धीमी आंच

मोदी के भारत में रोजाना होती पब्लिक हिंसा का पैटर्न

मई 2017 में नई दिल्ली में भारतीय सैनिकों पर हुए कथित हमले और कश्मीर में मुसलमानों द्वार पत्थरबाजी का विरोध करते हुए नारेबाजी करता बजरंग दल का एक कार्यकर्ता. सज्जाद हुसैन/एएफपी/गैटी इमेजिस

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22 अगस्त 2021 को सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के 25 साल तस्लीम अली को, जो चूड़ी बेचता है, मध्य प्रदेश के इंदौर में मुसलमान होने की वजह से हिंदुओं की भीड़ बेरहमी से पीट रही है. तस्लीम की काफी मशक्कत के बाद एफआईआर दर्ज कर आरोपियों को गिरफ्तार किया गया. लेकिन अगले ही दिन एक आरोपी की नाबालिग नाबालिग बेटी की शिकायत पर तस्लीम को गिरफ्तार कर लिया गया. उस पर यौन उत्पीड़न, जालसाजी और आपराधिक धमकी जैसी भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 की धाराओं के तहत आरोप लगाया गया. मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर पीठ ने कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं होने और गवाहों के लिए तस्लीम को खतरा नहीं मानते हुए करीब साढ़े तीन महीने बाद जमानत दे दी. जबकि उस पर हमला करने वालों को काफी पहले ही जमानत मिल गई थी. तस्लीम की गिरफ्तारी ने न सिर्फ उसके परिवार को आर्थिक और भावनात्मक रूप से तोड़ कर रख दिया बल्कि काम करने के लिए शहर और राज्य से बाहर जाने वाले उसके गांव के चूड़ियां बेचने वाले अन्य गरीब मुस्लिमों में भी डर पैदा कर दिया.

लंबे समय से हिंदुत्ववादी संगठन और उनके नेता मुसलमानों के व्यवसायों के आर्थिक बहिष्कार का आह्वान करते रहे हैं. मुसलमानों के प्रति अत्याचार का यह कोई इकलौता उदाहरण नहीं है. हिंदू धर्म के ठेकेदारों द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की सार्वजनिक घटनाएं अब इक्का-दुक्का नहीं रही बल्कि यह एक बड़े पैटर्न मे बदलती जा रही हैं जिसमें मुसलमानों पर हिंसा करने के कारण जबरन धर्म परिवर्तन, गोहत्या और लव जिहाद आदि हो सकते हैं. 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से लिंचिंग में इतनी वृद्धि हुई है कि 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में इन व्यापक घटनाओं पर संज्ञान लेते हुए पूरी तरह से एक खराब धारणा बता कर इनपर लगाम लगाने के लिए कहा. इस तरह की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए शीर्ष अदालत द्वारा दिशा-निर्देश जारी करने के बावजूद मामले आज तक बढ़ रहे हैं.

हालांकि ऐसे मामलों के आधिकारिक आंकड़े आना मुश्किल है क्योंकि 2019 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने लिंचिंग पर डेटा को एक अलग अपराध के रूप में प्रकाशित करने से इनकार कर दिया था क्योंकि गृह मंत्रालय के अनुसार डेटा अविश्वसनीय था. पिछले दिसंबर में सरकार ने संसद को बताया कि एनसीआरबी अब लिंचिंग का अलग से डेटा नहीं रखता है. इन अपराधों की संख्याओं पर नजर रखने वाली हिंदुस्तान टाइम्स द्वार चलाई गई "हेट ट्रैकर" जैसी स्वतंत्र पहल को अप्रत्याशित रूप से बंद कर दिया गया है. हिंसा की खबरें समाचारों में बेहद संक्षिप्त रूप से ही दिखाई जाती हैं जो अक्सर अन्य खबरों की भीड़ में खो जाती हैं. फिर भी ऐसे कुछ स्वतंत्र अध्ययन हैं जिनमें भारत में लींचिग के पैटर्न पर काम किया गया हैं.

धर्मांतरण विरोधी कानूनों, मांस और शराब पर प्रतिबंध जैसे कानूनी की आड़ में अक्सर कुछ हिंदुत्ववादी समूह अति उत्साहित होकर खुद को समाज के नैतिक अगुआ होने का भ्रम पाल लेते हैं. जब कानून का शासन निष्प्रभावी हो जाता है और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर पाता तब यह चंद लोगों को हिंसा और लींचिग करने की छूट जैसी स्थिति पैदा कर देता है. जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने हमेशा अल्पसंख्यकों के साथ होने वाली हिंसा पर चुप्पी बनाए रखी है वहीं बीजेपी नेताओं ने अक्सर लींचिग के अपराधियों का खुला समर्थन किया है. रोजाना होने वाली सार्वजनिक हिंसा हिंदुत्व की राजनीति और देश की एक महत्वपूर्ण विशेषता बन गई हैं. इसका एक उदाहरण कर्नाटक से है जहां 28 सितंबर 2021 को अरबाज आफताब मुल्ला बेलगावी जिले में रेलवे ट्रैक के पास मृत पाए गए थे. आफताब का एक हिंदू महिला के साथ संबंध था और इस रिश्त से नाराज उस महिला के माता-पिता ने एक हिंसक दक्षिणपंथी हिंदू संगठन श्री राम सेना के सदस्यों को पैसे देकर आफताब पर हमला करने के लिए कहा था. हालांकि आफताब के परिवार की गवाही और घटनाओं का क्रम देखने पर साफ पता चलता है कि यह एक सुनियोजित आपराधिक साजिश है फिर भी पुलिस ने शुरू में मामले से संबंधित आईपीसी की सही धारा नहीं लगाई. इसके बजाय एफआईआर में केवल हत्या, सबूतों को नष्ट करने जैसे सामान्य अपराधों से जुड़ी धाराओं का उल्लेख किया गया था. पुलिस ने दावा किया कि आफताब की मौत आत्महत्या से हुई लेकिन उसके चचेरे भाई द्वारा ली गई तस्वीरों ने इससे अलग तस्वीर पेश की. श्री राम सेना के सदस्यों ने आफताब की मौत से खुद को दूर कर लिया लेकिन दो सदस्यों पर हत्या में शामिल होने का आरोप लगाया गया. आखिर में 8 अक्टूबर को दस लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें एक श्री राम सेना का नेता और महिला के माता-पिता शामिल थे. इन गिरफ्तारियों के बाद पुलिस ने मामले में आत्महत्या से इतर सांप्रदायिक दृष्टिकोण से मामले की जांच शुरू की.

हिंदू राष्ट्रवादी संगठन अंतर्धार्मिक संबंधों को तोड़ने के लिए कानूनी और गैर-कानूनी दोनों रास्ते अपनाते हैं. अक्सर महिलाओं को डराया-धमकाया जाता है और हिंदुत्व के रक्षक पुलिस के साथ मिल कर उन जोड़ों को ढूंढते हैं जो साथ में भाग जाते हैं. उदाहरण के लिए, इस साल अप्रैल में हिंदू युवा वाहिनी के सदस्यों ने उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिला अदालत में अपनी शादी का पंजीकरण कराने आए एक अंतर्धार्मिक जोड़े को जबरन रोक कर पुलिस को सौंप दिया. साथ ही मुस्लिम व्यक्ति पर लव जिहाद और महिला के अपहरण का आरोप भी लगाया गया और पुलिस ने उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई करन की जहमत भी नहीं उठाई.

विशाल स्तर पर अच्छी तरह से आपस में जुड़े हुए दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी लोग महिलाओं को जबरन उनके माता-पिता के पास वापस भेज देते हैं और पुरुषों पर धर्मांतरण विरोधी कानून के उल्लंघन आरोप लगाने या उन पर हमला करने और कुछ मामलों में तो हत्या कर देने जैसे कदम उठा लेते हैं. मानवविज्ञानी थॉमस ब्लॉम हेन्सन किताब द लॉ ऑफ फोर्स: द वायलेंट हार्ट ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स में लिखते हैं कि भारत में हिंसा को मुख्य रूप से सांप्रदायिक दंगे, प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच संघर्ष से जोड़ कर देखा जाता है और लिंचिग में लगातार हो रही वृद्धि की तरफ कम ध्यान दिया जाता है. हेन्सन तर्क देते हैं कि हिंसा का यह रूप भारत में राजनीतिक जीवन का एक नियमित और अभिन्न अंग बन गया है. वह लिखते है, "हिंसा ध्यान आकर्षित करने और लोगों को उकसाने का अल्टीमेट तरीका है. यह संचार के सबसे शक्तिशाली रूपों में से एक है, यह सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्ति का एक पटल है." मोदी के शासनकाल में भारत में गाय की रक्षा के लिए की गई लिंचिंग अल्पसंख्यकों के खिलाफ क्रूर हिंसा का सबसे आम उदाहरण बन गई है. जिसे कई राज्यों में कानूनों बना कर और पहले से मौजूद कानूनों को सख्त करके बढ़ावा दिया गया है. 2019 में मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू होने के बाद से तीन बीजेपी शासित राज्यों- कर्नाटक, हरियाणा और उत्तर प्रदेश- ने अपने गाय संरक्षण कानूनों को सख्त बनाया है. खासकर गायों की रक्षा करने वाले कानूनों ने मामलों को अपने हाथों में लेकर सड़क पर ही निपटा देने के चलन को और बढा दिया है.

एक भड़काने वाले कार्य के रूप में हिंदू बहुसंख्यक समुदाय द्वारा दलितों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक हथियार की तरह लिंचिंग का उपयोग किया जाता है. यूएस की अलग-अलग डेटा संग्रहण और संकट मानचित्रण से जुड़ी परियोजना, आर्म्ड कॉन्फ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डेटा प्रोजेक्ट, के अनुसार लिंचिंग के कई मामलों में अपराधी हिंदू राष्ट्रवादी समूहों जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके सहयोगी संगठनों हिंदू युवा वाहिनी, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद से जुड़े होते हैं.

2016 से 2020 के अंत तक संदिग्ध गोहत्या और खरीद फरोख्त के बाद भीड़ की हिंसा के कारण पचास से अधिक लोगों की जान जा चुकी थी. इन हमलों के शिकार ज्यादातर मुस्लिम, दलित और आदिवासी समुदायों से थे जो परंपरागत रूप से अपनी आजीविका के लिए मवेशी, गोमांस और चमड़े के उद्योग पर निर्भर रहते हैं. 2017 में आई इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में गाय से संबंधित 97 प्रतिशत हिंसा मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में हुई और जिनमें मारे गए लोगों में से 84 प्रतिशत मुसलमान थे. 30 प्रतिशत हमलों में पुलिस ने पीड़ितों के खिलाफ ही शिकायत दर्ज की और आंकड़ों से यह भी पता चला कि आधे हमले अफवाहों पर आधारित थे.

सस्ते और आसानी से मिल जाने वाले इंटरनेट के जमाने में सार्वजनिक हिंसा की घटनाओं को लाइव दिखाने का एक अलग ही चलन चल पड़ा है. उदाहरण के लिए सितंबर 2021 में उत्तर प्रदेश के मथुरा में गोरक्षकों ने दो मुस्लिम पुरुषों के पास मांस पाए जाने पर उन पर हमला कर दिया. इस हमले को गोरक्षक दल के सदस्यों ने फेसबुक पर सोलह मिनट तक लाइव दिखाया. जिसमें दोनों पुरुषों को लगभग 15 लोग जमा होकर लात और बार-बार थप्पड़ मार रहे थे. उन्होंने दर्शकों से वीडियो को और लोगों के साथ शेयर करने के लिए भी कहा. मारपीट के बाद भीड़ ने दोनों लोगों और एक हिंदू ड्राइवर को पुलिस के हवाले कर दिया. तीनों आदमियों को उत्तर प्रदेश गोहत्या रोकथाम अधिनियम और आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत पूजा स्थल को अपवित्र करने और मवेशियों को मारने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था.

सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ ही नहीं हिंदुत्ववादी समूहों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन के आरोपों लगाते हुए ईसाइयों पर हमले करना भी आम घटना हो गई है. उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और कर्नाटक सहित भारत के 11 राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानून बनाए गए हैं हालांकि उनमें से सभी अभी तक पूरी तरह कानून का रूप नहीं ले पाए हैं. ईसाई धर्म अपनाने वाले दलितों और आदिवासियों को प्रताड़ित किया जाता है और उन्हें धमकाया जाता है. यहां भी ज्यादातर मामलों में जहां एक तरफ पुलिस अपराधियों के खिलाफ कछुए की चाल से कदम उठाती है तो वहीं हिंसा के पीड़ितों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने में बिलकुल देरी नहीं करती.

3 अक्टूबर 2021 को उत्तराखंड के रुड़की में रविवार की प्राथना के दौरान 200 से अधिक बीजेपी, बजरंग दल और विहिप के सदस्यों और समर्थकों ने एक चर्च पर हमला कर दिया था. भीड़ ने चर्च में काम करने वालों पर हमला किया, एक व्यक्ति को गंभीर रूप से घायल किया और चर्च की संपत्ति को नष्ट कर दिया. हमलावरों में से एक ने एक महिला का यौन उत्पीड़न भी किया. विडंबना यह है कि जबरन धर्मांतरण का आरोप लगाते हुए एक शिकायत के आधार पर पीड़ितों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर दी गई जिसके बाद से पीड़ित डर और अलगाव में जीने को मजबूर हो गए हैं. पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की एक रिपोर्ट के अनुसार नवंबर तक कर्नाटक में ईसाइयों के खिलाफ हिंसा की कम से कम 29 घटनाएं हुईं. आरएसएस की सफलता काफी हद तक हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों के उकसाने और नियंत्रण करने की उसकी क्षमता पर निर्भर करती है.

राजनीतिक वैज्ञानिक क्रिस्तोफ जाफ्रलो अपनी किताब मोदीज इंडिया : हिंदू नेशनलिज्म एंड द राइज ऑफ एथनिक डेमोक्रेसी में इन दक्षिणपंथी समूहों के उदय के बारे में बताते हैं. निचली जातियों की बढ़ती लामबंदी और उत्थान को रोकने के लिए आरएसएस ने निचली जातियों का समर्थन हासिल करने की कोशिश करते हुए उन्हें खुद को हिंदू और मुसलमानों के विरोधी मानने के लिए शिक्षित किया. और बजरंग दल, जिसके सदस्यों को 1984 में आरएसएस के उच्च विभागों से अलग कर दिया गया था, को हिंदुओं को लामबंद करने और आक्रामक सेना बनाने के लिए प्रेरित किया. उस आक्रमक सेना का काम लगभग वैसा ही है जैसा इतिहासकार आर्थर रोसेनबर्ग ने आधुनिक फासीवाद के लिए विशेष रणनीति के रूप में वर्णित किया है. यह सेना आक्रामक दल की तरह ही कुलीन लोगों का एक दस्ता है जो दक्षिणपंथ के कल्पित दुश्मनों पर धावा बोल देते हैं. और शासक वर्ग के साथ मिल कर दंडमुक्त हो कर सत्ता का मजा लेते हुए हिंसा का हिस्सा बन कर आसानी से कानून का उल्लंघन कर पाते हैं जैसा कि इतिहासकार जायरस बानाजी ने यूरोपीय और भारतीय फासीवाद की तुलना में इसका वर्णन किया है.

इस तरह की हिंसा जिस क्रूरता को दर्शाती है उससे पीड़ितों और अल्पसंख्यकों में भय, अपमान, मानसिक सदमा घर कर जाता है. लेकिन अल्पसंख्यकों को लेकर हिंसक रवैया अपनाने और इससे पैदा होने वाली आक्रामकता और भय के अलग ही राजनीतिक फायदे हैं जैसा कि 2014 के बाद से राज्य और आम चुनावों में नजर आ चुका है. यहां सवाल यह नहीं है कि सार्वजनिक हिंसा कानूनी रूप से वैध है या नहीं. हिंसा कोई असामान्य चीज नहीं है बल्कि यह भारत में हाशिए पर जीवन बिताने वाले समुदायों के जीवन जीने का तरीका निर्धारित करती है. हिंसा को सिर्फ और सिर्फ हिंदू धर्म के ठेकेदारों, हिंदूत्ववादी संगठनों के कार्यों और राज्य की इसको लेकर चुप्पी ने वैध बनाया है.

(कारवां अंग्रेजी के जून 2022 अंक में प्रकाशित इस आलेख का हिंदी में अनुवाद अंकिता ने किया है.)