भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली केंद्रीय विधान सभा में धुआं बम और पर्चे फेंकने की सार्वजनिक आलोचना का जवाब देते हुए एक बयान लिखा, “हम मानव जीवन को शब्दों से परे पवित्र मानते हैं. हम न तो कायरतापूर्ण अत्याचारों के अपराधी हैं... न ही हम 'पागल' हैं जैसा कि... कुछ लोग मानते होंगे.'' फ्रांसीसी चैंबर ऑफ डेप्युटी पर बमबारी करने वाले एक अराजकतावादी, ऑगस्टे वैलेन्ट के कामों से प्रेरित होकर, दोनों क्रांतिकारियों का मकसद दो दमनकारी बिलों के पारित होने का विरोध करना था. उन्होंने इस कृत्य के बाद आत्मसमर्पण कर अपनी बात को अदालत के जरिए दूर-दूर तक पहुंचाने की योजना बनाई थी. सिंह और दत्त को "गैरकानूनी और बदनियती से जानलेवा विस्फोट करने" के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.
13 दिसंबर 2023 को भारतीय संसद में जो दृश्य दिखे वे 94 साल पहले की उस घटना की याद ताजा करते हैं. मनोरंजन डी और सागर शर्मा ने देश का ध्यान उन गंभीर समस्याओं की ओर आकर्षित करने के लिए लोकसभा में स्मोक बम फेंका, जो सरकार और टेलीविजन स्टूडियो में सुनी नहीं जा रही हैं, मसलन मंहगाई, तानाशाही, मणिपुर की स्थिति और सबसे ऊपर, बेरोजगारी. ऐसा न हो कि उन्हें राष्ट्र-विरोधी करार दिया जाए, वीडियो में दिखाया गया है कि मनोरंजन और शर्मा ने "भारत माता की जय" के नारे लगाए. दोनों को उनके बाकी साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर आतंकवाद विरोधी गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए. पुलिस को अभी तक आरोपियों और किसी आतंकी समूह या राजनीतिक दल के बीच कोई संबंध नहीं मिला है.
आतंकवाद अब नकारात्मक अर्थों वाला एक शब्द बन गया है. लेकिन एक सदी पहले, यह सिर्फ एक युक्ति थी. भगत सिंह के साथी क्रांतिकारियों में से एक, भगवती चरण वोहरा ने एमके गांधी की "बम के पंथ" की आलोचना पर अपनी प्रतिक्रिया, "बम का दर्शन" लेख में समझाया. वोहरा ने लिखा, "आतंकवाद क्रांति का एक आवश्यक और अपरिहार्य चरण है. आतंकवाद संपूर्ण क्रांति नहीं है और क्रांति आतंकवाद के बिना पूरी नहीं होती.”
संसद में घुसपैठ करने वाले युवाओं ने अपनी तारीख बहुत सावधानी से चुनी, जिससे सुरक्षा की गारंटी देने के मोदी सरकार के दावों की पोल खुलती दिखे. ठीक 22 साल पहले 13 दिसंबर को पाकिस्तान के हथियारबंद आतंकवादियों ने संसद पर हमले की कोशिश की थी. हमला नाकाम कर दिया गया लेकिन नौ लोगों की जान चली जाने के बाद. इस घटना से पूरा देश और खुद दक्षिण एशिया हिल गया, जिसके चलते वाजपेयी सरकार को सशस्त्र बलों को पाकिस्तानी सीमा पर तैनात करना पड़ा. कम से कम दो मौकों पर दोनों देश चिंताजनक रूप से युद्ध के करीब थे, लेकिन छह कठिन महीनों के बाद तनाव कम हुआ. आखिरी नतीजा रहा कि 798 भारतीय सैनिक मारे गए. कारगिल युद्ध के दौरान भारत ने केवल 527 सैनिक खोए थे.
ताजा घटना में किसी की मौत नहीं हुई लेकिन संसद की सुरक्षा में सेंधमारी 2001 के हमले से भी ज्यादा शर्मनाक है. सबसे कमजोर कड़ी मैसूर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद प्रताप सिम्हा थे जिन्होंने आगंतुकों के लिए पास की सिफारिश करके घुसपैठियों को लोकसभा में घुसने की सुविधा की. इसमें एक प्रमाणीकरण शामिल था कि पास के लिए अनुशंसित व्यक्ति को वह जानते थे. सिम्हा से पूछताछ नहीं की गई है. पूरी संभावना है कि अगर उनकी जगह कोई विपक्षी सांसद होता तो अब तक आरोप लग चुके होते और जांच शुरू हो चुकी होती. हालांकि सिम्हा ने इस पर एक बयान जारी किया है.
2012 में भी इसी तरह की एक घटना जम्मू-कश्मीर में घटी थी, जब दर्शक दीर्घा में बैठे तीन लोग बेरोजगारी के खिलाफ नारे लगाते हुए अचानक विधान सभा के वेल में कूद पड़े थे. बीजेपी विधायक जगदीश राज सपोलिया ने तीनों के लिए वीआईपी प्रवेश पास की सिफारिश की थी। बाद में उन्हें सदन के समक्ष इस घटना के लिए माफी मांगनी पड़ी थी. सिम्हा ने माफी नहीं मांगी है और मोदी सरकार, दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों के साथ, इस विषय पर किसी भी चर्चा को रोकने पर अड़ी है.
सुरक्षा में संस्थागत खामियां जाहिर थीं. नवंबर के पहले हफ्ते में एक नियमित तबादले के बाद, पूरे संसद परिसर की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार संयुक्त सचिव (सुरक्षा) का सर्वोच्च पद खाली पड़ा हुआ था. 230 की मौजूदा ताकत के साथ, संसद के सुरक्षा प्रतिष्ठान में लगभग 40 प्रतिशत कर्मियों की कमी है. इसके अलावा, सरकार ने हाल ही में संसद परिसर के सालाना बजट में तकरीबन 30 करोड़ रुपए की कटौती की है. जब दो घुसपैठियों ने लोकसभा कक्ष के अंदर धुंआ बम फोड़ा तो अत्याधुनिक संसद भवन में धुआं अलार्म सक्रिय नहीं हुआ.
सबसे बड़ा सवाल जवाबदेही का है. संसद सुरक्षा उल्लंघन बड़ी विफलताओं की लंबी सूची में एक और है जहां मोदी सरकार में किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है. चाहे वह लद्दाख में चीनी घुसपैठ हो, मणिपुर में जारी जातीय हिंसा हो, कश्मीर में राजनीतिक और सुरक्षा स्थिति हो, उत्तराखंड में सुरंग का ढहना हो, या आयातित अफ्रीकी चीतों की मौत हो, भारतीय मीडिया मोदी सरकार को खुली छूट देता है. इसके बजाय यह जनता का ध्यान भटकाने और अप्रासंगिक मुद्दों पर प्रचार को बढ़ावा देने के लिए सरकार के चाकर के रूप में काम करता है. समाचार चैनल तो बहुत पहले ही ध्वस्त हो चुके थे लेकिन अब अंग्रेजी भाषा के अखबार भी बेशर्मी से वही खेल खेलते हैं. धुआं बम के खोखे पर झगड़ने वाले टेलीविजन पत्रकारों को अखबार के संपादक नफरती मुस्कान के साथ खारिज कर सकते हैं, लेकिन उनकी अपनी भूमिका कहीं ज्यादा भयावह और परेशान करने वाली है.
हाल के दिनों में प्रतिष्ठित विदेशी प्रकाशनों ने तीन विस्फोटक खबरों की जानकारी दी, लेकिन उनमें से कोई भी भारतीय अखबारों के पन्नों पर जगह नहीं बना पाया. फॉलोअप जांच या सरकार से सवाल की तो कल्पना तक नहीं की जा सकती. 12 दिसंबर को ब्लूमबर्ग ने बताया कि ताइवान का चांग परिवार अब एक नए नाम के तहत फिर से सामने आया है और फिर से अडानी समूह के साथ काम कर रहा है. 2014 में भारत सरकार ने चांग पर आरोप लगाया था कि उसका इस्तेमाल अरबपति गौतम अडानी का साम्राज्य विदेशों में पैसा निकालने के लिए करता था. दो दिन बाद फ्रांसीसी अखबार मीडियापार्ट ने रिपोर्ट दी कि मोदी सरकार डसॉल्ट-निर्मित राफेल लड़ाकू जेट की बिक्री में कथित भ्रष्टाचार की चल रही जांच में फ्रांसीसी न्यायाधीशों के साथ सहयोग करने से इनकार कर रही है. न्यायाधीशों ने भारत से सहायता का अनुरोध किया था. 2016 में हुए इस सौदे में कंपनी ने भारत को 7.8 अरब यूरो में 36 राफेन बेचे थे. भारत में फ्रांसीसी राजदूत इमैनुएल लेनैन द्वारा जुलाई में लिखे गए एक राजनयिक नोट में इस पर प्रकाश डाला गया है. पिछले महीने ही कारवां ने 15 प्रमुख हथियार सौदों में मिली रिश्वत की गहन जांच प्रकाशित की थी, जिसे भारतीय मीडिया ने कोई कवरेज नहीं दिया. 10 दिसंबर को वाशिंगटन पोस्ट ने मोदी सरकार के एक सेवारत खुफिया अधिकारी द्वारा स्थापित और संचालित एक संगठन पर रिपोर्ट दी. इसका काम विदेशी आलोचकों पर शोध करना और उन्हें बदनाम करना है. यह देश के सुरक्षा प्रतिष्ठान द्वारा भारत की सेवा करने वाले अभियानों और सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने वाले अभियानों के बीच पारंपरिक रूप से देखी जाने वाली रेखा को धुंधला कर देता है.
भारतीय मीडिया के पतन का मतलब यह है कि बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दों को वह महत्व नहीं मिल पाता जिसके वे हकदार हैं. बेरोजगारी को राजनीतिक जवाबदेही के सवाल के रूप में नहीं बल्कि तकनीकी भाषा में उलझा कर आंकड़ों और परस्पर विरोधी दावों के चक्रव्यूह में दबा दिया गया है. संसद में घुसपैठ करने वालों ने पुलिस को बताया कि वे भयावय बेरोजगारी से परेशान थे. भारत में युवा बेरोजगारी लगभग 23 प्रतिशत है, जो किसी भी प्रमुख वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए सबसे ज्यादा है और पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश की तुलना में लगभग दोगुनी है. अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि 25 साल से कम उम्र के स्नातकों के लिए, बेरोजगारी का यह आंकड़ा 42 प्रतिशत तक बढ़ जाता है. इंफोसिस, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज और विप्रो जैसी आईटी कंपनियों ने घोषणा की है कि वे इंजीनियरिंग स्नातकों की नियुक्ति में 30 प्रतिशत की कटौती करेंगी -प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों से इसे 40 प्रतिशत की कटौती करनी है, जिससे हजारों नए स्नातक छात्र बेरोजगार हो जाएंगे. 2022 में फंडिंग विंटर की शुरुआत के बाद से, केवल 121 भारतीय स्टार्टअप्स ने 34,785 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया, जिनमें से 69 स्टार्टअप्स ने आगे इस साल 15247 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया है. इसमें सुधार की संभावना नहीं है. हांगकांग और शंघाई बैंकिंग कॉरपोरेशन के मुख्य भारतीय अर्थशास्त्री प्रांजुल भंडारी का अनुमान है कि भारत को अगले दशक में 70 करोड़ नौकरियां पैदा करने की जरूरत होगी लेकिन यह केवल 24 करोड़ पर ही सिमट जाएगी. सीधे शब्दों में कहें तो भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश एक जनसांख्यिकीय आपदा में बदल गया है.
इस मुद्दे से परेशान लोगों के लिए कोई वास्तविक लोकतांत्रिक रास्ता नहीं है. चुनावी निरंकुशता "लोकतंत्र की जननी" का नकाब ओढ़े सामने आ रही है. संसद को इस हद तक कमजोर कर दिया गया है कि विपक्ष अपनी बात भी नहीं रख सकता. न्यायपालिका कोई बेहतर काम नहीं कर रही है. सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश देश की सर्वोच्च अदालत की आलोचना करने के लिए कतार में खड़े हैं. भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक जैसे संवैधानिक निकाय पिछली व्यवस्थाओं के तहत मानक संख्या में रिपोर्ट तैयार करने में विफल हो रहे हैं. ट्रेड यूनियनों, श्रमिक निकायों और नागरिक-समाज समूहों को अप्रभावी बना दिया गया है.
भले ही हम उनके कृत्य को स्वीकार नहीं करते हैं, फिर भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि युवा भारतीयों का एक समूह इतना हताश क्यों था कि संसद के अंदर विरोध कर अपने भविष्य को खतरे में डालना ही एकमात्र विकल्प लगा. भगत सिंह और दत्त ने अपने पर्चे में लिखा था, "बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है, फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलेंट द्वारा इसी तरह के अवसर पर कहे गए इन अमर शब्दों के साथ, हम दृढ़ता से अपनी इस कार्रवाई को उचित ठहराते हैं." ये दोनों ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. जब इस तरह की भावनाएं आज युवाओं में गूंजने लगी है, तो बेहतर होगा कि देश उनके मोहभंग पर ध्यान दे. बिना आग के धुआं नहीं होता.