आज जब चिली, कैटेलोनिया, ब्रिटेन, फ्रांस, इराक, लेबनान और हांगकांग की सड़कें प्रदर्शनों के शोर से गूंज रहीं हैं और नई पीढ़ी धरती के साथ की गई ज्यादतियों के कारण गुस्से में है, इस बीच मैं आप लोगों को एक ऐसी जगह की कहानी सुनाने के लिए माफी चाहती हूं जहां की सड़कों पर कुछ अलग ही घट रहा है. एक ऐसा वक्त था जब हिंदुस्तान की सड़कों पर मुझे फख्र हुआ करता था. मुझे आज भी याद है कि सालों पहले मैंने लिखा था कि “असहमति” हिंदुस्तान का दुनिया को सबसे उम्दा निर्यात है. लेकिन आज जब धरती का पश्चिमी कोना प्रदर्शनों की धमक से कांप रहा है, हमारे यहां सामाजिक और पर्यावरण न्याय के लिए पूंजीवाद और साम्राज्यवाद विरोधी महान आंदोलन-बड़े बड़े बांधों, निजीकरण और नदियों व जंगलों की लूट के खिलाफ, बड़े पैमाने पर विस्थापन, मूलनिवासियों की उनकी जमीन से बेदखली के खिलाफ मार्च—जैसे सुन्न पड़ गए हैं. इस साल 17 सितंबर को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने 69वें जन्मदिन के मौके पर खुद को पानी से लबालब सरदार सरोवर बांध तोहफे में दिया, उसी समय उस बांध के खिलाफ 30 सालों से भी ज्यादा अरसे तक लोहा लेने वाले हजारों–हजार ग्रामीण लोग अपने घरों को जल समाधि लेते देख रहे थे. यह एक बड़ा प्रतीकात्मक क्षण था.
हिंदुस्तान में आज एक भूतिया साया दिन दहाड़े हमारे ऊपर पसरता जा रहा है. खतरा इतना बड़ा है कि खुद हमारे लिए इसके आकार, बदलती शक्ल, गंभीरता और अलग-अलग रूपों को समझ पाना और बताना मुश्किल से मुश्किल-तर होता जा रहा है. इसके असली रूप को बताने में खतरा यह है कि यह कहीं अतिश्योक्ति न लगने लगे. और इसलिए विश्वसनीयता और शिष्टाचार का ख्याल रखते हुए हम इस पिशाच को पाले जा रहे हैं जबकि इसने अपने दांत हमारे अंदर गड़ा रखे हैं—हम उसके बालों को संवारते हैं और उसके मुंह से टपकती लार साफ करते हैं ताकि यह शरीफ लोगों के सामने पेश करने काबिल हो जाए. हिंदुस्तान दुनिया की सबसे खराब या खतरनाक जगह नहीं है, कम से कम अभी तो नहीं ही है, लेकिन यह क्या हो सकता था और यह क्या बन गया, इसके बीच जो कुछ है वही सबसे ज्यादा दुखद है.
फिलहाल कश्मीर घाटी के 70 लाख लोग, जिनमें से अधिकांश लोग हिंदुस्तान के नागरिक नहीं रहना चाहते और जिन्होंने दशकों तक आत्मनिर्णय के अधिकार की लड़ाई लड़ी, वे अब डिजिटल बंदिश और दुनिया की सबसे सघन सैन्य उपस्थिति में लॉकडाउन के हालात में जी रहे हैं. साथ ही, देश के पूर्वोत्तर राज्य असम में 20 लाख लोग जो भारत का हिस्सा बनना चाहते है, अपना नाम राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनआरसी) में दर्ज न पाकर बेवतन करार दिए जाने के खतरे का सामना कर रहे हैं. हिंदुस्तानी सरकार ने एनआरसी को पूरे देश में लागू करने का अपना इरादा जाहिर कर दिया है. इसके लिए कानून बनाया जा रहा है. इससे अभूतपूर्व स्तर पर लोगों की बेवतनी होगी.
पश्चिमी मुल्कों के अमीर लोग संभावित जलवायु आपदा के मद्देनजर अपने लिए इंतजाम करने में लगे हैं. ये लोग बंकर बना कर साफ पानी और खाना इकट्ठा कर रहे हैं. गरीब मुल्कों में (दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद, हिंदुस्तान शर्मनाक हद तक अब भी गरीब और भूखा है) अलग ही तरह के इंतजाम किए जा रहे हैं. 5 अगस्त 2019 को हिंदुस्तान सरकार ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया. कब्जे की यह कार्रवाई हिंदुस्तान के गहराते जल संकट से जुड़ी है और अन्य चीजों के अलावा, भारत कश्मीर घाटी से निकलने वाली नदियों को फौरन ही अपने कब्जे में कर लेना चाहता है. एनआरसी नागरिकों की सोपान वाली व्यवस्था का निर्माण करेगी जिसमें कुछ नागरिकों के पास बाकी नागरिकों की तुलना में ज्यादा अधिकार होंगे. यह भी एक तरह से संसाधनों की कमी वाले वक्त की पूर्व तैयारी ही है. हन्ना अरेंट ने कहा था कि नागरिकता अधिकार पाने का अधिकार है.
पर्यावरण संकट का पहला शिकार ‘आजादी, भाईचारा और बराबरी’ का विचार बनेगा. सच तो यह है कि यह बन भी चुका है. मैं कोशिश करूंगी कि विस्तार से बता पाऊं कि क्या हो रहा है और हिंदुस्तान ने इस आधुनिक संकट को हल करने का कैसा आधुनिक इंतजाम किया है. इस इंतजाम की जड़ें हमारे इतिहास के खतरनाक और घिनौने तंतु से जुड़ीं हैं.
समावेश की हिंसा और बहिष्कार की हिंसा उस ऐंठन की अग्रदूत है जो हिंदुस्तान की नीव को हिला सकती है और दुनिया में इसकी पहचान और इसके मायने को नया अर्थ दे सकती है. हिंदुस्तान का संविधान देश को धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणतंत्र कहता है. हम “धर्मनिरपेक्षता” को दुनिया से जरा अलग तरीके से परिभाषित करते हैं. हमारे लिए इसके मायने हैं कि कानून के सामने सभी धर्म बराबर हैं. लेकिन व्यवहार में हिंदुस्तान न कभी धर्मनिरपेक्ष था और न कभी समाजवादी. इसने हमेशा से ऊंची जातियों के हिंदू राज्य की तरह काम किया. लेकिन धर्मनिरपेक्षता का दिखावा ही सही, यह एक ऐसा तकाजा है जो हिंदुस्तान का हिंदुस्तान होना मुमकिन बनाता है. यह ढोंग हमारी सबसे अच्छी चीज है. अगर यह ढोंग भी नहीं रहेगा तो हिंदुस्तान मिट जाएगा.
मई 2019 में, आम चुनाव में दूसरी बार जीतने के बाद भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घमंड से कहा था कि कोई नेता या राजनीतिक दल अपने चुनाव प्रचार में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द इस्तेमाल करने की हिम्मत नहीं कर पाया. मोदी ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता का टैंक खाली हो गया है. तो अब यह आधिकारिक बात है कि हिंदुस्तान खाली टैंक से चल रहा है, और हम लोग बड़ी देर बाद पाखंड को संजोना सीख रहे हैं. क्योंकि जब धर्मनिरपेक्षता इतिहास बन जाएगी तब हम लोग कम से कम उसके दिखावे को बीते दिनों के अदब-तहजीब की मानिंद याद कर सकेंगे.
असल में हिंदुस्तान एक देश नहीं है. यह एक महाद्वीप है. यूरोप की तुलना में यहां कई सारी भाषाएं (बोलियों को छोड़ कर, आखरी गिनती तक 780 भाषाएं), कई सारी राष्ट्रीयताएं और उप-राष्ट्रीयताएं, कई आदिवासी समुदाय और धर्म हैं. जरा सोचिए कि तब क्या होगा जब यह विविधता का महान सागर, यह नाजुक, तुनक-सा, सामाजिक ताना-बाना अचानक एक हिंदू श्रेष्ठातावादी संगठन के जरिए चलाया जाने लगेगा जो एक राष्ट्र, एक भाषा, एक धर्म और एक संविधान पर यकीन रखता है.
मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की बात कर रही हूं जिसकी स्थापना 1925 में हुई थी. जो भारतीय जनता पार्टी का मातृ संगठन है. आरएसएस के संस्थापक और शुरुआती विचारक जर्मन और इटालियन फासीवाद से प्रभावित लोग थे. ये लोग हिंदुस्तान के मुसलमानों को जर्मनी के यहूदियों की तरह मानते थे और उनका यकीन था कि हिंदू हिंदुस्तान में मुसलमानों की कोई जगह नहीं है. आज आरएसएस, गिरगिट की तरह रंग बदल कर, यह दावा करता है कि वह इस विचार को नहीं मानता लेकिन इसकी नजर में मुसलमान पक्के धोखेबाज “बाहरी” लोग हैं. यह विचार बीजेपी के नेताओं के सार्वजनिक भाषणों में बार-बार सुनाई देता है और दंगा-फसाद करने वाली भीड़ के बीच यह नारा बार-बार गूंजता है. मिसाल के लिए इनका एक नारा है: “मुसलमानों का एक स्थान, कब्रिस्तान या पाकिस्तान.” इस साल अक्टूबर में आरएसएस के सर्वोच्च नेता मोहन भागवत ने कहा, “हिंदुस्तान एक हिंदू राष्ट्र है और इस बात पर कोई समझौता नहीं हो सकता.”
यह विचार हिंदुस्तान से संबंधित तमाम खूबसूरत बातों को तेजाब में बदल देता है.
यह दिखाना कि इस युगांतकारी क्रांति में आखिरकार हिंदू सदियों तक उन पर हुए मुस्लिम शासकों के जुल्मों का अंत कर रहे हैं, आरएसएस के छद्म इतिहास प्रोजेक्ट का हिस्सा है. सच तो यह है कि लाखों-लाख भारतीय मुस्लिम उन जातियों के लोगों के वंशज हैं जो क्रूर जातिवादी प्रथा से बचने के लिए मुसलमान बन गए थे. धर्मांतरण की यही घबराहट 1920 के दशक में आरएसएस के पैदा होने की वजह बनी.
नाजी जर्मनी अपनी सोच को एक महाद्वीप में लागू करना चाहता था लेकिन आरएसएस शासित हिंदुस्तान उससे उल्टी दिशा में चल रहा है. यहां एक महाद्वीप सिकुड़ कर देश बन जाना चाहता है. नहीं, यह तो एक देश को एक प्रांत जितना बनाना चाहता है. एक आदिम, सजातीय धार्मिक प्रांत. यह अकल्पनीय हिंसक प्रक्रिया बनती जा रही है, एक तरह का स्लो-मोशन वाला राजनीतिक विखंडन जिससे निकलने वाली रेडियोधर्मिता ने अपने चारों ओर की सब चीजों को प्रभावित करना शुरू कर दिया है. यह ख्याल अपनी मौत खुद मर जाएगा इस पर कोई शक नहीं, लेकिन सवाल है कि किस-किस को और क्या-क्या अपने साथ लेकर मरेगा.
किसी अन्य श्रेष्ठातावाती और दुनिया भर में बढ़ रहे नव-नाजी समूहों के पास आरएसएस जितना ढांचा नहीं है. आरएसएस कहता है कि देशभर में उसकी 57 हजार शाखाएं हैं और 6 लाख से अधिक समर्पित हथियारबंद “स्वयंसेवक” हैं. इसके स्कूलों में लाखों बच्चे पढ़ते हैं, इसका अपना चिकित्सीय मिशन है, मजदूर संगठन है, किसान संगठन है, मीडिया है और औरतों का संगठन है. हाल ही में संघ ने घोषणा की थी कि वह भारतीय सेना में भर्ती होने के इच्छुक लोगों के लिए ट्रेनिंग स्कूल खोलेगा. इसके भगवा ध्वज के नीचे ऐसे अनेक नए-नए उग्र दक्षिणपंथी संगठनों का मेला लगा गया है जिन्हें मिलाकर संघ परिवार कहा जाता है. ये संगठन, जिन्हें शैल कंपनियों का राजनीतिक रूप कहा जा सकता है, अल्पसंख्यकों पर अत्यंत हिंसक हमलों के जिम्मेदार हैं, जिनके नतीजे में पिछले सालों में इतने हजारों लोग कत्ल किए गए कि उनकी गिनती तक मुहैया नहीं है. इनकी मुख्य रणनीति, हिंसा, सांप्रदायिक दंगे भड़काना, और छद्म-देशभक्ति के झंडे उठाकर हमले करना है. यह भगवा अभियान का केंद्रीय काम है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ताउम्र आरएसएस के सदस्य रहे. मोदी आरएसएस का अविष्कार हैं. हालांकि वह ब्राह्मण नहीं हैं लेकिन उन्होंने अन्य किसी के मुकाबले इस संगठन को हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा ताकतवर बना दिया है और अब वह इस संगठन का सबसे शानदार अध्याय लिखने के करीब हैं. मोदी के सत्ता में आने के पीछे की कहानी उबा देने की हद तक बार-बार दोहराई जा चुकी है लेकिन जिस तरह इस कहानी को अधिकारिक रूप से भुला देने की कोशिश हो रही है, इसलिए इसे दोहराना एक जिम्मेदारी है.
मोदी का राजनीतिक कैरियर अमेरिका में 9/11 के हमलों के कुछ हफ्तों बाद अक्टूबर 2001 में शुरू हुआ. बीजेपी ने गुजरात के निर्वाचित मुख्यमंत्री को हटाकर मोदी को उनकी जगह पर नियुक्त किया. उस वक्त वह विधानसभा के निर्वाचित सदस्य तक नहीं थे. उनके पहले कार्यकाल के पांच महीनों के भीतर एक बर्बर लेकिन रहस्यमयी आगजनी हुई जिसमें एक रेल कोच में सवार 59 हिंदू तीर्थयात्रियों को जला दिया गया. इसका “बदला लेने के लिए” हिंदुओं की बेलगाम भीड़ ने सुनियोजित तांडव किया. अंदाजन 2500 लोगों को, जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे, दिनदहाड़े मार डाला गया. इसके तुरंत बाद मोदी ने विधानसभा चुनावों का ऐलान किया और चुनाव जीत गए. कत्लोगारत के बावजूद नहीं बल्कि कत्लोगारत की वजह से मोदी चुनाव जीते थे. वह हिंदू ह्रदय सम्राट बन गए. और इसके बाद वह लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बने. 2014 में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर- यह चुनाव भी मुस्लिम नरसंहार के इर्द-गिर्द ही लड़ा गया लेकिन इस बार इसका केंद्र उत्तर प्रदेश का मुजफ्फरनगर था- रॉयटर समाचार एजेंसी के एक पत्रकार ने जब नरेन्द्र मोदी से पूछा कि क्या उन्हें 2002 का हत्याकांड पर पछतावा है तो नरेन्द्र मोदी ने पूरी ईमानदारी से जवाब दिया, “अगर दुर्घटनावश कोई कुत्ता उनकी गाड़ी के नीचे आकर मर जाता है तो इसका भी उन्हें पछतावा होगा.” यह विशुद्ध, प्रशिक्षित आरएसएस की जुबान थी.
जब मोदी ने हिंदुस्तान के 14वें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली, सिर्फ हिंदू राष्ट्रवादियों ने जश्न नहीं मनाया बल्कि हिंदुस्तान के जाने-माने उद्योगपतियों और कारोबारियों ने भी उनके सत्ता में विराजमान होने का स्वागत किया. हिंदुस्तान के कई उदारवादियों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने उम्मीद और तरक्की की मिसाल के तौर पर इसका जश्न मनाया. इन लोगों को मोदी में भगवा सूट पहनने वाला मसीहा नजर आया जो हिंदुस्तान की प्राचीन और आधुनिक सभ्यता का समिश्रण था. मोदी को हिंदू राष्ट्रवाद और बेलगाम मुक्त बाजार पूंजीवाद के प्रतीक के रूप में देखा गया.
इन सालों में मोदी ने हिंदू राष्ट्रवाद के मोर्चे पर अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन मुक्त व्यापार के मोर्चे पर बुरी तरह पिट गए हैं. गलतियों पर गलतियां कर मोदी ने हिंदुस्तान के अर्थतंत्र को घुटनों के बल गिरा दिया है. 2016 में अपने पहले कार्यकाल में, एक साल पूरा करने के कुछ समय बाद एक दिन अचनाक वह रात को टीवी पर प्रकट हुए और एलान कर दिया कि सभी 500 और 1000 के नोटों पर पाबंदी लगाई जा रही है. ये नोट परिचालन में रही मुद्रा का 80 फीसदी थे. इससे पहले इस स्तर पर कुछ भी नहीं हुआ था. लगता नहीं कि वित्त मंत्री और मुख्य आर्थिक सलाहकार को भरोसे में लिया गया था. मोदी ने इस “नोटबंदी” को भ्रष्टाचार और आतंकवादियों को मिल रही फंडिंग के खिलाफ “सर्जिकल स्ट्राइक” बताया. यह विशुद्ध रूप से छद्म अर्थशास्त्र था, और नीम-हकीम का यह घरेलू नुस्खा एक अरब की जनता पर थोपा गया था. यह फैसला भयानक त्रासदी साबित हुआ. लेकिन कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ, कोई विरोध नहीं हुआ. लोग चुपचाप बैंकों में लाइन लगाकर पुराने नोट जमा करने की अपनी बारी का इंतजार करते रहे. उनके पास और चारा ही क्या था? कोई चिली नहीं, कोई कैटोलोनिया नहीं, कोई लेबनान या हांगकांग नहीं. लगभग रातों-रात नौकरियां गायब हो गईं, निर्माण उद्योग ठप्प पड़ गया और छोटे कारोबार बंद हो गए.
हम जैसे कई लोगों ने बड़ी मासूमियत से मान लिया कि यह मोदी के अंत की शुरुआत है. लेकिन हम लोग गलत साबित हुए. लोगों ने जश्न मनाया. उन्हें दर्द हुआ लेकिन उन्होंने दर्द का मजा लिया. ऐसा लग रहा था जैसे दर्द को मजे में तबदील कर दिया गया है. यह बात मान ली गई कि इस प्रसवपीड़ा के बाद महान और समृद्ध हिंदू हिंदुस्तान का जन्म होगा.
कई अर्थशास्त्रियों ने नोटबंदी और माल एवं सेवा कर (जीएसटी) को, जिसकी घोषणा मोदी ने नोटबंदी के बाद की थी, तेजी से चलती कार के पहियों में गोली मारने जैसा बताया था. मोदी ने जीएसटी को “एक राष्ट्र, एक कर” के वादे का मूर्त रूप बताया. बहुतों ने कहा है कि सरकार द्वारा जारी आर्थिक विकास के आंकड़े, जो पहले ही काफी हताशा जनक हैं, सत्य के साथ प्रयोगों जैसे हैं. इनका कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार है और नोटबंदी ने इस मंदी को और तीखा बनाया है. यहां तक कि सरकार भी मानती है कि बेरोजगारी 45 साल में इस वक्त सबसे ज्यादा है. 2019 के वैश्विक भूख सूचकांक में 117 देशों में हिंदुस्तान 102वें नंबर पर है. इस सूचकांक में नेपाल 73वें, बांग्लादेश 88वें और पाकिस्तान 94वें नंबर पर है.)
लेकिन नोटबंदी केवल आर्थिक मामलों के लिए नहीं थी. यह वफादारी का इम्तिहान थी, मुहब्बत का ऐसा सबूत थी जो महान नेता हम से मांग रहा था. वह पूछ रहा था कि क्या हम लोग उसके पीछे चलने को तैयार हैं, क्या उसे प्यार करते रहेंगे चाहे वह कुछ भी करता रहे? हम इस इम्तेहान में अव्वल दर्जे से पास हो गए. जिस वक्त हम लोगों ने नोटबंदी को कबूल किया उसी वक्त हमने अपने आपको बौना बना लिया और घटिया तानाशाही के आगे घुटने टेक दिए.
लेकिन जो देश के लिए बुरा था वह बीजेपी के लिए अच्छा साबित हुआ. 2016-17 के बीच जब अर्थतंत्र ताश के पत्तों की तरह ढह रहा था बीजेपी दुनिया की सबसे अमीर राजनीतिक पार्टियों की कतार में खड़ी हो रही थी. इसकी कमाई में 81 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. वह अपनी निकटतम प्रतिद्वंदी पार्टी कांग्रेस से लगभग पांच गुना अमीर पार्टी बन गई जिसकी कमाई में 14 फीसदी की गिरावट आई थी. छोटी पार्टियां दिवालिया हो गईं. महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में बीजेपी को जीत मिली और 2019 का आम चुनाव उसके लिए फरारी कार और पुरानी साइकिल की रेस जैसा आसान साबित हुआ. क्योंकि चुनाव पैसे के बूते लड़ा जाता है और सत्ता और पूंजी संचय एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह हैं, तो लगता नहीं कि निकट भविष्य में मुक्त और निष्पक्ष चुनाव होंगे. वाकई नहीं लगता कि नोटबंदी बड़ी गलती थी.
मोदी के दूसरे कार्यकाल में आरएसएस ने अपना खेल पहले से ज्यादा बड़ा बना लिया है. अब यह संगठन एक शेडो स्टेट या समानांतर सरकार नहीं बल्कि असली स्टेट है. दिन-ब-दिन हमारे पास न्यायपालिका, मीडिया, पुलिस, गुप्तचर संस्थाओं में इसके नियंत्रण के उदाहरण सामने आ रहे हैं. चिंताजनक बात है कि यह सशस्त्र बलों में भी एक हद तक प्रभाव रखता है. विदेशी कूटनयिक और राजनयिक इसके नागपुर स्थित मुख्यालय में जाकर बाअदब हाजरी लगाते हैं.
चीजें इस स्तर पर पहुंच गई हैं कि प्रत्यक्ष नियंत्रण जरूरी नहीं रहा है. चार सौ से ज्यादा टीवी समाचार चैनल, लाखों व्हाट्सएप ग्रुप और टिकटॉक वीडियो जनता को धर्मांधता के नशे में डुबाए रखते हैं.
तीन दिन पहले, 9 नवंबर को भारत की सर्वोच्च अदालत ने “दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण” मामले में से एक माने जा रहे केस पर फैसला सुनाया. 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी नेताओं की अगुवाई में हिंदू उपद्रवियों की भीड़ ने चार सौ साल पुरानी पुरानी एक मस्जिद को ढहा दिया था. इनका दावा था कि यह मस्जिद, बाबरी मस्जिद, एक मंदिर के खंडहरों पर बनाई गई थी जो भगवान राम का जन्मस्थान था. मस्जिद ढहाए जाने के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में दो हजार से ज्यादा लोग मारे गए, जिनमें अधिकांश मुसलमान थे. 9 नवंबर के फैसले में अदालत ने कहा कि कानूनी तौर मुस्लिम मस्जिद पर अपना एकमात्र और निरंतर मालिकाना हक साबित नहीं कर पाए. अदालत ने इस स्थान को एक ट्रस्ट के हवाले कर दिया – जिसका गठन बीजेपी सरकार करेगी- और उसे मंदिर बनाने का जिम्मा सौंप दिया. फैसले का विरोध करने वालों की व्यापक स्तर पर गिरफ्तारियां हुईं. वीएचपी ने अपने पुराने बयान से पीछे हटने से इनकार कर दिया है कि अब वह दूसरी मस्जिदों पर दावा करेगी. यह एक अंतहीन अभियान बन सकता है, और क्यों न हो, आखिर सभी लोग कहीं न कहीं से तो आए ही हैं और सभी इमारतें किसी न किसी इमारत के ऊपर ही बनी हैं.
अकूत पैसा जितना प्रभाव-उत्पादक होता है, उसी के बूते पर बीजेपी ने अपने सियासी प्रति-द्वंदियों को अपने में मिलाया, खरीदा, या महज कुचल डाला. इसका सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश और बिहार में दलित और दूसरी अधिकारहीन जातियों के आधार वाली पार्टियों को हुआ है. इन पार्टियों (बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी) के पारंपरिक समर्थकों का बड़ा हिस्सा बीजेपी में शामिल हो गया है. इसे हासिल करने के लिए बीजेपी ने दलित और पिछड़ी जातियों के अंदर मौजूद जाति की ऊंच-नीच का फायदा उठाया है. इन जातियों के भीतर ऊंच-नीच का अपना ही एक ब्रह्मांड है. जाति के बारे में बीजेपी की गहरी और साजिशी समझ और अकूत पैसे ने जातीय राजनीति के पुराने चुनावी समीकरण को पूरी तरह से बदल दिया है.
दलित और पिछड़ी जाति के वोटों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेने के बाद बीजेपी ने शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों के निजीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाया है और वह तेजी के साथ आरक्षण से मिलने वाले फायदों को खत्म कर रही है. वह पिछड़ी जाति के लोगों को रोजगार और शिक्षा संस्थान से बाहर कर रही है. इस बीच राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो से पता चलता है कि दलितों के खिलाफ अत्याचार कई गुना बढ़ गया है, जिसमें उनकी लिंचिंग और खुलेआम पिटाई जैसे अपराध शामिल है. इस साल सितंबर में जब गेट्स फाउंडेशन ने मोदी को हिंदुस्तान को खुले में शौच मुक्त बनाने के लिए सम्मानित किया, उसी वक्त खुले में शौच करने के लिए दो दलित बच्चों को मार डाला गया. किसी प्रधानमंत्री को सफाई के लिए सम्मानित करना जबकि लाखों दलित अभी भी हाथों से मैला उठा रहे हैं, एक भद्दा मजाक है.
धार्मिक अल्पसंख्यकों पर खुले हमलों के अतिरिक्त आज हम जिससे गुजर रहे हैं वह यह है कि वर्ग और जाति युद्ध विकराल रूप ले रहा है.
राजनीतिक पकड़ को मजबूत बनाने के लिए आरएसएस और बीजेपी की एक खास रणनीति लंबे समय तक बड़ी अफरातफरी मचाए रखना है. इन लोगों की रसोई में धीमी आंच पर रखे बहुत से कड़ाहे तैयार है, जिनमें जरूरत पड़ने पर फौरन उबाल लाया जा सकता है.
5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ की उन बुनियादी शर्तों को एकतरफा तौर पर तोड़ दिया जिनकी बिना पर 1947 में जम्मू और कश्मीर की पूर्व रियासत भारत में शामिल होने को तैयार हुई थी. संसद ने जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा और उस खास हैसियत को छीन लिया जिसमें राज्य को अपना संविधान और झंडा रखने का अधिकार भी शामिल था. राज्य का दर्जा छीन लेने का एक मतलब यह भी है कि भारतीय संविधान की धारा 35ए को खत्म कर दिया जाना, जिससे इस पूर्ववर्ती राज्य के लोगों को वे अधिकार और विशेषाधिकार हासिल थे, जो उन्हें अपने राज्य का प्रबंधक बनाते था. इसकी तैयारी के तौर पर सरकार ने वहां पहले से ही मौजूद हजारों सैनिकों के अलावा 50 हजार सैनिक और तैनात कर दिए. 4 अगस्त की रात को कश्मीर घाटी से पर्यटक और तीर्थयात्रियों को निकाल लिया गया. स्कूलों और बाजारों को बंद कर दिया गया. चार हजार से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तार किए गए लोगों में राजनीतिक दलों के नेता, कारोबारी, वकील, जन अधिकार कार्यकर्ता, स्थानीय नेता, छात्र और तीन पूर्व मुख्यमंत्री शामिल हैं. कश्मीर का तमाम राजनीतिक वर्ग, जिसमें हिंदुस्तान के प्रति वफादार लोग भी शामिल हैं, सभी को गिरफ्तार कर लिया गया. आधी रात को इंटरनेट काट दिया गया और टेलीफोन खामोश हो गए.
कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर दिया जाना, पूरे हिंदुस्तान में एनआरसी लागू करने का वायदा, अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंसावशेष में राम मंदिर का निर्माण-आरएसएस और बीजेपी की रसोई में चूल्हों पर चढ़े हुए कड़ाहे हैं. इन्हें बस इतना ही करना है कि फड़फड़ाती भावनाओं को दियासलाई दिखाने के लिए एक दुश्मन को इंगित करना है और जंग के कुत्तों को उस पर छोड़ देना है. इनके कई दुश्मन हैं : पाकिस्तानी जिहादी, कश्मीरी आतंकवादी, बांग्लादेशी “घुसपैठिए” और देश के तकरीबन 20 करोड़ मुसलमान जिन पर किसी भी वक्त पाकिस्तान समर्थक या देशद्रोही गद्दार होने का आरोप लगाया जा सकता है. इनमें से हर ‘कार्ड’ दूसरे का बंधक बना दिया गया है और अक्सर उन्हें एक दूसरे का विकल्प बनाकर पेश किया जाता है. इनका आपस में कुछ लेना-देना नहीं है और ये लोग अपनी जरूरतों, इच्छाओं, विचारधाराओं और परिस्थितियों के मुताबिक एक-दूसरे से दुश्मनी भर नहीं रखते बल्कि एक-दूसरे के अस्तित्व के लिए खतरा भी बन जाते हैं. लेकिन ये सभी चूंकि मुसलमान हैं इसलिए इन सब को एक-दूसरे की करनी का परिणाम भुगतना पड़ता है.
पिछले दो चुनावों में बीजेपी ने दिखा दिया है कि वह बिना मुस्लिम वोटों के संसद में कठोर बहुमत ला सकती है. नतीजतन, भारतीय मुसलमानों को प्रभावी ढंग से वोट की ताकत से वंचित कर दिया गया है और ये लोग राजनीतिक नुमाइंदगी से मेहरूम समुदाय बनते जा रहे हैं जिनकी कहीं कोई आवाज नहीं है. अलग-अलग तरह से किए जाने वाले अघोषित सामाजिक बहिष्कार के चलते आर्थिक रूप से यह समुदाय नीचे खिसकता जा रहा है और सुरक्षा के लिए छोटे-छोटे दडबेनुमा मुहल्लों में सिमटता जा रहा है. भारतीय मुसलमानों के लिए मुख्यधारा के मीडिया में भी जगह नहीं है. अब हम सिर्फ उन मुसलमानों की आवाज टीवी में सुन पाते हैं जिन्हें समाचार कार्यक्रमों में पुरातन इस्लामिक मौलाना के तौर पर बुलाया जाता है जो पहले से ही खराब हालात को और खराब करते हैं. इसके अतिरिक्त, हिंदुस्तान में मुस्लिम समुदाय की एकमात्र स्वीकार्य भाषा यह है कि वे बार-बार सार्वजनिक तौर पर देश के झंडे के प्रति अपनी वफादारी साबित करते रहें. कश्मीरियों को उनके इतिहास और उससे भी ज्यादा उनके भूगोल के लिए सजा दी जा रही है लेकिन उनके पास जिंदा रहने की वजह के तौर पर आजादी का ख्वाब है, लेकिन भारतीय मुसलमानों को तो इस डूबते जहाज पर बने रहना है और उसके सुराखों को भरने में मदद भी करनी है.
(देशद्रोही खलनायकों की एक और श्रेणी है जिसमें मानव अधिकार कार्यकर्ता, वकील, छात्र, शिक्षक और “शहरी नक्सलवादी” आते हैं. इन लोगों को बदनाम किया गया, जेलों में डाला गया और कानूनी मामलों में फंसा दिया गया, इजराइल के जासूसी वाले सॉफ्टवेयर से इनकी जासूसी की गई और कई लोगों की हत्या कर दी गई. लेकिन यह ताशों के एक अलग ही गड्डी है.)
तबरेज अंसारी की लिंचिंग यह समझने के लिए काफी है कि जहाज कितनी बुरी तरह टूट-फूट गया है और इस पर कितना भीतर तक जंग लग गया है. यहां अमेरिका में आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि लिंचिंग का मतलब है अनुष्ठानिक हत्या की नुमाइश, जिसमें किसी आदमी या औरत को इसलिए मारा जाता है कि उनके समुदाय को बताया जा सके कि उनकी जान भीड़ के रहमो-करम पर टिकी है. पुलिस, कानून, सरकार, और यहां तक कि ऐसे लोग भी जो एक मक्खी तक नहीं मार सकते, और जो काम पर जाते हैं और अपने परिवार की देखभाल करते हैं, हत्यारी भीड़ के सहयोगी होते हैं. तबरेज की लिंचिंग इस साल जून में हुई थी. वह लड़का अनाथ था और झारखंड में अपने चाचा-चाची के घर पर पला था. किशोरावस्था में वह पुणे चला गया और वेल्डर की नौकरी करने लगा. 22 साल की उम्र में शादी करने घर वापस आया था. 18 साल की शाइस्ता के साथ शादी के कुछ दिन बाद, तबरेज को भीड़ ने घेर लिया, लैंपपोस्ट से बांधकर घंटों पीटा और उससे युद्ध का नया उद्घोष, “जय श्रीराम” जबरन लगवाया गया. पुलिस ने दूसरे दिन उसे हिरासत में ले लिया लेकिन उसके परिवार और नई नवेली दुल्हन को उसे अस्पताल ले जाने की इजाजत नहीं दी. पुलिस ने उस पर चोरी का इल्जाम लगाया और मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर दिया. मजिस्ट्रेट ने उसे अस्पताल नहीं, न्यायिक हिरासत में भेज दिया. चार दिन बाद उसकी मौत हो गई.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट में बड़ी सावधानी से मॉब लिंचिंग के आंकड़े गायब कर दिए गए. समाचार पोर्टल द क्विंट के अनुसार, 2015 से अब तक भीड़ की हिंसा में 113 लोगों की मौत हुई है. लिंचिंग करने वाले और सामूहिक नरसंहार जैसे अन्य घृणाजन्य अपराधों में शामिल लोगों को सरकारी पद इनाम में दिए गए, और मोदी के मंत्रिमंडल के सदस्यों ने उन्हें सम्मानित किया है. मोदी जो टि्वटर में हमेशा कुछ न कुछ लिखते रहते हैं, संवेदना और जन्मदिन की मुबारकबाद देने को आतुर रहते हैं, जब-जब लिंचिंग होती है, हमेशा खामोशी ओढ़ लेते हैं. शायद ऐसा सोचना ही अतार्किक है कि जब भी कोई कुत्ता किसी की गाड़ी के नीचे आए तो प्रधानमंत्री उस पर टिप्पणी करे. आरएसएस के सुप्रीम लीडर मोहन भागवत ने दावा किया है कि लिंचिंग पश्चिमी अवधारणा है जो बाइबिल से आयातित है और हिंदुओं में ऐसी कोई परंपरा नहीं है. भागवत ने कहा है कि “लिंचिंग आपदा” की बात करना हिंदुस्तान को बदनाम करने की साजिश है.
हम जानते हैं कि यूरोप में तब क्या हुआ था जब इसी तरह की विचारधारा रखने वाले एक संगठन ने पहले खुद को अपने देश पर थोपा था पर और बाद में उसका विस्तार करना चाहा था. हम जानते हैं कि इसके बाद जो कुछ घटा इसलिए घटा कि देखने-सुनने वालों की शुरुआती चेतावनी को सारी दुनिया ने नजरअंदाज कर दिया था. हो सकता है कि यह चेतावनियां उस मर्दाना, एंग्लो-सेक्सन दुनिया के लिए संतुलित या मर्यादित न रही हों जो मुसीबतों या भावनाओं की खुली अभिव्यक्ति को शक की निगाह से देखती है.
हालांकि एक खास तरह की भड़कीली भावनाएं उसे मंजूर हैं- यह भावना कुछ हफ्ते पहले अमेरिका में खूब दिखाई दी थी. 22 सितंबर 2019 को अमेरिका में, नर्मदा बांध स्थान पर मोदी के जन्मदिन की पार्टी के चार-पांच दिन बाद, हजारों भारतीय अमेरीकी ह्यूस्टन के एनआरजी स्टेडियम में एक शानदार कार्यक्रम “हाउडी मोदी!” में शामिल होने आए थे. अब यह कार्यक्रम शहरी दंतकथा की सामग्री बन चुका है. राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने बड़ी हार्दिकता दिखाते हुए, अपने ही देश में, अपनी ही जनता के सामने, अमेरिका दौरे पर आए भारतीय प्रधानमंत्री के द्वारा खुद को खास मेहमान कहे जाने की इजाजत दी. अमेरिकी कांग्रेस के कई सदस्यों ने इस मौके पर भाषण दिए, बेहद खिली बांछों के साथ और शारीर कृतज्ञता मंडित. नगाड़ों की आवाज के बीच खुशी से चिल्लाती और प्रशंसा से अभिभूत भीड़ ने “मोदी, मोदी” के नारे लगाए. कार्यक्रम के अंत में ट्रंप और मोदी ने हाथ मिलाया और विजयी भाव से आपस में गले लगे. स्टेडियम जैसे उन्मादी शोर से फटा जा रहा था. हिंदुस्तान में उस हल्ले को टीवी चैनलों ने कार्पेट कवरेज के जरिए हजार गुना बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया. देखते ही देखते “हाउडी” हिंदी शब्द बन गया. इस बीच स्टेडियम के बाहर विरोध कर रहे हजारों लोगों को इन समाचार संस्थाओं ने नजरअंदाज कर दिया.
हिंदुस्तान में हममें से कई लोग डरते-कांपते कभी “हाउडी मोदी!” देखते थे और कभी नाजी रैली पर बनी लाउरा पोइट्रास की 1939 की छोटी डॉक्यूमेंट्री, जिसमें सारा मैडिसन स्क्वेयर गार्डन खचाखच भर गया था.
ह्यूस्टन स्टेडियम में 50 हजार लोगों का हल्ला भी कानों के परदे फाड़ देने वाले कश्मीर के सन्नाटे को दबा नहीं पाया. उस दिन, 22 सितंबर को, जब वहां कार्यक्रम हो रहा था, घाटी में कर्फ्यू और संचार पर लगी रोक के 48 दिन पूरे हो चुके थे.
मोदी ने एक बार फिर अपनी विशिष्ट बर्बरता का ऐसा प्रदर्शन किया जिसे आधुनिक युग में किसी ने देखा न सुना. और एक बार फिर इस प्रदर्शन ने भक्तों में बीच में उन्हें और अधिक प्रेम का पात्र बना दिया. 6 अगस्त को जब जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक संसद में पारित हुआ तो हर तरह के राजनीतिक दलों में इसका जश्न मनाया गया. कार्यालयों में मिठाइयां बांटी गईं और सड़कों पर नृत्य किया गया. एक विजय—औपनिवेशिक कब्जा, हिंदू-राष्ट्र का एक विजय-घोष—उत्साह से मनाया गया. एक बार फिर जीतने वालों की ललचाई नजरें जीत की आदिम ट्रॉफी—जमीन और औरत पर पड़ीं. बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं के वक्तव्य और देशभक्ति के पॉप वीडियो, जिन्हें करोड़ों लोगों ने देखा, इस कुख्यात काम को जायज ठहरा रहे थे. गूगल ट्रेंड से पता चलता है कि “कश्मीरी लड़की से शादी” और “कश्मीर में जमीन खरीदना” को सब से ज्यादा सर्च किया गया.
यह सिर्फ गूगल पर भद्दी खोज तक सीमित नहीं रहा. कश्मीर की घेराबंदी के कुछ दिनों में ही “वन परामर्श समिति” ने जंगल के अन्य इस्तेमाल के लिए 125 परियोजनाओं को मंजूरी दे दी.
लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में घाटी से बहुत कम खबरें बाहर आ पाईं. भारतीय मीडिया ने हमें वही बताया जो सरकार हमें सुनाना चाहती थी. कश्मीरी अखबारों पर पूरी तरह से सेंसरशिप लगा दी गई. ये अखबार रद्द हो चुकी शादियों, जलवायु परिवर्तन के असर, झीलों और वन्य जीव-जंतु अभ्यारण्यों के संरक्षण, शुगर की बीमारी के साथ जीने के नुस्खे, और पहले पन्नों में उन सरकारी विज्ञापनों से भरे थे जो बताते थे कि कश्मीर के एक नए, घटे हुए वैधानिक दर्जे से कश्मीरियों को क्या-क्या फायदे होंगे. संभवत: इन “फायदों” में उन बड़ी परियोजनाओं का निर्माण भी शामिल है जिनसे कश्मीर से बहने वाली नदियों का पानी अपने कब्जे में कर मनमुताबिक इस्तेमाल हो सकेगा. इन फायदों में जंगल की कटाई के होने वाले भू-क्षरण, हिमालय के नाजुक इकोसिस्टम का विनाश, और निश्चित ही कश्मीर की प्राकृतिक संपदा की भारतीय कारपोरेट द्वारा लूट भी शामिल होगी.
आम लोगों के जीवन की असल रिपोर्टिंग ज्यादातर ऐसे पत्रकारों और फोटोग्राफरों ने की जो ‘एजेंस फ्रांस प्रैसे’, ‘एसोसिएटेड प्रेस’, ‘अल-जज़ीरा’, ‘द गार्डियन’, ‘बीबीसी’, ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ और ‘वाशिंगटन पोस्ट’ जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया से जुड़े थे. सूचना-शून्य माहौल में काम करते हुए, जिसमें उन्हें आधुनिक युग के पत्रकारों जैसी कोई सहूलत प्राप्त नहीं थी, ज्यादातर कश्मीरी पत्रकारों ने बड़ा जोखिम लेकर अपने क्षेत्रों का दौरा किया और हमारे लिए खबरें बाहर लेकर आए. खबरें क्या थीं : रात में मारे जा रहे छापों की खबरें, नौजवान लड़कों को राउंड-अप करके घंटों तक पीटने की खबरें, उनकी चीखों को माइक्रोफोन पर सुनाने की खबरें ताकि उनके पड़ोसी और परिवार वाले सबक ले सकें, सैनिकों का गांव वालों के घरों में घुसकर सर्दियों के लिए रखे उनके अनाज पर उर्वरक और मिट्टीतेल उंडेल देने की खबरें. इनमें उन बच्चों की खबरें भी थीं जिनके शरीर पैलेट गन से छलनी कर दिए गए थे और वे अपना इलाज घरों में ही करा रहे थे क्योंकि अगर वे इलाज कराने अस्पताल जाते तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता. उन सैकड़ों बच्चों की खबरें भी थीं जिन्हें रात के अंधेरे में घरों से उठा लिया गया और उन मां-बाप की खबरें भी जो बेचैनी और हताशा से बीमार पड़ रहे थे. डर, आक्रोष, निराशा, भ्रम, फौलादी प्रतिबद्धता और पुरजोश प्रतिरोध की खबरें भी थीं.
लेकिन गृहमंत्री अमित शाह ने दावा किया कि कश्मीर की घेराबंदी सिर्फ लोगों के दिमाग की उपज है, और जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने बताया कि कश्मीरियों के लिए टेलीफोन लाइनों का महत्त्व नहीं है क्योंकि उनका इस्तेमाल केवल आतंकवादी करते हैं. सैन्य प्रमुख बिपिन रावत ने कहा, “जम्मू-कश्मीर में आम जनजीवन प्रभावित नहीं हुआ है. लोग अपना जरूरी काम कर रहे हैं... जो लोग कह रहे हैं कि जनजीवन पर असर पड़ा है, ये वही लोग हैं जिनका जीवन आतंकवाद पर आश्रित है.” इन वक्तव्यों से यह समझना आसान है कि हिंदुस्तानी सरकार किन लोगों को आतंकवादी मानती है.
जरा कल्पना कीजिए कि पूरे न्यू यॉर्क शहर में खबरों पर पाबंदी लगा दी जाए और ऐसा कर्फ्यू लगा दिया जाए जिसमें लाखों सैनिक गश्त कर रहे हों. कल्पना कीजिए कि कटीली तारें बिछाकर आपके शहर का नक्शा बदल दिया जाए और उसमें यातना केंद्र खोल दिए जाएं. कल्पना कीजिए कि आपके पड़ोस में छोटे-छोटे अबुगारीब नमूदार हो जाएं. कल्पना कीजिए कि आप जैसे हजारों लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाए और आपके परिवार वालों को पता ही न चले कि आपको कहां रखा गया है. कल्पना कीजिए कि आप किसी के भी संपर्क में न रहें, अपने पड़ोसी के नहीं, शहर के बाहर रहने वाले अपने प्रिय-जनों के नहीं, बाहरी दुनिया में किसी के साथ कोई संपर्क न हो, और हफ्तों तक ऐसा ही चले. कल्पना कीजिए कि बैंक और स्कूल बंद हैं, बच्चे अपने घरों में कैद हैं. कल्पना कीजिए कि आपके मां-बाप, भाई-बहन, जीवन-साथी, या बच्चे मर रहे हैं और आपको हफ्तों तक इसकी खबर ही न मिले. जरा कल्पना कीजिए मेडिकल इमरजेंसी की, मेंटल हेल्थ इमरजेंसी की, कानूनी इमरजेंसी की, खाने, पैसे और गैस के अभाव की. कल्पना कीजिए कि आप एक दिहाड़ी मजदूर या ठेका मजदूर हैं और आप हफ्ता दर हफ्ता काम पर नहीं जा पा रहे हैं. और जरा सोचिए कि आप से कहा जाए कि यह सब आपकी भलाई के लिए किया जा रहा है.
पिछले कुछ महीनों में जो दहशत कश्मीरियों के हिस्से आई है वह 30 साल पुराने उस हथियारबंद संघर्ष के अलावा है जिसने अब तक 70 हजार लोगों की जानें ले ली हैं और उनकी घाटी को कब्रों से ढक दिया है. इन लोगों ने सब कुछ झेला—जंग, पैसा, टॉर्चर, ढेरों लोगों की गुमशुदगी, पांच लाख से ज्यादा सैनिकों की तैनाती और उनके खिलाफ दुष्प्रचार, जो पूरी आबादी को हत्यारा कट्टरवादी बताता है.
कश्मीर की घेराबंदी को अब तीन महीने से ज्यादा बीत चुके हैं. कश्मीरी नेतागण अभी भी जेलों में कैद हैं. उन्हें सिर्फ इस शर्त पर रिहा करने की पेशकश है कि वे लिखित रूप से मानें कि वे लोग साल भर तक कोई बयान नहीं देंगे. ज्यादातर लोगों ने इस शर्त को नामंजूर कर दिया है.
फिलहाल कर्फ्यू ढीला कर दिया गया है, स्कूल दुबारा खुल गए हैं और कुछ फोन लाइनें चालू हो गई हैं. स्थिति “सामान्य” होने की घोषणा कर दी गई है. कश्मीर में हालात का सामान्य होना हमेशा ही एक घोषणा-योग्य स्थिति होती है जिसे सरकार या सेना जारी करती है. इसका लोगों और उनकी रोजमर्रे की जिंदगी पर नाममात्र का असर पड़ता है.
कश्मीरियों ने इस नई सामान्य हालत को मंजूर करने से फिलहाल इनकार कर रखा है. स्कूल खाली पड़े हैं और सेबों की बम्पर पैदावार बगीचों में सड़ रही है. मां-बाप और किसानों के लिए इससे अधिक मुश्किल हालात भला क्या हो सकते हैं. हां, शायद यही कि उनके अस्तित्व को ही मिटा दिया जाए.
कश्मीर में संघर्ष का नया दौर शुरू हो चुका है. उग्रवादियों ने चेतावनी दी है कि अब वे सभी भारतीयों को जायज निशाना समझेंगे. अब तक 10 से ज्यादा गरीब गैर-कश्मीरी मजदूर मारे जा चुके हैं. (जी हां गरीब, हमेशा गरीब ही, ऐसी लड़ाइयों का शिकार बनते हैं). यह और अधिक घिनौना होने वाला है. बेहद घिनौना.
जल्द ही हाल की घटनाओं को भुला दिया जाएगा और एक बार फिर टीवी स्टूडियो में भारतीय सुरक्षा बलों और कश्मीरी उग्रवादियों की ज्यादतियों पर तुलनात्मक बहसें होंगी. कश्मीर की बात करने पर हिंदुस्तानी सरकार और उसका मीडिया तुरंत ही आपको पाकिस्तान के बारे में बताएगा. ऐसा जानबूझकर किया जाएगा ताकि सेना के कब्जे में जी रहे आम लोगों की लोकतांत्रिक मांगों को विदेशी राज्य के कुकृत्य से गड्ड-मड्ड किया जा सके. हिंदुस्तानी सरकार ने साफ कर दिया है कि कश्मीरियों के सामने बस एक ही चारा बचा है और वह है पूरी तरह से घुटने टेक देना. सरकार को किसी भी तरह का विरोध नामंजूर है फिर चाहे वह हिंसक हो या अहिंसा, बोलकर किया जाए या लिखकर या गीत गाकर. फिर भी कश्मीरी जानते हैं कि अगर जिंदा रहना है तो प्रतिरोध करना ही होगा.
ये लोग हिंदुस्तान का हिस्सा भला क्यों बनना चाहेंगे? दुनिया में इसकी कोई वजह हो तो बताइए? अगर वह लोग आजादी चाहते हैं तो उन्हें आजादी मिलनी ही चाहिए.
यही तो हिंदुस्तानियों की भी चाहत होनी चाहिए. कश्मीरियों के लिए नहीं, बल्कि खुद अपने लिए. उनके नाम पर जो जुल्म किए रहे हैं, अत्याचार किया जा रहा है वह ऐसा क्षरण है जिसे हिंदुस्तान झेल नहीं पाएगा. हो सकता है कि कश्मीर हिंदुस्तान को हरा न सके लेकिन वह हिंदुस्तान को निगल जरूर जाएगा. कई तरह से, ऐसा हो भी चुका है.
ह्यूस्टन स्टेडियम में तालियां बजाने वाले उन 50 हजार लोगों के लिए इसका शायद कोई ज्यादा महत्व न हो जो अमेरिका जाकर बसने के सबसे बड़े भारतीय सपने को पूरा कर चुके हैं. उनके लिए कश्मीर थकी हुई पुरानी समस्या है जिसके बारे में उन्होंने बड़ी बेवकूफी से मान लिया है कि बीजेपी ने इसका हमेशा के लिए समाधान कर दिया है. लेकिन निश्चित रूप से, क्योंकि ये सभी अप्रवासी हैं, इसलिए इनसे उम्मीद तो की जा सकती है कि ये असम में जो हो रहा है उसे शायद अधिक समझेंगे. या शायद यह कुछ ज्यादा ही उम्मीद करने जैसी बात है क्योंकि ये वही लोग हैं जो शरणार्थी संकट का सामना कर रही दुनिया के सबसे भाग्यशाली शरणार्थी हैं. ह्यूस्टन में आए ज्यादातर लोग ऐसे लोगों की तरह थे जिनके पास हॉलीडे होम होते हैं, इनके पास शायद अमेरिका की नागरिकता और समुद्र पार भारतीय नागरिक का प्रमाणपत्र भी हो.
“हाउडी मोदी!” असम के 20 लाख लोगों द्वारा राष्ट्रीय नागरिक पंजिका में अपना नाम खो देने के 22वें दिन हो रहा था.
कश्मीर की तरह ही असम भी एक सीमांत राज्य है जिसके इतिहास में कई सार्वभौम सत्ताएं बनी और लुप्त हो गईं, यहां सदियों से आव्रजन होता रहा, युद्ध और घुसपैठें हुईं, यहां की सीमाएं बदलती रही हैं, ब्रिटिश उपनिवेशवाद और 70 साल के चुनावी लोकतंत्र ने इस खतरनाक स्तर तक ज्वलंत समाज में दरारों को गहरा कर दिया है.
असम में एनआरसी हुआ इसका कारण उसका विशेष सांस्कृतिक इतिहास है. 1826 में आंग्ल-बर्मा युद्ध के बाद अंग्रेजों के साथ शांति समझौते के तहत इस क्षेत्र को बर्मा ने अंग्रेजों के हवाले किया था. उस वक्त यहां घने जंगल हुआ करते थे और यहां बहुत कम आबादी थी. यहां बोडो, कचार, मिशिंग, लालूंग, अहोमिया हिंदू, अहोमिया मुस्लिम जैसे सैकड़ों समुदाय रहते थे. हर समुदाय की अपनी भाषा थी, जमीन के साथ प्राकृतिक रूप से विकसित रिश्ते थे, यद्यपि इस संबंध को दस्तावेजों से साबित नहीं किया जा सकता. असम हमेशा से ही अल्पसंख्यकों का गुलदस्ता था जो नस्ली और भाषाई गठबंधन बनाकर बहुसंख्यक बन जाते थे. कोई भी वस्तु जो इस संतुलन को बिगाड़ने या उसके लिए खतरा बने वह संभावित हिंसा का कारण बन जाती थी .
1837 में इस संतुलन को बिगाड़ने के बीज बोए गए. असम के नए मालिक अंग्रेजों ने बंगाली भाषा को यहां की आधिकारिक भाषा बना दिया. इसका मतलब था कि लगभग सभी प्रशासनिक और सरकारी नौकरियां शिक्षित हिंदू बंगाली भाषी संभ्रांत लोगों ने ले लीं. हालांकि इस नीति को 1870 के दशक की शुरुआत में बदल दिया गया और बंगाली के साथ असमी को भी आधिकारिक मान्यता दे दी गई जिसने शक्ति संतुलन को गंभीर रूप से बदल दिया. इसके साथ ही असमी और बंगाली भाषा बोलने वालों की दुश्मनी की शुरुआत हो गई, जो दो सदियों पुरानी हो चुकी है.
19वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजों को पता चला कि इस क्षेत्र की मिट्टी और वातावरण चाय की खेती के लिए अच्छे हैं. स्थानीय लोग चाय के बागानों में गुलामों की तरह काम करना नहीं चाहते थे इसलिए मध्य हिंदुस्तान से मूल निवासियों को यहां ला कर बड़ी संख्या में बसाया गया. ये उन गिरमिटिया मजदूरों से अलग नहीं थे जिन्हें अंग्रेज जहाजों में भर-भर कर दुनिया भर के अपने उपनिवेशों में ले जाया करते थे. आज चाय बागान में काम करने वाले लोग असम की आबादी का 15 से 20 फीसदी हैं, लेकिन अफ्रीका के भारतीय मूल के लोगों से उलट, इन लोगों को शर्मनाक तरीके से आज नीच समझा जाता है और ये आज भी चाय बागानों में ही रहते हैं, गुलामों को मिलने वाला भत्ता पाते हैं और बागान मालिकों की दया पर जिंदा है.
1890 के दशक के अंत तक पड़ोसी पूर्वी बंगाल की तराई में चाय बागान का विकास इतना हो चुका था कि और ज्यादा चाय नहीं लगाई जा सकती थी इसलिए अंग्रेज मालिकों ने बंगाली मुस्लिम किसानों को, जो ब्रह्मपुत्र नदी के उपजाऊ, दलदली किनारों और डूबते-उभरते टापुओं में, जिन्हें चार कहा जाता है, धान की खेती करने में माहिर थे, असम आने के लिए प्रोत्साहन दिया. अंग्रेजों के लिए असम के जंगल और तराई वाला हिस्सा अगर टैरा नलिस (लावारिस) नहीं भी था तो वह जमीन लगभग लावारिस ही थी. इस क्षेत्र में बहुत से असमी आदिवासी कबीलों की मौजूदगी को नजरअंदाज करते हुए अंग्रेजों ने इन मामूली आदिवासियों की जमीनें “उत्पादक” किसानों को देनी शुरू कर दी जिन्हें आने वाले समय में ब्रिटिश राजस्व संकलन में योगदान देना था. हजारों की संख्या में आव्रजक यहां आकर बसे, इन लोगों ने जंगल साफ किए और यहां की दलदली जमीन को खेतों में तब्दील कर खाद्यानों और जूट की खेती की. 1930 तक आव्रजन ने यहां की आबादी संतुलन और अर्थतंत्र को बड़े पैमाने पर बदल दिया.
शुरुआत में असम के राष्ट्रवादी समूहों ने आव्रजकों का स्वागत किया लेकिन जल्द ही जातीय, धार्मिक और भाषाई तनाव शुरू हो गया. यह तनाव उस वक्त थोड़ा कम हुआ जब 1941 की जन गणना में बंगाली भाषी मुसलमानों ने, जिनकी समस्त स्थानीय बोलियों को मिलाकर “मियां भाषा” भी कहते हैं, अपने नए वतन के प्रति एकजुटता का इजहार करते हुए असमी को अपनी मातृभाषा घोषित की, ताकि यह भाषा आधारिक भाषा का दर्जा बनाए रख सके. आज भी मियां बोलियां असमी लिपि में ही लिखी जाती हैं.
बाद के सालों में असम की सीमाएं बार-बार बनती-बिगड़ती रही, लगभग चकरा देने की हद तक तेजी से. 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का बंटवारा किया तो उन्होंने असम को मुस्लिम बहुलता वाले पूर्वी बंगाल के साथ मिला दिया जिसकी राजधानी ढाका थी. अचानक ही असम की माइग्रेंट या प्रवासी आबादी प्रवासी नहीं रही बल्कि बहुसंख्यक आबादी का हिस्सा बन गई. इसके छह साल बाद जब बंगाल का दुबारा एकीकरण हुआ तो असम खुद एक प्रांत बन गया और इसकी बंगाली आबादी एक बार फिर प्रवासी हो गई. 1947 के बंटवारे के बाद पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बन गया और असम में बसे बंगाली मुसलमानों ने असम में ही रहना स्वीकार किया. लेकिन विभाजन के बाद असम में बड़ी संख्या में बंगाली शरणार्थी, हिंदू और मुसलमान, आए. इसके बाद 1971 में जब पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में नस्ली नरसंहार को अंजाम दिया और लाखों लोग मारे गए थे, तो एक बार फिर इस क्षेत्र में शरणार्थियों की बाढ़-सी आई. मुक्ति युद्ध के बाद नया राष्ट्र बांग्लादेश अस्तित्व में आया.
तो बात ऐसी है कि असम पहले पूर्वी बंगाल का हिस्सा था और बाद में हिस्सा नहीं रहा. पूर्वी बंगाल पूर्वी पाकिस्तान बना और पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया. देश बदल गए, झंडे बदल गए और राष्ट्रगान बदल गया. शहर फैले, जंगल सिकुड़े, दलदली जमीन खेती के लायक बना दी गई और आदिवासियों की जमीन को आधुनिक विकास ने निगल लिया. और लोगों के बीच की दरारें पुरानी होकर सख्त और इतनी गहरी हो गईं कि अब उन्हें भरा नहीं जा सकता था.
भारत सरकार को बंगलादेश के मुक्ति युद्ध में अपनी भूमिका पर बहुत फख्र है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के सहयोगी देश चीन और अमेरिका की धमकियों की परवाह नहीं की और नरसंहार को रोकने के लिए भारतीय सेना भेजी दी. “न्यायपूर्ण युद्ध” लड़ने का गौरव न्यायोचित या असली मुद्दों के हल का कारण नहीं बन सका और न ही असम और पड़ोसी राज्यों के लोगों और शर्णार्थियों के लिए कोई सोच समझी नीति बनाई गई.
इस अनूठे और जटिल इतिहास के चलते ही असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजिका की मांग पैदा हुई. हास्यास्पद तो यह है कि यहां “राष्ट्रीय” का अर्थ हिंदुस्तान कम और असम ज्यादा है. 1979 और 1985 के बीच असम के छात्रों की अगुवाई में चले असमी राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान 1951 में तैयार की गई पहली एनआरसी को अपडेट करने की मांग उठी. छात्र आंदोलन के साथ ही हिंसक अलगाववादी आंदोलन भी हुआ जिसमें हजारों लोगों की जान गई. असमी राष्ट्रवादी आंदोलन ने निर्वाचन सूची से “विदेशियों” के नाम हटाए जाने तक चुनावों के बहिष्कार का आह्वान किया. “3-डी” का नारा गूंजने लगा: डिटेक्ट, डिलीट एंड डिपोर्ट (पता करो, हटाओ और निकालो). विशुद्ध अनुमान के आधार पर बताया गया कि असम में विदेशियों की संख्या 50 से 80 लाख के बीच है. और फिर जल्द ही यह आंदोलन हिंसक हो गया. हत्या, आगजनी, बम विस्फोट और जन प्रदर्शन ने घुसपैठियों के खिलाफ दुश्मनी और बेकाबू गुस्से का माहौल बना दिया. 1979 आते-आते राज्य जलने लगा. हालांकि यह आंदोलन मूल रूप से बंगाली और बंगाली भाषी लोगों के खिलाफ था, लेकिन इस आंदोलन के भीतर सक्रिय हिंदू सांप्रदायिक ताकतों ने इसे मुस्लिम विरोधी रंग दे दिया. 1983 में नेली नरसंहार के रूप में इसका वीभत्स रूप सामने आया. छह घंटों तक चले इस हत्याकांड में बंगाल मूल के दो हजार मुस्लिमों को कत्ल कर दिया गया. (अनाधिकारिक आंकड़े मारे जाने वालों की संख्या दुगनी बताते हैं.) पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार हत्यारे पड़ोसी पहाड़ी मूलनिवासी थे. यह कबील हिंदू नहीं था, न ही उन्हें उग्र एथ्नो-असमी के रूप में जाना जाता था. अचानक हुई इस बर्बर हिंसा के पीछे का कारण आज भी रहस्य बना हुआ है. फुसफुसाहट में लोग बताते हैं कि इसके लिए असम के आरएसएस कार्यकर्ताओं ने भड़काया था.
इस नरसंहार पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म व्हाट द फील्ड्स रिमेंबर में एक बुजुर्ग मुसलमान, जिनके सारे बच्चे इस हिंसा में मारे गए थे, बताते हैं कि कैसे मारे जाने के कुछ दिन पहले उनकी बेटी ने “विदेशियों” को बाहर निकालने की मांग वाले मार्च में हिस्सा लिया था. मरते वक्त उस लड़की के शब्द थे, “बाबा, क्या हम लोग भी विदेशी हैं?”
1985 में असम आंदोलन के छात्र नेताओं ने केंद्र सरकार के साथ असम समझौता किया. उसी साल उन्होंने राज्य विधानसभा का चुनाव जीता और राज्य में सरकार बना ली. उसी साल इन लोगों ने . इस समझौते के तहत तय हुआ कि 24 मार्च 1971 की आधी रात के बाद (इस दिन पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में नागरिकों पर हमला शरू किया था) असम आने वाले लोगों को राज्य से बाहर निकाला जाएगा. एनआरसी का मकसद 1971 के बाद आए “घुसपैठियों” को राज्य के मूल नागरिकों से अलग करना था.
1983 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने अवैध आव्रजक (डिटेक्शन बाय ट्राईबल) कानून (आईएमडीटी)पारित किया था उसके तहत अगले कई सालों तक बॉर्डर पुलिस द्वारा पहचाने गए “घुसपैठियों” और चुनाव अधिकारियों द्वारा संदिग्ध वोटर यानी डी-वोटर घोषित लोगों पर निरंतर मुकदमे चलाये गए. अल्पसंख्यकों को प्रताड़ना से बचाने के लिए आईएमडीटी कानून के तहत नागरिकता प्रमाणित करने का दायित्व पुलिस और आरोप लगाने वालों पर था, आरोपी पर नहीं. 1997 से अब तक तीन लाख से अधिक डी-वोटर और घोषित विदेशी लोगों पर “विदेशियों से संबंधित न्यायाधिकरणों” में मुकदमे चलाए जा चुके हैं. सेकड़ों लोग आज भी डिटेंशन केंद्रों में कैद हैं जो जेल के भीतर बनी जेलें हैं और यहां बंद लोगों के पास आम अपराधियों जितने अधिकार भी नहीं है.
2005 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में फैसला देते हुए आईएमडीटी कानून को रद्द करने के लिए कहा क्योंकि इसके तहत “अवैध आव्रजकों की पहचान और उन्हें बाहर करना लगभग नामुमकिन था.” अदालत ने अपने फैसले में लिखा था, “इस पर कोई संदेह नहीं है कि बंगलादेशी नागरिकों की अवैध घुसपैठ के कारण, असम राज्य बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति का सामना कर रहा है.” अब नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी नागरिक पर डाल दी गई. इसने सारे समीकरण को बदल दिया और एक नए एनआरसी का रास्ता खुल गया. सुप्रीम कोर्ट में यह मामला ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के पूर्व अध्यक्ष सर्बानंद सोनोवाल ने दायर किया था जो अब बीजेपी के साथ हैं और असम के मुख्यमंत्री हैं.
2013 में असम पब्लिक वर्क्स नाम के एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली और अवैध आव्रजकों का नाम निर्वाचन सूची से हटाने की मांग की. बाद में एनआरसी प्रणाली को अंतिम रूप देने का जिम्मा सुप्रीम कोर्ट के जज रंजन गोगोई को दिया गया जो खुद असम के हैं.
दिसंबर 2014 में, सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि एनआरसी को अपडेट कर एक साल के अंदर कोर्ट में पेश किया जाए. किसी को पता नहीं था कि जिन 50 लाख घुसपैठियों के पता लगने की उम्मीद है, उनका क्या किया जाएगा. सवाल ही पैदा नहीं होता कि उन्हें बांग्लादेश खदेड़ा जा सकता. क्या इतने लोगों को डिटेंशन कैंपों में रखा जा सकता है और कितने सालों तक? क्या उनकी नागरिकता छीन ली जाएगी? और क्या हिंदुस्तान की सर्वोच्च अदालत इस विशाल नौकरशाही अभ्यास का माइक्रोमैनेजमेंट करेगी जिसमें तीन करोड़ लोग शामिल हैं और जबर्दस्त पैसा और तकरीबन 52000 कर्मचारी लगने थे?
दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लाखों ग्रामीणों से उम्मीद की गई कि वह विशिस्ट दस्तावेजात, “लीगेसी पेपर्स” पेश करेंगे जो 1971 से पहले इनके असम में रहने को साबित करते हों. सुप्रीम कोर्ट की डेड-लाइन ने इस पूरी कवायद को एक बुरा सपना बना दिया. गरीब-अनपढ़ गांव वालों को नौकरशाही, कानून, दस्तावेजों, अदालती सुनवाइयों और इनके साथ जुड़ी बर्बर जांच के मकड़जाल में फंसा दिया गया.
हमेशा रूप बदलते रहने वाले ब्रह्मपुत्र के कीचड़ भरे “चार” द्वीपों के अर्ध-घुमंतु लोगों की दूर दराज की बस्तियों तक पहुंचने का एकमात्र जरिया वे नावें होती हैं जो अक्सर खतरनाक हद तक लोगों से खचाखच भरी रहती हैं और जिन्हें स्थानीय लोग चलाते हैं. किंवदंतियों की तरह जानी-मानी चिड़चिड़ी ब्रह्मपुत्र में लगभग 2500 ऐसे द्वीप हैं जिन्हें वह जब चाहे जलमग्न कर लेती है, और किसी दूसरे स्थान पर, किसी दूसरे रूप स्वरूप में उबारती है. इन पर बसई बस्तियां अस्थाई होती हैं और लोग झोपड़ी बनाकर रहते हैं. कुछ द्वीप इतने उपजाऊ हैं और यहां के किसान इतने कुशल हैं कि साल में तीन फसलें उगाते हैं. लेकिन स्थाई रूप से न बस पाने का मतलब है कि इनके पास जमीन का पट्टा नहीं होता, यहां विकास नहीं होता, स्कूल और अस्पताल नहीं होते.
जिन कमतर उपजाऊ चार द्वीपों का मैंने इस महीने की शुरुआत में दौरा किया, वहां गरीबी ब्रह्मपुत्र के कीचड़ वाले काले पानी की तरह पसरी हुई थी. वहां आधुनिकता का एकमात्र निशान लोगों के हाथों में लटके रंगीन प्लास्टिक के बैग थे जिनमें दस्तावेज रखे थे. इन बैगों को वे आने वाले अजनबियों के सामने लेकर खड़े हो जाते थे. वह उन दस्तावेजों को पढ़ नहीं सकते थे लेकिन कौतुहलवश ताकते रहते—जैसे वे लोग उन पीले पन्नों में दर्ज हल्के पड़ रहे निशानों से कुछ समझना चाहते हों और जानना चाहते हों कि क्या वे खुद को और अपने बच्चों को उन विशाल डिटेंशन कैंपों में कैद होने से बचा पाएंगे जिनके बारे में उन्होंने सुन रखा है कि ग्वालपारा के घने जंगलों में बनाए जा रहे हैं. जरा कल्पना कीजिये कि एक भरी आबादी, लाखों लोगों वाली, अपने दस्तावेजों को लेकर चिंतित और डरी हुई. यह सैन्य कब्जा नहीं है लेकिन यह दस्तावेजों द्वारा कब्जा जरूर है. इन लोगों की सबसे क़ीमती चीज ये दस्तावेज हैं जिनकी देखभाल वे अपने बच्चों या मां-बाप से ज्यादा करते हैं. इन्हें उन्होंने बाढ़ और तूफान और हर तरह की आपदाओं से बचाया है. वहां रहने वाले धूप में काले पड़े किसान, आदमी और औरतें, जमीन और नदी की बहुत से मूडों के माहिर ये लोग अंग्रेजी शब्द “लीगेसी डॉक्यूमेंट”, “लिंक पेपर”, “सर्टिफाइड कॉपी”, “री-वेरिफिकेशन”, “रेफरेंस केस”, ”डी-वोटर”, “डिक्लेयर्ड फॉरेनर”, “वोटर लिस्ट”, “रिफ्यूजी सर्टिफिकेट” जैसे अंग्रेजी के शब्द इस तरह बोलते हैं जैसे वह उनकी अपनी भाषा हो. ये उनकी अपनी भाषा ही है. एनआरसी ने अपना एक शब्दकोश तैयार कर लिया है जिसका सबसे दर्दनाक शब्द है “जेन्युइन सिटीजन” यानी असली नागरिक.
गांव दर गांव लोगों ने मुझे ऐसी कहानियां सुनाईं कि किस तरह उन्हें देर रात नोटिस देकर अगले दिन 200 या 300 किलोमीटर दूर बनी कोर्ट में हाजिर होने को कहा गया था. उन्होंने बताया कि कैसे वे लोग अपने परिवार वालों को दस्तावेज के साथ इकट्ठा करते थे और रात के घुप्प अंधेरे में तेज बहती नदी को छोटी नावों में बैठकर पार करते थे. नाव चलाने वाले, जो उनकी मजबूरी को भांप जाते थे, और इन लोगों से तीन गुना किराया लेते थे. उसके बाद रात में खतरनाक राजमार्गों में चलकर वे वहां पहुंचते थे जहां उन्हें बुलाया जाता था. रूह को कंपा देने वाली एक कहानी भी मैंने सुनी. वह एक ऐसे परिवार की थी जो ट्रक में बैठकर कोर्ट जा रहा था तो उनका ट्रक तारकोल के बैरलों से भरे एक दूसरे ट्रक से टकरा गया. जख़्मी परिवार तारकोल में सन गया. जिस नौजवान कार्यकर्ता के साथ मैं सफर कर रही थी उसने मुझे बताया, “जब मैं अस्पताल में इन लोगों को देखने गया तो उनका छोटा बेटा अपनी चमड़ी से तारकोल और उसमें चिपके छोटे-छोटे कंकड़ निकालने की कोशिश कर रहा था. उस लड़के ने अपनी मां की ओर देखा और पूछा, “क्या हम कभी विदेशी होने का काला दाग मिटा पाएंगे?”
लेकिन इन सबके बावजूद, इस प्रक्रिया और इसको लागू करने पर सवाल उठने के बावजूद, एनआरसी को अपडेट करने का असम के लगभग सभी लोगों ने स्वागत किया, हर एक के पास इसके अपने-अपने कारण हैं. असमी राष्ट्रवादियों को उम्मीद है कि लाखों हिंदू और मुसलमान बंगाली घुसपैठियों की पहचान कर ली जाएगी और उन्हें औपचारिक रूप से “विदेशी” करार दे दिया जाएगा. मूलनिवासी आदिवासियों को उम्मीद है इससे ऐतिहासिक गलती में कुछ निवारण होगा. बंगाली मूल के हिंदू और मुसलमान एनआरसी में अपना नाम देखना चाहते हैं ताकि वे साबित कर सकें कि वे लोग भारतीय हैं जिससे “विदेशी” होने का कलंक हमेशा हमेशा के लिए मिट जाए. और हिंदू राष्ट्रवादी, जो अब असम की सरकार चला रहे हैं, लाखों मुसलमानों का नाम एनआरसी से हटा देना चाहते हैं. सभी लोग किसी न किसी तरह का समापन चाहते हैं.
एनआरसी की सूची प्रकाशित करने की तारीख को कई बार आगे बढ़ाने के बाद आखिरकार 31 अगस्त 2019 को इसे जारी कर दिया गया. इसमें 19 लाख लोगों के नाम नहीं है. यह संख्या और बढ़ सकती है क्योंकि, पड़ोसियों, दुश्मनों, अजनबियों को एतराज दर्ज कराने का मौका दिया गया है. आखिरी गिनती तक दो लाख से अधिक आपत्तियां दर्ज कराई जा चुकी थीं. सबसे ज्यादा तादात में बच्चों और महिलाओं के नाम सूची से गायब हैं. इनमें से अधिकतर ऐसी महिलाएं हैं जिनके समुदायों में कम उम्र में ही शादी कर दी जाती है और शादी के बाद रिवाज के अनुसार उनके नाम बदल गए हैं. इसलिए इन महिलाओं के पास विरासत साबित करने के लिए जरूरी लिंक दस्तावेज नहीं हैं. बहुत बड़ी संख्या में अनपढ़ लोग हैं जिनके नाम या जिनके मां-बाप के नाम दस्तावेजों में गलत तरीके से लिखे हैं. कहीं हसन का नाम हस्सान लिखा है तो कहीं जॉयनुल का नाम जैनुल. जिन लोगों के नाम में मोहम्मद आता है वे लोग इसलिए मुश्किल में हैं क्योंकि मोहम्मद को अंग्रेजी में कई तरह से लिखा जा सकता है. सिर्फ़ एक गलती आपको सूची से बाहर कर सकती है. अगर आपके पिता मर चुके हैं, या वह आपकी मां के साथ नहीं रहते, अगर उन्होंने कभी वोट नहीं दिया, पढ़े-लिखे नहीं थे और उनके पास जमीन नहीं थी तो आपका बचना मुश्किल है, क्योंकि चलन में मां की विरासत की मान्यता नहीं है. एनआरसी अपडेट करने की प्रक्रिया में हावी पूर्वाग्रहों में सबसे बड़ा ढांचागत पूर्वाग्रह औरतों और गरीबों के खिलाफ है. हिंदुस्तान के ज्यादातर गरीब लोग मुसलमान, दलित और आदिवासी हैं.
जिन 19 लाख लोगों के नाम सूची से गायब हैं अब उन्हें “विदेशी न्यायाधिकरण” में अपील करनी होगी. असम में ऐसे एक सौ न्यायाधिकरण हैं और बाकी 1000 बनाने की बात की गई है. न्यायाधिकरण के जज जिन्हें “सदस्य” कहा जाता है, जिनके हाथों में लाखों लोगों की तकदीर है, उनके पास जज होने का अनुभव नहीं है. ये लोग नौकरशाह और जूनियर वकील हैं जिन्हें सरकार ने मोटी तनख्वाहों पर रखा है. इस व्यवस्था में भी पूर्वाग्रह भरा पड़ा है. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जो दस्तावेज हासिल किए हैं उनसे पता चलता है कि न्यायाधिकरण के सदस्य के तौर पर दुबारा आवेदन करने का एकमात्र मापदंड यह बताना है कि दुबारा आवेदन करने वाले सदस्य ने कितने लोगों की अपील खारिज की थी. अपील करने वाले लोगों को वकील लगाना होगा और वकील की फीस देनी होगी. इसके लिए उन्हें उधार लेना पड़ेगा या अपनी जमीनें और घरों को बेचना पड़ेगा और कर्ज में डूबे निर्धनता की जिंदगी बसर करनी होगी. ज़ाहिर है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास न जमीन है और न घर. ऐसे कई लोग जिन्हें इस सब का सामना करना पड़ा, खुदकुशी कर चुके हैं.
इतने बड़े पैमाने पर की गई इस कवायद और करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद एनआरसी से सरोकार रखने वाले लोगों को आखिरी सूची जारी होने के बाद भयानक निराशा हाथ लगी. बंगाली मूल के आव्रजक इसलिए निराश हैं क्योंकि असल नागरिकों को मनमाने ढंग से सूची से बाहर कर दिया गया. असमी राष्ट्रवादी इसलिए नाराज हैं क्योंकि अनुमानित 50 लाख “घुसपैठियों” के मुकाबले बहुत कम लोग बाहर हुए, और वे महसूस करते हैं कि अत्यधिक अवैध विदेशियों को सूची में जगह मिल गयी है. और हिंदुस्तान में सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी इसलिए निराश हैं क्योंकि 19 लाख लोगों में से आधे गैर-मुस्लिम हैं. (इसकी वजह बड़ी विडम्बनापूर्ण है. बंगाली मुस्लिम प्रवासी जो लंबे समय से दुश्मनी का सामना कर रहे थे, उन्होंने सालों लगा कर “लीगेसी पेपर” जोड़ रखे थे, जबकि हिंदू जो कम असुरक्षित थे, उन्होंने इसकी जरूरत नहीं समझी थी.)
न्यायाधीश रंजन गोगोई ने एनआरसी के मुख्य संयोजक प्रतीक हलेजा के ट्रांसफर के आदेश दे दिए और उन्हें असम छोड़ने के लिए सात दिन का समय दिया. न्यायधीश गोगोई ने अपने आदेश के पीछे का कारण नहीं बताया.
फिर से एनआरसी कराए जाने की मांग उठने भी लगी है.
इस पागलपन को समझने के लिए लोग सिर्फ कविता ही कर सकते थे. नौजवान मुस्लिम कवियों का एक समूह उभर आया, जिन्हें मियां कवि कहा जाता है. ये कवि अचानक अपने दर्द और अपमान पर कविताएं लिखने लगे, उस भाषा में जो उन्हें सबसे ज्यादा अपनी लगती थी, वह भाषा जिसमें वे अब तक केवल अपने घरों में बातें करते थे, यानी ढाकैया, मईमानसिंगिया, पबनैया जैसी मियां बोलियों में. इनमें से एक कवि रेहना सुल्ताना ने “मां” शीर्षक से एक कविता लिखी है:
मा तुमार काच्छे आमार पोरिसोई दीती दीती ब्याकुल ओया झाई.
मां मैं थक गई हूं तुम्हें अपनी पहचान बताते-बताते.
जब इन कविताओं को फेसबुक में पोस्ट और शेयर किया गया तो एक निजी भाषा अचानक लोगों की नजरों में आ गई. भाषाई राजनीति का भूत फिर नींद से जागने लगा. मियां कवियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज की गई, यह कहते हुए कि ये लोग असमी समाज को बदनाम कर रहे हैं. रेहाना सुल्तान को रूपोश होना पड़ा.
असम में समस्या है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन इसका समाधान क्या होना चाहिए? परेशानी यह है कि एक बार जातीय राष्ट्रवाद की आग भड़का दी जाए तो यह बताना मुश्किल हो जाता है कि हवाएं उस उस आग को किस दिशा में ले जाएंगी. हाल ही में निर्मित केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में, जो जम्मू व कश्मीर के स्पेशल स्टेटस को समाप्त करने के परिणामस्वरुप बना है, बौद्धों और कारगिल के शिया मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ने लगा है. हिंदुस्तान के केवल पूर्वोत्तर राज्यों में ही, चिंगारियों ने पुरानी दुश्मनियों को भड़काना शुरू कर दिया है. अरुणाचल प्रदेश में असमी लोगों को घुसपैठिया बोला जा रहा है. मेघालय ने असम से लगी सीमा को बंद कर दिया है, और कहा है कि अब से सभी “बाहरी लोगों” को 24 घंटे से ज्यादा रुकने के लिए नए कानून, मेघालय रेसिडेंट सेफ्टी एंड सिक्योरिटी एक्ट, के तहत सरकार के पास रजिस्टर कराना होगा. नागालैंड में सरकार और नागा विद्रोहियों के बीच 22 साल से जारी शांति-वार्ता, अलग नागा झंडे और संविधान की मांग को लेकर खटाई में पड़ गई है. मणिपुर में नागा और केंद्र सरकार के बीच संभावित समझौते से खफा कुछ लोगों ने लंदन में प्रवासी सरकार की घोषणा कर दी है. त्रिपुरा में मूल आदिवासी लोग अपने लिए एनआरसी की मांग कर रहे हैं ताकि बंगाली हिंदुओं को राज्य से भगा सकें जिन्होंने राज्य में उनको अल्पसंख्यक बना दिया है.
इस तरह की उथल-पुथल और तनाव से मोदी सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा और वह एनआरसी को पूरे हिंदुस्तान में लागू करने का इंतजाम करने में लगी है. असम में हिंदू और उसके अपने ही समर्थकों के एनआरसी की जटिलताओं में फंस जाने से सबक लेकर, बीजेपी सरकार ने नए नागरिक संशोधन बिल का मसौदा तैयार किया है जिसे वह संसद के अगले सत्र में पास करने की उम्मीद रखती है. नागरिकता संशोधन बिल कहता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अत्याचार का सामना कर रहे अल्पसंख्यकों को यानी हिंदू, सिख, बौद्ध और ईसाइयों को हिंदुस्तान में शरण दी जाएगी. यह विधेयक यह सुनिश्चित करेगा कि केवल मुसलमानों को ही नागरिकता से वंचित रखा जाए.
एनआरसी और नागरिकता संशोधन विधेयक की प्रक्रिया शुरू होने से पहले राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाने की योजना है. सरकार की योजना इसके जरिए घर-घर जाकर जनगणना के आंकड़ों के साथ-साथ आंख की पुतलियों का स्कैन और अन्य बायोमैट्रिक आंकड़े इकठ्ठा करना है. यह सभी तरह के डेटा बैंकों का बाप साबित होगा.
इसकी जमीनी तैयारी शुरू हो चुकी है. अमित शाह ने गृहमंत्री के तौर पर पहले दिन एक अधिसूचना जारी की जिसमें देश भर की सभी राज्य सरकारों को गैर न्यायिक अधिकारियों को असीमित ताकत देते हुए विदेशी न्यायाधिकरण और डिटेंशन केंद्र बनाने की अनुमति दी है. कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकार ने इस पर काम शुरू कर दिया है. जैसा कि हमने देखा है कि असम एनआरसी उस राज्य के जटिल इतिहास का नतीजा था. इसे पूरे हिंदुस्तान में लागू करना विशुद्ध रूप से द्वेषपूर्ण है. असम में एनआरसी की मांग 40 साल पुरानी है. वहां के लोग 50 साल से भी ज्यादा समय से अपने दस्तावेज जमा कर रहे हैं. हिंदुस्तान में ऐसे कितने लोग होंगे जो लीगेसी डॉक्यूमेंट विरासत के दस्तावेज पेश कर सकते हैं. शायद हमारे प्रधानमंत्री भी ऐसा न कर पाएं क्योंकि उनकी जन्मतिथि, ग्रेजुएट डिग्री और शादी की बातें राष्ट्र-व्यापी बहसों का विषय रही हैं.
हमें बताया जा रहा है कि हिंदुस्तान भर में एनआरसी की प्रक्रिया का लक्ष्य लाखों-लाख बांग्लादेशी “घुसपैठियों” की पहचान करना है जिन्हें हमारे गृहमंत्री “दीमक” कहना पसंद करते हैं. क्या उनको समझ में नहीं आता कि उनकी ऐसी भाषा हिंदुस्तान के बांग्लादेश के साथ संबंध पर कैसा असर डालेगी? एक बार फिर करोड़ों के भूतिया आंकड़े उछाले जा रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि बहुत सारे बांग्लादेशी मजदूर बिना दस्तावेजों के हिंदुस्तान में रहते हैं और इसमें भी कोई शक नहीं है कि ये लोग देश के सबसे गरीब और सबसे हाशिए पर रहने वाले लोग हैं. मुक्त व्यापार पर यकीन करने वाले हर शख्स को जानना चाहिए कि ये लोग ऐसे आर्थिक शून्य को भर रहे हैं और ऐसे काम करते हैं जिसे कोई और नहीं करना चाहता और इतनी कम मजदूरी में कि कोई और कभी नहीं करेगा. ये लोग ईमानदारी से काम करके ईमानदार दिहाड़ी कमाते हैं. ये लोग देश को बर्बाद नहीं कर रहे, सार्वजनिक पैसा नहीं लूट रहे, बैंकों को दिवालिया नहीं बना रहे. यह लोग सिर्फ आरएसएस के ऐतिहासिक मिशन में इस्तेमाल होनेवाले मोहरे भर हैं.
नागरिकता संशोधन बिल के साथ हिंदुस्तान भर में एनआरसी लागू करने का असल मकसद हिंदुस्तान की मुस्लिम आबादी को डराना, अस्थिर करना और कलंकित करना है, खास तौर से उनके सबसे गरीब वर्गों को. इसका मकसद सोपान वाली नागरिकता का निर्माण करना है जिसमें नागरिकों के एक समूह के पास किसी तरह के अधिकार नहीं होते और वे दूसरे गिरोह कि दया और रहमो-करम पर रहता है. यह एक आधुनिक जाति व्यवस्था होगी जो पुरानी जाति व्यवस्था के साथ-साथ चलेगी और इसमें मुसलमान नए दलित होंगे. कहने भर के लिए नहीं बल्कि असलियत में. कानूनी तौर से. पश्चिम बंगाल जैसी जगहों में जहां बीजेपी सत्ता कब्जाने के लिए आक्रामक अभियान चला रही है, आत्महत्याएं होनी शुरू हो गई हैं.
1940 में आरएसएस के सर्वोच्च नेता एमएस गोलवलकर ने अपनी किताब वी, ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड (हम, या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा) में लिखा था:
मुसलमानों के हिंदुस्तान की धरती पर कदम रखने वाले उस बुरे दिन से लेकर आज तक, हिंदू राष्ट्र बहादुरी के साथ इन लुटेरों का मुकाबला कर रहा है. हिंदू नस्ल की आत्मा जाग रही है.
हिंदुस्तान में, हिंदुओं की धरती पर, हिन्दू रहते हैं और हिंदू राष्ट्र ही रहना चाहिए.
बाकी सब गद्दार और राष्ट्रीय उद्देश्य के शत्रु हैं, उदारता से कहूं तो मूर्ख हैं…. हिंदुस्तान में विदेशी नस्लें…. इस देश में रह सकती हैं…. लेकिन उन्हें हिंदू राष्ट्र की संपूर्ण अधीनता में रहना होगा, किसी चीज पर उनका दावा नहीं होगा, वे सुविधाओं के अधिकारी नहीं होंगे, किसी भी तरह के विशेषाधिकार की बात तो दूर, उन्हें नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं होंगे.
उसने आगे लिखा:
अपनी नस्ल और संस्कृति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए जर्मनी ने सामी नस्लों—यहूदियों का सफ़ाया करके दुनिया को चौंका दिया. यहां नस्ली गौरव अपने सर्वोत्तम रूप में प्रकट हुआ है. यह हिंदुस्तान के लिए सीखने और फायदा उठाने लायक सबक है.
आधुनिक भाषा में गोलवलकर की इन बातों को रूपांतरित करें तो उन्हें एनआरसी और नागरिक संशोधन बिल नहीं तो और क्या कहें? यह 1935 के जर्मनी के न्यूर्नबर्ग कानूनों का आरएसएस संस्करण है. उन कानूनों के तहत केवल उन्हीं लोगों को जर्मनी का नागरिक माना गया था जिन्हें थर्ड राइक की सरकार ने नागरिकता दस्तावेज—लिगेसी पेपर्स—दिए थे. मुसलमानों के खिलाफ संशोधन उसी तरह का पहला संशोधन है. इसमें कोई शक नहीं कि इसके बाद दूसरों का नंबर आएगा. ईसाई, दलित और कम्युनिस्ट सभी आरएसएस के दुश्मन हैं.
विदेशी न्यायाधिकरण और डिटेंशन केंद्र जो पहले ही हिंदुस्तान भर में बनने शुरू हो गए हैं, हो सकता है कि वह करोड़ों मुसलमानों के लिए काफी न हों लेकिन इनका मकसद हमें यह बताना है कि भारतीय मुसलमानों की असली जगह कहां है जब तक कि वे विरासत के दस्तावेज पेश नहीं कर देते. केवल हिंदुओं को ही इस देश का असली धरतीपुत्र माना जाता है जिन्हें दस्तावेजों की जरूरत नहीं है. जब चार सौ साल पुरानी बाबरी मस्जिद के पास लीगेसी पेपर नहीं थे तो गरीब किसान या फेरी वाले के पास क्या होंगे?
इसी दुष्टता की वाहवाही ह्यूस्टन स्टेडियम में जमा 60 हजार लोग कर रहे थे. इसी धूर्तता के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति ने मोदी के साथ सहयोग का हाथ मिलाया था. इसी दुष्टता के साथ इजराइल साझेदारी करना चाहता है, और जर्मनी के लोग व्यापार, फ्रांस अपने लड़ाकू जहाज बेचना चाहता है और सऊदी अरब पैसा लगाना चाहता है.
यह भी मुमकिन है कि हिंदुस्तान भर में की जाने वाली एनआरसी की पूरी प्रक्रिया को, हमारे डेटा बैंक और आंखों की पुतलियों के स्कैन सहित, निजी कंपनियों को दे दिया जाए. इससे पैदा होने वाले रोजगार के अवसर और लाभ से हमारे मरते हुए अर्थतंत्र में शायद जान पड़ जाए. डिटेंशन केंद्रों के निर्माण का ठेका सिमंस, वेयर और आईजी फ़ार्बेन सरीखी भारतीय कंपनियों को मिल सकता है. यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि वे कंपनियां कौन सी होंगी. अगर हम लोग ज़िक्लोन-बी (गैस चेम्बरों के) चरण तक न भी पहुंचें, तो भी बहुत सारा पैसा तो बनाया ही जा सकता है.
बस हम उम्मीद कर सकते हैं कि जल्द ही हिंदुस्तान की सड़कें ऐसे लोगों से पट जाएंगी जिनको यह एहसास होगा कि अगर वे अभी कुछ नहीं करेंगे तो उनका अंत करीब है.
अगर ऐसा नहीं होता तो इन शब्दों को ऐसे इंसान की ओर से अंत की आहटें समझ लिया जाए जो इस दौर की गवाह रही है.
अंग्रेजी से अनुवाद : विष्णु शर्मा
(यह पर्चा 12 नवंबर को न्यू यॉर्क शहर में जॉनाथन शैल मेमोरियल लेक्चर-2019 में पढ़ा गया था. इसका एक संस्करण द नेशन में भी प्रकाशित हुआ है.)
सुधार : इस निबंध में पहले कहा गया था कि अंग्रेजों ने 1826 में बंगाली भाषा को असम की आधिकारिक भाषा बनाया. यह गलत है. अंग्रेजों ने 1837 में ऐसा किया था. निबंध में पहले कहा गया था कि बंगाली भाषी मुसलमानों ने 1937 की जनगणना में अपनी भाषा असमी बताई थी. यह भी गलत तथ्य है. ऐसा उन्होंने 1941 की जनगणना में किया था. कारवां को इन गलतियों के लिए खेद है.