नीतीश कुमार की दुविधा

बिहार शरीफ में रामनवमी की हिंसा बिहार के लिए क्या इशारा करती है

रामनवमी के एक दिन बाद 31 मार्च 2023 को एक जुलूस के दौरान हिंसा भड़कने के बाद बिहारशरीफ में पुलिस. पीटीआई
15 May, 2023

नालंदा जिले के एक कस्बे बिहार शरीफ में, जहां मैं पला-बढ़ा, हिंसा कैसे शुरू हुई, इसका कोई आधिकारिक बयान अब तक मौजूद नहीं है. राज्य पुलिस के मुताबिक, 30 मार्च को बिहार शरीफ से महज छह घंटे की दूरी पर बसे सासाराम में रामनवमी के जुलूस के दौरान हिंदू-मुस्लिम युवकों के बीच तीखी नोकझोंक के चलते सांप्रदायिक हिंसा हुई. कई निवासियों ने मुझे बताया कि अगले दिन, शहर के दक्षिणी छोर के एक मुस्लिम इलाके, गगन देवन में तलवारों से लैस कुछ मदमस्त लोगों के सड़क किनारे एक कब्रिस्तान में घुस जाने पर बिहार शरीफ में झगड़ा शुरू हो गया. इसके बाद हुई हिंसा में, एक हिंदू भीड़ ने गगन देवन से कुछ गज की दूरी पर मुरारपुर में एक मस्जिद और एक सदी पुराने मदरसे में आग लगा दी. कई दुकानों, इमारतों और गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया. इस हिंसा में कई लोग घायल हुए थे और एक हिंदू व्यक्ति के मारे जाने की सूचना मिली थी जो अन्य पिछड़ा वर्ग से था.

1998 के बाद से शायद ही अब तक बिहार शरीफ ने कभी सांप्रदायिक हिंसा देखी हो. इस शहर की आबादी चार लाख है, जिसमें 33 प्रतिशत मुस्लिम है. कभी यह मगध साम्राज्य की गद्दी हुआ करती थी जिसने तीन सौ से ज्यादा सालों तक उपमहाद्वीप पर शासन किया था. साम्राज्य बौद्ध धर्म को राजनीतिक संरक्षण देने के लिए जाना जाता था. बिहार शरीफ के दलित मूल निवासी के रूप में, मैं मुस्लिम और हिंदू त्योहारों को मनाते हुए बड़ा हुआ हूं. हम हिंदू मंदिरों और दो मजारों में दर्शन के लिए जाया करते जो क्रमश: एक हिंदू पहलवान बाबा मनीराम और एक मुस्लिम सूफी बाबा मखधूम को समर्पित थे. मनीराम की दरगाह पर लंगोटा और मखधूम की दरगाह पर रोशनी का मेला नामक सालाना जलसा हुआ करता था. हिंदू और मुसलमान बिना किसी परहेज के इन त्योहारों में शामिल होते थे. जुलूस में ज्यादातर लाठी से मार्शल आर्ट की नुमाइश होती- यह लंगोटा की एक पहचान थी, जो गलियों से होकर गुजरता था. मुझे याद नहीं है कि रामनवमी इतने बड़े पैमाने पर मनाई जाती थी और बेशक इसमें तलवार, भाला या किसी तरह का हथियार शामिल नहीं होता था.

1998 में दुर्गा पूजा के आखिरी दिन मूर्ति विसर्जन के दौरान, कुछ हिंदुओं ने गगन देवन से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर कटरापार के मुस्लिम इलाकों में भड़काऊ नारे लगाए. इसने इलाके में सांप्रदायिक हिंसा की सबसे बुरी घटनाओं में से एक को जन्म दिया. मैं कटरापार से कुछ गज की दूरी पर ही रहता था. मुझे याद है कि उसके बाद के दिनों में रोजमर्रा की जिंदगी में रुकावट आ गई थी, स्कूल बंद कर दिए गए, कर्फ्यू और पथराव हुआ. खासकर मजदूर वर्ग के इन मुस्लिम इलाकों के साथ रिश्तों को सुधारने में हमें लगभग एक दशक लग गया. इसमें दोस्ती और कारोबार को फिर से पटरी पर लाना भी शामिल था. एक पूरी पीढ़ी कटरापार में दलितों, बहुजनों और मुसलमानों के बीच करीबी रिश्तों को जाने बिना ही बड़ी हुई.

 घटना के बाद प्रशासन ने रिहायशी इलाकों से किसी भी तरह के जुलूस निकालने पर रोक लगा दी. लगभग दो दशक तक धार्मिक उत्सव प्रदर्शन, भव्यता या सामुदायिक भागीदारी की चीज नहीं रह गए थे. उस अवधि के दौरान, अगर आपने इनमें से किसी भी त्यौहार के बारे में और जिस तरह से वे हुआ करते थे, किसी स्थानीय व्यक्ति से पूछा होता तो वह शायद पुरानी यादों को जाहिर करता, लेकिन शायद राहत भी महसूस करता क्योंकि इससे सांप्रदायिक हिंसा के फिर से भड़क उठने की गुंजाइश कम हो गई थी. छोटे पैमानों पर जुलूस उन सड़कों से निकाले जाते जो बहुत कम आबादी वाले थे. उन्हें उस समय बायपास सड़कों के जरिए मोड़ दिया जाता था. लेकिन, पिछले 25 सालों में शहर के विस्तार के साथ, रांची रोड, जो गगन देवन की ओर जाती है, अब एक हलचल भरा रिहाइशी इलाका है. दो नए मंदिर यहां और बन गए हैं. और देश की राजनीति नाटकीय ढंग से बदल गई है.

दुर्गा पूजा के आखिरी दिन मूर्ति विसर्जन के दौरान कटरापार के मुस्लिम मोहल्लों में कुछ हिंदुओं ने भड़काऊ नारे लगाए और बिहार शरीफ में साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी. पीटीआई

2014 में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सत्ता में आने के बाद से, हिंदू त्योहारों को हथियार बना दिया गया है और देश के हिंदू बहुमत को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके अन्य गुटों, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल की स्थानीय इकाइयों द्वारा व्यवस्थित रूप से साधा जाता है. मुझे याद है कि 2015 के बाद से विहिप ने बिहार शरीफ में लंगोटा और रामनवमी के जुलूस निकालने वाले स्थानीय समूहों को फिर से संगठित किया और उन्हें अपने बैनर तले लाया. अब इस जुलूस में वह स्थानीय स्वाद नहीं है और स्थानीय समुदाय से इसके लिए चंदा भी नहीं लिया जाता है.

जुलाई 2022 में, मैं रांची रोड पर विहिप द्वारा आयोजित लंगोटा जुलूस में गया. वहां ऐसा कुछ नहीं था जैसा मुझे अपने बचपन का याद था. पहले, हर इलाके की अपनी मंडली हुआ करती जो दरगाहों की ओर चलती थी. ढोल की थाप पर मर्द लाठी से युद्ध-कला का कौशल दिखाया करते, तब डीजे के शोर पर तलवारें भांजते, नाचते मर्द नहीं हुआ करते थे. तब गाने भक्ति भाव वाले हुआ करते थे, सांप्रदायिक और गाली-गलौज वाले नहीं. अब, हर जगह विहिप के झंडे थे और जुलूस में कोई मुसलमान नहीं था. एक स्थानीय व्यक्ति ने मुझे बताया था कि दो महीने पहले बजरंग दल ने रामनवमी के लिए करीब सौ तलवारें बांटी थीं. रैली में बजरंग दल के जिलाध्यक्ष कुंदन कुमार ने जमकर नारेबाजी की. "अभी तो केवल झांकी है, काशी मथुरा बाकी है." यह एक लोकप्रिय नारे का थोड़ा संशोधित संस्करण था जिसका अर्थ है कि हिंदू उग्रवादी काशी और मथुरा में नए मंदिरों के निर्माण के लिए मस्जिदों को तोड़ना चाहते हैं जैसे उन्होंने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया.

इस साल, स्थानीय बजरंग दल इकाई और बिहार शरीफ के विधायक सुनील कुमार, जुलूस के आयोजन में शामिल थे. इसके शुरू होने के हफ्तों पहले, सुनील कुमार के नाम वाले होर्डिंग शहर भर में इस नारे के साथ लगाए गए थे, "हम धर्म का झंडा फहराएंगे, हम हर घर को अयोध्या बनाएंगे."

आगामी 2024 के आम चुनावों में बीजेपी के लिए वोट जुटाने, केंद्रीय गृह मंत्री, अमित शाह 2 अप्रैल को सासाराम और बिहारशरीफ के करीब हिसुआ शहर में रैलियां करने वाले थे. उन्होंने हिंसा के बाद सासाराम में रैली रद्द कर दी. हिसुआ में, शाह ने घोषणा की कि बीजेपी सरकार "दंगाइयों को उलटा लटका सकती है", शेखी बघारते हुए उन्होंने कहा कि सरकार ने धारा 370 को हटाकर "जम्मू और कश्मीर को भारत का हिस्सा बना दिया" और अयोध्या में "आसमान से भी ऊंचा" राम मंदिर का निर्माण किया है. शाह ने कहा, "मैं आपको एक बात बताता हूं : 2024 में मोदीजी को पूर्ण बहुमत दें, बिहार से लोकसभा में 40 में से 40 सीटें दें" और राज्य विधानसभा चुनाव में "2025 में बीजेपी की सरकार बनाएं".

2 अप्रैल को हिसुआ में एक रैली के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (बीच में) बिहार बीजेपी अध्यक्ष सम्राट चौधरी (दाएं) और बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता विजय कुमार सिन्हा (बाएं) और अन्य के साथ. एएनआई

उनके किसी भी चुनावी मुद्दे का जनता की शिक्षा, स्वास्थ्य या रोजगार से कोई लेना-देना नहीं था. इसके बजाए, बीजेपी के केंद्रीय और स्थानीय नेतृत्व ने अपने सार्वजनिक बयानों के जरिए, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के तहत बिहार में हिंदू उत्पीड़न के नेरेटिव को स्थापित करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया. सरकार समर्थक मीडिया ने इस प्रचार को बढ़ावा ही दिया. हिंसा थमने के बाद भी, बीजेपी नेतृत्व के कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि हिंदू डर के मारे बाहर जा रहे हैं. 5 अप्रैल को, बीजेपी विधायक और बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता विजय कुमार सिन्हा ने पत्रकारों से कहा कि पुलिस हिंदुओं के खिलाफ "एकतरफा कार्रवाई" कर रही है और राज्य सरकार मुस्लिम "तुष्टीकरण की राजनीति" कर रही है. सिन्हा ने कहा, "हिंदुओं को लूटा गया, उन पर पथराव किया गया और उनके ही खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जा रही है." उन्होंने बिहार शरीफ में हिंदू भीड़ के बारे में कुछ नहीं कहा जिसने एक मस्जिद और एक मदरसे को आग लगा दी थी.

 बेशक, काम करने का यह तरीका नया नहीं है. बीजेपी ने चुनावी रणनीति बतौर पश्चिम बंगाल और केरल सरकारों के खिलाफ इसी रणनीति का इस्तेमाल किया. बिहार को अब तक बख्शा गया था, शायद इसलिए कि अगस्त 2022 तक बीजेपी राज्य सरकार में गठबंधन सहयोगी थी, फिर नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से नाता तोड़ लिया था. लेकिन हाल की घटनाओं से पता चलता है कि आगे चलकर, बीजेपी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की अपनी आजमाई हुई राजनीतिक रणनीति का इस्तेमाल करने और हिंदुओं को निशाना बनाने का हौवा खड़ा करने से नहीं हिचकेगी. कैबिनेट मंत्री गिरिराज सिंह ने हिंसा के तुरंत बाद एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि "बिहार ने बंगाल की तर्ज पर अपनी यात्रा शुरू कर दी है. हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की जा रही है. वे गोलियों से मारे जा रहे हैं.” सिंह ने कुमार को कहा : "मुख्यमंत्री महोदय, क्या आपको यह नहीं कहना चाहिए कि आप केवल मुसलमानों के मुख्यमंत्री हैं, कि केवल हिंदुओं को नालंदा छोड़ देना चाहिए.''

बिहार की मौजूदा गठबंधन सरकार, जिसमें राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल-यूनाइटेड, कांग्रेस और तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां शामिल हैं, ने जिलों की पुलिस और नागरिक प्रशासन का इस्तेमाल करके हिंसा पर काबू पाया. आरोप-प्रत्यारोप का खेल तुरंत शुरू हो गया. बीजेपी के सांसद और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने तर्क दिया कि यह महागठबंधन ही था जिसने मुसलमानों को रामनवमी के जुलूस पर पथराव करने और हिंदुओं को पलायन करने के लिए मजबूर किया. सिन्हा, 11 अन्य बीजेपी सदस्यों के साथ, हिंदू मृतक के परिवार से मिलने के लिए बिहार शरीफ गए, लेकिन जिला प्रशासन ने उन्हें वापस लौटा दिया. “आप [हिंदुओं] को झूठे मामलों में फंसा रहे हैं. किसी के भी घर पर हथियार रख दे रहे हैं ताकि उसे जेल भेज सकें,” सिन्हा ने 8 अप्रैल को पत्रकारों से कहा. उस दिन बजरंग दल के कुंदन कुमार को बिहार पुलिस ने हिंसा का "मास्टरमाइंड" होने के आरोप में गिरफ्तार किया था. बीजेपी राज्य नेतृत्व तब से केंद्रीय आतंकवाद विरोधी एजेंसी, राष्ट्रीय जांच एजेंसी, जो शाह के अधीन काम करती है, द्वारा हिंसा की जांच की मांग कर रहा है.

 गृह मामलों के राज्य मंत्री और बीजेपी सदस्य नित्यानंद राय ने सुझाव दिया कि बिहार सरकार ने शाह को सासाराम जाने से रोकने के लिए हिंसा होने दी, ताकि धारा 144 लगाई जा सके. राय ने पत्रकारों से कहा कि चूंकि एक अप्रैल तक पाबंदियां लागू थीं, इसलिए पार्टी को शाह का दौरा रद्द करना पड़ा. केंद्रीय गृह मंत्री, जिन्हें केंद्रीय आंतरिक खुफिया एजेंसियां रिपोर्ट करती हैं, के दौरे को रोकने के लिए राज्य सरकार भला सांप्रदायिक हिंसा की साजिश रच सकती है. लेकिन बीजेपी के मतदाताओं को राजनीतिक संदेश देना जारी रहा कि हिंसा महागठबंधन की साजिश थी.

 हिंसा पर नीतीश कुमार और राजद के तेजस्वी यादव की प्रतिक्रिया तुलनात्मक रूप से मुखर नहीं रही है. हिंसा के एक दिन बाद नीतीश कुमार ने कहा, 'ऐसी घटनाएं पहले नहीं हुई थीं. कई सालों तक सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. ये घटना घाटी है, जरूर कोई ना कोई घचपच किया है”. कुमार ने यह नहीं बताया कि यह कौन हो सकता है. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने तुरंत जवाब दिया कि अगर कुमार मानते हैं कि किसी ने हिंसा की पूर्व योजना बनाई है, तो उन्हें जांच का आदेश देना चाहिए.

हिंसा के पांच दिन बाद जाकर कुमार ने कम साफ तरीके से बीजेपी पर आरोप लगाया. कुमार ने कहा, "उन जगहों में से एक जहां किसी को जाना था, वहां उन्होंने जानबूझकर हिंसा की." "और दूसरा बिहार शरीफ था ..." कुमार ने सुझाव दिया कि बिहार शरीफ को निशाना बनाया गया क्योंकि उन्होंने शहर का नाम रखा था- यह एक गलत दावा था. लेकिन जो निर्विवाद है वह इसके साथ उनका राजनीतिक जुड़ाव है. कुमार यहां से 2000 के दशक के मध्य में सांसद चुने गए थे और यह शहर उनके गृह जिले नालंदा में भी आता है. कुमार ने कहा, "यह सब सोची-समझी साजिश थी. आपको पता होना चाहिए कि दो लोग हैं. एक जो शासन कर रहा है और दूसरा जो सहयोगी है, वह एजेंट है. वे इसे एक साथ कर रहे हैं. आप सही समझे?” उनका इशारा शाह और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी की ओर था जिसने हिंसा के लिए नीतीश कुमार सरकार को जिम्मेदार ठहराया था. यादव ने बीजेपी को "चिंतित" करार देते हुए केवल एक ट्वीट पोस्ट किया क्योंकि वह बिहार में सत्ता में नहीं है. बाद में, पत्रकारों से बात करते हुए, यादव ने माना कि हिंसा पूर्व नियोजित थी, लेकिन बीजेपी या आरएसएस का जिक्र नहीं किया. अब तक कुमार ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति जान पड़ते हैं, जो किसी भी तरह के अस्पष्ट शब्दों में बीजेपी के नेरेटिव का मुकाबला कर सकते हैं.

हालांकि, दोनों ने हिंदू जुलूसों में हथियारों की मौजूदगी का कोई जिक्र नहीं किया. यह लाज-शर्म बताती है कि वे बीजेपी का विरोध करते हुए भी हिंदू विरोधी दिखने से कतराते हैं. बाद में कुमार और यादव दोनों ने इफ्तार पार्टियों की मेजबानी की, शायद मुस्लिम मतदाताओं के बीच नुकसान की कुछ भरपाई करने के लिए. यह विचार कि हिंदू बहुमत के सामाजिक-धार्मिक सिद्धांत को प्रशासनिक दखलंदाजी के जरिए रोका जा सकता है और महागठबंधन की ओर से एक संतुलनकारी कार्य मन की इच्छा होगी. कुछ भी हो, कुमार की मध्यमार्गी राजनीति ने राज्य में जातिवादी और सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत करने में योगदान दिया है. ओवैसी ने तर्क दिया कि जहां सांप्रदायिक हिंसा ने बीजेपी के लिए काम किया, वहीं महागठबंधन को अपने मूल मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में भी फायदा हुआ. लेकिन ऐसा फायदा केवल अस्थायी हो सकता है, क्योंकि बहुसंख्यक हिंदू आबादी, मुसलमानों के प्रति अपनी बढ़ती दुश्मनी के साथ, आखिरकार बीजेपी में एक रक्षक की तलाश करेगी.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव 31 मार्च को पटना में बजट सत्र के दौरान बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता विजय कुमार सिन्हा और बीजेपी विधायकों के बीच पहुंचे. पीटीआई

बीजेपी ने कुमार के मातहत राज्य पुलिस पर हमला करने के मौके बतौर भी हिंसा का इस्तेमाल किया है. इसने पार्टी को सुशासन के लिए कुमार की प्रतिष्ठा को निशाना बनाने की इजाजत दी- उन्हें राज्य में कानून और व्यवस्था में सुधार के लिए श्रेय दिया जाता है- और उन्हें एक अक्षम प्रशासक के रूप में पेश किया. शाह ने हिसुआ में अपने समर्थकों से यह कहकर अपना भाषण शुरू किया कि उन्होंने स्थिति का जायजा लेने के लिए मुख्यमंत्री के बजाए राज्यपाल को फोन किया. “मुझे बताओ, जिस सरकार में जंगलराज के नेता लालू प्रसाद यादव हैं, क्या वह राज्य में शांति ला सकती है?” शाह ने अपने समर्थकों से पूछा. अतीत में, लालू यादव ने बीजेपी को यह कहकर इस तरह के अपशब्दों का प्रतिकार किया था कि वह सामाजिक न्याय से संबंधित राजनीति को जंगल राज से जोड़ती है क्योंकि पार्टी मौलिक रूप से आरक्षण के खिलाफ थी. जदयू के प्रदेश अध्यक्ष ललन सिंह ने राज्यपाल के संवैधानिक पद का अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने पर शाह की निंदा की. शाह के बाद, सम्राट चौधरी, जायसवाल और सिन्हा ने अपनी पुलिस के जरिए हिंदुओं के खिलाफ कार्रवाई में पक्षपाती होने के लिए कुमार पर हमला जारी रखा.

यह दिखाने के लिए कि गठबंधन सहयोगी के रूप में बीजेपी के साथ गठबंधन करते हुए भी उन्होंने कभी भी सांप्रदायिकता से समझौता नहीं किया, कुमार ने कहा कि उन्होंने एक केंद्रीय मंत्री के बेटे को सांप्रदायिक हिंसा की एक घटना में गिरफ्तार किया था. वह 2018 की एक घटना का जिक्र कर रहे थे जब भागलपुर में सांप्रदायिक हिंसा भड़क गई थी. तत्कालीन मोदी सरकार में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग में राज्य मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे को हिंसा में एक आरोपी बतौर दर्ज किया गया था. उस समय, कुमार हिंदू मतदाताओं से संभावित प्रतिक्रिया की परवाह किए बिना हिंसा के पैमाने को काबू में करने और बजरंग दल के लोगों सहित दंगाइयों को गिरफ्तार करने के लिए खड़े थे. लेकिन साथ ही, सालों से उनके प्रशासन ने धर्म के नाम पर सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ने दिया है.

बिहार शरीफ में हिंसा से एक दिन पहले, कुमार ने पटना के एक प्रसिद्ध चौक, डाक बंगला में रामनवमी के जुलूस का स्वागत किया. बीजेपी विधायक नितिन नबीन ने रामनवमी अभिनंदन समारोह का आयोजन किया था जिसमें बीजेपी के केंद्रीय और राज्य के नेताओं ने शिरकत की थी. उनमें चौधरी, सिन्हा, गिरिराज सिंह, पूर्व मंत्री रविशंकर प्रसाद और बिहार के राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ अर्लेकर सहित अन्य नेता शामिल थे. यह कोई राज्य सरकार का कार्यक्रम नहीं था, बल्कि बीजेपी द्वारा आयोजित एक मंच था, फिर भी कुमार इसमें मौजूद थे, शायद हिंदू विरोधी न दिखने के लिए. यह सामाजिक दबाव है जिसे कुमार और यादव नजरअंदाज नहीं कर सकते और उन्हें इससे लड़ने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी. इसके बजाए, कुमार ने खुद को हिंदू हठधर्मिता, जिससे बीजेपी अपनी ताकत पाती है, को बढ़ावा देने का आरोप स्वीकारा है.

डाक बांग्ला कार्यक्रम को रामनवमी शोभायात्रा अभिनंदन समिति द्वारा बढ़ावा दिया गया था, जो एक दशक पहले गठित एक धार्मिक परिषद थी. आयोजन से पहले, परिषद के प्रमुख नबीन ने एक स्थानीय टेलीविजन चैनल, कशिश न्यूज से परिषद के उद्देश्य के बारे में बात की: “हमने 2010 में परिषद की शुरुआत की थी … यात्रा आठ जुलूसों के साथ शुरू हुई थी, आज यह विभिन्न क्षेत्रों से 50 अलग-अलग जुलूसों तक बढ़ गई है. डाक बंगला चौराहे पर आपको रामभक्तों की सुनामी देखने को मिलेगी. यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि हर साल जुलूसों की संख्या में इजाफा होता है. कुमार ने पिछले दो सालों में अपनी उपस्थिति के साथ एक राज्य उत्सव के रूप में इसके निर्माण को वैध बनाया है.

2014 से, कुमार ने हिंदू मंदिरों में जाने और अनुष्ठानों और हिंदू त्योहारों में भाग लेने का एक कार्यक्रम बनाया है. अगस्त 2020 में, उन्हीं की पार्टी ने पौराणिक रानी की जन्मस्थली माने जाने वाले सीतामढ़ी में सीता मंदिर के निर्माण की मांग उठाई थी. मोदी द्वारा अयोध्या में राम मंदिर के लिए "भूमिपूजन" करने के दो सप्ताह बाद जदयू ने प्रधानमंत्री को लिखा था. गर्मियों के दौरान गायब हो जाने वाली फल्गु नदी को साल भर उपलब्ध कराने के लिए कुमार के प्रशासन ने रबर बांध बनाने के लिए 334 करोड़ रुपए खर्च किए. सितंबर 2022 में इसके उद्घाटन पर, कुमार ने कहा कि उन्होंने "भक्तों की सुविधा के लिए" नियमित रूप से पानी उपलब्ध कराया.

कुमार की मध्यमार्गी नीतियां उनके लिए हिंदुओं के सिद्धांतों के खिलाफ कार्रवाई करना कठिन बना देती हैं. कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि कुमार सभी धर्मों के लिए एक बराबर नजरिया पेश कर रहे हैं, लेकिन यह एक हारी हुई लड़ाई है. जब हिंदू त्योहारों को साफ तौर पर मुसलमानों को लुभाने के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, तो यह कुमार के लिए बेहतर होगा कि वह हिंदुत्व को कुंद करने के लिए एक सामाजिक-सुधार अभियान चलाएं या अपने राजनीतिक जीवन में धर्म को पूरी तरह से रोकें. इसके बजाए, हम बिहार में राजनीतिक दलों को उपदेशकों और हिंदू दक्षिणपंथ से जुड़े लोगों को खुश करने के लिए खुद को साधते हुए देखते हैं.

नगर निगम की नवनिर्वाचित महापौर और जदयू नेता मनोज तांती की पत्नी अनीता देवी, एक धर्मगुरु की मंडली में शामिल हुईं. उन्होंने अपने संवैधानिक पद को कमजोर करते हुए, ब्राह्मण उपदेशक के पैर छुए. उपदेशक ने अन्य बातों के साथ घोषणा की, कि लोगों को बिना सवाल किए भगवद गीता के श्लोकों को स्वीकार करना चाहिए. चुनावों से पहले, देवी को एक स्थानीय व्यवसायी प्रफुल्ल पटेल का समर्थन प्राप्त था, जिन्होंने जुलाई 2022 में विहिप के जुलूस का खर्चा उठाया था.

अगस्त 2022 में आपसी दरार के बाद से, बीजेपी यह पता लगाने की कोशिश कर रही है कि नीतीश कुमार को कैसे संभालना है. शाह तब से अब तक बिहार के तीन दौरे कर चुके हैं. सितंबर में पूर्णिया के मुस्लिम-बहुल निर्वाचन क्षेत्र की अपनी यात्रा के दौरान, उन्होंने पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्रियों जीतन राम मांझी और लालू प्रसाद यादव सहित अपने करीबी सहयोगियों के साथ "विश्वासघात" करने के लिए कुमार की आलोचना की. शाह ने कुमार पर कोई विचारधारा नहीं होने और सत्ता में बने रहने के लिए पाला बदलने का आरोप लगाया. इस साल फरवरी में, भले ही कुमार ने अपने गठबंधन सहयोगियों को एक संबोधन में इन आरोपों को निराधार बताया, शाह, जो एक बार फिर बिहार में थे, ने कुमार पर एक और हमला किया. उन्होंने दावा किया कि कुमार ने विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की महत्वाकांक्षा के लिए पाला बदल लिया था. शाह ने कहा, "हम आपको वापस नहीं लेंगे. नीतीश कुमार के लिए बीजेपी का हर दरवाजा बंद कर दिया गया है.”

भाषण के बाद से, कुमार ने दो बार राजनीतिक स्टैंड लिया जो बीजेपी के साथ जुड़ा हुआ था. मार्च के पहले हफ्ते में, कुमार ने अपने राज्य में बिहारियों पर कथित हमलों के लिए तमिलनाडु पुलिस से स्पष्टीकरण मांगा, यहां तक कि तेजस्वी यादव ने भी सार्वजनिक रूप से कहा था कि यह आरोप बीजेपी द्वारा फैलाई गई फर्जी खबर है. ऐसे ही एक मौके पर, कम से कम सोलह राजनीतिक दल बीजेपी सरकार द्वारा कांग्रेस के राहुल गांधी की संसद सदस्यता खत्म करने के फैसले के खिलाफ एकसाथ खड़े थे. लेकिन जबकि कुमार की पार्टी कांग्रेस के साथ खड़ी थी, उन्होंने तब भी कोई निजी एकजुटता दिखाने से परहेज किया. उन्होंने कहा, ''अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ मामला दर्ज किया जाता है तो मैं कोई टिप्पणी नहीं करता. मैं यहां पिछले 17 साल से सरकार चला रहा हूं लेकिन कभी किसी आपराधिक मामले की जांच में दखल नहीं दिया.'' बीजेपी को शांत करने में इससे बहुत कम असर पडा. पार्टी के राज्य नेतृत्व ने बिगड़ती कानून-व्यवस्था के लिए कुमार पर हमला करना जारी रखा, हालांकि कुमार के शासन में बिहार में बेहतर कानून-व्यवस्था की स्थिति एक स्पष्ट परिवर्तन है जिसे कोई भी स्थानीय खारिज नहीं कर सकता है.

2 अप्रैल को शाह ने एक बार फिर घोषणा की कि बीजेपी कुमार को वापस नहीं लेगी, लेकिन इस बार उन्होंने साफ किया कि "चुनाव के नतीजों के बाद." अगले दिन, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री, एमके स्टालिन ने राजनीतिक नेताओं के साथ बैठक की, जिन्होंने सरकारी नौकरियों और शिक्षा में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण बढ़ाने के साथ-साथ निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसे सामाजिक-न्याय के एजेंडे का समर्थन किया. पार्टी नेताओं तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव सहित 15 राज्यों के बाईस राजनीतिक दलों ने वर्चुअल रूप से बैठक में भाग लिया. कुमार और उनकी पार्टी इसमें गैरहाजिर थी.

बीजेपी सांसद सुशील मोदी ने, जो दशकों तक बिहार बीजेपी का चेहरा बने रहे, 4 अप्रैल को कहा कि कुमार की प्रधानमंत्री बनने की कोई भी महत्वाकांक्षा अव्यावहारिक है. "कांग्रेस उन्हें क्यों स्वीकार करेगी?" उन्होंने कहा, 'अगर वे उन्हें स्वीकार करते तो वे राहुल की छवि बनाने की कोशिश क्यों कर रहे होते? पार्टी कोई भी हो, चाहे आम आदमी पार्टी हो या तृणमूल कांग्रेस, कोई भी दूसरे क्षेत्रीय नेता को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं करेगा. आपकी पार्टी [नीतीश की] के पास बिहार में विधानसभा के 44 सदस्य हैं. अरविन्द केजरीवाल की दो राज्यों में सरकार है. ममता बनर्जी आपके उलट अपने दम पर सरकार चला रही हैं, आपकी सरकार एक बैसाखी के सहारे चल रही है [राजद की ओर इशारा करते हुए]. मैं आपसे पूछता हूं कि दिल्ली की राजनीति में क्या जेडीयू का कोई स्टैंड है?”

कुमार के खिलाफ बयानबाजी के होते हुए भी, बीजेपी की रणनीति से पता चलता है कि बाहरी रुख के बावजूद वे चिंतित हैं और शायद सुलह की उम्मीद भी कर रहे हैं. पूर्व सांसद और जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) के अध्यक्ष राजेश रंजन, जिन्हें पप्पू यादव के नाम से भी जाना जाता है, ने हाल ही में कहा था कि " नीतीश के बिना, बिहार में पूर्ण बहुमत में आने के लिए बीजेपी को कई जन्म लगेंगे." बिहार की राजनीति में कुमार का इतना प्रभाव है कि उन्हें अनदेखा करना बीजेपी के साथ-साथ आरजेडी के लिए भी मुश्किल है, कुमार ने 2017 में बीजेपी में शामिल होने के लिए राजद के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया था. अब तक, बीजेपी ने कुमार के साथ दोतरफा रवैया अपनाया है : साथ ही एक अक्षम, मुस्लिम-तुष्टिकरण, विश्वासघाती और अवसरवादी नेता के रूप में उनकी प्रतिष्ठा को धूमिल करते हुए उन्हें और जनता को यह समझाने की कोशिश की कि उन्होंने हारने वाले पक्ष को चुना है.

कुमार ने शाह की इस घोषणा कि बीजेपी के दरवाजे उनके लिए बंद हैं, का जवाब दिया. "वह किस दरवाजे की बात करते हैं?" उन्होंने पत्रकारों से पूछा. "क्या उनके पास दरवाजा भी है? जब मैं उनके पक्ष में गया, तो कितने लोग थे और जब से मैं उनके साथ आया हूं, तब से कितने हैं?” 2015 के राज्य विधानसभा चुनाव में जब कुमार ने बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा तो बीजेपी की सीटें 53 से बढ़कर 2020 में 74 हो गईं. कुमार ने फरवरी 2023 की रैली में महागठबंधन के नेताओं को आश्वासन दिया था कि वह साथ नहीं छोड़ेंगे, लेकिन उन्होंने पहले भी इस तरह के दावे किए हैं.

कुमार की ओर से उनके तटस्थ दिखने वाले राजनीतिक रुख के पीछे दो संभावनाएं हो सकती हैं. एक तो यह कि वह बीजेपी के लिए अपने महत्व से वाकिफ हैं और फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. इस बीच, वह लगातार झुकते जा रहे हैं. उदाहरण के लिए, एक बार बीजेपी के एक मंत्री के बेटे के खिलाफ उन्होंने जो कड़ा रुख अपनाया था, उसके बारे में बोलकर वे यह संकेत दे रहे होंगे कि अब भी ऐसी ही स्थिति हो सकती है. बीजेपी चेतावनी को नजरअंदाज नहीं कर सकती. दूसरी संभावना यह है कि कुमार महागठबंधन के साथ रहेंगे और सांप्रदायिकता से समझौता नहीं करने वाले राजनेता के रूप में अपनी प्रतिष्ठा को बहाल करने के लिए काम कर रहे हैं. लेकिन यह कई राष्ट्रीय या स्थानीय राजनीतिक मुद्दों पर उनके उदासीन रुख की व्याख्या नहीं करता है. मुख्यमंत्री के रूप में केवल अपनी कार्यकारी शक्ति की मदद पर भरोसा करके कुमार लंबे समय तक बीजेपी, विहिप और बजरंग दल के बहुपक्षीय हमलों से नहीं बच सकते. उन्हें तर्कसंगतता का समर्थन करना चाहिए और खुद को धार्मिक मामलों से अलग करना चाहिए.

पप्पू यादव ने हिंसा के बाद एक साक्षात्कार में कुमार के लिए एक उपाय सुझाया. उन्होंने कहा, 'सिर्फ सामाजिक न्याय, जातिगत जनगणना और सामाजिक समीकरण ही हिंदू-मुस्लिम का मुकाबला कर सकते हैं.' दरअसल, महागठबंधन को जनता के बीच जटिल सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों को दिशा देने की जरूरत है, जिसका वे प्रचार कर रहे हैं. उन्हें नरम हिंदुत्व के साथ खिलवाड़ करने के बजाए जमीन पर सामाजिक-आध्यात्मिक आंदोलन चलाने के लिए तर्कसंगत, धर्मनिरपेक्ष और जाति-विरोधी ताकतों को जुटाना चाहिए. यह हिंदू धर्म के भीतर वर्गीकृत असमानता पर सवाल उठाने का समय है, जो हिंदुओं में इतनी नफरत पैदा करती है.