मोदी की नोटबंदी से संघ की शाखा तबाह

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काले धन के खिलाफ व्यापक लड़ाई के कदम के तौर पर 500 और 1000 रुपए के नोटों को बंद करने की घोषणा की. अरविंद यादव/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नोटबंदी की घोषणा का असर केवल अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं था. इसने उत्तर भारत में शारीरिक अभ्यास के साथ लोगों को जोड़ने के सत्र चलाने वाली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की सबसे पुरानी शाखा को मरणासन्न अवस्था में पहुंचा दिया. भारत की अर्थव्यवस्था के विपरीत, जिसमें नोटबंदी के तुरंत बाद कोलाहल मच गया था, केंद्र सरकार के इस अभूतपूर्व निर्णय के फलस्वरूप तबाह हो जाने में आरएसएस की इस शाखा को लगभग दो साल लगे.

वाराणसी जिसे काशी या बनारस के नाम से भी जाना जाता है, हिंदी पट्टी में वह पहली जगह थी जहां मूल रूप से नागपुर केंद्रित संस्था आरएसएस ने अपना संचालन शुरू किया. आरएसएस के सह-संस्थापकों में से एक और हिंदुत्व के विचारक वीडी सावरकर के बड़े भाई जीडी सावरकर के मार्गदर्शन में आठ दशक पहले वाराणसी के पक्का महल क्षेत्र में धनथानेश्वर शाखा को स्थापित किया गया था. ये मोदी का लोकसभा क्षेत्र भी है. 1930 के दशक में स्थापित शाखा ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं और यहां तक ​​कि इस हिंदू वर्चस्ववादी संगठन पर लगाए गए तीन प्रतिबंधों के बाद भी बचा रहा. आरएसएस पर 1948 में गांधी की हत्या के बाद, 1970 के दशक के मध्य में इमरजेंसी के दौरान और 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद प्रतिबंध लगा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड जीत के बाद कुछ समय के लिए इस शाखा को भी उत्तर और पश्चिम भारत की अन्य शाखाओं की तरह आरएसएस की राजनीतिक पार्टी की बढ़त का लाभ मिला. लेकिन मोदी की नोटबंदी के बाद कहानी बदल गई. दुकान-मालिकों और छोटे व्यापारी जैसे आरएसएस के पारंपरिक समर्थकों के लिए सांस लेना भी मुश्किल हो गया.

शाखा के अधिकारी या प्रभारी अधिकारी कमल नारायण मिश्रा ने मुझे बताया, “जहां तक मुझे याद है शाखा में हमेशा सुबह और शाम के दो चैप्टर थे. शाम की शाखा लगभग एक साल पहले बंद हो गई. सुबह की शाखा कुछ और समय तक चलती रही. लेकिन स्वयंसेवकों की कमी के चलते इसका लगना कम हो गया. अब ये शाखा शायद ही कभी लगती है.”

मोदी के घोर समर्थक मिश्रा ने 1990 के दशक के मध्य में कुछ समय के लिए शाखा में भाग लेना शुरू किया. इस साल मार्च में उन्हें इसका कार्यवाहक नियुक्त किया गया. मिश्रा ने कहा, “जब मैंने कार्यवाहक के रूप में पदभार संभाला था तो शाम की शाखा पहले ही बंद हो चुकी थी और सुबह की शाखा अनियमित हो चली थी. अब स्थिति ऐसी है कि ये कई हफ्तों तक आयोजित नहीं होती. इस शाखा में शामिल होने वाले स्वयंसेवकों का संबंध ज्यादातर स्थानीय व्यावसायिक परिवारों से है और ऐसा लगता है कि वो इसमें रुचि खो चुके हैं.”

मिश्रा के मुताबिक, “पहले इस शाखा में भाग लेने वाले ज्यादातर स्वयंसेवक ब्राह्मण थे. बाद में जैसे-जैसे क्षेत्र की संरचना बदलती गई, वैसे-वैसे शाखा सदस्यों की संरचना भी बदलती चली गई." उन्होंने आगे कहा कि, "पिछले कुछ दशकों से इस शाखा में आने वाले ज्यादातर स्वयंसेवक उन व्यापारियों और कारोबारी परिवारों से हैं जिनकी पास के चौखम्बा में दुकानें हैं." चौखम्बा, भीड़भाड़ वाला थोक बाजार है जहां स्टील, पीतल और तांबे की चीजों के साथ-साथ सोने और चांदी के आभूषणों का कारोबार होता है.

धनथानेश्वर शाखा की सदस्यता की बर्बादी की जड़ तलाशते हुए मुझे पता चला कि शाखा का उल्लेख आरएसएस के तीसरे प्रमुख बालासाहेब देवरस के छोटे भाई भाऊराव देवरस द्वारा लिखे आत्मकथात्मक लेखों में मिलता है. वे भाऊराव ही थे जिन्होंने आरएसएस के संस्थापक प्रमुख डॉ केबी हेडगेवार की मृत्यु के तीन साल पहले 1937 में राज्य में अपना काम शुरू करते हुए उत्तर प्रदेश में आरएसएस की गतिविधियों के विस्तार की कमान संभाली थी.

भाऊराव ने अपने लेख, "वे, मैं और उत्तर प्रदेश" में लिखा है- ये शाखा 1938 और 1939 के बीच तब शुरू की गई थी, जब जीडी सावरकर ने हेडगेवार के साथ वाराणसी का दौरा किया था. सावरकर ने मंदिरों के शहर में रहने वाले महाराष्ट्र के एक पुजारी भाऊराव दामले को शाखा शुरू करने के लिए प्रेरित किया. भाऊराव ने लिखा है, जीडी की मदद से, "दामले ने एक छोटे से मंदिर के लॉन में शाखा शुरू की. मंदिर को धनथानेश्वर कहा जाता था. धनथानेश्वर शाखा काशी की पहली शाखा थी."

लंबे समय तक पक्का महल में बनी ऐसी हवेलियां, जहां से गंगा नदी दिखती थी, बेहद संकरी गलियों वाले इस इलाके की इस शाखा में मुख्य रूप से क्षेत्र में रहने वाले महाराष्ट्र के ब्राह्मण ही भाग लेते थे. 1990 के दशक की शुरुआत में अधिकांश मूल निवासी पलायन कर गए और शाखा पक्का महल के धनथानेश्वर मंदिर से नाना फडणवीस वाडा में ले जाई गई.

आरएसएस के काशी "प्रांत" (संगठनात्मक उद्देश्यों के लिए आरएसएस द्वारा बनाए गए उत्तर प्रदेश के छह कृत्रिम प्रभागों में से एक) के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के अनुसार, "व्यापारी परिवारों वाले शाखा में भाग लेने को लेकर उत्साहित नहीं दिखते." उन्होंने कहा, "हमारी समझ से ये नोटबंदी के फैसले के कारण हो रहा है जिसने इन परिवारों को इतनी मुश्किल में डाल दिया कि वो अभी भी इस संकट से बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इससे इस शाखा के कामकाज पर असर पड़ा है जो इस समुदाय से संबंधित स्वयंसेवकों पर निर्भर है.”

वरिष्ठ पदाधिकारी ने आगे दावा किया कि धनथानेश्वर शाखा इसका इकलौता उदाहरण नहीं है. उन्होंने कहा, “मोदी सरकार से मोहभंग के कारण व्यावसायिक परिवारों से आने वाले स्वयंसेवकों की एक बड़ी संख्या प्रभावित हुई है. ये संघ के लिए सबसे अधिक चिंता का विषय है.”

पदाधिकारी ने कहा लेकिन, "प्रभाव हमारे रजिस्टर में नहीं दिखाया जा सकता है." उन्होंने कहा, "गिनती की हमारी प्रणाली में शाखा कभी भी काम करना बंद नहीं करती है." उन्होंने समझाया कि निष्क्रिय शाखा को "सुप्त" या निष्क्रिय शाखा के रूप में गिना जाता है जो कभी भी सक्रिय हो सकती है और इसलिए उसकी गिनती भी जागृत शाखा के साथ-साथ होती है.” उन्होंने कहा, "उदाहरण के लिए कागज पर उत्तरी वाराणसी में सुबह की 94 शाखाएं लगती हैं लेकिन जमीन पर उनमें से आधी भी काम नहीं कर रही हैं."