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पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं रहे. दिसंबर 2024 में उनकी मौत के बाद, उन पर लिखना इसलिए भी ज़रूरी जान पड़ता है क्योंकि जो बहुत से लोग आज मनमोहन सिंह के कसीदे कसते नहीं थक रहे, वे उनके दूसरे कार्यकाल के आख़िरी दिनों में उनको बदनाम करने और भ्रष्ट बताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे. मनमोहन के पुनर्मूल्यांकन की एक बड़ी वजह यह भी है कि सिंह जिन बदलाव के अगुवा रहे, पहले वित्त मंत्री के रूप में और फिर बतौर प्रधानमंत्री के, वे जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल के बाद से भारतीय राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण बदलावों में माने जाते हैं. इसीलिए, सिंह का मूल्यांकन केवल इस बात पर नहीं रुक सकता कि उदारीकरण ने भारत में क्या बदलाव लाए. बल्कि मूल्यांकन में उदारीकरण के स्याह पक्ष पर भी चर्चा की जानी चाहिए.
नेहरू के बाद के भारत को इंदिरा गांधी ने आकार दिया. उनके लगाए आपातकाल को महज एक अपवाद मानना ग़लत होगा. वह इंदिरा के व्यक्तित्व का मेनिफ़ेस्टेशन था. पाकिस्तान के ख़िलाफ़ 1971 की जंग में जीत से लेकर 1975 में अपने ही नागरिकों के ख़िलाफ़ अत्याचार तक इंदिरा से कई गंभीर ग़लतियां हुईं. 1980 में इंदिरा की सत्ता में वापसी और भी विनाशकारी साबित हुई. जैसे भी हो सत्ता से चिपके रहने की उनकी इच्छा निरंतर बनी रही. इस अवधि के दौरान उन्होंने जो किया, वह आज भी जारी है यानी आरएसएस और नरेन्द्र मोदी के उदय के बाद भी.
आपातकाल में अकालियों की चुनौती के ख़िलाफ़ इंदिरा ने धर्म का सहारा लिया. अकाली नेहरू के लिए भी चुनौती थे लेकिन उन्होंने प्रताप सिंह कैरन को साथ लेकर उनका सामना किया था, जो अमेरिका में शिक्षित आधुनिकतावादी थे और स्वतंत्र भारत में पंजाब के एकमात्र ऐसे नेता थे जिनके पास भविष्य की दृष्टि थी. लेकिन इंदिरा ने जरनैल सिंह भिंडरांवाले के कंधों पर बंदूक रख अकालियों को कमज़ोर करना चाहा. भिंडरांवाले एक धर्म उपदेशक थे, जो पंजाब को अपनी कल्पना के अतीत में वापस धकेलना चाहते थे.
भिंडरांवाले का निर्माण इंदिरा ने नहीं किया, लेकिन दोनों ने एक-दूसरे का इस्तेमाल तब तक किया जब तक कि महत्वकांक्षी राजनीति और विनाशकारी पहलकदमियों की परिणति ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ के रूप में सामने नहीं आई.
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