फरवरी 2019 के पहले सप्ताह में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद ने विवादित बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन को लोक सभा चुनाव तक अस्थायी रूप से स्थगित करने की घोषणा की है. महीनों तक, आरएसएस और वीएचपी नेताओं ने राम जन्मभूमि आंदोलन को पुनर्जीवित करने की कोशिश की और इसे आम चुनावों के लिए बीजेपी का केंद्रीय चुनावी मुद्दा बना दिया. यहां तक कि फैसला सुनाने में “विलंब” करने के लिए संघ परिवार ने सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भी हमला किया था.
लेकिन लगता है कि आंदोलन को स्थगित करने का निर्णय सुप्रीम कोर्ट का सम्मान और देश में कानून और व्यवस्था की मर्यादा बनाए रखने के लिए नहीं लिया गया बल्कि कांग्रेस पार्टी के करीबी माने जाने वाले धार्मिक नेताओं के दबाव में संघ को यह फैसला करना पड़ा है.
चार महीने पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कानूनी प्रक्रिया को दरकिनार कर अध्यादेश के जरिए राम मंदिर निर्माण की वकालत की थी. उस महीने वीएचपी के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने 31 जनवरी और 1 फरवरी को होने वाली दो दिवसीय धर्म संसद में राम मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा करने का दावा किया था. यह धर्म संसद उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में जारी अर्ध-कुंभ मेले के अवसर पर आयोजित की गई थी. लेकिन इसमें 1000 से भी कम धार्मिक नेता शामिल हुए. इनमें अधिकांश संघ परिवार के करीबी नेता थे. धर्म संसद में मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा नहीं की गई.
धर्म संसद के एक दिन पहले, द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने घोषणा की कि 21 फरवरी को अयोध्या में मार्च निकाल कर मंदिर निर्माण की आधारशिला रखेंगे. कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह के आध्यात्मिक गुरु सरस्वती, पार्टी के करीबी माने जाते हैं.
ऐसा लग रहा है कि सरस्वती की घोषणा ने वीएचपी की हालत ‘आगे कुआं और पीछे खाई’ वाली बना दी है. शंकराचार्य के कथन के बाद कुंभ मेले को आयोजित करने वाले 13 अखाड़ों के संगठन, अखिल भारत अखाड़ा परिषद ने भी धर्म संसद का बहिष्कार करने की घोषणा कर डाली.
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