मोदी का पूंजी आतंक : कैसे उदारवादी बाजार भारत में अनुदार लोकतंत्र को हवा दे रहा है

03 November, 2020

We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing

महज दो सप्ताह के अंतराल में दिखाई दीं दो घटनाएं भारतीय राजनीति के विरोधाभासी चरित्र को दर्शाती हैं. सितंबर के शुरू में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट ने घोषणा की कि तैयार हो रहे मुगल म्यूजियम का नाम बदलकर छत्रपति शिवाजी महाराज म्यूजियम कर दिया जाएगा. अपनी हिंदू कट्टरवादी छवि के अनुरूप आदित्यनाथ ने घोषणा की, “कैसे हमारे हीरो मुगल हो सकते हैं?” आजकल राजनीति में मुसलमानों को बाहर का बताने के लिए मुगल शब्द का इस्तेमाल होता है.

एक सप्ताह बाद मुख्यमंत्री एक अलग ही अंदाज में प्रस्तुत हुए. इस बार वह व्यवसाय को बढ़ावा देने वाले एक वैश्विक नागरिक का रूप धारण किए हुए थे. मौका था “इन्वेस्ट यूपी” नामक उच्च स्तरीय सशक्त समिति की बैठक का, जो निवेश से संबंधित मंजूरी और अन्य संबंधित प्रक्रियाओं को दुरुस्त करने के लिए बनाई गई राज्य की एजेंसी है. उस मीटिंग में आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश को ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बना देने के महत्वकांक्षी लक्ष्य की घोषणा की और भारतीय और विदेशी निवेशकों को राज्य में कारोबार शुरू करने का आमंत्रण दिया. उन्होंने राज्य को एक ऐसे मुख्य निवेश गंतव्य बनाने की बात की जो सौर ऊर्जा और जैव ईंधन जैसे 21वी शताब्दी के आधुनिक उद्यमों को बढ़ावा देगा.

राजनीति की यह दोमुंही बात भरमा सकती है. उस नेता को क्या समझा जाए जो बाजार की स्वतंत्रता वाले प्रगतिवादी “उधार” दृष्टिकोण की बात भी करता है और अतीत से चिपकी “कट्टर” सांस्कृतिक राजनीति का प्रदर्शन भी करता है?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जमाने में उपरोक्त किस्म के विरोधाभास भारतीय राजनीति का पैकेज डील है. यह आर्थ-राजनीतिक पैकेज उस लोकप्रिय मान्यता के विपरीत है जिसमें माना जाता है कि उदार राजनीति और उदार बाजार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. माने पूंजी लोकतंत्र को मजबूत कर दुनिया में बेलगाम स्वतंत्रता को बढ़ावा देती है. लेकिन ऐसा लगता है कि पूंजी लोगों पर कठोरता से नियंत्रण रखने वाले ऐसे बहुसंख्यकवादी शासनों को मजबूत भी करती है जो आजादी पर रोक लगाते हैं. बाजार का लालच देकर अमीरों और ताकतवर लोगों से सौदा किया जाता है. पिछले साल जम्मू-कश्मीर से विशेष दर्जा हटा लेने में यह लेनदेन साफ दिखा था. इसमें उम्मीद की गई थी कि राज्य के भीतर दमन को निवेशकर्ता इन बाजारों में संभावित बड़ी घुसपैठ के मद्देनजर नजरअंदाज कर देंगे.

1990 के दशक में कांग्रेस ने उदारीकरण की नींव रखी लेकिन वह मोदी हैं जिन्होंने इसका इस्तेमाल भारतीय राजनीति में हिंदुत्ववादी उग्र राष्ट्रवाद को मजबूत बनाने के लिए किया. 2014 से पहले, जब वह मुख्यमंत्री थे, उन्होंने निवेशकर्ताओं को गुजरात मॉडल बेचने के लिए पूंजीवादी लालचों का इस्तेमाल किया. यह वाइब्रेंट गुजरात के रूप में सामने आया. वाइब्रेंट गुजरात अंतरराष्ट्रीय निवेशकर्ताओं का हर दो साल में होने वाला शिखर सम्मेलन है जिसमें वह अपनी लोकप्रिय मजबूत नेता की छवि का प्रचार करते थे. बाद में इसे “अच्छे दिन” कहा गया. इसमें हिंदू सभ्यता कि पुनर्स्थापना और आर्थिक विकास का वादा था. इससे उन्हें 2014 की चुनावी सफलता भी मिली. अब आदित्यनाथ इसी रास्ते पर जब चल पड़े हैं, तो नवउदारवादी आर्थिक विकास ने न केवल धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राजनीति से दूरी बना ली है बल्कि वह हिंदू राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट को मजबूती भी दे रहा है.

इस बेतरतीब राजनीति की मुख्य बात यह है कि यह राष्ट्र को एक निवेश गंतव्य की तरह बेचने का फार्मूला है. इसके बारे में मैंने विस्तार से अपनी किताब ब्रांड न्यू नेशन में लिखा है. पिछले तीन दशकों से भारत आकर्षक निवेश गंतव्य बनने की आशा रखता है. इस राजनीति का मकसद भारत को मुनाफा देने वाली संपत्ति की तरह दिखाना है. इस फार्मूला में देश के भूभाग को पूंजी निवेश के लिए बुनियादी ढांचे, इसकी सांस्कृतिक पहचान को प्रतिस्पर्धी वैश्विक ब्रांड और यहां के लोगों को मुनाफा पैदा करने वाली उस मानवीय पूंजी की तरह देखा जाता है जिसे पूंजी को बढ़ाने के लिए लगाया जा सकता है. नेशन-स्टेट या राज्य के अंदर के इलाकों को पूंजी के सब-कंटेनरों की तरह देखा जाता है जहां सनराइज आंध्र प्रदेश से बंगाल मींस बिजनेस जैसी शब्दावलियां पूंजी निवेश के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रही होती हैं. इस तरह का आर्थिक परिदृश्य एक प्रतिस्पर्धी मंच की तरह हो जाता है जहां बाजार की घुसपैठ का स्वागत करने वाले राष्ट्र पूंजी निवेश को सुरक्षित रखने वाले एक्सक्लूसिव ब्रांड की तरह अपने आप को प्रस्तुत करते हैं.

दुनिया की खरी फैक्ट्री बनने की प्रतिस्पर्धा का उद्देश्य सिर्फ आर्थिक समृद्धि और विकास नहीं है. यह एक ऐसा मौका है जिसमें आप मजबूत आर्थिक ताकत हासिल कर सकते हैं जो आपकी राजनीति को भी मान्यता दिलाती है.

जरा सोचिए कि कैसे वैश्विक पूंजी के आने या विदेशी मुद्रा के भंडार के बढ़ने को मोदी सरकार को प्राप्त वैश्विक मान्यता के रूप में दिखाया जाता है. अक्सर इसे उनके मजबूत निजी नेतृत्व की मिसाल के रूप में पेश किया जाता है. पूंजी निवेश से राजनीतिक शक्ति का डायनामिक बदलता है. इस तरह के राष्ट्रों में घरेलू मामले विदेशियों की टीका-टिप्पणी के लिए प्रतिबंधित जोन की तरह हो जाते हैं. इसके पीछे का लेन-देन इस तरह है कि राज्य भूभाग पर नियंत्रण रखेगा और इसे निवेशकों के लिए खोलेगा लेकिन बदले में निवेशक राज्य की संप्रभुता को स्वीकार करेंगे. आर्थिक विकास के इस नैरेटिव के साथ चलने वाला यह राजनीतिक डायनामिक उस समय स्पष्ट दिखाई दिया था जब 5 अगस्त 2019 को बीजेपी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से विशेष दर्जा वापस ले लिया था.

कड़े विरोध और दमन के आरोपों के बीच बीजेपी सरकार ने तर्क दिया कि इस कदम से न केवल भाई-भतीजावाद और आतंकवाद खत्म होगा बल्कि घाटी के विकास का रास्ता भी खुलेगा. उसने दावा किया कि कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में किया गया बदलाव उसे आर्थिक संभावनाओं को बढ़ाने का अवसर देगा. इसी वक्त निवेशकर्ता शिखर सम्मेलन के आयोजन की बात होने लगी. इसमें संभावित निवेशकों को वहां आकर सरकार की बिजनेस फ्रैंडली नीतियों का अवलोकन करने, आधारभूत संरचना का जायजा लेने और प्राकृतिक संसाधनों, कच्चा माल, कुशल और अकुशल श्रम शक्ति और राज्य में व्यवसाय के अवसरों की जांच करने का निमंत्रण दिया गया.

यदि बीजेपी को 370 हटाने से अपने उग्र राष्ट्रवादी हिंदुत्व आधार को मजबूत करने का मौका मिला (इसके तहत उसका समर्थक आज जम्मू-कश्मीर में संपत्ति खरीदने और कश्मीरी महिलाओं से शादी करने के सपने देखता है), तो निवेश शिखर सम्मेलन ने नौकरशाही भाषा में आर्थिक संभावना और विकास की बात की. दोनों को मिला कर देखें तो इन दोनों घोषणाओं में एक ऐसे मर्दावादी राज्य का दीदार होता है जो कारोबार की भाषा कई जुबान में करता है. भारत का उद्योग जगत, जो मजबूत नेता पसंद करता है, उसने जोश के साथ कश्मीर के विकास के सरकारी नैरेटिव को दोहराया और इस राजनीतिक कदम का स्वागत किया.

मोदी के दूसरे कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म करना उन सांस्कृतिक और आर्थिक जटिलताओं को दिखाता है जो अब भारत की उदार राजनीति को पुनः भाषित कर रही हैं. इसे पांच ट्रिलियन के अर्थतंत्र का सपना दिखा कर आगे बढ़ाया जाता है. यह शब्द (पांच ट्रिलियन) हिंदू राष्ट्रवाद के कुछ प्रतीकात्मक एजेंडों को लागू करने में दिखा है. इनमें विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून, 2019 को पारित करना, छात्रों के प्रदर्शनों को कुचलना और अयोध्या में मंदिर के निर्माण शामिल है.

उदारवाद के संकट की जारी बहस में यह समझ नहीं आता कि दुनिया के कई हिस्सों में कट्टर राजनीति का उदय क्यों हुआ. लोकलुभावन निरंकुशशाही के उदय को उत्तर साम्यवादी दुनिया या यूरो-अमेरिका के आर्थिक रूप से पिछड़े देशों के अंदर जन्मे रोष के रूप में देखा जाता है. इस तरह की बहस की कमजोरी इस बात में निहित है कि इसमें उन तमाम देशों में उदित अनुदार लोकतंत्र या कट्टर बहुसंख्यकवाद को ध्यान में नहीं रखा जाता जो खुद को विश्व पूंजी के आकर्षक निवेश गंतव्य की तरह बताते हैं.

कोविड के बाद इस प्रवृत्ति को बल मिला है. अव्वल, इस गठजोड़ ने महामारी में औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों में कई सामाजिक समूहों के लिए आर्थिक अवसरों को बदतर कर दिया है. फिलहाल आर्थिक पूर्वानुमान भारत के अर्थतंत्र के और अधिक संकुचित होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं, जो संभावित रूप से देश की विकास यात्रा को अवरुद्ध कर देगा. लेकिन हैरानी की बात है कि निवेश के लिए नमूना गंतव्य का तर्क महामारी में भी भू-अर्थतंत्र को आकार देना जारी रखे हुए हैं. चीन दुनिया की शीर्ष फैक्ट्री होने के स्थान से नीचे खिसक आया है और कई राष्ट्र, जिसमें भारत भी शामिल है, उसका स्थान लेने की कोशिश कर रहे हैं.

यह प्रचंड और अनिश्चित समय मोदी के नए भारत की विडंबना को भी सामने लाता है. एक तरफ टूटे वादों की बुनियाद पर खड़ा नया भारत पूंजी आवाजाही के लिए अपने दरवाजे खोल रहा है, वहीं उन लोगों के लिए जिन्हें वह बाहरी मानता है, स्वतंत्रता पर अंकुश लगा रहा है. तीनों ओर से संकट से घिरा (बिगड़ती अर्थव्यवस्था, नियंत्रण से बाहर जाती महामारी और सीमाओं पर कब्जा करता चीन) यह राष्ट्र पहले के मुकाबले अधिक कमजोर तो हो गया है लेकिन इसे नागरिकों की वास्तविक आर्थिक समृद्धि या प्रगति नहीं बल्कि अच्छे दिनों का भद्दा वादा, जो ऐसी स्थाई आशा है जिसके पूरी होने की कोई मियाद नहीं है, चलायमान रखता है.

Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute