आजादी के लिए भारत की दौड़ शुरू होने के तुरंत बाद ही 9 सितंबर 1945 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष पदाधिकारियों ने अपने नागपुर मुख्यालय में एक बैठक की जिसमें लोकतंत्र की आसन्न हत्या की योजना पर चर्चा की गई. एक पुलिस रिपोर्ट, जिसने इस बैठक के ब्योरे का दस्तावेजीकरण किया और जिसे मैंने हाल ही में पाया, संघ के क्रूर राजनीतिक उद्देश्यों के बारे में मौजूदा सबूतों को और अधिक वजन देती है.
बैठक में हुए विचार-विमर्श को एक नोटबुक में सवाल-जवाब के प्रारूप में हाथ से लिखा गया था. 30 जनवरी 1948 को मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या के बाद आरएसएस मुख्यालय से भारी मात्रा में जब्त किए गए दस्तावेजों में यह भी शामिल थी. नोटबुक के बारे में पुलिस की रिपोर्ट इतने सालों तक अभिलेखागार में दबी रही.
ऐसा माना जाता था कि यह बैठक आरएसएस की योजना को शीर्ष नेतृत्व से लेकर प्रमुख संगठनकर्ताओं और शिक्षकों तक पहुंचाने के लिए थी, जो तब-स्वयंसेवकों के नियमित संपर्क में रहने के कारण संदेश को नीचे तक ले जाते थे. बैठक का ब्योरा दर्शाता है कि 1945 में भी संघ की गुप्त इच्छा राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने की थी और इस तरह एक चुनावी लोकतंत्र की तर्ज पर देश को विकसित करने की भारतीय राष्ट्रवादियों के कोशिशों को नाकाम करने की थी.
पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक, जिसमें नोटबुक का हवाला दिया गया है, बैठक में मधुकर दत्तात्रेय देवरस, एक भावी सरसंघचालक के साथ-साथ प्रमुख संगठनकर्ताओं और शिक्षकों ने भाग लिया, जिनमें "पीवी सावरकर, दत्ता वैद्य, अन्ना पंढरीपांडे, बाबूराव सावतकर, नंदलाल वर्मा, नाना नरले, क्षीरसागर, मधुकर ओक और तात्याजी'' शामिल थे. नोटबुक में एक चर्चा का ब्योरा दिया गया है, जिसमें देवरस ने राजनीति के लिए संघ के दृष्टिकोण के बारे में सवालों के जवाब दिए.
नोटबुक के शरू में लिखा है कि देवरस ने आगामी चुनावों के आलोक में अपने स्वयंसेवकों को संघ की राजनीति के विचार की बारीकियों से वैचारिक रूप से लैस करने के स्पष्ट उद्देश्य से बैठक बुलाई थी. उस समय आरएसएस के सरसंघचालक एमएस गोलवलकर थे, जो आज भी संघ में गुरुजी के रूप में पूजनीय हैं. लेकिन देवरस, आरएसएस के साथ लंबे समय तक जुड़े रहने और इसके प्रमुख संगठनकर्ताओं और शिक्षकों के साथ व्यक्तिगत संपर्क के कारण, उस समय संगठन की राजनीतिक रणनीतियों के मुख्य कर्ता-धर्ता के रूप में देखे जाते थे. आरएसएस के संगठनात्मक ढांचे में इस विशेष स्थिति के कारण ही 1973 में गोलवलकर की मृत्यु के बाद देवरस सरसंघचालक बनने में सफल रहे.
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