कुटबी एक साधारण गांव है. केवल छब्बीस सौ लोगों की आबादी वाला और किसी भी शहर से लगभग बीस किलोमीटर दूर. लेकिन, 5 नवंबर 2012 की सुबह भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई वहां एक हेलीपैड का निरीक्षण कर रही थी. कुछ घंटों बाद बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह अपने हेलीकॉप्टर से उतरे. उन्हें गन्ना किसान महापंचायत में शामिल होना था. जहां पंचायत गन्ना मूल्य निर्धारण, चीनी मिलों के चलने में देरी और जाट समुदाय के लिए आरक्षण की मांग के मुद्दों को संबोधित करने वाली थी.
लेकिन जैसे-जैसे बैठक आगे बढ़ी इसका प्राथमिक फोकस साफ होता गया: बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने जाट समुदाय के लिए अपने खुद के नेता, संजीव बालियान को पेश किया. बिना किसी खास राजनतीतिक अनुभव वाले एक 39 साल के नौजवान के लिए यह एक बड़ी उपाधि थी. बालियान का पड़ोसी राज्य हरियाणा में सरकारी पशु चिकित्सक के रूप में केवल एक छोटा सा कैरियर था. लेकिन बालियान ने महापंचायत का आयोजन किया था. कुटबी उनका पैतृक गांव था और उन्हें उस दिन कई मालाएं पहनाई गईं. वह पहले प्रमुख घरेलू नेता थे जिन्हें बीजेपी मुजफ्फरनगर के जाट समुदायों में आगे बढ़ा पाई थी.
एक साल से भी कम समय में कुटबी उत्तर प्रदेश के पहले से ही रक्तरंजित इतिहास में सबसे खराब अंतर-धार्मिक हिंसा का स्थल होने वाला था. 8 सितंबर 2013 को कुटबी के एकदम पड़ोसी गांव कुटबा में आठ मुसलमानों की हत्या कर दी गई और बाकी मुस्लिम समुदाय पलायन कर गया. मुजफ्फरनगर और शामली जिलों के कुटबी के आसपास के कई गांवों के हाल भी इसी तरह के थे. हिंसा ने पूरे इलाके को तहस-नहस कर दिया था. हिंसा में 62 लोग मारे गए और पचास हजार से ज्यादा अपनी जगहों से उजड़ गए. इनमें से ज्यादातर मुस्लिम थे. यह उस तरह का विनाश था जिसकी भविष्यवाणी बहुत कम लोग कर सकते थे, सिवाय उनके जो मेरी तरह चिंगारी भड़कने से पहले महीनों तक जमीन पर लामबंदी करते रहे थे.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनावी रूप से महत्वपूर्ण यह क्षेत्र लोकसभा में 29 सांसद भेजता है. ऐतिहासिक रूप से बीजेपी का राजनीतिक प्रभाव यहां सीमित रहा था. 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंश के लिए बड़े पैमाने पर लामबंदी के बावजूद, पार्टी एक शहरी परिघटना बनी रही, जिसे मुख्य रूप से ब्राह्मणों और बनियों का समर्थन हासिल था जिनके दम पर वह केवल नगरपालिका चुनावों और शहरी विधायिका सीट में ही जीत के लिए आगे बढ़ पाए थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश का विशाल ग्रामीण भीतरी इलाका, जहां जाट, गुर्जर, मुस्लिम और दलित जैसी कृषक जातियां रहती थीं, उनके दायरे से बाहर थे.
जाट पहले ही महेंद्र सिंह टिकैत और उनके भारतीय किसान संघ के बैनर तले एकत्र हो चुका था. उनके पास इतना समर्थन था कि एक लोकप्रिय जाट नेता चरण सिंह भारत के पांचवे प्रधानमंत्री बन सके. चरण सिंह के पुत्र अजीत सिंह राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख थे. यह एक अवसरवादी संगठन है जो अक्सर मुसलमानों और जाटों दोनों के वोट हासिल करता है और जो भी पार्टी सत्ता में होती है, उससे गठबंधन कर लेता है. उदाहरण के लिए, 2009 के आम चुनाव में आरएलडी ने बीजेपी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था, लेकिन जल्द ही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में शामिल हो गया, जिससे अजीत सिंह नागरिक-उड्डयन मंत्री बन गए.
कुटबी महापंचायत और बालियान के बाद इलाके में बीजेपी एकदम से मजबूत हो गई. हिंसा के बाद यह मुजफ्फरनगर और आसपास के जिलों में प्रमुख ताकत बन गई. यहां की जनता आरएलडी की असफलताओं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था की हालत में गिरावट और ग्रामीण इलाकों में फैली भारी बेरोजगारी से उपजे गहरे असंतोष से उत्साहित थी. बीजेपी के लिए आसान था कि वह जाट नौजवानों को यह कहकर भड़का सके कि मुसलमान उनके जातीय गौरव के लिए संभावित खतरा हैं.
मुजफ्फरनगर में एक स्थानीय रियल-एस्टेट कंपनी में ऑफिस बॉय के रूप में काम करते हुए, मैं अपने दोस्तों और पड़ोसियों के बीच बदलाव को देख सकता था. किसानी की पुरानी राजनीति, जिस पर आरएलडी ने भरोसा किया था, तेजी से गायब हो रही थी. किसानी, शासकों की साझा पहचान के इर्द-गिर्द हिंदू-मुस्लिम समानता की राजनीति थी. इसकी जगह पर, स्थानीय बीजेपी नेताओं ने हर मुस्लिम बस्ती को "मिनी-पाकिस्तान" और हिंदू महिलाओं की पवित्रता के लिए खतरा होने के नैरेटिव को हवा दी. चाहे चरण सिंह हों या महेंद्र टिकैत, किसान आंदोलन के नेताओं के नाम बीजेपी ने हथिया लिए थे. यह एक ऐसा मंच था जिसे बीकेयू (टिकैत)- जिसका नेतृत्व टिकैत के दो बेटों ने किया- ने चांदी की थाली में सजा कर आसानी से भगवा पार्टी को सौंप दिया.
सांप्रदायिक हिंसा फैलाना आसान नहीं है. इसके लिए योजना और दूरदर्शिता की जरूरत होती है. एक समुदाय को लंबे समय तक निशाना बनाना होता है और साथ ही बहुसंख्यक समुदायों के बीच विभाजनकारी भावनाओं को संगठित करना जरूरी होता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों की मिली-जुली संस्कृति में यह और भी कठिन है, जहां जाति के विभाजन ने धर्म के मतभेदों पर तरजीह पाई हुई है. दस साल हो गए जब हिंसा ने अनगिनत जिंदगी बर्बाद कर दीं, यह समझना जरूरी है कि बीजेपी ने उन इलाकों में अपनी स्थिति मजबूत बनाने के लिए क्या किया जहां उसकी ताकत कम थी. यह समझना होगा कि पार्टी ने अपने स्थानीय नेतृत्व को किस तरह तैनात किया और कैसे वह छोटे—मोटे अपराधों को संपूर्ण हिंदू धर्म के लिए चुनौतियों के बतौर बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने में सक्षम हुई. यह समझना होगा कि मेरे दोस्त अनगिनत संख्या में उन बैठकों में क्यों आते थे जहां हिंसा करने के लिए खुलेआम भाषण दिए जाते थे. यह समझना होगा कि हिंसा के पीड़ित अब कहां हैं. और अंत में, यह समझना होगा कि समाज यह कैसे सुनिश्चित कर सकता है कि ऐसा दोबारा न हो.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 2004 के आसपास हमारे इलाके में पहुंचा था. अटल बिहारी वाजपेयी उस साल का आम चुनाव हार गए थे. हम मुजफ्फरनगर के दलित बहुल बाहरी इलाके में रहते थे. हमारे नगर पार्षद ने उस समय आर्य समाज के दयानंद एंग्लो-वैदिक कॉलेज की पोशाक पहन कर आरएसएस की शाखा में जाना शुरू कर दिया था. मेरी मां सहित हमारे इलाके के ज्यादातर लोग आरएसएस से नाराज थे क्योंकि इसने बच्चों को उन छोटी-मोटी नौकरियों से दूर कर दिया जो हमारे परिवारों की छोटी सी आमदनी का सहारा थीं. लेकिन कॉलेज में पढ़े-लिखे, अच्छे कपड़े पहनने वाले और सुलभ पार्षद ने मेरी आकांक्षा जगाई और मैं शाखा में शामिल हो गया. 11 साल की उम्र से शाम को सड़क किनारे एक भोजनालय में अंशकालिक काम करने के बाद मैं शाखा में जाता था. वहां खेल खिलाए जाते, जिसमें मेरे जैसे कई लोग शामिल होते थे.
अठारह महीने के भीतर मैं किशोरों के लिए नवगठित एकलव्य शाखा का मुख्य शिक्षक बन गया. हमें भगवा झंडे, उसे पकड़ने के लिए एक स्टैंड और राष्ट्रवादी गीतों की एक पुस्तिका दी गई. मेरे समुदाय के लोगों के लिए हिंदुत्व का आकर्षण नया नहीं था. इसने बड़े समुदाय के भीतर कुछ हद तक शक्ति और प्रमुखता का वादा किया. मुझे याद है कि मेरे पिता, जिनमें तपेदिक के शुरुआती लक्षण दिखाई देने लगे थे, वाजपेयी के चुनाव हारने से परेशान हो गए थे. पिता की बीमारी के चलते कमाई का बोझ मुझ पर आ गया था.
नकली-राष्ट्रवाद के साथ-साथ, आरएसएस ने मुसलमानों के प्रति गहरा अविश्वास भी पैदा किया. इन बातों के साथ बड़ा होने के बाद कि मुस्लिम आबादी अभूतपूर्व दर से बढ़ रही है, मुझे डर था कि बीजेपी के सत्ता से बाहर होने पर, हमारे पड़ोसी मुस्लिम इलाके हम पर हावी हो जाएंगे. यह अजीब था, क्योंकि हमारा आपस में बहुत नाता था. हमारा खटिक समुदाय पारंपरिक रूप से मांस काटने का काम करता है. हमारा समुदाय हमेशा मुसलमानों के साथ रहता आया था, खासकर कुरेशियों के साथ, जिनका कारोबार भी यही था.
इसके बजाय, हमें ऊंची जाति के हिंदुओं से पूरी तरह अलग कर दिया गया, जो शहर में रहते थे. यह एक अलगाव था जो आरएसएस के भीतर भी ध्यान देने योग्य था. स्थानीय आरएसएस और बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह से बनिया था, दलित समुदायों को केवल बजरंग दल, श्री राम सेना, हिंदू शक्ति दल और हिंदू क्रांति दल जैसे ज्यादा उग्रवादी संगठनों में बीच के पदों पर रखा जाता. स्थानीय आरएसएस के वरिष्ठ नेता ज्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश के निवासी थे जो मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के लिए शहर आए थे और संगठन के कार्यालय में रुके थे. उनकी जाति ने उन्हें संगठन में वरीयता दी थी.
शहर के हाशियों पर साथ रहने से दलितों और मुसलमानों के बीच मतभेद तेजी से बढ़ने लगे, जिससे हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों को बढ़ा-चढ़ाकर बोलने का मौका मिल गया. मुसलमानों का सबसे बड़ा त्योहार ईद हमारे लिए छुट्टी का दिन नहीं बल्कि हिसाब-किताब का दिन था. हम सुबह उठकर सड़क पर खड़े होकर मुख्य बाजार में स्थित ईदगाह में नमाज के लिए जा रहे मुसलमानों को देखते थे. हम उन्हें पूरी नफरत से देखने के लिए कतार में खड़े थे और उनकी आबादी के बारे में अनुमान लगाते. हमारे और उनका आमना—सामना तीखा और नफरत भरा होता था. वह नफरत वहां भी मौजूद थी जहां हम रहते थे और काम करते थे. वह चौराहा जहां शहर देहरादून जाने वाले राजमार्ग से मिलता है, गतिविधि का केंद्र था. यहां हमारे समुदाय के सदस्यों ने कई झटका मांस की दुकानें खोल दी थीं. कुरैशियों की हलाल मांस की दुकानें हमारी दुकानों से दूर, जनता के ध्यान और सामाजिक तनाव से दूर, चौराहे से दूर गलियों में धकेल दी गई थीं.
पिता की बीमारी के बाद, मुझे अखबार बांटने और सड़क किनारे ढाबे में काम करने जैसी कम वेतन वाली नौकरियां छोड़नी पड़ीं. मैंने संघ में जाना भी छोड़ दिया. यह कोई सोच-समझकर लिया फैसला नहीं था बल्कि मेरी प्राथमिकताएं बस बदल गई थीं. मैं एक रियल-एस्टेट फर्म में ऑफिस बॉय बतौर काम करने लगा. यह मेरे करियर में सबसे सम्मानजनक नौकरी थी. यह वसुंधरा रेजीडेंसी नामक एक फर्म थी, जिसे कुछ जाट युवा चला रहे थे. इन्हें अपने गांव में जमीन बेचने और शहरी रियल एस्टेट में जाने से लाभ हुआ था. मुझे बताया गया कि वे मुजफ्फरनगर विकास प्राधिकरण से कृषि भूमि को वाणिज्यिक भूमि में बदलने की अनुमति लेने में कामयाब रहे. अब वे वहां आवास बना सकते थे. वहां मेरे जाट दोस्त अपनी महंगी कारों और पसंद की नंबर प्लेटों से भरा महत्वाकाक्षां जीवन जी रहे थे. एक के पास शान से "0001" नंबर की गाड़ी थी. उन्हें चुनावी राजनीति की कोई परवाह नहीं थी लेकिन फिर भी उनमें अंदर बसी कुछ कट्टरता का खुमार उनमें था. मुझे अभी भी याद है कि, ग्राहकों को घर खरीदने के लिए मनाते हुए वे बताते थे कि उनकी फर्म की एक खूबी यह है कि वे किसी भी मुस्लिम और वाल्मिकी को प्रॉपर्टी में नहीं रखेंगे.
इलाके के बारे में अपनी समझ से मेरे दोस्तों के माता-पिता और दादा-दादी की पीढ़ी गहरी राजनीतिक थी. कइयों के पिता बीकेयू में थे और अपनी खाप और गोत्र के माध्यम से यूनियन से जुड़े थे. बीकेयू के लिए, जाट खाप के स्थानीय स्तर पर वही मायने थे जो राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी और आरएसएस के लिए हिंदुत्व के हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसी भी किसान यूनियन का मूलभूत संगठनात्मक निर्माण खंड खाप था. इसी रास्ते वे कुशलतापूर्वक संगठित हो सकते थे. यह क्षेत्र की सामंती संरचनाओं के आधार पर मुजफ्फरनगर में पहले से ही निहित जनसांख्यिकीय इंजीनियरिंग का एक स्तर था, जिसे चरण सिंह और महेंद्र टिकैत ने पहले कृषि आंदोलन के लिए लामबंद किया और बाद में संघ परिवार ने मुस्लिम विरोधी हिंसा के लिए.
मुस्लिम और हिंदू जाट जमींदारों ने हरित क्रांति का लाभ उठाया था और निर्बाध बिजली की आपूर्ति और किसानों के कर्जे माफ करने की मांग को बढ़ाने के लिए उस वित्तीय और संगठनात्मक फायदे उठाने में सक्षम थे. चरण सिंह ने, जो हापुड जिले के नूरपुर गांव के तेवतिया वंश से थे, 1960 के दशक के अंत में कांग्रेस छोड़ दी. क्षेत्र के किसानों को एकजुट करने के प्रयास में चरण सिंह ने भारतीय क्रांति दल और बाद में दलित मजदूर किसान पार्टी जैसे कई राजनीतिक दलों की स्थापना की. मुजफ्फरनगर जिले के सिसौली गांव में बीकेयू की स्थापना करने वाले महेन्द्र टिकैट प्रत्यक्ष चुनावी राजनीति के दायरे से बाहर उनके करीबी सहयोगी थे.
महेंद्र टिकैत आठ साल की उम्र में, अपने पिता की मृत्यु के, बलियान खाप के चौधरी बन गए थे. वह ग्रामीण जीवन के अनूठे अनुभव के इर्द-गिर्द लोगों को इकट्ठा करते और मुद्दा-आधारित कृषि मांगों के लिए पुलिस बैरिकेडों के खिलाफ खड़े हो जाते. 1987 में, उन्होंने बिजली की बढ़ती कीमतों के खिलाफ मुजफ्फरनगर में बड़े विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया. अगले साल उन्होंने विजय चौक से इंडिया गेट तक दिल्ली को जाम करने के लिए लगभग पांच लाख किसानों को लामबंद किया, जिससे प्रधान मंत्री राजीव गांधी को पानी की कीमतें कम करने और गन्ने की कीमतें बढ़ाने सहित 35 मांगों को मानने के लिए मजबूर होना पड़ा. 1992 में, लखनऊ में एक महीने तक चले धरने ने जनता दल सरकार को किसानों के कर्ज माफ करने और किसानों से अधिग्रहित भूमि का मुआवजा बढ़ाने के लिए मजबूर किया. विश्व व्यापार संगठन के मुक्त व्यापार समझौतों के खिलाफ उनका संघर्ष काफी मशहूर था.
हालांकि इन आंदोलनों ने दलित समुदायों की मदद करने के लिए बहुत कम काम किया. दलितों में से कई खेतिहर मजदूर थे जिनके पास कोई ज़मीन नहीं थी और वे जाटों के अधीन काम करते थे, लेकिन धार्मिक तनाव बहुत कम था. टिकैत के एक सबसे वरिष्ठ सहयोगी गुलाम मोहम्मद जौला थे, जो मुसलमानों के नेता थे. उन्होंने बीकेयू के पीछे हिंदू जाटों को भी प्रभावी ढंग से संगठित किया था. जब मैंने जौला की मृत्यु से कुछ समय पहले ट्रॉली टाइम्स के लिए उनका साक्षात्कार लिया, तो उन्होंने 1980—90 के दशक को भाईचारे के दौर के रूप में याद किया. बीकेयू की ज्यादातर रैलियों में, हम मुसलमानों को "हर हर महादेव” और हिंदुओं को “अल्लाहु अकबर” के नारे लगाते सुनते. 1980 के दशक में, बीकेयू मेरठ में सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में महत्वपूर्ण था. राज्य सरकार के खिलाफ महेंद्र टिकैत की सबसे बड़ी रैलियों में से एक युवा मुस्लिम महिला के बलात्कार और हत्या के बाद सरकार निष्क्रियता का विरोध करने के लिए आयोजित की गई थी. उसकी धार्मिक पहचान इस तथ्य के सामने गौण हो गई थी कि वह एक कृषक समुदाय से थी.
लेकिन जातीय समानता पर आधारित गठबंधनों को बनाना जितना आसान होता है, उन्हें तोड़ना भी उतना ही आसान होता है. हालांकि जाट संगठनों ने मुस्लिम जाटों यानी मुले जाटों को बदनाम नहीं किया लेकिन कुरैशियों का घोर राक्षसीकरण किया गया. उन्होंने मांस की वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपनी भागीदारी के जरिए कुछ अल्प समृद्धि हासिल की थी. कई लोग पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहरी इलाकों में रहते थे और उन पर अक्सर यौन उत्पीड़न, गुंडागर्दी और "लव जिहाद" के लिए जिम्मेदार होने का आरोप लगाया जाता था. यह सांप्रदायिकता की एक नई भाषा थी. बीकेयू के वरिष्ठ नेतृत्व के भाषणों में यह भाषा घुस गई थी.
आबादी पर बीकेयू की सामान्य पकड़ में भी भारी गिरावट आ रही थी. यूनियन ने विरोध का अपना इतिहास खो दिया और सिर्फ खाप राजनीति का विस्तार बन गया. महेंद्र टिकैट के सबसे बड़े बेटे नरेश टिकैत, बीकेयू के उपाध्यक्ष और आंदोलनकारी राजनीति के दिग्गज सुखवीर सिंह को पछाड़कर बालियान खाप के नेता बनने में सक्षम थे. टिकैत की बालियान खाप सिंह की खाप से कहीं ज्यादा संगठित थी. सिंह ने, कई अन्य लोगों की तरह, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में अलग-अलग संगठन शुरू किए. आंदोलन से ज्यादा बीचबचाव के बीकेयू के नजरिए में आए बदलाव के चलते उसका समर्थन खत्म हो गया और वह चुनावी ताकतों के करीब आ गया. दिल्ली में सरकारों को बंद करने से लेकर, बीकेयू और उसकी खापें इस बात पर लड़ने की जगह बन गईं कि अगला जिला पंचायत अध्यक्ष कौन होगा.
इस बीच गठवाला खाप के उमेश मलिक जैसे राजनीतिक हस्तक्षेपकर्ता बीकेयू के भीतर प्रमुखता से उभरे, जिन्होंने गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की अपनी प्राथमिक मांग की. इससे मुस्लिम फिर से नाराज हो गए. किसानों के एक-दूसरे के साथ होने वाले नियमित विवादों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया. मुजफ्फरनगर में हिंदू और मुस्लिम जाट पड़ोसी ज़मींदार थे, जैसे खैराना और शामली जिलों में हिंदू और मुस्लिम गुर्जर पड़ोसी थे. उनके बीच आए दिन होने वाले झगड़ों को अब सांप्रदायिक रंग दिया जाने लगा.
हिंदू जाट इस बात से और भी नाराज थे कि एक दशक से भी ज्यादा समय तक मुजफ्फरनगर लोक सभा सीट मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीती थी. 1999 में कांग्रेस के सईद-उज-जमां, 2004 में समाजवादी पार्टी के मुनव्वर हसन और 2009 में बहुजन समाज पार्टी कादिर के. राणा. इसे खापों के प्रभाव को सीमित करने के रूप में देखा गया था. इसका ज्यादा बड़ा हिस्सा चरण सिंह के बेटे अजीत के नेतृत्व वाली आरएलडी की विफलताओं का नतीजा थी.
वसुंधरा रेजीडेंसी में मेरे जाट मित्रों के भीतर रालोद से मोहभंग की भावना गहरी थी. उन्होंने महसूस किया कि पार्टी अक्सर उम्मीदवारों को निर्वाचन क्षेत्र में पैराशूट से उतारती है, जहां उनकी जाट पहचान के अलावा कोई और बात नहीं होती. ग्रामीण जाट युवाओं में असंतोष और भी बुरा था. ग्रामीण मुजफ्फरनगर के कई लोगों को स्थानीय कॉलेजों से व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रशिक्षित और शिक्षित किया गया था और उनका पेशे बतौर खेती में लौटने का कोई इरादा नहीं था. उनकी दिलचस्पी शहरी जीवन की तलाश में थी, लेकिन वहां नौकरियां ही नहीं थीं. उन्होंने अपने परिवारों को लगातार आरएलडी के लिए वोट करते देखा था, लेकिन दूर के नेताओं के कृषि संबंधी वादे उनकी मदद के लिए कुछ नहीं कर सके. संजीव बालियान ने हालांकि पूरी तरह से एक अलग छवि पेश की.
बालियान के पास डॉक्टरेट की उपाधि थी और अच्छी सरकारी नौकरी थी, फिर भी वह यहां महापंचायतों में भाग ले रहे थे. कहा जाता है कि उनका मेरठ में रियल-एस्टेट का अच्छा कारोबार था और आधुनिक विज्ञापन-आधारित अभियान के लिए जरूरी पैसा उनके पास था. यहां तक कि वसुंधरा रेजीडेंसी में उनके सहयोगियों की बड़ी हिस्सेदारी थी. चुनाव लड़ने की चाह रखने वाले इलाके के किसी जाट युवा के लिए इसका बहुत मतलब है. माना जाता है कि उमेश मलिक जैसे लोगों को बीजेपी का समर्थन प्राप्त था, लेकिन बालियान गडकरी और राजनाथ सिंह को अपने गांवों में लाने में सक्षम थे. उनका अभियान भी एक धमाकेदार अभियान था. महापंचायत के बाद, उन्होंने नियमित रूप से मुजफ्फरनगर का दौरा किया और पार्टी के भीतर कोई आधिकारिक पद नहीं होने के बावजूद जिले में बीजेपी के अधिकांश कार्यक्रमों का संचालन किया. इसके अलावा, नई बीजेपी का कोई भी आधुनिक अभियान बालियान को सत्ता के पारंपरिक केंद्रों से दूर नहीं ले जा सका. वह अभी भी बलियान खाप के वरिष्ठ सदस्य थे और टिकैत के करीबी माने जाते थे.
बालियान के भाषणों में शीर्ष पर महिलाएं थीं. पूरे क्षेत्र में प्रचार करते हुए, उन्होंने बताया कि कैसे मुसलमानों द्वारा बहुओं—बेटियों का सम्मान धूमिल किया जा रहा है. हमें जो समाचार पत्र मिलते उनमें यौन उत्पीड़न के मामले सर्वव्यापी हो गए थे. डर की पराकाष्ठा थी. मेरे इलाके में कई लोग सचमुच मानते थे कि यह मुस्लिमों द्वारा हिंदू महिलाओं से शादी करने और उनका धर्म परिवर्तन कराने की एक नापाक साजिश थी. और फिर, 27 अगस्त 2013 को, एक मुस्लिम युवक शाहनवाज की दो युवा हिंदू जाटों, सचिन मलिक और गौरव मलिक द्वारा हत्या कर दी गई. घड़ी की सुइयां उन घटनाओं की एक शृंखला के माध्यम से टिक-टिक करने लगीं, जो इस क्षेत्र में अब तक की सबसे भीषण सांप्रदायिक हिंसा का कारण बनने वाली थीं.
हिंसा की वजह क्या बनी इस बारे में कुछ भी ठोस नहीं कहा जा सकता. शाहनवाज की हत्या की प्रथम सूचना रिपोर्ट के अनुसार, मोटरसाइकिल की टक्कर को लेकर हुए झगड़े के बाद मलिक बंधुओं ने उसकी हत्या कर दी. मलिक बंधुओं की बहन के अनुसार, कॉलेज जाने वाली बस जब शाहनवाज के गांव से होकर गुजरती तो नियमित रूप से उसके साथ मौखिक रूप से दुर्व्यवहार करता था. उसने दावा किया कि 27 अगस्त को वह अपने भाइयों के साथ बस में थी जब शाहनवाज ने उसके साथ फिर से दुर्व्यवहार किया. भाइयों ने शाहनवाज का विरोध किया और उसे मार डाला.
उस दिन बाद में, मुसलमानों के एक समूह ने सचिन और गौरव मलिक की हत्या कर दी. यह खबर तेजी से पूरे जिले में फैल गई. पाकिस्तान में कुछ हिंदुओं की हत्या का एक पुराना वीडियो हिंदुत्व नेटवर्क के माध्यम से इस दावे के साथ फैलाया गया कि इसमें मलिक बंधुओं की हत्या को दिखाया गया है. ये व्हाट्सएप के व्यापक इस्तेमाल से पहले की बात है, इसलिए बीजेपी विधायक संगीत सोम ने फेसबुक पर ये वीडियो डाला. घटना के बाद आयोजित बीजेपी की बड़ी बैठकों में इसकी सीडी बनाकर भी वितरित की. (न तो सोम और न ही बालियान ने कारवां के सवालों का जवाब दिया.)
हत्याओं के अगले दिन, राज्य पुलिस ने शाहनवाज के गांव, कवाल पर छापा मारा. समाजवादी पार्टी सरकार ने जल्द ही जिला मजिस्ट्रेट सुरेंद्र सिंह और मुजफ्फरनगर के सबसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मंजिल सैनी का तबादला कर दिया. हालांकि तबादले का आधिकारिक कारण यह था कि छापे में प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया गया था, जाटों ने इसे जाट विरोधी पूर्वाग्रह के रूप में देखा, क्योंकि सुरेंद्र सिंह एक जाट थे और सैनी ने एक जाट से शादी की थी.
जब भाइयों का अंतिम संस्कार हुआ, तब तक सांप्रदायिक तनाव चरम पर था. दाह संस्कार से लौटते समय कवाल में लोगों ने आगजनी की, जिससे 27 घर क्षतिग्रस्त हो गए. अगले दिन गांव के शिव मंदिर के पास मुस्लिम और जाटों के बीच मुठभेड़ पथराव में बदल गई. 30 अगस्त को जुमे की नमाज के बाद स्थानीय सांसद कादिर राणा ने मुजफ्फरनगर के मीनाक्षी चौक पर एक जन सभा आयोजित की. सभा में सभी राजनीतिक दलों के मुस्लिम नेताओं ने घटना के बारे में बात की और कथित तौर पर भड़काऊ टिप्पणियां कीं.
मीनाक्षी चौक, वसुन्धरा रेजीडेंसी से घर जाने के लिए मेरे साइकिल मार्ग पर था. जब मैंने बैठक के बारे में सुना तो मैं चिंतित हो गया. पिछले कुछ हफ्तों से हमारे स्थानीय संघ परिवार के नेता हमें बता रहे थे कि मुसलमान हम पर हमला करने के लिए तैयार थे और राज्य सरकार उनके साथ मिली हुई थी. जब मैं घर आया, तो मैं अपनी मां से कहता रहा कि वह खेतों में दिहाड़ी के काम के लिए न जाए, क्योंकि वह अंधेरे में जाती थी और उसका रास्ता मुस्लिम इलाकों से होकर गुजरता था. “शिवम, मैं दस साल से इस रास्ते से जा रही हूं, हर कोई मुझे जानता है और वे कभी किसी औरत को चोट नहीं पहुंचाएंगे,'' मुझे याद है उसने मुझसे कहा था. क्षेत्र के बारे में उसकी समझ अगले दिनों में बदलने वाली थी, जब पूरे जिले में मुस्लिम औरतों को निशाना बनाने के लिए यौन हिंसा के व्यापक इस्तेमाल की खबरें मिलने लगीं.
31 अगस्त को बीजेपी ने मलिक बंधुओं के लिए नंगला मन्दौर में इससे भी बड़ी सभा की, जिसे वह शोक कहते थे. शुरुआत में बैठक बीकेयू द्वारा बुलाई गई थी, लेकिन अंतिम समय में उसने बैठक वापस ले ली, जिससे बीजेपी को कार्यवाही का नेतृत्व करने की अनुमति मिल गई. बैठक में, बीजेपी नेताओं ने मांग की कि सरकार उन जिला अधिकारियों को बहाल करे जिनका तबादला कर दिया गया है, उन्होंने दावा किया कि एसपी "मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति खेल रहे हैं." जैसे ही हिंदू भीड़ महापंचायत से लौटी, उन्होंने पड़ोस के अमरोहा के कुछ मुसलमानों की एक कार को रोका और उन्हें पीटा. मीनाक्षी चौक पर पुलिस ने एक मुस्लिम युवक के साथ मारपीट की. मैं शोक सभा में शामिल नहीं हो सका, लेकिन दफ्तर के ज्यादातर लोग जा चुके थे. चूंकि मेरा दिन खाली था, मैं शहर में घूमता रहा. वो खाली था. हिंसा के डर से लगभग हर कोई घर में दुबक गया था.
उस हफ्ते हर रात, हम चिंता और उम्मीद के साथ इंतजार करते थे क्योंकि जिले के विभिन्न हिस्सों से हिंसा की अफवाहें उड़ने लगीं थीं. मेरे इलाके के लोग किसी भी अनहोनी की तैयारी में पूरी रात जागते रहे. हर जगह फर्जी वीडियो थे और अफवाहें बहुत थीं. हमने कई प्रसिद्ध स्थानीय लोगों के मारे जाने की अफवाहें सुनीं कि हमारे इलाके के बगल में रहने वाले डॉक्टर को मुसलमानों ने जिंदा जला दिया. हिंसा के बाद जब मैंने इन दावों पर गौर किया तो एक भी दावा सच नहीं निकला. हालांकि, इस गलत सूचना का अधिकांश हिस्सा स्थानीय समाचार पत्रों में भी आ गया था. इन घटनाओं के आसपास की रिपोर्टिंग की प्रकृति को लेकर शहर के पत्रकारों के भीतर दरार थी. उनकी पहचान और सामाजिक स्थिति उस खबर में शामिल थी जो वे रिपोर्ट कर रहे थे. हमारे पड़ोसियों द्वारा हमें दिए गए अन्य वीडियो में बताया गया कि हमें अपनी सुरक्षा के लिए पेट्रोल बम कैसे बनाना चाहिए. संघ परिवार से जुड़े स्थानीय लोगों ने हमसे कहा कि हमें सशस्त्र दिखना चाहिए, इसलिए कैसेट लाए गए जिनसे लगातार गोलियों की आवाज आती थी, ताकि आस-पास के मुसलमानों को लगे कि हमारे पास भी हथियार हैं और वह हमला न करें.
बीजेपी ने 5 सितंबर को जिले भर में बंद का आह्वान किया था. इसे रोकने के लिए पुलिस ने बालियान समेत पार्टी के हर स्थानीय नेता को कुछ देर के लिए हिरासत में ले लिया. हालांकि, पूरा शहर उजाड़ था, और हिंदू नेता लगातार कहते रहे कि गिरफ़्तारियां धर्म पर हमला थीं. हमारे इलाके में सभी शटर गिरे हुए थे, जहां पिछले किसी बंद के कारण कोई भी दुकान बंद नहीं हुई थी. 7 सितंबर को, बीकेयू ने मंदौर के जनता इंटर कॉलेज मैदान में बेटी—बहू बचाओ महापंचायत शीर्षक से एक बड़ी सभा का आह्वान किया. तीस किलोमीटर दूर होने के बावजूद, मेरे आस-पास के सभी लोगों, मेरे दोस्तों और जाट साथियों ने इसमें भाग लेने का फैसला किया. मुझे उनके साथ एक कार में बिठाया गया. उन्होंने कहा कि फर्म द्वारा सभी व्यवस्थाएं कर ली गई हैं.
हम बैठक में देर से पहुंचे. गांव की सड़क कई किलोमीटर तक खचाखच भरी थी. फंसी हुई कारों और ट्रैक्टरों के बीच भीड़ सड़क पर चल रही थी. जब हम पहुंचे तो हमने देखा कि बीकेयू के बैनर तले हजारों लोग आए थे. इतनी बड़ी संख्या अकेले बीजेपी के बैनर तले नहीं पहुंची होगी. बीकेयू अपने साथ खापों का जखीरा लेकर आया था, जिसमें उमेश मलिक की गठवाला खाप का क्षेत्र के 64 गांवों पर प्रभाव था और टिकैत की बालियान खाप का 84 गांवों पर नियंत्रण था. बीकेयू ने उन्हें भेजे गए सवालों का जवाब नहीं दिया.
कई पत्रकारों और प्रोफेसरों की "सांप्रदायिकता और राज्य की भूमिका" शीर्षक वाली एक तथ्य-खोज रिपोर्ट में पाया गया कि कई लोग अपने साथ हिंसा भी लेकर आए थे. मंदौर जाते समय, हरियाणा के कई जाट लिसाढ़ गांव में मदरसे के पास रुके थे, जहां उन्होंने " नरेंद्र मोदी जिंदाबाद” और “मुसलमानों के दो स्थान, क़ब्रिस्तान या पाकिस्तान” जैसे नारे लगाए. उन्होंने हमें बताया कि उसी गांव में उन्होंने एक कुत्ते को बुर्का पहनाया और उसे जूतों से पीटना शुरू कर दिया. पास के एक गांव शाहपुर में जब कुछ मुसलमानों ने विरोध किया तो एक मुस्लिम युवक पर तलवार से हमला कर दिया गया और एक गर्भवती मुस्लिम महिला की भाले से वार कर हत्या कर दी गई. पुलिस घटनास्थल पर पहुंची लेकिन स्थिति को रोकने के लिए कुछ नहीं किया.
हालांकि यह आधिकारिक तौर पर बीकेयू की महापंचायत थी, लेकिन मंच संगीत सोम और सुरेश राणा सहित बड़े पैमाने पर बीजेपी नेताओं का था. उन्होंने बैठक में आने वाले लोगों की कहानियां पेश कीं, जो दावा कर रहे थे कि उन पर मुसलमानों द्वारा हमला किया गया था. वे प्रतिशोधात्मक हिंसा की मांग कर रहे थे. कॉल का जल्द ही उत्तर दिया गया. हिंसा आसपास के सभी गांवों में फैल गई. कुटबा, कुटबी, लंख, लिसाढ़, बहावड़ी, फुगाना, मोहम्मदपुर, रायसिंह, काकड़ा, खराद, मोहम्मदपुर मॉडर्न और अटाली गांवों में हिंदू भीड़ ने 7 सितंबर को मुसलमानों पर हमला किया. कुटबा में मुसलमानों ने पंचायत अध्यक्ष और उनके पति देवेंदर से बार-बार मदद मांगी, लेकिन कोई मदद नहीं मिली. 8 सितंबर को, देवेंदर और उसके चचेरे भाई उपेंदर के नेतृत्व में सैकड़ों सशस्त्र जाट ग्रामीणों ने भाले और तलवारों से मुस्लिम घरों पर हमला किया. हिंसा में सात पुरुष मारे गए और एक महिला की गोली मारकर हत्या कर दी गई.
कई मुसलमान पास के गन्ने के खेतों में भाग गए थे. मुट्ठी भर पुलिसकर्मी पंचायत अध्यक्ष के घर पर चाय पी रहे थे. जब कुछ मुसलमानों ने उन्हें हमले की सूचना दी, तो उन्होंने जवाब दिया कि वे अपनी चाय खत्म करने के बाद कार्रवाई करेंगे. फिर उन्होंने शिकायत करने वाले मुसलमानों को पंचायत अध्यक्ष के ही घर में बंद कर दिया. पूरी हिंसा के दौरान पुलिस के व्यवहार की यही विशेषता थी. सत्ताधारी समाजवादी पार्टी द्वारा मुसलमानों का पक्ष लेने का दावा करने वाली कई रिपोर्टों के बावजूद, मेरे अपने अनुभव और तथ्य-खोज रिपोर्ट कुछ और ही सुझाव देती है. रिपोर्ट में कहा गया है, "जब से कुटबा में हिंसा भड़की, पुलिस ने वहां पैदा हुई हिंसक स्थिति के जवाब में तमाशबीन बनकर काम किया. पुलिस ने हिंसा के पीड़ितों की मदद करने से भी इनकार कर दिया जब वे अपनी जान बचाने की कोशिश कर रहे थे और खुद को सबसे असुरक्षित महसूस कर रहे थे."
मोहम्मदपुर रायसिंह जैसे गांवों में पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की. पूरे मुस्लिम इलाके को जला दिया गया था और हिंदू भीड़ ने कुछ ही घंटों में कई लोगों की हत्या कर दी थी. पुलिस ने दावा करते हुए कि जब यह हुआ था तब वे गांव के दूसरी तरफ थे. रिपोर्ट में कहा गया है कि, कुछ मामलों में, "हिंसा वास्तव में कुछ पुलिस अधिकारियों के लिए एक लाभकारी घटना बन गई, जिन्होंने कई लोगों के खिलाफ एफआईआर वापस लेने के लिए रिश्वत ली." इसमें कहा गया है कि "पुलिस ने हिंसा के पीड़ितों के साथ जबरदस्ती की और दंगों में शामिल लोगों का बड़े पैमाने पर बरी होना इस पूरी प्रक्रिया का एक स्पष्ट प्रमाण है." रिपोर्ट में पुलिस अधिकारियों द्वारा मुसलमानों की हत्या के कम से कम दो स्पष्ट उदाहरणों का उल्लेख किया गया है. मुज़फ़्फ़रनगर पुलिस ने विस्तृत प्रश्नावली का उत्तर नहीं दिया.
यौन हिंसा भी नियमित थी. अकेले लिसाड़ में दो दर्जन से ज्यादा बलात्कार पीड़ितों ने तथ्य-खोज टीमों से बात की, लेकिन पुलिस को केवल छह मामले ही रिपोर्ट किए गए. जबकि मुजफ्फरनगर शहर में, हिंसा के पहले हफ्ते के दिनों के बाद कर्फ्यू हटा दिया गया था, उसके बाद हफ्तों तक आसपास के गांवों में छिटपुट हमलों की सूचना मिली थी. मुस्लिम घरों और मस्जिदों को निशाना बनाकर जलाना आम बात थी. अगले दिनों में, तथ्य-खोज रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग एक लाख मुसलमान बेघर हो गए थे, हालांकि सरकार ने केवल 50,955 शरणार्थियों को स्वीकार किया.
दूसरे सप्ताह में, पहले जिज्ञासा से और फिर चिंता से, मैंने शरणार्थी शिविरों का दौरा करने का फैसला किया, जो शहर के भीड़भाड़ भरे मुस्लिम इलाकों में थे, जहां मुस्लिम गांव एक साथ जमा हुए थे. वसुंधरा रेजीडेंसी के मेरे दोस्तों ने मेरे शिविरों में जाने पर आपत्ति जताई. मेरी मां ऐसी किसी भी चीज का विरोध करती थी जिससे मेरी आय कम हो जाए, लेकिन मैंने शिविरों में जो देखा वह स्थितियां इतनी भयावह थीं कि कुछ भी करना असंभव नहीं लगता था. सर्दियां आने के साथ खाने—पीने, कपड़े और आश्रय की कमी होने लगी. स्थानीय गैर सरकारी संगठन बड़े पैमाने पर नदारद थे. नागरिक समाज सांप्रदायिक आधार पर विभाजित हो गया था.
इस बीच, नए साल का जश्न मनाने के लिए राज्य सरकार मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पैतृक गांव सैफई में महोत्सव के आयोजन में व्यस्त थी. अकेले पटाखों पर अनुमानित 1 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे और कई बॉलीवुड सितारों और नर्तकियों को प्रदर्शन के लिए काम पर रखा गया था. सौ किलोमीटर से भी कम दूरी पर, मुज़फ़्फ़रनगर और शामली जिलों में, 17 शिविरों में नौ हजार से ज्यादा मुस्लिम शरणार्थी संघर्ष कर रहे थे, जबकि तापमान 0.3 और 2.2 डिग्री सेल्सियस के बीच मंडरा रहा था. जश्न की नीरसता के बारे में पूछे जाने पर, अखिलेश ने कहा कि उन्हें "दंगा पीड़ितों के लिए राज्य सरकार ने जो किया उस पर गर्व है" और "मुजफ्फरनगर में पूर्ण सांप्रदायिक सद्भाव कायम है." अपनी बात को साबित करने के प्रयास में, सरकार शरणार्थियों से अपने गांवों में लौटने का आग्रह कर रही थी, जहां वे अब सुरक्षित महसूस नहीं करते थे. उसी सप्ताह एक हजार से अधिक शरणार्थियों को अस्थायी शिविरों से बलपूर्वक बाहर निकाल दिया गया था.
शिविरों की दयनीय हालत और यहां तक कि पीड़ितों के साथ किए गए शत्रुतापूर्ण व्यवहार के बावजूद, जाट संगठन और बीजेपी यह प्रचार कर रहे थे कि सपा सरकार ने मुसलमानों की भरपूर देखभाल की है. नफरत भड़काने के लिए यह आसान काम था, क्योंकि स्थानीय पत्रकार बुरी तरह सांप्रदायिक हो गए थे. शिविरों की स्थितियों के बारे में रिपोर्टिंग को भी हिंदू धर्म को विफल करने के रूप में देखा जाने लगा था. मैं दिल्ली से आने वाले मुट्ठी भर पत्रकारों को पुनर्वास शिविरों में ले गया. मैंने भी पहली बार जनसत्ता में शिविर की स्थितियों पर दो छोटे लेख लिखने शुरू किए.
मुसलमानों के लिए हताहतों की संख्या अकल्पनीय रूप से बड़ी थी और इस तरह, पुनर्वास निधि का अधिकांश हिस्सा उनके पास गया. इससे विश्व हिंदू परिषद और अन्य स्थानीय हिंदू संगठनों को मुजफ्फरनगर में मुट्ठी भर दलित शिविरों के लिए राहत कार्यक्रमों के प्रबंधन में मदद मिली. बीजेपी नेतृत्व की पहुंच मुख्यतः जाट आबादी तक थी. हिंसा थमने के तुरंत बाद राजनाथ सिंह ने प्रभावित गांवों का दौरा करने का प्रयास किया और कहा कि वह "केवल घावों पर मरहम लगाने जा रहे हैं, और तनाव पैदा नहीं करने जा रहे हैं." हालांकि, सपा सरकार ने उन्हें जाने से रोक दिया.
इसके बाद, राजनाथ ने लोगों पर हिंसा के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए एक समिति का गठन किया. इसका नेतृत्व हुकुम सिंह को करना था, जो खुद एक बीजेपी नेता हैं जिन पर 7 सितंबर की महापंचायत में भड़काऊ भाषण देकर हिंसा भड़काने का आरोप है. हुकुम और उनके द्वारा लिखी गई रिपोर्ट उन दावों के इर्द-गिर्द समर्थन जुटाने में सक्षम थी कि हिंसा के शिकार हिंदू जाट पीड़ितों को न्याय नहीं दिया गया और उन्हें सरकार द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है. जब राजनाथ को आखिरकार जिले का दौरा करने की अनुमति मिल गई, तो वह आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के शिविरों में नहीं बल्कि सचिन और गौरव मलिक के घर गए.
इस आलेख की रिपोर्टिंग के दौरान हमने वकील और कार्यकर्ता अकरम अख्तर चौधरी से बात की. वह शामली स्थित गैर-लाभकारी संस्था अफकार इंडिया फाउंडेशन से जुड़े हैं. यह आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए काम करता है. फाउंडेशन ने नवंबर और दिसंबर 2013 में कई शिविर स्थापित किए थे, क्योंकि हिंसा के बाद भागने और मुजफ्फरनगर और अन्य शहरों में घर तलाशने में ही लोगों की जो थोड़ी—बहुत बचत थी, वह खत्म हो गई. शरणार्थियों और अफकार के लिए समर्थन अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों से आया था, हालांकि अधिकांश मुस्लिम संगठन सीधे राहत कार्यों में शामिल होने से दूर रहे.
अस्थायी शिविरों में रहने के बाद, पीड़ित कांधला, कैराना और बुढ़ाना जैसे छोटे शहरों के बाहरी इलाके में बस गए थे. इन रिहाइशों में पानी और चलने योग्य सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नदारद थीं. बिजली की आपूर्ति असंगत थी, क्योंकि उन्हें कृषि कार्य के लिए प्रदान की जाने वाली खराब बिजली आपूर्ति पर निर्भर रहना पड़ता था. उन्हें नगरवासियों की शत्रुता का भी सामना करना पड़ा.
कई पीड़ितों के कैराना भाग जाने के तुरंत बाद, हुकुम सिंह जैसे बीजेपी नेताओं ने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि बढ़ती मुस्लिम आबादी शहर से "हिंदुओं के पलायन" का कारण बन रही है. 2016 में, जब मोदी सुरक्षित रूप से प्रधान मंत्री कार्यालय में थे, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने "हिंदू पलायन" की भी जांच की और एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें वही दावे दोहराए गए जिनसे सबसे पहले मुजफ्फरनगर हिंसा शुरू हुई थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि “कैराना शहर में विशिष्ट बहुसंख्यक समुदाय (इस मामले में मुस्लिम) के युवा शहर में विशिष्ट अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के खिलाफ भद्दी टिप्पणियां करते हैं. इसके कारण, कैराना शहर में विशिष्ट अल्पसंख्यक समुदाय (हिंदू) की महिलाएं अक्सर बाहर जाने से बचती हैं.''
मुसलमानों पर विस्थापन का दीर्घकालिक प्रभाव असाध्य था, जो उनके कानूनी वजूद को खत्म कर देता था. चौधरी ने हमें बताया, "अधिकांश दंगा पीड़ित आधार कार्ड के माध्यम से अपने परिवार या व्यक्तिगत पहचान को पंजीकृत करने में असमर्थ हैं." "निवास प्रमाण के लिए सरकार गांवों के पुराने सर्वेक्षणों पर निर्भर है." कुछ ही लोगों को राशन कार्ड मिल सका है. घरों का निर्माण पूरी तरह से अपने खर्चे पर हुआ है, अधिकांश पीड़ित अभी भी झोंपड़ियों के नीचे रह रहे हैं. उन्होंने कहा, "यह मुख्य रूप से इसलिए है क्योंकि सरकारी अधिकारियों ने इसे नगर पालिका और पंचायत के बीच उलझाया हुआ है. संक्षेप में, राहत के नाम पर, हमें प्रशासन से जो मिलता है वह बहाने हैं. पंचायत ने उन जमीनों को निजी जमीन माना है जहां ये कॉलोनियां बसी हैं और गांव की सभी बस्तियों की तरह इन्हें भी कोई सुविधाएं नहीं देतीं. नगर पालिका नई बस्तियों को मान्यता देने से भी इनकार करती है.”
सरकार की मुआवजे की प्रक्रियाएं उस स्थिति के प्रति पूरी तरह से उदासीन हैं, जिसमें पीड़ित खुद को पाते हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि यह लगभग जानबूझकर किया गया है. राज्य सरकार के पास भुगतान की एक श्रेणीबद्ध प्रणाली है, जिसमें प्रत्येक पीड़ित को उनकी खोई हुई जमीन के मूल्य के अनुसार नकद राशि दी जाती है, लेकिन इस शर्त के तहत कि वे पंचायत भूमि पर दावा नहीं कर सकते. यह प्रक्रिया एक आधिकारिक हलफनामे के साथ शुरू हुई जिसे मुआवजा चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को भरना था. हलफनामे में राहत राशि वितरित करते समय मुस्लिम बस्तियों के विभाजित परिवारों को मान्यता नहीं दी गई. सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने में वर्षों लग गई कानूनी कार्यवाही के बाद ही सरकार ने हलफनामे की जरूरत बंद कर दी. पुलिस प्रक्रियाएं भी उतनी ही कठिन थीं, क्योंकि राहत का दावा करने के लिए प्रत्येक शिकायतकर्ता को एक एफआईआर दर्ज करानी थी. पुलिस में अधिकतर एफआईआर एक भी शिकायतकर्ता के बिना, सामूहिक रूप से दर्ज की गईं, क्योंकि पुलिस खुद दंगों के दौरान और बाद में कार्रवाई करने से झिझक रही थी. इसका मतलब यह हुआ कि बचे हुए लोगों का एक बड़ा हिस्सा कभी भी एफआईआर दर्ज करने और मुआवजा पाने के काबिल नहीं था.
इसके उलट, कई हिंदू जाट एफआईआर और निवास प्रमाण प्रस्तुत करने में सक्षम थे और इस तरह अपने खेतों से फसलों की चोरी या तबाही के लिए मुआवजा पाते थे. कुछ कथित मामलों में, उन्होंने हिंसा के दौरान अपने खेतों के कुप्रबंधन के लिए मुआवजे का भी दावा किया. मुजफ्फरनगर से अधिकांश ग्राउंड रिपोर्टिंग से पता चलता है कि मुआवज़ा हिंसा का सामना करने के अनुरूप नहीं बल्कि गांव स्तर के नेताओं और प्रशासन के बीच बनाए गए पहुंच के नेटवर्क के माध्यम से वितरित किया गया था. अंततः, जैसे खापों ने हिंसा की शुरुआत निर्धारित की, उन्होंने यह भी निर्धारित किया कि इसके लिए मुआवजा किसे मिलेगा.
मैं एक बार दलित कार्यकर्ताओं और लेखकों की एक टीम के साथ दलित शिविरों में गया था. दलित समुदाय में दंगे से सबसे अधिक प्रभावित वाल्मिकी और चमार जाति के दिहाड़ी मजदूर थे. मुस्लिम शरणार्थियों में से अधिकांश एक ही जाति, पसमांदा मुसलमानों से थे, जो मुस्लिम और हिंदू जाटों के बीच संघर्ष में फंस गए थे. भूमिधारक समुदायों के विपरीत, जो भूमि क्षतिपूर्ति के लिए दबाव डाल सकते थे, ये वे मजदूर थे जिनके पास ऐसी कोई सम्पत्ति ही नहीं थी जिसे दिखाकर मुआवजे की उम्मीद कर सकते. उनके लिए एकमात्र रास्ता कृषि कार्य के लिए अपने पुराने गांवों में लौटना था, बिना किसी आश्वासन के कि उनके पुराने पड़ोसी शांतिपूर्ण रहेंगे भी या नहीं. चूंकि मेल-मिलाप के प्रयास अधिकांशतः असफल रहे हैं, वे जड़हीन बने हुए हैं, शिविरों और शहरी बस्तियों के बीच तैर रहे हैं, उन घरों और पड़ोसियों के पास लौटने में असमर्थ हैं जिनके साथ उन्होंने कभी समय बिताया था. एक ही जाति, एक ही परिवार, एक ही परंपरा और संस्कृति के लोग, सिर्फ धर्म अलग.
अयोध्या में सालाना एक मेला लगता है, जिसे सावन मेला कहा जाता है. इसमें आमतौर पर हजारों लोग इकट्ठा होते हैं. 21 अगस्त 2013 को यह वीरान नजर आया. डर हवा में था. अयोध्या, जहां विहिप ने 1992 में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था, फिर से उत्तर प्रदेश के राजनीतिक क्षेत्र का केंद्र बन गया. अगस्त की शुरुआत में, जैसे ही मुजफ्फरनगर में हिंसा शुरू हुई, वीएचपी ने घोषणा की कि वह राम मंदिर निर्माण के समर्थन में चौरासी कोस यात्रा आयोजित करेगी, जो अयोध्या से बस्ती जिले के मखौरा शहर तक 20 दिन की यात्रा होगी. यह 25 अगस्त को शुरू होने वाली थी और विहिप पहले से ही जुलूस को आगे बढ़ने देने के बारे में राज्य सरकार के साथ बातचीत कर रही थी. हालांकि, विहिप के प्रमुख अशोक सिंघल और मुलायम सिंह यादव के बीच बातचीत विफल होने के बाद, सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा की उच्च संभावना का हवाला देते हुए यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया. विहिप ने प्रतिबंध का उल्लंघन करने का प्रयास किया, लेकिन पहले ही दिन, इसके कुछ सबसे वरिष्ठ नेताओं सहित 2,096 विहिप सदस्यों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत गिरफ्तार कर लिया गया और यात्रा विफल हो गई. राम मंदिर के इर्द-गिर्द लामबंदी करना, जिसे बीजेपी ने 1990 के दशक की शुरुआत से अधिकांश राष्ट्रीय चुनावों में सफलतापूर्वक किया था, अब कोई विकल्प नहीं रह गया था.
2 फरवरी 2014 को लोकसभा चुनाव से महज दो महीने पहले मोदी ने मुजफ्फरनगर के पड़ोसी और संजीव बालियान के रियल-एस्टेट साम्राज्य के केंद्र मेरठ में एक विशाल रैली की. रैली शुरू होने से पहले ही बीजेपी के एक प्रवक्ता ने मीडिया को बताया कि रैली जाटों के लिए है और "मुजफ्फरनगर से बड़ी संख्या में लोगों के शामिल होने की उम्मीद है.'' मंच पर मोदी की भाषा, जिसे उन्होंने बालियान और मुजफ्फरनगर हिंसा को अंजाम देने के आरोपी संगीत सोम और सुरेश राणा जैसे अन्य बीजेपी नेताओं के साथ साझा किया, इस अवसर पर फिट बैठती है. "क्या आपकी बेटियां, बहनें उत्तर प्रदेश में सुरक्षित हैं?" उन्होंने भीड़ से पूछा. गन्ना किसानों के संघर्ष के बारे में बात करते हुए, जैसा कि बालियान ने एक साल पहले किया था, उन्होंने कहा, "किसानों की खराब स्थिति हमें चौधरी चरण सिंह, महेंद्र टिकैत जैसे नेताओं के बारे में सोचने के लिए मजबूर करती है." बीकेयू और रालोद के पीछे की खापों का मंच, सभी उद्देश्यों के लिए, पूरी तरह से बीजेपी द्वारा हथिया लिया गया था.
खून-खराबे के बाद यह साफ हो गया कि बालियान मुजफ्फरनगर लोकसभा क्षेत्र के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार थे. उन्होंने शानदार संख्या, चार लाख वोटों के अंतर, से जीत हासिल की जो दूसरे स्थान पर रहे उम्मीदवार के वोटों से लगभग तीन गुना अधिक था. उनके प्रदर्शन के पुरस्कार के रूप में एक सांसद के रूप में उनके पहले कार्यकाल में उन्हें कृषि और खाद्य-प्रसंस्करण राज्य मंत्री बनाया गया और बाद में जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री बनाया गया. कथित तौर पर मोदी की पसंदीदा नमामि गंगे परियोजना पर ठोस प्रगति करने में विफलता के कारण 2017 में उन्होंने दूसरा पोर्टफोलियो खो दिया. लेकिन 2019 में वह आरएलडी सुप्रीमो अजीत सिंह को हरा कर मुजफ्फरनगर में फिर से चुने गए और अमेठी में भारी प्रचार किया, जिससे कांग्रेस के मुखिया राहुल गांधी की हार हुई.
बालियान ने मुजफ्फरनगर के ग्रामीण ढांचे में बीजेपी की पैठ को भी सुनिश्चित किया है. उन्होंने जिला पंचायत चुनावों में महत्वपूर्ण चुनावी जीत हासिल की, जो इस बात का सबूत है कि खाप अनिवार्य रूप से बीजेपी की जेब में चली गई थी. 2021 में किसान आंदोलन के दौरान बालियान ने खाप नेताओं को विरोध प्रदर्शन में शामिल होने से रोकने के लिए सीधे उनसे मिलने का प्रयास किया. बीकेयू के आंदोलन में पहुंचने का मतलब था हजारों जाट किसानों का गाजीपुर सीमा पर शामिल होना- जिसमें गुलाम मोहम्मद जौला भी शामिल थे, जिन्होंने 7 सितंबर 2013 की महापंचायत के दिन निराश होकर बीकेयू छोड़ दिया था. यह स्पष्ट नहीं है कि किसान आंदोलन से उपजा भाईचारा मुजफ्फरनगर में कितनी गहराई तक टिकेगा. समुदाय अभी भी गहराई से बंटा हुआ हैं, अधिकांश जाट और पसमांदा मुसलमान अपने पैतृक गांवों में लौटने में असमर्थ हैं.
इसके अलावा मुजफ्फरनगर में रोजमर्रा की नफरत अभी भी सर्वव्यापी है. इसी साल 24 अगस्त को शहर के एक हिस्से में नेहा पब्लिक स्कूल की शिक्षिका तृप्ति त्यागी ने कई हिंदू छात्रों से एक मुस्लिम छात्र को थप्पड़ मारने के लिए कहा. उसे घटना का वीडियो शूट करने वाले व्यक्ति से यह कहते हुए सुना गया, जो जल्द ही वायरल हो गया, "मैंने यह घोषणा की है, हर मुसलमान बच्चे के लिए." दूसरी कक्षा में पढ़ने वाला मुस्लिम छात्र और उसके बाकी सहपाठी सात साल के हैं. बालियान जल्द ही त्यागी से मिलने गए और उन्हें अपने समर्थन का आश्वासन दिया. 2013 की हिंसा से पैदा हुई नफरत हड्डियों तक जा पहुंची है और उन लोगों के जीवन में खून बहा रही है जो इसके बाद पैदा हुए थे.
मुजफ्फरनगर हिंसा की कानूनी जांच, जिसमें विष्णु सहाय जांच आयोग भी शामिल है, इसके पीछे के राजनीतिक नेताओं को दोषी ठहराने या यहां तक कि हिंसा के पीछे की राजनीतिक प्रेरणाओं को फटकार लगाने में विफल रही. उन्होंने सीधे तौर पर जिला अधिकारियों पर दोष मढ़ दिया. सोम, बालियान और अन्य बीजेपी नेताओं के खिलाफ कई एफआईआर के बावजूद 2017 में राज्य में बीजेपी सरकार आने के बाद से कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है. इसका एकमात्र अपवाद खतौली से बीजेपी विधायक विक्रम सिंह सैनी हैं, जो हिंसा में अपनी भूमिका के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद अपनी सीट हार गए. दिसंबर 2022 में परिणामी उपचुनाव में उनकी पत्नी राजकुमारी सैनी बीजेपी के टिकट पर खड़ी हुए रालोद से हार गईं. जहां तक मेरे जाट दोस्तों की बात है, वे अभी भी वसुंधरा रेजीडेंसी में काम करते हैं जिसका आंशिक स्वामित्व बालियान के सहयोगियों के पास है और जो अब शहर की सबसे अमीर रियल-एस्टेट एजेंसी है.