चालबाजी, आत्मप्रशंसा और मूर्खता वाली नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की प्रशासनिक शैली के पैटर्न को नोटबंदी, अनुच्छेद 370 हटाने और महाराष्ट्र में हास्यास्पद स्तर तक अल्पावधि की सरकार बनाने के लिए राष्ट्रपति शासन को सुबह-सुबह हटाने जैसे फैसलों से आसानी से समझा जा सकता है. इस बंद सरकार के कामकाज पर नजर रखने वाले लोगों के लिए उपरोक्त मिसालें, मोदी और शाह की पाटर्नशिप को समझाने और देश पर इसके खतरे को भांपने के लिए काफी हैं.
अब हमें अच्छी तरह से पता है कि मोदी सबसे ज्यादा फिक्रमंद अपनी सार्वजनिक छवि को लेकर रहते हैं. 2007 में गुजरात में रिपोर्टिंग करते हुए मुझे मोदी के तत्कालीन निजी फोटोग्राफर विवेक देसाई से बात करने का मौका मिला. उन्होंने मुझे एक फोटो सत्र के बारे में बताया जो सुबह 6 बजे मुख्यमंत्री आवास में हुआ था. वेशभूषा पहले से ही तय थी. देसाई ने बताया, “मोदी खाली कमरे में काल्पनिक भीड़ को भाषण देने लगे.” देसाई का कहना था, “जब मोदी इस तरह से भाषण देते हैं तभी उनकी भावभंगिमा जीवित हो उठती है, इसीलिए पत्रकारों को केवल भावपूर्ण साक्षात्कार या सार्वजनिक भाषण के दौरान ही उनकी तस्वीर लेने की इजाजत है. वह फोटो सत्र 4 घंटे तक चला था.” मोदी को मोटी हो चली कमर की बड़ी चिंता थी. देसाई ने बताया, “मोदी ने जोर दिया कि उनकी फोटो कमर के ऊपर से ली जाएं.” देसाई ने आगे बताया, “मोदी हमेशा चाहते हैं कि जब वह हाथ हिला रहे हों या अपनी तर्जनी से इशारा कर रहे हों, तभी फोटो ली जाए.
दिल्ली आने के बाद भी मोदी बहुत नहीं बदले. गुजरात की तरह यहां भी, वह अपने अलावा कहीं गौर नहीं कर पाते. उनकी यह मानसिकता उनकी घोषित योजनाओं में भी प्रकट होती है. किसी योजना का प्रचार पूरा हो जाने के बाद, वह प्रचार का दूसरा जुगाड़ भिड़ाने लगते हैं. यही कारण है कि अमित शाह, मोदी की ऐसी ढाल बने हुए हैं जिनके बिना उनका गुजारा नहीं हो सकता. मोदी के पहले कार्यकाल में भले ही शाह सरकार के कामकाज में सक्रिय न रहे हों लेकिन जैसा गुजरात में होता था, यहां भी वह मोदी की चुनावी रणनीति के कमांडर थे. इस काम में शाह ने बूथों पर ध्यान दिया, क्षेत्रीय चुनाव अभियान के लिए सही लोगों का चयन किया और जहां पार्टी का अस्तित्व नहीं था वहां पार्टी का निर्माण किया. मोदी अपनी सार्वजनिक छवि के बारे में सुनिश्चित हो जाने के बाद ज्यादातर चीजें शाह के भरोसे छोड़ देते हैं.
दोनों के बीच की यह समझदारी अच्छी तरह से काम करती है. मोदी अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सकते, इसलिए वह मीडिया के सामने तब तक नहीं आते जब तक कि सब उनके मन मुताबिक पूर्वनिर्धारित न हो. ऐसी परिस्थितियों से अमित शाह को कोई परहेज नहीं है, इसीलिए 2019 के चुनाव अभियान के अंत में मीडिया को अमित शाह ने संबोधित किया जबकि मोदी चुपचाप उनकी बगल में बैठे रहे. ऐसे मीडिया टिप्पणीकार, जिनके पास जानकारी का अभाव होता है, मोदी की ऐसी प्रस्तुतियों से कुछ ज्यादा ही मायने निकालने की कोशिश करते हैं. बात बस इतनी है कि मोदी की जान जनता में है और शाह की जान मोदी में है.
सरकार के कामकाज में शाह की छाप नवंबर 2016 की नोटबंदी में साफ हो गई. शाह उन चंद लोगों में थे जिन्हें इस फैसले की जानकारी पहले से ही थी और उन्होंने ही सार्वजनिक सफाई भी दी. नोटबंदी का मॉडल दोनों के कामकाज का तरीका बन गया. गुपचुप की गई नोटबंदी ने लगभग सभी लोगों को हैरान कर दिया था. फौरन बाद हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में यह पार्टी के लिए वरदान लेकिन अर्थतंत्र के लिए शाप साबित हुआ. लेकिन इस अनुभव से जो नतीजा आता है और जिसे मोदी और शाह ने अपने कामकाज का तरीका बनाया है, वह स्पष्ट है : अगर मोदी और शाह को राजनीतिक लाभ की कीमत पर गणतंत्र का बेड़ा गर्क करना पड़े तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
कुछ ऐसा ही हुआ था जब सरकार ने जम्मू कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जे को खत्म किया था. कानूनी पेचों के नाटक को बारीकी से निपटाया गया और शाह ने संसद में जोरदार तरीके से फैसले का बचाव किया. नोटबंदी की तरह ही इस कदम में चालबाजी थी और नोटबंदी की तरह ही यह फैसला राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फलक पर लंबे दौर की शर्मिंदगी का कारण बन रहा है.
फिलहाल संवैधानिक नैतिकता की बात छोड़ कर- जो वैसे भी बहुत पहले छोड़ी जा चुकी है- राष्ट्रीय सुरक्षा के वादे पर बात करते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा ऐसे दो शब्द हैं जिसके नाम पर मोदी और शाह ने यह कारनामा किया है. इस बात की बहुत कम संभावना है कि जो भारी-भरकम सैन्य और अर्धसैनिक बंदोबस्त किया गया है वह ढीला होगा. जिन मामलों में भारत की आतंक विरोधी मुहिम सफल साबित हुई है, उनमें स्थानीय पुलिस की बड़ी भागीदारी थी. लेकिन जम्मू-कश्मीर में अब लंबे समय तक पुलिस पर भरोसा नहीं किया जा सकेगा क्योंकि सरकार ने विशेष दर्जा खत्म करने से पहले अपमानित करते हुए उसके हथियार डलवा लिए थे.
मोदी और शाह के जमाने में पुलिस और सुरक्षाबलों में जिस तरह का नेतृत्व उभर कर आया, वह ऐसा है जिसमें कोई भी वरिष्ठ अधिकारी अपने जवानों के लिए खड़ा नहीं होता और ऐसी उम्मीद करना कि ऐसे अफसरों के प्रति जवान वफादार बने रहेंगे, भलमनसाहत के सिवा कुछ नहीं है. इस बीच घाटी में लॉक डाउन के चार महीने हो गए हैं और विकास के बड़े-बड़े वादों का कोई चिन्ह अभी तक दिखाई नहीं पड़ रहा जिसकी बात इस कदम को उठाते वक्त की गई थी. अंततः इस फैसले का कोई मतलब नहीं है. राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से भी नहीं. हां, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा की तुष्टी जरूर करता है जो मोदी और शाह की राजनीति की संचालक शक्ति है.
मोदी के उन समर्थकों के लिए भी, जिन्होंने नोटबंदी और अनुच्छेद 370 की आपदा का बचाव किया था, महाराष्ट्र में जो हाल में हुआ, उसका बचाव करना कठिन हो गया है. 23 नवंबर को सुबह 5 बजकर 47 मिनट पर मोदी ने भारत सरकार (कार्य आवंटन नियम) के 12वें नियम का इस्तेमाल करते हुए, जो प्रधानमंत्री को “आवश्यकता पड़ने पर” कैबिनेट की मंजूरी के बिना राष्ट्रपति शासन हटाने का अधिकार देता है, देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए राज्य से राष्ट्रपति शासन हटा दिया. यह कदम शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस पार्टी को चुनाव के बाद गठबंधन बनाकर सरकार बनाने से रोकने के लिए उठाया गया था. तीन दिन बाद जब यह स्पष्ट हो गया कि सरकार बनाने के लिए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का समर्थन नहीं मिलने वाला तब फडणवीस ने इस्तीफा दे दिया और राज्य के सबसे कम दिनों के मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड भी अपने नाम कर लिया.
जैसा नोटबंदी और कश्मीर के मामले में हुआ था, इस चालबाजी ने भी सब को हैरान कर दिया. पूर्व की तरह ही इस मामले में भी बारीक कानूनी पेंचों का इस्तेमाल हुआ था. लेकिन असली फर्क यह था कि जनता को इस कदम की मूर्खता को समझने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा. यहां सरकार बनाने वालों और सरकार न बना पाने वालों की नैतिकता की तुलना करना बेकार है. गौर इस बात पर किया जाना चाहिए कि मोदी और शाह अपने कामकाज से होने वाली शर्मिंदगी को महसूस नहीं कर पाते. मीडिया पर उनके नियंत्रण के बावजूद, इस बार की उनकी असफलता छुपाई नहीं जा सकी.
सरकार का मोदी-शाह संस्करण भले ही इतिहास पढ़ने वालों का भविष्य में मनोरंजन करे लेकिन फिलहाल उनके कामकाज का तरीका बहुसंख्यकवादी भावना को संतुष्ट तो करता ही है. आज लोग जो बात समझ नहीं पा रहे हैं वह यह कि राष्ट्रीय सुरक्षा को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की दोनों की सनक, विशेषज्ञों से परामर्श न करना, लोकतांत्रिक सहमति लेने की अनिच्छा और विफलता का आंकलन न कर पाना, सरकार के कामकाज का ऐसा तरीका बन चुका है जिसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी. मोदी-शाह ऐसे लोग हैं जो हमें बर्बादी की ओर तो ले जा सकते हैं लेकिन बर्बादी से निकाल नहीं पाएंगे.