आरएसएस आजादी से पहले ही भारतीय लोकतंत्र को कुचल देना चाहता था

1945 की पुलिस रिपोर्ट राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने की आरएसएस की गुप्त इच्छा को दर्शाती है. इलेशट्रेशन सुकृति अना स्टेनली; चित्र सौजन्य विकिमीडिया कॉमन्स, सौजन्य नेहरू स्मारक संग्रहालय पुस्तकालय
13 August, 2022

आजादी के लिए भारत की दौड़ शुरू होने के तुरंत बाद ही 9 सितंबर 1945 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष पदाधिकारियों ने अपने नागपुर मुख्यालय में एक बैठक की जिसमें लोकतंत्र की आसन्न हत्या की योजना पर चर्चा की गई. एक पुलिस रिपोर्ट, जिसने इस बैठक के ब्योरे का दस्तावेजीकरण किया और जिसे मैंने हाल ही में पाया, संघ के क्रूर राजनीतिक उद्देश्यों के बारे में मौजूदा सबूतों को और अधिक वजन देती है.

बैठक में हुए विचार-विमर्श को एक नोटबुक में सवाल-जवाब के प्रारूप में हाथ से लिखा गया था. 30 जनवरी 1948 को मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या के बाद आरएसएस मुख्यालय से भारी मात्रा में जब्त किए गए दस्तावेजों में यह भी शामिल थी. नोटबुक के बारे में पुलिस की रिपोर्ट इतने सालों तक अभिलेखागार में दबी रही.

ऐसा माना जाता था कि यह बैठक आरएसएस की योजना को शीर्ष नेतृत्व से लेकर प्रमुख संगठनकर्ताओं और शिक्षकों तक पहुंचाने के लिए थी, जो तब-स्वयंसेवकों के नियमित संपर्क में रहने के कारण संदेश को नीचे तक ले जाते थे. बैठक का ब्योरा दर्शाता है कि 1945 में भी संघ की गुप्त इच्छा राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने की थी और इस तरह एक चुनावी लोकतंत्र की तर्ज पर देश को विकसित करने की भारतीय राष्ट्रवादियों के कोशिशों को नाकाम करने की थी.

पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक, जिसमें नोटबुक का हवाला दिया गया है, बैठक में मधुकर दत्तात्रेय देवरस, एक भावी सरसंघचालक के साथ-साथ प्रमुख संगठनकर्ताओं और शिक्षकों ने भाग लिया, जिनमें "पीवी सावरकर, दत्ता वैद्य, अन्ना पंढरीपांडे, बाबूराव सावतकर, नंदलाल वर्मा, नाना नरले, क्षीरसागर, मधुकर ओक और तात्याजी'' शामिल थे. नोटबुक में एक चर्चा का ब्योरा दिया गया है, जिसमें देवरस ने राजनीति के लिए संघ के दृष्टिकोण के बारे में सवालों के जवाब दिए.

नोटबुक के शरू में लिखा है कि देवरस ने आगामी चुनावों के आलोक में अपने स्वयंसेवकों को संघ की राजनीति के विचार की बारीकियों से वैचारिक रूप से लैस करने के स्पष्ट उद्देश्य से बैठक बुलाई थी. उस समय आरएसएस के सरसंघचालक एमएस गोलवलकर थे, जो आज भी संघ में गुरुजी के रूप में पूजनीय हैं. लेकिन देवरस, आरएसएस के साथ लंबे समय तक जुड़े रहने और इसके प्रमुख संगठनकर्ताओं और शिक्षकों के साथ व्यक्तिगत संपर्क के कारण, उस समय संगठन की राजनीतिक रणनीतियों के मुख्य कर्ता-धर्ता के रूप में देखे जाते थे. आरएसएस के संगठनात्मक ढांचे में इस विशेष स्थिति के कारण ही 1973 में गोलवलकर की मृत्यु के बाद देवरस सरसंघचालक बनने में सफल रहे.

अपनी शुरुआत के बाद से ही आरएसएस ने अक्सर खुद को एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन के रूप में पेश किया है. 2020 में भी, वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने दावा किया कि संघ का राजनीति से कोई संबंध नहीं है. लेकिन यह तथ्य कि राजनीति हमेशा आरएसएस के मूल में रही है, शायद ही कोई रहस्य हो. पुलिस रिपोर्ट में भी इसका संकेत दिया गया था.

पीवी सावरकर के एक सवाल के जवाब में देवरस ने कहा, "यह कहना गलत है कि हमारा राजनीति से कोई संबंध नहीं है." उन्होंने बताया कि गोलवलकर ने एक बार कहा था कि आरएसएस का "वर्तमान राजनीति" से कोई संबंध नहीं है, जिसे देवरस ने चुनाव लड़ने के प्रयास के रूप में वर्णित किया.

देवरस ने कहा, "आज हमारी योजना पूरे भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को संगठित करके एक शक्तिशाली निकाय बनाने की है और इस तरह एक अखिल भारतीय एकता को प्रभावित करने की है और फिर उपयुक्त समय पर हमारे नेता से एक आदेश मिलने पर सत्ता कब्जाने की है. जाहिर है इस शक्ति को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि इसका उपयोग किसी अन्य क्षेत्र में न किया जाए और हमारा ध्यान किसी और चीज की ओर न जाए.

बैठक में भाग लेने वालों के लिए राजनीतिक मकसद को आकर्षक बनाने के लिए, देवरस ने प्राचीन हिंदू महाकाव्य महाभारत के एक प्रसिद्ध प्रसंग का हवाला दिया. पांडवों और कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों से एक पेड़ से लटकी एक लकड़ी के चिड़िया पर अपना लक्ष्य साधने के लिए कहते हैं और उनसे पूछते हैं कि उन्हें क्या दिख रहा है. अलग-अलग राजकुमार दृश्य के विभिन्न तत्वों का वर्णन करते हैं, लेकिन अर्जुन कहते हैं कि उन्हें केवल चिड़िया की आंख दिख रही है. "क्या इसका मतलब यह है कि अर्जुन इस बात से अनजान थे कि द्रोणाचार्य उनके बगल में खड़े थे और चिड़िया पेड़ पर बैठी थी?" देवरस ने पूछा. "लेकिन इस सब के साथ जब दृष्टि किसी निश्चित वस्तु की ओर निर्देशित होती है तो यह आवश्यक है कि इसे किसी और चीज की ओर न मोड़ा जाए."

शायद देवरस संघ के इरादों के कुछ संदिग्ध पहलुओं से अवगत थे इसलिए उन्होंने "वर्तमान राजनीति" को बदनाम करने और संघ की योजना के वास्ते रास्ता बनाने के लिएbमराठा राजा और महाराष्ट्र में सबसे सम्मानित राजनीतिक व्यक्ति शिवाजी का उल्लेख किया.

क्या शिवाजी ने वर्तमान राजनीति का उपयोग करके औरंगजेब के साम्राज्य को उखाड़ फेंका? वर्तमान राजनीति अंग्रेजों के प्रशासन के नए तरीके के कारण अस्तित्व में आई है. अंग्रेजों ने प्रशासन की रोमन पद्धति का अनुसरण करते हुए इसके दोषों को टाला. जैसे-जैसे गुलाम लोगों की भावनाएं जगने लगीं, उन्होंने इसके निर्गम के लिए एक तरीका निकाला और कानून के अनुसार सब कुछ करने का फैसला किया... वर्तमान राजनीति इस व्यवस्था की रचना है. वर्तमान राजनीति से प्राप्त फल भी सीमित हैं, उदाहरण के लिए करों में साधारण कमी या कुछ छोटे अधिकारों की उपलब्धि. ... यह सोचना कि कुछ सुधार या कुछ अधिकार मिलने में कोई फायदा है, एक गलती है. अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिए ऐसा किया है.

आरएसएस को जन आंदोलन में बदलने के बारे में पंढरीपांडे के एक सवाल के जवाब में देवरस ने कहा कि संघ की योजना आश्चर्यजनक थी. "ऐसा नहीं है कि सभी चीजें तय योजना के अनुसार की जाती हैं," उन्होंने कहा. "अगर हम सोचते भी हैं कि हम कदम दर कदम काम करेंगे, तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सभी कारक आखिरी तक रहेंगे."

रिपोर्ट के अनुसार, देवरस ने स्वयंसेवकों की भूमिका के बारे में भी बात की, जब तक कि आरएसएस सत्ता पर कब्जा करने के लिए संगठनात्मक रूप से तैयार नहीं हो जाता. "यह संभव है कि हमें कुछ भी करना पड़े," उन्होंने नरले के एक सवाल के जवाब में कहा. “यह भी संभव है कि संघ 5-10 लोगों को अपनी राजनीतिक पार्टी शुरू करने के लिए कहे. सब कुछ संभव है. यह हमारी सामान्य योजना है… हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हम इस अवसर के लिए उपयुक्त कदम उठाएंगे … नेपोलियन के शाही पहरेदार के बारे में कहा जाता है कि वह उपयुक्त समय आने तक उसे जितना हो सके खिलाता था. एक उचित समय पर, वह आक्रामक हो जाता था. कई बार हम अधीर हो जाते हैं."

देवरस ने कहा कि आरएसएस की आने वाले चुनाव में हिस्सा लेने की कोई योजना नहीं थी, लेकिन उसके कार्यकर्ताओं को वोट देना चाहिए. यह पूछे जाने पर कि स्वयंसेवकों को वोट ही क्यों देना चाहिए, देवरस ने कहा, "ऐसी कई चीजें हैं जिनके हम पक्ष में नहीं हैं लेकिन फिर भी हमें उन चीजों को करना है. हम गुलामी के पक्ष में नहीं हैं लेकिन फिर भी हम इसमें हैं. चुनाव के मामले में भी ऐसा ही है."

लोकतंत्र के प्रति संघ के द्वेष का यह शायद ही एकमात्र प्रमाण है. जैसा कि मैंने कारवां की पिछली कवर स्टोरी में आरएसएस के नाजीवाद से जुड़ाव के बारे में लिखा था, “1930 और 1940 के दशक के अंत में, आरएसएस के कई सदस्य यूरोपीय फासीवादियों के प्रति आसक्त थे. समकालीन बयानों से पता चलता है कि, इस अवधि के दौरान, गोलवलकर ने आरएसएस को नाजी शैली के मिलिशिया में बदलने की कोशिश की, जिसका लक्ष्य अंततः खुद को फ्यूहरर यानी हिटलर के रूप में स्थापित करना था .

उस समय, हालांकि, आरएसएस सत्ता पर कब्जा करने की अपनी योजना को क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो सका. गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर सरकार की भारी कार्रवाई हुई. इसे डेढ़ साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया और इसके हजारों नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. जुलाई 1949 में प्रतिबंध हटने के बाद भी, यह गंभीर बाधाओं के तहत काम करते हुए सतर्क रहा.

आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी चुनावी शाखा, भारतीय जनता पार्टी के पूर्ण संसदीय बहुमत से उत्साहित होकर बुलंदियों पर है. बीजेपी शासित राज्यों में अल्पसंख्यकों और राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सत्ता का अत्यधिक उपयोग, मनमानी हिरासत और दंडात्मक उपाय न केवल यह दिखाते हैं कि आरएसएस अभी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाने में सक्षम नहीं है, बल्कि यह भी है कि वह राजनीति को अलग तरह से देखता है.