लेस्टर में दशकों की दक्षिण एशियाई एकता टूटने से हिंदू और मुसलमान दोनों को नुकसान

प्रधानमंत्री को एक याचिका पेश करने से पहले सांसदों की पैरवी करने के लिए में लंदन में हाउस ऑफ कॉमन्स के रास्ते पर ग्रुनविक हड़ताल में भाग लेने वाले कार्यकर्ता. नस्लवाद और आर्थिक शोषण के खिलाफ अश्वेत और एशियाई कार्यकर्ताओं द्वारा इस तरह की एकजुट कार्रवाई की कहानियां इतिहास के पाठ्यक्रम से पूरी तरह से गायब हैं और बड़े पैमाने पर सामुदायिक स्मृति के मौखिक रूपों में भी खत्म होने लगी हैं. पीए इमेजि​ज / अलामी स्टॉक फोटो
16 November, 2022

भले ही इंग्लैंड के लेस्टर शहर का हाल का इतिहास नस्ली दुश्मनी का इतिहास रहा हो लेकिन सितंबर में जिस बर्बरता के साथ यह शहर सांप्रदायिक हिंसा की आंधी में बह गया उसने पुलिस, प्रेस और स्थानीय समुदायिक नेताओं को सकते में डाल दिया. यह हिंसा 28 अगस्त को एक मैच के बाद क्रिकेट प्रशंसकों के बीच हल्की सी झड़प के साथ शुरू हुई लेकिन अगले कुछ हफ्तों तक बेचैनी की हालत बनी रही. समाचार पत्र दि गार्जियन ने पूर्वी लेस्टर में सात सांप्रदायिक गड़बड़ियों की रिपोर्ट दी है.

इसके बाद 17 सितंबर तक स्थिति बदल जाती है. ऐसा तब हुआ जब 300 युवा हिंदुओं की हथियारबंद भीड़ ने मास्क पहन कर मुस्लिम-बहुल ग्रीन लेन रोड से "जय श्रीराम" और "वंदे मातरम" के नारे लगाते हुए मार्च निकाला. यह ऐसा नजारा था जिसे आधुनिक भारत का जानकार कोई भी इनसान तुरंत पहचान सकता था. वहां मौजूद पुलिसबल इतना नहीं था कि होने वाली हिंसा को रोक सके. इसके बाद भीड़ मेल्टन रोड तक गई, जहां इतनी ही तादाद में दक्षिण एशियाई मुस्लिम नौजवानों ने भी जवाबी जुलूस निकाला. दोनों समुदायों के बीच हाथापाई के बाद आखिरकार पुलिस वहां पहुंची और दोनों समूहों को अलग-अलग करने में कामयाब हुई.

तीन दिन बाद, यह तनाव बर्मिंघम के स्मेथविक इलाके में फैल गया जहां कुछ 200 नकाबपोश मुस्लिम मर्द दुर्गा भवन मंदिर में हिंदुओं से टकराए. अफवाहें जोरों पर थीं कि उग्रवादी हिंदू समूह दुर्गा वाहिनी की संस्थापक निशा ऋतंभरा मंदिर में भाषण देने जा रही है. आयोजकों ने ऋतंभरा की खराब तबीयत का हवाला देते हुए उनके दौरे को रद्द कर दिया लेकिन तब तक सांप्रदायिक झड़पें दुनिया भर में सुर्खियां बटोर रही थीं और उनके कार्यक्रम रद्द हो रहे थे. संयुक्त राज्य अमेरिका में उनके होने वाले भाषण दौरे रद्द हो गए. एक हफ्ते की झड़प और तोड़फोड़ के बाद पुलिस ने 55 लोगों को गिरफ्तार किया.

लेस्टर में सांप्रदायिक तनाव के बारे में ज्यादातर रिपोर्टिंग यह मानती है कि धार्मिक विभाजन ब्रिटेन में दक्षिण एशियाई समुदायों के प्राकृतिक पहलू हैं. इन समुदायों के इतिहास अधिक भिन्न नहीं हो सकते. भले ही दक्षिण एशियाई प्रवासी लेस्टर में विभाजन के क्रूर भाईचारे की छाया में पहुंचे, इन समुदायों ने एक गहरी क्रॉस-धार्मिक, क्रॉस-महाद्वीपीय एकता साझा की, खासकर नस्लवाद और गरीबी के सामान्य अनुभवों के विरोध में. लेकिन ब्रेक्सिट के बाद यानी युरोपीयन संघ से ब्रिटेन के बाहर हो जाने के बाद से ही ब्रिटेन में गरीबी और नस्लवाद फिर से बढ़ रहा है, ताजातरीन वाकए बताते हैं कि आर्थिक और सांस्कृतिक ठहराव का सामना करने के लिए दक्षिण एशियाई अलग-अलग रास्ते अपनाते हैं. लेस्टर में भीड़ ब्रिटिश सरकार की दशकों की नीति और हिंदू दक्षिणपंथ की लामबंदी का नतीजा थी जिसने धीरे-धीरे एक ऐसे समुदाय के जख्मों को उघाड़ दिया था जो पहले खुद को धार्मिक आधार पर परिभाषित नहीं करता था.

दक्षिण एशियाई प्रवासी की उपस्थिति की कहानी 1948 के ब्रिटिश राष्ट्रीयता अधिनियम से शुरू होती है, जिसने तकनीकी रूप से राष्ट्रमंडल में रहने वालों को ब्रिटेन में बसने और काम करने का अधिकार दिया. द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में मदद करने के लिए ब्रिटिश सरकार कैरिबियन, पाकिस्तान और भारत के मजदूरों को लाई. भारत और पाकिस्तान के लोग लेस्टर के स्पिनी हिल और बेलग्रेव इलाकों में चले गए, जहां किफायती निजी आवास उपलब्ध थे. उनमें जालंधर और होशियारपुर के वे पंजाबी भी शामिल थे जो युद्ध के दौरान सशस्त्र बलों में थे.

नव निर्मित राष्ट्रमंडल से बंधे आरामदायक भविष्य के लिए दक्षिण एशियाई प्रवासियों का आशावाद और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान साझा दुख की स्मृतियां उनके आगमन के बाद जल्द ही समाप्त हो गए. पूर्व उपनिवेशों के प्रवासियों को खेलों से बहिष्कार और प्रचलित सांस्कृतिक जीवन सहित समाज के लगभग हर स्तर पर नस्लवाद का सामना करना पड़ा. एक जरूरत बतौर उन्होंने खुद को संगठित करना शुरू कर दिया. लेस्टर में भारतीय समुदाय ने 1955 में अपनी खुद की फिल्म सोसायटी बनाई. 1948 में एक एफ्रो-कैरेबियन क्रिकेट टीम शुरू हुई जो 1957 में वेस्ट इंडियन स्पोर्ट्स एंड सोशल क्लब बन गई. जल्द ही धार्मिक आयोजन भी होने लगे. लेस्टर की पहली मस्जिद 1962 में खुली, इसका पहला गुरुद्वारा 1963 में और हिंदू मंदिर 1969 में खुला.

अपने सांस्कृतिक मतभेदों के बावजूद दक्षिण एशियाई और एफ्रो-कैरेबियन प्रवासियों को ब्रिटेन में उपनिवेशवाद और नस्लवाद के समान अनुभवों का सामना करना पड़ा. यह अक्सर आत्मरक्षा और अस्तित्व के लिए संयुक्त संघर्ष का कारण बना. इंग्लैंड में पूर्व उपनिवेशित लोगों के इस तरह के एकजुट संघर्षों का ब्रिटिश सरकार द्वारा लगातार विरोध किया गया. यह 1962 के राष्ट्रमंडल अप्रवासी अधिनियम में सबसे अधिक दिखाई देता है, जिसका उद्देश्य विशेष रूप से कैरिबियन और दक्षिण एशिया से प्रवास के प्रवाह को सीमित करना था.

इस तरह का रवैया अक्सर इन समुदायों को एक दूसरे के करीब ही बांधती है. कैरेबियन और एशियाई समुदायों के बीच काम करने वाले जाने माने जमीनी स्तर के संगठनकर्ता क्लाउडिया जोन्स ने पंजाबी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता अभिमन्यु मनचंदा के साथ मिल कर 1962 के अधिनियम के खिलाफ प्रचार किया था कि इसका "मुख्य उद्देश्य अश्वेत आव्रजन में कटौती करना है" और ऐसा कर​के यह "दुनिया के सामने घोषणा करेगा कि यह एक बहु-नस्लीय राष्ट्रमंडल नहीं है बल्कि ऐसी जगह होगी जिसमें बहुसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक होंगे." उन्होंने तर्क दिया कि कानून ने "श्वेत और अश्वेत मजदूरों और लोगों के बीच विभाजन" से "नस्लवाद को... सिद्धांत और व्यवहार में नस्लीय पूर्वाग्रह को हरी झण्डी" दिखाई है.

जोन्स और मनचंदा के बीच के संबंध ने यह भी दर्शाया कि प्रवासी एकता उनके मजबूत मार्क्सवादी झुकाव से कैसे जुड़ी हुई थी और कैसे अश्वेत मजदूर वर्ग के लोगों के अधिकार से आर्थिक और नस्लीय शोषण को चुनौती दी जा सकती थी. ब्रिटिश सरकार ने धार्मिक सांप्रदायिक आधार पर परिभाषित समुदायों को कोटा-किस्म के अनुदान की स्थापना करके इसका जवाब दिया. उपनिवेशों में विरोध को बांटने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ब्रिटिश नीति को अब अपने घर लेस्टर, बर्मिंघम और ब्लैकबर्न के अश्वेत मजदूर वर्ग के खिलाफ आजमाया गया था.

युगांडा के तानाशाह इदि अमीन की दक्षिण एशियाई लोगों को निकालने की नीति के बाद इस तरह के बंटवारे की कोशिशें और बढ़ गईं. 1968 के बाद के दशकों में, पूर्वी अफ्रीका से विस्थापित एशियाई लोग ब्रिटेन के किसी भी शहर की तुलना में लेस्टर जा बसे. बेलग्रेव, मेल्टन रोड और रशी मीड, जिन क्षेत्रों में हाल ही में सांप्रदायिक हिंसा का सबसे हालिया विस्फोट हुआ, उन्हें इस समय के आसपास पूर्वी अफ्रीकी एशियाई लोगों ने बड़े पैमाने पर बसाया गया था. 1951 में शहर में केवल 638 दक्षिण एशियाई थे, लेकिन 1981 तक, इसमें राष्ट्रमंडल के छह हजार से अधिक लोग थे. उनमें से ज्यादातर कारखाने के कर्मचारी थे. उदाहरण के लिए 1974 में इम्पीरियल टाइपराइटर कंपनी की लेस्टर-आधारित फैक्ट्री में 1600 कर्मचारी कार्यरत थे, जिनमें से 1100 दक्षिण एशियाई थे, जिनमें से ज्यादातर पूर्वी अफ्रीका की महिलाएं थीं.

एशियाई कामगारों ने पाया कि उन्हें गोरों के स्वामित्व वाली फैक्ट्री में उनके समकक्ष गोरों की तुलना में काफी कम वेतन दिया जा रहा था और मई 1974 में वे हड़ताल पर चले गए. उन पर नस्लवादियों द्वारा हमला किया गया और कई स्ट्राइकरों को गिरफ्तार किया गया लेकिन अंततः हड़ताल सफल रही. नस्लवाद और आर्थिक शोषण के खिलाफ इस तरह की एकजुट कार्रवाई की कहानियां इतिहास के पाठ्यक्रम से पूरी तरह गायब हैं और इस क्षेत्र में सामुदायिक स्मृति के मौखिक रूपों में भी काफी हद तक खत्म होने लगी हैं. जैसे लंदन में इंपीरियल टाइपराइटर में हड़ताल की विरासत, पूर्वी अफ्रीकी एशियाई कार्यकर्ता जयबेन देसाई के नेतृत्व में ऐतिहासिक दो साल की ग्रुनविक हड़ताल, लेस्टर में दक्षिण एशियाई मजदूर वर्ग के युवाओं की चेतना और कल्पना में कोई असर नहीं रखती.

इस इतिहास का विलोपन आकस्मिक नहीं है. यह एक ऐसी प्रक्रिया थी जो 1980 के दशक में मार्गरेट थैचर द्वारा ट्रेड यूनियनों को कुचलने के साथ शुरू हुई. दक्षिण एशिया के हिंदू, मुस्लिम और सिख युवाओं को एक साथ लाने वाली यूनियनों के भीतर के सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन भी मुरझा गए. वर्ग-आधारित एकजुटता कमजोर होने के साथ, ब्रिटिश सरकार ने भी जातीय मतभेदों को दूर किया. 1991 में पहली बार ब्रिटेन की जनगणना ने राष्ट्रियता के बारे में एक सवाल था जिसमें लोगों को खुद को एशियाई भारतीय, एशियाई पाकिस्तान, एशियाई बांग्लादेशी या एशियाई अन्य के रूप में पहचानने को कहा. पूर्वी अफ्रीकी एशियाई लोगों के लिए कोई श्रेणी नहीं थी. लेस्टर में साठ हजार भारतीय, लगभग चार हजार पाकिस्तानी, एक हजार बांग्लादेशी और दो हजार से अधिक एशियाई अन्य के रूप में दर्ज किए गए.

लीसेस्टर और बर्मिंघम में हिंदू और मुस्लिम युवकों के बीच झड़प के बाद प्रदर्शनकारी लंदन में भारतीय उच्चायोग के बाहर जमा हो गए. लीसेस्टर में भीड़ ब्रिटिश सरकार की दशकों की नीति और हिंदू दक्षिणपंथ की लामबंदी का नतीजा थी, जिसने धीरे-धीरे एक ऐसे समुदाय के जख्मों को उघाड़ दिया था जो पहले खुद को धार्मिक आधार पर परिभाषित नहीं करता था. वुक वाल्सिक / अलामी स्टॉक फोटो

दक्षिण एशियाई पहचान के लिए यह बंधन अगली जनगणना से ही मजबूत हुआ. 2001 में लोगों को धर्म के आधार पर अपनी पहचान बताने के लिए कहा गया. 2011 तक दक्षिण एशियाई और अन्य दोनों सहित मुसलमानों की आबादी ने हिंदू आबादी को पीछे छोड़ दिया जिससे वे लेस्टर में सबसे बड़ा गैर-ईसाई समूह बन गए. जबकि इस नीति के पैरोकार इसे सरकार द्वारा प्रणालीगत नस्लवाद को संबोधित करने के प्रयास के रूप में बताते हैं, यह अक्सर समावेश और विविधता के नाम पर विभाजन को संस्थागत बनाने के ब्रिटिश औपनिवेशिक दृष्टिकोण के समान ही असर डालता है. इन अचानक हुए मनमानी बदलावों के लिए अक्सर बहुत कम स्पष्टीकरण होता है. उदाहरण के लिए 2021 की जनगणना में रोमा लोगों को  "श्वेत" श्रेणी में जोड़ा गया. यह एक प्रवासी समुदाय है, जिनमें से कई अपना वंश दक्षिण एशिया में पाते हैं. इन्हें सदियों से यूरोप में नस्लीय उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है. 2021 की जनगणना भी एशियाई कैरेबियाई लोगों के लिए श्रेणियां बनाने में विफल रही है.

जनगणना का वर्गीकरण अपने आप में रोजमर्रा की जिंदगी से कोसों दूर है. हालांकि जब स्थानीय और राष्ट्रीय सरकारों की दशकों पुरानी नीति के साथ इन श्रेणियों के लिए कोटा के आधार पर धन का वितरण किया गया, तो इसमें सामुदायिक विभाजन के बहुत ही वास्तविक रूपों का नेतृत्व करने की क्षमता थी. तमाम एशियाई मेहनतकश तबके को बढ़ती गरीबी और घटती सेवाओं की समान समस्याओं का सामना करना पड़ता है. फिर भी लोग सांप्रदायिक समुदायों और उस से प्रेरित राजनीति की ओर आकर्षित हो रहे हैं. राजनीतिक दल भी शहर में विभिन्न धार्मिक समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले सामुदायिक दरबानों के जरिए वोट हासिल करने की कोशिश करके इन विभाजनों को कायम रखते हैं. 2014 तक, लेस्टर ब्रिटेन के सबसे धार्मिक क्षेत्रों में से एक था जिसमें लगभग एक चौथाई निवासी धार्मिक जीवन में भाग लेते थे.

इन नीतियों का प्रभाव 1990 के दशक की शुरुआत से ही दिखाई दे रहा है. जुलाई 1992 में ब्लैकबर्न में भारतीय और पाकिस्तानी आपस में भिड़ गए. पुलिस ने आखिरकार 39 युवकों को गिरफ्तार किया और कुछ 50 पेट्रोल बम जब्त किए. एक साल बाद बर्मिंघम, कोवेंट्री और डर्बी में इसी तरह के सांप्रदायिक हमले हुए, जिसमें हिंदू मंदिरों पर आग के बम फेंके गए. 1995 में पश्चिम लंदन में साउथहॉल और हाउंस्लो के कॉलेज सिख और मुस्लिम दक्षिणपंथी समूहों के बीच झड़पों से सहमे हुए थे.

इसने लेस्टर के लोगों को कहां पहुंचा दिया है? शहर में हिंदू और मुस्लिम दोनों क्षेत्र उसी दरिद्रता और उपेक्षा में अस्तित्वमान हैं जो देश में मजदूर वर्ग के समुदायों में देखी जा रही है. महामारी से पहले यह अनुमान लगाया गया था कि इस शहर के सभी बच्चों में से 40 प्रतिशत (लगभग तीस हजार) गरीबी में जी रहे थे. ऑफिस फॉर नेशनल स्टैटिस्टिक्स यानी राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, ब्रिटेन में लेस्टर की घरेलू खर्च योग्य आय सबसे कम है. कोविड-19 महामारी के दौरान लेस्टर परिधान-कारखाने के मजदूरों के "चरम-शोषण" के रूप में दर्ज किए जाने वाले मामलों की संख्या में बड़े उछाल के लिए सबसे कुख्यात शहर बन गया, जिनमें से अधिकांश दक्षिण एशियाई महिलाएं हैं जो हाल ही में देश में आई हैं. अध्ययनों से पता चलता है कि लेस्टर के कारखानों में मजदूरों को प्रति घंटे तीन पाउंड भुगतान किया जाता है- हालांकि रिपोर्टिंग से पता चलता है कि यह और भी कम हो सकता है- बावजूद इसके कि ब्रिटेन में 25 साल और उससे ज्यादा की आयु के लोगों के लिए तय न्यूनतम मजदूरी 8.72 पांउड प्रति घंटा है.

1970 के दशक में लेस्टर में कारखाने के मजदूरों ने जो शोषण झेला और मौजूदा शोषण के बीच महत्वपूर्ण फर्क यह है कि कई नियोक्ता अब खुद दक्षिण एशियाई मूल के हैं. लेस्टर में इन युवाओं के लिए खुद को हिंदू या मुस्लिम के रूप में देखने से उन लोगों को पहचानने की उनकी क्षमता कम हो जाती है जो उनके समुदायों को लगातार गरीब बना रहे हैं. यहां तक कि इस क्षेत्र में मजूदरों को प्रति घंटे महज तीन पाउंड मिलते हैं. एक ऑनलाइन फैशन रिटेलर बूहू ग्रुप, जो लेस्टर के आसपास के कारखानों से अपने ज्यादातर तैयार कपड़े पाता है, के पूर्वी अफ्रीकी एशियाई कार्यकारी अध्यक्ष ने 2020 में खुद को 150 मिलियन पांउड का बोनस दिया. यह आंकड़ा अन्य दक्षिण एशियाई लोगों के लिए भी इसी तरह का होगा, जो शहर में परिधान आपूर्ति चेन के विभिन्न हिस्सों के मालिक हैं.

इन प्रवृत्तियों के केवल भारत में हिंदुत्व के उदय और मुस्लिम दुनिया के कुछ हिस्सों में सांप्रदायिक उग्रवाद से और अधिक बन जाने की संभावना है. लेस्टर में युवा सेवाओं के लिए फंडिंग में नाटकीय रूप से कटौती की गई है जिससे लोगों को एकजुट करने वाली सांस्कृतिक और खेल गतिविधियों तक पहुंच बंद हो गई है. बोरियत और गरीबी को कुचलने की कुंठा धार्मिक अतिवाद को कुछ युवकों के लिए आकर्षक बना रही है. यह उन सैकड़ों युवा मुस्लिम मर्दों में सबसे अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है जिन्होंने अरब बसंत के दौरान सीरिया और आगे की ओर सांप्रदायिक मिलिशिया में शामिल होने के लिए ब्रिटेन छोड़ा था. हिंदू युवाओं को अपनी हिंसक भीड़ में शामिल होने के लिए चंद सड़कों से ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अंतर्राष्ट्रीय शाखा हिंदू स्वयंसेवक संघ का ब्रिटिश चैप्टर 1966 में स्थापित किया गया था. तब से यह लगातार बढ़ रहा है, अब 100 शाखाओं और 2000 साप्ताहिक उपस्थितियों का दावा करता है. 1974 में एक चैरिटेबुल संस्था के रूप में पंजीकृत होने के बाद यह इंग्लैंड और वेल्स के चैरिटी आयोग द्वारा इस बात की जांच करने के बावजूद सरकारी धन प्राप्त करता है कि क्या संगठन "ऐसे विचारों को बढ़ावा दे रहा है जो सामाजिक सामंजस्य के लिए हानिकारक हैं, जैसे कि किसी विशेष विश्वास को बदनाम करना या धार्मिक या नस्लीय आधार पर अलगाव को बढ़ावा देना.”

हिंदुत्व समूहों ने भी ब्रिटेन के बढ़ते श्वेत-राष्ट्रवादी आंदोलन को सहयोग देना शुरू कर दिया है. ब्रिटेन में सबसे कुख्यात घोर दक्षिणपंथी प्रचारकों में से एक टॉमी रॉबिन्सन का असली नाम स्टीफन याक्सली-लेनन है- जो इंग्लिश डिफेंस लीग का नेतृत्व करता है. जबकि उसका नजरिया पुराने नेशनल फ्रंट की तरह के भड़काने वालों की याद दिलाता है, वह और उसके जैसे बाकी लोग अक्सर इस्लामोफोबिक लोकलुभावन आंकड़ों का एक वैश्विक गठबंधन बनाने की कोशिश करते हैं एवं डोनाल्ड ट्रम्प, बेंजामिन नेतन्याहू और नरेन्द्र मोदी का जश्न मनाते हैं.

 2009 से ईडीएल ने हिंदू समुदाय में मुस्लिम विरोधी समूहों को लामबंद किया है. याक्सली-लेनन ने अपने एजेंडे में हिंदुओं को शामिल करने के लिए उन्हें प्रभावित करने के एक तरीके बतौर आरएसएस के पूर्व नेता तपन घोष के साथ मिल कर काम किया. उन्होंने सोशल मीडिया पर वीडियो जारी करके लेस्टर हिंसा को भुनाने की भी कोशिश की और अपने दक्षिणपंथी समर्थकों से "हिंदुओं के साथ खड़े होने" के लिए कहा. जिस गति और सहूलियत से हिंदू युवा गोरे राष्ट्रवादियों का साथ देते हैं उससे यह विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि कुछ दशक पहले मुस्लिम और हिंदू युवा और कार्यकर्ता नस्लवादी सड़क हमलों के खिलाफ एक साथ लड़े थे.

न तो हिंदू-राष्ट्रवादी संगठनों के उग्रवाद ने और न ही श्वेत-राष्ट्रवादी संगठनों से उनकी निकटता ने ब्रिटेन के सबसे बड़े राजनीतिक दलों से मिलने वाले समर्थन को सीमित किया है. संसद के कई कंजर्वेटिव सदस्यों ने ब्रिटेन में हिंदुत्ववादी ताकतों के साथ खुले तौर पर गठबंधन किया, 2013 में, पूर्व प्रधान मंत्री डेविड कैमरन के साथ गुजरात दंगों में मोदी के शामिल होने के कारण मोदी के साथ एक दशक से चली आ रही कूटनीतिक रोक को खत्म कर दिया. 2019 में ब्रिटिश आम चुनाव के दौरान, भारतीय जनता पार्टी से नजदीकी रखने वाले तत्वों ने ब्रिटिश हिंदुओं को व्हाट्सएप मैसेज भेजकर टोरी के पक्ष में चुनाव को प्रभावित करने की मांग की, जिसमें लेबर पार्टी पर "भारत विरोधी", "हिंदू विरोधी" और " मोदी विरोधी" होने का आरोप लगाया गया. ऐसे ही एक मैसेज ने लेबर पार्टी को "पाकिस्तानी सरकार का मुखपत्र" कहा और कहा कि पार्टी के भारतीय समर्थकों ने "अपनी पुश्तैनी जमीन, भारत में अपने परिवार और दोस्तों और अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ गद्दारी की हैं."

यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं है, यह देखते हुए कि रूढ़िवादियों के राजनीतिक खयाल बीजेपी से बहुत अलग नहीं है. हालांकि, हिंदुत्व का फायदा दोनों ही उठाते हैं. लेबर सांसद और शेडो कैबिनेट के पूर्व सदस्य बैरी गार्डिनर का मोदी और बीजेपी के साथ एक खास रिश्ता है, जो बीजेपी सरकार की गहरी समस्याग्रस्त सांप्रदायिक राजनीति पर प्रकाश डालता है. मोदी को फिर से चुने जाने पर बधाई देने के अलावा, गार्डिनर ने मोदी सरकार के नवउदारवादी सुधारों का विरोध कर रहे भारतीय किसानों का समर्थन करने से इनकार कर दिया, इसके आर्थिक एजेंडे के लिए अपना व्यापक समर्थन व्यक्त किया. यह न केवल अति दक्षिणपंथ के खिलाफ लेबर पार्टी के खड़े होने के इतिहास का अपमान है, बल्कि पार्टी की स्थापना करने वाली आर्थिक विचारधारा के विपरीत है.

लेस्टर में हिंसा के बाद लेबर पार्टी के नेता कीरो स्टारर ने कहा कि "हिंदूफोबिया के लिए हमारे समाज में कहीं कोई स्थान नहीं है और हम सभी को मिल कर इससे लड़ना चाहिए." हिंदूफोबिया एक अवधारणा है जिसे दक्षिणपंथियों ने जोड़-तोड़ कर गढ़ा है ताकि जब वे खुद अक्सर सांप्रदायिक उकसावे के एजेंट होते हैं तब पीड़ित होने का दावा भी करते हैं. यह सच है कि ब्रिटेन में हिंदुओं के साथ जातिवादी दुर्व्यवहार और हमले होते हैं, जैसा कि सभी नस्लीय लोगों के साथ होता है. हालांकि, हिंदूफोबिया की अवधारणा, जिस तरह से हिंदुत्व की ताकतें इसे फ्रेम करती हैं, लेस्टर जैसी जटिल परिस्थितियों में वास्तविक शक्ति संबंधों को विकृत करती है.

आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव ब्रिटेन में दक्षिण एशियाई युवाओं को धार्मिक उग्रवाद की पाइपलाइन में और नीचे खींच रहा है, अब यह समझने का अच्छा समय है कि कैसे ये समुदाय 1960 और 1970 के दशक में एक खुले तौर पर नस्लवादी राज्य में अपनी संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिए एक साथ आए. उस समय और अब के बीच की आर्थिक समानताएं कम से कम राजनीतिक नेतृत्व के कुछ हिस्सों ने नहीं खोई हैं. लेस्टर ईस्ट की निर्दलीय सांसद क्लाउडिया वेब्बे ने हाल ही में आप्रवासन के मुखर विरोधी पूर्वी अफ्रीकी एशियाई पूर्व गृह सचिव सुएला ब्रेवरमैन को एक खुला पत्र लिखा है जिसमें अपने निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों को रेखांकित किया गया है. "लेस्टर ईस्ट देश के सबसे अधिक गरीबी से त्रस्त क्षेत्रों में से एक है," वेब्बे ने लिखा. "बाल गरीबी और कामकाजियों में गरीबी दोनों बहुत अधिक हैं." उन्होंने आगे कहा कि हद दर्जे की असमानता और रोजगार की संभावनाओं की कमी, "उदाहरण के लिए, अप्रभावित युवाओं के लिए उपलब्ध अवसरों को प्रभाविज करती है. लचीला बनाने में मदद करने वाले संगठन लंबे समय से कड़ाई से गायब हो गए हैं.”

इसका असर उनके पत्र से भी साफ हो गया था. "ठगी, विदेश में राजनीतिक दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद, अति-दक्षिणपंथी फासीवाद और नस्लवाद बीमारी के प्रमुख लक्षण हैं," उन्होंने लिखा. “इसके बाद, जहां हिंसा हुई, वहां पिछली गलियों से गुजरते हुए मैंने देखा कि मास्क और सर्जिकल ब्लू ग्लव्स फेंके गए थे, हथियारबंद पुलिस भी थी. यहां के बहुत से निवासियों ने मुझे बताया है कि वे डर में जी रहे हैं, कई लोगों को अपने घर से निकलने में बहुत डर लग रहा है."

उनके शब्द विभाजन के समय लिखे गए आंखों देखे बयानों के समान ही लगते हैं. कई ब्रिटिश शहरों में अब बीचोंबीच खींचीं अजीब और हिंसक सीमाएं साम्राज्यवादी नीति और अपने ही समुदायों के चरमपंथियों के कारण है. दक्षिण एशियाई लोगों की पीढ़ी जो विभाजन से भाग कर ब्रिटेन आई थी और उसकी छाया में अपना जीवन गुजार रही थी अभी भी भयानक आर्थिक कठिनाइयों का सामना करते हुए गहरी बैठी नफरत से रूबरू है.