खान मार्केट मानसिकता क्या है और कैसे काम करती है?

जब तक पुराना एलीट अपने कुकर्मों से अनजान बना रहेगा और खुद को दुरुस्त करने की कोशिश नहीं करेगा तब तक उसकी खान मार्केट मानसिकता उत्तर प्रदेश और देश को नहीं समझ सकेगी, और निश्चित ही तब तक वह हमारे चारों तरफ फैली घृणा को चुनौती दे सकने लायक कुछ नहीं कर सकेगा. डेनियल बेरेहुलाक / गैटी इमेजिस

हाल में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले मैंने उत्तर प्रदेश की एक संक्षिप्त यात्रा की थी. मैं वहां से इस बात को मान कर लौटा था कि भारतीय जनता पार्टी आसानी से विधानसभा चुनाव जीत रही है. लेकिन मैं यह देख कर हैरान रह गया कि लोग मेरे अनुभव स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. दिल्ली के पत्रकार ही नहीं, बल्कि ऐसे लोग भी जो दो दशकों से दिल्ली से बाहर नहीं निकले हैं, बीजेपी की तय हार का पाठ मुझे पढ़ा रहे थे.

साफ है कि हमारे चारों ओर जो घटित हो रहा है उसे समझना, ऐसे पत्रकारों के लिए भी, जिनका मैं सम्मान करता हूं, मुश्किल होता जा रहा है. भारत आज अभूतपूर्व रूप से बंटा हुआ है और दो पक्षों के बीच संवाद मुश्किल होता जा रहा है. इन हालात में यदि हम दिल्ली से निकल कर उत्तर प्रदेश जाएं और ठीक उन्हीं लोगों से मिलें जो हमें वही सुनाते हैं जो हम सुनना चाहते हैं तो स्वाभाविक ही है कि हम गच्चा खा जाएंगे.

खान मार्केट मानसिकता कहने पर उसी आरोप को वजन देने का खतरा है जो उन लोगों पर लगाया जाता है जो पहले से ही सताए जा रहे हैं, और ये वही लोग हैं जो आज भी हमारे संविधान के महत्व को समझते हैं. ठीक इसी कारण से मेरे लिए और जरूरी हो गया है कि हम मोदी के खान मार्केट गैंग के बिल्ले का सामना करें.

2014 में मोदी की जीत के बाद, जबकि क्या नैतिक है और क्या अनैतिक यह बात इतनी स्पष्ट हो गई है, और जब अच्छे और बुरे का फर्क साफ हो चुका है, मैंने महसूस किया कि ऐसे वक्त में लोग अपनी ही कमजोरियों पर से नजर चुराने लगते हैं. जब मोदी आप पर हमला करते हैं और आप बिना अपनी कमजोरियों पर गौर किए या बिना अपने अंदर झांके, उस हमले को अपने लिए सम्मान मानने लगते हैं तो इससे मोदी का ही फायदा होता है.

खान मार्केट गैंग को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इतनी तवज्जो क्यों देता है? इस बात को ठीक तरह से समझने के लिए पिछले तीन दशकों के देश के राजनीतिक इतिहास को समझना जरूरी है. बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद ऊपरी जातियों का देश पर जो वर्चस्व बना हुआ था, उसे आजादी के बाद पहली बार चुनौती मिली. हालांकि ऐसा होने के बाद भी ऊपरी जातियों का एक छोटा सा हिस्सा, जो धर्म धर्मनिरपेक्ष प्रोजेक्ट का हिस्सा था, बीजेपी का विरोध करता रहा, लेकिन अधिकांश ने बीजेपी का स्वागत किया क्योंकि उसे लगा कि बीजेपी उसके ही हिंदू महानताबोध को प्रतिबिंबित करती है.

नया शासक “खान मार्केट गैंग” से जिस तरह की घोर नफरत करता है उसकी जड़ वे अलग-अलग चयन हैं जो पुराने और नए एलीटों ने किए हैं. यह ठीक उसी तरह कि घृणा या हिकारत है जो किसी भी नए और असुरक्षित एलीट को पुराने से होती है. नए एलिट के लिए जरूरी होता है कि वह पुराने एलीट को प्राप्त उस जातीय विशेषाधिकार को खत्म कर दे जिसकी दुहाई अब वह खुद देकर सभी हिंदुओं का हिमायती होने का दावा करता है.

पुराना उदारवादी हिंदू एलीट धार्मिक रूप से अधिक समावेशी था, और मुस्लिम अशरफ या सिख खत्री जैसे दूसरे धर्मों की अगड़ी जातियों को अंगीकार करता था. इससे उसे यह भ्रम हो गया कि वह जाति से ऊपर उठ चुका है. यह ठीक वैसा ही है कि कोई श्वेत अमरीकी जिसने अपने आस-पास केवल श्वेत लोग ही देखे हों, दावा करे कि वह रंगभेदी नहीं है और उसके लिए नस्ल अहमियत नहीं रखती.

यह सही है कि पुराना एलीट जाति के सबसे खास गुण यानी अपनी ही जाति में मां-बाप के आशीर्वाद से विवाह रचाने के कायदे से कुछ हद तक आजाद हो सका. जाति की असमानता सीढ़ियों की भांति होती है और इसका सबसे ज्यादा लाभ ब्राह्मण और बनिया समुदायों को मिलता है. लेकिन इसके बावजूद जाति इसलिए बची हुई है क्योंकि वह सबसे निचले पायदान तक असमानता को बनाए रखती है और निचली श्रेणी में भी लोग अपनी-अपनी जातियों में मां-बाप के आशीर्वाद से ही विवाह रचाते हैं.

पुराने एलीट को यदाकदा अपनी पसंद से शादी कर लेने का जो विशेषाधिकार प्राप्त था उसने उसके इस भ्रम को और हवा दी कि आज की दुनिया में जाति का कोई मतलब नहीं रह गया है. उन्हें कभी समझ ही नहीं आया कि जिन जातियों में वे “मर्जी” से शादियां कर रहे हैं, वे उनकी अपनी जातियां हैं और जो दुनिया उन्होंने अपने आस-पास रचाई है वह पूरी तरह से ऊपरी जातियों की दुनिया है जिसमें भारत की विविधता के लिए कोई जगह नहीं है. ऐसा करते हुए कांग्रेस के साथ नत्थी इस एलीट का भविष्य भी डांवाडोल होने लगा.

2014 में कांग्रेस पार्टी की हार से स्पष्ट हो गया कि अधिकांश ऊपरी जातियों ने उससे किनारा कर लिया है. इसके साथ ही ब्राह्मण और बनिया समर्थन से प्राप्त होने वाला आर्थिक और बौद्धिक समर्थन भी खत्म हो गया. आदिवासी दलित के बीच उसकी पारंपरिक पकड़ भी कमजोर पड़ गई. उस चुनाव में हार के बाद यह साफ हो गया कि अब पार्टी को ऊपरी जातियों का समर्थन फिर दुबारा नहीं मिलने वाला. ऐसी स्थिति में वह कम से कम इतना तो कर ही सकती थी कि पार्टी में देश की विविधता को स्थान देती.

मोदी के सत्ता में आने के बाद से मैं शिक्षाविदों, पत्रकारों, वकीलों, नागरिक समाज संगठनों के कई आयोजनों में गया हूं जिसमें इस बात की चर्चाएं होती हैं कि आगे क्या किया जाए. लेकिन मैंने पाया कि इनमें मौजूद लोग कभी खुद की कमजोरियों के बारे में बात नहीं करते. वे कभी यह समझने की कोशिश भी नहीं करते कि उनके ये समूह देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते. वे इस विडंबना से आंखें मूंदे हुए हैं. फिर ऐसे लोग चीजों को कैसे आगे ले जा सकते हैं?

2014 के बाद के सालों में इस नए एलीट ने अपने आधार में विस्तार किया है. इस नए एलीट ने अपनी वास्तविक शक्ति को कमजोर किए बिना दलित और पिछड़ा वर्ग में अच्छी-खासी पकड़ बना ली है. इसे बीजेपी के अंदर लोकतंत्र के मजबूत होने के रूप में न देख कर मजबूत लोकतंत्र के हिसाब से बीजेपी के खुद को ढाल लेने के रूप में देखा जाना चाहिए.

बीजेपी दलित और पिछड़ा वर्ग को प्रशासनिक कार्यभार में कांग्रेस से अधिक प्रतिनिधित्व जरूर देती है लेकिन संघ की ब्राह्मणवादी असमानता पर इन वर्गों का ध्यान न चला जाए इसलिए वह मुस्लिम विरोधी माहौल बनाए रखती है. इस बीच पुराना एलीट अभी भी ऐसा नाटक कर रहा है मानो कुछ बदला ही नहीं है.

2014 से आज आठ साल बीत चुके हैं, और पुराने एलीट के लिए इतना समय काफी था कि वह अपने में विविधता और समावेशिता ले आए. लेकिन देखिए कांग्रेस के जी-23 नाम. इनमें एक तिहाई ब्राह्मण हैं और आधे ब्राह्मण या ठाकुर. इसके अलावा एनडीटीवी के अपने विज्ञापनों में दिखने वाले एंकरों के नाम भी पढ़िए. ज्यादातर ये एंकर ब्राह्मण हैं और सभी के सभी ऊपरी जाति के. इसके अलावा आप नए डिजिटल पोर्टलों की स्थित पर भी गौर फरमाएं. वहां भी वही पुराना जातीय समीकरण दिखाई पड़ता है. अशोका यूनिवर्सिटी के शिक्षकों की लिस्ट चैक कर लीजिए या प्रमुख नागरिक समाज या वामपंथी संगठनों के शीर्ष के नामों की, इनमें भी वही पुराना जातीय समीकरण दिखाई देगा.

जरूरी था कि पेशेवर क्षेत्रों में विविधता को बढ़ाना अनिवार्य किया जाता. अब तक तो इसके परिणाम आने शुरू भी हो जाते. लेकिन साफ दिख रहा है मोदी का विरोध करने वाला शहरी लिबरल विपक्ष इस बारे में आंखे मूंदे बैठा है.

अब मैं किसी आयोजन में जाता हूं तो मेरे स्वभाव में आ गया है कि मैं वहां मौजूद लोगों की जातियों पर गौर करने लगा हूं. देश के अधिकांश लोगों के लिए, निश्चित रूप से जमीन पर काम करने का थोड़ा-बहुत अनुभव रखने वाले किसी भी पत्रकार के लिए, यह पता लगा पाना कठिन नहीं है.

लेकिन जिस जगह इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है वहीं इस संबंध में जागरूकता की कमी है. कुछेक मौकों पर जब यह बात उठती है तो कहा जाता है कि “हम कैसे किसी की जाति पूछ सकते हैं?” सवाल है कि क्या जाति पूछने की जरूरत है? हमें बस लोगों के नाम ही तो जानने हैं. इसके बाद भी अगर लोग बेखबर हैं तो मान कर चलिए कि वे कम से कम भारत की राजनीति को तो नहीं ही समझते.

जाति पर गौर करने के मेरे स्वभाव ने मुझे एहसास कराया है कि लिबरल स्पेस जैसे के तैसे हैं और ये बदलेंगे भी नहीं. ऐसी सैटिंग में आप जलवायु परिवर्तन, निजता, जेंडर, खानपान की आजादी या अर्थतंत्र के बारे में गंभीर चर्चा और तर्क-वितर्क सुन सकते हैं लेकिन उन्हीं कमरों में दिख रही निर्जीव एकरूपता पर कोई बात नहीं करता.

भारत एक विशाल देश है और इसलिए इलाकाई और धार्मिक विविधता को बड़ी आसानी से प्रतिनिधी विविधता मान लिया जाता है. जाति के विशेषाधिकार पर खड़ी विविधता देश की विविधता का प्रतिनिधित्व नहीं करती बल्कि यह उन्हीं लोगों की प्रतिनिधि विविधता है जिन्होंने इस देश पर हमेशा राज किया है.

नया एलीट पुराने से अलग नहीं है बल्कि यह उससे ज्यादा खतरनाक और अधिक चालू है. वह इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि नीचे का तबका उसे उखाड़ न फेंके खूब खून पसीना बहा रहा है. मुस्लिम विरोध को लेकर उसकी वैचारिक और सांगठनिक प्रतिबद्धता यही दिखाती है. जब तक पुराना एलीट अपने कुकर्मों से अनजान बना रहेगा और खुद को दुरुस्त करने की कोशिश नहीं करेगा, तब तक उसकी खान मार्केट मानसिकता उत्तर प्रदेश और देश को नहीं समझ सकेगी, और तब तक निश्चित ही वह हमारे चारों तरफ फैली घृणा को चुनौती दे सकने लायक कुछ नहीं कर सकेगा.