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9 जुलाई को नेपाल के केबल ऑपरेटरों ने अचानक भारत के सभी निजी समाचार चैनलों के प्रसारण को बंद करने की घोषणा कर दी. ऑपरेटरों ने यह फैसला जी न्यूज के एक शो के विरोध में लिया था जिसमें दिखाया गया था कि काठमांडू में चीनी राजदूत होउ यानछि ने नेपाल के प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली को "हनी ट्रैप" में फंसा लिया है यानी अपने वश में कर लिया है. भूभाग को लेकर दोनों देशों के बीच मई में हुए विवाद के बाद ऐसी आधारहीन और बेतुकी रिपोर्टें भारतीय मीडिया में आती रही हैं.
ऑपरेटरों की उस घोषणा के एक सप्ताह के अंदर दोनों देशों की सीमा पर तनाव एक बार फिर बढ़ गया. इस बार इसलिए कि ओली ने हिंदू देवता राम का असली जन्मस्थान भारत की अयोध्या में न होकर नेपाल के बीरगंज के पास बताया था. अभी हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अयोध्या में नए राम मंदिर की आधारशिला रखने के बाद ओली ने नेपाल के उस क्षेत्र के पास जहां वह अयोध्या होने का दावा करते हैं, राम, सीता और लक्ष्मण की प्रतिमाओं का निर्माण करने का सुझाव दिया. हिंदुत्व के सबसे पोषित विश्वासों में से एक पर ओली के प्रहार से मचा कोहराम इस बात का संकेत था कि जब तक दोनों देशों के बीच संबंधों में तनाव बना रहेगा, तब तक पुराने विवादों को नई जमीन पर फिर से उभारा जाएगा. सरकार द्वारा नहीं बल्कि ऑपरेटरों द्वारा लगाए गए अस्थायी प्रतिबंध से नेपाल और भारत के बीच जारी कूटनयिक गतिरोध के जन असंतोष में तबदील होने का जोखिम है.
दोनों देशों के बीच विवादित क्षेत्र कालापानी के ऊपर एक हाईपास के माध्यम से मानसरोवर के लिए भारत के एक नई लिंक रोड खोलने से तनाव की शुरुआत हुई. नेपाल में जानकार इस प्रकरण की शुरुआत नवंबर 2019 में मानते हैं. तब भारत सरकार ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद एक नया राजनीतिक मानचित्र जारी किया था. उसमें कालापानी को भारत ने अपनी सीमा में शामिल कर लिया था. भारतीय क्षेत्रों के भीतर कालापानी को शामिल करना कोई नई घटना नहीं थी क्योंकि स्वतंत्र भारत ने आधिकारिक मानचित्रों में हमेशा इन अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को दिखाया है. फिर भी यह ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच 1816 की संधि का उल्लंघन ही है. 1816 की संधि भारत के साथ नेपाल के पश्चिमी सीमा को निर्धारित करती है.
क्षेत्र के शुरुआती औपनिवेशिक नक्शे नेपाल के वर्तमान दावों का समर्थन करते हैं. 1870 के दशक तक अंग्रेजों के आधिकारिक नक्शों ने न केवल काली नदी का नाम बदल दिया जो संधि के अनुसार प्राकृतिक सीमा थी, और उसके पूर्व में रहि एक छोटी सी नदीको काली नाम दिया, बल्कि सीमा को उस छोटी नदी से भि पूर्व कालापानी में स्थानांतरित कर दिया जो तिब्बत से कुछ किलोमीटर दक्षिण में था. 1960 के दशक तक उस कार्टोग्राफिक अतिक्रमण ने कालापानी में भारतीय सेना की मजबूत उपस्थिति का रुप ले लिया था. इन परिवर्तनों का विरोध नेपाल में निरंकुश राजशाही के अंत के बाद जन्मे नए राजनीतिक वर्ग और मुक्त मीडिया ने 1990 के दशक में शुरू किया.
कालापानी एजेंडा तब से नेपाल में राष्ट्रवादी राजनीति का हिस्सा बन गया है. वर्षों से काठमांडू ने राजनयिक स्तर पर इस मुद्दे को जीवित रखने की कोशिश की है. लेकिन इस क्षेत्र पर भारतीय आधिपत्य कमोबेश बन चुका है. भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का मई में नई सड़क का उद्घाटन उस यथास्थिति की क्रूर याद है. दो सप्ताह तक राजनयिक बातचीत के बाद, घरेलू राजनीतिक दबावों में आकर ओली सरकार ने नेपाल का एक नया नक्शा जारी किया जिसमें 335 वर्ग किलोमीटर का अतिरिक्त विवादित क्षेत्र नेपाल के अंदर दिखाया गया है.
दोनों देशों के बीच संबंधों में नाटकीय रूप से बढ़ी कटुता में भारत के हिंदी और अंग्रेजी समाचार चैनलों की भूमिका है. भारतीय मीडिया द्वारा नेपाल को छोटे भाई की तरह दिखाना नेपालियों के लिए नया नहीं है लेकिन इस बार दिखाया गया शत्रुता का भाव नया है.
नेपाल की घरेलू राजनीति में चीनी सरकार की घुसपैठ को नेपाली प्रेस ने ही व्यापक रूप से चिन्हित किया है. सत्तारूढ़ पार्टी को स्थिरता देने के लिए देश के राजनीतिक नेतृत्व के साथ कथित रूप से होउ की बैठकों की तुलना आमतौर पर अतीत में भारतीय राजदूतों की नेपाली राजनीति के "माइक्रोमैनेजमेंट" करने से हो रही है. देश के सार्वजनिक जीवन में चीनी मध्यस्थता के प्रभाव के बारे में चिंता करना कोई नई बात नहीं है. फरवरी में जब अंग्रेजी अखबार काठमांडू पोस्ट ने चीन के कोविड-19 से निपटने के प्रयास की आलोचना वाला लेख प्रकाशित किया तो चीनी दूसावास ने अखबार के संपादक को "चीन विरोधी ताकतों का तोता" कहा था और कानूनी कार्रवाई की धमकी दी थी.
भारतीय मीडिया द्वारा नेपाल के कवरेज में दिखाई जाने वाली अतिशयोक्ति और चीन पर उसकी जरूरत से ज्यादा चिंता अब ह्रासमान प्रतिफल के बिंदु पर पहुंच गया है और नई दिल्ली के लिए काठमांडू के साथ संबंधों को सुधारने को कठिन बना रहा है. न केवल दोनों राज्यों के बीच संबंध तनावपूर्ण हैं बल्कि जन स्तर पर कलह के संकेत मिल रहे हैं. अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी की प्राइमटाइम नाटकबाजी भारतीय मीडिया की पहचान बन गए हैं. ओली के अयोध्या संबंधित दावे का हिंदू दक्षिणपंथियों ने जोरदार विरोध किया. वाराणसी में एक नेपाली से जबरदस्ती नेपाल विरोधी नारे लगाने का वीडियो नेपालियों ने देखा. हालांकि बाद में पता चला कि वह विश्व हिंदू सेना द्वारा बनाया गया फर्जी वीडियो था जिसमें एक भारतीय को पैसा देकर नेपाली बनाया गया था. लेकिन नेपाल में इसे जिस तरह से लिया गया उससे आपसी संदेह का पता चलता है.
मजेदार बात यह है कि द्विपक्षीय तनाव नेपाल के प्रधानमंत्री के लिए वरदान की तरह है क्योंकि वह अपनी पार्टी के भीतर असंतोष का सामना कर रहे हैं. ओली का राजनीतिक वर्चस्व 2015 में महीनों तक चली सीमा नाकाबंदी और नए संविधान के खिलाफ मधेसी जनता के विरोध के खिलाफ अडिग रहने पर बना है. नाकाबंदी को भारतीय राज्य का समर्थन था. अयोध्या का दावा, उनकी कई बेतुकी टिप्पणियों की तरह, एक व्यक्तिगत टिका हो सकती है और नेपाल के लिए एक गैर जरूरी मुद्दा है लेकिन ओली की टिप्पणियां अक्सर लोकप्रिय समर्थन प्राप्त करती हैं क्योंकि वह नेपाल में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बढ़ती भूख को शांत करने का काम करती हैं.
खासकर यह उस पीढ़ी को अपील कर रहा है जिसकी औपचारिक राजनीतिक स्मृति एक दशक तक चले माओवादी संघर्ष या उसके समाधान की नहीं है बल्कि नाकाबंदी और ओली के नेतृत्व वाली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नवसंकीर्णतावादी राजनीति के सुदृढ़ीकरण की दौर की है. नेपाल में इस राजनीति को राष्ट्रवादी मिथकों के महिमामंडन, बड़ी बुनियादी परियोजनाओं के लिए उत्साह, अल्पसंख्यक-नेतृत्व वाली राजनीति के प्रति संदेह और राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में चिंताओं से परिभाषित किया गया है. इसकी एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति जून में सामने आई जब एक संसदीय समिति ने नागरिकता कानून में उस संशोधन का समर्थन किया जो नेपीली महिला के विदेशी जीवनसाथी और बच्चों को नागरिकता देने पर अंकुश लगाता है. यह लोकप्रिय संशोधन भारतीयों की आमद के डर से प्रेरित है. यह तर्क कि तराई और उत्तर भारत के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों के बीच वैवाहिक संबंध नेपाली पहचान को कमजोर कर सकता है, इस तरह के प्रतिबंधात्मक कानूनों का बचाव करना अब राजनीतिक रूप से स्वीकार्य माना जाने लगा है.
आज भारत की उदार, धर्मनिरपेक्ष परंपराएं नहीं बल्कि हिंदुत्व, उसका नरम हो या कठोर रूप, नेपाल को निर्यात किया जा रहा है. उदाहरण के लिए, नेपाल में ईसाई विरोधी और इस्लामोफोबिक बयानबाजी भारत से मिलती-जुलती है. भले ही नेपाल में मोदी की शुरुआती लोकप्रियता को गंभीर झटका लगा हो, फिर भी उन्हें भारत के राष्ट्रीय हितों को संरक्षित करने पर आमादा राष्ट्रवादी के रूप में देखा जाता है. दूसरे शब्दों में, नेपाल के राष्ट्रवादी भारत के अत्यधिक रौबदाब को अस्वीकार कर सकते हैं लेकिन वे भारतीय जनता पार्टी की घरेलू राजनीति की शक्ति को पहचानते हैं.
नेपाली राजनीति में अतिराष्ट्रवाद का विकास उसके पड़ोसियों से संबंधों पर उतना ही निर्भर करत है जितना कि घरेलू राजनीति के विकास पर. अब तक यही लग रहा है कि एनसीपी का विरोध वाम के बजाय दक्षिणपंथ की ओर से आएगा. देश की पुरानी पार्टी नेपाली कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर फिर से विचार कर रही है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि संघवाद को जिस अव्यवस्थित रुप से लागू किया गया है और हिंदू धर्म की संवैधानिक स्थिति के अंत को लेकर जो आक्रोश है उससे एक सामाजिक गठबंधन बना है जो देश की राजनीति को दक्षिणपंथ की ओर ले जा सकता है. इस तरह के अति रूढ़िवाद को अभी तक प्रमुख ब्रॉडशीट में जगह नहीं मिली है, लेकिन ऑनलाइन, विशेष रूप से यू ट्यूब पर काफी फल-फूल रहा है. हो सकता है कि कोविड-19 के आर्थिक आघात के बाद हुई पेशेवर पत्रकारों के पलायन के बाद वह भी बदले. नेपाल के नागरिक समाज, मीडिया और राजनीति में आज भी पर्याप्त संख्या ऐसे लोगों की है जो पिछले दशक के परिवर्तनों के पीछे धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक भावना को मानते हैं.नेपाली लोकवृत्त अभी भी भारतीय आधिपत्य का विरोध करने और भारत विरोधी राष्ट्रवाद का विरोध करने के बीच अंतर करता है. लेकिन यह संतुलन अब बिगड़ रहा है.
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