मार्च 2012 में, राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए अभियान चलाने वाले रोना जैकब विल्सन ने देश की सुरक्षा एजेंसियों द्वारा आतंक रोधी कानूनों के दुरुपयोग पर हैदराबाद में आयोजित सेमिनार को संबोधित किया. रोना ने 1990 के दशक से लेकर गैर -कानूनी गतिविधि (रोकथाम) संशोधन अधिनियम , 2012 (यूएपीए) तक आते-आते भारत में आतंक रोधी कानूनों के विकास और इन कानूनों के वर्तमान स्वरूप पर बात रखी. रोना ने कहा, यूएपीए ने, ''नेशनल काउंटर-टेररिज्म सेंटर सहित इंटेलिजेंस ब्यूरो को, किसी भी व्यक्ति को जिसे वे भारतीय राज्य के हितों के विपरीत काम करने वाला मानते हैं, न सिर्फ गिरफ्तार करने बल्कि जांच करने और मार देने का अधिकार भी दिया है.” रोना ने राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए समिति (सीआरपीपी) के प्रतिनिधि के रूप में सेमिनार को संबोधित किया था. वे सीआरपीपी के संस्थापक सदस्य और जनसंपर्क सचिव हैं. उनका भाषण केवल बीस मिनट का था. लेकिन छह साल बाद उनके जीवन में जो घटा, उसकी चेतावनी उसमें थी.
6 जून 2018 को पुणे और दिल्ली पुलिस की एक संयुक्त टीम ने रोना को दिल्ली के मुनिरका गांव में उनके एक कमरे के किराए के मकान से गिरफ्तार किया. उस दिन देश के अलग-अलग हिस्सों में चार अन्य कार्यकर्ताओं को भी गिरफ्तार किया गया था. ये हैं, दलित-अधिकार कार्यकर्ता सुधीर धवले, वकील सुरेंद्र गाडलिंग, विस्थापन के मुद्दे पर काम करने वाले कार्यकर्ता महेश राउत और प्रोफेसर शोमा सेन. पांचों पर प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से संबंध रखने और यूएपीए की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाए गए हैं.
पुलिस के अनुसार ये लोग शीर्ष शहरी नक्सल हैं और 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र के कोरेगांव में हुई जातीय हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं. इन पर हिंसा के एक दिन पहले “एल्गर परिषद” को संगठित करने का भी आरोप है. एल्गर परिषद, 1818 में कोरेगांव की लड़ाई में उच्च-जाति मराठा सैनिकों के खिलाफ ब्रिटिश सेना की महार रेजिमेंट की जीत का जश्न मनाने के लिए आयोजित कार्यक्रम है. पुणे पुलिस का दावा है कि गिरफ्तार कार्यकर्ताओं ने अगले दिन दंगों को उकसाने के लिए एल्गर परिषद का इस्तेमाल किया और माओवादी गुटों ने इसकी फंडिंग की थी. पुलिस ने रोना पर "राजीव गांधी की तरह" प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया है. यह आरोप एक पत्र पर आधारित था जिसके बारे में पुलिस का दावा है कि वह रोना के पास से बरामद हुआ था. पुणे पुलिस ने 17 अप्रैल 2018 को रोना के घर छापा मारा था और उसका लैपटॉप, फोन और अन्य लिखित सामग्री जब्त कर उसके सभी पासवर्ड भी ले लिए थे. रोना और अन्य कार्यकर्ताओं को फिलहाल पुणे की यरवदा केंद्रीय जेल में रखा गया है और उनकी जमानत याचिका लंबित है जिसकी सुनवाई की कोई तारीख तय नहीं है.
केरल के कोल्लम के 47 वर्षीय रोना पुदुच्चेरी जाने से पहले राज्य में रहते थे. नब्बे के दशक की शुरुआत में रोना दिल्ली चले आए और गिरफ्तारी के दिन तक वहीं रहे. इस साल जनवरी में , मैं कोल्लम में रोना के परिवार से मिली. घर की छत पर गुब्बारे लटक रहे थे. एक दिन पहले उनके बड़े भाई रॉय की बेटी का पहला जन्मदिन मनाया गया था. यदि रोना बाहर होते तो शायद यहां होते. रॉय ने कहा, "हमारी यह रिवायत है कि हम सभी क्रिसमस में साथ होते हैं." रोना “आम तौर पर केवल क्रिसमस और पारिवारिक समारोह में यहां आते हैं. गिरफ्तारी के बाद दो अवसरों पर रॉय ने रोना से मुलाकात की है.
विल्सन परिवार में तीन भाई-बहन हैं, जिनमें से प्रत्येक ने अलग करियर चुना है. सबसे छोटी बहन सोना बैंक में नौकरी करती हैं और रॉय केरल में एक निजी फर्म के लिए काम करते हैं. विल्सन के एक चचेरे भाई ने मुझे नाम न छापने की शर्त पर बताया कि परिवार के बुजुर्गों ने अपने बच्चों के स्वतंत्र चयन का सम्मान किया है और उनके वैचारिक विश्वासों के विकास में कभी दखल नहीं दिया. रॉय ने बताया, “सच तो यह है कि परिवार में कभी इस बात की चर्चा नहीं हुई कि रोना की पीएचडी का विषय या उसका शीर्षक क्या है.” रॉय और सोना को रोना के काम और शोध की खासी जानकारी नहीं है. रॉय ने मुझे बताया कि रोना ने एक या दो सालों तक मेडिकल की पढ़ाई करने की कोशिश की. उन्होंने जीव विज्ञान में ग्रेजुएशन किया, फिर उन्हें लगा कि वह कुछ और करना चाहते हैं. इसके बाद वह पुदुच्चेरी केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पॉलिटिकल साइंस और अंतर्राष्ट्रीय संबंध की पढ़ाई करने चले गए. रॉय ने बताया, “वहां से उन्होंने अपना एमए पूरा किया था.” इसके बाद रोना ने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में मास्टर्स किया जहां उनका विषय था : “1975 और 1995 के बीच भारतीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की प्रकृति पर हुई बहस का साहित्य सर्वेक्षण.”
परिवार ने मुझे बताया कि रोना अपने काम के बारे में कभी कुछ नहीं बताते थे. सोना याद करती हैं, “हाल ही में, अरुंधति रॉय की नई किताब के धन्यवाद नोट में उनके नाम थे. यह एक बड़ी बात थी लेकिन उन्होंने इसे बहुत हल्के में लिया. हम जैसे मध्यम वर्गीय परिवार के लिए यह एक बड़ी बात थी”. भाई रॉय कहते हैं, “दिलचस्प बात यह थी कि रोना ने हमें इसके बारे में नहीं बताया था. जब हमारे चचेरे भाई ने यह पुस्तक खरीदी तो पता चला कि किताब के बैक कवर पर रोना का नाम है. जब चचेरे भाई ने इसे हमारे व्हाट्सएप ग्रुप पर पोस्ट किया तब कहीं हमें तब इसका पता चला.”
लेखिका अरुंधति रॉय भी रोना के परिवार वालों की बातों पर सही बताती हैं. उन्होंने रोना को “पीछे रह कर” काम करने वाला बताया. मेरे एक ईमेल के जवाब में अरुंधति ने बताया, “शायद यही वह कारण है कि उनके साथ गिरफ्तार हुए अन्य लोगों की अपेक्षा रोना पर कम लिखा गया है.” रोना और अरुंधति दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जी. एन. साईबाबा की रिहाई के लिए गठित समिति के सदस्य हैं. साईबाबा को 2014 में माओवादियों से संबंध होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. वे विकलांग हैं और व्हीलचेयर के सहारे हैं. रॉय का कहना है कि रोना की गिरफ्तारी से उन लोगों के मामलों को नुकसान होगा जिनके लिए रोना लड़ रहे थे. वह कहती हैं, “एक इंसान की कानूनी लड़ाई का समन्वय करना तक चुनौती भरा काम होता है और रोना लगातार जेलों की यात्राएं करते थे, बंदियों के परिजनों से मिलते थे और नि:शुल्क सेवाएं देने वाले वकीलों से बातचीत करते थे. मुझे याद है कि वे झिझक और माफी वाली हंसी के साथ इस काम को पूरी ताकत के साथ कर रहे थे.”
नारीवादी लेखिका और कार्यकर्ता मीना कंदासामी के विचार भी अरुंधति से मिलते जुलते हैं. कंदासामी कहती हैं, “उनकी गिरफ्तारी ने मुझे हिला दिया है”. रोना जैसे लोग हक की लड़ाई लड़ने वालों की आखरी उम्मीद होते हैं. लोग यह जानकर सुरक्षित महसूस कर सकते थे कि रोना जैसे लोग उनका मामला उठाएंगे और उनकी रिहाई के लिए आंदोलन चलाएंगे.” कंदासामी कहती हैं, “रोना जैसे लोगों के जेल जाने के बाद कौन आवाज उठाएगा? क्या हम सभी को चुप करा दिया जाएगा?”
रोना 2000 के दशक की शुरुआत से ही राजनीतिक बंदियों की मुक्ति के लिए काम कर रहे हैं. दिल्ली में रोना के साथी और फिल्म निर्माता संजय काक, रोना को ''2002 से जानते हैं जब वे जेएनयू में पढ़ रहे थे. वह तब जवान थे लेकिन प्रोफेसर एसएआर गिलानी बचाव समिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे.'' 2001 में संसद में हुए हमले के आरोप में दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी के प्रोफेसर गिलानी जेल में बंद थे. दिसंबर 2002 में गिलानी को विशेष अदालत ने हमले का मास्टरमाइंड बताते हुए मौत की सजा सुनाई थी. अक्टूबर 2003 में दिल्ली उच्च अदालत ने गिलानी को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया था.
गिलानी रोना को उन दिनों से जानते हैं जब दोनों 1990 के दशक की शुरुआत में दिल्ली में पढ़ाई कर रहे थे. उस वक्त से ... हमने साथ में मानव अधिकारों के लिए काम किया”, गिलानी ने मुझे बताया. “जब मुझे 2001 में गिरफ्तार किया गया था, तो रोना उन व्यक्तियों में से एक थे जिन्हें मैं हमेशा अदालत में पाता था. मुझे जब भी अदालत में पेशी के लिए लाया जाता, मुझे उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखाई देता जो मुझे राहत देता”, गिलानी ने बताया. जेल में उनके अनुभव के परिणामस्वरूप 2007 में सीआरपीपी का गठन हुआ. “मैंने जेल में बंद लोगों को देखा था. रोना वह पहला व्यक्ति था जिसके साथ मैंने इस बारे में चर्चा की. फिर हम लोग हिंदुस्तान के अलग अलग लोगों से मिले. जिसके कारण राजनीतिक कैदियों की रिहाई के लिए यह समिति अस्तित्व में आ सकी”. गिलानी आगे कहते हैं, “रोना हमारी रीढ़ थे”. संजय काक के अनुसार, “राजनीतिक कैदियों के लिए रोना के काम के चलते ही उन्हें गिरफ्तार किया गया है” क्योंकि रोना "हमारे समाज के सबसे हाशिए पर रहने वालों की रिहाई के लिए कड़ी मेहनत कर रहे थे.”
काक ने आगे बताया कि रोना ने ऐसे क्षेत्र में काम किया जहां बड़े से बड़े गैर सरकारी संगठन काम करने से कतराते हैं. उनके काम के लिए हमेशा पैसों की कमी रहती. “मुझे आज भी 10 साल पहले की वह बात याद है जब इस काम के लिए पैसा उठाने के लिए रोना घर घर जा कर किताबें बेचा करते थे. वे बहुत पढ़े लिखे थे और किताब चयन करने का उनका तरीका लाजवाब था, शायद इसलिए वे बहुत कम समय में खूब सारी किताब बेच लिया करते थे.”
रोना के चचेरे भाई ने भी कहा कि रोना के पास पैसे नहीं होते थे. “परिवार के लिए वह बहुत महत्वपूर्ण हैं. हम सब उन्हें पैसे भेजा करते थे. वे कभी मांगते नहीं थे”. चचेरे भाई ने आगे बताया, “वे संपादन कार्य करते थे. फिर भी हम उन्हें पैसे भेजा करते थे”. जब बड़े भाई रॉय ने ठीक से कमाना शुरू कर दिया तो यह रुक गया. उन्होंने बताया कि परिवार के सदस्य यह मानने को तैयार नहीं हैं कि रोना के काम के लिए उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता हैं. “उन लोगों को विश्वास ही नहीं हो रहा है इस अच्छे काम के लिए रोना को जेल भेजा जा सकता है. चचेरे भाई ने फोन पर मुझे बताया, “रोना ने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया. वे घोर हिंदुत्व विरोधी थे, राजनीति में गहरी रुचि रखते थे लेकिन इन बातों के लिए उन्हें जेल में नहीं डाला जा सकता”. कोल्लम के लेखक एस अजयकुमार, जो विल्सन के पारिवारिक मित्र भी हैं, ने मुझसे कहा कि रोना पर जो आरोप लगे हैं, रोना ऐसा कुछ नहीं कर सकते. अजयकुमार कहते है, “वे एक चींटी नहीं मार सकते. उनकी बस एक गलती थी कि वे हिंदुत्व के खिलाफ मुखर थे”.
चचेरे भाई ने यह भी उल्लेख किया कि रोना की गिरफ्तारी का परिवार पर गहरा असर हुआ है, उसकी एक चाची उच्च रक्तचाप से पीड़ित हैं और जब से यह खबर मिली तब से उन्हें बुरे सपने आ रहे हैं. रोना की गिरफ्तारी के बाद राष्ट्रीय मीडिया ने जो दिखाया उसने भी परिवार की पीड़ा को और गहरा कर दिया है. गिरफ्तारी के बाद कोल्लम में उनके घर पर मीडिया की भारी उपस्थिति ने रोना के परिजन को सकते में डाल दिया. सोना ने बताया, “मीडिया वाले अचानक घर आ गए और घर की वीडियो रिकॉर्डिंग करने लगे. हम इसके लिए तैयार नहीं थे. हम डर गए.” बाद में पड़ोसियों और स्थानीय पुलिस ने मीडियाकर्मियों को वहां से हटाया. इसके अलावा, मुख्यधारा के समाचार चैनलों में जिस तरह से रोना को दिखाया गया उससे दोनों भाई-बहन का विश्वास मीडिया से उठ सा गया है. सोना कहती है, “अब जब भी हम लोग खबर देखते हैं, तो विश्वास नहीं कर पाते की कौन सी खबर सच है.”
जी. हरगोपाल की बातों में भी दोनों भाई-बहन की तरह ही रोना के लिए चिंता झलकती है. माओवादी के साथ वार्ता में कई बार मध्यस्थता कर चुके प्रोफेसर हरगोपाल ने रोना के काम के बारे में रिपब्लिक टीवी से बात की थी लेकिन वह इस बात से नाराज हैं कि उनकी टिप्पणी को गलत तरीके से पेश किया गया. हरगोपाल ने बताया कि वह रोना को 7 सालों से जानते हैं और रोना एक ''बहुत ही ईमानदार'' और ''प्रतिबद्धता के मामले में हिम्मतवाले'' आदमी हैं. वे कहते हैं, ''मुझे लगता था कि रोना एक दिन भारत के शीर्ष बुद्धिजीवियों में गिने जाएंगे''. वे बताते हैं कि रोना अपने मूल्यों से कभी समझौता न करने वाले इंसान हैं. इस वजह से हरगोपाल ने रोना की गिरफ्तारी के दो दिन बाद, 8 जून को, रिपब्लिक टीवी से बात की. मैंने कहा कि रोना के बारे में मुझे अपनी बात रखने दीजिए क्योंकि मैंने सोचा कि ऐसा करने से लोगों के बीच रोना की छवि बनाने में मदद मिलेगा. रिपब्लिक टीवी के एसोसिएट एडिटर आदित्य राज कौल के साथ बातचीत में रोना पर लगे आरोपों को हरगोपाल ने “पुलिसिया कहानी” करार दिया. लेकिन इस चैनल ने हरगोपाल की बात के विपरीत, यह हैडलाइन बना कर खबर चलाई कि ''माओवाद समर्थक प्रोफेसर हरगोपाल ने रोना विल्सन के संबंधों की पुष्टि की.”
हरगोपाल रोना के प्रशंसक हैं. उन्होंने रोना को आदर्शों वाला शख्स बताया. वे कहते हैं, “अपने मूल्यों के प्रति रोना की प्रतिबद्धता अटल थी और उनकी नैतिकता का आधार "गरीब, बंदियों और आदिवासियों के लिए उनकी चिंता” थी. उन्होंने बताया कि रोना के साथ उनकी बातचीत आमतौर पर "राज्य की प्रकृति, शासन, भारत का भविष्य, संघर्षों का भविष्य" जैसे मुद्दों पर केंद्रित होती थी.
जिन लोगों से मैंने बात की उन सभी ने एक स्वर में कहा कि कैदियों के अधिकारों के प्रति रोना की प्रतिबद्धता के कारण ही वे “बीजेपी सरकार की आंख की किरकिरी” बन गए थे. पत्रकार सुनेत्रा चौधरी जब अपनी किताब “सलाखों के पीछे” लिख रहीं थीं तब जेल जीवन के बारे में रोना के लंबे अनुभव पर बातचीत के लिए उनसे मिली थीं. 2016 में हुई रोना के साथ अपनी मुलाकात को याद करते हुए वह बताती हैं कि उस वक्त भी रोना कहते थे कि सरकार उनके पीछे पड़ी हुई है. वह हमेशा मिलने की जगह को लेकर सतर्क रहते और मैं सोचती कि वह क्यों ऐसा करते हैं. लेकिन वह हमेशा से जानते थे कि गिलानी और अन्य के साथ काम करने के चलते उन्हें चौकस रहना होगा. मुझे यह बात बहुत अच्छी तो नहीं लगी”. चौधरी बताती हैं कि रोना, फोन और ईमेल से संपर्क करना पसंद नहीं करते थे. उन्हें भीड़भाड़ से दूर एकांत वाली जगहों पर मिलना ठीक लगता था. “उन्हें हमेशा इस बात का एहसास रहता था कि उन पर नजर रखी जा रही है.”
रोना के साथ कंदासामी का अनुभव भी इसी तरह का है. कंदासामी कहती हैं, “यदि आप जासूसी और राज्य द्वारा की जाने वाली निगरानी को गंभीरता से लेने वाले व्यक्ति नहीं हैं तो रोना को समझना मुश्किल होगा”. उदाहरण के लिए एक बार रोना ने मुझे बताया था कि मोबाइल फोन को सुनने के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. पुणे पुलिस के प्रधानमंत्री की हत्या वाले खत के बारे में कंदासामी कहती हैं, “मैं इस बात की तस्दीक नहीं कर सकती कि इस तरह का कोई व्यक्ति पत्र लिख कर गोला-बारूद की मांग करेगा जैसे कि वह एक किराने की दुकान से कोई समान मंगवा रहा हो”.
पुणे पुलिस के अनुसार, वह पत्र रोना के लैपटॉप से मिला था और “कामरेड प्रकाश” को लिखा गया था. पुणे में रोना के वकील, रोहन नाहर, ने मुझसे कहा, “वे लोग रोना विल्सन और शोमा सेन को फंसाने की कोशिश कर रहे हैं.” नाहर ने कहा कि पत्र की प्रामाणिकता को सत्यापित करने का कोई तरीका नहीं था. “वह खत सरकार के कथन के खिलाफ जाता है. एक ओर वे लोग कहते हैं कि यह एक गुप्त रूप से संचालित आंदोलन है और अपने वास्तविक नामों का उपयोग नहीं करते हैं. यह मजाकिया और विडंबना है कि उपरोक्त दावा करने के बाद आप ऐसे सबूत पेश कर रहे हैं जिनमें असली नाम से ईमेल भेजे और प्राप्त किए गए.” नाहर ने कहा कि "अभियोजन का पूरा मामला ऐसे ढेरों विरोधाभासों से भरा हुआ है.”
बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बीजी कोलसे-पाटिल ने भी एल्गर परिषद में रोना के शामिल होने के दावों की खारिज किया. पाटिल और सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश और भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष पीबी सावंत ने परिषद का आयोजन किया था. कोलसे-पाटिल ने बताया कि जजों ने व्यक्तिगत रूप से आयोजन का खर्च वहन किया था. उन्होंने मुझे बताया कि कबीर कला मंच के सदस्य सुधीर धवले के अलावा, गिरफ्तार किए गए अन्य चार कार्यकर्ताओं में से किसी को वह नहीं जानते. पाटिल ने भी रोना से कभी मुलाकात नहीं की.
हरगोपाल का भी कहना है कि रोना को पता था कि सरकार उस पर नजर रख रही है. उन्होंने बताया, “लेकिन वह बहुत सावधान भी थे क्योंकि उन्हें अपने करियर की चिंता थी और वह आगे पढ़ना चाहते थे”. जिन अन्य लोगों से मैंने बात की उन लोगों ने भी हरगोपाल की ही तरह रोना को विद्वान और मेहनती बताया. अजयकुमार ने कहा कि रोना की पढ़ने की क्षमता जबरदस्त है. आपको उसे केवल एक बार कुछ बताना होता था और दोहराना नहीं पड़ता. रोना को हजार पृष्ठों की पुस्तक एक बार पढ़ने के बाद दुबारा नहीं पढ़नी पढ़ती. वह किताब की हर लाइन को पढ़ते हैं, उसे आत्मसात कर लेते हैं और उसे अपने ज्ञान का हिस्सा बना लेते हैं.”
गिलानी ने भी रोना की विद्धता की प्रशंसा की. “रोना बहुत पढ़े लिखे व्यक्ति हैं. वह विद्वान हैं. वह अपनी पीएचडी के लिए विदेश जाने वाले थे. लेकिन इस गिरफ्तारी ने उसे रोक दिया. रोना ने हाल ही में अपने डॉक्टरेट को आगे बढ़ाने के लिए सरे विश्वविद्यालय और लीसेस्टर विश्वविद्यालय में आवेदन किया था. जब मैं रोना के परिवार से मिली तो उनके भाई रॉय ने फोन में वह खत मुझे दिखाया जो रोना ने यरवदा केंद्रीय जेल से 12 दिसंबर 2018 को लिखा था. परिवार के प्रति अपनी चिंता के अलावा, उन्होंने अपने परिवार को उपरोक्त दोनों विश्वविद्यालयों के संकाय प्रभारी को पत्र लिख कर उनकी स्थिति से अवगत कराने को कहा था. पत्र में उनकी थीसिस के प्रस्तावित विषय का भी उल्लेख था : "द फिक्शन ऑफ द मुस्लिम अदर : स्टेट, लॉ एंड द पॉलिटिक्स ऑफ नेमिंग इन कंटेम्परेरी इंडिया."
अपने कारावास को रोना बंदियों के अधिकारों के लिए अपनी लंबी लड़ाई का एक पड़ाव मानते हैं. खुद को उन कैदियों के बीच पाने के तुरंत बाद, जिनके लिए वे काम करते रहे थे, उन्होंने अपने परिवार को लिखा था, “जेल का जीवन, यहां की कैद, सभी चीजों को एक अलग रोशनी में देखने का बखूबी अवसर देती है. मैंने एक मानव अधिकार रक्षक के रूप में पिछले 15 या उससे अधिक सालों में जो भी लिखा और जिन बातों के लिए संघर्ष किया, उन्हें सलाखों के इस ओर से देखने का मुझे अच्छा अवसर मिला है”.