यह 10 अक्टूबर को द कारवां की ओर से 2023 शोरेनस्टीन पत्रकारिता पुरस्कार स्वीकार करते समय स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में दिए गए मुख्य भाषण का एक संपादित अंश है.
मैं जानता हूं कि मैं इसराइल और गजा में सामने आ रही भयावहता की पृष्ठभूमि में बोल रहा हूं. ऐसे वक्त में पत्रकारिता की जरूरत पर जोर देने की कोई वजह नहीं है. हमारे खयाल, हमारा ज्ञान, हमारी राय, यहां तक कि क्या हो रहा है, इसके बारे में हमारी समझ भी पत्रकारिता के जरिए आकार ले रही है. संकट के वक्त पत्रकारिता दुनिया को समझने का एक बुनियादी जरिया बन जाती है. इस हद तक बुनियादी कि हम भूल जाते हैं कि पत्रकारिता के दूसरे पहलू भी हैं. मेरा मानना है कि पत्रकारिता का एक अहम काम हमें आने वाले खतरों से, उन त्रासदियों से आगाह करना है जो हमारा इंतजार कर रही हैं. मैं पत्रकारिता के इस काम का जिक्र उन खतरों के बारे में बात करने के लिए करना चाहता हूं जो भारत में पहले ही सामने आ चुके हैं लेकिन देश के बाहर पूरी तरह से महसूस नहीं किए गए हैं.
मैं पुरस्कार के लिए शोरेंस्टीन सेंटर का शुक्रिया अदा कर शुरुआत करना चाहता हूं. हमारे पहले आए नाम हमें उस सम्मान का अच्छा अहसास कराते हैं जो हमें दिया गया है. मैं जानबूझकर "हम" रहा हूं क्योंकि मैं यहां एक संस्था, द कारवां के प्रतिनिधि के रूप में खड़ा हूं. पत्रकारिता को अक्सर व्यक्तियों के काम के रूप में देखा जाता है, जिसमें पत्रकार नई—नई स्टोरी ब्रेक करते हैं और स्तंभकार राय लिखते हैं और एंकर इसे आगे पहुंचाते हैं. लेकिन आखिरकार जो संस्थान इन गतिविधियों को संचालित करते हैं वह कुछ मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध हैं. ऐसी संस्थाओं के बिना पत्रकारिता जिंंदा नहीं रह सकती. कारवां एक ऐसी ही संस्था है. जिन मूल्यों को लेकर हम प्रतिबद्ध हैं, वे हैं कठोरता, सत्यता और जिसके पास भी शक्ति है उसके प्रयोग की जांच करने की प्रतिबद्धता.
पत्रकारिता करने का दावा करने वाले किसी भी संस्थान में यह एक सामान्य बात होनी चाहिए और इसे सहज लिया जाना चाहिए. लेकिन, आज भारत में ऐसा नहीं है. ऐसा कहा जा सकता है कि पत्रकारिता करने वाले संस्थानों की संख्या मुट्ठी भर है. ऐसा वक्त है जब भारतीय मीडिया बुनियादी ढांचे, प्रौद्योगिकी और कर्मचारियों की संख्या के मामले में इतना फल-फूल रहा है जितना पहले कभी नहीं था. हर शाम, प्राइमटाइम पर या अंग्रेजी और हिंदी अखबारों के ओपिनियन पेजों में हम नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा सत्ता के इस्तेमाल की जांच करने वाले किसी भी व्यक्ति के प्रति नफरत और कट्टरता की झलक पाते हैं. मैं यहां देश के दक्षिण के बारे में बात नहीं कर रहा हूं, लेकिन ये मीडिया आउटलेट एक अरब भारतीयों के लिए जानकारी का प्राथमिक स्रोत हैं. उनमें कठोरता की कोई भावना नहीं है और सत्यता के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है. वे निश्चित रूप से सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछने से दूर रहते हैं. वे केवल सरकार की शक्ति को बढ़ाते हैं.
मीडिया की यह विफलता 2014 में मोदी के सत्ता में आने से शुरू नहीं हुई, बल्कि तब से यह प्रवृत्ति और ज्यादा बढ़ गई है. भारतीय मीडिया का मालिकाना बड़े पैमाने पर उन समूहों के पास है जिनके कई दूसरे कारोबारी हित हैं. हमारी अर्ध-उदारीकृत अर्थव्यवस्था में, सरकार की नाराजगी के चलते होने वाले नुकसान यह तय करते हैं कि ये समूह सरकार की जरूरतों के मुताबिक हों. लेकिन यह पूरी कहानी नहीं है. मीडिया का एक बड़ा हिस्सा बनिया कारोबारी जाति के लोगों के पास है. इनमें से ज्यादातर मालिक मौजूदा सरकार की वैचारिक परियोजना को लेकर प्रतिबद्ध हैं.
इसलिए, हमने मीडिया में जो देखा है, वह वित्तीय हितों और वैचारिक प्रतिबद्धता का एक साथ आना है. ये संस्थान पत्रकारिता का दावा करने का तमाशा करते हैं लेकिन वास्तव में उन मूल्यों को स्थापित करते हैं जो सरकार की सेवा करते हैं. ये प्रचार के माध्यम हैं.
यह देश की स्थिति की एक झलक मात्र है. संवैधानिक लोकतंत्र का मुखौटा बरकरार है. जिन संस्थाओं से इसे बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है वे अभी भी काम कर रही हैं, लेकिन वे जिन मूल्यों को अपनाती हैं वे संविधान से नहीं मिले हैं. जिन मूल्यों ने, कम से कम आदर्शों के रूप में, उस देश को कायम रखा जिसमें मोदी सत्ता में आए, वे मूल्य आज देश को नहीं चला रहे हैं. वे मूल्य कहीं और से आते हैं और इतने महत्वपूर्ण बदलाव की नुमाइंदगी करते हैं कि मैं बिल्कुल साफ कहूंगा, 2014 में भारत जो देश था, अब नहीं है.
यह समझने के लिए कि हम इस हालत तक कैसे पहुंचे, हमें लगभग सौ साल पीछे 1925 में जाना होगा, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई थी. हमारे प्रधान मंत्री ने सार्वजनिक जीवन में अपना करियर तब शुरू किया जब वह बीस साल की उम्र में संघ में शामिल हो गए. वह अगले चौदह सालों तक संघ के साथ रहे, जब तक कि उन्हें इसकी राजनीतिक शाखा, भारतीय जनता पार्टी के साथ काम करने के लिए प्रतिनियुक्त नहीं कर दिया गया. मोदी के विश्वदृष्टिकोण में निहित मूल्यों और सत्ताधारी पार्टी द्वारा अपनाए गए मूल्यों को समझने के लिए हमें संघ को समझने की जरूरत है.
आरएसएस की स्थापना पांच लोगों ने की थी, जिनमें प्रमुख थे केबी हेडगेवार नामक पूर्व कांग्रेसी नेता. वह कांग्रेस से अलग हो गए क्योंकि वह एमके गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम की गति से परेशान थे, जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़ाई में हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाया था. हेडगेवार के लिए, मुसलमान "यवन सांप" थे. यूनानियों के लिए इस संस्कृत शब्द का इस्तेमाल उनकी विदेशीता पर जोर देने के लिए किया जाता था. उन्होंने उपनिवेशवाद के बजाय इस खतरे के खिलाफ हिंदू समाज को एकजुट करने की जरूरत महसूस की.
"हिंदू" शब्द को परिभाषित करने के लिए, हेडगेवार ने वीडी सावरकर के काम की ओर रुख किया, जिन्हें आज भारत में इतना महिमामंडित किया जाता है कि उनकी तस्वीर संसद भवन में लटकी हुई है. सावरकर ने एक समय में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, लेकिन जेल जाने के बाद उन्होंने कई माफीनामे लिखे, जिसमें साम्राज्य के प्रति अटूट निष्ठा का वादा किया गया था. अपनी रिहाई के बाद, वह अपने वादे पर कायम रहे और जीवन भर ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला. इन सालों में उन्होंने दो उल्लेखनीय योगदान दिए: हिंदुत्व पर एक किताब लिखना और नाथूराम गोडसे नामक संघ सदस्य का मार्गदर्शन करना, जिसने गांधी की हत्या की थी.
सावरकर के अनुसार, और मैं इसे सरल बना रहा हूं, एक हिंदू वह है जो भारत के भूगोल को अपनी मातृभूमि और पवित्र भूमि दोनों मानता है. सावरकर ने "पितृभूमि" शब्द का इस्तेमाल किया, लेकिन आरएसएस ने "मातृभूमि" को प्राथमिकता दी. पवित्र भूमि मानने का मानदंड मुसलमानों और ईसाइयों को बाहर करने के लिए है. जो मक्का या येरूशलम को पवित्र भूमि मानते हैं, वे हिंदू धर्म के इस विचार से नहीं जुड़ सकते. सावरकर, जो खुद नास्तिक थे, उन्होंने अपनी परिभाषा को एक सांस्कृतिक वर्गीकरण के आधार के रूप में तैयार किया जो धर्म से परे तक जाती थी. वह हिंदुओं को एक ही जाति के वंशज के रूप में देखते थे. नस्ल और पितृभूमि के ये विचार उस वक्त की याद दिलाते हैं जिसके बारे में मैं बात कर रहा हूं. सावरकर में इटली के फासीवाद के उभार की साफ गूंज सुनाई पड़ रही है. 1930 के दशक के दौरान, संघ ने बेनिटो मुसोलिनी से मिलने के लिए अपने संस्थापकों में से एक सहित वरिष्ठ नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल भेजा.
इसी समय आरएसएस में एमएस गोलवलकर नाम का एक युवा उभर रहा था जिसे संघ का मुख्य विचारक बनना था और तीस से भी ज्यादा सालों तक इसका नेतृत्व करना था. उसके महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2007 में आई मोदी की किताब में, जिसमें उन्होंने उन 16 लोगों के बारे में लिखा जिन्होंने उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया था. इसमें सबसे लंबा अध्याय गोलवलकर के बारे में था.
हिंदू राष्ट्र के गठन पर गोलवलकर के विचार आज भी संघ के विचार का आधार हैं. मुझे लगता है कि आज के भारत के बुनियादी मूल्यों को समझने के लिए उनके विचारों को उनके अपने शब्दों में सुनना सबसे अच्छा है. नाज़ियों के बारे में एक जगह वह लिखते हैं, "नस्ल और इसकी संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए, जर्मनी ने देश को सेमेटिक नस्लों, यहूदियों से मुक्त करके दुनिया को चौंका दिया. नस्लीय गौरव अपने उच्चतम स्तर पर यहां प्रकट हुआ है. जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि जिन नस्लों और संस्कृतियों के बीच जड़ तक मतभेद हैं, उनका एकजुट हो पाना कितना असंभव है, यह हिंदुस्तान में हमारे लिए सीखने और लाभ उठाने के लिए एक अच्छा सबक है.''
अल्पसंख्यकों से खतरे को परिभाषित करने के बाद, गोलवलकर उन परिस्थितियों की लिस्ट बनाते हैं जिनके तहत वे एक हिंदू राष्ट्र में रह सकते हैं. वह लिखते हैं, "इन "विदेशी जातियों" को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को अपनाना चाहिए, हिंदू धर्म का सम्मान करना और आदर करना सीखना चाहिए, हिंदू जाति और संस्कृति के महिमामंडन के अलावा किसी और विचार को मन में नहीं लाना चाहिए. यानी हिंदू राष्ट्र और हिंदू जाति में विलय के लिए अपना अलग अस्तित्व खोना होगा, या देश में पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के अधीन रहना होगा, कुछ भी दावा नहीं करना होगा, कोई विशेषाधिकार नहीं होगा, किसी भी तरह के अधिमान्य व्यवहार की बात तो दूर - उनके नागरिक अधिकार भी नहीं होंगे.''
जिस समय गोलवलकर ने इसे तैयार किया, उस वक्त संघ भारतीय राजनीति में हाशिए पर था और स्वतंत्रता संग्राम से अलग था. जब संविधान पर चर्चा हुई और उसे अपनाया गया, तो आरएसएस ने दस्तावेज़ में कुछ भी योगदान नहीं दिया. इसे भारत के अगुवा राजनीतिक नेताओं में से एक बीआर अंबेडकर जैसे लोगों ने लिखा था. एक दलित, अंबेडकर ने खुद को इस हद तक शिक्षित किया था कि वह जॉन डेवी के तहत अपनी पीएचडी के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय गए. भारतीय संविधान में अमेरिकी संविधानवाद की छाप प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है.
संविधान भारत को अपने नागरिकों के बीच एक कॉम्पैक्ट के रूप में देखता है, जो एक साथ आने और साझा मूल्यों के साथ एक गणतंत्र बनाने के लिए सहमत हुए हैं जिसमें गारंटीकृत अधिकार, सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार और भाषाई, धार्मिक या सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के लिए विशेष सुरक्षा शामिल है. यह भारतीय समाज के केंद्रीय अन्याय को ख़त्म करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई की भी मांग करता है यानी जाति व्यवस्था, जो कम से कम पंद्रह सौ सालों से मौजूद है. यही वह नजरिया था जो भारत में व्याप्त था - अपूर्ण रूप से, अक्सर पाखंडी रूप से समर्थित, फिर भी इसकी संस्थाओं में अंतर्निहित था. यह वह संविधान था जिसके तहत मोदी को चुना गया था, लेकिन उसके बाद जो हुआ वह इस बात की नजीर है कि कैसे इसे दरकिनार कर दिया गया है, इसकी भावना को त्याग दिया गया है.
मैं आपको कुछ उदाहरण देता हूं जो इसे समझाते हैं. 543 सदस्यीय लोकसभा में बीजेपी के 300 से ज्यादा सांसद हैं. इनमें से एक भी मुस्लिम नहीं है. भारतीय मुसलमानों की आबादी लगभग पंद्रह प्रतिशत है - लगभग 20 करोड़ लोग, जो ज्यादातर देशों की आबादी से ज्यादा है. वे उस पार्टी में प्रतिनिधित्व के बिना हैं जो आज देश पर शासन करती है, जो कानून पर फैसले लेती है जो उनके भविष्य को निर्धारित करती है. प्रतिनिधित्व की यह कमी जानबूझकर की गई है. बीजेपी ने मुस्लिम उम्मीदवारों को नहीं उतारने का फैसला किया. अगर कहीं उतारे भी, तो उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां उसे कोई मौका नहीं मिलता है.
एक तथाकथित प्रतिनिधि लोकतंत्र में इस तरह का हाशिए पर जाना ज़मीनी स्थिति में परिलक्षित होता है. मुसलमानों के लिए हिंदू-बहुल क्षेत्रों में संपत्ति किराए पर लेना या खरीदना कठिन होता जा रहा है. यह आंशिक रूप से विधायी डिज़ाइन द्वारा, नए कानूनों के अधिनियमन या मौजूदा कानूनों की पुनर्व्याख्या के माध्यम से होता है, लेकिन यह सरकार का समर्थन करने वाले बहुमत द्वारा सामाजिक सहमति का नतीजा भी है. प्रभाव स्पष्ट है - सबसे अच्छे स्कूल इन क्षेत्रों में हैं, साथ ही सबसे अच्छे अस्पताल और अन्य सेवाएं भी हैं. इससे मुस्लिम अल्पसंख्यकों का यहूदी बस्तीकरण हो रहा है.
मुसलमानों को नागरिकों के अधिकारों से वंचित करने का गोलवलकर का वादा विधायिका से लेकर हमारे दैनिक जीवन की लय तक पूरा हो रहा है. इसके साथ ही भय का माहौल भी बढ़ रहा है. भारत में हमेशा हिंदू-मुस्लिम संघर्ष रहा है, लेकिन सांप्रदायिक हिंसा स्थानीय होती थी. 2014 के बाद से, हमने एक नया चलन देखा है: दर्जनों मुसलमानों को पीट-पीट कर मार डाला गया है. ये लिंचिंग बेतरतीब ढंग से होती जान पड़ती है. वे ट्रेन में, राजमार्ग पर या मुस्लिम घरों के बाहर हो सकते हैं. जहां तक औसत मुसलमान का सवाल है, उन्हें सड़कों पर ऐसे कारणों से पीट-पीट कर मार डाला जा सकता है, जो कथित तौर पर गाय के मांस के कब्जे से ज्यादा कुछ नहीं है.
भीड़ का नेतृत्व करने वाले लोग प्रत्यक्ष या वैचारिक रूप से आरएसएस से जुड़े हुए हैं. उन्होंने लिंचिंग को अंजाम देते हुए खुद को रिकॉर्ड किया है और वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट किया है. उन्हें स्थानीय स्तर पर प्रसिद्धि मिली है और वे किसी भी कानूनी कार्रवाई से काफी हद तक बच गए हैं. पुलिस ने इन मामलों को आगे नहीं बढ़ाने का फैसला किया है क्योंकि वे समझते हैं कि राजनीतिक शक्ति से इनकार का क्या मतलब है. जैसा कि गोलवलकर ने वादा किया था, मुसलमान कानून प्रवर्तन तंत्र के लिए नागरिकों से कमतर हैं. उन्हें न्याय उपलब्ध नहीं है क्योंकि भारत में पुलिसिंग के बुनियादी मूल्य संवैधानिक मूल्य नहीं हैं बल्कि गोलवलकर द्वारा निर्धारित मूल्य हैं.
यह सिर्फ पुलिस नहीं है. देश की अधिकांश संस्थाएं उस दृष्टिकोण को जी रही हैं जो संवैधानिक नहीं बल्कि संघ का है. हमारा अगला आम चुनाव अगले साल होना है, लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी उसके बाद आने वाला साल है, 2025. यह आरएसएस के सौ साल पूरे होने का प्रतीक है, और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए कि संघ की नजर का हिंदू राष्ट्र भारत वास्तविकता बन चुका है.
बीजेपी को चलाने वाली विचारधारा उसके राजनीतिक हितों को भी पूरा करती है - अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत को निर्देशित करना राजनीतिक शक्ति को मजबूत करने के साधन के रूप में कार्य करता है. हिंदू धर्म की परिभाषा तेजी से इस तक ही सीमित होती जा रही है कि आरएसएस इसे कैसे परिभाषित करता है, और मुसलमानों के प्रति नफरत समुदाय के भीतर की दरारों को ढक देती है. हालांकि, अपूर्ण रूप से महसूस किए जाने पर, जाति व्यवस्था के अन्याय को दूर करने की संवैधानिक परियोजना ने पचहत्तर वर्षों में सामाजिक समानता के लिए पिछली सहस्राब्दी की तुलना में अधिक हासिल किया. यह परियोजना अब खतरे में है क्योंकि बाहरी दुश्मन से नफरत के माध्यम से एकीकरण मौजूदा संरचनाओं को बरकरार रखने का एक तरीका है.
कुछ दशकों में पहली बार हम सत्ता संस्थानों में प्रमुख पदों पर ऊंची जातियों के नियंत्रण में वृद्धि देख रहे हैं. इस ऊंची जाति के प्रभुत्व को उनकी संख्यात्मक ताकत के मुकाबले तौला जाना चाहिए. 1931 के बाद से किसी भी जनगणना ने जाति संबंधी आंकड़े एकत्र नहीं किए हैं, लेकिन बिहार में एक हालिया सर्वेक्षण से पता चला है कि ऊंची जातियां आबादी का लगभग पंद्रह प्रतिशत हैं. इस पंद्रह प्रतिशत का वित्तीय और बौद्धिक संसाधनों पर असंगत नियंत्रण है. अगर आप सिलिकॉन वैली में भारतीयों पर विचार करें, तो शायद उनमें से नब्बे प्रतिशत इसी पंद्रह प्रतिशत से संबंधित होंगे.
अल्पसंख्यक वर्ग के बौद्धिक आधिपत्य और वित्तीय संसाधनों पर नियंत्रण की इस डिग्री की प्रतिस्पर्धा शायद केवल रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका में ही थी. वहां भी, अपने चरम पर, श्वेत दक्षिण अफ़्रीकी लोगों की जनसंख्या में हिस्सेदारी भारत की ऊंची जातियों की तुलना में ज्यादा थी. मोदी के भारत में इस ऊंची जाति के नियंत्रण को अब चुनौती नहीं दी जा रही है. वास्तव में, यह पुनः संगठित हो रहा है.
यह सब देखते हुए, कोई यह मान सकता है कि सरकार काफी हद तक सुरक्षित है, लेकिन एक पार्टी जो अपने कुछ साथी नागरिकों से अस्तित्व संबंधी खतरे को लगातार प्रचारित करके जीवित रहती है और बढ़ती है, और अपने हिंदू एकीकरण के संभावित विघटन के बारे में चिंतित है, उसे सत्ता पर लगातार अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए निरंकुश शासन का इस्तेमाल करना चाहिए. अपनी पुस्तक इल विंड्स में, लैरी डायमंड, जो इस बातचीत के बाद होने वाली पैनल चर्चा का हिस्सा हैं, लिखते हैं कि रेंगता हुआ अधिनायकवाद एक "सामान्य प्रक्रिया" का अनुसरण करता है, जिसे वह "निरंकुशता का बारह-चरणीय कार्यक्रम" कहते हैं. यह इन कदमों को सूचीबद्ध करने लायक है कि इनमें से कितने भारत पर लागू होते हैं.
1. विपक्ष को नाजायज़ और देशद्रोही बताना शुरू करें
यह निश्चित रूप से भारत का सच है.
2. न्यायालयों की स्वतंत्रता को कमजोर करना
अवमानना का कानून मुझे इस विषय पर अपने स्पष्ट विचार व्यक्त करने से रोकता है, लेकिन मोदी सरकार ने निश्चित रूप से इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास किया है.
3. मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला करें, उन्हें पक्षपातपूर्ण मिथ्यावादी बताकर, उनके खिलाफ सार्वजनिक उत्साह जुटाकर.
सच.
4. किसी भी सार्वजनिक प्रसारण पर नियंत्रण हासिल करें, इसका राजनीतिकरण करें और इसे सत्तारूढ़ पार्टी के प्रचार का साधन बनाएं.
सच.
5. नैतिकता, सुरक्षा या आतंकवाद विरोध के नाम पर इंटरनेट पर सख्त नियंत्रण लागू करें
सच.
6. नागरिक समाज के अन्य तत्वों - नागरिक संघों, विश्वविद्यालयों और विशेष रूप से भ्रष्टाचार विरोधी और मानवाधिकार समूहों - को अहंकारी, क्षीण, स्वार्थी अभिजात वर्ग के हिस्से के रूप में चित्रित करके, जिन्होंने लोगों और देश को धोखा दिया है, अपने अधीन कर लें.
सच.
7. व्यापारिक समुदाय को डराना
सच.
8. शासक और उसके गुट के परिवार, दोस्तों और सहयोगियों को राज्य अनुबंध, ऋण प्रवाह, लाइसेंस और अन्य लाभ प्रदान करके घनिष्ठ पूंजीपतियों के एक नए वर्ग को समृद्ध करें.
सच.
9. सिविल सेवा और सुरक्षा तंत्र पर राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करें.
सच.
10. जिलों का परिसीमन और चुनावी नियमों में धांधली करें
असत्य.
11. चुनाव चलाने वाली संस्था पर नियंत्रण हासिल करें
सच.
12. चरण 1 से 11 को और अधिक तीव्रता से दोहराएं, नागरिकों के मन में नई राजनीतिक व्यवस्था का विरोध या आलोचना करने का डर गहरा करें और सभी प्रकार के प्रतिरोध को शांत करें.
सच.
मोदी को 12 में से 11 अंक मिलना इस बात का अच्छा संकेत है कि भारत आज कहां खड़ा है. यह एक संवैधानिक लोकतंत्र के अलावा कुछ भी नहीं है, जो निरंकुशता की राह पर आरएसएस के वैचारिक लक्ष्यों को पूरा करता है. यह वह भारत नहीं है जिसके लिए भारतीयों ने 1950 में संविधान अपनाते समय दस्तखत किए थे. भारतीय गणतंत्र का गठन करने वाले मूल समझौते को पलटा जा रहा है.