किसान आंदोलन : सरकार दोहरा रही वही खेल जो पहले ले जा चुका है पंजाब को बर्बादी की ओर

शाहिद तांत्रे

26 जनवरी की घटनाओं की दक्षिणपंथी व्याख्या में एक जाना-पहचाना पैटर्न दिखाई पड़ता है यानी दिल्ली पहुंचे किसानों को उग्रवादी, खालिस्तानी और राष्ट्र-विरोधी बताना. संभवतः सभी के लिए अभिनेता दीप सिद्धू जैसे लोगों पर लाल किले पर प्रदर्शनकारियों को झंडा फहराने के लिए उकसाने का आरोप लगाना सरल है और किसान नेताओं ने भी दावा किया है कि चरमपंथी तत्वों ने आंदोलन पर कब्जा कर लिया था. लेकिन उस दिन जो भी हुआ वह अप्रत्याशित नहीं था. सरकार और किसान यूनियनों के नेताओं को निश्चित रूप से ऐसा कुछ होने की संभावना रही होगी और लेकिन उन्होंने इससे निपटने के लिए कुछ नहीं किया.

सितंबर में कृषि कानूनों के पारित होने के बाद से ही इन कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे. ये विरोध पहले डेढ़ महीने तक पंजाब में जारी रहे और फिर नवंबर के आखिर तक ये दिल्ली के बाहरी इलाकों तक पहुंच गए. इस लंबी अवधि में सरकार से बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला और आंदोलनकारी बेसब्र होने लगे. आंशिक रूप से आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ाए रखने के लिए किसान नेताओं ने गणतंत्र दिवस पर एक ऐतिहासिक ट्रैक्टर मार्च की योजना बनाई थी. किसान नेताओं और दिल्ली पुलिस के बीच पहले कुछ दिनों तक रैली के मार्ग को लेकर सहमति नहीं बन सकी. आखिरकार रैली से मात्र दो दिन पहले दोनों पक्ष रैली को दिल्ली के बाहरी इलाकों तक सीमित रखा गया. इस पर कोई हैरानी नहीं कि यह फैसला कार्यकर्ताओं की उन अपेक्षाओं से बहुत कम था जो उन्हें किसान यूनियन के नेताओं ने दिखाई थी.

24 जनवरी की रात से आंदोलन में युवा किसानों के बीच की बेचैनी खुले तौर पर सामने आने लगी. आंदोलन का नेतृत्व कर रहे प्रमुख यूनियनों में से एक किसान मजदूर संघर्ष समिति के महासचिव सरवन सिंह पंढेर ने 25 जनवरी की दोपहर को घोषणा की कि उनके किसान निर्दिष्ट मार्ग का पालन नहीं करेंगे. पंढेर के भाषण के बाद यह तय था कि बड़ी संख्या में आंदोलनकारी निर्धारित मार्ग को नहीं मानेंगे. इस आशंका के बाबत हाथ में 15 घंटे रहने के बावजूद यह हैरान करने वाली बात है कि दिल्ली पुलिस ने इसके लिए तैयार नहीं की.

26 जनवरी को घटी घटनाओं ने यह दिखा दिया कि किसान नेतृत्व ने आंदोलनकारियों की भावनाओं को व्यक्त तो किया लेकिन वह उन्हें नियंत्रित नहीं रख सका. आंदोलन को करीब से देखने वाले लोगों को इसका आभास पहले से ही था. यहां तक ​​कि आंदोलन स्थल का दिल्ली के बाहरी इलाके में होना भी अकास्मत है और यह नौजवान काडर के त्वरित फैसलों का नतीजा है. जब किसान यूनियनों ने इस आंदोलन को पंजाब से बाहर ले जाना शुरू किया तब नेताओं के पास दिल्ली आने की कोई स्पष्ट योजना नहीं थी. पंजाब और हरियाणा की सीमा पार करते समय शंभू गांव जैसे स्थानों पर पुलिस द्वारा रास्ता रोकने पर कई आंदोलनकारियों ने मामले को अपने हाथों में ले लिया और नाकाबंदी को तोड़ दिया. कोई आंदोलन जितना लंबे समय तक स्वीकार्य समाधान के बिना चलता है, उतना ही अधिक उसके नियंत्रण के बाहर हो जाने आशंका रहती है.

ऐसी स्थितियों में आंदोलनकारियों की आवाज की प्रतिध्वनि सिख धर्म के मूल्यों में होगी. यह आंदोलन की प्रकृति से स्पष्ट था. हालांकि इसका नेतृत्व वामपंथी कर रहे हैं लेकिन आंदोलनकारी किसान की बड़ी संख्या सिख है और आंदोलन की मांगे निरंतर रूप से पहचान की राजनीति में व्यक्त होती है. 18वीं शताब्दी के सिख जनरल बघेल सिंह की तस्वीर को गणतंत्र दिवस की रैली में पंजाब से आए हर दूसरे ट्रेक्टर पर लगाया गया था. बघेल सिंह ने दिल्ली में मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय की घेराबंदी की थी और उन पर जीत हासिल की थी. उन्होंने शहर में आयात होने वाले सामानों पर कर लगाया और इस कर को शहर के अधिकांश प्रमुख गुरुद्वारों के निर्माण करने के लिए उपयोग किया.

दिल्ली की घेराबंदी की कल्पना कुछ हद तक लाल किले में जो कुछ हुआ उसके बार में बताती है लेकिन इस बात को ध्यान रखना जरूरी कि घेराबंदी सीधे तौर पर दिल्ली के निवासियों के खिलाफ नहीं कि गई थी. जो वास्तव में हुआ और जो धारणा बनाई जा रही है दोनों के बीच बहुत अंतर है. निजी संपत्तियों और नागरिकों पर कोई हमला नहीं किया गया. डीटीसी बस को नुकसान इसलिए हुआ क्योंकि पुलिस ने जानबूझकर इसे प्रदर्शनकारियों के रास्ते में खड़ा किया था. इन तथ्यों से हट कर केवल लाल किले पर ही कुछ घटनाएं घटी जहां कुछ प्रदर्शनकारियों ने अपना झंडा लगाया और पुलिस पर हमला किया. लेकिन लाल किले पर उन लोगों द्वारा की गई आक्रामक मूर्खता के बावजूद भी भारतीय ध्वज 'तिरंगे' की श्रेष्ठता का ध्यान रखा गया और सिख ध्वज निशान साहिब को तिरंगे के नीचे फहराया गया था. आतंकवाद तो दूर की बात, यह खालिस्तान का भी झंडा नहीं है.

जिस समय देश में हिंदू राष्ट्र का कल्ट हमारे ऊपर मंडरा रहा हो उसी वक्त सिख प्रतीकों बड़े स्तर दिखाई पड़ना बेतुका लगता है. नए संसद भवन के भूमिपूजन से लेकर अयोध्या में बाबरी मस्जिद स्थल पर राम मंदिर निर्माण के भूमिपूजन में प्रधानमंत्री की उपस्थित के चलते हम हिंदू प्रतीकों से सराबोर हैं.

जब हिंदुत्व का खुले तौर पर समर्थन करने वाले, दूसरे धर्मों के प्रतीकों से समस्या महसूस करते हैं तो तब इस सरकार का बहुसंख्यकवाद और स्पष्ट होता हो जाता है. जब तथाकथित उदारवादी भी उपरोक्त दलील देते हैं तब यह धारणा व्यक्त होती है कि धर्मनिरपेक्षता सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए है और तब सर्व धर्म सम्भाव का व्यवहारिक अर्थ सिर्फ यही बचता है कि कुछ धर्म अन्य धर्मों से ऊपर हैं.

देश के बाकी लोग आंदोलन में दिखे प्रतीकों के प्रति अपनी अज्ञानता का हवाला दे सकते हैं लेकिन 1980 के दशक से पंजाब के मुद्दों को लेकर सक्रिय रहे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल जैसे राष्ट्र सुरक्षा से जुड़े लोगों से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती. सब जानते हुए, यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि जिस दिन लाल किले का परिकात्मक रूप से महत्वपूर्ण स्थान होता है और जब रैली में गुटबाजी के कारण लोगों के बिखर कर स्मारक तक पहुंचने की पर्याप्त चेतावनी दी गई थी, तब लाल किले में सुरक्षा कड़ी क्यों नहीं की गई.

रैली से एक दिन पहले मीडिया ने दिल्ली पुलिस के सूत्रों के हवाले से खबर दी थी कि पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) और खालिस्तानी संगठनों से जुड़े शरारती तत्व ट्रैक्टर रैली को अपने नियंत्रण में ले सकते हैं. उन्होंने जोर देकर कहा था कि "एक बड़ी साजिश रची गई है." तब क्या हमें ऐसा मान लेना चाहिए कि दिल्ली पुलिस और भारतीय सुरक्षा तंत्र को इस षडयंत्र की जानकारी थी और उन्होंने ऐसा होने दिया?

गणतंत्र दिवस के दिन घटी इन घटनाओं के बाद अभिनेता दीप सिद्धू इस पूरे मामले के केंद्र में रहा और रैली को गलत दिशा देने में उसकी भूमिका भी थी. हम जानते हैं कि सांसद सनी देओल के करीबी होने के चलते उसने राजनीति में प्रवेश किया है लेकिन वह शायद ही विचारक है. तब से, सिद्धू ने सार्वजनिक रूप से मार्टिन लूथर किंग से लेकर रूढ़िवादी सिख समूह दमदमी टकसाल के प्रमुख जरनैल सिंह भिंडरांवाले तक के कथनों के एक बेतुके मिश्रण का प्रयोग भावात्मक समर्थन हासिल करने के लिए किया है. ऐसा करने से उसे कई युवा आंदोलनकारियों का समर्थन भी मिला है क्योंकि किसान नेतृत्व इस युवा वर्ग के असंतोष और बेसब्री को नियंत्रित करने में असफल रहा है.

सिद्धू जैसे लोगों के सहारे सरकार फिर से खालिस्तानी जैसे धारणाओं को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है. कारवां के हाल ही में प्रकाशित एक लेख में उल्लेखित किया गया है कि सिख फॉर जस्टिस संगठन, जिसे पंजाब में कोई समर्थन नहीं है, को एक आतंकवादी संगठन घोषित किया गया है.
हालांकि एसएफजे स्पष्ट अलगाववादी उद्देश्य है लेकिन इसका आतंक से कोई संबंध नहीं है. लेकिन आतंकवादी संगठन घोषित होने के बाद इसने वह प्रसिद्धि हासिल कर ली है जो इसके प्रभाव से कहीं ज्यादा है.

इस बीच राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने विरोध प्रदर्शनों को लेकर दीप सिद्धू के साथ-साथ भिंडरांवाले के भतीजे जसबीर सिंह रोडे को भी नोटिस भेजा है. इससे दक्षिणपंथी लोगों को एक और अच्छा मुद्दा मिल गया है लेकिन 1980 के दशक में स्वर्ण मंदिर की घेराबंदी के लिए हुए ऑपरेशन ब्लैक थंडर पर ट्रिब्यून के हालिया लेख में अतिवादियों के साथ वर्तमान सरकार के संबंधों के बारे में बताया गया है.

इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व संयुक्त निदेशक एमके धर की 2005 में प्रकाशित पुस्तक ओपन सीक्रेट का हवाला देते हुए लेख में कहा गया कि ऑपरेशन से महज दो महीने पहले आईबी ने अकाल तख्त के तत्कालीन जत्थेदार और जरनैल सिंह भिंडरांवाले के भतीजे जसबीर सिंह रोडे को एके-47 की आपूर्ति शुरू कर दी थी. रोडे आईबी के ऑपरेटिव थे और वह सिखों में सर्वोच्च स्थान के जत्थेदार थे. उनका जिम्मा आतंकियों के बीच रहकर अपनी 15 सदस्यीय टीम के साथ उन पर काबू पाना था. धर पंजाब में आईबी का संचालन कर रहे थे. एनएसए डोभाल उस समय संस्था के संयुक्त निदेशक थे और तभी से उन्हें इस ऑपरेशन का श्रेय दिया जाता है. कम से कम यह कहना उचित है कि रोडे और डोभाल दोनों ही ऐसी परिस्थितियों को लेकर अच्छी तरह से अभ्यस्त हैं.

यह एक पुरानी और खतरनाक चाल है जिसे केंद्र सरकार पहले भी चल चुकी है और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग या रॉ के पूर्व विशेष सचि, जीबीएस सिद्धू ने अपनी किताब खालिस्तान कॉन्सपिरेसी में इसे अच्छी तरह से उल्लेखित भी किया है. किताब में सिद्धू ने 1980 के दशक की शुरुआत में इंदिरा गांधी की सरकार की चालबाजी की फर्स्ट हैंड जानकारी दी है. उन्होंने बताया कि भिंडरांवाले के उस हिंसक आंदोलन के मजबूत होने से पहले नरम रुख रखने वाले अकाली नेतृत्व के साथ समझौता करने के पर्याप्त अवसर थे लेकिन सरकार आखिरी मौके पर अपनी प्रतिबद्धताओं से पीछे हट गई.

तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर निशाना साधने के लिए दक्षिणपंथी समीक्षकों ने इस किताब का जोर-शोर से प्रचार किया लेकिन अब आंदोलनकारियों को खालिस्तानी बताकर देश को पुनः उस ही रास्ते पर ले जाया जा रहा है. अकालियों द्वारा 1980 के दशक की शुरुआत में स्वर्ण मंदिर के कीर्तन का लाइव प्रसारण, नदी के पानी का बराबर बटवारा और चंडीगढ़ जैसे मुद्दों पर किया गया आंदोलन इस स्वभाव का नहीं था जो दशकों तक उग्रवाद का रूप धारण कर ले और जिस कारण पंजाब और देश के बाकी हिस्सों को इतना नुकसान हुआ.

डोभाल जैसे लोगों के जरिए यह सरकार उस ही तरह की चालबाजी कर रही है जो पंजाब को बर्बादी की ओर ले गया था. अब से दो दशक पीछे देखने पर स्थिति ऐसा नहीं होनी चाहिए. ऐसा न हो कि दो दशक बाद हम इन गलत कानूनों पर सरकार के जिद्दी रुख से चुकाई गई कीमत का आंकलन करे रहे हों.