"पर्यावरण संकट और बाहरी लोगों की बेलगाम आवाजाही लद्दाख की नई चुनौती", सोनम वांगचुक

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25 October, 2019

नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार का जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 खत्म करना, जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा समाप्त करना और इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में तब्दील करने का फैसला लद्दाख के लोगों के लिए एक झटका था. आधिकारिक तौर पर 31 अक्टूबर को इस पूर्ववर्ती राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों - जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में विभाजित किया जाएगा. चीन की सीमाओं से सटा यह उच्च हिमालयी क्षेत्र दशकों से केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहा था. लद्दाखियों की आम सोच है कि इस बार लद्दाख भाग्यशाली रहा. हालांकि, शुरुआती खुशी ने धीरे-धीरे इस दूरस्थ क्षेत्र के लोगों के बीच कई चिंताओं को जन्म दिया है.

स्थानीय लोगों का मानना है कि अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए के तहत मिले संरक्षण के खत्म हो जाने के बाद, बाहर के लोगों के लिए यह खुला चारगाह होगा और वे जमीन खरीदेंगे, निवेश करेंगे और व्यवसाय शुरू करेंगे. उन्हें डर है कि इस क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी, लद्दाख की विशिष्ट संस्कृति और जिंदगी जीने का तरीका, सभी खत्म हो जाएंगे. हाशिए पर धकेल दिए जाने के डर ने लद्दाखी समाज को विभाजित कर दिया है, जो इस हालात के नफा-नुकसान पर उत्साह के साथ बहस कर रहा है. यहां तक कि बाहरी लोगों की आमद की अफवाहें भी उनके बीच हैं. नए प्रशासनिक तौर-तरीकों के तहत विधायिका की गैरमौजूदगी भी उनकी चिंता का एक अहम कारण है. अब मुख्य मांग यह है कि लद्दाख को छठी अनुसूची का दर्जा दिया जाए. भारत के संविधान की छठी अनुसूची आदिवासी बहुल क्षेत्रों के लिए सुरक्षा उपाय प्रदान करती है.

शिक्षाविद और लद्दाख नागरिक समाज की प्रमुख अवाज, सोनम वांगचुक पेशे से इंजीनियर और लद्दाख में हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ अल्टरनेटिव्स के संचालक हैं. कारवां के स्टाफ राइटर, प्रवीण दोंती के साथ बातचीत में, वांगचुक ने लद्दाख के लिए आगे की चुनौतियों पर चर्चा की.

प्रवीण दोंती : 5 अगस्त को सरकार के फैसले के बाद, यहां हर तरफ खुशी थी. दो महीने बाद 31 अक्टूबर को औपचारिक रूप से राज्य के दो हिस्से हो जाएंगे लेकिन ऐसा लगता है कि उस खुशी ने कुछ चिंता और परेशानियां भी पैदा की हैं.

सोनम वांगचुक : जश्न लगभग अविश्वास में था. लद्दाखियों ने 70 वर्षों तक केंद्र-शासित प्रदेश का दर्जा पाने के लिए संघर्ष किया और 30 साल तक बहुत सक्रियता से ऐसा किया लेकिन इस मुकाम को हासिल करना असंभव लग रहा था. कई चुनावों में यह मुद्दा भी बना. अब तो इसे ऐसे वादे की तरह देखा जाता था जो कभी पूरा नहीं हो सकता. हर पार्टी कहती है "हम आपको केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिलाएंगे," और फिर एक दिन ऐसा हो गया. कोई भी इसकी उम्मीद नहीं कर रहा था. यह लोगों की चिंताओं का कारण हो सकता है क्योंकि बिना संघर्ष के ही यह उन्हें मिल गया. 20 या यहां तक की 30 साल पहले भी एक संघर्ष था, लेकिन पिछले दस वर्षों में केंद्र शासित प्रदेश के लिए शायद ही कोई संघर्ष हुआ. जो हुआ वह सिर्फ दिखावटी था.

युवा लोगों को चिंताएं ज्यादा हैं. उन्होंने संघर्षों को नहीं देखा और उन्हें (केंद्र शासित प्रदेश की स्थिति) का मूल्य नहीं पता, इसलिए उनको ज्यादा चिंताएं होने लगीं कि जमीन का क्या होगा, लोगों का क्या होगा, जनसांख्यिकी का क्या होगा और इसी तरह की ही अन्य बातें. लोगों के दिलों में खुशी तो है लेकिन यह सच्चाई है कि दिल बैठा जा रहा है कि हमारी आबादी, जमीन, प्रकृति और पर्यावरण आदि की सुरक्षा का क्या होगा.

प्रवीण दोंती : तो ज्यादातर नौजवान ही चिंतित हैं?

सोनम वांगचुक : बहुत हद तक, हां. हिल काउंसिल के बनने से पहले जम्मू-कश्मीर के साथ होने की सभी तकलीफों को हमारे बुजुर्गों ने झेला है. (लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, एक स्वायत्त जिला परिषद है जो लद्दाख के लेह जिले का प्रशासन करती है. इसे लद्दाख के जम्मू और कश्मीर के साथ धार्मिक और सांस्कृतिक मतभेदों के चलते, उसकी केंद्र शासित प्रदेश के रूप में मान्यता देने की मांग के बाद 1995 में बनाया गया था.) हिल काउंसिल के बनने के बाद, मुद्दे इतने बड़े नहीं रहे हैं. आधे से ज्यादा मुद्दों को हल कर दिया गया है. युवाओं ने भेदभाव और तरह - तरह का उत्पीड़न नहीं देखा है. पुरानी पीढ़ी ने देखा है, उनको विश्वास नहीं हो रहा है, आखिरकार वे आजाद हैं.

प्रवीण दोंती : अगर ज्यादातर समस्याएं हिल काउंसिल बनने से हल हो गईं तो एक केंद्र-शासित राज्य की क्या जरूरत थी?

सोनम वांगचुक : हम वास्तव में स्वायत्त निकाय नहीं थे जिसकी अपनी भाषा नीति, शिक्षा नीति वगैरह हो सकती थी. मेरे लिए, सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक था- लद्दाख में कुछ नया करने, शिक्षा में सुधार में बहुत गतिशील होने और भ्रष्टाचार से दूर रहने की क्षमता. यह सब संभव नहीं था क्योंकि हमें एक ऐसी स्थिति के साथ चलना था जो धीमी गति से भ्रष्ट थी. लद्दाख बहुत साफ-सुथरा रहा है.

इसे कश्मीर के साथ रहने देना लद्दाखी अधिकारियों को भ्रष्ट होने देने जैसा था. ईमानदार लोग टिक नहीं सकते. हम एक बड़ी व्यवस्था में असहज थे. यहां लोगों ने ईमानदार होने के चलते गंभीर समस्याएं झेली हैं. फिर भी, उनमें से अधिकांश बहुत ईमानदार बने हुए हैं, जबकि कुछ (भ्रष्ट) प्रणाली में शामिल हो गए हैं. इसी तरह, अगर हम शिक्षा के क्षेत्र में कुछ हटकर करना चाहते हैं, तो हमें बताया गया कि राज्य (जम्मू और कश्मीर) ऐसा नहीं करता है, इसलिए आप ऐसा नहीं कर सकते. यह एक दौड़ की तरह है जहां आप दूसरे व्यक्ति से बंधे हैं और दूसरा व्यक्ति भागना नहीं चाहता है. मुझे खुशी है कि अभी ये संभव है कि हम उन नैतिक मानकों को वापस ला सकते हैं जिनके बारे में लद्दाख हमेशा से जाना जाता है.

प्रवीण दोंती : अगर मैं कश्मीर से आजादी के बारे में आपकी बातों के विपरीत इस क्षेत्र के देश भर के लोगों के लिए खुल जाने से पैदा होने वाले संस्कृति, परंपरा और जीवन के खतरे जैसी बातों से तुलना करूं जो मैंने लेह में विभिन्न लोगों से सुनी तो ऐसा लगता है जैसे लद्दाख बद से निकलकर बदतर हालत में पहुंच गया है.

सोनम वांगचुक : इसलिए हम प्रगति की बात करने से पहले सुरक्षा उपायों पर जोर दे रहे हैं. हमारी संस्था (एचआइएएल) ने देश के ऐसे विभिन्न स्थानों पर पांच अध्ययन यात्राओं को प्रायोजित किया है जो पहले से ही केंद्र शासित प्रदेश हैं और कुछ में छठी अनुसूची जैसे सुरक्षा उपाय हैं. चूंकि हम एक पर्वत विकास विश्वविद्यालय हैं, हमने सोचा कि इससे हमारी पारिस्थितिकी को संरक्षित करने के लिए एक प्रक्रिया को शुरू करने में मदद मिलेगी. हम चाहते थे कि हिल काउंसिल के पास केंद्र को भेजने के लिए अच्छे इनपुट और सिफारिशें हों. हमने महसूस किया कि चिंतित होना गलत नहीं है. ऐसा मोड़ भी आया था जब पुरानी पीढ़ी ने कहा, “आप नौजवान लोग बेवजह परेशान हैं. आप ये परेशानियां उठाकर हमें जश्न भी नहीं मनाने देते.”

लेकिन अध्ययन यात्राओं पर जाने के बाद लोगों ने देखा कि हमें परेशान होना चाहिए और हमें वक्त रहते सुरक्षा उपायों की मांग करनी चाहिए. हमें न केवल परेशान होना जरूरी है, बल्कि शुरुआत से ही सही चीजों की मांग करनी जरूरी है. जैसे छठी अनुसूची, विधायी शक्तियों के साथ हिल कांउसिल का सशक्तीकरण आदि. सिक्किम के पहचान प्रमाण पत्र (मूलनिवास प्रमाण) जैसी अन्य चीजें, हमारे पास होनी चाहिए जिन्हें हम राज्य का विषय मानते थे. हम इसके बजाय किसी और नाम का इस्तेमाल कर सकते हैं. हम यह मांग कर सकते हैं कि ऐसे संवेदनशील क्षेत्र के लिए इस बात की कोई सीमा होनी चाहिए कि कितने लोग यहां आएं. आप इसे हर किसी के लिए बेलगाम नहीं छोड़ सकते.

प्रवीण दोंती : नौजवानों का परेशान होना सही निकला. आप खुद को कहां रखकर देखेंगे?

सोनम वांगचुक : बीच का रास्ता होना चाहिए. मैं बहुत खुश हूं क्योंकि मैंने अतीत को देखा है और साथ ही बहुत चौकन्ना हूं क्योंकि भविष्य के लिए भी चिंतित हूं.

प्रवीण दोंती: कुछ लद्दाखियों का कहना है कि अगर हिल कांउसिल को विधायी शक्तियां दी भी जाती हैं तब भी यह दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार की तरह ही होगा जिसे अपनी नीतियों को लागू करने के लिए लगातार लेफ्टिनेंट गवर्नर से लड़ना पड़ता है. इसलिए इसका कोई फायदा नहीं होगा. क्या आप इस विचार से सहमत होंगे?

सोनम वांगचुक : मैं इससे सहमत हूं लेकिन फिर हमें इसकी जम्मू-कश्मीर से तुलना करनी होगी जहां हमारी कोई आवाज नहीं थी, हमारे पास कोई विधायी शक्तियां नहीं थीं. अतीत में हम एक स्वतंत्र राज्य थे और अब एक जिले में सिमट गए. इसकी तुलना में केजरीवाल जैसी स्थिति इतनी खराब नहीं है. बाकी सब कूटनीति है - हम किस तरह से काम करेंगे. इसलिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर और केंद्र के साथ ही हमें तालमेल करना होगा. विधायिका होने का दूसरा पक्ष यह है कि हमारे बीच एक बड़ा आंतरिक संघर्ष हो सकता है. कारगिल और लेह के लिए अलग-अलग हिल कांउसिल होने की मौजूदा व्यवस्था बेहतर है. (मुस्लिम बहुल कारगिल और बौद्ध-बहुल लेह लद्दाख के दो जिले हैं.)

पांडिचेरी जैसी विधायिका लेह और कारगिल के बीच भारी राजनीतिक संघर्ष का कारण बनेगी. यह युद्ध जैसी स्थिति होगी. जब भी संसद का चुनाव होता है, लेह और कारगिल के बीच तनाव होता है. अगर एक विधानसभा होती तो यह स्थाई तनाव बन जाता. कारगिल अधिक सीटें और सत्ता पाने की कोशिश कर रहा होगा और लेह अपनी प्रमुखता बनाए रखने के लिए लड़ रहा होगा. संसद की एक सीट के लिए ही यहां जनसांख्यिकीय नियंत्रण के लिए आबादी की भाग-दौड़ हुई है. सोचिए, अगर तीस-चालीस विधानसभा सीटें और एक मुख्यमंत्री हो तो जाहिर है वह उसी इलाके से बनेगा जिसकी आबादी ज्यादा होगी. जब ये दोनों क्षेत्र एक-दूसरे से होड़ करने लगेंगे तो यह बहुत ही सांप्रदायिक हो जाएगा. यह खतरनाक है.

प्रवीण दोंती : लोग कहते हैं कि हिल कांउसिल ज्यादातर विकासात्मक कार्यों के लिए है. क्या यह कांउसिल लद्दाख की संस्कृति और पहचान को कायम रखने की चुनौती से निपटने लायक है?

सोनम वांगचुक : हिल कांउसिल के पास ऐसा करने का अधिकार है लेकिन वे इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं करते. वे कभी भी इसके लिए धन मुहैया नहीं करते हैं और इसे खास तवज्जो भी नहीं देते हैं. केंद्र-शासित प्रदेश में, यह बहुत ज्यादा जरूरी होगा. यह लेफ्टिनेंट गवर्नर को खुश रखने और अपना काम निकालने की बात है. यह हमारे ऊपर ज्यादा है कि हम इसे कैसे करते हैं.

प्रवीण दोंती : लेकिन कई लोग अभी भी एक विधायिका होने की मांग कर रहे हैं.

सोनम वांगचुक : मैं इसे बहुत फायदेमंद नहीं समझता. उदाहरण के लिए, अगर आप पांडिचेरी को देखें तो वहां विकास कम और मुख्यमंत्री तथा लेफ्टिनेंट गवर्नर के बीच तनातनी ज्यादा रहती है. वहां लेह-कारगिल जैसे हालात के बिना ही यह स्थिति है. अगर आप उस स्थिति में लेह और कारगिल के हालात को जोड़ दें, तो इस तनातनी में इजाफा ही होगा.

प्रवीण दोंती : छठी अनुसूची में शामिल मेघालय में बड़े पैमाने पर कोयला खनन होता है. इधर लद्दाख में लोग यूरेनियम भंडार के खनन के बारे में बात कर रहे हैं जिसमें बड़े उद्योगपतियों की बहुत दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन यह लद्दाख के पर्यावरण के लिए जानलेवा हो सकता है.

सोनम वांगचुक : लद्दाखी लोगों को वास्तव में इसके लिए न कहना चाहिए. हमें बड़े उद्योगों के लिए सहमत नहीं होना चाहिए. यह जगह ऐसी चीजों का समर्थन नहीं कर सकती. यह पहले से ही अपनी तीन लाख आबादी के साथ काफी फैला हुआ है. यहां पर्याप्त पानी नहीं है. जो आबादी अभी है, उसे ही वसंत में पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है. आप कल्पना कर सकते हैं कि भविष्य में क्या होगा. ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे और उद्योग भी खत्म हो जाएंगे. लद्दाख को एक शांत प्रकृति अभयारण्य होना चाहिए. सुरक्षा उपायों से इसकी हदबंदी की जानी चाहिए. फिर यह एक सुकूनदेह जगह हो पाएगी, जहां लोग तीर्थयात्रियों की तरह आएंगे न कि लुटेरों की तरह.

प्रवीण दोंती : एक पर्यावरणविद के रूप में आपने कहा है कि जलवायु परिवर्तन के मामले में लद्दाख सबसे आगे है. आप पर्यटन के लिए क्या हद तय करना चाहेंगे?

सोनम वांगचुक : सीमित पर्यटन. उदाहरण के लिए यह कहना मुश्किल है कि कुछ चीजें (जैसे व्यवसाय करना) स्थानीय लोग कर सकते हैं और गैर-स्थानीय लोग ऐसा नहीं कर सकते. यह स्थानीय और गैर-स्थानीय होने के बजाय छोटे पैमाने पर होने का मामला अधिक है. अध्ययन यात्रा परिचर्चा से एक अच्छा सुझाव सामने आया कि बाहरी व्यक्ति और स्थानीय व्यक्ति कहने के बजाय क्यों न यह कहा जाए कि "25 कमरों वाले एक होटल से ज्यादा की अनुमति नहीं दी जाएगी." शायद कोई भी बड़ा कारोबारी ऐसा करने में दिलचस्पी नहीं रखेगा. ऐसा कुछ करने की जरूरत है.

प्रवीण दोंती : क्या आपको लगता है कि लद्दाख को छठी अनुसूची का दर्जा देने से सभी समस्याओं और चिंताओं का समाधान हो जाएगा?

सोनम वांगचुक : इसे लद्दाख की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाना होगा. यह किसी भी तरह का हो सकता है. यह अलग-अलग राज्यों में एक समान नहीं है. मुझे थोड़ा देर से इस बारे में चिंता हुई क्योंकि हम अभी छठी अनुसूची के बारे में नहीं सुनते हैं. शुरुआत में यह कागजों पर ही था कि विभिन्न मंत्रालयों ने लद्दाख को छठी अनुसूची की तरह कुछ देने की सिफारिश की है. अचानक सब बंद हो गया इस बारे में एक चुप्पी है. वे लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल नहीं करेंगे तो यह अच्छा नहीं होगा.

प्रवीण दोंती : अगर लद्दाख को कोई सुरक्षा उपाय नहीं दिया जाता है तो आगे क्या कार्रवाई की योजना है?

सोनम वांगचुक : भले ही वे छठी अनुसूची में शामिल नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे आसानी से कुछ भी नहीं देना चाहते हैं. वे शायद इसे धीरे से देना चाहते हैं और अपनी पार्टी के लिए कुछ श्रेय पाना चाहते हैं. शायद लोग लड़ेंगे और थोड़ा शोर-शराबा करेंगे.

प्रवीण दोंती : क्या इसे लेकर भी कोई चिंता है कि एक हिंदू-बहुमत वाली भारतीय जनता पार्टी लद्दाख में अपना प्रभाव और जमीन बना रही है?

सोनम वांगचुक : मैं कहूंगा कि चिंताएं हैं क्योंकि लद्दाख की संस्कृति बहुत अलग है और लोगों को उस पर गर्व है. अचानक, अगर उन्हें बताया जाता है कि "आप बड़ी संस्कृति का एक छोटा हिस्सा हैं, यह सब एक ही है, चाहे इस तरह से व्यवहार करो या उस तरह से." बौद्धों के साथ-साथ मुसलमानों के बीच भी इसे लेकर चिंताएं हैं.

प्रवीण दोंती : क्या यह सच है कि बाहरी हस्तक्षेप किया गया है? जब से बीजेपी ने सत्ता संभाली है हिल कांउसिल के लिए जम्मू में बीजेपी पार्टी इकाई द्वारा ज्यादा से ज्यादा चीजें तय की जा रही हैं?

सोनम वांगचुक : अभी तक हिल कांउसिल के कामकाज में तो नहीं लेकिन हिल कांउसिल की नियुक्तियों में ऐसा हो रहा है. हिल कांउसिल का अध्यक्ष कौन होना चाहिए, इस तरह के खुले और शर्मनाक निर्णय जम्मू से लिए जाते थे. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ और न ही होना चाहिए. कुछ लोग आज जम्मू से तय कर रहे हैं और कल शायद दिल्ली से तय करें कि लद्दाखी लोगों के चुने हुए प्रतिनिधि कौन होंगे. यहां के लोगों के लिए यह बहुत चिंता का विषय है.

प्रवीण दोंती : लद्दाख अचानक जटिल और दूरगामी परिवर्तन के साथ बाहर के प्रभाव को देख रहा है. क्या यह क्षेत्र उस हद तक पहुंच जाएगा जहां इसे खुद को कायम रखने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा?

सोनम वांगचुक : कहना मुश्किल है. यह हमारे नेताओं की हालत पर निर्भर करेगा. एक शक्तिशाली पार्टी (बीजेपी) के साथ, यह बहुत मुश्किल है क्योंकि यहां सत्ता में रहने वाले लोग एक ही पार्टी के हैं. वे ज्यादा विरोध और ज्यादा मांग नहीं कर सकते. जब आप किसी बड़ी पार्टी का बहुत छोटा सा हिस्सा होते हैं तो आप उसके सामने नहीं खड़े हो सकते. यही मेरी सबसे बड़ी चिंता है. हमारे सांसद, हमारे हिल कांउसिल के अध्यक्ष उन चीजों के लिए "हां" कह सकते हैं जो समझौतावादी हो सकती हैं. वे बड़ी पार्टी के छोटे हिस्से हैं और पार्टी के बड़े हिस्से से कह रहे हैं "हमने आपको यह दिया, जैसा चल रहा है चलने दो."

इसलिए, नागरिक समाज को अपनी आवाज उठाने में उनकी मदद करनी होगी. सत्ता में बैठे लोग अगर चतुर हैं, तो उन्हें न केवल नागरिक समाज द्वारा उठाए गए सवालों पर आपत्ति जताने से बचना चाहिए बल्कि इसे प्रोत्साहित करना चाहिए क्योंकि तब यह जनता की मांग होगी. वे कह सकते हैं, "हमारे लोग इसे स्वीकार नहीं करते और यह पार्टी में बुरी तरह दिखाई देगा," फिर पार्टी को सुनना पड़ेगा. अगर लोग साथ नहीं हैं और यह पार्टी और हमारे नेताओं के बीच की बात हो, तो यह बंद कमरे में एक दैत्य और एक बौने के बीच बात करने जैसा होगा. अगर एक स्टेडियम लोग हों तो वे कम से कम उन्हें धिक्कार तो सकते हैं. इसलिए अब लोगों और नागरिक समाज की एक महत्वपूर्ण भूमिका है.

प्रवीण दोंती : मैंने लोगों को यह कहते सुना है कि लद्दाख के वर्तमान सांसद जम्यांग सेरिंग नामग्याल शायद अपने ही लोगों की तुलना में बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ज्यादा करीब हैं. क्या आप लद्दाख के पूर्व बीजेपी सांसद थुपस्तान छेवांग जैसे निर्णायक नेता को याद करते हैं, जिन्होंने केंद्र-शासित प्रदेश की स्थिति के मुद्दे पर 2019 के आम चुनावों से कुछ महीने पहले पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. जिन्होंने लोगों की चिंताओं को दूर करने में कभी संकोच नहीं किया?

सोनम वांगचुक : हां, यही मैं कह रहा हूं, एक बौना और एक दैत्य का मेल - एक जटिल मेल है. हम लोगों को यह जानने के लिए तो शिक्षित कर सकते हैं कि क्या गलत है क्या सही है, क्या बुरा है क्या अच्छा है, क्या विनाशकारी है और क्या रचनात्मक है. हम उनसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे आवाज उठाएं. फिर नेता, यह जानते हुए कि लोग सब कुछ जानते हैं, बेहतर व्यवहार करेंगे. यही हमारा एकमात्र मौका है. यही कारण है कि हमने अध्ययन दौरों पर सभी धर्मों, दलों और सभी क्षेत्र के लोगों को भेजा. हम जन सुनवाई आयोजित करने की उम्मीद कर रहे हैं ताकि लोग खुद को शिक्षित कर सकें. कल, अगर हमारे नेता कहते हैं, "छठी अनुसूची की जरूरत नहीं है," तो लोग उन्हें "नकार" देंगे.

प्रवीण दोंती : जागरुकता अभियान कैसा चल रहा है?

सोनम वांगचुक : अभी यह बहुत मजबूत नहीं है लेकिन यह मजबूत होना चाहिए. हम लोगों से उनकी चिंताओं के बारे में बात करने और जो वे कहते हैं उसे साझा करने के लिए उन लोगों को अंदरूनी हिस्सों में भेजने पर विचार कर रहे हैं, जो अध्ययन यात्रा पर गए थे. उदाहरण के लिए, त्रिपुरा में आदिवासी आबादी 80 प्रतिशत और गैर-आदिवासी 20 प्रतिशत हुआ करती थी. अब बीस साल बाद ठीक इसका उलटा है. हम 31 अक्टूबर को घोषित होने से पहले जागरुकता बढ़ाने की उम्मीद करते हैं. समय बहुत कम है.

प्रवीण दोंती : लद्दाखी के रूप में आप खुश हैं कि आपको केंद्र-शासित प्रदेश बना दिया गया है. धारा 370 को प्रभावी तरीके से निरस्त करने और कश्मीर में संचार नाकाबंदी सहित कई गंभीर प्रतिबंधों के बारे में आपका क्या कहना है?

सोनम वांगचुक : मैंने प्रतिबंधों के बारे में अभी कुछ नहीं कहा. मेरा निजी विचार है कि हमें खाली कश्मीर को 370 की सुविधा नहीं देनी चाहिए. हर राज्य को खुद को सुरक्षित रखने और भारत के संघीय ढांचे के साथ सामंजस्य रखने की अनुमति दी जानी चाहिए. मेरा ऐसा मानना राजनीतिक नजरिए से नहीं बल्कि एक पर्यावरणीय नजरिए से है. जब लोग एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं तो उनका शोषण होता है. कोई पड़ोसी घूमने तो जा सकता है लेकिन वह वहां बस नहीं सकता. यह इस तरह से नहीं है जैसे परिवार का सदस्य परिवार की देखभाल करता है. हिमाचल प्रदेश के लोगों को हिमाचल प्रदेश की देखभाल की इजाजत दी जानी चाहिए, तमिल नाडु के लोगों को तमिल नाडु की देखभाल की इजाजत दी जानी चाहिए. प्रत्येक स्थान को खुद ही अपनी देखभाल करनी चाहिए. तब बाहरी लोगों से शोषणकारी व्यवहार नहीं होगा. कश्मीर को यह अधिकार था लेकिन महाराष्ट्र को नहीं था, इसलिए बाहरी लोग वहां आ गए. बाहरी लोग स्थानीय लोगों का सम्मान नहीं करते. भारत की एकता उसकी विविधता में होनी चाहिए. इसे बहुत सारी विविधता के साथ एक संघीय राष्ट्र बनना चाहिए. हर जगह को अपनी देखभाल करने का अधिकार दिया जाना चाहिए.