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दिल्ली विधान सभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की भारी जीत का देशभर के उदारवादियों ने स्वागत किया. पत्रकारों और बॉलीवुड की हस्तियों ने चुनाव परिणाम को जनता द्वारा भारतीय जनता पार्टी के घृणा केंद्रित चुनाव प्रचार को अस्वीकार करना माना. 8 फरवरी को एग्जिट पोलों ने आप की जीत को तय बताया था. एग्जिट पोलों के फैसले पर प्रतिक्रिया करते हुए, इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक शेखर गुप्ता ने ट्वीट किया कि आने वाला फैसला "दिल्ली में ध्रुवीकरण की राजनीति को करारा जवाब होगा." लेकिन यह एक गलत व्याख्या थी.
उदारवादियों की उपरोक्त प्रतिक्रिया में एक पैटर्न है. जब से भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर आप का उदय हुआ है, तब से ही उदारवादियों ने न केवल इसकी अपील की प्रकृति की समझदारी पेश की है बल्कि इस पार्टी के उन परेशान करने वाले पहलुओं की भी अनदेखी की है जो उसकी अंतरवस्तु में मौजूद है. परेशान करने वाले ये पक्ष, दक्षिणपंथ द्वारा उसे मिल रही चुनौती के चलते और भी ज्यादा मुखर हो गए हैं.
इस पार्टी की पॉपुलिस्म या लोकलुभावनवाद की प्रकृति की जांच की जानी चाहिए. इस पॉपुलिस्म को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला, सरकार की साधारण जवाबदेहिता को बढ़ाने के लिए एक बड़े अभियान के तहत स्कूलों, अस्पतालों और नागरिक सेवाओं में सुधार पर पार्टी का जोर. दूसरा, बिजली और पानी की दरों में कमी और महिलाओं के लिए निशुल्क बस सेवा जैसे व्यापक लोकप्रिय उपाय. ये सभी उपाय शहर के कामकाजी और निम्न-मध्यम वर्ग के मतदाताओं को पार्टी से जोड़ते हैं.
उपरोक्त बातों में आप पार्टी दुनिया में पिछले दशकों में देखी जाने वाले वामपंथी आर्थिक लोकलुभावनवाद से मिलती-जुलती है. ब्राजील में राष्ट्रपति लुला दा सिल्वा के दो कार्यकाल और अमेरिका में बर्नी सैंडर्स का जारी चुनावी अभियान इस लोकलुभावनवाद के स्वरूप हैं. लेकिन भारत में चुनावी सफलता के लिए आर्थिक लोकलुभावनवाद काफी नहीं है. भारतीय राजनीति के पारंपरिक सूत्र को पलट कर रख देना, भारतीय राजनीति में आप का नया योगदान है.
आप का यह मॉडल तमिलनाडु में व्यापक रूप में दिखाई पड़ने वाले पटर्नलिस्टि लोकलुभावनवाद से मेल खाता है जहां आर्थिक लोकलुभावनवाद द्रविड़ियन पहचान के वैचारिक दावे के साथ प्रकट होता है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और ओडिशा में नवीन पटनायक में आर्थिक लोकलुभावनवाद और पहचान का यही तत्व कुछ कम मात्रा में मौजूद है. आप अपने आर्थिक लोकलुभावनवादी को आगे रखती है. इस पार्टी की राजनीतिक शैली और जोर एम. के. स्टालिन की तुलना में सैंडर्स के अधिक करीब है.
द्रविड़ियन पार्टी से पटर्नलिस्म की सीख लेते हुए, जिससे अपरिहार्य तौर पर पैदा होने वाली व्यक्तिपूजा जन्म लेती है, आप पार्टी के संदेश में अधिकारों और विपक्षी पार्टियों द्वारा अधिकार छीन लिए जाने का भय निहित है. इस प्रकार आप अपने समर्थकों के बीच उत्साह और भय, दोनों भावनाओं को एकसाथ स्थापित करने में सफल होती है. यह सभी रंगों के लोकलुभावनवाद की एक स्थायी विशेषता है. यही वह पहलू है जिसके चलते केजरीवाल के अनुयायी उनके प्रति मसीहा जैसी श्रद्धा प्रकट करते है.
दुनिया भर में पारंपरिक वामपंथी लोकलुभावनवाद, चाहे लूला हो या सैंडर्स, आर्थिक लड़ाइयों पर बल देते हुए, प्रगतिशील मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं. लेकिन यही वह चीज हैं जहां से केजरीवाल और आप इनसे अलग हो जाते हैं. वह भी ऐसी बातों में जो ज्यादातर परेशान करने वाली होती हैं.
आम आदमी पार्टी को जो चीज बाकी पार्टियों से अलग बनाती है और पार्टी के उदार होने की धारणा को खारिज करती है, वह है उसका मध्यवर्गीय राष्ट्रवाद को बिना आलोचना स्वीकार कर लेना. इसमें कोई संदेह नहीं है कि दिल्ली जैसे शहर में स्थापित होने वाली पार्टी को वहां के मुखर और प्रभावशाली मध्यम वर्ग के साथ जुड़ना पड़ेगा. आप पार्टी का नेतृत्व मुख्यतः उच्च-जाति बहुल मध्यम वर्ग से आता है और यह इस वर्ग की सबसे बुरी प्रवृत्ति भुनाने में अधिकांश राजनीतिक दलों और आंदोलनों से बहुत आगे है. (इसमें कोई हैरानी नहीं कि बीजेपी के नेता कपिल मिश्रा, जो पिछले महीने सीएए के समर्थन में एक रैली में हिंसा भड़काने वाले नारे के लिए उदारवादियों की आलोचना का शिकार हुए थे, कभी आम आदमी पार्टी के सदस्य थे.) आम आदमी पार्टी की इस प्रवृत्ति का सबसे प्रबल उदाहरण धारा 370 को खत्म करने का समर्थन करना था. एक पार्टी जो दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग कर रही हो वह जम्मू- कश्मीर से बलपूर्वक राज्य का दर्जा छीन कर उसे एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिए जाने का समर्थन कर रही थी.
कश्मीर मुद्दे पर आम आदमी पार्टी का रुख, मध्यवर्गीय राष्ट्रवाद के उस छोटे लेकिन संबंधित पक्ष के साथ पार्टी के जुड़ाव को दर्शाता है जो सत्तावादी उपायों के प्रति लगाव रखता है. यहां एक और बात जो इसे बीजेपी के करीब ले जाती है. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के वक्त से ही केजरीवाल और उनके साथियों ने समाज और राजनीति की अपनी दंडात्मक धारणा को घमंड के साथ पेश किया है. चाहे केजरीवाल का जवाहर लाल विश्वविद्यालय में कथित तौर पर विद्रोहात्मक नारे लगाने वालों को जेल में डालने की बयान हो या उनका दिल्ली विधान सभा चुनावों में शाहीन बाग में जारी सीएए विरोधी आंदोलन को दो घंटे में खाली करा देने को दावा हो, आम आदमी पार्टी उन प्रक्रियाओं और सीमाओं के प्रति एक अनुदार उपेक्षा प्रकट करती है जिनके भीतर एक मुक्त समाज में लोकतांत्रिक राजनीति को काम करना चाहिए. इस तरह की राजनीति, आज के सत्तावादी लोकलुभावनवाद का विरोध करने के बजाय, भारतीय लोकतंत्र में इस अवधारणा को स्थापित करती है.
आम आदमी पार्टी का मध्यम वर्गीय राष्ट्रवाद के साथ खुले गठबंधन का अर्थ है हिंदुत्व के आगे समर्पण. आम आदमी पार्टी के कई समर्थक, जिनमें उदारवादी भी शामिल हैं, इस आत्मसमर्पण को विशुद्ध रूप से कार्यनीति का मामला बताते हैं. इस बात से शायद ही इनकार किया जा सके कि पार्टी के कई मध्यम वर्गीय समर्थक हिंदुत्व की राजनीति को नापसंद नहीं करते. कई कार्यकर्ता सक्रिय रूप से इसका समर्थन भी करते हैं. लेकिन मतदाता स्वयं के हितों को भी तौलते हैं : 2015 में दिल्ली के मतदाताओं ने केजरीवाल को चुना, भले ही इसके कुछ समय पहले उन्होंने मादी को लोकसभा में जिताया था. ऐसा सोचना मुश्किल है कि वही मतदाता नागरिक प्रशासन का वाद पूरा करने वाले केजरीवाल को इस चुनाव में फिर जिताता अगर केजरीवाल अनेकतावाद की रक्षा में दृढ़ता से खड़े होते. जैसे ही राजधानी में सीए-विरोधी आंदोलन बढ़ा, केजरीवाल पुरानी दिल्ली से लेकर जामिया नगर तक मुस्लिम बहुल इलाकों में लोगों पर हुए अभूतपूर्व पुलिसिया हमलों पर खामोश रहे. जहां उन्होंने शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों से सोची-समझी दूरी बनाकर रखी, वहीं आप के प्रमुख, इस आंदोलन को बदनाम करने में बीजेपी के साथ खड़े नजर आए.
केजरीवाल में दृढ़ निश्चय कमी, बीजेपी की कट्टर विभाजकारी राजनीति के सामने केजरीवाल का आत्मसमर्पण, यदि खुला अवसरवाद नहीं भी है तो भी यह उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति निष्ठा रखने वालों के लिए चिंता की बात है. जो पार्टी अपने आर्थिक लोकलुभावनवाद के बल पर बेहद लोकप्रिय है, यदि वह बहुसंख्यकवाद के वैचार का प्रमुखता से विरोध नहीं कर सकती तो इसकी क्या गारंटी है कि कम अनुकूल परिस्थितियों में वह ऐसा करेगी?
यह बात अलग है कि ऐसी रणनीति लंबे समय तक शायद ही कभी काम करती है. केजरीवाल का भगवान हनुमान का बार-बार नाम लेना और चुनावी अभियान के आखिरी हफ्तों में धार्मिकता के दिखावे को, बीजेपी की चाल का चालाक जवाब बताया गया. एनडीटीवी पर पत्रकार सागरिका घोष ने हिंदू धर्म के केजरीवाल ब्रांड को बीजेपी के हिंदुत्व से अलग दिखाने की कोशिश की. उन्होंने सुझाया कि दिल्ली के मुख्यमंत्री "एक राजनीतिक हिंदू के बजाय एक सांस्कृतिक हिंदू हैं.” उच्च-जाति की यह गलत सोच राजीव गांधी द्वारा पहली बार इसके इस्तेमाल से ही जारी है. जिस तहर की वैचारिक भूमि यह सोच तैयार करती है, उससे बीजेपी को कोई परेशानी नहीं है. हिंदुत्व के तर्कों को खामोशी से स्वीकार कर लेने या उससे बच कर निकलना, उसकी राजनीति को चुनौती नहीं दे सकती. देश भर की पार्टियां हिंदू राष्ट्रवाद के वैचारिक बुलडोजर को थामने के लिए संघर्षरत हैं लेकिन इसके लिए राजनीतिक कल्पनाशीलता की जरूरत है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक एजेंडा के खिलाफ स्पष्ट तौर पर लड़ते हुए कम अंतर से चुनाव जीतना ज्यादा सम्मानजनक और सार्थक होता. इस तरह की जीत, हिंदू राष्ट्रवाद के सामर्थ्य को स्वीकार बनाने की बजाय संघ को और अधिक परेशान कर देती.
आप की जीत के तेज शोर के बीच एक अन्य तथ्य पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया. यह शायद इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है : हालांकि बीजेपी सीटें जीतने में कामयाब नहीं रही लेकिन उसका वोट शयर लगभग चालीस प्रतिशत पहुंच गया. 1993 के बाद से दिल्ली में यह सबसे बेहतर आंकड़ा है. आरएसएस दशकों का गणित करता है जबकि इस तरह की हार उसके विरोधियों और व्यापक राजनीतिक संस्कृति को कुंद कर देती है. और अंततः ऐसी जीतें दीर्घावधि में हिंदुत्व को ही मजबूत करती हैं.
अनुवाद : अंकिता