अब कोई कश्मीरी नेता बीजेपी का साथ नहीं देगा : इतिहासकार एंड्रयू ह्वाइटहेड

साभार एंड्रयू ह्वाइटहेड
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09 August, 2019

5 अगस्त को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में घोषणा की कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करने वाले भारती य संविधान के अनुच्छेद 370 को प्रभावहीन कर रही है. शाह ने सदन में इससे संबंधित दो बिल पेश किए- जम्मू कश्मीर आरक्षण (द्वितीय संशोधन) विधेयक, 2019 तथा जम्मू कश्मीर पुनर्गठन विधेयक. साथ ही शाह ने उसी तारीख को जारी राष्ट्रपति के आदेश का भी हवाला दिया जिसने भारतीय संविधान के सभी प्रावधानों को राज्य पर लागू कर दिया.

आजादी मिलने के बाद जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय को अनुच्छेद 370 ने औपचारिक स्वरूप दिया था. इसके तहत, रक्षा और विदेश नीति के मामलों के अतिरिक्त, सभी मामलों में केंद्र सरकार को जम्मू और कश्मीर सरकार से सहमति लेनी जरूरी है.

फिर भी, जैसा कि राज्य दिसंबर 2018 से राष्ट्रपति शासन के अधीन है, केंद्र ने इस आवश्यकता को दरकिनार कर दिया - राष्ट्रपति के आदेश ने राज्यपाल को राज्य विधानमंडल के बदले में स्वीकृति देने की अनुमति दी. पुनर्गठन विधेयक के माध्यम से, सरकार ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- लद्दाख तथा जम्मू और कश्मीर में विभाजित किया. केंद्र ने राज्य सरकार की अनुपस्थिति में कार्य किया और एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से अपने निर्णयों की संवैधानिक वैधता पर भी सवाल खड़े कर दिए. इस कदम के राजनीतिक निहितार्थ पर कारवां ​की एडिटोरियल फेलो महक महाजन ने इतिहासकार और लेखक एंड्रयू ह्वाइटहेड से बातचीत की.

महक महाजन: अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के भारतीय जनता पार्टी सरकार के निर्णय को आप कैसे देखते हैं?

एंड्रयू ह्वाइटहेड: यह एक ऐसी चीज है जो बीजेपी अपने घोषणा पत्र में बार-बार कहती रही है. मुझे हैरानी है कि इन लोगों ने ऐसा कर दिया. मैंने सोचा था कि बीजेपी यह मानकर चल रही है कि वह कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को खत्म तो करना चाहती है लेकिन इससे जो संकट पैदा होगा वह ज्यादा बड़ा होगा. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अनुच्छेद 370 का बहुत प्रैक्टिकल महत्व नहीं है. इसका बड़ा महत्व प्रतीकात्मक है. आरंभ में जब 370 लागू किया गया तो इसका मतलब था कि दिल्ली में मंजूर सभी कानून कश्मीर में लागू नहीं होंगे. इसका मतलब था कि सर्वोच्च न्यायालय, निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाएं जरूरी नहीं कि कश्मीर में भी शक्ति रखती हों. लेकिन ऐसे विशिष्ट प्रावधान बहुत पहले कमजोर हो चुके हैं.

अब इस अनुच्छेद का बस इतना ही मतलब है कि कश्मीर का अपना संविधान और झंडा है. फिलहाल 370 से संबंधित बहुत छोटे अधिकार है लेकिन अनुच्छेद 35ए के तहत जम्मू कश्मीर में बाहरी लोगों द्वारा संपत्ति क्रय करने पर पाबंदी है. तो एक प्रकार से यह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन इसका प्रतीकात्मक महत्व है. कश्मीरियों के लिए यह अनुच्छेद अपने भूभाग के भारत का हिस्सा बन जाने और उन शर्तों का जिसके आधार पर कश्मीर भारत का अंग बना, यह संविधान में प्राप्त विशेष दर्जे में प्रतिबिंब होता था. यह जवाहरलाल नेहरू, उनकी सरकार और तत्कालीन कश्मीरी नेताओं के बीच राजनीतिक समझौते के परिणामस्वरूप हुआ था. दिल्ली ने अब एक तरफा तरीके से इस समझौते को भंग कर दिया है.

बीजेपी के लिए यह बहुत बेचैन करने वाली बात थी कि यह विशेष दर्जा केवल भारत के एक राज्य में लागू है और वह भी मुस्लिम बहुल राज्य. इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि यह लोग इसे खत्म करना चाहते थे. मुझे यह नहीं पता कि यह कदम राजनीतिक हिसाब से सही है क्योंकि इसकी धमक घाटी में जरूर सुनाई देगी और इससे जो गुस्सा भड़केगा वह केवल अलगाववादी समूह तक सीमित न रह कर पूर्व में बीजेपी की सहयोगी रहीं महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला जैसे लोगों को भी अपने आगोश में ले लेगा.

एमएमः आप अपने लेखन में कश्मीर के इतिहास का खूब हवाला देते हैं. आपने ए मिशन इन कश्मीर किताब में 1946 और 48 के बीच हरि सिंह की गतिविधियों पर प्रमुखता से लिखा है. हाल के बीजेपी के निर्णय को आप कैसे देख रहे हैं? खासकर, विलय और अनुच्छेद 370 की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में.

एडब्लुः एक समस्या यह है कि आज तक कश्मीर के मामले पर लोग बात करते हैं तो वे 1940 और 1950 के दशक में क्या हुआ इस पर अधिक केंद्रित रह कर बात करते हैं. ऐसा करना जरूरी तो है लेकिन इससे यह तय नहीं होता कि कौन सही है और कौन गलत. हालांकि मैं एक इतिहासकार हूं और मैंने 1940 के दशक से जुड़ी बातों का अध्ययन किया है इसके बावजूद मैं ऐसा कह रहा हूं. एक बात जो बहुत साफ है वह यह कि जम्मू कश्मीर में महाराजा हरि सिंह को कानूनी रूप से निर्णय लेने का अधिकार था. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उन्हें इस का नैतिक अधिकार था. उन्होंने भारत में विलय का निर्णय लिया. महाराजा ने यह निर्णय शायद भारतीय सेना के यहां आने के बाद लिया, जो एक जरूरी बात तो है लेकिन इससे यह शायद ही तय होता कि कश्मीर में किसका शासन होगा.

एक जरूरी बात यह है कि अक्टूबर और नवंबर 1947 में सिंह को उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी शेख अब्दुल्ला समर्थन दे रहे थे जो उसी दौरान महाराजा की जेल से छूटे थे. ऐसा नहीं है कि उस वक्त कश्मीर का हर आदमी भारत में विलय का समर्थन कर रहा था, लेकिन जिस प्रकार की हरकत पाकिस्तान की सेना, जिसे कई लोग कबायली बताते हैं, श्रीनगर पहुंचते-पहुंचते कर रही थी उससे लोग खासे नाराज हो गए थे. लेकिन जैसा मैंने ऊपर कहा है कि हम लोग 1940 और 50 के दशक में क्या हो रहा था इस पर ज्यादा बात करते हैं न कि कश्मीर की जनता आज क्या महसूस कर रही है इस पर.

एमएमः आपने अनुच्छेद 370 के प्रतीकात्मक महत्व की बात की. अनुच्छेद 370 के बारे में कश्मीरियों के क्या विचार हैं?

एडब्ल्यूः कश्मीर के लोगों से बात करते हुए आप पाएंगे कि अनुच्छेद 370 पर लोग बात नहीं करते. यह सिर्फ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का हिस्सा है. जिन चीजों से लोग सबसे ज्यादा चिंतित रहते हैं वे हैं- सुरक्षा बलों की मौजूदगी, अपने मामलों पर स्वयं का नियंत्रण न होने की बेचैनी, लोग दिल्ली के सख्त रवैया से खफा रहते हैं, स्थानीय कश्मीरी नेताओं पर विश्वास नहीं करते और लगातार होने वाले मानव अधिकार उल्लंघन से चिंतित रहते हैं. इन विषयों पर कश्मीरी लोग ज्यादा बात करते हैं.

लेकिन इस वक्त मुझे यकीन है श्रीनगर में लोग सिर्फ अनुच्छेद 370 पर ही बात कर रहे होंगे. हां, यह सही है कि हम लोग जान नहीं सकते क्योंकि भारत सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा है. कॉलेज और स्कूल बंद हैं, पर्यटक और हिंदू तीर्थ यात्रियों को राज्य से बाहर भेज दिया गया और लोगों के चलने-फिरने और इकट्ठा होने पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए हैं. क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में इंटरनेट और मोबाइल सेवा बंद हैं, यहां तक कि लैंडलाइन फोन भी बंद हैं. इससे समझ आता है कि इस कदम की कैसी प्रतिक्रिया की उम्मीद भारत सरकार को थी.

एमएम: क्या सुरक्षा को बढ़ाना किसी अपेक्षित कारणों के चलते था?

एडब्ल्यू: मुझे विश्वास है कि कानून और व्यवस्था के नाम पर लोगों के आने-जाने पर लगाई गई रोक, पूर्व मुख्यमंत्रियों की नजरबंदी और अतिरिक्त सुरक्षा बल की तैनाती को जायज ठहराया जाएगा. लेकिन यह एक अभूतपूर्व बात है कि आप उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे संवैधानिक नेताओं को नजरबंद कर रहे हैं जो कश्मीर के भारत में रहने के हिमायती हैं और पूर्व में बीजेपी के साथ सरकार में रह चुके हैं. किसी भी परिस्थिति में उपरोक्त कदम हैरतअंगेज है.

एमएम: कश्मीर के संदर्भ में आने वाले महीनों और सालों में बीजेपी कैसे कदम उठा सकती है?

एडब्ल्यूः मुझे नहीं लगता कि बीजेपी वाले इस बात की चिंता करते हैं कि कश्मीर में लोग क्या चाहते हैं. लेकिन अब बीजेपी को कश्मीर में साथ काम करने के लिए कोई दमदार नेता नहीं मिलेगा. आने वाले समय में इस बात की कोई उम्मीद नहीं है की महबूबा मुफ्ती या उमर अब्दुल्ला या सज्जाद गनी लोन बीजेपी के साथ काम करेंगे.

जारी उथल-पुथल के शांत हो जाने के बाद सबसे बड़ी चिंता इस बात की होगी कि किस तरह राज्य को दो भागों में बांट दिया गया और बंटे हुए हिस्से की हैसियत राज्य जैसी नहीं रही. संविधान में कश्मीर ने अपना विशेष दर्जा खो दिया और भारत में उसकी राजनीतिक हैसियत नीचे गिर गई.

एमएमः अनुच्छेद 370 को हटाने के साथ ही जारी किए गए राष्ट्रपति के आदेश का क्या असर पड़ेगा?

एडब्ल्यूः भारत सरकार ने जो किया है उसे समझने के लिए आपको संविधान विशेषज्ञ होना चाहिए. मुझे इस बात की हैरानी है कि सरकार यह मानती है कि राष्ट्रपति का आदेश 370 को दरकिनार करने के लिए तकनीकी दृष्टिकोण से पर्याप्त है. जो उन्होंने किया है उसका मतलब है कि 35ए और राज्य के बाहर के लोगों द्वारा जमीन खरीदने पर लगी रोक हटा दी गई है. निश्चित तौर पर सरकार के इस कदम को अदालत में चुनौती मिलेगी, लेकिन मुझे नहीं पता की फैसला क्या होगा.

हम इसे संवैधानिक और कानूनी तौर पर देख सकते हैं लेकिन जरूरी बात यह है कि हम इसे राजनीतिक तौर पर देखें. दुबारा चुनाव जीतने के बाद बीजेपी ने तय किया है कि दशकों से एजेंडे में रहे एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य को मिले विशेष दर्जे को हटाने का वादा पूरा किया जाए. इसके लिए उन्हें दिल्ली में व्यापक समर्थन भी मिला. कांग्रेस इसके विरोध में है लेकिन आम आदमी पार्टी जैसी कई छोटी पार्टियां जो बीजेपी के साथ गठबंधन नहीं बनातीं वे पार्टियां भी बीजेपी को समर्थन दे रही हैं. अपने सार में यह एक राजनीतिक कदम है. मुझे विश्वास है कि सरकार ने संवैधानिक और कानूनी स्तर पर अपना होमवर्क किया है लेकिन आने वाले महीनों में अदालत में इस होमवर्क की परीक्षा होगी.

एमएम: सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई फैसलों में कहां है कि अनुच्छेद 370 स्थाई है. आपकी इस बारे में क्या राय है?

एडब्ल्यू: अनुच्छेद 370 के स्थाई होने या न हो पर काफी बहस हो चुकी है. जहां तक मैं समझता हूं चूंकि भारत ने जनमत संग्रह के लिए प्रतिबद्धता दी थी इसलिए अनुच्छेद 370 अस्थाई है क्योंकि यदि यह अस्थाई नहीं होगा तो जनमत संग्रह का स्वरूप पक्षपाती हो जाएगा. 1950 के दशक में कम से कम जनमत संग्रह की बात तो होती थी. इस विचार को जवाहरलाल नेहरू ने आगे बढ़ाया था.

लेकिन इन 60 सालों में भारत जनमत संग्रह के विचार से पीछे हट गया है. अब यह नहीं होगा. लेकिन उस संदर्भ में 370 को अस्थाई समझे जाने वाला विचार जारी ही रहा.

एमएम: भारतीय मीडिया में मोदी इंटीग्रेट्स कश्मीर और वनइंडिया जैसे हेशटैग चल रहे हैं. बीजेपी के निर्णय को मिल रहे समर्थन को आप कैसे देखते हैं.

एडब्ल्यू: बीजेपी के कार्यकर्ता और बहुत से अन्य भारतीय भी नरेन्द्र मोदी के कदम का समर्थन करेंगे. मेरे विचार में जम्मू कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को लेकर बहुत अधिक भ्रम है. लेकिन यह 1940 और 50 के दशक की राजनीतिक आवश्यकता थी. इसका संदर्भ बहुत व्यापक है. दिल्ली और श्रीनगर ने इस पर वार्ता की थी. जिस तरह से कश्मीर भारत का अंग बना और जिस वक्त बना, वह भारत के अन्य हिस्सों से अलग परिस्थिति थी. कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान का दावा और आज जिस तरह से इसे देखा गया, वह भी इसे भारत के अन्य हिस्सों से अलग बना देता है.

भारत के लोग इस बात को नहीं समझते. इसके बावजूद भी वह व्यवहारिक हिसाब से अलग नहीं है. कागजों में जम्मू-कश्मीर को थोड़ी अधिक स्वायत्ता है लेकिन व्यवहार में इसे अन्य राज्यों के मुकाबले दशकों से कम स्वायत्ता मिली है. अब जबकि इसका दर्जा घटाकर केंद्र शासित प्रदेश कर दिया गया है तो स्वायत्ता और भी कम हो गई है.

एमएमः कश्मीरियों से किसी भी तरह की बातचीत नहीं की गई. हमें नहीं पता कि आज कश्मीर में हालात क्या हैं? जिस तरह से यह किया गया उसे आप कैसे देखते हैं?

एडब्ल्यूः एक चीज जो हम नहीं जानते वह यह कि जमीन पर क्या हो रहा है क्योंकि इंटरनेट और टेलीफोन पूरी तरह से बंद कर दिए गए हैं. यह ठीक बात नहीं है. सुरक्षा के हिसाब से मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि राजनीतिक नेताओं जैसे महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला को नजरबंद करना जरूरी था. यह बहुत खतरनाक कदम है.

यदि आप इसकी तुलना 1990 के दशक में की गई सैनिक तैनाती से करें तो मुझे लगता है कि आज सेना की उपस्थिति थोड़ी कम है लेकिन फिर भी यह बड़ा सैन्य परिचालन है. इससे कश्मीरी अपने ही वतन में अनजान बन गए हैं. इससे उन्हें शक्तिहीन और अपमानित होने का एहसास हो रहा है और इससे जो आक्रोश पैदा होगा वह कभी न कभी राजनीतिक आकार ले सकता है.