बिहार चुनाव में बड़े दलों को टक्कर देने में सक्षम कई जमीनी नेताओं के नामांकन किए गए थे रद्द

9 अगस्त को बोधगया जिले में न्यू भारत मिशन की चुनावी रैली के शुरू होने का इंतजार करते ग्रामीण जन. चुनाव अधिकारियों ने पहली बार चुनाव लड़ रहे कई उम्मीदवारों के नामांकन खारिज कर दिए. इनमें एक्टिविस्ट या हाशिए के समुदायों के लोग शामिल हैं जो स्वतंत्र उम्मीदवारों के रूप में या एनबीएम जैसी जमीनी पार्टियों के टिकट पर खड़े थे. कुमार आकाश
16 November, 2020

ताजातरीन बिहार चुनावों में कुल 4463 में से 614 नामांकनों को निर्वाचन अधिकारियों ने खारिज कर दिया था. इनमें से एक भी सत्ताधारी गठबंधन या विपक्ष दलों से नहीं था. चुनाव अधिकारियों ने कई ऐसे उम्मीदवारों के नामांकन को खारिज किए जिन्होंने पहली बार नामांकन किया था. इनमें ऐसे भी हैं जो एक्टिविस्ट रहे हैं या हाशिए के समुदायों से हैं. कई एक्टिविस्टों ने मुझे बताया कि नामांकनों को बहुत ही लचर आधारों पर खारिज किया गया था और चुनाव अधिकारी का रवैया जमीनी स्तर के उम्मीदवारों के प्रति दुश्मनाना था लेकिन सत्ताधारी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए दोस्ताना. राज्य में चुनाव से दो दिन पहले 26 अक्टूबर को पहली बार मुझसे संपर्क करने वाले कई उम्मीदवारों ने मुझसे कहा कि उन्हें चुनाव प्रक्रिया पर विश्वास नहीं है.

सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियां बेरोजगारी और ग्रामीण संकट को दूर करने के अपने पहले के वादों को पूरा करने में विफल रहे थे. वे कल्याणकारी योजनाओं को भी ठीक से लागू नहीं कर पाए. जिसके चलते कई जमीनी स्तर के नेता और एक्टिविस्ट चुनाव में उतरे थे. कई निर्दलीय के रूप में खड़े थे और कुछ को हाल ही बने दो नए राजनीतिक दलों- न्यू भारत मिशन और प्लूरल्स पार्टी- का समर्थन था. एनबीए एक जमीनी स्तर की पार्टी है जिसकी स्थापना भूमि सुधार कार्यकर्ताओं अशोक प्रियदर्शी और पंकज ने की है. प्रियदर्शी सहित पार्टी के दस प्रत्याशियों में से दो को उन छोटी-छोटी गलतियों के चलते खारिज कर दिया गया था जिन्हें चुनावी हैल्प डेस्क खुद सुधार और संशोधित कर सकते थे. अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध चुनाव आयोग की गाइडलाइन जिसका शीर्षक है, "रिटर्निंग ऑफिसर्स के लिए चेकलिस्ट", के मुताबिक रिटर्निंग अधिकारियों को "मामूली तकनीकी या लिपिकीय त्रुटियों को नजरअंदाज करने में उदार होना चाहिए."

प्लूरल्स पार्टी की स्थापना इसी साल हुई थी. पार्टी ने कई उम्मीदवार हाशिए के समुदायों के स्थानीय कार्यकर्ता थे. इस चुनाव में सबसे ज्यादा प्लूरल्स पार्टी के उम्मीदवारों के ही नामांकन रद्द किए गए. पार्टी के महासचिव अनुपम सुमन ने कहा, "पूरे बिहार में चुनाव मैदान में कुल 184 उम्मीदवारों में से 38 उम्मीदवारों के नामांकन खारिज कर दिए गए." प्लूरल्स पार्टी के जिन उम्मीदवारों के नामांकन खारिज कर दिए गए उनमें मणिकांत यादव और सुषमा हेम्ब्रम भी शामिल हैं.

यादव एक्टिविस्ट हैं. वह पहले उत्तरी बिहार में बहराइच पंचायत के प्रमुख रह चुके हैं. प्लूरल्स पार्टी ने यादव को हया घाट निर्वाचन क्षेत्र का टिकट दिया था. "रिटर्निंग ऑफिसर ने मुझे नामांकन की समय सीमा से एक दिन पहले बताया था कि मेरा नामांकन फॉर्म और शपथ पत्र पूरी तरह से सही भरा हुआ है लेकिन नामांकन के आखिरी दिन यानी 21 अक्टूबर को मेरा नामांकन खारिज करने का आदेश जारी करने से पहले ही मुझे बताया गया था कि मेरा नामांकन इसलिए खारिज कर दिया गया है क्योंकि एक कॉलम ठीक से नहीं भरा गया है. मेरा नामांकन खारिज करना सरासर गलत है.” जब मैंने यादव के नामांकन को खारिज करने के बारे में बात करने के लिए हाया घाट के रिटर्निंग अधिकारी वीएन चौधरी से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, "मुझसे कोई सफाई न मांगो. ईसीआई से मांगो.”

हेम्ब्रम आदिवासी एक्टिविस्ट हैं जो अपने समुदाय के बीच स्वयं सहायता समूह चलाती हैं. उन्हें प्लूरल्स पार्टी ने कोटोरिया निर्वाचन क्षेत्र टिकट दिया था. यह सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है. सुमन ने मुझे बताया कि कटोरिया रिटर्निंग ऑफिसर रंजन के. चौधरी ने हेम्ब्रम को बैंक अकाउंट डिटेल्स की एक चेकलिस्ट भरने के लिए दी थी. सुमन ने कहा, "उन्होंने नामांकन के आखिरी दिन से पहले ही 9 अक्टूबर को सुबह 11 बजे भर कर दे ​दिया लेकिन कार्यालय में दाखिल होने के लिए उन्हें कतार में खड़ा होना पड़ा और उनके नामांकन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वह सुबह 11.01 पर कार्यालय में दाखिल नहीं हुईं." सुमन ने कहा कि पार्टी को चुन कर निशाना बनाया जा रहा है. मैंने चौधरी को कई कॉल किए जिनका उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

सुमन ने मुझसे कहा, "हमारा दिल अभी तक केवल इसलिए नहीं टूटा है क्योंकि हमें जनता के समर्थन पर भरोसा है. उम्मीदवारों के नुकसान की भरपाई नहीं की जा सकती है लेकिन जब तक चुनाव प्रक्रियाओं में चुनाव अधिकारी और बड़े दलों के बीच सांठगांठ  हावी रहेगी तब तक ऐसी चीजें तो होंगी ही." सुमन ने मुझे बताया कि पार्टी ने यादव का नामांकन खारिज पर चुनाव आयोग को चुनौती दी है.

एनबीएम के संस्थापकों में से एक अशोक प्रियदर्शी एक्टिविस्ट हैं जो 1970 के दशक की शुरुआत में जेपी आंदोलन के दिनों से ही बिहार के गया जिले में भूमि पुनर्वितरण के लिए संघर्ष कर रहे हैं. जेपी आंदोलन 1970 के दशक में बिहार का आंदोलन था जिसकी शुरुआत राजनीतिक कार्यकर्ता जयप्रकाश नारायण ने की थी जिसमें कांग्रेस के नेताओं द्वारा सामंती जमींदारों और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई थी. गया के डोभी गांव के एक ग्रामीण कार्यकर्ता एमके निराला ने कहा, "1995 में जब हम गया में भूमि अधिकारों के लिए अपनी लड़ाई में नेतृत्व की कमी महसूस कर रहे थे प्रियदर्शी के मार्गदर्शन ने हमें अपनी लड़ाई को जारी रखने और अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाने की ताकत दी थी. कई अन्य गांवों के अलावा वह गया जिले के डोभी के दो गांवों-वाहिनी नगर और लोकनायक जयप्रकाश नगर- में बसे. यह एक ऐतिहासिक कदम था.” बिहार में भूमि सुधार के लिए अपनी कई दशक पुरानी लड़ाई के दौरान प्रियदर्शी ने जद (यू) और राजद दोनों की सरकारों के साथ-साथ राज्य की नौकरशाही मशीनरी के साथ लगातार समझौता विहीन संघर्ष किया है.

17 अक्टूबर को बांकीपुर के रिटर्निंग ऑफिसर शशि शेखर ने सीट के लिए प्रियदर्शी का नामांकन खारिज कर दिया. "जब शशि शेखर ने डेडलाइन से थोड़ा पहले प्रियदर्शी के नामांकन को खारिज कर दिया तो हमने उनसे स्पष्टीकरण मांगा," प्रियदर्शी के वकील ने मुझे बताया जो नामांकन के वक्त उनके साथ थे. "हमें बताया गया कि फॉर्म 26 के एक कॉलम में पूछा गया था कि क्या वह सरकारी आवास का उपयोग कर रहे हैं. वह तीन उप-प्रश्नों में से किसी का जवाब नहीं दे पाए."

कुमार ने मुझे बताया कि प्रियदर्शी ने कहा कि उन्होंने सरकारी आवास के किराए, बिजली और पानी के बिल के भुगतान के बारे में पूछे गए एक उप-प्रश्न के जवाब में 'नॉट एप्लिकेबल' लिख दिया था क्योंकि उनके पास सरकारी आवास नहीं था. प्रियदर्शी ने 'नहीं' पर निशान लगाया था. "प्रियदर्शी के जवाब पर रिटर्निंग ऑफिसर का रवैया विचित्र था," कुमार ने कहा. अधिकारी ने कहा कि प्रियदर्शी को किराए, पानी और बिजली के सवाल पर अलग-अलग जवाब देना चाहिए था. लेकिन सवाल तो एक ही था. उन्होंने साफ क्यों नहीं बताया कि इसका जवाब तीन अलग-अलग जवाबों के रूप में देना है हालांकि इसके लिए एक शब्द भर की ही जगह छोड़ी गई थी.”

कुमार ने कहा, “20 पेजों वाले फॉर्म को भरने में होने वाली छोटी-मोटी गलतियों को सही करने में मदद करने के लिए हेल्प डेस्क होती है. हेल्प डेस्क अपना काम क्यों नहीं कर रहे हैं?” उन्होंने कहा कि प्रियदर्शी का नामांकन खारिज होना बहुत सीमित बजट और समाज के कमजोर वर्गों के उम्मीदवारों को चुनाव में उतारने वाली एनबीएम के लिए एक बहुत बड़ा झटका था. कुमार ने कहा कि एनबीएम ने ईसीआई और बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी एचआर श्रीनिवास के सामने प्रियदर्शी का नामांकन रद्द करने को चुनौती दी है. बिहार के उप मुख्य निर्वाचन अधिकारी बैजनाथ के सिंह ने पुष्टि की कि सहायता डेस्क अनिवार्य थे और उन्हें सौंपी गई भूमिका स्पष्ट थी. उन्होंने कहा कि हैल्प डेस्क "उम्मीदवारों के भरे हुए फॉर्म को सत्यापित करने और इससे पहले कि वह अंतिम रूप से स्क्रूटनी के लिए फॉर्म जमा करता है उम्मीदवार के भरे हुए फॉर्म को सत्यापित करने में मदद करता है." मैंने जिन एक्टिविस्टों से बात की उन्होंने मुझे बताया कि बिहार के चुनावों के लिए नामांकन प्रक्रिया के दौरान हेल्प डेस्क या तो थे ही नहीं या फिर एक्टिविस्ट बैकग्राउंड के उम्मीदवारों की मदद नहीं की.

प्रियदर्शी की तरह कई अन्य उम्मीदवारों ने मुझे बताया कि स्थानीय रिटर्निंग अधिकारी अक्सर उन्हें चुनाव लड़ने देने में बड़ी बाधा बने. रिटर्निंग अधिकारियों को आमतौर पर राज्य के भूमि सुधार के लिए उप-विभागीय अधिकारियों या डिप्टी कलेक्टर के बीच से भर्ती किया जाता है. मैंने जिन एक्टिविस्टों और वकीलों से बात की उन्होंने कहा कि चुनावों ने नौकरशाहों के हाथों में बहुत अधिक शक्ति दे दी हैं. उन्होंने कहा कि यह लोकतंत्र के लिए स्वस्थ नहीं है क्योंकि निचले स्तर के नौकरशाह ऐसे दलों और उम्मीदवारों का पक्ष लेते हैं जो सत्ता में रहे हैं.

पटना उच्च न्यायालय के अधिवक्ता मणिलाल ने कहा, "मैंने सारण सहित कुछ जिलों के बारे में जानता हूं जहां ज्यादातर निर्वाचन क्षेत्रों के रिटर्निंग अधिकारी या तो डीसीएलआर, एडीएम या एसडीओ थे. ऐसे अधिकारी स्पष्ट रूप से उन उम्मीदवारों के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं जो आदिवासियों के भूमि अधिकारों और वन अधिकारों के लिए लड़ते हैं. वे दफ्तर में रहते हुए ग्रामीणों और आदिवासियों के अधिकारों का दमन करते हैं और उनके लिए खड़े होने वाले उम्मीदवारों को नापसंद करते हैं. जब वे बड़े दलों के प्रभाव में काम नहीं कर रहे होते हैं, तो भी वे निश्चित रूप से संघर्ष करने वालों को चुनाव लड़ने से हतोत्साहित करते हैं.”

दलित कार्यकर्ता अमर राम पश्चिम चंपारण जिले में जमीन हदबंदी को लागू करने के लिए लड़ रहे थे. वह एनबीएम के टिकट पर रामनगर निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाले थे. 1961 में राज्य सरकार ने बिहार भूमि सुधार (सीलिंग क्षेत्र का निर्धारण और अधिशेष भूमि का अधिग्रहण) अधिनियम पारित किया, जिसने पांच लोगों के एक परिवार के लिए 15 एकड़ में भूमि हदबंदी तय की. हालांकि इन हद​बंदियों को कड़ाई से लागू नहीं किया गया था और लोग अब भी भूमिहीन हैं, खासकर सीमांत समुदायों के लोग. राम ने एक ऐसे आंदोलन का नेतृत्व किया है जो अधिनियम को लागू करने और भूमिहीन और गरीब समुदाय को जमीन पुनर्वितरित करने की मांग करता है.

रामनगर की रहने वाली जसोदा देवी ने बताया, "कई दफे पुलिस ने अमर के खिलाफ फर्जी आरोप लगाए हैं." 4 जुलाई को राम ने भूमि का पुनर्वितरण करने और महादलितों के स्वामित्व वाली भूमि को अतिक्रमणकारियों से बचाने में सरकार की विफलता के खिलाफ बरगजवा गांव में विरोध प्रदर्शन किया. रामनगर पुलिस ने उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 353 के तहत आरोपित किया, जो सड़क को अवरुद्ध करने के लिए "लोक सेवक को अपने कर्तव्य के निर्वहन से रोकने के लिए हमला या आपराधिक बल" से संबंधित है. पुलिस ने उन्हें 15 अक्टूबर को नामां​कन की समय सीमा से पांच दिन पहले गिरफ्तार कर दिया, जब वह चुनाव के लिए अपना नामांकन दाखिल करने वाले थे.

अगले दिन राम ने एक मजिस्ट्रेट को लिखा, जिसने 19 अक्टूबर को जेल अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे राम को व्यक्तिगत रूप से रिटर्निंग ऑफिसर के कार्यालय में अपना नामांकन दाखिल करने की अनुमति दें. लेकिन जेल अधिकारियों ने अदालत के आदेश की अवहेलना की और राम की जगह पंकज को उनका नामांकन दाखिल करना पड़ा. राम की ओर से पंकज द्वारा दायर नामांकन में एक छोटी सी त्रुटि थी और रामनगर के रिटर्निंग ऑफिसर मोहम्मद इमरान के पास इस तरह की छोटी समस्याओं को ठीक करने में मदद करने के लिए हेल्प डेस्क नहीं थी. जमीनी स्तर के उम्मीदवारों से अक्सर छोटी-मोटी त्रुटियां होने का खतरा होता है क्योंकि उनके पास नामांकन प्रक्रिया के दौरान विशेषज्ञ कानूनी वकील नहीं होते हैं. बड़ी पार्टी के अधिकांश प्रमुख उम्मीदवार ऐसे विशेषज्ञ वकील रख सकते हैं. इमरान ने राम के नामांकन को खारिज कर दिया लेकिन उन्हें नामांकन खारिज होने का आदेश नहीं दिया जबकि चुनाव आयोग के नियमों के तहत उसे जारी करना आवश्यक होता है. पंकज ने मुझे बताया कि अगर वे राम का नामांकन खारिज करने का बहाना नहीं ढूंढते तो वे आसानी से नियमों के अनुसार संख्या को सही कर सकते थे. "नामांकन खारिज करना ठीक नहीं है." राम को 29 अक्टूबर को जमानत दी गई थी. इमरान को मैंने कई बार फोन किया जिसका उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

राम ने मुझे 4 नवंबर को उनके गांव का दौरा करने के लिए कहा, "मुझे पुलिस, प्रशासन और चुनाव निकाय द्वारा इस तरह से प्रताड़ित किया गया है क्योंकि मैंने ग्रामीणों के लिए अपनी जमीन के अधिकार की लड़ाई में सफल होने के सपने देखे थे. जमीन जोतने वाला अपनी ज़मीन का मालिक है. कोई और नहीं. गौनाहा और रामनगर के कई ग्रामीणों ने इस चुनाव के लिए अपनी बचत से धन जोड़ा था. सारे सपने चकनाचूर हो गए. ”

जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के साथ ही बीजेपी के प्रमुख आलोचकों के भी नामांकन खारिज कर दिए गए. 17 अक्टूबर को बांकीपुर निर्वाचन क्षेत्र से राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व सदस्य और पटना नगर परिषद की पूर्व वार्ड पार्षद सुषमा साहू का नामांकन खारिज कर दिया गया था. प्रियदर्शी ने उसी सीट से चुनाव लड़ने की कोशिश की थी. साहू पहले बीजेपी की एक प्रमुख नेत्री थी जो बिहार में पार्टी की महिला शाखा महिला मोर्चा की प्रमुख थीं. हालांकि साहू ने 2020 में पार्टी छोड़ दी थी, उनका दावा था कि बांकीपुर विधायक नितिन नवीन के पक्ष में उन्हें तीन बार चुनावों से किनारे कर दिया गया था.

साहू ने कहा, "चुनाव अधिकारी इसके लिए माध्यम थे लेकिन मुझे पता है कि बीजेपी इस झटके के पीछे है. मुझे बीजेपी के खिलाफ बगावत करने और नितिन नवीन के पतनशील नेतृत्व को चुनौती देने के लिए दंडित किया गया. बिहार में रिटर्निंग ऑफिसर इस समय बड़े दलों के हाथों में खेल रहे हैं. चुनाव अधिकारियों पर दबाव बनाकर अधिक से अधिक संख्या में निर्दलीय उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने की अनुमति न देना इस चुनाव में उनकी रणनीति है.”

साहू का अनुभव राम और प्रियदर्शी के समान ही था. रिटर्निंग अधिकारी ने नामांकन की समय सीमा से पहले फॉर्म में मामूली त्रुटियों को इंगित किया. साहू ने बताया, "नामांकन की समय सीमा से बीस मिनट पहले मेरे विवरणों की जांच करने के बाद रिटर्निंग ऑफिसर ने मेरे नामांकन फॉर्म में दो त्रुटियां बताईं. पूछा गया था कि क्या मेरे ऊपर कोई आपराधिक मामला है. उन्होंने कहा कि मैंने कॉलम में इसका जवाब नहीं दिया. मैंने वहीं उनके सामने उन्हें दिखाया कि मैंने सभी सवालों का जवाब दिया है. उन्होंने मुझे हलफनामे संलग्न करने के लिए तब कहा जब समय सीमा समाप्त हो गई थी. मैंने उन्हें दिखाया कि मैंने अपने प्रपत्रों के साथ चार शपथ पत्र संलग्न किए हैं. उन्होंने मुझे अपने चैम्बर के बाहर इंतजार करने को कहा. मैं इंतजार करता रहा और मेरी नामांकन की समय सीमा समाप्त हो गई.”

साहू ने मुझे बताया कि उनका मानना ​​है कि नामांकन खारिज करना पूरी तरह से अवैध था और वह इसे सीईओ और पटना उच्च न्यायालय के सामने चुनौती दे रही हैं. जब मैंने बांकीपुर निर्वाचन क्षेत्र के सामान्य पर्यवेक्षक एमआई पटेल से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, “बांकीपुर में सभी नामांकनों की जांच निष्पक्ष रूप से हुई है. मेरे अवलोकन के तहत कोई संदिग्ध जांच नहीं की गई थी.” बांकीपुर के रिटर्निंग अधिकारी शशि शेखर ने फोन पर साहू और प्रियदर्शी के नामांकनों को खारिज करने के बारे में मेरे सवालों का जवाब देने से इनकार कर दिया.

जबकि निर्दलीय और जमीनी स्तर के नेताओं ने नामांकन प्रक्रिया को पूरा करने के लिए संघर्ष किया है लेकिन बिहार के प्रमुख दलों को ऐसी कोई समस्या नहीं आई. सत्तारूढ़ गठबंधन का एक भी नामांकन खारिज नहीं हुआ है. राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने कहा, "राजद उम्मीदवारों या हमारे गठबंधन के सहयोगियों, कांग्रेस, सीपीआई, सीपीआई (एम), सीपीआई (एमएल) के उम्मीदवारों को किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा है. मुझे चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता पर पूरा भरोसा है."

यहां तक ​​कि तीसरे मोर्चे के उन दलों को भी जो अन्य राज्यों में शक्तिशाली तो हैं लेकिन बिहार में केवल छोटा सा आधार है, उन्हें नामांकन में परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा. "आरएलएसपी उम्मीदवारों या हमारी पार्टी की सहयोगियों के उम्मीदवारों के नामांकन अस्वीकृति का कोई मामला मेरे ध्यान में नहीं आया है," पूर्व केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के सुप्रीमो उपेंद्र कुशवाहा ने मुझे बताया. नामांकन की प्रक्रिया के दौरान नामांकन के लिए संघर्ष करने वाली बड़ी चुनावी उपस्थिति वाली एकमात्र पार्टी राजेश रंजन, जिन्हें आमतौर पर पप्पू यादव के नाम से जाना जाता ​है, की जन अधिक्कार पार्टी है जिसके 12 उम्मीदवारों के नामांकन खारिज कर दिए गए थे.

जब अधिनियमित कानून अपर्याप्त साबित होते हैं, उन स्थितियों से चुनावी प्रक्रिया के दौरान निपटने के लिए भारतीय निर्वाचन आयोग के पास संवैधानिक शक्तियां हैं. ईसीआई द्वारा परिभाषित कोई भी नया प्रावधान या दिशानिर्देश कानूनी रूप से बाध्यकारी होता है. रिटर्निंग अधिकारियों सहित सभी चुनाव प्राधिकरण ईसीआई के अधिकार क्षेत्र में आते हैं.

बिहार के अतिरिक्त मुख्य निर्वाचन अधिकारी डी मुरुगन ने मुझे बताया, "नामांकन खारिज करने को चुनौती देने की शक्ति केवल अदालत के पास है. केवल दुर्लभ मामलों में ईसीआई सीईओ को कोई संदिग्ध अस्वीकृति नामांकन को सत्यापित करने के लिए कह सकता है. उस स्थिति में सीईओ जिला मजिस्ट्रेट से इस बारे में रिपोर्ट मांगेगा कि किसका प्रशासन उक्त निर्वाचन क्षेत्र में आता है. लेकिन बिहार में इस तरह के संदिग्ध नामांकन खारिज नहीं किए गए थे. इसलिए सीईओ को ईसीआई द्वारा बिहार चुनाव 2020 में किसी भी नामांकन अस्वीकृति को सत्यापित करने के लिए नहीं कहा गया है. ”

यह स्पष्ट नहीं है कि "संदिग्ध नामांकन अस्वीकृति" का दायरा क्या है. इसके बावजूद कि कई उम्मीदवारों ने सीईओ और अदालतों के सामने अपने नामांकन खारिज होने को चुनौती दी है. राज्य के चुनाव अधिकारियों ने इस बारे में की गई पूछताछ को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि "संदिग्ध नामांकन अस्वीकार'' नहीं हैं. मैंने पटना के जिला मजिस्ट्रेट कुमार रवि को फोन किया, जिनके प्रशासन के तहत प्रियदर्शी और साहू दोनों के नामांकन खारिज कर दिए गए थे, उन्होंने मुझे बताया, "संदिग्ध नामांकन अस्वीकार का ऐसा कोई मामला नहीं था जिसे मुझे सीईओ द्वारा सत्यापित करने के लिए कहा गया था."