एजाज अशरफ : महाराष्ट्र में शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाया है. कांग्रेस और एनसीपी को सेकुलर पार्टियां माना जाता है. क्या आपको लगता है कि शिवसेना हिंदुत्व से दूर जा रही है?
कुमार केतकर : शिवसेना ऐसा नहीं मानती. वह एक ऐसा संगठन है जो तुरंत प्रतिक्रिया देता है. उसके पास कोई योजना या रणनीति नहीं होती. सेना का जन्म धर्मनिरपेक्षता की बहस के दौरान हुआ जिसे हमारे जन-जीवन में सहज स्वीकार्य था. बहुत कम लोगों को याद होगा कि समाजवादी नेता मधु दंडवते 1967 में सेना के साथ आ गए थे. हालांकि एक साल बाद वह अलग हो गए. 1976 में जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द जोड़ा तो सेना ने इसका विरोध नहीं किया था.
जनता पार्टी के गठन के बाद धर्मनिरपेक्षता राजनीतिक मुद्दा बन गया. जनता पार्टी में जनसंघ शामिल थी, जो बाद में बीजेपी बन गई. शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा गरमा गया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले को 1985-86 में राजीव गांधी ने पलट दिया और बीजेपी ने राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू किया.
सच तो यह है कि शिवसेना का जन्म युवाओं की नाउम्मीदी और आक्रोश के चलते हुआ था.
एजाज : युवा लोग किस बात से नाउम्मीद और आक्रोशित थे?
केतकर : महाराष्ट्र का गठन 1960 में हुआ था और सेना का जन्म 1966 में. बीच के 6 सालों में, रोजगार की कमी के चलते मराठी युवाओं में निराशा पैदा हुई. हम जैसे लोग जिनके पास डिग्रियां थीं उनको भी सेल्समैन का काम करना पड़ रहा था. हम लोग घर-घर जाकर सामान बेचा करते थे. मेरे दोस्त और मैं लोअर मिडिल क्लास से आते थे और हम लोग चालों और मजदूर कॉलोनियों में रहते थे या फिर ऐसे घरों में जो 300 वर्ग फीट के होते थे.
हम लोग परेशान रहते थे कि हम लोगों को नौकरियां क्यों नहीं मिल रही हैं 1956 में भाषाई आधार पर नए राज्य की मांग करने के लिए बने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के कारण महाराष्ट्र का गठन हुआ था. मजदूर वर्ग ने मराठियों के लिए नए राज्य का समर्थन किया था.
एजाज : क्या नए राज्य की मांग का चरित्र वर्गीय था?
केतकर : यकीनन उस मांग में वर्ग संघर्ष का पुट था. कपड़ा मिलों, फैक्ट्रियों, खुदरा और थोक व्यापार पर गुजरातियों और मारवाड़ियों का कब्जा था. संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन का नेतृत्व एसए डांगे, एसएम जोशी और आचार्य अत्रे जैसे कम्युनिस्ट और समाजवादी नेताओं ने किया था. इन लोगों ने उत्पादन के साधनों पर पूंजीवादी मालिकाने का विरोध किया. चूंकि मजदूर वर्ग मुख्यतः मराठी लोगों से बना था इसलिए संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के अंदर गुजराती विरोधी भावना भी थी. हालांकि, आंदोलन ने गुजरातियों को बाहरी या माइग्रेंट नहीं बताया लेकिन मराठी लोगों के लिए ये लोग उत्पीड़न करने वाले और मुनाफे के लालची लोग थे.
एजाज : आपकी बातों से लगता है कि शिवसेना का जन्म इसलिए हुआ क्योंकि न कांग्रेस और न कम्यूनिस्ट और समाजवादी मराठी जन आकांक्षाओं को संबोधित कर पा रहे थे?
केतकर : गांधी और नेहरू की विरासत वाली कांग्रेस खुद को संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि मानती थी. दूसरी ओर संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के पास अर्थतंत्र का ब्लूप्रिंट नहीं था.
एजाज : इसका मतलब है कि वहां नई पार्टी के पैदा होने का स्पेस था?
केतकर : बाला साहब ठाकरे ने 1964 में मार्मिक नाम की पत्रिका निकालनी शुरू की. यह मराठी भाषा की पहली कार्टून पत्रिका थी. पत्रिका यह संदेश देती थी कि वह मराठियों के लिए लड़ रही है, मराठी पहचान, संस्कृति, भाषा और उनके जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में काम कर रही है. हम सभी पत्रिका के प्रति आकर्षित हो गए. मार्मिक पत्रिका में एक फॉर्म होता था जिसे भर कर शिवसेना में शामिल हुआ जा सकता था. मैं शायद उन पहले 100 लोगों में था जिन्होंने फॉर्म भरा. जून 1966 में मुंबई में हुई सेना की रैली में मैंने भाग लिया. उस रैली में बाला साहब ठाकरे ने कहा था कि उनका लक्ष्य राजनीति नहीं है क्योंकि कोई भी पार्टी मुंबई के मराठी मानुस का ख्याल नहीं रखती. सेना का लक्ष्य मराठी लोगों की आवाज बनना था.
एजाज : एक तरह से यह स्वदेशी आंदोलन की तरह था.
केतकर : 1960 और 1970 के बीच कोई भी मराठी जिसके पास काम नहीं था और निराश व असहाय महसूस करता था, वह शिवसेना के प्रति आकर्षित होने लगे. ठाकरे मानते थे कि महाराष्ट्र के बनने से पहले गुजराती मोरारजी देसाई बॉम्बे राज्य के मुख्यमंत्री थे. नए राज्य के गठन के बाद मराठा जाति के यशवंतराव चव्हाण पहले मुख्यमंत्री बने. इन सबके बावजूद रोजगार की स्थिति में सुधार नहीं हुआ. कांग्रेस को पूंजीवादी वर्ग की मित्र पार्टी माना जाता था. उन दिनों शिवसेना संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की भाषा बोलती थी, जो लगभग कम्युनिस्टों जैसी थी.
एजाज : फर्क बस इतना था कि शिवसेना वर्ग की जगह जातीयता को मानती थी.
केतकर : बिल्कुल. वर्ग की जातीय पहचान साफ थी. उन दिनों मुंबई में 63 कपड़ा मिलें थीं और इन सब के मालिक या तो गुजराती थे या मारवाड़ी. इन मिलों में लगभग ढाई लाख मजदूर काम करते थे जो महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों से थे. मिलों और फैक्ट्रियों में काम की हालत बेहद खराब थी.
कम्युनिस्ट और समाजवादी खुद को अंतर्राष्ट्रीयवादी मानते थे. मराठी युवाओं का मानना था कि कम्युनिस्ट लोग श्रमजीवियों की बात तो करते हैं लेकिन उनके हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते. उनकी विचारधारा के कारण वे लोग मराठी भावनाओं को समझ नहीं पाए जबकि वह प्रतिक्रियावादी नहीं थी. इसके बरअक्स सेना ने मराठी श्रमजीवी वर्ग का साथ दिया.
एजाज : आप सेना में कितने वक्त तक रहे?
केतकर : एक साल से भी कम समय तक.
एजाज : आपने शिवसेना क्यों छोड़ी?
केतकर : मैं संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और श्रमजीवी आंदोलन से आया था. जब 1967 के लोकसभा चुनाव में डांगे, अत्रे और धाकड़ ट्रेड यूनियन नेता जॉर्ज फर्नांडिस ने भाग लिया तो सेना ने इनका विरोध किया. मजेदार बात है कि कांग्रेसी नेता सीके पाटिल, जो पूंजीपति वर्ग के साथ थे, उनके कहने से शिवसेना ने ऐसा किया था. सेना का इस्तेमाल मजदूरों की हड़ताल तोड़ने के लिए होने लगा. नेहरूवादी और कम्युनिस्टों के दोस्त माने जाने वाले वीके कृष्ण मैनन निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे. हम वामपंथी छात्रों ने उनका समर्थन किया लेकिन दक्षिणपंथी कांग्रेस का समर्थन लेकर शिवसेना ने उनका विरोध किया. उस वक्त तक सेना दक्षिण भारतीयों को निशाना भी बनाने लगी थी. इसलिए मैंने और अन्य लोगों ने सेना का साथ छोड़ दिया.
एजाज : यानी 1960 के दशक में सेना ने दक्षिणपंथी दिशा ले ली.
केतकर : सेना का दक्षिणपंथ गुंडागर्दी वाला है. 5 जून 1970 को सेना कार्यकर्ताओं ने कम्युनिस्ट नेता कृष्णा देसाई की हत्या कर दी.
एजाज : सेना कांग्रेस का विरोध क्यों करने लगी?
केतकर : 1969 में जब इंदिरा गांधी ने पार्टी तोड़ी तो सेना ने सीके पाटिल के नेतृत्व वाली कांग्रेस (ओ), जो एक दक्षिणपंथी धड़ा था, का समर्थन किया. पाटिल ने सेना को समर्थन और पैसा दिया. फिर भी आपातकाल में शिवसेना ने इंदिरा गांधी का समर्थन किया. ऐसा इसलिए क्योंकि बाल ठाकरे तानाशाही के विचार के प्रति बहुत आकर्षित थे और वह मानते थे कि इंदिरा गांधी सही कर रही हैं. मुझे लगता है कि उन्हें डर था कि उनको भी गिरफ्तार कर लिया जाएगा. आपातकाल में ठाकरे गिरफ्तार नहीं हुए.
एजाज : सेना हिंदुत्व की ओर कैसे गई?
केतकर : सेना को जब लगा कि मराठी पहचान का मुद्दा उठाकर वह ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकती तो इन लोगों ने हिंदुत्व का सहारा ले लिया. आखिरकार, मराठी किसानों के लिए पहचान का मुद्दा किसी काम का नहीं था. प्रदेश के 95 फीसदी किसान, जिसमें भूमालिक और कृषक मजदूर थे, सब मराठी थे. यहां सेना जातीयता की राजनीति नहीं कर सकती थी. ग्रामीण महाराष्ट्र में बेरोजगारी का मुद्दा काम नहीं आ सकता था. सेना क्षेत्रीय पार्टी नहीं बन पा रही थी क्योंकि उसके पास महाराष्ट्र व्यापी आधार नहीं था.
जब तक सेना ने हिंदुत्व को नहीं अपनाया तब तक वह जनसंघ का विरोध करती थी. ठाकरे का एक नारा था, “जनसंघ हवा तंग.” उनका विचार था कि मराठी पहचान हिंदुत्व से ज्यादा जरूरी है. 1980 में जनता पार्टी का विघटन हो गया और बीजेपी अस्तित्व में आई. 1984 के चुनाव में बीजेपी को केवल दो सीटें ही मिलीं. सेना और बीजेपी दोनों को ही आगे का रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था. सेना हाशिए से बाहर आना चाहती थी इसके लिए वह कुछ नया करना चाहती थी. उसने मराठी-हिंदुत्व पहचान की राजनीति शुरू की और बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया. लेकिन इसके बावजूद उन्हें ज्यादा समर्थन नहीं मिला.
एजाज : सेना का समर्थन कब बढ़ने लगा?
केतकर : 6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद सेना का समर्थन बढ़ने लगा.
एजाज : हिंदुत्व के प्रति सेना की प्रतिबद्धता कितनी गहरी है?
केतकर : सेना ने महसूस किया कि हिंदुत्व का नारा लगाने से वह बीजेपी के वोट का कुछ हिस्सा अपने में मिला सकती है. उसको लगता है कि उसने बीजेपी को बढ़ने में मदद की है. इसलिए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे बार-बार कहते हैं कि जब बीजेपी के पास दो सीटें थीं तब भी उन्होंने उसका समर्थन किया था. ऐसा कहने का मतलब है कि महाराष्ट्र में बीजेपी, शिवसेना की बदौलत फैली है. हालांकि, बीजेपी दावा करती है कि वह गठबंधन की सीनियर पार्टनर या बड़ा भाई है. जब उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तब मजाक-मजाक में कहा कि वह दिल्ली जाकर बड़े भाई का आशीर्वाद लेंगे.
एजाज : क्या उद्धव ठाकरे को यह डर सता रहा था कि बीजेपी शिवसेना को निगल जाएगी?
केतकर : यह संभावना तो 2014 में भी थी लेकिन उद्धव का यह डर 2019 में बीजेपी के सत्ता में दुबारा आने से और बढ़ गया. 2014 में बीजेपी और सेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था. लेकिन 2014 का विधानसभा चुनाव दोनों ने अलग-अलग लड़ा. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मोदी को बहुमत मिल गया था. बीजेपी गठबंधन के सीनियर पार्टनर की दावेदारी करने लगे. सेना को इसमें बेइज्जती महसूस हुई लेकिन इसके बावजूद सेना ने गठबंधन नहीं तोड़ा.
लेकिन 2014 और 2019 के दौरान सेना ने अपनी रणनीति में बदलाव किया. उसने खुले रूप से राहुल गांधी के चुनावी नारे, “चौकीदार चोर है” को लगाया और राफेल समझौते के खिलाफ मुहिम का समर्थन किया. सेना के नेताओं ने राहुल गांधी और सोनिया गांधी को गालियां नहीं दीं. सेना की रणनीति यह थी कि बीजेपी को नियंत्रण में रखने का एक ही तरीका है कि मोदी के खिलाफ विपक्ष के अभियान का समर्थन किया जाए लेकिन ऐसा न लगे कि वह कांग्रेस का साथ दे रही है. सेना ने अपने कार्टूनों में अमित शाह को अफजल खान दिखाया जिसे मराठी राजा शिवाजी ने मारा था.
एजाज : क्या ऐसा संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की स्मृतियों का लाभ उठाने के लिए था?
केतकर : हां, सेना को यह एहसास हुआ है कि संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के दौरान जिन चीजों का उन्होंने मराठी पहचान से विरोध किया था, जैसे संसाधनों पर गुजरातियों का कब्जा, वह सोच मोदी और शाह के चलते खतरे में पड़ रही है. पिछले दिनों की कुछ घटनाओं ने मराठियों के अंदर इस अहसास को जगाया है.
एजाज : कौन सी घटनाएं?
केतकर : बुलेट ट्रेन का उदाहरण लीजिए जो अहमदाबाद को मुंबई से जोड़ेगी. यह ट्रेन 1960 के दशक की गुजराती आधिपत्य का प्रतीक बन गई है. पांच साल पुराने आंकड़ों के अनुसार, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में जो 7500 के आसपास शेयर ब्रोकर हैं उनमें लगभग 7000 गुजराती या मारवाड़ी हैं. बाकी बचे ब्रोकर, मराठी, बंगाली, सिंधी और अन्य हैं.
भला बताइए कि अर्थतंत्र में मंदी के बावजूद बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज क्यों उछाले मार रहा है. महाराष्ट्र में लोगों को शक है कि स्टॉक मार्केट की गुजराती लॉबी मोदी और शाह को कमजोर होने नहीं देना चाहती. सर्राफा बाजार, माल व्यापार और रियल एस्टेट बाजार गुजराती और मारवाड़ियों के कब्जे में हैं. यहां तक कि अडानी और अंबानी का जो संबंध मोदी और शाह से है वह केवल पूंजीवादी संबंध नहीं है वह एक सजातीय संबंध भी है.
एजाज : क्या इस शक का कोई आधार है?
केतकर : जब मोदी ने 2014 में बुलेट ट्रेन की घोषणा की तो ऐसे गुजराती जो मुंबई से जुड़े रहना चाहते हैं वे वसई, बोरीवली, अंधेरी जैसी जगहों में जहां से होकर बुलेट ट्रेन गुजरेगी, वहां जमीन और फ्लैट खरीदने लगे. इन लोगों ने मराठी किसानों से जमीन और मराठी मिडिल क्लास मालिकों से उनके फ्लैट खरीद लिए. पिछले पांच सालों में ये दोनों वर्ग महाराष्ट्र के अन्य इलाकों में ढकेले जा चुके हैं. जब उद्धव ठाकरे गुजराती प्रभुत्व की बात करते हैं तो वह इन्हीं मराठी लोगों के गुस्से और चिंताओं को ठीक उसी तरह संबोधित करते हैं जैसे बाल ठाकरे ने 1960 में मराठियों के लिए रोजगार की बातों से किया था.
एजाज : बीजेपी से गठबंधन तोड़ने के बाद क्या सेना को उन लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा जिन्होंने उसे पहले वोट दिया था?
केतकर : हां, क्योंकि मिडिल क्लास ने सेना को इसलिए वोट दिया था क्योंकि वह बीजेपी के साथ थी. लेकिन बीजेपी को भी लुपन, लोअर मिडल क्लास मराठी और मजदूर वर्ग के वोटों से हाथ धोना पड़ेगा जो सेना की वजह से उसे वोट देते थे.
एजाज : कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन करने से सेना को क्या मिलेगा?
केतकर : सत्ता और क्या.
एजाज : क्या सेना सत्ता का इस्तेमाल कर अपनी ताकत बढ़ा सकती है?
केतकर : जाहिर है सेना सत्ता का इस्तेमाल अपने आधार को बढ़ाने के लिए करेगी. लेकिन कांग्रेस और एनसीपी उसे एक हद से आगे जाने नहीं देंगे. महाराष्ट्र की राजनीति ऐसी है कि चारों ही दल बहुत कमजोर हैं.
यह बताना कठिन होगा कि चारों में से कौन सबसे ज्यादा कमजोर है. कांग्रेस और एनसीपी का राजनीतिक परिवेश एक जैसा है जो मुख्यतः मराठा केंद्रित है. मराठा का एक बड़ा हिस्सा हिंदुत्व के चलते बीजेपी में शामिल हो गया है.
एजाज : मराठों को हिंदुत्व क्यों आकर्षित करता है?
केतकर : मराठों को हिंदुत्व ने 1995 के बाद आकर्षित करना शुरू किया जब पहली बार सेना-बीजेपी गठबंधन सरकार बनी. मराठों को लगा कि सत्ता कांग्रेस से बीजेपी की तरफ जा रही है. वह अपनी जागीरें बचाए रखना चाहते थे.
एजाज : इनके लिए जागीरों का अर्थ क्या है? क्या इसका मतलब कोऑपरेटिव सेक्टर से है?
केतकर : मेरा मतलब संसाधनों पर कब्जे से है जिसमें जमीन भी शामिल है. लेकिन उनका भाग्य उन लोगों के रहम-ओ-करम पर है जिनका सत्ता पर कब्जा होता है. एनसीपी नेता अजित पवार का नियंत्रण महाराष्ट्र राज्य कॉपरेटिव बैंक पर है. अपने साम्राज्य को खो देने के डर से वह देवेंद्र फडणवीस से मिल गए. राधाकृष्ण विखे पाटील जून में कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी में मिल गए. प्रवारानगर में उनके परिवार वालों के नियंत्रण वाली संस्थाओं में 72000 लोग काम करते हैं.
जब राज्य की शक्ति बीजेपी की ओर जाने लगी, क्योंकि उसने हिंदुत्व का माहौल बनाया था, तो मराठा भी कांग्रेस और एनसीपी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए. यह लोग अपना साम्राज्य बचाना चाहते हैं. इसी वजह से बीजेपी को 105 सीटें भी मिलीं.
एजाज : तो भी बीजेपी इतनी सीटें नहीं ला सकी जितनी सीटों की उम्मीद उसे थी.
केतकर : 2019 के विधानसभा चुनाव विखंडित महाराष्ट्र मनोविज्ञान का मूर्त रूप है. इसीलिए लोग परिणामों को समझ नहीं पाए. महाराष्ट्र पहला राज्य है जहां तीन पार्टियां गठबंधन कर सरकार बना रही हैं. कुछ राज्य में 1967 से ही गठबंधन सरकार बननी शुरू हो गई थीं.
हां, ऐसा पहली बार हुआ है कि महाराष्ट्र में बीजेपी विरोधी गठबंधन बना है जिसमें पुरानी कांग्रेस की दो पार्टियों ने सेना से हाथ मिलाया है. इस गठबंधन ने उन विश्लेषकों को भ्रमित कर दिया जो हमेशा से ही कांग्रेस और कांग्रेस विरोधी गठबंधन को देखते आए थे. उन लोगों को यह अहसास नहीं हुआ कि पुराना आधार बदल गया है. ये लोग कांग्रेस विरोध से ही चिपके हुए हैं. कांग्रेस और एनसीपी के पास कुल 100 सीटें हैं, इसके बावजूद दोनों ने 56 सीटों वाले शिवसेना को मुख्यमंत्री का पद दे दिया. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ये पार्टियां इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि इनकी पहली प्राथमिकता दुश्मन नंबर एक को हराना है. कौन है यह दुश्मन?
एजाज : क्या यह दुश्मन बीजेपी है?
केतकर : नहीं मोदी-शाह. यहां तक कि कांग्रेस संसदीय दल की हाल की बैठक में सोनिया गांधी ने एक बार भी बीजेपी का नाम नहीं लिया. उन्होंने सिर्फ मोदी- शाह सरकार की बात की. सेना, बीजेपी का विरोध नहीं करती. सेना ने बाबरी मस्जिद को गिराए जाने का समर्थन किया था. सेना मोदी और शाह का विरोध करती है.
एजाज : एनसीपी नेता शरद पवार की स्थिति क्या है?
केतकर : पवार और मोदी के बीच मजबूत संबंध है. लेकिन उन्हें एहसास हो गया कि मोदी और शाह उनके साथ दोस्ती रखने के इच्छुक नहीं हैं और दोनों चाहते हैं कि राज्य में उनका स्वतंत्र आधार न रहे. उस आधार को खत्म करने के लिए पवार और प्रफुल्ल पटेल के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय लगाया गया.
एजाज : क्या मोदी-शाह विरोध गठबंधन सरकार को गिरने से बचा सकेगा?
केतकर : जब तक गठबंधन के साझेदार कमजोर रहेंगे तब तक यह लोग साथ रहेंगे. अगर इनमें से कोई एक अन्य दोनों से ताकतवर बन जाएगा तो संकट पैदा होगा. तीनों के लिए दुर्भाग्य की बात है निकट भविष्य में ऐसा होता नहीं दिखता.
एजाज : क्या कांग्रेस का सेना से मिलना धर्मनिरपेक्षता के विचार के खिलाफ बात नहीं है?
केतकर : साझेदारी करने वाले तीनों दलों में कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता को मानती है. इस गठबंधन के लिए धर्मनिरपेक्षता एक आवरण की तरह है. कांग्रेस के लिए धर्मनिरपेक्षता जरूरी है, इसलिए एक फार्मूला निकाला गया. कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में धर्मनिरपेक्षता की बात है.
एजाज : लेकिन 1992-93 में मुंबई में हुए दंगे में सेना की जो भूमिका रही उसके लिए कांग्रेस उसे कैसे देखती है?
केतकर : कांग्रेस (एनसीपी भी उस वक्त कांग्रेस के साथ थी) 1992-93 के सांप्रदायिक उन्माद को नहीं भूल सकती. ये जख्म अभी तक हरे हैं. लेकिन अगर कांग्रेस शिवसेना का समर्थन नहीं करती तो राष्ट्रपति शासन लगाकर या बीजेपी-सेना गठबंधन को पुनर्जीवित कर, मोदी-शाह महाराष्ट्र और भारत में अपनी पकड़ मजबूत कर लेते हैं. आज बीजेपी के पास राष्ट्रीय अपील है और एक राष्ट्रीय वोट बैंक है. उसके हिंदुत्व के विचार को, निष्क्रिय ही सही राष्ट्रीय मान्यता है. इसके मुकाबले शिवसेना का फैलाव सीमित है और उसकी चालबाजी भी सीमित है.
जोसेफ स्टालिन और विंस्टन चर्चिल भी तो हिटलर को हराने के लिए साथ आए थे. भारत में मोरारजी देसाई सरकार को गिराने के लिए 1979 में कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह को समर्थन दिया था. महाराष्ट्र में जो हालात आज हैं, उसकी तुलना 1979 से नहीं की जा सकती क्योंकि कांग्रेस की शत्रु बीजेपी, जनता पार्टी से ज्यादा खतरनाक है. यही वजह है कि वहां विकास आघाडी को ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, अकाली दल, जनता दल और जनता दल (यूनाइटेड) ने खुले या गुप्त रूप से समर्थन दिया है. बड़ा समूह बनने से उनकी असुरक्षा कम होती है. महाराष्ट्र में हिंदुत्व गठबंधन टूटने से क्षेत्रीय पार्टियों के बीच गठबंधन बनेगा और हिंदुत्व का खतरा कम होगा.
एजाज : सेना कभी इसे कभी उसे दुश्मन करार देती है. अब जबकि वह सत्ता में है तो आपको क्या लगता है कि वह किस को अपना दुश्मन बताएगी?
केतकर : अब मोदी और शाह को अपना दुश्मन बताएगी. लेकिन इसका सामाजिक आधार नहीं है.
एजाज : महा विकास आघाडी सरकार बनने के तुरंत बाद शरद पवार ने कहा था कि जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत की दुबारा जांच होनी चाहिए. क्या आप इससे सहमत हैं?
केतकर : मैं भी मानता हूं कि जज लोया की हत्या हुई थी या उनकी मृत्यु रहस्यमय परिस्थितियों में हुई है, ठीक वैसे ही जैसे मीडिया के कई लोग और कानूनविद भी मानते हैं. राजनीतिक तौर पर लोया मामले को दुबारा खोलने से शाह पर दबाव बनेगा. ऐसा करना मोदी और शाह को बांध कर रखेगा. यह हो सकता है कि शाह और मोदी के बीच सत्ता के अंतर्विरोध को पवार ने भांप लिया हो. शाह को पता है मोदी की मंजूरी से वह उनके उत्तराधिकारी नहीं बन पाएंगे. वह केवल उसी हाल में उत्तराधिकारी बन पाएंगे जब वह सत्ता की ताकत दिखा सकें.