बीजेपी का अर्ध-कुंभ फ्लॉप, भारी प्रचार के बाद भी नहीं मिला राजनीतिक लाभ

अर्ध-कुंभ मेले के दौरान साधु किराए पर देने के लिए टेंट लगाते हैं. लेकिन इस बार उन्होंने टेंटों पर जो पैसे लगाए, उसे भी वसूल नहीं पाए. राजेश कुमार सिंह/एपी

12 दिसंबर 2017 को उत्तर प्रदेश यानी यूपी के सीएम आदित्यनाथ ने अर्ध-कुंभ मेले को लेकर घोषणा की कि इसका नाम बदलकर कुंभ रखा जाएगा. कुंभ अभी प्रयागराज में चल रहा है. कुंभ मेला एक सामूहिक हिंदू तीर्थयात्रा है. ये हर 12 साल पर उत्तर प्रदेश के प्रयागराज, उत्तराखंड के हरिद्वार, महाराष्ट्र के नासिक और मध्य प्रदेश के उज्जैन में आयोजित किया जाता है. वहीं, अर्ध-कुंभ हर छह साल पर आयोजित किया जाता है. ऐसे में इन चारों जगहों पर दो के अनुपात में ये अर्ध-कुंभ होते हैं. प्रयागराज में पिछला कुंभ 2013 में हुआ था और अगला 2025 में होना है.

दिसंबर 2017 में अदित्यनाथ की घोषणा से विवाद पैदा हो गया. उत्तर प्रदेश में कई राजनीतिक पार्टियों और धार्मिक नेताओं ने इसका विरोध किया. लेकिन मुख्यमंत्री अडे रहे और नए नाम को ‘प्रयागराज मेला अथॉरिटी बिल’ के जरिए पेश किया. इसे विधानसभा ने पिछले साल 22 दिसंबर को पास कर दिया.

यूपी सरकार द्वारा 2019 में हो रहे अर्ध-कुंभ का नाम बदलने के पीछे यह प्रयास था कि आम तौर पर साधारण तरीके से मनाए जाने वाले इस पर्व को बड़े समारोह में तब्दील कर दे. यह आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर किया गया. इसमें केंद्र और राज्य की भारतीय जनता पार्टी सरकारों के अलावा संघ परिवार ने मिलकर कुंभ की प्रतीकात्मकता के इर्द-गिर्द खूब माहौल तैयार किया. इसमें बीजेपी, विश्व हिंदू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, संस्कार भारती और वनवासी कल्याण आश्रम ने मेले के इलाके में हिंदुत्व का संदेश फैलाने के लिए अपने कैंप भी लगाए हैं.

इन प्रयासों के बावजूद सरकार अभी चल रहे अर्धकुंभ की प्रकृति को नहीं बदल पाई. प्रयागराज के पास लगे टेंटों में भक्तों की कमी से साफ है कि नाम बदलना और मीडिया के सहारे आडंबर खड़ा करना तो आसान है लेकिन लोगों की इस बारे में जो असल सोच है उसे बदलना काफी मुश्किल है.

जूना अखाड़ा उग्रवादी साधुओं का एक धड़ा है. यतीन्द्रानंद गिरी इसके महामंडलेश्वर यानि गुरुओं द्वारा बनाए गए एक उच्च श्रेणी के साधू हैं. उन्होंने मुझसे कहा, “बीजेपी हिंदुओं के पारंपरिक ज्ञान को कम करके आंकती है. गांव के परिवेश से आने वाले आम हिंदू भक्त के लिए तीर्थयात्रा के मामले में तिथि बेहद पवित्र चीज है.” तिथि का सार यहां हिंदू पंचांग में शुभ तिथियों से है. उन्होंने कहा, “वो ऐसी किसी भी जानकारी को खारिज या अनदेखा कर देते हैं जो उनके (हिंदू) कैलेंडर की समझ के साथ नहीं जाती. उन्हें पता है कि कुंभ हर 12 साल पर होता है और उनका पिछला कुंभ प्रयागराज में महज छह साल पहले हुआ था. उन्हें ये भी पता है कि ये मेला अर्ध-कुंभ है. इसी वजह से आपको कुंभ जैसा जोश नजर नहीं आएगा.”

अयोध्या के साधु रघुनंदन दास ने 64 टेंट इस उम्मीद से लगाए थे कि इसमें भक्तों की भरमार होगी. उन्होंने कहा, “इनमें से आधे खाली हैं, ये मेरी गलती थी. मुझे समझना चाहिए था कि है तो ये आखिर अर्ध-कुंभ ही. ऐसे में इसमें उतने भक्त तो आएंगे नहीं, जितने कुंभ में आते हैं. कुंभ में आ रहे ज्यादातर लोग कल्पवासी हैं. वो अपने टेंट में रहना पसंद करते हैं और उनके पास जितना है उससे काम चलाने की कोशिश करते हैं.” कल्पवासी एक तरह के भक्त होते हैं. वो हर साल जनवरी के मध्य से फरवरी के मध्य तक संगम के किनारे जितने सादे तरीके से हो सके अपने कठोर जीवन को बिताने की कोशिश करते हैं. संगम, प्रयागराज की एक जगह है जहां गंगा, जमुना और काल्पनिक सरस्वती जैसी नदियां आकर मिलती हैं. प्रयागराज में यहीं पर कुंभ और अर्ध-कुंभ का आयोजन किया जाता है.

दास की तरह कई साधु मेले के दौरान किराए पर देने के लिए अपने टेंट लगाते हैं. उन्होंने कहा कि जिस तरह से बीजेपी ने धार्मिक मेले के लिए माहौल बनाया उससे वो बहुत उत्तेजित हो गए. वृंदावन के एक साधु संजय दास ने कहा, “शुरू में तो ज्यादातर साधुओं में ऐसा जश्न का माहौल था कि बीजेपी के लोगों की तरह वो भी इसे कुंभ बुलाने लगे. लेकिन उन्हें घाटा उठाना पड़ा है. भक्तों की ऐसी कमी है कि उन्होंने टेंटों के लिए जो पैसे खर्च किए हैं उसका भी मिलना मुश्किल है. जोश गायब है और इन साधुओं ने इसे फिर से अर्ध-कुंभ बुलाना शुरू कर दिया है.”

जूना अखाड़ा के सचिवों में से एक और इसके प्रवक्ता देवानंद सरस्वती के मुताबिक द ऑल इंडिया अखाड़ा परिषद शुरू में 2019 के इस मेले को कुंभ बुलाए जाने के पक्ष में नहीं था, लेकिन फिर मुख्यमंत्री ने उन्हें मनाया और वो मान गए.” 13 अखाड़ों से जुड़ी व्यापक संस्था द ऑल इंडिया अखाड़ा परिषद ही पारंपरिक रूप से भारत में कुंभ मेलों को आयोजन के लिए जिम्मेदार है.

महानिर्वाणी अखाड़ा के महामंडलेश्वरों में से एक मार्तंड पुरी ने कहा, “इससे साधुओं की पोल खुल गई. कुंभ और अर्ध-कुंभ की गणना आकाशीय पिंडों की स्थिति के हिसाब से की जाती है. उन्हें सरकार के आदेश या फिर बीजेपी को चुनाव में मदद पहुंचाने के लिहाज से नहीं बदला जा सकता है. ये एक राजनीतिक उत्सव है. इसका आयोजन लोगों के बीच संघ के संदेश को पहुंचाने के लिए किया गया है ना कि कुंभ के संदेश को.”

प्रयागराज में आयोजित होने वाले असली कुंभ मेले की एक खास बात है. दरअसल, इसमें हिस्सा लेने वाले भक्त बाद में अयोध्या जाते हैं. अयोध्या को राम की जन्मस्थली माना जाता है. इस साल ऐसी कोई यात्रा नहीं हो रही है. इससे साफ पता चलता है कि भक्तों तक ने नाम के बदले जाने को गंभीरता से नहीं लिया है.

अयोध्या में बिरला धर्मशाला के मैनेजर पवन कुमार ने कहा, “प्रयागराज में जब भी कुंभ होता है तो संगम के दर्शन करने आए भक्तों की अच्छी खासी संख्या अपनी तीर्थयात्रा के हिस्से के तौर पर अयोध्या भी आती है. हालांकि, इस बार आयोध्या की हर धर्मशाला लगभग खाली है. ऐसा इसलिए क्योंकि प्रयागराज से भक्त इधर बिल्कुल नहीं आ रहे हैं.”

साधुओं की चिढ़ और भक्तों की उदासीनता ये दोनों इस बात के सबूत हैं कि बीजेपी ने अर्ध-कुंभ का नाम बदलकर कुंभ भले ही कर दिया हो लेकिन इससे उसे वैसी सफलता नहीं मिली जिसकी इसे उम्मीद थी. इस तथाकथित कुंभ मेले में ताम-झाम तो बहुत किया गया. लेकिन अभी तक ऐसा कोई गंभीर तथ्य सामने नहीं आया है जिसकी वजह से ये माना जा सके कि इस कुंभ की वजह से बीजेपी ने हिंदी बेल्ट के वोटरों के बीच कोई नई पैठ बनाई है.