कोलकाता का पार्क सर्कस बना “शाहीन बाग”

पार्क सर्कस में विरोध कर रही अधिकांश औरतें पहली बार इस त​रह के किसी कार्यक्रम में शामिल हुई हैं . इंद्राणी आदित्य / नूरफोटो/ गेटी इमेजिस

7 जनवरी से मध्य कोलकाता के पार्क सर्कस मैदान में नागरिकता संशोधन कानून (2019) के खिलाफ धरना चल रहा है. पार्क सर्कस की औरतों की अगुवाई में यह धरना, दिल्ली के शाहीन बाग में दिसंबर से चल रहे धरने से प्रेरित है. ये औरतें सीएए, एनआरसी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों पर हुए क्रूर हमलों का विरोध कर रही हैं.

पार्क सर्कस मुस्लिम बहुल इलाका है. औरतों का धरना स्थानीय मस्जिद के बाहर एक मैदान में हो रहा है. कोलकाता में हो रहे अन्य विरोधों में मुख्यतः छात्रों और उच्च एवं मध्यम वर्ग की भागीदारी है लेकिन पार्क सर्कस में बड़े पैमाने पर श्रमिक वर्ग के लोग शामिल हैं.

सैकड़ों औरतें, अपने बच्चों के साथ, पोस्टर और तख्तियां लेकर जमा हो रही हैं. धीरे-धीरे कोलकाता के अन्य लोग भी पार्क सर्कस के धरने में शामिल होने लगे हैं. अधिकांश प्रदर्शनकारी औरतें पहली बार किसी विरोध प्रदर्शन में भाग ले रहीं हैं. प्रदर्शनकारियों ने मुझे बताया कि उनका इरादा, कम से कम 22 जनवरी तक अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे रहने का है. उस दिन सुप्रीम कोर्ट सीएए को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करने वाली है. विरोध प्रदर्शन का कोई नेतृत्व नहीं है. धरने में शामिल लोगों का कहना है कि इस आंदोलन का नेतृत्व आम जनता के हाथों में है. उनका कहना है कि आंदोलन तिरंगे की छाया में हो रहा है.

8 जनवरी की दोपहर बुर्का पहनी कई औरतों को लेकर एक ट्रक यहां पहुंचा. जब वे ट्रक से निकलकर मैदान की ओर चलने लगीं, तो औरतों ने नारे लगाए, “सांप्रदायिक राजनीति से आजादी”. काले बुर्के और गहरे काले धूप का चश्मा पहनी दक्षिण कोलकाता के इकबालपुर की 44 साल की तबस्सुम अख्तर आगे-आगे नारे लगा रहीं थीं. “हमारे दिलों में आग है,” उन्होंने नारा लगाया. “हम बहुत गुस्से में हैं. हमारा जेएनयू के बच्चों के साथ कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन वे हमारा सब कुछ हैं.”

22 साल की रफीका हयात ने मुझे बताया कि 7 जनवरी को, उसने अपने जीवन में पहली बार नारे लगाए. हयात ने शिवनाथ शास्त्री कॉलेज से हाल ही में स्नातक की पढ़ाई पूरी की है. कुछ महीने पहले तक उसे राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह इंस्टाग्राम और फेसबुक पर अपना सारा इंटरनेट डेटा खर्च करती थी. अब वह नियमित रूप से समाचार देखती है और खुद को शिक्षित करने के लिए एनआरसी और सीएए के वीडियो का ट्रैक रखती है.

औरतों के लिए मैदान में एक बड़ा स्थान साफ ​​कर दिया गया है. कपास के गद्दों के साथ धूसर और सफेद फोम की पतली चादरें फैली हुई हैं. मर्दों को मैदान के इस हिस्से से बाहर रखने के लिए रस्सियों का बाड़ा लगा है. बीच में एक बार जब मर्दों ने बोला, तो इसलिए नहीं कि अपनी बात रखें बल्कि अपनी "बहनों" को ब्रेक देने के लिए. प्रदर्शनकारियों के अलावा, विरोध स्थल पर लगभग सौ स्वयंसेवक थे जो कंबल, पानी की बोतलें, चाइनीज खाना या बिरयानी और चाय का निर्बाध प्रवाह बनाए हुए थे.

मैंने प्रदर्शन की जगह से दो किलोमीटर दूर रिपन स्ट्रीट में 55 वर्षीय मुसरत परवीन से बात की. परवीन विधवा हैं और उनके तीन बेटें हैं. उनका कहा था कि शायद ही कभी अपने घर से बाहर निकली हैं लेकिन अब उनको लगता है कि सड़क पर आने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. “हमें देश को बचाने के लिए कुछ करना होगा,” उन्होंने कहा. दूसरी औरतों ने जोर देकर बताया कि वे गृहिणी हैं और अब से पहले शायद ही कभी अपने घरों से बाहर आईं हैं. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के काम ने उन्हें बाहर आने के लिए “मजबूर” कर दिया है.

परवीन 7 जनवरी की शाम विरोध शुरू होते ही यहां आ गईं थी और अगले दिन सुबह 8.30 बजे घर लौटीं. फिर उन्होंने अपने परिवार के लिए खाना बनाया, पूरे दिन घर का काम किया और फिर रात 11.30 बजे मैदान लौट आईं. 9 जनवरी को जब मैंने उनसे बात की तो वह पिछले दो दिनों से सोईं नहीं थीं. “मैं अब सो नहीं सकती, कितना कुछ चल रहा है और मुझे उम्मीद है कि मोदी समझेंगे कि हम हिंदुस्तान का क्या हाल कर रहे हैं, अपनी भूमि को क्या बनाए दे रहे हैं.”

कुछ औरतों ने मुझे बताया कि दिहाड़ी करती हैं और प्रदर्शन की खातिर इसकी कुर्बानी कर रहीं हैं. पचास साल की एक औरत ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि वह विरोध स्थल से बस कुछ ही मीटर की दूरी पर रहती हैं और पास के मलिक बाजार के परिवारों के लिए खाना बनाती हैं. वह तीन बेटियों की एक मां हैं और महीने में बामुश्किल पांच हजार रुपए कमा पाती हैं. उन्होंने कहा कि वह तीन दिनों से लगातार विरोध स्थल पर हैं और बस अपनी दवाएं लेने घर गईं हैं. "हम अपने अधिकारों के लिए यहां आए हैं. हमें हिंदुस्तान क्यों छोड़ें? हमें मोदी को सीएए और एनआरसी को लागू करने से रोकना है.

9 जनवरी को मैंने 21 साल की फिरदौस सबा को भूरे हिजाब और शाही-नीले ऊनी शाल में लिपटी, माइक में अजादी के नारे लगाते पाया. उनके पीछे खड़े लोग उसके साथ नारे लगा रहे थे. सबा कोलकाता के आलिया विश्वविद्यालय में भौतिकी की छात्रा हैं. 8 जनवरी को प्रदर्शन में शामिल होने के लिए छात्रावास से बाहर आते वक्त उन्होंने वहां के अधिकारियों को बता दिया था कि वह अगले दिन तक वापस नहीं लौटेंगी. उन्होंने पूरी रात “हल्ला बोल” का नारा लगाते हुए काटी.

सबा ने बताया, "मैं शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन में शामिल होना चाहती थी. मैं ऐसा नहीं कर सकी. लेकिन मैं कोलकाता के “शाहीन बाग” तो भाग ले ही सकती थी.” वह जोश से भरी थीं. “हम संयोग से भारतीय नहीं हैं, हम अपनी पसंद से भारतीय हैं. 1947 में हमने दो-राष्ट्र के सिद्धांत को खारिज कर दिया, हमने एक इस्लामिक राज्य को खारिज कर दिया. आज हमारे हिंदू भाई-बहन हिंदू राष्ट्र को खारिज कर देंगे. हमने इस्लामाबाद या कराची, या बांग्लादेश नहीं चुना, हमने भारत को चुना क्योंकि यह एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश है.”

सबा ने कहा कि आजाद भारत के संस्थापकों ने लोगों को बोलने का अधिकार दिया है. “हमें बोलने से क्यों रोका जा रहा है? समानता हमारा हक है. वह हमसे क्यों छीना जा रहा है? संविधान क्यों तोड़ा जा रहा है? हम यहां मुसलमानों के रूप में नहीं आए हैं, हम यहां भारतीय हैं. हम यहां खुद को बचाने के लिए नहीं आए हैं. हम यहां संविधान और कानून को बचाने के लिए आए हैं. हम संविधान को बचाने के बाद ही यह जगह छोड़ेंगे.”