आज जब चिली, कैटेलोनिया, ब्रिटेन, फ्रांस, इराक, लेबनान और हांगकांग की सड़कें प्रदर्शनों के शोर से गूंज रहीं हैं और नई पीढ़ी धरती के साथ की गई ज्यादतियों के कारण गुस्से में है, इस बीच मैं आप लोगों को एक ऐसी जगह की कहानी सुनाने के लिए माफी चाहती हूं जहां की सड़कों पर कुछ अलग ही घट रहा है. एक ऐसा वक्त था जब हिंदुस्तान की सड़कों पर मुझे फख्र हुआ करता था. मुझे आज भी याद है कि सालों पहले मैंने लिखा था कि “असहमति” हिंदुस्तान का दुनिया को सबसे उम्दा निर्यात है. लेकिन आज जब धरती का पश्चिमी कोना प्रदर्शनों की धमक से कांप रहा है, हमारे यहां सामाजिक और पर्यावरण न्याय के लिए पूंजीवाद और साम्राज्यवाद विरोधी महान आंदोलन-बड़े बड़े बांधों, निजीकरण और नदियों व जंगलों की लूट के खिलाफ, बड़े पैमाने पर विस्थापन, मूलनिवासियों की उनकी जमीन से बेदखली के खिलाफ मार्च—जैसे सुन्न पड़ गए हैं. इस साल 17 सितंबर को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने 69वें जन्मदिन के मौके पर खुद को पानी से लबालब सरदार सरोवर बांध तोहफे में दिया, उसी समय उस बांध के खिलाफ 30 सालों से भी ज्यादा अरसे तक लोहा लेने वाले हजारों–हजार ग्रामीण लोग अपने घरों को जल समाधि लेते देख रहे थे. यह एक बड़ा प्रतीकात्मक क्षण था.
हिंदुस्तान में आज एक भूतिया साया दिन दहाड़े हमारे ऊपर पसरता जा रहा है. खतरा इतना बड़ा है कि खुद हमारे लिए इसके आकार, बदलती शक्ल, गंभीरता और अलग-अलग रूपों को समझ पाना और बताना मुश्किल से मुश्किल-तर होता जा रहा है. इसके असली रूप को बताने में खतरा यह है कि यह कहीं अतिश्योक्ति न लगने लगे. और इसलिए विश्वसनीयता और शिष्टाचार का ख्याल रखते हुए हम इस पिशाच को पाले जा रहे हैं जबकि इसने अपने दांत हमारे अंदर गड़ा रखे हैं—हम उसके बालों को संवारते हैं और उसके मुंह से टपकती लार साफ करते हैं ताकि यह शरीफ लोगों के सामने पेश करने काबिल हो जाए. हिंदुस्तान दुनिया की सबसे खराब या खतरनाक जगह नहीं है, कम से कम अभी तो नहीं ही है, लेकिन यह क्या हो सकता था और यह क्या बन गया, इसके बीच जो कुछ है वही सबसे ज्यादा दुखद है.
फिलहाल कश्मीर घाटी के 70 लाख लोग, जिनमें से अधिकांश लोग हिंदुस्तान के नागरिक नहीं रहना चाहते और जिन्होंने दशकों तक आत्मनिर्णय के अधिकार की लड़ाई लड़ी, वे अब डिजिटल बंदिश और दुनिया की सबसे सघन सैन्य उपस्थिति में लॉकडाउन के हालात में जी रहे हैं. साथ ही, देश के पूर्वोत्तर राज्य असम में 20 लाख लोग जो भारत का हिस्सा बनना चाहते है, अपना नाम राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनआरसी) में दर्ज न पाकर बेवतन करार दिए जाने के खतरे का सामना कर रहे हैं. हिंदुस्तानी सरकार ने एनआरसी को पूरे देश में लागू करने का अपना इरादा जाहिर कर दिया है. इसके लिए कानून बनाया जा रहा है. इससे अभूतपूर्व स्तर पर लोगों की बेवतनी होगी.
पश्चिमी मुल्कों के अमीर लोग संभावित जलवायु आपदा के मद्देनजर अपने लिए इंतजाम करने में लगे हैं. ये लोग बंकर बना कर साफ पानी और खाना इकट्ठा कर रहे हैं. गरीब मुल्कों में (दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद, हिंदुस्तान शर्मनाक हद तक अब भी गरीब और भूखा है) अलग ही तरह के इंतजाम किए जा रहे हैं. 5 अगस्त 2019 को हिंदुस्तान सरकार ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया. कब्जे की यह कार्रवाई हिंदुस्तान के गहराते जल संकट से जुड़ी है और अन्य चीजों के अलावा, भारत कश्मीर घाटी से निकलने वाली नदियों को फौरन ही अपने कब्जे में कर लेना चाहता है. एनआरसी नागरिकों की सोपान वाली व्यवस्था का निर्माण करेगी जिसमें कुछ नागरिकों के पास बाकी नागरिकों की तुलना में ज्यादा अधिकार होंगे. यह भी एक तरह से संसाधनों की कमी वाले वक्त की पूर्व तैयारी ही है. हन्ना अरेंट ने कहा था कि नागरिकता अधिकार पाने का अधिकार है.
पर्यावरण संकट का पहला शिकार ‘आजादी, भाईचारा और बराबरी’ का विचार बनेगा. सच तो यह है कि यह बन भी चुका है. मैं कोशिश करूंगी कि विस्तार से बता पाऊं कि क्या हो रहा है और हिंदुस्तान ने इस आधुनिक संकट को हल करने का कैसा आधुनिक इंतजाम किया है. इस इंतजाम की जड़ें हमारे इतिहास के खतरनाक और घिनौने तंतु से जुड़ीं हैं.
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