हाल के चुनावों में नरेन्द्र मोदी की जीत एक कड़वा यथार्थ है, जिसे मोदी के प्रशासन, उनकी क्षमता और अर्थतंत्र की बदहाली की बार-बार दी जाने वाली दुहाइयों की चादर में नहीं लपेटा जा सकता. भारत के नक्शे पर दिखाई देने वाले ऐसे राज्य जहां, गैर हिंदुओं की आबादी हिंदुओं से अधिक है, वहां के चुनाव परिणाम को देख कर समझा जा सकता है कि मोदी सरकार की प्रशासनिक क्षमता के दावे कितने लचर हैं. हमें पंजाब, केरल, कश्मीर घाटी और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में बीजेपी के प्रदर्शन को देखने की जरूरत है. पंजाब में बीजेपी को जो एक सीट मिली है वह राज्य की दो हिंदू बहुल सीटों में से एक है. इस सूची में तमिलनाडु को रखना विषय का अति सरलीकरण होगा क्योंकि इस राज्य में द्रविड़ राजनीति का लंबा इतिहास है.
इस जीत के बाद हिंदू राष्ट्र को चाहने वाले और इसे अस्वीकार करने वालों के बीच एक रेखा खिंच गई है. निष्कर्ष स्पष्ट है, उन राज्यों में मोदी प्रशासन का असर नहीं है और न ही यहां राष्ट्रवाद हावी है. ये वही राज्य हैं जहां से सेना और अर्धसैनिक बलों में भर्ती होने वालों की संख्या उन राज्यों से अधिक है जो मोदी के दीवाने हैं. तो सवाल उठता है कि ये राज्य मोदी को वोट क्यों नहीं देते? कहने का मतलब है कि मोदी के नए भारत में इन राज्यों को अपनी भूमिका नहीं दिखती यानी ऐसा लगता है कि वे इस नए राष्ट्र का हिस्सा नहीं है.
ऐसा सोचने वाले केवल इन्हीं राज्यों के लोग नहीं हैं. मोदी के नए भारत में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले करोड़ों मुसलमान हैं, जो इसके भूभाग में एक छोर से दूसरे छोर तक फैले हुए हैं. इन लोगों की तुलना केवल दलित और आदिवासियों की स्थिति से की जा सकती है. पिछले 5 सालों में इन समुदायों को शत्रुता, धर्मांधता और हिंसा का शिकार होना पड़ा है. इन लोगों की आवाज होने का दावा करने वाले कांग्रेस और अन्य लोगों ने इन लोगों को चुपचाप किनारे बैठे रहने की सलाह दी है. इसके बावजूद भी मोदी ने अपने हिंदुत्ववादी चुनाव अभियान में इनको निशाना बनाया है. अब यह स्पष्ट हो गया है कि हिंदुत्व को चुपचाप रहकर नहीं हराया जा सकता और हमें ऐसा करने की सलाह सिर्फ वही लोग दे सकते हैं जो खुद इस विचारधारा को मानते हैं.
तो फिर इस भयावह चुनावी फैसले के खिलाफ लोकतांत्रिक विकल्प की बात कैसे की जाए? कांग्रेस एक अप्रासंगिक पार्टी बन गई है. इस पार्टी से लोकतांत्रिक विकल्प की कामना करना बेकार है. इसका नेतृत्व ऊंची जाति के हिंदू उदारवादियों के हाथों में है जो जमीनी हकीकत से बेपरवाह, ट्विटर की खिड़की से झांक कर दुनिया की समझदारी बनाते हैं और एक-दूसरे के ट्वीटों को रिट्वीट कर अपने कर्तव्य पूरा करते हैं. चुनाव परिणाम को लेकर इनकी प्रतिक्रिया नई नहीं थी. ये लोग अपनी जिम्मेदारी से आंख मूंद कर हमें यह बताते हैं कि राहुल गांधी इस समस्या की जड़ नहीं हैं.
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