लॉकडाउन में स्थानीय प्रशासन के कामों में आरएसएस कैसे कर रहा हस्तक्षेप?

कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मोहन रोड पर प्रवासी श्रमिकों को चाय वितरित कर​ते हुए. आरएसएस के अपने साहित्य के अनुसार, "सेवा" उन प्रमुख रणनीतियों में से एक है जिसे स्वयंसेवकों को समाज के साथ जुड़ने और संगठन की विचारधारा का समर्थन बनाने के लिए अपनाया जाना चाहिए. हिंदू राष्ट्र का गठन संघ के दर्शन का अंतिम उद्देश्य है. प्रमोद अधिकारी
11 July, 2020

28 मार्च की दोपहर को दिल्ली के आनंद विहार अंतरराज्यीय बस टर्मिनल (आईएसबीटी) पर इकट्ठा हजारों प्रवासियों की तस्वीरें और फुटेज समाचार चैनलों और सोशल-मीडिया पर छाई हुईं थीं. उस दिन कोरोनायरस महामारी के खिलाफ लागू देशव्यापी लॉकडाउन (तालाबंदी) का चौथा दिन था. जब ये तस्वीरें टीवी में चल रहीं थीं, उसी वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक राजबीर को दिल्ली संघ के मुख्यालय से फोन आया. राजबीर शकरपुर स्थि​त आरएसएस की पूर्वी दिल्ली जिला संगठन इकाई के प्रभारी राजबीर ने मुझे बताया कि उन्हें तुरंत ही सभी स्वयंसेवकों को जमा कर आनंद विहार आईएसबीटी में पुलिस की मदद के लिए भेजने का निर्देश मिला. राजबीर ने दावा किया कि खुद दिल्ली पुलिस ने आरएसएस से मदद मांगी थी. जब मैं राजबीर के दावों की पुष्टि करने के लिए दिल्ली पुलिस के पास पहुंचा, तो पूर्वी दिल्ली जिले के पुलिस उपायुक्त जसमीत सिंह ने मुझे बताया कि उन्होंने आरएसएस को सहायता के लिए फोन किया था और "उन्होंने हमारी बहुत मदद की."

कारवां ने लॉकडाउन के शुरू से आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों के राहत कार्य में हस्तक्षेप को ट्रैक किया. जांच 11 राज्यों में कम से कम दो दर्जन से अधिक आरएसएस सदस्यों के साथ व्यापक साक्षात्कार, सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध दस्तावेज और डेटा, आरएसएस पर हुए अकादमिक शोध, संगठन के अपने साहित्य और मीडिया रिपोर्टों पर आधारित है. एक ऐसे संगठन के तौर पर जिसे तीन बार प्र​तिबंधित किया गया हो (पहली बार 1948 में गांधी की हत्या के बाद, फिर 1975 में आपातकाल में दो साल के लिए और आखिरी बार 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद) कोविड-19 आपदा राहत में मदद करके सामाजिक स्वीकृति और प्रभाव प्राप्त करना आरएसएस की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है.

दिल्ली पुलिस द्वारा स्थानीय पुलिस के पूरक के तौर पर आरएसएस कैडर का उपयोग एक अकेली घटना नहीं थी. मैंने 11 राज्यों, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और केरल, के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राज्य और जिला-स्तरीय प्रतिनिधियों से बात की. पश्चिम बंगाल और केरल के सदस्यों को छोड़कर सभी ने कहा कि तालाबंदी शुरू होने के बाद से उनके राज्यों में जिला प्रशासन ने नियमित रूप से भोजन और राशन वितरण के लिए और चिकित्सा आपात स्थिति में मदद के लिए संघ से मदद मांगी है.

लॉकडाउन के पहले दो महीनों में कई समाचार रिपोर्टों में खबर आई कि आरएसएस के कैडरों ने लॉकडाउन लागू करने के स्थानीय प्रशासन और पुलिस के प्रयासों में मदद की. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि स्थानीय प्रशासन के सहयोग से आरएसएस ने राहत वितरण में भूमिका निभाई. कई बार स्थानीय प्रशासन ने आरएसएस की मदद लेने से सार्वजनिक रूप से इनकार किया.

24 मार्च को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की कि देशव्यापी तालाबंदी लागू की जाएगी. उन्होंने मजदूरी, भोजन और आवास सुरक्षा पर कोई आश्वासन नहीं दिया और आने वाले दिनों की अराजकता ने प्रमुख शहरों से प्रवासी मजदूरों को पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया. राजबीर ने बताया कि दिल्ली पुलिस को बस स्टेशन पर जुटे प्रवासियों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए स्वयंसेवकों की "मदद" की आवश्यकता थी. "कम से कम 250 स्वयंसेवक मौके पर पहुंचे और सभी ने सावधानी के साथ भीड़ को नियंत्रित किया." उन्होंने कहा कि "पुलिस को यह मुश्किल लग रहा था" लेकिन उनके स्वयंसेवक अंततः स्थिति को नियंत्रण में लाने में कामयाब रहे.

जसमीत ने मुझे यह नहीं बताया कि क्या उन्होंने पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों से आरएसएस से मदद लेने की मंजूरी ली थी क्योंकि वह एक ऐसे संगठन है जो अपनी सैन्य आकांक्षाओं को गर्व के प्रदर्शित करता है. उन्होंने कहा कि उन्होंने जो महसूस किया और जो "जमीन स्तर पर सही" लगा वही किया और वे "इसके लिए शर्मिंदा नहीं हैं." उन्होंने बताया, "मैं लोगों की मदद करने के लिए इसे दोबारा भी करूंगा."

इसी तरह असम राज्य को छोड़कर, अन्य दस राज्यों के मुख्य सचिवों में से किसी ने भी मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया कि क्या आरएसएस के सदस्यों को संबंधित जिला प्रशासन की मदद के लिए आधिकारिक तौर पर सूचीबद्ध क्यों किया गया. असम के मुख्य सचिव की ओर से ओएसडी ने मुझे लिखा, "किसी विशिष्ट संगठन से सहायता लेने के लिए राज्य सरकार से लेकर जिला प्रशासन तक कोई निर्देश नहीं है." ओएसडी ने कहा, "जिला प्रशासन समय की आवश्यकता के अनुसार राहत वितरण में किसी भी वैध संगठन/गैर सरकारी संगठन से सहायता ले सकता है."

आरएसएस के सदस्यों ने मुझे यह भी बताया कि देश भर में डेढ़ से दो लाख स्वयंसेवकों को संघ प्रशासकों के रूप में जिला प्रशासन की मदद करने या संघ के राहत पैकेज वितरित करने के लिए जुटाया गया था. पश्चिम बंगाल और केरल को छोड़कर प्रत्येक राज्य के संघ सदस्यों ने कहा कि पुलिस और जिला प्रशासन ने संघ के राहत कार्यों को अंजाम देने के लिए साजो-सामान लाने-लेजाने को आसान बनाकर संघ की मदद की और राज्य-शासित राहत हस्तक्षेपों को लागू करने में स्वयंसेवकों की मदद भी ली.

संघ के अपने साहित्य के अनुसार, 2014 में आरएसएस देशभर में 74000 से अधिक शाखाएं चला रहा था. इन शाखाओं में बौद्धिक प्रशिक्षण दिया जाता है जो हिंदू धर्मग्रंथों, अर्धसैनिक प्रशिक्षण पर केंद्रित होता है और संघ की गतिविधियों के लिए समन्वय केंद्र के रूप में कार्य करता है. अनुभवी संघ विचारक एमजी वैद्य द्वारा लिखित अंडरस्टैंडिंग आरएसएस में आरएसएस के दर्शन को समझाया गया है. मार्च 2020 की शुरुआत में अपने 90वें जन्मदिन पर वैद्य का सम्मान करते हुए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था, "वैद्य के विचार हमारी विरासत हैं."

वैद्य की पुस्तक में कहा गया है कि भारतीय संदर्भ में "राष्ट्र" और "संस्कृति" का मतलब हिंदू होना और हिंदू परंपराओं का अनुयायी होना है. उनके अनुसार, अन्य धर्मों को मानने वाले लोग भी हिंदू हैं यदि उनके पूर्वज यहां पैदा हुए हैं तो. हालांकि ऐसे लोग हिंदू धर्म के मार्ग से भटक गए थे और उन्हें वापस लाने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि मुसलमानों और ईसाइयों को राष्ट्रवादी नहीं माना जा सकता है अगर वे "हिंदू मंदिरों को नष्ट करने वालों का महिमामंडन करते हैं." वैद्य ने राष्ट्रीय शब्द को "हिंदू," स्वयंसेवक को "देशभक्त नागरिक" और संघ को "सामाजिक परिवर्तन लाने के उत्प्रेरक" के रूप में परिभाषित किया है.

आरएसएस की 2019 की वार्षिक रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "सामाजिक पहल" संघ के "हिंदू राष्ट्र" के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने का एक तरीका है. इसमें कहा गया है, “संघ के कार्यकर्ताओं को विभिन्न सकारात्मक सामाजिक पहलों और गतिविधियों के साथ संपर्क रखना चाहिए. राष्ट्रहित में काम करने वालों को सफलता मिलेगी जिससे उनका प्रभाव बढ़ेगा. "आज की अनुकूल परिस्थितियों में अगर हम कड़ी मेहनत करते हैं तो हम पाएंगे कि हम अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं."

“सामाजिक परिवर्तन” के लिए संघ द्वारा अपनाई गई विभिन्न रणनीतियों में आपदा-राहत प्रमुख हैं. राजनीतिक वैज्ञानिक मालिनी भट्टाचार्जी ने अपनी 2019 की पुस्तक डिजास्टर रिलीफ एंड द आरएसएस : रीस्ट्रक्चरिंग 'रिलिजन' थ्रू ह्यूमेनिटेरियन में इस परिघटना पर शोध किया. पुस्तक आरएसएस के दो प्रमुख आपदा-राहत कार्यों पर उनके शोध पर आधारित है : 1999 में तटीय ओडिशा में आए चक्रवाती तूफान और 2001 इमें गुजरात के भुज को तबाह कर देने वाले भूकंप के दौरान. उन्होंने लिखा है, “अपनी एक मानवीय और दयालु छवि बनाने के अलावा इन आपदाओं में किए जाने वाले राहत कार्य आरएसएस को कैडर निर्माण करने और अपने संगठनात्मक नेटवर्क को मजबूत करने के अवसर प्रदान करते हैं.”

महामारी के दौरान जमीन पर संघ की गतिविधियां भट्टाचार्जी के शोध को दोहराती है. 3 अप्रैल को तेलंगाना के कामारेड्डी जिले में आरएसएस के सदस्यों को जारी किए गए आधिकारिक पास की तस्वीरें सोशल मीडिया पर सामने आईं. इसके धारकों को सार्वजनिक राशन-दुकानों से खाद्यान्न वितरित करने की अनुमति थी. इन तस्वीरों के अनुसार, जिले के राजस्व विभाग द्वारा दो व्यक्तियों को पास जारी किए गए थे. पास में व्यक्तियों के पदनामों की जगह "आरएसएस" लिखा गया था और "ड्यूटी आवंटन" के अनुभाग में "आपदा प्रबंधन आपातकालीन टीम कोविड-19" दर्ज था. इसके बाद कामारेड्डी के जिला कलेक्टर ए. शरथ ने एक बयान जारी किया और राहत कार्यों में आरएसएस को अनुमति देने से इनकार कर दिया.

छह दिन बाद, वैसी ही तस्वीरों को फिर से सोशल मीडिया पर साझा किया गया. इस बार, तेलंगाना के यादाद्री भुवनगिरि जिले में एक चेक पोस्ट का निर्माण करते हुए आरएसएस के लठधारी सदस्यों की तस्वीरें सामने आईं थीं. राचकोंडा के पुलिस कमिश्नर एम. महेश भागवत ने भी बाद में इससे इनकार किया. यादाद्री भुवनागिरी जिला उनके क्षेत्राधिकार में आता है. महेश ने ट्वीट किया, “यह पुलिस का काम है और हम इसे कर सकते हैं. कोई अनुमति नहीं दी गई है.”

तेलंगाना में आरएसएस के प्रवक्ता विजय कुमार ने मुझे बताया कि आरएसएस के स्वयंसेवक दोनों कामों में शामिल थे. उन्होंने कहा कि दोनों ही मामलों में जिला प्रशासन ने संघ से मदद मांगी थी. कुमार आरएसएस की कानूनी शाखा, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, के शहर अध्यक्ष हैं. उन्होंने कहा कि स्थानीय पुलिस ने यादाद्री भुवनागिरि में चेक पोस्ट के लिए स्वयंसेवकों की सहायता मांगी थी. “स्थानीय पुलिस ने फोन किया और हमसे उनकी सहायता के लिए आने का अनुरोध किया. उन्होंने केवल इतना कहा, ‘आप पोशाक में आएं तो बेहतर होगा.’ फिर हमारे कुछ लोग स्वेच्छा से इसमें शामिल हो गए. किसी ने आपत्ति नहीं की.”

कुमार ने कहा कि महेश के इनकार के बाद भी स्थानीय पुलिस ने आरएसएस से कहा था कि फिर से मदद की जरूरत पड़ सकती है. उन्होंने कहा कि स्थानीय पुलिस ने उनसे कहा था, “हमने अपने मुख्यालय को सूचित किए बिना आपकी सहायता ली है. अभी हमें आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं है लेकिन जब भी हमें आवश्यकता होगी हम आपको कॉल करेंगे."

कुमार ने कहा कि नगर निगम और पुलिस भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राहत कार्य में मदद कर रही हैं. “कभी-कभी पुलिस भी हमारा साथ होती है. कभी-कभी नगर पालिका हमारे साथ लोगों को भेज रही है जहां वे राशन बांट रहे हैं.” उन्होंने कहा कि नगरपालिका कार्यालय ने केवल चार लोगों को राहत कार्य के लिए अनुमति दी है. “एक ड्राइवर, एक कर्मचारी और दो आरएसएस के लोग. हम पहले उस क्षेत्र की पहचान करते जिस क्षेत्र को सहायता की आवश्यकता होती और फिर पुलिस नगरपालिका से किसी व्यक्ति की प्रतिनियुक्ति करती."

मध्य प्रदेश में आरएसएस के एक जिला प्रमुख ने, जो नाम जाहिर करना नहीं चाहते थे, मुझे बताया कि जिला प्रशासन ने प्रवासी मजदूरों को लाने के लिए आरएसएस के स्कूलों की दो बसों का इस्तेमाल किया. संघ देश भर में कम से कम 12000 स्कूल चलाता है जिनमें लगभग 32 लाख विद्यार्थी पढ़ते हैं. मजदूर दिल्ली से पूरे रास्ते चले थे और बसों का इस्तेमाल उन्हें राज्य के भीतर उनके घरों तक पहुंचाने के लिए किया गया था. जिला प्रमुख ने मुझे यह भी बताया कि तालाबंदी के दौरान जिला प्रशासन ने कई सार्वजनिक राशन-दुकानों को स्वयंसेवकों की जिम्मेदारी में छोड़ दिया था जो राशन कार्ड धारकों को खाद्यान्न वितरित कर रहे थे.

उत्तर प्रदेश में, वाराणसी बाह्य के प्रचारक रामाशीष सिंह ने मुझे बताया कि वाराणसी के पुलिस अधीक्षक और जिला मजिस्ट्रेट ने उनसे अनुरोध किया था कि “डीएम, एसपी ने हमसे हाथ जोड़कर निवेदन किया कि आप लोग 700-800 की संख्या में राहत कार्यों को करने के लिए निकल रहे हैं तो शारीरिक दूरी  को बनाए रखना मुश्किल बना देगा.’’ उन्होंने कहा कि अधिकारियों ने उन्हें बताया कि आरएसएस एक "महान कार्य" कर रहा है लेकिन राहत सामग्री वितरित करने के लिए बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों को इकट्ठा होना एक समस्या बन गई है. रामाशीष ने कहा कि प्रशासन ने तब सुझाव दिया, "चलिए ऐसा करिए कि की आप सब अपने घरों में ही रहें और राहत सामग्री पुलिस चौकियों को भेज दें." उन्होंने कहा कि अधिकारियों ने उन्हें बताया कि आरएसएस एक प्रतिनिधि नियुक्त कर सकता है जो बाद में पुलिस टीमों के साथ संघ की राहत वितरित करेगा. इन दोनों अधिकारियों ने उनसे संपर्क करने के कई प्रयासों के बावजूद प्रतिक्रिया देने से इनकार कर दिया है.

9 जुलाई को मोदी ने वाराणसी के अपने निर्वाचन क्षेत्र में एक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से उन गैर सरकारी संगठनों के साथ बातचीत की जो लॉकडाउन के दौरान राहत कार्य में शामिल थे. बैठक के दौरान शहर के एक धार्मिक ट्रस्ट, गायत्री परिवार के जिला प्रभारी गंगाधर उपाध्याय  ने रामाशीष द्वारा बताई गई बातों को दोहराया. उपाध्याय ने मोदी से कहा, "सरकारी वाहन और डाकघरों से जुड़े लोग हमारे केंद्रों में आते हैं और हमसे खाने के पैकेट ले जाते हैं ... खासकर हमारे जिलाधिकारी, उच्च अधिकारी, आयुक्त बहुत सहयोगी हैं." मोदी ने उपाध्याय की जमकर तारीफ की और व्यवस्था को ''मानवीय व्यवस्था'' कहा.

केरल के प्रांतीय कार्यावाह गोपालन कुट्टी ने मुझे बताया कि शुरुआत में केरल सरकार ने सरकार के राहत कार्यक्रम को लागू करने के लिए आरएसएस के सभी मदद के प्रस्तावों को ठुकरा दिया. कुट्टी ने कहा कि उन्होंने तब "सभी नियमों का पालन किया" और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से मानवीय कार्य करने की अनुमति के लिए आवेदन किया. मैंने राष्ट्रीय सेवा भारती की केरल इकाई के अध्यक्ष डी. विजयन से भी बात की, जो संघ का ही एक संगठन है और संगठन की सामाजिक परियोजनाओं को संभालता है. उन्होंने मुझे बताया कि केरल राज्य सरकार ने राज्य में संघ की गतिविधियों को प्रतिबंधित करने के लिए अपने स्तर पर पूरी कोशिश की. उन्होंने यह भी कहा कि आरएसएस स्वतंत्र रूप से काम करता है और राज्य के सभी जिलों में अपने आपदा-राहत कार्यों को जारी रखने में कामयाब रहा है.

केरल के पालक्काड और आलप्पुषा़ के जिला कलेक्टरों ने अपने जिलों में संघ की गतिविधियों के बारे में पूछे गए सवालों के जवाब देने से इनकार कर दिया. एर्नाकुलम जिले के कलेक्टर एस. सुहास ने मुझे बताया कि राज्य की अपनी प्रणाली थी. सुहास ने कहा कि "प्रत्येक जिले में एक आंतरिक-एजेंसी समूह है जिसमें कई एनजीओ शामिल हैं जो जिला प्रशासन के साथ काम करते हैं," और केवल इन गैर-सरकारी संगठनों की सेवाओं का उपयोग राज्य द्वारा किया जा रहा था. लेकिन वह यह स्पष्ट नहीं कर सके कि इसमें संघ का कोई संगठन शामिल है या नहीं.

केरल के अलावा, तृणमूल कांग्रेस शासित पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार ने आरएसएस के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया. जब मैंने दक्षिणी पश्चिम बंगाल के एक प्रांत प्रचार प्रमुख बिप्लव रॉय से पूछा कि इस बारे में राज्य अपवाद क्यों है, तो उन्होंने बताया कि आरएसएस ने "कांग्रेस शासित राज्यों" में भी थोड़ी बहुत कठिनाइयों के साथ काम किया है और "कम्युनिस्ट शासित राज्य" में भी. उन्होंने कहा कि यह इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ "हमारे केवल वैचारिक अंतर है लेकिन टीएमसी के साथ हमारी राजनीतिक, वैचारिक और अन्य प्रकार की दुश्मनी है." रॉय ने कहा कि लगभग 9000 स्वयंसेवक जिला प्रशासन से जो भी अनुमति प्राप्त कर सके, उससे सामुदायिक स्तर पर राहत अभियान चलाने में कामयाब रहे.

राजनीतिक वैज्ञानिक रावसाहेब कस्बे के अनुसार, संघ का अंतिम लक्ष्य चतुरवर्ण प्रणाली को स्थापित करना है. कस्बे ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर की पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स की आलोचना लिखी है. कस्बे की पुस्तक मराठी में है और 1978 में प्रकाशित हुई थी. किताब के प्रकाशन के बाद स्वयंसेवकों ने सार्वजनिक रूप से पुस्तक को जलाया था. 2019 में पुस्तक को डिकोडिंग आरएसएस शीर्षक से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया था.

कस्बे ने अपनी पुस्तक में लिखा है, “आधुनिक काल में हिंदूवादियों के लिए प्रमुख चिंता मनुस्मृति और गीता के माध्यम से हिंदू संस्कृति के प्रभुत्व को बनाए रखना है. ऐसा करने के लिए, उन्हें एक ऐसे मंच की आवश्यकता थी जहां से वे ऐतिहासिक शख्सियतों की बहादुरी और वीरतापूर्ण कार्यों के बारे में बात कर सकें. 1925 में आरएसएस की स्थापना ने इस समस्या का समाधान किया. इस प्रकार आरएसएस का जन्म गैर-ब्राह्मण लोगों के शोषण के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक आधार प्रदान करने की आवश्यकता का एक परिणाम था."

कस्बे ने मुझे बताया कि "संघ 1925 में अपने गठन के बाद से वैधता हासिल करने की कोशिश कर रहा था." उन्होंने कहा कि संघ के राहत कार्य "सामाजिक संगठन" के रूप में खुद को पेश करने के लिए "इसी तरह की कार्रवाइयों" के "विस्तार" के अलावा कुछ भी नहीं हैं.

इमेज बिल्डिंग पर भट्टाचार्जी के विचार भी प्रासंगिक हैं. आरएसएस के लॉकडाउन के दौरान किए गए राहत कार्यों को नियमित मीडिया कवरेज प्राप्त हुआ है जो अक्सर प्रचार की तरह होता है और संगठन की "मानवीय" छवि पर जोर देता है. बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारों ने, जिन्हें पहले संघ की राजनीतिक शाखा के सदस्यों द्वारा सार्वजनिक रूप से निशाना बनाया गया था, तालाबंदी के दौरान आरएसएस के काम की प्रशंसा की है. सरदेसाई ने समाचार नेटवर्क इंडिया टुडे के अपने शो और ट्विटर में संघ की सराहना करते हुए कहा, "आरएसएस के स्वयंसेवकों ने कोविड में अच्छा काम किया है." दत्त ने अपने यूट्यूब चैनल पर एक विशेष रिपोर्ट दिखाई, जिसमें आरएसएस स्वयंसेवक मुंबई में स्थानीय लोगों का कोविड-19 परीक्षण कर रहे थे. रिपोर्ट में कहा गया, "आरएसएस के स्वयंसेवक वास्तव में अपने जीवन को जोखिम में डालकर, अच्छे खिदमदगारों की तरह जांच, परीक्षण और डेटा संग्रह के साथ मुंबई के नगर निगम की मदद कर रहे हैं."

प्रिंट मीडिया भी अपने कवरेज में इसी तरह उदार रहा है. 23 मार्च को लॉकडाउन शुरू होने से पहले ही, हिंदुस्तान टाइम्स ने शीर्षक के साथ एक रिपोर्ट प्रकाशित की, "कोविड-19 पर सरकार की पहल से जुड़ा आरएसएस, चलाया जागरूकता अभियान." 16 अप्रैल को टाइम्स ऑफ इंडिया ने शीर्षक के साथ एक रिपोर्ट चलाई "कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में असहायों के बचाव में खड़ा संघ." इंडियन एक्सप्रेस ने 26 अप्रैल को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के ऑनलाइन भाषण को इस शीर्षक के साथ प्रकाशित किया, "बिना किसी भेदभाव के सभी की मदद करें : आरएसएस कार्यकर्ताओं से बोले मोहन भागवत.” हिंदू ने 12 अप्रैल को संघ के राहत उपायों पर एक लेख छापा जिसका शीर्षक था, "भारती सेवा संगम ने चेन्नई में जरूरतमंद लोगों और आरएसएस स्वयंसेवकों ने गरीबों को किट वितरित किए." लेख के साथ एक फोटो थी जिसमें एक मुस्लिम महिला को आरएसएस के सदस्यों से किट प्राप्त करते हुए दिखाया गया था.

मैंने जिन आरएसएस प्रतिनिधियों से बात की उनमें से कइयों ने मुझे बताया कि तालाबंदी के दौरान जो काम हुआ उसमें शामिल समुदायों के साथ निकट संपर्क स्थापित करने में मदद मिलेगी. पूर्वी दिल्ली के प्रचारक राजबीर को भरोसा था कि आरएसएस द्वारा किए गए राहत कार्य से भारतीय युवाओं को संगठन में शामिल होने की प्रेरणा मिलेगी. राजबीर दिल्ली के स्थानीय नहीं हैं और यहां एक तरह की प्रतिनियुक्ति पर भेजे गए हैं. उन्होंने मुझे बताया कि एक प्रचारक को देश के किसी भी क्षेत्र में तैनात किया जा सकता है जो "राष्ट्र-विरोधी" तत्वों के "खतरे" का सामना कर सकता है. वह 30-35 साल के हैं और उन्होंने कुछ साल पहले भारतीय नौसेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और प्रचार के लिए आजीवन कुंवारे रहने का संकल्प लिया. उन्होंने मुझसे कहा, "सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना, जिसे संघ विकसित करता है, वही युवाओं को आकर्षित करती है."

राजबीर जैसा आत्मविश्वास आरएसएस के अन्य कार्यकर्ताओं की बातों में भी दिखा. महिपाल सिंह, जो दिल्ली में आरएसएस की पूर्वी जिला इकाई के प्रमुख हैं, ने मुझे बताया कि “शकरपुर में मेरी कॉलोनी की एक बूढ़ी महिला ने मुझे नियमित रूप से क्षेत्र में राहत कार्य करते हुए देखने के बाद 2000 रुपए का दान दिया था. वह भी बिना मांगे." महिपाल ने कहा कि तालाबंदी के दौरान संघ के राहत कार्यों को देखते हुए कई बुजुर्गों औरतों ने स्थानीय इकाई को पैसे दान किए हैं.

यहां तक ​​कि पूर्वी दिल्ली के डिप्टी पुलिस कमिश्नर जसमीत ने मुझसे कहा कि "अगर वे अच्छे काम के लिए कुछ कर रहे हैं तो हमें कोविड-19 के स्वयंसेवकों के राजनीतिक जुड़ाव को नहीं देखना चाहिए." उन्होंने कहा कि उन्हें आरएसएस से मदद मांगने में "शर्म नहीं आई" क्योंकि यह "असाधारण समय" था और उसने "सामुदायिक स्तर के हस्तक्षेप" को सुनिश्चित करने के लिए "जो किया जा सकता था किया." उन्होंने कहा कि दिल्ली पुलिस द्वारा आरएसएस से सहायता मांगने के बारे में सवाल "इसे एक रंग देने" का प्रयास था.

जसमीत ने आरएसएस से मदद मांगने के अपने फैसले का भी कानूनी रूप से बचाव किया. उन्होंने कहा, "दंड प्रक्रिया संहिता के तहत, हम जमीनी स्तर पर किसी भी नागरिक की मदद ले सकते हैं.” लेकिन उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह ने मुझे बताया कि नागरिकों से मदद लेने के लिए पुलिस अधिनियम, 1861 में प्रावधान है लेकिन पुलिस केवल ऐसे लोगों से मदद ले सकती है जो गैर-राजनीतिक हों, कोई आपराधिक पृष्ठभूमि ना हो और जिनकी समुदाय में अच्छी प्रतिष्ठा हो.”

महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक एसएम मुश्रीफ ने कहा कि कि इंटेलिजेंस ब्यूरो ही उसे "सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों के रूप में पेश करता रहता है." मुश्रीफ ने कहा कि आईबी "जिसकी सरकार, उसका दिमाग" जैसा है और मीडिया "लोगों का दिमाग" है. उनका मानना ​​था कि आरएसएस ने दोनों संस्थानों पर अनुचित प्रभाव डाला है. मैंने ब्यूरो से संपर्क करने की बार-बार कोशिश की लेकिन जवाब नहीं मिला. मुश्रीफ ने कहा कि लोगों को संघ को उसके राहत कार्य के आधार पर वैधता नहीं देनी चाहिए क्योंकि अंततः आरएसएस "एक आतंकवादी संगठन" है.

मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के समाजशास्त्री और संकाय सदस्य वर्षा अय्यर ने मुझे बताया कि जसमीत द्वारा दिया गया ''व्यापक हित'' का तर्क बहुत निराशाजनक है. उन्होंने बताया, "अच्छे समाज के विचार' असाधारण रूप से धर्म, संस्कृति और उसके मूल्यों से आकार लेते हैं. इसलिए भारत में परोपकार को समझने के लिए, खासकर आरएसएस की 'सेवा’ को समझने के लिए यह हमें धर्म और संस्कृति के लेंस से सोचने की जरूरत है.” अय्यर ने चेतावनी दी, "आरएसएस और उसके मूल मूल्यों, विश्वासों और राजनीति को अनदेखा करना घातक होगा जो अनिवार्य रूप से राजनीतिक और सांस्कृतिक परियोजनाओं के माध्यम से ब्राह्मणवादी संकीर्णताओं को बनाए रखने और पुन: पेश करने के वर्चस्ववादी सिद्धांतों पर बनाए गए हैं."

(कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राहत कार्य पर श्रृंखला की यह पहली रिपोर्ट है.)