"नवउदारीकरण के खिलाफ उठे बिना परिवर्तन असंभव है," कोबाड गांधी

15 अप्रैल 2021
आभार : कोबाड गांधी
आभार : कोबाड गांधी

कोबाड गांधी एक कम्युनिस्ट और जाति-विरोधी कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने दिल्ली, आंध्र प्रदेश और देश की कई अन्य जेलों में भारत के सबसे हाई-प्रोफाइल राजनीतिक कैदियों में से एक के रूप में एक दशक बिताया. जब उन्हें पहली बार 2009 में गिरफ्तार किया गया था, तो उन पर "वरिष्ठ माओवादी नेता" होने का आरोप लगाया गया था. अब उन आरोपों से अदालतों ने उन्हें बरी कर दिया है. आखिरकार 2019 के अंत में जेल से बाहर आकर उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को सिलसिलेवार लिखना शुरू किया. साम्यवाद की ओर अपने झुकाव, महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स की स्थापना, अपनी दिवंगत पार्टनर अनुराधा और देश की विभिन्न जेलों की भौतिक स्थितियों के बारे में उन्होंने​ अपनी किताब में लिखा है. पिछले महीने फ्रैक्चर्ड फ्रीडम: ए प्रिजन मेमोअर नामक से उनकी किताब प्रकाशित हुई है. इस साक्षात्कार में कानून की छात्र और स्वतंत्र पत्रकार सबा गुरमत ने किताब और विभिन्न मुद्दों पर गांधी से बात की.

सबा गुरमत: अपनी किताब में जनशक्ति के गठन (1990 के दशक में कई कम्युनिस्ट संगठनों के विलय) के बारे में चर्चा करते हुए आप बताते हैं कि उन दिनों ज्यादातर कम्युनिस्टों के लिए जाति कितनी "तिरस्कृत" चीज थी. आप बताते हैं कि दलित पैंथर्स का समर्थन करने को लेकर कम्युनिस्ट हलकों और जनशक्ति के नेताओं में टकराव था. आपने इस पर एक लेख भी लिखा था लेकिन वह गायब कर दिया गया. क्या आप हमें उन परिस्थितियों के बारे में थोड़ा और बता सकते हैं? आज भी कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व ज्यादातर ब्राह्मणों के हाथों में है और जाति-संबंधी मुद्दों को उठाने में ये पार्टियां हिचकती हैं. क्या आप उनके दृष्टिकोण में कोई बदलाव देखते हैं?

कोबाड गांधी: चाहे वह जनशक्ति ग्रुप रहा हो या कुछ मार्क्सवादी-लेनिनवादी मोर्चे,मुझे लगता है कि जाति के सवाल की नजरअंदाजी सैद्धांतिक स्तर की तुलना में व्यावहारिक स्तर पर अधिक थी. मैं पैंथर्स के नेताओं को जानता था और मैं भी जमीनी स्तर पर काम कर रहा था क्योंकि हम वर्ली में मायानगर में थे जहां शिवसेना के साथ संघर्ष हुआ था. इसलिए मैं सिद्धार्थ विहार कॉलेज के हॉस्टल में (दलित पैंथर्स के) नेताओं से मिला. मैंने इस मुद्दे का अध्ययन किया और कई कम्युनिस्टों के साथ इस पर बात भी की. उस समय वास्तव में कुछ ने यह भी कहा, "शिवसेना वाले लुंपन हैं, मराठा- मराठा करने वाले लुंपन हैं और इसी तरह ये दलित-दलित करने वाले लुंपन हैं." लेकिन मैं वैसे भी जमीनी स्तर पर काम कर रहा था और मुझे यकीन था कि जाति उत्पीड़न बहुत अधिक था. इसलिए, जब मैंने देखा कि हम जिन एमएल हलकों या समूहों के संपर्क में थे वहां से कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही है तो मैंने लिखना शुरू किया और अनुराधा ने भी यही किया. हम दोनों ने साथ मिलकर फ्रंटियर प्रकाशन में लिखा: "जाति के सवाल पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण से ध्यान दिया जाना क्यों जरूरी है." मुझे लगता है कि 1978 में ​लेख आया था. इसी तरह, मराठी प्रकाशन सत्यशोधक मार्क्सवाद में एक लंबा लेख छपा.

उस समय महाराष्ट्र में काफी मंथन चल रहा था. नामांतर आंदोलन हिंदूवादी पहे​ली के खिलाफ था. यह मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदल कर बीआर अंबेडकर के नाम पर किए जाने का आंदोलन था. इसलिए उन मार्क्सवादियों ने भी जाति की ओर रुख नहीं किया क्योंकि वास्तव में यहां दलित नेतृत्व वाले आंदोलन व्यापक थे. लेकिन देश के बाकी हिस्सों में क्या स्थिति थी मैं नहीं जानता था. एमएल के नेतृत्व का अधिकांश हिस्सा आंध्र के लोगों से बना था और मुझे नहीं लगता कि तब आंध्र के लोगों के बीच इस तरह का मंथन हुआ था. प्रसिद्ध कम्युनिस्ट क्रांतिकारी कवि गदर दलित थे और अधिकांश प्रसिद्ध गायक और सांस्कृतिक मंडली भी ऐसी ही थी: अह्वाहन नाट्य मंच, विलास घोगरे, संभाजी भगत, कबीर कला मंच, ये सभी क्रांतिकारी गायक और प्रतिभाशाली कलाकार थे (जिन्होंने) जिस भी भाषा में प्रदर्शन किया, दर्शकों का दिल जीत लिया. मुझे लगता है कि आप आप एक व्यावहारिक स्तर पर देखें, तो मैं अब इन तर्कों को भी सुनता हूं कि इनमें से कुछ अत्यधिक प्रतिभाशाली लोग बहुत गरीब थे और भयानक परिस्थितियों में रहते थे. इसलिए स्वाभाविक रूप से मुझे लगता है कि वह अपनी स्थिति में बदलाव देखना चाहते थे जिसे वह कम्युनिस्ट आंदोलनों के भीतर नहीं देख सके. इसलिए वह निकल गए, ऐसा भी हुआ है.

एक तरफ वामपंथी लोग अपने एजेंडे में जातिवाद को नहीं ले रहे थे, दूसरी तरफ जो लोग दलितों के बीच पहचान की राजनीति को बढ़ावा देते थे, वे कहते रहे कि सभी वामपंथी ब्राह्मणवादी हैं. इस बात ने दलित और कम्युनिस्ट आंदोलनों के बीच दूरी ही बढ़ाई है. लेकिन मुझे लगता है कि तीन कारण हैं कि वामपंथी इसे एजेंडे पर नहीं ले रहे थे. पहला तो यह कि भारत का वामपंथ बहुत ज्यादा लकीर का फकीर है. उन्होंने मार्क्सवाद, माओवाद या इसे जो कुछ भी कहें, की यहां की स्थिति के अनुसार व्याख्या नहीं की. उन्होंने आंख बंद कर चीन-रूस से उधार लिया है लेकिन उन्होंने जाति के बारे में कुछ नहीं कहा जो भारत की परिघटना है. इसलिए वह इसकी संकल्पना ही नहीं कर पाए.

सबा गुरमत कानून की छात्रा और स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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