ऊंची दुकान फीका पकवान

सिमटते लोकतंत्र की कीमत पर जगमगाती नरेन्द्र मोदी की छवि

दिसंबर 2016 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में एक घर के बाहर लगा नरेन्द्र मोदी का एक कट-आउट. जनता को यह यकीन दिला दिया गया है कि मोदी है तो मुमकिन है और अगर कुछ गलत होता भी है तो वह इसलिए क्योंकि हर काम अब मोदी खुद से तो नहीं कर सकते. धीरज सिंह/ब्लूमबर्ग/गैटी इमेजिस

भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर लड़ा और विपक्ष का सफ़ाया कर दिया. बीजेपी ने मोदी के नाम पर दिल्ली नगरपालिका चुनाव लड़ा और जीतने के करीब पहुंची. मोदी की हद से ज्यादा बड़ी छवि पार्टी के लिए एक राजनीतिक फ्री पास बन गई है. यहां तक कि स्थिति यह है कि यह छवि अक्सर शासन की विफलताओं पर पर्दा डालने में सफल होती है. बीजेपी ने दिल्ली नगरपालिका चुनाव भी मोदी के नाम पर लड़़ा और अच्छी-ख़़ासी सीटें हासिल की. मोदी की छवि की भव्यता पार्टी के लिए अचूक चुनावी अस्त्र बन गई है जो अक्सर ही प्रशासन की विफलताओं पर पर्दा डालने में काम आती है.

मोदी की राजनीतिक प्रतिभा इस बात में है कि वह अपनी छवि को कायम रखने के लिए हमेशा नए-नए तरीके ढूंढने की क्षमता रखते हैं. ऐसे राज्यों में भी जहां हाल फिलहाल चुनाव नही होने जा रहें हैं, वहां भी मुमकिन है कि राज्य में कदम रखने वाले शख्स का पहला सामना जी20 शिखर सम्लन में भारत के नेतृत्व का जश्न मनाने वाले पोस्टरों से झांकते मोदी से हो. जी20 में भारत का नेतृत्व कायदे से कोई उपलब्धि नही है, बल्कि यह एक नियमित प्र​क्रिया है. हर देश को बारी-बारी से इसका मौका मिलता है. लेकिन यह तथ्य तब अप्रासंगिक हो जाता है जब लोगों तक पहुंचने वाली राजनीति ही देश की वास्तविकता बन जाए.

वास्तविकता पर यह शिकंजा दशकों में कायम हुआ है. इसकी शुरुआत 2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा के साथ हुई. उस वक़्त तक मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे जो इस उम्मीद में एक टेलीविजन स्टूडियो से दूसरे तक दौड़ा करते थे कि कोई उनकी भी बाइट ले ले. नफ़रत और हिंसा के कोलाहल में, उन्होंने ख़ुद को एक ऐसे नेता के रूप में स्थापति किया जो हिंदुओं का हितैषी है.

जब एक दशक बाद जब मैंने गुजरात की यात्रा की, तो मोदी बतौर मुख्यमंत्री तीसरे कार्यकाल के लिए प्रचार कर रहे थे. मैंने हर तरफ उनकी छवि का वह संजाल देखा, जिससे अब हम सब परिचित है. हिंसा के बाद उनकी अपार लोकप्रियता ने राज्य में हर तरह के विपक्ष को, संस्थागत और राजनीतिक, ​किनारे लगा दिया था. मीडिया सरकार का मुखपत्र बन चुका था. ओपन मैगज़ीन के लिए एक टिप्पणी में मैंने लिखा था,