाग (एक प्रशासनिक इकाई जो दोनों जिलों से संबंधित सभी मामलों की देखरेख करती है) को भी लेह में स्थानांतरित कर दिया गया है. बीजेपी के राज्य महासचिव अशोक कौल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. हालांकि सरकार का आदेश आ चुका है. सरकार कारगिल के लोगों को मूर्ख बनाना चाहती हैं. उन्हें लगता है कि हम मूर्ख और अनजान हैं. वे हमें मजबूर कर रहे हैं. वे हमें सड़कों पर आने के लिए मजबूर कर रहे हैं.
हम कारगिल के लोगों ने 1948 से ही राष्ट्र के लिए बहुत त्याग किया है. यहां तक कि जोजिला युद्ध (कारगिल युद्ध के दौरान सैन्य मोर्चों में से एक) में हमने सेना को खच्चर और कुली दिए और कारगिल को पाकिस्तान से वापस हासिल करने में मदद दी. यह इलाका छह महीने तक पाकिस्तान के कब्जे में था. कारगिल के लोगों की मदद और समर्थन से इसे वापस हासिल किया गया. 1965 और 1971 के युद्धों में भी हमने ऐसा ही किया था. इन सभी बलिदानों के बावजूद, उनकी कद्र करने के बजाय, आप उन्हें मजबूर कर रहे हैं और उन्हें कुचल रहे हैं. स्वाभाविक रूप से इससे अलगाव बढ़ेगा.
राज्यपाल, मुख्य सचिव, गृह सचिव और सलाहकार सहित राज्य के सभी शक्तिशाली लोगों ने संयुक्त कार्रवाई समिति से मुलाकात की थी और वादा किया था कि वे दोनों क्षेत्रों के साथ न्याय करेंगे. लेकिन वे पूरी तरह से सांप्रदायिक आधार पर निर्णय ले रहे हैं. असुरक्षा की यह भावना दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. हम ऐसे कदम का समर्थन कैसे कर सकते हैं जब अधिकारियों से न्याय या विश्वास की कोई उम्मीद नहीं है जो अपनी बात पर कायम नहीं रहते हैं?
हमारे पास अब तक विधायिका की शक्ति थी, लेकिन अब हमारे पास एक केंद्र शासित प्रदेश होगा जिसमें नौकरी की सुरक्षा नहीं होगी और भूमि संरक्षण नहीं होगा. अगर हमें जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता तो हमने एक अलग केंद्र शासित प्रदेश, विधायिका और इसके नाम में बदलाव की मांग की थी. इसे लद्दाख के बजाय लेह और कारगिल का केंद्र शासित प्रदेश कहा जाए क्योंकि लेह के लोग लद्दाख नाम का दुरुपयोग कर रहे हैं. लद्दाख को दी जाने वाली हर चीज लेह जाती है. वे लेह को लद्दाख के रूप में दिखाते हैं. इसीलिए हमने अंडमान निकोबार, दादरा और नगर हवेली की तर्ज पर नामकरण में बदलाव के लिए कहा था. जैसे जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश.
प्रवीण दोंती : इस तरह के भेदभाव का क्या कारण हो सकता है?
असगर अली करबलाई : वे लोग एक समुदाय को खुश करना चाहते हैं और दूसरे समुदाय को नकारना चाहते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि हम मुस्लिम हैं. बावजूद कि हमने शहादत दी है, कारगिल के हर नुक्कड़ पर राष्ट्रीय झंडा फहराया है. हमें भारतीय होने पर गर्व है. यह संयोग नहीं है बल्कि हमारी पसंद की बात है. लेकिन वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे लद्दाख में हिंदुत्व नीति को लागू करना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि बौद्ध समुदाय उनके बहुत करीब है.
2010 के आसपास 6000 फुट की हवाई पट्टी और एक टर्मिनल के निर्माण का कार्य कारगिल में पूरा हुआ. अब हम 2019 में हैं लेकिन एक भी वाणिज्यिक यात्री विमान ने यहां से उड़ान नहीं भरा और न ही यहां उतरा. लेह से एक दिन में 14 से अधिक जहाज उड़ान भरते हैं. हम कई दशकों से जोजिला दर्रे में सुरंग बनाने की मांग कर रहे हैं. इसके लिए तीन बार टेंडर निकल चुका है और दो बार आवंटन भी हुआ है. लेकिन फिर भी इस पर कोई काम नहीं हुआ. इन सबके बावजूद वे लेह को मनाली से जोड़ने के लिए रोहतांग दर्रे पर सुरंग बना रहे हैं. वे 700 किलोमीटर तक गुरदासपुर से मनाली और लेह तक एक रेलवे लाइन बनाने पर विचार कर रहे हैं. लेकिन कारगिल और श्रीनगर के बीच 200 किलोमीटर को जोड़ने के लिए कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है. सर्दियों में हमारे पास कोई सड़क संपर्क या हवाई संपर्क नहीं होता. हम लगभग छह महीने के लिए देश के बाकी हिस्सों से कट जाते हैं.
प्रवीण दोंती : कारगिल में मोबाइल इंटरनेट क्यों बंद कर दिया गया जबकि यह ज्यादातर शांतिपूर्ण ही रहा?
असगर अली करबलाई : ऐसा इसलिए है क्योंकि हम मुस्लिम हैं. हम कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन और उग्रवाद के खिलाफ हैं. 1989 में उग्रवाद फैलने के बाद से मुस्लिम बहुल जिले होने के बावजूद कारगिल में एक भी घटना नहीं हुई. हम लेह की तुलना में ज्यादा शांतिपूर्ण हैं. दंगे लेह में होते हैं पर कारगिल में नहीं. लेकिन इंटरनेट लेह में उपलब्ध है, कारगिल में नहीं.
जब आप लद्दाख कहते हैं तो यह मठों, ध्यान केंद्रो (गोम्पों) और बौद्धों का पर्याय बन जाता है. मीडिया ने इसे प्रचारित किया है और सरकार इसे इसी तरह से पेश करना चाहती है. बीआरओ (सीमा सड़क संगठन) द्वारा लिखे गए साइनबोर्ड के अनुसार लद्दाख लामाओं की भूमि है. "लामाओं की भूमि में आपका स्वागत है," "लामा की भूमि में गामा मत बनो." हमारे यहां 121 ब्रिगेड का मुख्यालय है. इसके ठीक बीच में एक बौद्ध धार्मिक झंडा है. मुस्लिम बहुल जिले में इसका क्या मतलब है?
प्रवीण दोंती: तो लेह द्वारा भेदभाव किए जाने का डर कारगिल को कश्मीर के करीब ले जाता है?
असगर अली करबलाई : हमें इसकी चिंता नहीं है कि हमारे साथ भेदभाव होगा. हमारे साथ अतीत में भेदभाव हुआ है इसलिए हमें पता है कि यह फिर से होगा.
प्रवीण दोंती : क्या आपने कारगिल की स्थिति के बारे में अपनी पार्टी को समझाने की कोशिश की?
असगर अली करबलाई : वे सभी एक जैसे हैं. 370 पर कांग्रेस पार्टी खुद ही बंटी हुई है. एक तरफ तो पार्टी कह रही है कि अनुच्छेद 370 और 35ए को बनाए रखने में कोई बुराई नहीं है और दूसरी ओर पार्टी के कुछ लोग कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अच्छा काम किया है और राज्य को शेष भारत के साथ जोड़ दिया है. 70 साल तक जम्मू-कश्मीर कहां था? क्या यह भारत का हिस्सा नहीं था? क्या इसका मतलब है कि भारत कन्याकुमारी से पठानकोट तक था? क्या मजाक है. सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में उन्होंने जम्मू-कश्मीर में बहुत ही अलोकतांत्रिक काम किया है. राज्यपाल जम्मू-कश्मीर के लोगों का प्रतिनिधि नहीं है. वह राष्ट्रपति और संघ सरकार का प्रतिनिधि है. उसकी सहमति से आप राज्य में सब कुछ बदल रहे हैं.
पहले हमें नौकरियों के लिए राज्य के भीतर ही प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती थी. जम्मू और कश्मीर में अनुसूचित जनजातियों के लोगों की संख्या 15-20 लाख से अधिक नहीं है. 370 और 35ए को हटाने के साथ, हमें देश की 11 करोड़ अनुसूचित जनजाति आबादी से मुकाबला करना होगा. हमारा अपना जम्मू-कश्मीर राज्य सेवा आयोग था. हमारे पास उच्च नौकरशाही में जाने का मौका था. अब हमें यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) की परीक्षा पास करनी होगी. हम सुविधाओं की कमी के साथ शेष भारत से कैसे प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं? क्या हमें यूपीएससी परीक्षा में एक भी सीट मिल सकती है? भावी पीढ़ियों की नौकरी की सुरक्षा खत्म हो गई है. अब उच्च नौकरशाही में लद्दाखी नहीं दिखाई देगें.
छह विधायक सदस्यों ने लद्दाख का प्रतिनिधित्व किया. अब एक नौकरशाह या राज्यपाल सब कुछ तय करेगा. क्या आप को नहीं पता कि नौकरशाही जनता के साथ कैसा व्यवहार करती है? वह जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होती. एक जन प्रतिनिधि को पांच साल बाद लोगों का सामना करना पड़ता है. यही हमें चीन से बेहतर बनाता है यानी अपनी सरकार का चुनाव करने का अधिकार, अपने स्वयं के शासन द्वारा शासित होना. उन्होंने हमें बेजुबान बना दिया है. हालांकि वे हर समय लोगों को सशक्त बनाने की बात करते हैं. हमें अपने लोकतंत्र पर इतना गर्व है लेकिन लोकतंत्र हमसे छीना जा रहा है.
प्रवीण दोंती : लेह के कुछ नेताओं का कहना है कि विधायिका नहीं होने से लेह और कारगिल के संबंधों में सुधार होगा.
असगर अली करबलाई : यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बयान है. यह तो ऐसी बात हुई कि भारत में संसद या लोकतांत्रिक संस्था नहीं होनी चाहिए. बस चुनिंदा कुलीन लोग देश पर राज करें. यह नौकरशाही के नाम पर तानाशाही है.
प्रवीण दोंती : हिल काउंसिल के बारे में आपकी क्या राय है क्योंकि लेह और कारगिल में अलग-अलग हिल काउंसिल हैं.
असगर अली करबलाई : यह विधायिका की तरह नहीं है. यह केवल विकास के लिए है इसके पास कोई विधायी शक्ति नहीं है. हमारी हिल काउंसिल में कैबिनेट मंत्री के दर्जे का अध्यक्ष होता है और राज्य मंत्री के दर्जें के चार कार्यकारी पार्षद होते हैं. इस परिषद द्वारा पारित सभी विकास योजनाएं डिप्टी कमिश्नर, फिर सचिव और मुख्य सचिव, अंत में राज्यपाल के पास जाती हैं. यदि डिप्टी कमिश्नर योजनाओं को आगे नहीं बढ़ाता है तो हिल काउंसिल कुछ नहीं कर सकती. मुख्य सचिव भी इसमें संशोधन कर सकते हैं या इसे वापस भेज सकते हैं. अध्यक्ष और संपूर्ण परिषद मुख्य सचिव के अधीन होते हैं. परिषद के पास चपरासी का पद भरने की भी शक्ति नहीं होती. उच्च शिक्षा को छोड़िए काउंसिल प्राथमिक विद्यालय की भी मंजूरी नहीं दे सकती.
प्रवीण दोंती : भविष्य के लिए क्या योजना है? अगर आपकी मांगें पूरी नहीं हुईं तो क्या होगा?
असगर अली करबलाई : क्या विरोध और आंदोलन के अलावा भी भविष्य की कोई योजना हो सकती है? लोग सड़कों पर उतरेंगे और आंदोलन करेंगे. मोदी और अमित शाह का कहना है कि जम्मू-कश्मीर को सही समय पर राज्य का दर्जा दिया जाएगा और केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा अस्थायी है. लेकिन केंद्र लेह को बहुत सारी चीजें दे रहा है. जम्मू-कश्मीर राज्य के इस पुनर्गठन में कारगिल की सबसे बड़ी हार हुई और वह सबसे ज्यादा पीड़ित है.