ये दश्त वो है जहां रास्ता नहीं मिलता

भारतीय होने की सजा भुगत रहे असम के विदेशी न्यायाधिकरण में “विदेशी”

असम के लाखों बांग्ला भाषी अल्पसंख्यकों के ऊपर नागरिकता के खो जाने का खतरा मंडरा रहा है. सागर
16 October, 2019

"कल्पना को कहा बांग्लादेशी है. पुलिस बोला, उसको उठा के ले जाएगा, जेल में ढुका (डाल) देगा,” अनिल दास ने बेबसी में छटपटाते हुए कहा था जब मैंने उनसे पूछा, “क्या हुआ है आपके साथ?” दास मानो कब से इस इंतजार में थे कि उनसे कोई पूछे कि आखिर हो क्या रहा है? मैं उनसे 23 सितंबर की दोपहर गुवाहाटी के उलूबारी विदेशी न्यायाधिकरण के बाहर मिला. उनकी पत्नी कल्पना के ऊपर गैर कानूनी तरीके से देश में घुसने का आरोप है और पिछले चार महीनों से कल्पना पर विदेशी विषयक अधिनियम, 1946 के तहत मुकदमा चल रहा है. विडंबना ही है कि कल्पना के पति और सात साल की बेटी अर्चना भारतीय नागरिकता अधिनियम के तहत भारतीय हैं.

1960 के दशक में असम की राजनीति में एक बार फिर “बांग्लादेशी घुसपैठियों” के खिलाफ आवाज उठने लगी थी. भारत के आजाद होने से पहले भी कई बार अलग-अलग वक्त में यह मामला राजनीतिक खींचतान का कारण बना. उन्नीसवीं शताब्दी में चाय उद्योग के विकास के साथ ही अंग्रेजों ने असम में वर्तमान बिहार, ओडिशा और अन्य राज्यों से श्रमिकों को लाकर बसाना शुरू किया. बाद में खेतीहर मजदूरों के रूप में पूर्वी बंगाल से मुसलमानों और सैन्य तथा अन्य कामों के लिए गोरखाओं को भी यहां बसाया गया. लेकिन 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के टूटने और नए राष्ट्र बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के बाद इस राजनीती ने यहां के मुसलमानों और बंग्ला भाषी हिंदुओं के खिलाफ एक आक्रामक रुख अख्तियार कर लिया. जिसका सबसे वीभत्स रूप 1983 में नेली नरसंहार की शक्ल में सामने आया. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक उस नरसंहार में तकरीबन 2000 लोगों को मारा गया. नरसंहार में मारे जाने वाले वाले अधिकांश लोग मुसलमान थे. नरसंहार की जांच के लिए गठित तिवारी आयोग की रिपोर्ट में इस हिंसा को हवा देने के लिए अखिल असम छात्र संघ (आसू) और असम गण संग्राम परिषद सहित भारतीय जनता पार्टी की ओर इशारा किया गया है. हालांकि रिपोर्ट मुख्य रूप से नरसंहार का दोष अधिकारियों पर मढ़ती है. यह रिपोर्ट लंबे समय तक सार्वजनिक नहीं की गई.

1962 में भारत सरकार ने पाकिस्तान से होने वाली घुसपैठ को रोकने के लिए “पीआईपी” प्रोजेक्ट शुरू किया था जिसका मकसद असम में रह रहे बांग्लादेशी नागरिक को चिन्हित करना और उन्हें वापस भेजना था. इसे अंजाम देने के लिए विदेशी अधिनियम के तहत विदेशी न्यायाधिकरण बनाए गए थे. शुरुआत के कुछ सालों तक सक्रिय रहने के बाद, 1973 में इस कार्यक्रम को यह कह कर बंद कर दिया गया कि तमाम बांग्लादेशियों को देश की सीमा से बाहर खदेड़ दिया गया है. 

लेकिन 1983 में विदेशी अधिकरणों को दुबारा शुरू किया गया. यह न्यायाधिकरण अपनी शुरुआत से ही एक कार्यकारी व्यवस्था थी और इसमें अंतिम फैसला लेने का अधिकार सरकार के पास था. न्यायाधिकरण एक अर्ध-न्यायिक निकाय था जिसे सरकार को सिर्फ सुझाव देने का अधिकार था. हालांकि 90 के दशक में इस व्यवस्था को गैर कानूनी प्रवासी पहचान कानून के तहत एक संवैधानिक मान्यता दी गई. इस कानून के बाद जिम्मेदारी सरकार पर आ गई कि वह किसी नागरिक पर विदेशी होने का आरोप साबित करे. 2005 में इस कानून को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द करते हुए पुरानी व्यवस्था और विदेशी न्यायाधिकरण को फिर से लागू कर दिया. इसके तहत जिम्मेदारी अब वापस आरोपी पर होती है कि वह साबित करे की वह विदेशी नागरिक नहीं है. 

वर्तमान में करीब 100 ऐसे विदेशी न्यायाधिकरण असम में चल रहे हैं और 100 नए अधिकरणों को भी स्वीकृति मिल गई है. गृह मंत्रालय द्वारा संसद को दी गई एक रिपोर्ट के अनुसार, फिलहाल असम में करीब एक लाख लोगों को विदेशी करार दिया जा चुका है जिनमें करीब 65 हजार लोगों के खिलाफ यह कार्यवाही अभियुक्तों की गैर हाजिरी में की गई है. विदेशी घोषित होते हूी एक व्यक्ति से वोट देने, शिक्षा हासिल करने और रोजगार जैसे कई अधिकार छिन जाते हैं. उनकी अंतिम सुनवाई खत्म होने पर उन्हें एक खास तरह की जेल या डिटेंशन कैंप में डाल दिया जाता है. 

23 सितंबर 2019 को कल्पना की पेशी वाले दिन अनिल दास को भी यही डर सता रहा था. अगर उनकी पत्नी को सच में विदेशी घोषित कर दिया गया तो उनकी बेटी का क्या होगा? अब तक वकील की फीस और कानूनी कार्यवाही में अनिल दास 10 हजार रुपए से ज्यादा खर्च कर चुके हैं. पचास की उम्र पार करते ही दास ने मजदूरी छोड़ दी थी. अब उनका घर बेटे की कमाई से चलता है जो केरल में मजदूरी करके हर महीने पैसे भेजता है. बेटे के भेजे पैसों का आधा, दास की टीबी के इलाज में खर्च हो जाता है. विदेशी न्यायाधिकरण का चक्कर लगा लगाकर वह पूरी तरह टूट गए हैं. 

धोती-कुर्ता पहने और एक हाथ में जूट का झोला लिए दास उलूबारी विदेशी न्यायाधिकरण के बाहर ही खड़े रहे. उनसे कहा गया था कि वह न्यायाधिकरण के अंदर तभी आएं जब उनको बुलाया जाए. अर्चना भी उनकी ऊंगली पकड़े अपनी मां के बाहर आने का इंतजार कर रही थी.

न्यायाधिकरण एक अर्ध न्यायिक संस्था है इसलिए इसे अपने नियम खुद तैयार करने का हक भी है. वैसे तो कानूनन इसकी पूरी कार्यवाही सार्वजानिक रूप से होती है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है. अक्सर परिजनों को न्यायाधिकरण के बाहर इंतजार करने कहा जाता है. देश की आम अदालतों के बरअक्स, न्यायाधिकरण अदालत आम जनता के लिए व्यवहारिक तौर पर खुली नहीं है. मुझे खुद न्यायाधिकरण के गेट पर बैठे पुलिस वालों ने चेताया था कि "आप अंदर नहीं जा सकते. जिसका केस चलता है सिर्फ वही जाएगा.”

दास ने मुझसे कहा कि कल्पना बंगाल के अलीपुर से है और उनकी शादी को लगभग 20 साल हो चुके हैं. दास को कुछ पता नहीं कि उनकी पत्नी के साथ जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है. वह नहीं समझ पा रहे कि न्यायाधिकरण की कार्यवाही कैसे चलती है. उन्होंने सब कुछ अपने वकील पर छोड़ रखा है और वकील की जरूरत उन्हें तब पड़ी थी जब पुलिस वाले उनके घर, जो गुवाहाटी के पास खेत्री गांव में है, आकर कह गए थे कि “जल्दी कुछ कर लो नहीं तो बीवी जेल चली जाएगी.” 

कल्पना असम के उन लाखों बांग्ला भाषी अल्पसंख्यकों में से एक है जिन पर नागरिकता के खो जाने का खतरा मंडरा रहा है. विदेशी अधिनियम के तहत सरकार हर जिले के एसपी को इस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी सौंपती है. इस जिम्मेदारी को पुलिस अधिक्षक बॉर्डर पुलिस के जरिए लागू कराता है. बॉर्डर पुलिस को अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति पर संदेह होने पर उससे नागरिकता प्रमाण पत्र मांग सकती है और वह उस व्यक्ति पर विदेशी होने का आरोप भी लगा सकती है.

मैं गुवाहाटी में सप्ताह भर रहा जहां मैंने विदेशी घोषित हुए दर्जनों लोगों, उनके परिजनों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत की. मैंने पाया कि न्यायिक व्यवस्था से जुड़े सभी लोग दबी जुबान में ही सही लेकिन यह बताना चाहते थे कि विदेशी न्यायाधिकरण में कानून और संविधान को ताक पर रखकर फैसले सुनाए जा रहे हैं. लोगों ने यह भी माना कि इस व्यवस्था से जुड़े संस्थान, बॉर्डर पुलिस, सरकारी अधिकारी, विदेशी न्यायाधिकरण के सदस्य, एक खास समुदाय और भाषा बोलने वालों के खिलाफ पूर्वाग्रह से काम कर रहे हैं. 

मैंने गुवाहाटी में पांच विदेशी अधिकरणों के बाहर एक हफ्ता गुजारा और वहां आने वाले लगभग हर अभियुक्त और उनके वकीलों से भी बातचीत की. यह साफ था कि विदेशी घोषित हुआ हर दूसरा व्यक्ति मुसलमान और बेहद गरीब था. कई लोगों को तो यह भी नहीं पता था कि वे किस गुनाह के लिए लड़ रहे थे. 

ढुबरी के कलीमुद्दीन को तो यह भी नहीं याद कि कब पहली बार बॉर्डर पुलिस उनके घर आई थी और कब उनके ऊपर मुकदमा शुरू हुआ. उन्होंने याद करते हुए मुझसे कहा, "उस वक्त कांग्रेस की सरकार थी. बीजेपी के आने के कुछ दिन पहले ही. शायद 2013 रहा होगा." 

ठिगने कद के कलीमुद्दीन बताते हैं कि उस वक्त वह गुवाहाटी में ही रिक्शा चलाते थे और मालीगांव में अपनी बहन के घर में रहते थे. ढुबरी में उनके मां-बाप रहते थे. उनकी शारीरिक बनावट पतली, दुबली-सी, चेहरे पर घुंगराली दाढ़ी और सिर पर टोपी थी. कलीमुद्दीन बताते हैं कि एक दिन बॉर्डर पुलिस ने यूं ही सड़क पर रोक कर उनका नाम-पता पूछा और चली गई. तब पुलिस ने उनसे यह भी नहीं कहा कि वह जिला मुख्यालय आकर अपना कागजात दिखा सकते हैं और खुद के भारतीय होने का सबूत पेश कर सकते हैं. कानून के हिसाब से बॉर्डर पुलिस किसी पर विदेशी होने का आरोप तब तक नहीं लगा सकती जब तक उन्होंने उस व्यक्ति को अपनी सफाई का मौका नहीं दिया हो. 

कलीमुद्दीन को अपने विदेशी होने का पता तब चला जब छह महीने पहले न्यायाधिकरण से उनके घर नोटिस आया. बढ़ती उम्र और सेहत गिरने के बाद कलीमुद्दीन एक साल पहले ही अपने गांव ढुबरी लौट आए थे. अब न्यायाधिकरण की दी हर तारीख को वह गुवाहाटी आते हैं और सुनवाई खत्म होने पर लौट जाते हैं. तारीख की पूर्व संध्या को वह ढुबरी से निकल जाते हैं. छह घंटों का सफर तय कर, सुबह से ही न्यायाधिकरण के अहाते में उम्मीद लगाकर भूखे-प्यासे बैठे रहते हैं. सुनवाई में दिन भर निकल जाता है और 5-6 बजे न्यायाधिकरण स्थगित होने के बाद शाम की गाड़ी से वापस लौट जाते हैं. उस दिन भी उन्होंने पिछली रात के बाद से ही कुछ नहीं खाया था.

कलीमुद्दीन का मामला हिदायतपुर के विदेशी न्यायाधिकरण में चल रहा है. हिदायतपुर में कुल चार न्यायाधिकरण हैं : 2, 3, 4 और 5. उलूबारी में विदेशी न्यायाधिकरण नंबर-1 है. हालांकि उलूबारी स्थित न्यायाधिकरण नंबर-1 की अपनी इमारत और आहता है लेकिन बाकि के चारों अधिकरणों को दो रिहाइशी भवनों के निचले माले पर बनाया गया है. उलूबारी की तरह यहां भी मुझे न्यायाधिकरण के अंदर बैठने से मना कर दिया गया. मगर एक वकील साहब ने मुझे बताया कि "अंदर जगह इतनी कम है कि मेरे असिस्टेंट तक खड़े नहीं हो पाते.”

यहीं पर मेरी मुलाकात आमिर खान से हुई. आमिर एक बेरोजगार युवक हैं जो अब खुद को भारतीय साबित करने का केस लड़ रहे हैं. वह लगभग एक साल से विदेशी न्यायाधिकरण का चक्कर लगा रहे हैं. बारपेटा के रहने वाले आमिर बताते हैं, "मैं 2009 में परीक्षा देने गुवाहाटी आया था. तब मैं पढ़ाई कर रहा था. एक करीबी के घर रुका हुआ था कि तभी बॉर्डर पुलिस आई और नाम-पता लिख कर ले गई." कलीमुद्दीन की तरह आमिर को भी न पुलिस ने यह बताया कि उनसे क्यों पूछताछ की जा रही है और न ही उनको सफाई देने एसपी कार्यालय बुलाया.

आमिर की तरह एक और युवक जहांउद्दीन भी अपनी किस्मत को कोस रहे हैं कि वह अपना गांव छोड़कर गुवाहाटी क्यों आए.  2017 में काम की तलाश में जहांउद्दीन गुवाहाटी आए थे. गोलपाड़ा के रहने वाले जहांउद्दीन को एक कंस्ट्रक्शन साइट पर काम मिल गया. वहीं दिन भर मजदूरी कर रात को गांव के ही कुछ लड़कों के साथ एक कमरे में सो जाते. आज उनकी भी वही कहानी है जो बाकियों की है. एक सुबह बॉर्डर पुलिस उनके कमरे पर आई, उनका नाम पता पूछा और फिर चली गई. कुछ दिनों पहले ही उनके घर नोटिस आया कि वह विदेशी हैं और उन्हें विदेशी न्यायाधिकरण के समक्ष अपने भारतीय होने का सबूत देना होगा. जहांउद्दीन बताते हैं कि तब से लेकर अब तक वह अपने केस पर 60 हजार रुपया खर्च कर चुके हैं. 

बॉर्डर पुलिस के समानांतर ही वर्तमान में असम में दो और व्यवस्थाएं हैं जिसके जरिए किसी भी व्यक्ति के ऊपर विदेशी होने का आरोप लग सकता है : डी-वोटर्स और राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण से निष्कासन. असम में 1997 से ही राज्य चुनाव आयोग को अधिकार है कि वह अपने नियमित मूल्यांकन में जिन वोटरों को संदिग्ध पाती है उनको डाउटफुल या संदिग्ध मतदाता के रूप में चिन्हित कर सकती है. ऐसे मतदाता को तब तक वोट देने का अधिकार नहीं होता जब तक वह खुद को विदेशी न्यायाधिकरण के समक्ष भारतीय साबित नहीं कर लेता. सरकार ने राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण की अंतिम सूची 31 अगस्त को जारी की थी. इसमें 19 लाख लोगों को विदेशी करार दिया गया है. इन 19 लाख लोगों के पास न्यायाधिकरण के समक्ष खुद को भारतीय साबित करने के लिए अब मात्र 120 दिन हैं. यहां असफल होने पर वे उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय जा सकते हैं लेकिन ये दोनों अदालतें न्यायाधिकरण को सिर्फ अपने फैसले की समीक्षा करने को कह सकती हैं, फैसला बदलने को नहीं. फिर बेवतन कर दिए गए हर शख्स को वापस न्यायाधिकरण आकर खुद को भारतीय साबित करना होगा. 


Sagar is a staff writer at The Caravan.