बेमतलब साबित होते कश्मीर में पंचायत चुनाव

जम्मू-कश्मीर में 17 नवंबर और 11 दिसंबर के बीच पंचायत चुनाव होने हैं. कई पूर्व सरपंचों का कहना है कि वे इस बार चुनावों में हिस्सा नहीं लेंगे क्योंकि अपने पूर्व कार्यकाल में उन्हें आतंकियों की हिंसा के खतरे के साथ साथ पंचायती व्यवस्था को कमजोर बनाए रखने के लिए सरकार के असहयोग का सामना करना पड़ा था. मुख्तार खान/एपी
22 October, 2018

इस साल सितंबर में जम्मू-कश्मीर के मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने राज्य में नगर निगम और पंचायत चुनाव कराए जाने की घोषणा की. नगर निगम चुनाव 8 अक्टूबर से 16 अक्टूबर के बीच आयोजित किए गए और पंचायत चुनाव 17 नवंबर से 11 दिसंबर के बीच आयोजित किए जाने हैं. इस घोषणा के कुछ दिनों बाद मैंने खालिदा बेगम से मुलाकात की. खालिदा 2011 से 2016 तक राज्य के बारामूला जिले के वागुब पंचायत की प्रधान थीं. इस बार वह चुनाव नहीं लड़ेंगी. ‘‘मुझे लगता है कि अब शायद ही कोई मुझे वोट देगा क्योंकि मुझे उनकी उम्मीदों के अनुसार काम करने नहीं दिया गया.’’ खालिदा का कहना है कि सरकारी कर्मचारियों ने उन्हें काम करने नहीं दिया. जब भी वह कार्यालय जातीं तो उनके आवेदनों और सवालों को अनदेखा कर दिया जाता. “मुझे जिस तरह का सहयोग चाहिए था वह कभी नहीं मिला.’’ 

जम्मू-कश्मीर पंचायती राज अधिनियम, 1989 के अनुसार प्रत्येक पांच साल में राज्य में तीन स्तरों के पंचायत चुनाव कराए जाने हैं. ये तीन स्तर हैं- हलका स्तर (ब्लॉक विकास परिषद और जिला विकास और योजना बोर्ड). किसी इलाके में एक गांव या सरकार द्वारा निर्धारित गांवों वाले क्षेत्र को हलका कहा जाता है. हलका के सरपंचों और पंचों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होता है और ऊपर के दो स्तरों के सदस्यों को हलका के सदस्यों द्वारा चुना जाता है. 

38 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता और वकील इरफान हाफिज कहते हैं, “मैं इसे पंचायत व्यवस्था नहीं मानता क्योंकि यह केवल एक स्तर पर सक्रिय है’’. 2011 में हुए आखिरी राज्यव्यापी पंचायत चुनाव के बाद केवल हलका ही चल रहा है. ब्लॉक विकास परिषद और जिला विकास और योजना बोर्डों के लिए चुनाव अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिए गए थे.

इस तीन स्तरीय व्यवस्था के अतिरिक्त पंचायत राज अधिनियम में पंचायत अदालत का भी प्रावधान है. प्रत्येक हलका के लिए एक पंचायत अदालत होती है जिसका नेतृत्व हलका के मतदाताओं द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित पांच सदस्य करते हैं. ‘‘पंचायती अदालत पंचायती राज व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा हैं और इस लिहाज से सरकार यहां भी बुरी तरह फेल हुई है.’’

सितंबर में, मैंने हलका के उन चार पूर्व सरपंचों से मुलाकात की जो 2011 से 2016 तक सरपंच रहे थे. इन सभी ने पंचायत व्यवस्था की अक्षमता की शिकायत की. उन्होंने मुझे बताया कि अपने कार्यकाल के दौरान उन्हें आतंकवादी संगठनों द्वारा हिंसा के खतरों को झेलना पड़ता था और पंचायत संस्थानों को सशक्त बनाने के लिए सरकार की अनिच्छा से भी निपटना पड़ता था. बुलगाम गांव के सरपंच रहे निसार अहमद ने कहा, ‘‘सरकारी अधिकारियों ने हमें कभी भी लोगों के प्रतिनिधियों के रूप में मान्यता नहीं दी. वो लोग हमें कुत्तों के जैसा समझते थे.’’ साथ ही सरपंचों को उन नागरिकों के क्रोध का सामना भी करना पड़ता था जो लोग आतंक रोधी भारत सरकार के काम की ज्यादतियों से परेशान थे. ‘‘हमारे अपने लोग हमें ‘गद्दार’ कहते थे.

1935 में ब्रिटिश सरकार ने जम्मू-कश्मीर में पंचायत व्यवस्था की शुरुआत की. 50 साल पहले 73वें संविधान संशोधन के बाद इसे औपचारिक रूप से देश के बाकी हिस्सों में लागू किया गया. स्थापना के समय पंचायत व्यवस्था को समावेशी लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए नहीं बल्कि न्यायिक और नागरिक प्रशासन के लिए ब्रिटिश सरकार के विस्तारित अंग के रूप में इस्तेमाल किया जाता था. 

आखिरी बार 1977 में राज्य के सभी निर्वाचन क्षेत्रों के लिए पंचायत चुनाव आयोजित किए गए. इसके बाद, राज्य में बड़े पैमाने पर विद्रोह के भड़कने के चलते दोबारा 2001 में ही पंचायत चुनाव हो सके. तो भी ये चुनाव गुप्त मतपत्र के माध्यम से किए गए जबकि इससे पहले के चुनाव हाथ उठाकर कराए जाते थे. क्योंकि क्षेत्र आतंकवाद की गिरफ्त में था इसलिए अधिकांश सीटें खाली रहीं.

एक दशक के लंबे समय तक स्थगित रहने के बाद 2011 के अप्रैल-जून में हलका चुनाव हुए. आतंकवादी संगठनों की हिंसा के खतरे के बावजूद चुनावों में 79 प्रतिशत का भारी मतदान हुआ. राज्य सरकार ने ब्लॉक विकास परिषद के लिए भी चुनाव आयोजित कराने की घोषणा की. हालांकि, पंचायत संस्थानों के कामकाज के जरिए सामान्य स्थिति बहाल करने के प्रयास असफल साबित हुए.

2011 के चुनावों के बाद आतंकवादी संगठन लगातार सरपंचों को धमकाते रहे. कई सरपंचो ने इस्तीफा दे दिया और कम से कम दो मारे गए. ज्यादातर पंचायत कार्यालयों को निर्माण के समय ही जला दिया गया. जिन कार्यालयों का निर्माण हो पाया वे चित्रकारी के जरिए सरकार के खिलाफ आक्रोश प्रकट करने की जगह बन गए. लोगों ने दीवारों को नए आतंकवादी संगठन अंसार गजवत उल हिंद के नेता जाकिर मूसा की तस्वीरों और पाकिस्तान के झंडों से रंग दिया. चूंकि विभिन्न गुटों ने पंचायत चुनावों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिला उम्मीदवारों और लोगों के लिए आरक्षण की मांग की थी इसलिए राज्य सरकार ने अनिश्चित काल तक के लिए ब्लॉक विकास परिषद के चुनावों को स्थगित कर दिया.

हालांकि जिन स्थानीय लोगों से मैंने बात की उनका मानना है कि इन चुनावों के स्थगन के पीछे गलत इरादा था. बारामूला जिले के वानीगाम बाला गांव के पूर्व सरपंच मोहम्मद असलम कहते हैं, “अधिकारियों की वजह से ही पंचायत व्यवस्था का विस्तार और संविधान के 73वें संशोधन के कार्यान्वयन में रुकावट पैदा हुई.” असलम का मानना है कि सरकार विद्रोह से प्रभावित राज्य में जमीनी स्तर पर अपना नियंत्रण नहीं छोड़ना चाहती है. “अगर उन्होंने इसे तीन-स्तरीय प्रणाली बना दिया तो ग्रामीणों के ऊपर जो विधायकों की शक्ति है वह स्थानीय सरकार के हाथों में- जो सही होता है- हस्तांतरित हो जाती.’’

बारामूला के संग्राम गांव के सरपंच अहमद भी उपरोक्त कथन पर सहमति व्यक्त करते हैं. उनका कहना है कि सरकार द्वारा नियुक्त ब्लॉक विकास अधिकारियों ने उन्हें अपमानित किया और जब वे उनके लिए काम कर रहे थे तो उन्होंने वहां व्याप्त भ्रष्टाचार को देखा. ‘‘हमें जब अधिकारियों के हस्ताक्षर की जरूरत होती तो वे इसके बदले में हमसे सिगरेट के पैकेट लेकर आने को कहते. मुझे समझ में नहीं आता है कि क्या ये मेरी ईमानदारी और समाज सेवा का इनाम है?’’

कहा जा रहा है कि ये चुनाव स्थानीय सरकारों को सशक्त करने के लिए हो रहे हैं लेकिन पूर्व सरपंचों के लिए ‘पंचायत’ एक डरावना और हताश करने वाला शब्द है. 2011 के चुनावों के बाद, आतंकवादी संगठनों ने लगातार सरपंचों को धमकाया. कई सरपंचों ने अपने कार्यकाल के मध्य में ही इस्तीफा दे दिया और कुछ मारे गए या घायल हुए. शोपियां जिले के एक गांव के पूर्व सरपंच अब्दुल रशीद उन लोगों में से एक हैं जिन्होंने कार्यकाल के मध्य में इस्तीफा दे दिया था. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वह आगामी चुनावों में भाग लेंगे तो उन्होंने कहा कि वो अपने जीवन को फिर से जोखिम में नहीं डालना चाहते. ‘‘मैं एक लोहार हूं और अपने पेशे को जारी रखूंगा. मुझे अपने परिवार, पांच बेटियां और एक बेटे के बारे में सोचना है.’’

2014 में, बारामूला जिले के हेगम के सरपंच गुलाम नबी बेदार की उनके घर के बाहर हत्या कर दी गई. उनकी पत्नी वजिरा नबी याद करती हैं, ‘‘चार नकाबपोश लोग उनके घर आए और पूछा कि क्या घर में बाहर से मेहमान आए हैं. उन लोगों ने घर की तलाशी लेने का नाटक किया और बेदार को बाहर ले गए.’’ इसके कुछ मिनट बाद वजिरा और उनकी बेटियों ने गोली चलने की आवाज सुनी. जिसके तुरंत बाद बेदार का शव घर के बाहर सड़क पर पड़ा मिला. ‘‘बस अल्लाह जानता है कि हम लोगों को क्या क्या सहना पड़ा है. उस वक्त से आज तक हम लोग अवसाद से ग्रसित हैं.’’ बेदार की मौत के बाद उनकी पांच बेटियों को पढ़ाई छोड़नी पड़ी. उनमें से एक ने कहा, ’’उन्होंने एक गोली चलाई लेकिन कई लोगों को मार डाला.’’ ‘‘उस घटना के बाद से हमारा जीवन नरक हो गया है.’’

पंचायत चुनाव 2016 में होने वाले थे लेकिन जुलाई 2016 में हिजबुल के पूर्व कमांडर बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत के बाद राज्य भर में बड़े पैमाने पर आंदोलन और विरोध प्रदर्शन हुए. नतीजतन, चुनाव रद्द कर दिए गए.

अब जबकि चुनाव कार्यक्रम की घोषणा की जा चुकी है, तो भी जम्मू कश्मीर के लोगों के लिए एक सक्रिय स्थानीय सरकार के गठन में कई स्तरों पर बाधाएं हैं. ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के दो मुख्य धड़ों में से एक आवामी एक्शन कमिटी (यह धार्मिक और सामाजिक समूहों का एक गठबंधन है जो कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार की वकालत करता है) के चेयरमैन मीरवाइज उमर फारूक ने हाल में एक जुमे के खुतबा में कहा था, “हम कश्मीरियों को किसी भी तरह के चुनाव- नगर पालिका, पंचायत या विधान सभा- में दिलचस्पी नहीं है.’’ 16 सितंबर को पंचायत चुनावों के एलान के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर हिजबुल के कमांडर रेयाज नायकू का ऑडियो संदेश शेयर किया जाने लगा. नायकू ने लोगों को धमकी दी कि जो लोग चुनाव लड़ेंगे उन पर एसिड (तेजाब) से हमला किया जाएगा और कहा, ‘‘नामांकन फॉर्म दाखिल करने जब आओ तो कफन भी साथ लेते आना.’’

अहमद ने कहा, ‘‘अगर एक सरपंच मारा जाता है तो किसी को फर्क नहीं पड़ता. वह बस एक नागरिक होता है.’’ अहमद ने हिंसा के खतरों के बीच पंचायत चुनाव कराने के लिए सरकार के दोगलेपन की भी आलोचना की. 2015 में मुख्यमंत्री बनने के बाद महबूबा मुफ्ती ने अनंतनाग लोक सभा सीट खाली कर दी. मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने अभी तक साफ नहीं किया है कि वे लोग उपचुनाव न करा कर क्यों इस साल पंचायत चुनाव करा रहे हैं. अहमद ने बताया, ‘‘एक संसदीय सीट तीन साल से खाली है क्योंकि सरकार के अनुसार स्थिति चुनाव के लिए उपयुक्त नहीं है. फिर पंचायत चुनावों के लिए हालात कैसे ठीक हैं?’’

श्रीनगर में कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय में कानूनी अध्ययन के स्कूल के डीन शेख शौकत हुसैन के मुताबिक सरकार यह मान रही है कि स्थानीय चुनावों के माध्यम से वह अधिक संख्या में मतदाताओं से जुड़ सकती है. ‘‘उन्हें लगता है कि वे इन स्थानीय निकायों के चुनावों के माध्यम से लोगों के समूह का निर्माण कर पाएंगे और बड़े चुनाव में इन समूहों को मोबलाइज कर सकेंगे. यह 2019 के चुनावों की तैयारी है.’’

इस साल अक्टूबर में 13 वर्षों के अंतराल के बाद राज्य में नगरपालिका चुनाव भी आयोजित किए गए. जम्मू-कश्मीर में स्थानीय निकाय चुनाव में भाग लेने वाले प्रत्येक उम्मीदवार को 10 लाख रुपए का बीमा कवर देना की योजना भी केंद्र सरकार बना रही है. एनडीटीवी की एक रिपोर्ट के मुताबिक कश्मीर में 598 वार्डों पर हुए नगर निगम चुनावों में 231 उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हुए और 181 वार्डों में कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं हुआ. इसके अलावा राज्य व्यापी मतदान का प्रतिशन 35.1 रहा, जो बेहद कम है. हुसैन ने बताया, ‘‘यह अलगाव की हद को दिखाता है और ग्रामीण इलाकों में यह अलगाव अधिक है. उन्होंने सोचा था कि वे  बड़े स्तर पर मतदान सुनिश्चित करने में सक्षम होंगे, लेकिन इसका उलटा हो गया.’’