चुनावी लाभ के लिए पड़ोसी देशों से संबंध ख़राब करती मोदी सरकार

सितंबर 2023 में जकार्ता में दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ के 20वें शिखर सम्मेलन में भाग लेते नरेन्द्र मोदी. आसियान के बारे में मोदी की बयानबाज़ी सच की कसौटी पर खरी नहीं उतरती. एडेक बेरी/एएफपी/गैटी इमेजिस

पिछले साल जकार्ता में हुए दक्षिणपूर्व एशियाई देशों के 20वें शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की थी कि "आसियान भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी का केंद्रीय स्तंभ है."

2014 में सत्तारूढ़ होने के बाद से ही मोदी सरकार ने अक्सर अपनी नीतियों में आसियान की केंद्रीय भूमिका का दावा किया है. 2018 में मोदी ने दावा किया कि भारत की सर्वोच्च प्राथमिकता में दक्षिण पूर्व एशिया भी है. उन्होंने कहा कि भारत जितना ध्यान दक्षिण पूर्व एशिया पर देता है संभवता अन्य किसी क्षेत्र पर उतना ध्यान नहीं देता.

लेकिन हाल में आसियान अध्ययन केंद्र द्वारा प्रकाशित "स्टेट ऑफ साउथईस्ट एशिया सर्वे 2024 रिपोर्ट" से साफ़ हो जाता है कि मोदी का उपरोक्त दावा उनकी विदेश-नीति के अन्य दावों की तरह हवाबाज़ी है. इस रिपोर्ट में पाया गया है कि भारत आसियान के सदस्य देशों के लिए "न्यूनतम रणनीतिक प्रासंगिकता वाले भागीदारों" में से एक है. सर्वेक्षण में शामिल केवल 0.6 फीसदी लोगों ने कहा कि भारत दक्षिण पूर्व एशिया में सबसे असरदार आर्थिक ताकत है. इस सूची में चीन (59.5 फीसद) शीर्ष पर है. इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका (14.3 फीसदी) और फिर जापान (3.7 फीसदी) का नंबर आता है. यहां तक कि यूरोपीय यूनियन (2.8 फीसदी) और ब्रिटेन (0.8 फीसदी) को भी भारत की तुलना में इस क्षेत्र के लिए आर्थिक रूप से अधिक प्रभावशाली माना जाता है.

दक्षिण पूर्व एशिया में सबसे ज़्यादा राजनीतिक और रणनीतिक असर रखने वाले देशों में भारत की हालत सबसे ख़राब है. सर्वेक्षण में शामिल केवल 0.4 फीसदी लोगों ने भारत का नाम लिया. (सर्वेक्षण में शामिल 43.9 फीसदी लोगों द्वारा चुनी गई सूची में चीन एक बार फिर शीर्ष पर है. 25.8 फीसदी लोग उसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका को देखते हैं.) यह उन लोगों के लिए एक झटका होना चाहिए जो मानते हैं कि भारत मोदी के नेतृत्व में विश्वगुरु बन गया है. सर्वेक्षण में शामिल केवल 1.5 फीसदी लोगों ने इस बात पर भरोसा जताया कि वैश्विक शांति, सुरक्षा, समृद्धि और शासन के लिहाज से भारत "सही काम" कर रहा है. अविश्वास की हद 44.7 फीसदी थी, जिनमें से 40.6 फीसदी इस बात पर एकमत थे कि "भारत में वैश्विक नेतृत्व की क्षमता या राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है." प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के एक दशक के कार्यकाल के बाद भारत के बारे में उस क्षेत्र के यही विचार हैं, जिसे लेकर मोदी ने दुनिया के किसी भी अन्य हिस्से की तुलना में ज़्यादा ध्यान देने का दावा किया था.


सुशांत सिंह येल यूनि​वर्सिटी में हेनरी हार्ट राइस लेक्चरर और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं.