फरवरी 2021 में म्यांमार में सैन्य तख्तापलट होने के बाद भारत आने वाले शरणार्थियों में से एक 57 वर्षीय न्गुंचन ने मुझे बताया कि “गांव में गोलीबारी चल रही थी और गोलियां खिड़की से होकर गुजर रही थीं. हम सोफे के नीचे छिप गए. जब थोड़ी शांति हुई तो हम भूखे पेट जंगल की ओर भागे. हम बहुत डरे हुए थे. मेरे पति नहीं रहे. मैं और मेरी बेटी इस बात से डरे हुए थे कि सेना के लोग पता नहीं हमारे साथ क्या करेंगे. हम अपने साथ कुछ भी नहीं ले सके. हम बस भाग निकले.”
भारत और म्यांमार की सीमा पर छह सौ की आबादी बाले मिजोरम के आखिरी गांव थेकटे में मेरी मुलाकात न्गुंचन से हुई थी. कार से मिजोरम की राजधानी आइजोल से थेकटे तक पहुंचने में लगभग दस घंटे लगते हैं. पड़ोस में कुछ शहरों के होने के कारण यह म्यांमार से भागकर आने वालों के लिए एक सुरक्षित ठिकाना बन गया है. समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार तख्तापलट का विरोध कर रहे देशवासियों की आवाज को दबाने के लिए म्यांमार की सेना ने कम से कम एक हजार लोगों को मार डाला और हजारों को गिरफ्तार किया है. मई में संयुक्त राष्ट्र के एक प्रवक्ता ने बताया था कि तख्तापलट के बाद लगभग चार से छह हजार शरणार्थी म्यांमार से भारत भाग आए हैं. दिसंबर में मिजोरम सरकार ने अनुमान लगाया कि लगभग 14000 म्यांमार नागरिक राज्य के विभिन्न हिस्सों में रहने की जगह ढूंढ रहे हैं. वर्तमान में शरणार्थी अपनी दैनिक जरूरतों के लिए स्थानीय लोगों, गिरजाघरों और मानवाधिकार संगठनों के दान पर निर्भर हैं. मिजोरम में एक प्रमुख गैर-लाभकारी संस्था सेंट्रल यंग मिजो एसोसिएशन (वाईएमए) के स्वयंसेवक शरणार्थियों के लिए अस्थायी आश्रय बनाने और दान के जरिए भोजन और कपड़ों जैसी दैनिक आवश्यक चीजें उपलब्ध करा रहे हैं. थेकटे में दूसरे दिन एक गैर-लाभकारी संस्था के नेता ने मुझे गांव में कई शरणार्थियों से मिलाने में मदद की. जब मैं उनसे मिली तब वे एक स्थानीय घर में फर्श और लकड़ी की बेंचों पर बैठे हुए थे.
म्यांमार के लुंगडिंग के एक शरणार्थी थंगछिना ने सबसे पहले अपना अनुभव साझा करते हुए बताया कि 25 मार्च की सुबह कुछ लोगों ने घोषणा की कि उनके गांव में सेना आ गई है. उन्होंने बताया, "जैसे ही मेरी पत्नी को पता चला कि हमारे गांव में सेना है उसका दिल तेजी से धड़कने लग और उसे घबराहट होने लगी. उसे फेफड़े की बीमारी है. मैं बहुत चिंता में था. भले ही वे हम पर हमला न करें लेकिन इस हालत में वह बहुत जल्द मर जाएगी. इसलिए जैसे ही मेरी पत्नी की हालत ठीक हुई हमने जल्दी से खाना खाया और घर से निकल गए.” थांगछिना ने आगे बताया कि "हमारे पास कोई वाहन नहीं है इसलिए हमने अपने सात और बारह साल के दो बच्चों के साथ जंगल से होकर तियाउ नदी पहुंचकर पैदल ही सीमा पार की. हम पूरे दिन चलते रहे. हम म्यांमार के समयानुसार सुबह 9 बजे घर से चले थे और भारतीय समयानुसार रात 9.30 बजे इस गांव में पहुंचे. सेना से बचने के लिए हमें लंबा रास्ता तय करना पड़ा. बीच-बीच में मुझे अपने बच्चों को अपनी पीठ पर बिठाना पड़ता था क्योंकि वे बहुत थक गए थे. जैसे ही हम थेकटे पहुंचे हमने पहला घर देखते ही खाना मांगा क्योंकि मेरे बच्चे बहुत भूखे थे.”
थांगछिना ने आगे अपने भविष्य को लेकर बात की और बताया कि "हम फिलहाल के लिए सिर्फ विदेश में शरण लेना चाहते हैं." उन्होंने जब यह शब्द कहे तो कमरे में हंसने की आवाज गूंज उठी. विदेश में शरण लेने का विचार उनके आस-पास बैठे लोगों की कल्पना से इतना दूर था कि उन्हें यह एक हल्का मजाक लग रहा था. उन्होंने कहा कि उनके सुनने में आया कि शरणार्थियों को दूसरे देशों में भेजा जा सकता है. "अगर ऐसा है तो मैं ऑस्ट्रेलिया या अमेरिका जाना चाहूंगा, कृपया हमें भी भेज दें. अगर हम नहीं गए, तो यहां के लोगों को हर समय हमारी देखभाल करनी होगी."
सेना के डर से उपजी हर एक शरणार्थी की कहानी में संघर्ष के अलग-अलग रूप मौजूद थे. ऐसी ही अपनी कहानी के बारे में लुंगडिंग के रहने वाले 65 वर्षीय बुआनसांगा ने मुझे बताया कि अप्रैल में उन्हें और उनके परिवार के पांच सदस्यों को भोजन और अन्य संसाधनों की कमी के कारण भागना पड़ा था. “एक ऐसा समय भी आया जहां हम सोचने लगे कि हम अब क्या खाएंगे. सेना द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में तनाव पैदा करने के बाद सब कुछ दुर्लभ हो गया था." कुछ लोगों के लिए यह यात्रा अपने आप में जोखिम भरी थी. 65 वर्षीय लवीचेमा को सेना ने भागने की कोशिश करते समय रास्ते पर रोक लिया. उन्होंने मुझे बताया, "शहर से हर कोई घर छोड़कर भाग रहा था क्योंकि सेना हर जगह गोलीबारी कर रही थी. हम शांति से नहीं बैठ सकते थे इसलिए हम अपने उन दोस्तों के साथ शामिल हो गए जिन्होंने मिजोरम जाने के लिए एक वाहन किराए पर लिया था. हम सुबह जल्दी निकल गए और लगभग 3 बजे म्यांमार में चिन राज्य की राजधानी हखा पहुंच गए. उसके बाद हमने वहीं की एक बस्ती थंटलांग जाने की कोशिश की लेकिन सेना ने हमें रोक दिया. उन्होंने हमें अपना फोन और पहचान पत्र दिखाने के लिए कहा. हम बहुत डर गए थे. उन्होंने हमारा फोन चेक किया और हमें काफी देर तक वहीं बैठाए रखा. और जब कुछ नहीं मिला तब रात करीब 8 बजे उन्होंने हमें जाने दिया.” इस तरह बाल-बाल बचे होने के बावजूद भारत पहुंचने पर वह और अधिक बोझ से दब गए हैं. लवीचेमा ने कहा, "हम एनजीओ के सहारे ही रह रहे हैं. सरकार अब तक कुछ क्यों नहीं कर रही है? क्या उन्होंने कुछ करने की योजना नहीं बनाई है? हम चाहते हैं कि न केवल राज्य सरकार बल्कि केंद्र हमारी मदद करे और हमें स्वीकार करे." उन्होंने आगे कहा, "मैं पूरी तरह से स्वस्थ्य नहीं हूं. मैं कोई मुश्किल काम नहीं कर सकता और मेरी पत्नी काम कर हमारे तीन बच्चों का पेट भर रही है. हमें राहत शिविर में रहने की जरूरत है. क्या कोई जगह है जहां हम रह सकते हैं? क्या कोई तरीका है जिससे आप हमारे लिए कुछ योजना बना सकते हैं?"
25 वर्षीय शरणार्थी ओंगसू के लिए भी यात्रा विशेष रूप से कठिन रही क्योंकि उन्हें अपनी गर्भवती पत्नी और एक बच्चे के साथ पैदल भागना पड़ा. मैं उनसे उस दिन मिली जब उनकी पत्नी ने अपने बच्चे को जन्म दिया था. ओंगसू ने मुझे बताया कि उनके पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है और उनके लिए तीन से चार लोगों के हो चुके अपने परिवार का भरण पोषण करना मुश्किल हो गया है.
कई वरिष्ठ नागरिकों सहित शरणार्थियों ने भी स्वास्थ्य सेवा पर चिंता व्यक्त की. मार्च के अंत में अपनी पत्नी के साथ भारत भाग आए 70 वर्षीय शरणार्थी परमाविया ने मुझे बताया कि उन्हें चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता है. "हम वहां से भाग आए क्योंकि हम भूखे थे, हमारे पास खाना खत्म हो रहा था और बाहर गोलीबारी हो रही थी." उन्होंने आगे बताया, “यहां आने के बाद जब हम बीमार पड़ गए और स्थानीय अस्पताल गए तो हम डॉक्टर को अपनी बीमारी के बारे में नहीं बता सके. उन्हें समझ नहीं आया कि हम क्या बताना चाह रहे हैं. इसके अलावा, यहां की दवाई हमारे देश से अलग है." उन्होंने कहा कि उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा महीने में कम से कम एक बार शरणार्थियों की जांच कराने और इसके लिए एक अनुवादक की थी. "हम नहीं जानते कि अपनी बीमारी को कैसे बताएं. हमें स्वास्थ्य सुविधाओं या कम से कम एक डॉक्टर की सख्त जरूरत है." म्यांमार से भागकर आने वाले शरणार्थियों ने अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित तियाउ नदी को पार किया और फिर मिजोरम में अस्थायी राहत शिविरों और आश्रयों तक पहुंचने के लिए गैर-लाभकारी संस्थाओं द्वारा प्रदान किए गए वाहनों का सहारा लिया. तिआउ को पार करने के बाद लगभग छह किलोमीटर तक ऊपर की ओर जाने वाले खड़े भू-भाग सामने आते हैं. वहां से गुजरने वाली सड़क सीधे थेकटे से लगभग दस किलोमीटर दूर फार्कन शहर के बाहरी इलाके की तक जाती है. मैं एक दोस्त के साथ बाइक पर नदी के मिजोरम की तरफ वाले भाग तक चला गई थी. जब हम लौट रहे थे, तब खराब सड़क के कारण हमारी बाइक का टायर खराब हो गया. जब हम उनकी मरम्मत के लिए इंतजार कर रहे थे, तब फरकान के पास कुछ फूस के घर देखे जो नए बने थे और मैंने इनके निवासियों के बारे में पूछताछ की. पास की चौकी पर पहरा दे रहे असम राइफल्स के एक जवान ने मुझे बताया कि वहां पर शरणार्थी रहते हैं.
मैंने पहले घर का दरवाजा खटखटाया और तीन बच्चों की 28 वर्षीय मां ने दरवाजा खोला. वह खाना बना रही थी और उसके नौ, सात और तीन साल के बच्चे फर्श पर एक चटाई पर सो रहे थे. उन्होंने अपना नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया, "मैं अपने तीन बच्चों और पति के साथ जून के आसपास यहां आई थी. हम हखा में रहते थे. वहां गोलियों की इतनी आवाजें आती थीं कि हम चैन से नहीं रह पा रहे थे. मेरे पति एक निजी स्कूल में कंप्यूटर शिक्षक हुआ करते थे लेकिन कोविड-19 और सैन्य कू के कारण स्कूल बंद थे इसलिए उनके पास कोई काम नहीं था." उन्होंने आगे बताया, "अब हमारे पास कोई काम नहीं है. हम वही खाते हैं जो हमारे पास पहले से है. एनजीओ हमें चावल और दाल देते हैं और हम बस उसी पर निर्भर हैं. हमें उम्मीद है कि सरकार किसी तरह की मदद करेगी क्योंकि हमारे पास कोई काम नहीं है और हमारे साथ बच्चे भी हैं. मुझे चिंता है कि वे कैसे पढ़ेंगे क्योंकि स्कूलों की फीस अधिक है और सैन्य शासन के कारण वे इतने लंबे समय तक स्कूल नहीं गए.”
मैंने बाकि घरों के भी दरवाजे खटखटाए और दूसरी तरफ एक घर में चली गई जहां एक मां अपने बच्चे को गोद में लिए हुए बाहरी चिमनी में खाना बना रही थी. मुझे बाद में पता चला कि चिमनी ही उनकी रसोई थी और कोने पर उन्होंने जो तीन बर्तन और कढ़ाई रखी थी, वे ही उनके खाना पकाने के बर्तन थे. मैंने अपना परिचय देते हुए उनसे पूछा कि वे लोग भारत कब आए. 30 वर्षीय उस महिला ने मुझे बताया कि वह अपने पति और अपने चार बच्चों के साथ गांव से भाग आई थीं. उन्होंने भी नाम न छापने की शर्त पर बाताया, "हमारी बच्ची का जन्म मई में हुआ था. हम भागकर यहां आए थे जब वह सिर्फ एक महीने की थी. वहां से भागने वाले हम 15 लोग थे क्योंकि हम सैनिकों से डरते थे. सेना अक्सर हमारे गांव में आती है इसलिए वहां बहुत अशांति है. हमारे घर के पीछे एक खेत था जहां हमने चावल उगाए थे. हालांकि हम अमीर नहीं थे लेकिन हम कभी भूखे नहीं रहे थे.”
मैंने उनसे पूछा कि एक बड़ा परिवार होने के कारण वे अब खाने का इंतजाम कैसे करते हैं. शरणार्थियों के साथ काम करने वाले वाईएमए और अन्य गैर-लाभकारी संस्थाओं का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया, "हमारे पास खाना खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं लेकिन एनजीओ हमें खाना बांट रहा है. हमारे पास काम करने या पैसा कमाने का कोई तरीका नहीं है. हम नहीं जानते कि हम कैसे अपना जीवन बिताएंगे. कुछ लोगों ने यह घर हमें छह महीने के लिए मुफ्त में किराए पर दिया है लेकिन उसके बाद हमें किराया देना पड़ सकता है लेकिन हमारे पास किराए के लिए पैसे नहीं हैं.” उनके घर में कदम रखते ही मैंने लकड़ी का शेल्फ पर चार स्टील की प्लेट, चार कटोरे, एक गर्म पानी का बर्तन और कैंडी के कुछ पुराने डब्बे देखे. घर के मालिक द्वारा छोड़े गए चावल के कुछ थैलों के अलावा परिवार के पास संपत्ति के नाम पर फर्श पर बिछी एक चटाई और दीवार पर रस्सी से लटके कुछ कपड़े ही थे.
महिला ने बताया कि यदि वे किराया देने में समर्थ नहीं हुए तो उसका परिवार छह महीने बाद म्यांमार लौटने पर विचार कर सकता है. उन्होंने कहा, "हम वापस जाने से डरते हैं लेकिन यहां हमारे पास किराया देने के लिए पैसे नहीं हैं."
मैं पड़ोस के एक तीसरे घर में गई. वहां एक 31 वर्षीय शरणार्थी लालरीमावी से मिली जो दो सप्ताह पहले आई थीं. उन्होंने कहा, "मेरे परिवार में चार लोग हैं- मैं, मेरे पति और दो बच्चे. हम अपने घर पर खेती करते थे लेकिन हमें अक्सर पड़ोस के गांव से गोलियों की आवाजें सुनाई देती थीं. इसलिए हमने भागकर एक सुरक्षित जगह पर पहुंचने का फैसला किया.” परिवार की आर्थिक स्थिति के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया, "एक या दो मौकों को छोड़कर हमें कोई काम नहीं मिला. कुछ लोगों ने हम पर दया दिखाते हुए हमें खरपतवार काटने जैसे कुछ छोटे काम दिए. एनजीओ समय-समय पर तीन-चार लोगों के लिए 20 किलो चावल वितरित करते हैं. जो हमारे लिए काफी नहीं है लेकिन हम क्या कर सकते हैं? हम यहां बिना पैसे के केवल उम्मीद लेकर आए थे. जब हम अपने गांव से भागे थे तब हमारे पास जो कुछ भी पैसा था, हमने उससे जंगल में खाने के लिए चावल के साथ खाया जाने वाला नगापी, चावल और नमक खरीद लिया. यहां पहुंचने तक हमारे पास एक रुपया भी नहीं था. हमारे यहां पहुंचने के बाद एनजीओ ने हमें चावल बांटे और हमने यह कहते हुए नौकरी मांगी कि हम शरणार्थी हैं. सच कहूं तो मेरे पास सौ रुपए भी नहीं हैं."
लालरीमावी ने कहा कि उसने हाल ही में काम करके 350 रुपए कमाए थे जो कुछ आवश्यक चीजें खरीदने के बाद खत्म हो गए. उन्होंने कहा, "हम परेशान नहीं हैं. हम बस इस उम्मीद के साथ जी रहे हैं कि जब तक स्थानीय समुदाय हमें खाना देंगे तब तक हम भूखे नहीं रहेंगे.” फार्कावन से लगभग चालीस किलोमीटर की दूरी पर जावल्सी शहर में वाईएमए ने पति के बिना भागकर आईं महिलाओं और बच्चों के रहने के लिए खाली जमीन पर एक अस्थायी शरणार्थी शिविर स्थापित किया गया है. यहां लगभग 70 महिलाओं और बच्चों के एक समूह को फूस की एक बड़ी झोंपड़ी में ठहराया गया है. इस शिविर में बच्चों को तिरपाल से ढकी एक बैठने की जगह में पढ़ाया जाता है. कलाई मेउह में चिकित्सा कर्मी रह चुका एक व्यक्ति भी अपने चार सदस्यों वाले परिवार के साथ शिविर में मौजूद था. मुझसे बात करते समय उसने शरणार्थियों के पहचान पत्र को लेकर चिंता जताई. उन्होंने कहा कि भले ही राज्य में मौजूदा मिजो नेशनल फ्रंट सरकार ने उन्हें शरणार्थी कार्ड प्रदान किए हों लेकिन भविष्य की कांग्रेस सरकार उन्हें अमान्य घोषित कर सकती है. “चूंकि हम इस जगह से नहीं हैं क्या हमारी सुरक्षा की कोई गारंटी होगी? अगर ऐसी परिस्थितियां आती हैं कि पहले वे हमें पहचान पत्र देते हैं और बाद में रद्द कर देते हैं, तो यह हमारे लिए मुश्किल खड़ी करेगा."
12 सितंबर को गुवाहाटी में 26 म्यांमार नागरिकों को फर्जी पहचान पत्र रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धाराओं के साथ-साथ विदेशी अधिनियम और पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम के प्रावधानों के तहत पलटनबाजार पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज किया गया था. एक महीने बाद 1 अक्टूबर को इम्फाल हवाई अड्डे पर नकली आधार कार्ड के साथ हवाई यात्रा करने के कोशिश में 14 म्यांमार नागरिकों गिरफ्तार किया गया था. अमेरिका में स्थित एक संगठन चिन ह्यूमन राइट्स ऑर्गनाइजेशन की ओर से गिरफ्तार किए गए म्यांमार के नागरिकों के मामलों को देख रहे गुवाहाटी के एक व्यवसायी नुतेई ने बताया, "गिरफ्तार किए गए 26 लोगों में से दस महिलाएं हैं और 16 पुरुष हैं. पिछली बार जब मैं उनसे मिलने गया था तो उन्होंने कहा था कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है जिसकी वजह से कई दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. इन शरणार्थियों में से कुछ नर्स हैं, कुछ शिक्षक हैं जिन्हें सैनिक गतिविधियों का विरोध करने वाली एक स्थानीय संजातीय नागरिक सेना चिनलैंड डिफेंस फोर्स (सीडीएफ) में शामिल होने के लिए गोली मारी जानी की संभावना थी. जिसकी उन्हें चेतावनी भी दी गई थी इसलिए वे वहां से भाग आए. वे शरण के लिए आवेदन करने दिल्ली जा रहे थे. मैंने अधिकारियों से कहा, 'अगर हम उन्हें निर्वासित करते हैं, तो उनका जीवन खतरे में पड़ जाएगा है. उन्हें गोली मार दी जाएगी. कृपया उन्हें एक मौका दें, भले ही आपको उन्हें असम या दिल्ली के डिटेंशन सेंटर में रखना पड़े, जो उनके लिए वापस भेजे जाने से बेहतर होगा.'”
मैंने चिन ह्यूमन राइट्स ऑर्गनाइजेशन के प्रभारी चुंगडॉट से शरणार्थी संकट पर बात की. उन्होंने कहा, "शरणार्थी सुरक्षित नहीं हैं इसलिए वे भाग आए. भागने के बाद उनके पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है. उन्हें फर्जी पहचान पत्र बनाने पड़े क्योंकि उनके पास और कोई रास्ता नहीं था.” भले ही भारत शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है लेकिन उन्हें हमारी मदद करनी चाहिए. उन्होंने कहा, “हम अपनी मर्जी से शरणार्थी नहीं बने हैं. हम इसलिए भाग रहे हैं क्योंकि हमारे देश में बहुत खून-खराबा हो रहा है. केंद्र सरकार हमें इस तरह नहीं रोक सकती वरना हम सब मर जाएंगे. हालांकि सिर्फ संयुक्त राष्ट्र के नजरिए से नहीं उन्हें इसे मानवीय आधार पर देखने की जरूरत है. हम चाहते हैं कि केंद्र सरकार कोई कदम उठाए. कृपया हमारी मदद करें क्योंकि हम अपने दम पर केंद्र सरकार तक नहीं पहुंच सकते हैं.”
मिजोरम सरकार ने अब तक शरणार्थियों के लिए दो अलग-अलग मौकों पर 30 लाख और 50 लाख रुपए की मदद की है. वाईएमए के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर मुझसे संगठन के उद्देश्यों के बारे में बात की. उन्होंने मुझे बताया, "जब शरणार्थियों का आना शुरू हुआ तब हमने संकल्प लिया कि शरणार्थी हमारे भाई और बहन ही हैं और हम उनकी देखभाल करने की पूरी कोशिश करेंगे. हम उन्हें स्वीकार करते हैं फिर भले ही भारत सरकार स्वीकार न करे." उन्होंने आगे कहा, "वाईएमए सरकार की जगह नहीं ले सकती. इसलिए जब शरणार्थी आने लगे तो हमने उनसे कहा, 'हम पहले सरकार से बात करेंगे और फिर कुछ कदम उठाएंगे,' लेकिन उन्होंने कहा कि म्यांमार की सेना उग्र रूप से हिंसा का इस्तेमाल कर रही है. हमने उनसे कहा कि 'अगर तुम यहां आए तो भारतीय सैनिक तुम्हें गोली मार सकते हैं, जिसपर उन्होंने कहा कि उन्हें कोई परवाह नहीं है. ज्यादा से ज्यादा म्यांमार के सैनिकों के बजाय भारतीय सैनिकों द्वारा गोली मार दी जाएगी.' सरकार इन्हें पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर सकती लेकिन वाईएमए ने उनकी मदद करने का फैसला किया. यहां तक कि मिजोरम सरकार ने भी हमें पीछे हटने को कहा है लेकिन यह भी कहा कि यदि हम मानवीय आधार पर मदद कर रहे हैं तो वे हमें पीछे हटने पर बाध्य नहीं कर सकते."
राज्य में शरणार्थियों के मामलों को देखने वाले मिजोरम राज्य योजना बोर्ड के उपाध्यक्ष एच राममावी ने मुझे बताया कि राज्य के मुख्यमंत्री जोरामथांगा ने मार्च 2021 से ही शरणार्थियों के मामले में सहायता के लिए प्रधानमंत्री, गृह और विदेश मामलों के मंत्रियों को पत्र लिखा और उनसे बात की थी. उन्होंन बताया, “मार्च और अप्रैल में उन्होंने अपने दूत और सलाहकार दिल्ली भेजे थे. दूतों ने कई बार गृह और विदेश मंत्रालय से मदद की मांग की लेकिन आज तक मिजोरम सरकार को केंद्र से कोई सहायता नहीं मिली है.” राममावी ने बताया कि राज्य के लोग हर तरह से म्यांमार के शरणार्थियों की सहायता करते हैं. सभी गैर सरकारी संगठन और चर्च पैसे, भोजन, कपड़े से मदद करने के लिए साथ आए हैं. “राज्य सरकार ने भी आर्थिक और अन्य सहायता दी हैं. मिजोरम सरकार के लिए यह एक अप्रत्याशित स्थिति है. हालांकि इससे आंखें नहीं मूंदी जा सकती हैं क्योंकि यह उनका जीवन बचाने के लिए जरूरी है.”
नाम न छापने की शर्त पर मिजोरम सरकार के गृह विभाग के एक अधिकारी ने मुझे बताया कि जोरामथांगा ने म्यांमार शरणार्थियों के लिए सहायता का अनुरोध करते हुए केंद्र सरकार को लगभग पांच और मुख्य सचिव ने तीन बार पत्र लिखा. जिनका उन्हें कोई जवाब नहीं मिला है. उन्होंने आगे बताया कि जब शरणार्थियों के मुद्दे पर भेजे गए पत्रों पर केवल एक ही प्रतिक्रिया मिली कि "राज्य सरकार उन्हें शरणार्थी होने का दर्जा नहीं दे सकती है." 6 दिसंबर को मीडिया के साथ बातचीत में जोरामथांगा ने बताया था कि वह दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिले, जहां उन्हें आश्वासन दिया गया कि शरणार्थियों की मदद करने में मिजोरम की सहायता के लिए उपाय किए जाएंगे. उन्होंने कहा, "प्रधानमंत्री ने मुझे आश्वासन दिया कि वह म्यांमार के नागरिकों की सहायता जारी रखने में हमें अधिक सक्षम बनाने के लिए योजना बनाई जाएगी. केंद्र मदद करने के लिए तैयार है लेकिन वह सीधे म्यांमार शरणार्थियों की मदद नहीं कर सकता क्योंकि भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी कन्वेंशन और 1967 के प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है." राज्य के गृह विभाग के अधिकारी ने मुझे बताया कि बैठक के बाद से केंद्र सरकार ने न तो लिखित में कोई आश्वासन दिया और न ही इस पर आगे कोई बातचीत की.
थेकटे में सबसे उम्रदराज शरणार्थी 74 वर्ष के जटलुना है. उनका कंकाल जैसा शरीर और झुर्रियों उन्हें और भी बूढ़ा बना रहे थे. जब मैं उनसे मिली तो वह हाथ में दरांती पकड़े हुए सुअर का चारा खोजने जा रहे थे. मैंने उनसे पूछा कि क्या बुजुर्ग होने के चलते वह सरकार से कोई सहायता चाहते हैं. उन्होंने कहा, "यह हम कैसे बता सकते हैं कि हमें क्या चाहिए. वे लोग हमारी समस्या जानते हैं. मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है."