हीरो बनने से नहीं बचेगा लोकतंत्र

इस बार कारवां की कवर स्टोरी इस बात पर केंद्रित है कि किस तरह उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने, जिसमें कांग्रेस की भूमिका सबसे कम रही, भारतीय जनता पार्टी को हराया. इन चुनाव नतीजों से सबसे ज़रूरी सबक यह मिला कि बीजेपी अपने समर्थन आधार को हल्के में नहीं ले सकती. पार्टी ने अपने उच्च जाति के हिंदू वोट को बनाए रखा, लेकिन पार्टी ने मुख्य रूप से उन जातियों के मतदाताओं के बीच बहुत ज्यादा समर्थन खो दिया, जिन्हें प्रशासनिक रूप से अति पिछड़ा वर्ग कहा जाता है.

क्या ये मतदाता बीजेपी से इसलिए दूर चले गए क्योंकि उन्हें शिव भक्त राहुल में अपने विकास की अधिक संभावना दिखी? क्या वे बीजेपी से इसलिए दूर चले गए क्योंकि उन्हें अभय मुद्रा में उठाए गए हाथ से सुरक्षा महसूस हुई, जो कांग्रेस का चुनाव चिन्ह भी है? दोनों ही सवालों का जवाब स्पष्ट रूप से 'नहीं' ही है. उन्होंने भारत की सत्ता संरचना में ज्यादा प्रतिनिधित्व के लिए मतदान किया, एक ऐसा प्रतिनिधित्व जिसका वादा करके बीजेपी ने पिछड़ों को लुभाने की कोशिश की और फिर उसे पूरा करने में नाकाम रही.

उत्तर प्रदेश की जीत से परे, अगर हम नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्ता में दस सालों पर नज़र डालें कि कौन सार्वजनिक रूप से इस वर्ग के साथ खड़ा दिखा? हमने भीमा कोरेगांव में दलितों को पेशवा ब्राह्मणवाद के उस आधार पर सवाल उठाते देखा, जिस पर संघ फलता-फूलता है. हमने उत्तर प्रदेश और दिल्ली के मुसलमानों को, खासकर नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के भेदभावपूर्ण नागरिकता मानदंडों का विरोध करने के लिए इकट्ठा होते देखा और हमने पंजाब और हरियाणा के किसानों को, जिनमें से बड़ी संख्या में सिख थे, मोदी के कृषि सुधारों के अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होते देखा. राहुल गांधी और उनके कार्यकर्ता इस सब में ज़्यादातर समय गायब थे. यहां तक कि जब 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा हुई, तब भी राहुल और कांग्रेस मुसलमानों के बीच जाने में नाकाम रही, जिन्हें राज्य समर्थित हमलों का निशाना बनाया गया. जब राहुल के चुने हुए उम्मीदवार कन्हैया कुमार ने आम चुनाव के दौरान इस निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार किया, तो उन्होंने जो कुछ हुआ था, उसकी निंदा करना तो दूर, उसका ज़िक्र तक नहीं किया.

कारवां की उस रिपोर्ट में जो तर्क दिया गया है, उसे दोहराने की फिलहाल कोई वजह नहीं है. कांग्रेस मुसलमानों और दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा को उसके असल रूप में बताने से डरती है यानी इन समुदायों की पहचान के ख़िलाफ़ एक हमला हो रहा है, जन्म और धार्मिक विश्वास के चलते उनके प्रति लक्षित हमले हो रहे हैं, इसे कहने से पार्टी डरती है. इसके बजाय, राहुल इसे आर्थिक संकट की अभिव्यक्ति के रूप में पेश करना पसंद करते हैं कि बेरोजगार हिंदू युवा अपने हालात के चलते हिंसा में फसते जा रहे हैं. यह एक ऐसा सूत्रीकरण है जो संघ के हिंदू धर्म के नज़रिए की सच्चाई को छुपाता है,