"नवउदारीकरण के खिलाफ उठे बिना परिवर्तन असंभव है," कोबाड गांधी

आभार : कोबाड गांधी

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कोबाड गांधी एक कम्युनिस्ट और जाति-विरोधी कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने दिल्ली, आंध्र प्रदेश और देश की कई अन्य जेलों में भारत के सबसे हाई-प्रोफाइल राजनीतिक कैदियों में से एक के रूप में एक दशक बिताया. जब उन्हें पहली बार 2009 में गिरफ्तार किया गया था, तो उन पर "वरिष्ठ माओवादी नेता" होने का आरोप लगाया गया था. अब उन आरोपों से अदालतों ने उन्हें बरी कर दिया है. आखिरकार 2019 के अंत में जेल से बाहर आकर उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को सिलसिलेवार लिखना शुरू किया. साम्यवाद की ओर अपने झुकाव, महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स की स्थापना, अपनी दिवंगत पार्टनर अनुराधा और देश की विभिन्न जेलों की भौतिक स्थितियों के बारे में उन्होंने​ अपनी किताब में लिखा है. पिछले महीने फ्रैक्चर्ड फ्रीडम: ए प्रिजन मेमोअर नामक से उनकी किताब प्रकाशित हुई है. इस साक्षात्कार में कानून की छात्र और स्वतंत्र पत्रकार सबा गुरमत ने किताब और विभिन्न मुद्दों पर गांधी से बात की.

सबा गुरमत: अपनी किताब में जनशक्ति के गठन (1990 के दशक में कई कम्युनिस्ट संगठनों के विलय) के बारे में चर्चा करते हुए आप बताते हैं कि उन दिनों ज्यादातर कम्युनिस्टों के लिए जाति कितनी "तिरस्कृत" चीज थी. आप बताते हैं कि दलित पैंथर्स का समर्थन करने को लेकर कम्युनिस्ट हलकों और जनशक्ति के नेताओं में टकराव था. आपने इस पर एक लेख भी लिखा था लेकिन वह गायब कर दिया गया. क्या आप हमें उन परिस्थितियों के बारे में थोड़ा और बता सकते हैं? आज भी कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व ज्यादातर ब्राह्मणों के हाथों में है और जाति-संबंधी मुद्दों को उठाने में ये पार्टियां हिचकती हैं. क्या आप उनके दृष्टिकोण में कोई बदलाव देखते हैं?

कोबाड गांधी: चाहे वह जनशक्ति ग्रुप रहा हो या कुछ मार्क्सवादी-लेनिनवादी मोर्चे,मुझे लगता है कि जाति के सवाल की नजरअंदाजी सैद्धांतिक स्तर की तुलना में व्यावहारिक स्तर पर अधिक थी. मैं पैंथर्स के नेताओं को जानता था और मैं भी जमीनी स्तर पर काम कर रहा था क्योंकि हम वर्ली में मायानगर में थे जहां शिवसेना के साथ संघर्ष हुआ था. इसलिए मैं सिद्धार्थ विहार कॉलेज के हॉस्टल में (दलित पैंथर्स के) नेताओं से मिला. मैंने इस मुद्दे का अध्ययन किया और कई कम्युनिस्टों के साथ इस पर बात भी की. उस समय वास्तव में कुछ ने यह भी कहा, "शिवसेना वाले लुंपन हैं, मराठा- मराठा करने वाले लुंपन हैं और इसी तरह ये दलित-दलित करने वाले लुंपन हैं." लेकिन मैं वैसे भी जमीनी स्तर पर काम कर रहा था और मुझे यकीन था कि जाति उत्पीड़न बहुत अधिक था. इसलिए, जब मैंने देखा कि हम जिन एमएल हलकों या समूहों के संपर्क में थे वहां से कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही है तो मैंने लिखना शुरू किया और अनुराधा ने भी यही किया. हम दोनों ने साथ मिलकर फ्रंटियर प्रकाशन में लिखा: "जाति के सवाल पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण से ध्यान दिया जाना क्यों जरूरी है." मुझे लगता है कि 1978 में ​लेख आया था. इसी तरह, मराठी प्रकाशन सत्यशोधक मार्क्सवाद में एक लंबा लेख छपा.

उस समय महाराष्ट्र में काफी मंथन चल रहा था. नामांतर आंदोलन हिंदूवादी पहे​ली के खिलाफ था. यह मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदल कर बीआर अंबेडकर के नाम पर किए जाने का आंदोलन था. इसलिए उन मार्क्सवादियों ने भी जाति की ओर रुख नहीं किया क्योंकि वास्तव में यहां दलित नेतृत्व वाले आंदोलन व्यापक थे. लेकिन देश के बाकी हिस्सों में क्या स्थिति थी मैं नहीं जानता था. एमएल के नेतृत्व का अधिकांश हिस्सा आंध्र के लोगों से बना था और मुझे नहीं लगता कि तब आंध्र के लोगों के बीच इस तरह का मंथन हुआ था. प्रसिद्ध कम्युनिस्ट क्रांतिकारी कवि गदर दलित थे और अधिकांश प्रसिद्ध गायक और सांस्कृतिक मंडली भी ऐसी ही थी: अह्वाहन नाट्य मंच, विलास घोगरे, संभाजी भगत, कबीर कला मंच, ये सभी क्रांतिकारी गायक और प्रतिभाशाली कलाकार थे (जिन्होंने) जिस भी भाषा में प्रदर्शन किया, दर्शकों का दिल जीत लिया. मुझे लगता है कि आप आप एक व्यावहारिक स्तर पर देखें, तो मैं अब इन तर्कों को भी सुनता हूं कि इनमें से कुछ अत्यधिक प्रतिभाशाली लोग बहुत गरीब थे और भयानक परिस्थितियों में रहते थे. इसलिए स्वाभाविक रूप से मुझे लगता है कि वह अपनी स्थिति में बदलाव देखना चाहते थे जिसे वह कम्युनिस्ट आंदोलनों के भीतर नहीं देख सके. इसलिए वह निकल गए, ऐसा भी हुआ है.

एक तरफ वामपंथी लोग अपने एजेंडे में जातिवाद को नहीं ले रहे थे, दूसरी तरफ जो लोग दलितों के बीच पहचान की राजनीति को बढ़ावा देते थे, वे कहते रहे कि सभी वामपंथी ब्राह्मणवादी हैं. इस बात ने दलित और कम्युनिस्ट आंदोलनों के बीच दूरी ही बढ़ाई है. लेकिन मुझे लगता है कि तीन कारण हैं कि वामपंथी इसे एजेंडे पर नहीं ले रहे थे. पहला तो यह कि भारत का वामपंथ बहुत ज्यादा लकीर का फकीर है. उन्होंने मार्क्सवाद, माओवाद या इसे जो कुछ भी कहें, की यहां की स्थिति के अनुसार व्याख्या नहीं की. उन्होंने आंख बंद कर चीन-रूस से उधार लिया है लेकिन उन्होंने जाति के बारे में कुछ नहीं कहा जो भारत की परिघटना है. इसलिए वह इसकी संकल्पना ही नहीं कर पाए.

दूसरा पहलू यह है कि दुनिया भर में ज्यादातर वामपंथी आंदोलन छात्रों द्वारा शुरू किए गए और इस शिक्षा प्रणाली की प्रकृति के कारण इसमें ज्यादा संख्या उच्च जातियों की हैं. यह महज एक सवाल नहीं है कि नेता ब्राह्मण ही होते हैं क्योंकि बात यह है कि जब हमारी शिक्षा प्रणाली उच्च जातियों को बेहिसाब लाभ पहुंचाती है तो मजबूरी है कि नेतृत्व भी उन्हीं से आएगा. अगर आप शिक्षा प्रणाली को बदल देते हैं, तो इससे सब कुछ बदल जाएगा. असली समस्या यह है कि नेता अपनी सोच को पूरी तरह से सुधारने और अपनी सोच में उलझे अपने पूर्वाग्रहों को जड़ से उखाड़ फेंकने में सक्षम नहीं थे.

मैंने बहुत बाद में मनोविज्ञान के दायरे में इसे समझने की कोशिश की. हमारे विचारों में से कई बचपन से हमारे दिमाग में हैं, जिसे फ्रायड ने "अवचेतन मन" कहा और ये हमारे जीवन के पहले पांच से दस वर्षों में बहुत गहराई से मन में प्रोग्राम्ड हो जाते हैं. तो, उस वक्त जो भी प्रोग्राम किया जाता है वह हमारे परिवार के वातावरण और अन्य वातावरणों से भी कि आप किसके साथ बातचीत करते हैं, आपके अवचेतन में गहराई से अंतर्निहित होता है. मार्क्सवादियों के साथ दिक्कत यह है कि उन्होंने पढ़ा हुआ है कि सामाजिक अस्तित्व चेतना को निर्धारित करता है. हमारे अवचेतन पर बचपन का क्या प्रभाव है वे इसके बारे में नहीं सोचते. इसी के चलते हमारे अपने हलकों में भी जाति और पितृसत्ता साफ तौर पर दिखाई देती है. भले ही सूक्ष्म तरीकों से, न की पूरी तरह से. एक ओर यह मनोवैज्ञानिक अवचेतन गहराई से काबिज है और दूसरी ओर हमारा सामाजिक वातावरण भी बहुत सामंती है. इसलिए महज विचारधारा में बदलाव खुद ब खुद हमारी सोच और भावनाओं को नहीं बदलता. मुझे सुजाता गिडला की किताब [एंट्स अमंग ऐलिफेंट्स] याद आती है, कॉमरेड सत्यमूर्ति की कहानी बहुत दिलचस्प है जिसमें बताया है कि रेड्डी जाति कैसा व्यवहार करती है. वे वैसे तो अनुसूचित जातियों के प्रति उदार थे लेकिन उन्हें अपने घर पर आमंत्रित नहीं करते थे. तो वह इस तरह के "उदार" थे इससे आगे नहीं. यही बात पितृसत्ता के लिए भी है- इस हद तक "उदार" लेकिन इससे ज्यादा नहीं. अब अगर आप हिंदी बेल्ट में जाते हैं तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भी ऐसे सामाजिक सुधार के आंदोलन नहीं हुए हैं जो महाराष्ट्र में हुए थे. आप जातिवाद और पितृसत्ता जैसे मुद्दों पर "उदार" सोच नहीं पाएंगे. यह बेशर्म ब्राह्मणवाद है. 

तीसरा कारण है नेतृत्व की "व्यावहारिकता." तथ्यात्मक रूप से ज्यादातर (कम्युनिस्ट कैडर) ओबीसी हैं, दलित केवल अल्पसंख्यक होंगे. इसलिए उनकी जातिगत भावनाएं मजबूत हुईं. मजदूर-वर्ग के स्तर पर, आपके आंदोलन में कई सारे लोग सिर्फ आर्थिक मांगों के चलते हैं. किसान संघों को देखिए, वे जाट और गुर्जर जातियों के वर्चस्व वाले हैं. मजदूर वर्ग के ट्रेड-यूनियन आंदोलन को देखिए, इन सभी में ओबीसी अधिक हैं. और अगर आप आंदोलनों को बताना शुरू करते हैं कि "आपको अपनी जातीय भावनाओं को छोड़ना होगा, आपको यह करना होगा, आपको वह करना होगा," तो वे किसानों के आंदोलन या ट्रेड यूनियनों की आर्थिक मांगों से भी दूर भाग सकते हैं. इसलिए, ज्यादातर नेतृत्व सोचता है कि “जाने दो यार अभी के लिए, इकोनॉमिक चीज अभी उठाते हैं, बाद में सोचेंगे कास्ट पर.” यह एक वास्तविक व्यावहारिक समस्या है जिसे हल करना वास्तव में मुश्किल है. फिर वे आर्थिक मांगों से चिपके रहते हैं क्योंकि किसी की मानसिकता बदलना, जातिगत भावनाओं और पितृसत्ता को बदलने की कोशिश करना सिरदर्दी भरा काम है, नहीं क्या? अगर कोई अपनी पत्नी की पिटाई करता है, आप चुप रहते हैं और कहते हैं, "वह तो यूनियन लीडर है, उसके तो बच्चे हैं, उसको जाने दो. ऐसा होता ही रहता है समाज में." ये मुद्दे नीचे दबे रह जाते हैं.

अपनी तरफ से हमें महसूस करना होगा कि हमारी कमजोरी यह है कि हमने कभी भी जाति की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया. हमें खुद को सही करना होगा और यह समझना होगा कि भारत में जाति के विनाश के बिना लोकतांत्रिककरण संभव नहीं है. और यह बाद जनवादी क्रांति चाहने वाले हर मार्क्सवादी के लिए है, फिर चाहे वह दक्षिणपंथी संसदीय मार्क्सवादी हो या चरम माओवादी! यह जन्म से ही गैरबराबरी वाली, जन्म से दमनकारी, जन्म से ही विभाजनकारी होती है. हिंदू-मुस्लिम तो एक तरह का बंटवारा है लेकिन जाति भारत को तोड़ने वाला हजार तरह का बटवारा है. इसलिए देश में किसी भी लोकतांत्रिक परिवर्तन के लिए जरूरी है कि कि जाति व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए. समाप्त का मतलब सिर्फ कानूनी तौर पर अंत करना नहीं है. जाति हमारे दिमाग में है. यह हमारे व्यवहार में है. यह हमारी चेतना में है.

सबा गुरमत : आज भी मीडिया रिपोर्ट्स आपको एक नक्सली/माओवादी बताती हैं और आप अपनी किताब में इस तिरस्कार के बारे में बोलते भी हैं. उदाहरण के लिए कई लोगों ने आप पर भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य होने का आरोप लगाया था जबकि यह अप्रमाणित था. आप वास्तव में खुद को राजनीतिक रूप से कहां खड़ा करते हैं? उदाहरण के लिए क्या आप गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत बंद राजनीतिक कैदियों की कवरेज में अपनी तरह की समानताएं पाते हैं?

कोबाड गांधी : मुझे यह बिल्कुल एक जैसा दिखाई देता है. मुझे लगता है कि यह सिर्फ एक मीडिया ट्रायल है. जहां तक ​​खुद बात है तो मैं समाजवाद को मानता हूं. पूंजीवाद के पास कोई जवाब नहीं है. वास्तव में, इसने न केवल लोगों के जीवन को बल्कि पर्यावरण को भी नष्ट कर दिया है. अगर आप ऐतिहासिक रूप से देखें, तो किसी भी व्यवस्था के हाथ खून में उतने डूबे हुए नहीं हैं जितने पूंजीपतियों के, चाहे वह अमेरिका और ओशिनिया की पूरी मूल जन आबादी को खत्म कर चुका हो. यहां तक ​​कि भारत में नवीनतम पुस्तकें और सभी आंकड़े बताते हैं कि अंग्रेजों ने अकाल, युद्ध और इसी तरह से लाखों लोगों की जान ले ली. इसलिए ऐसे पूंजीपति, जिनकी विचारधारा उपनिवेशवाद की प्रशंसा करती है, उनके पास हिंसा के अलावा और कुछ है ही नहीं. और वह (उस पर) आगे बढ़े हैं. आज, पश्चिम में विकास केवल उपनिवेशवाद के कारण है.

खासकर, 1990 से अब तक नवउदारवादी दौर में लोगों का जीवन नष्ट हो गया है. पर्यावरण नष्ट हो रहा है, समाज का हर पहलू नष्ट हो रहा है, यहां तक ​​कि लोगों की मानवता भी नष्ट हो गई है. उनके चरम उपभोक्तावाद ने ऐसे लोगों को पैदा किया है जो अलगाव से भरे हुए हैं. केवल अरबपति और उनके जल्लाद ही फले-फूले हैं और कोविड के दौरान भी पनप रहे हैं.

अब सवाल यह है कि जब हम 1960 और 1970 के दशक में कम्युनिज्म में आए थे, तो लगभग आधी दुनिया समाजवादी थी. फिर भी आज, मेरे अपने जीवनकाल में सब खत्म हो गया है. जिसे चीन को कम्युनिस्ट कहा जाता था वहां अब वास्तव में अरबपतियों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है. सापेक्ष रूप से और यहां तक ​​कि भू-राजनीतिक रूप से, मैं संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ चीन का समर्थन करूंगा लेकिन यह व्यावहारिक बात है. यह विचारधारात्मक दृष्टिकोण नहीं है क्योंकि हमारे शासक पश्चिम की ओर बहुत ही दासपूर्ण ढंग से झुके हुए हैं. इसलिए हां, राजनीतिक रूप से मैं समाजवाद और आमूल-चूल परिवर्तन के पक्ष में हूं क्योंकि अब दुनिया की ज्यादातर संपत्ति कुछ मुट्ठीभर अरबपतियों के हाथों में है, सिस्टम पहले से कहीं अधिक अस्थिर है. लेकिन समाजवाद के रास्तों को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं और बहस की जा सकती है.

सबा गुरमत : "मीडिया ट्रायल" के विषय पर आपने तिहाड़ में आपके साथ ही बंद अफजल गुरु के साथ दोस्ती के बारे में भी लिखा है. उनकी फांसी के बारे में अन्याय को लेकर बहुत कुछ कहा गया है. आप लिखते हैं, "जबकि मकबूल भट्ट के लिखा प्रकाशित हुआ है, हालांकि प्रतिबंधित हैं, अफजल की डायरी कभी सामने नहीं आ पाई, शायद अब तक जला दी गई हो,” और गुरु को फांसी दिए जाने के तुरंत बाद एक मित्र को लिखे पत्र में उल्लेख किया है कि उनकी फांसी के बाद सब कुछ अस्थिर हो गया है. क्या आप इस बारे में थोड़ा विस्तार से बता सकते हैं?

कोबाड गांधी : देखिए, हमें दो दिन पहले से कुछ अहसास तो रहा था क्योंकि हम आगे की पंक्ति में थे, वहां दो ब्लॉक थे. पीछे बी-ब्लॉक है और सामने ए-ब्लॉक है. हम शुरू में ए-ब्लॉक में थे. फिर बगीचा है और जमीन के एक कोने में "फांसी कोठी" थी, जो हमेशा बंद रहती थी. 1989 के बाद से किसी को वहां फांसी नहीं दी गई थी. अचानक 7 फरवरी 2013 को हमें बताया गया कि पूरी जगह को सफेदा किया जाना है, हमें रातभर में बी-ब्लॉक में भेज दिया गया. तो हम चले गए.

तो फिर अगले दिन शुक्रवार को मुलाकात (परिवार के सदस्यों के साथ मुलाकात) हुई और जो लोग बाहर गए, उन्होंने देखा कि फांसी कोठी में बहुत सारा काम हो रहा है. हमें कर्मचारियों द्वारा बताया गया कि ऐसा इसलिए है क्योंकि कुछ अंतरराष्ट्रीय टीम आ रही थी. हमें संदेह हुआ कि फांसी होने वाली है. इसलिए अफवाह फैलाई जाने लगी कि (देविंदर पाल सिंह) भुल्लर को फांसी दी जाने वाली है. उस समय भुल्लर पहले ही मनोरोग अस्पताल में था. लेकिन अफजल ने उस समय कहा, "नहीं, अगर किसी को फांसी होनी है, तो वह मैं होऊंगा." और उस रात, मुझे सच में ऐसा लगा कि मैं उनसे उनके नोट्स मांग लूं. लेकिन फिर आप ऐसा कैसे पूछ सकते हैं? हमें यकीन नहीं था कि उन्हें ही फांसी दी जानी थी और ऐसे में किसी व्यक्ति को और परेशान नहीं करना चाहता था. लेकिन अगली सुबह करीब छह बजे उन्हें ले गए. और मैं पहले भी साक्षात्कारों में इसके बारे में बता चुका हूं, ज्यादातर कर्मचारियों और लोगों की आंखें में आंसू थे. लेकिन हां, अफजल गुरु ​बहुत ब्योरेवार डायरी लिखते थे और अगर मेरे पास वह होती, तो निश्चित रूप से उनमें बहुत सी ऐसी बाते होतीं जिन पर लोग चर्चा करते.

मकबूल भट्ट का लेखन मैंने नहीं पढ़ा. मैंने बस अफजल से सुना कि '84 में मकबूल को फांसी दे दी गई और यहीं दफना दिया गया और जाहिर है पाकिस्तान भी उनके लेखन पर प्रतिबंध लगाता है. अफजल ने मुझे बताया कि कश्मीर के आंदोलन के शुरुआती चरण से 1980 के दशक के अंत तक, जब मकबूल भट्ट को फांसी दी गई, यासीन मलिक की अगुवाई वाला जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट सबसे मजबूत था और वे लोग आजादी ​के लिए लड़ रहे थे. वे धर्मनिरपेक्ष थे, पाकिस्तान के साथ नहीं थे. अफजल ने मुझे बताया कि 1980 के दशक में कश्मीर में जेकेएलएफ से जुड़े बुद्धिजीवियों की बड़ी संख्या में पाकिस्तानियों द्वारा हत्या कर दी गई थी. उसके बाद जाकर ही, मुझे ठीक से नहीं पता की कब, यह पाकिस्तान से जुड़े आतंकवादी इस्लामिक समूह में बदल गए. अफजल पर उसमें शामिल होने का आरोप लगाया गया था. मुझे पता था कि वह एक दैनिक डायरी लिख रहे थे. लेकिन हमने उस डायरी को कभी नहीं देखा.

हमें कुछ नहीं दिया गया, कोई डायरी नहीं, कुछ भी नहीं. मैंने आखिरकार यादगार के तौर पर एक सफेद थर्मस के बारे में पूछा था, जिसमें वह चाय बनाते थे. लेकिन उन्होंने इसे देने से इनकार कर दिया. मुझे नहीं पता कि इसमें इतना हानिकारक क्या था.

सबा गुरमत : 1970 का दशक बदलाव का दौर था जिसकी खासियत थी संगठनों के नेतृत्व में जन्में आंदोलन, जैसे नक्सलबाड़ी और दलित पैंथर्स से लेकर ट्रेड-यूनियन आंदोलन तक. समय के​ साथ हमने इस तरह के आंदोलनों में गंभीर दरारों को देखा है और आज ट्रेड यूनिय​नों और श्रम कानूनों के कमजोर होते जाने को भी देख चुके हैं. आपका क्या मानना है कि इस अभूतपूर्व निजीकरण और क्रोनी कैपिटलिज्म वाली राजनीतिक अर्थव्यवस्था में आगे का रास्ता क्या होगा?

कोबाड गांधी : समस्या यही है कि आज कोई भी राजनीतिक दल इसका पूरी तरह से विरोध नहीं कर रहा है. सीपीआई और सीपीआई (एम) नवउदारवाद का विरोध करते हैं लेकिन अस्पष्ट शब्दों में. और अब स्थिति ऐसी नहीं है जैसी हमारे वक्त में थी, जब आप 'अमीर बनाम गरीब’ कहते थे. यह अब उतना आसान नहीं है. अब मुट्ठी भर कारपोरेट मालिक बाकी सभी लोगों के खिलाफ खड़े हैं. वास्तव में, यही कारण है कि मैं अब भी कहता हूं कि बजाज मॉडल क्रोनी-पूंजीवाद के अडाणी-अंबानी मॉडल से बेहतर है!

आर्थिक परिवर्तन लाने के लिए आपको एक राजनीतिक पार्टी की आवश्यकता होती है, यह अपने आप नहीं होता. इसीलिए मैं कहता हूं कि हमें एक विरोध की आवश्यकता है जिसका नवउदारवाद के खिलाफ एक स्पष्ट रुख हो. यहां तक ​​कि किसानों का आंदोलन जो अब हो रहा है, पहले यह कांग्रेस ही थी जो इस प्रकार के कानूनों को आगे बढ़ा रही थी. [पूर्व कृषि मंत्री] शरद पवार ऐसे कानूनों को आगे बढ़ाने के वास्तुकारों में से एक रहे हैं. अब वह किसानों का समर्थन कर रहे हैं; बेशक यह अच्छा ही है. लेकिन आप ऐसी चीजों पर भरोसा नहीं कर सकते. नवउदारवादी नीतियां आज पहले से कहीं अधिक आक्रामक हो गई हैं और वे आक्रामक रूप से ऐसा कर सकते हैं क्योंकि वह इसे राष्ट्रवाद के बैनर तले करते हैं. मैंने इस पर एक लेख भी लिखा था जब मैं जेल में था, जिसका शीर्षक था "सच्चे राष्ट्रवादी कृपया उठो?" उन्होंने अपना पैसा विदेश में रख लिया, वह हमारे देश को लूट रहे हैं. ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने कल जो किया था, यह क्रोनी पूंजीपति आज कर रहे हैं. यह नवउदारवाद के उपकरण हैं. तो कुल मिलाकर सवाल यह है, आज कोई राजनीतिक मंच उभरे, जिसका नवउदारवाद पर एक स्टैंड हो, बिना इसके आप बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकते.

सबा गुरमत : जब मैं आपकी किताब पढ़ रही थी तो कुछ बातों पर मेरा खास ध्यान गया, यही अनुराधा गांधी की किताब स्क्रिप्टिंग द चेंज को पढ़ने पर भी हुआ था कि उनमें ''स्व को वर्गच्युत'' करने, वर्ग के चिन्हों को मिटा देने और जनता के बीच काम करने को लेकर सजग प्रयास है. आज के ऑनलाइन युग में, जबकि विशेषाधिकार और सामाजिक न्याय से संबंधित मुद्दों के बारे में चिकनी-चुपड़ी बातें तो आम हैं, लेकिन असल में काम करने वाले बहुत कम हैं. इसके बजाय ऑनलाइन एक्टिविज्म सामने आ गया है. आपको क्या लगता है कि ऐसा क्यों हुआ?

कोबाड गांधी : देखिए बात यह है कि पहले जब हम काम करते थे तब हम सभी में बहुत ज्यादा आदर्शवाद था. हम सभी गरीबों के बीच गए और आम ढंग से रहे. लेकिन मैं जानता हूं कि बहुत कुछ अब ऐसा नहीं है. हममें से कुछ ही थे जिन्होंने किया. अनु और मैंने ऐसा इंदौरा जाकर एक दशक तक वहां रहकर किया. इसके बाद, उदाहरण के लिए, एक ऐसा मानदंड विकसित किया गया था कि अगर पति और पत्नी दोनों सक्रिय हैं, तो वह बच्चे नहीं करेंगे. हमने आखिर तक इसका पालन किया क्योंकि आपका बच्चा हो तो उस पर भी ध्यान देना होता है. या आप बच्चे को अपने माता-पिता या दादा-दादी के पास छोड़ देते हैं. यह बलिदान का सिर्फ एक पहलू है जो हमें देना था.

ऑनलाइन एक्टिविज्म और इस तरह की चीजें सुविधाजनक हैं लेकिन आप वास्तव में इससे गरीब से गरीब व्यक्ति तक नहीं पहुंच सकते हैं. ऑनलाइन मीडिया पर कौन है? आप मध्यम वर्ग के एक हिस्से से अपील कर रहे हैं, शायद गरीबों के एक छोटे समूह से भी. लेकिन आप कभी भी खुद को उनके बीच सक्रिय रूप से शामिल नहीं कर सकते. डिक्लास या वर्गच्युत करना केवल शारीरिक परिवर्तन नहीं है, इसका मतलब है सच में लोगों के बीच जाना और काम करना. देखिए, मैं इतने आत्मविश्वास के साथ चीजें क्यों लिख और कह सकता हूं, जैसे कि मैं पहचान की राजनीति के बारे में [इस साक्षात्कार में] कह रहा हूं, जो वामपंथियों के एक तबके के बिल्कुल गले नहीं उतरेगा? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने कई दशक बिताए हैं और लोगों के बीच रहे हैं! जो दूसरों ने बस किया नहीं है. ज्यादातर जो भी इस तरह की बात करेगा, वह न तो हमारी जैसी जिंदगी जी पाता और न ही जेलों में जा पाता. लेकिन अब, जैसा कि किसी ने भी अनुभव किया होगा कि मैं बहुत ज्यादा विश्वास के साथ बोल सकता हूं, भले ही मैं जो कह रहा हूं मेरे सहयोगी उसे मानने को तैयार न हों.

मुझे लगता है कि खासकर 1990 के दशक में नवउदारवाद के आने के बाद हम एक दूसरे से इतने अलग-थलग हो गए हैं. उस तरह का आदर्शवाद मैं नहीं देखता, हालांकि मुझे समाज में असंतोष दिखाई देता है. अनु और मैंने अपनी सारी संपत्ति और सब कुछ छोड़ दिया. हमारे साथ यह अच्छा था कि हम जिस परिवार से थे, वह राजनीतिक रूप से हमारे विचारों के विपरीत नहीं था और हर संभव तरीके से हमारा समर्थन करता था. यह बहुत महत्वपूर्ण है.

सबा गुरमत : आपने वैश्विक संपदा असमानता और कोविड के बाद उपजे संकट खासकर, भारतीय प्रवासी मजदूरों के बारे में जोरदार तरीके से लिखा. क्या आपने इन सभी घटनाओं के बीच फिर से राजनीतिक काम करने के बारे में सोचा है? अपनी आगे की जिंदगी को आप किस तरह से देखते हैं?

कोबाड गांधी : दरअसल मुझे लगता है कि कम्युनिस्टों को भी एक खास उम्र में रिटायर हो जाना चाहिए, उन्हें अस्सी साल ​या उससे ज्यादा होने जाने तक सक्रिय नहीं रहना चाहिए. मैं 74 साल का हूं, जल्द ही 75 साल का हो जाऊंगा और बात यह है कि मुझे अभी लेखन के जरिए और अधिक योगदान करना है. इस उम्र में जमीनी स्तर पर वापस जाने का कोई सवाल नहीं है, मुझमें अब उतनी क्षमता भी नहीं है. मेरा स्वास्थ्य अब उस तरह का नहीं है. इसके लिए बहुत कोशिश करनी पड़ेगी. और फिर मेरे काम का कोई माहौल नहीं है. अगर कोई बड़ा (राजनीतिक) माहौल हो, कोई घेरा हो या इसी तरह का कुछ तो मुझे नहीं पता. मुझे यह भी लगता है कि अपने अनुभवों को लिखकर ही मैं ज्यादा योगदान दूंगा.

इसके अलावा, मुझे लगता है कि वर्तमान में दो तरह के बुद्धिजीवी हैं. एक किसी भी चीज पर सवाल नहीं करना चाहते और दूसरे जो किसी भी आमूलचूल परिवर्तन को नकारते हैं और मोहभंग की स्थिति में हैं. यह सच है कि कम्युनिज्म को भयंकर झटके लगे हैं, लेकिन पूंजीवाद पहले से भी अधिक सड़ा हुआ और विभत्स है. समाजवाद के रास्ते ही वर्तमान संकट का जवाब मिलेगा. पूंजीवाद त्रुटिपूर्ण है. इसमें सुधार और इसे अधिक मानवीय बनाने की कोई गुंजाइश नहीं है.

परेशानी यह है कि ज्यादातर वामपंथ हद दर्जे तक बंटा हुआ है और उसका विभाजित होना जारी है. सवाल है, क्यों? जब हम बहुत बड़े उद्देश्य के लिए शामिल हुए हैं, तो हमें एकजुट होने में सक्षम होना चाहिए! अगर सामान्य उदारवादी भी किसी चीज के लिए एकजुट हो सकते हैं, तो हम जो क्रांतिकारी बदलाव लाने की बात कर रहे हैं तो फिर क्यों एकजुट होने में असमर्थ हैं? मेरा मानना ​​है कि इसका कारण जीवन और लोगों के प्रति हमारे दृष्टिकोण में है और यही कारण है कि अपनी किताब में मैं परिवर्तन की किसी भी परियोजना के लिए खुशी, स्वतंत्रता और मूल्य प्रणालियों के बारे में बात करता हूं. मुझे यकीन है कि लोग कहेंगे कि यह बहस का मुद्दा है. तो मैं कहता हूं, आइए हम इस पर बहस करें.

दूसरे प्रकार का व्यक्ति वह है जो पूरी तरह से निराशावादी हो जाता है. वह दो चरमों में जीता है. या तो अंधनिष्ठा या फिर निराशावाद. जबकि मैं हमेशा इन दो चरमों के बीच में रहा हूं. साथ ही, ज्यादातर लोग जो चार या पांच साल के बाद जेल से बाहर आते हैं, वह या तो पूरी तरह से चुप हो जाते हैं या नकारात्मक हो जाते हैं या उनका मोहभंग हो जाता है. मुझे लगता है कि समाजवाद ही सही जवाब है. इसके रास्तों को लेकर बहस की जा सकती है क्योंकि हमने देखा है कि कितने ही तरीके सफल नहीं हुए हैं. इसीलिए मैं अपनी जिंदगी के इस मोड़ पर अपने पचास साल के अनुभव और सक्रियता को समेटकर इन सवालों पर लिखना और गौर करना चाहता हूं.