हिंदू राष्ट्र के असंतुष्ट

दिल्ली की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह. पंकज नागिया /इंडिया टुडे ग्रुप/गैटी इमेजिस

हाल के चुनावों में नरेन्द्र मोदी की जीत एक कड़वा यथार्थ है, जिसे मोदी के प्रशासन, उनकी क्षमता और अर्थतंत्र की बदहाली की बार-बार दी जाने वाली दुहाइयों की चादर में नहीं लपेटा जा सकता. भारत के नक्शे पर दिखाई देने वाले ऐसे राज्य जहां, गैर हिंदुओं की आबादी हिंदुओं से अधिक है, वहां के चुनाव परिणाम को देख कर समझा जा सकता है कि मोदी सरकार की प्रशासनिक क्षमता के दावे कितने लचर हैं. हमें पंजाब, केरल, कश्मीर घाटी और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में बीजेपी के प्रदर्शन को देखने की जरूरत है. पंजाब में बीजेपी को जो एक सीट मिली है वह राज्य की दो हिंदू बहुल सीटों में से एक है. इस सूची में तमिलनाडु को रखना विषय का अति सरलीकरण होगा क्योंकि इस राज्य में द्रविड़ राजनीति का लंबा इतिहास है.

इस जीत के बाद हिंदू राष्ट्र को चाहने वाले और इसे अस्वीकार करने वालों के बीच एक रेखा खिंच गई है. निष्कर्ष स्पष्ट है, उन राज्यों में मोदी प्रशासन का असर नहीं है और न ही यहां राष्ट्रवाद हावी है. ये वही राज्य हैं जहां से सेना और अर्धसैनिक बलों में भर्ती होने वालों की संख्या उन राज्यों से अधिक है जो मोदी के दीवाने हैं. तो सवाल उठता है कि ये राज्य मोदी को वोट क्यों नहीं देते? कहने का मतलब है कि मोदी के नए भारत में इन राज्यों को अपनी भूमिका नहीं दिखती यानी ऐसा लगता है कि वे इस नए राष्ट्र का हिस्सा नहीं है.

ऐसा सोचने वाले केवल इन्हीं राज्यों के लोग नहीं हैं. मोदी के नए भारत में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले करोड़ों मुसलमान हैं, जो इसके भूभाग में एक छोर से दूसरे छोर तक फैले हुए हैं. इन लोगों की तुलना केवल दलित और आदिवासियों की स्थिति से की जा सकती है. पिछले 5 सालों में इन समुदायों को शत्रुता, धर्मांधता और हिंसा का शिकार होना पड़ा है. इन लोगों की आवाज होने का दावा करने वाले कांग्रेस और अन्य लोगों ने इन लोगों को चुपचाप किनारे बैठे रहने की सलाह दी है. इसके बावजूद भी मोदी ने अपने हिंदुत्ववादी चुनाव अभियान में इनको निशाना बनाया है. अब यह स्पष्ट हो गया है कि हिंदुत्व को चुपचाप रहकर नहीं हराया जा सकता और हमें ऐसा करने की सलाह सिर्फ वही लोग दे सकते हैं जो खुद इस विचारधारा को मानते हैं.

तो फिर इस भयावह चुनावी फैसले के खिलाफ लोकतांत्रिक विकल्प की बात कैसे की जाए? कांग्रेस एक अप्रासंगिक पार्टी बन गई है. इस पार्टी से लोकतांत्रिक विकल्प की कामना करना बेकार है. इसका नेतृत्व ऊंची जाति के हिंदू उदारवादियों के हाथों में है जो जमीनी हकीकत से बेपरवाह, ट्विटर की खिड़की से झांक कर दुनिया की समझदारी बनाते हैं और एक-दूसरे के ट्वीटों को रिट्वीट कर अपने कर्तव्य पूरा करते हैं. चुनाव परिणाम को लेकर इनकी प्रतिक्रिया नई नहीं थी. ये लोग अपनी जिम्मेदारी से आंख मूंद कर हमें यह बताते हैं कि राहुल गांधी इस समस्या की जड़ नहीं हैं.

उदार स्पेस पर ऊंची जाति के हिंदुओं का पूरी तरह से कब्जा अपने आप में ही इस बात का संकेत है कि हिंदुत्व की चुनौतियों का सामना इस तरह से नहीं किया जा सकता. इन संभ्रांत लोगों के दुख का कारण सिर्फ इतना है कि इनकी जाति के वह लोग जो इनसे कम अंग्रेजी जानते हैं, सत्ता से इनको बेदखल कर रहे हैं. सवाल है कि क्या इन लोगों की कोई भूमिका है? हां है. लेकिन वह भूमिका है, चुप रह कर पार्टी के साथ चलना या बाहर खड़े रह कर तमाशा देखना. इनकी जो भूमिका कांग्रेस में थी वह भूमिका अब नहीं बची है.

ऊंची जाति के हिंदू उदारवादियों के लिए या ऐसे लोगों के लिए जो खुद को हिंदू धर्म से जोड़कर देखते हैं, बस एक भूमिका बची है. यह ऐसी भूमिका है जो किसी अन्य की नहीं हो सकती. आस्था इंसान के भीतर सवाल पैदा होने नहीं देती. जो लोग बाहर हैं वे सवाल तो उठा सकते हैं लेकिन जवाब को मनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकते. सवाल स्पष्ट है, मोदी किस हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं, वास्तव में वह कैसा धर्म है और क्या वह सही मायनों में हिंदू धर्म है? पूर्व में जिस तरह का सवाल कट्टरपंथी इस्लाम से किया जाता था वही सवाल अब हिंदुत्व और हिंदू धर्म के पैरोकारों से पूछा जाना चाहिए. धर्म की वह कौन सी मान्यता है जो हत्या और हिंसा को चुनौती दे सकती है? सहिष्णुता के बड़े-बड़े दावों की वास्तविकता क्या है? हिंदू धर्म के वे स्रोत और सोते कहां हैं जो बताते हैं कि हिंदू धर्म मोदी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक द्वारा प्रचारित हिंदुत्व की मान्यता से कहीं अधिक है?

हिंदू उच्च जाति के नास्तिक उदारवादियों की कोई भूमिका, कम से कम बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व में नहीं है. लेकिन यह लोग हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ लड़ाई के हमसफर हैं. उन्हें अपनी भूमिका को यहीं तक सीमित करके देखना चाहिए. मैंने बहुत बार ऊंची जाति के उदारवादियों को दावा करते हुए सुना है कि वे उन लोगों की आवाज हैं जिनकी आवाज सुनी नहीं जाती. यह बड़ी-बड़ी बात दोहराने के लिए अच्छी हैं लेकिन अच्छा होगा कि ये लोग, लोगों के बोल सकने की स्थिति का निर्माण करने में सहयोग दें.

अगर इन लोगों को लगता है कि इस काम में कांग्रेस की सकारात्मक भूमिका है तो इन्हें कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को बदलना चाहिए. कांग्रेस का नेतृत्व दलितों (मीरा कुमार जैसे दलितों को नहीं) और आदिवासियों को, जिन्हें केंद्रीय नेतृत्व में कभी स्थान नहीं मिला, देना चाहिए. उन्हें कांग्रेस का नेतृत्व मुसलमानों को देना चाहिए, लेकिन वह मुसलमान सलमान खुर्शीद जैसा नहीं होना चाहिए. उन्हें सिखों को नेतृत्व देना चाहिए, लेकिन मनमोहन सिंह जैसे सिखों को नहीं. उन्हें तमिलों को नेतृत्व देना होगा, लेकिन मणिशंकर अय्यर जैसे तमिल नहीं. मलयालियों को नेतृत्व देना चाहिए, लेकिन शशि थरूर जैसे मलयालियों को नहीं. यदि इस तरह की कांग्रेस नहीं बनाई जा सकती तो फिर कांग्रेस को किसी ऐसे संगठन के लिए स्थान रिक्त कर देना चाहिए जो उपरोक्त नेतृत्व दे सकता है.

जिन लोगों को लगता है कि मेरी बातें कोरी कल्पना है तो उन्हें जान लेना चाहिए कि इस “कल्पना” के के अलावा और कोई विकल्प बचा भी नहीं है.