बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ कर सिखों और धनी जट्टों की प्रतिनिधि मानी जाने वाली शिरोमणि अकाली दल ने दलितों की प्रतिनिधि पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ 25 साल बाद दुबारा रिश्ता कर लिया है.
इस साल 12 जून को शिरोमणि अकाली दल के मुखिया सुखबीर सिंह बादल और बसपा के महासचिव सतीश मिश्रा ने ऐलान किया कि दोनों पार्टियां 2022 का विधानसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ेंगी. पंजाब की 117 विधानसभा सीटों में से अकाली दल 97 सीटों पर और बसपा 20 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. बसपा को दी गई 20 सीटों में 8 सीटें दलित प्रभाव वाले दोआबा क्षेत्र में, 7 सीटें मालवा और 5 सीटें माझा क्षेत्र में हैं.
सुखबीर बादल ने गठजोड़ को हकीकत बनाने का सेहरा बसपा सुप्रीमो मायावती के सिर डाला है. उन्होंने कहा है, “यह गठजोड़ सिर्फ 2022 के विधानसभा चुनाव तक ही सीमित नहीं है बल्कि भविष्य में भी बना रहेगा. अकाली दल जिसका हाथ एक बार पकड़ लेती है तो जल्दी नहीं छोड़ती, अंत तक निभाती है. अकाली दल व बसपा की विचारधारा एक है, दोनों किसानों, दलितों और खेत मजदूरों की भलाई के लिए काम करते रहेंगे.”
इस अवसर पर बसपा नेता सतीश मिश्रा ने कहा, “यह दिन पंजाब के इतिहास में बड़ा दिन है जब बसपा ने हिंदुस्तान की एक पुरानी क्षेत्रीय पार्टी से गठजोड़ किया है.” बसपा सुप्रीमो मायावती ने अकाली दल के साथ गठजोड़ को नई राजनीतिक और सामाजिक पहल करार देते हुए कहा है कि दोनों पार्टियों के मिल कर काम करने से पंजाब में तरक्की और खुशहाली का नया युग आरंभ होगा. पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने मायावती को फोन पर बधाई देते हुए आने वाले समय में पंजाब से चुनाव लड़ने का न्यौता भी दिया है. कुछ अकाली नेता और अकाली समर्थक पत्रकार इस गठबंधन को सिखों और दलितों की साझेदारी और देश के संघीय ढांचे को बचाने वाला गठजोड़ बता रहे हैं.
करीब 26 साल पहले 1995 में अकाली दल ने बठिंडा जिला के गीदड़बाहा विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में बसपा से सहयोग लिया था. उस सीट से अकाली दल के उम्मीदवार प्रकाश सिंह बादल के भतीजे और पंजाब के मौजूदा वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल चुनाव लड़ रहे थे. वह मनप्रीत का पहला चुनाव था. मनप्रीत बहुत कड़े मुकाबले के बाद वह सीट जीत पाए थे. 2010 में एक विवाद के बाद अकाली दल ने मनप्रीत को पार्टी से निकाल दिया जिसके बाद उन्होंने पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब बना ली. फिर 2016 में मनप्रीत ने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया.
1996 के लोकसभा चुनाव में भी अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन किया था. अकाली-बसपा गठबंधन ने पंजाब की कुल 13 सीटों में से 11 सीटें जीती थी. अकाली दल के हिस्से 8, बसपा के हिस्से 3 सीटें आई थीं. इनमें से होशियारपुर सीट से बसपा के संस्थापक कांशीराम विजयी हुए थे. उस चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ दो सीटें मिली थीं. इस जीत के कुछ महीने बाद ही बसपा को बिना बताए अकाली दल ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया और बसपा से अपना नाता तोड़ लिया. अकाली दल ने बिना शर्त केंद्र में बीजेपी को समर्थन दिया था. अपने गठजोड़ को सिख-हिंदू एकता का प्रतीक बता कर अकाली और बीजेपी ने मिल कर 1997 का विधानसभा चुनाव लड़ा. गठबंधन 93 सीटों के साथ (75 अकाली दल व 18 बीजेपी) सत्ता में आया. कांग्रेस को 14 सीटों के साथ करारी हार मिली.
साल 1984 में दलितों की प्रतिनिधि पार्टी के रूप में अस्तित्व में आई बहुजन समाज पार्टी ने 1989 के लोक सभा चुनाव में पंजाब की शिरोमणि अकाली दल (मान) के सहायोग से फिल्लौर लोक सभा सीट जीती. इस सीट से बसपा के उम्मीदवार हरभजन सिंह लाखा जीते थे. 1991 के लोक सभा चुनाव में भी बसपा ने एक सीट जीती थी. (पंजाब में बिगड़े हालातों के चलते वह चुनाव 1992 में हुए पंजाब के विधानसभा चुनावों के साथ हुए थे). 1992 के विधानसभा चुनाव में बसपा का अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन रहा है. उस चुनाव में बसपा ने 9 सीटें जीत कर विपक्षी दल का दर्जा हासिल किया था. अकाली दल ने इन चुनावों का बहिष्कार किया था.
फिर 1997 के विधानसभा चुनावों में बसपा महज एक सीट जीत पाई. इसी दौर में बसपा से टूट कर कई अन्य दलित ग्रुप और पार्टियां बने जिनमें से एक था सतनाम सिंह कैंथ का बहुजन समाज मोर्चा जिसके लिए शिरोमणि अकाली दल ने 1998 और 1999 में लोक सभा की फिल्लौर सीट छोड़ी थी. 1998 के लोकसभा चुनाव में सतनाम सिंह कैंथ फिल्लौर से जीत कर सांसद बने थे. 2002 के विधानसभा चुनाव में भी अकाली दल ने बहुजन समाज मोर्चा के लिए दो सीटें छोड़ी थी लेकिन वह दोनों हार गया. बाद में सतनाम सिंह कैंथ ने बहुजन समाज मोर्चा का कांग्रेस में विलय करवा दिया.
2002 के विधानसभा चुनावों में बसपा कोई सीट हासिल नहीं कर सकी लेकिन उसने 5.69 फीसदी वोट हासिल किए. 2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने 4.13 फीसदी और 2012 के विधानसभा चुनावों में 4.29 फीसदी वोट हासिल किए. 2017 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने अन्य पार्टियों के साथ-साथ बसपा के वोटों पर भी सेंध लगाई और बसपा का वोट प्रतिशत घट कर 1.52 फीसदी रह गया. 2019 के लोकसभा चुनाव बसपा ने कई पार्टियों के गठबंधन “पंजाब डेमोक्रेटिक अलायंस” का हिस्सा बन कर लड़ा और अपनी हालत को कुछ हद तक सुधारा. आनंदपुर लोक सभा सीट से 1 लाख 46 हजार वोट, होशियारपुर से 1 लाख 28 हजार से अधिक वोट और जालंधर से 2 लाख से भी अधिक वोट हासिल किए. कुल मिला कर बसपा का वोट प्रतिशत बढकर 3.5 फीसदी हो गया. पंजाब में बसपा सुप्रीमो मायावती पर अक्सर ही यह आरोप लगाते रहे हैं कि वह उत्तर प्रदेश की ओर अधिक ध्यान देती हैं और पंजाब में सिर्फ “लिप सर्विस” करते हुए बड़ी पार्टियों से ‘फ्रेंडली मैच’ खेलती हैं.
पंजाब में दलितों की आबादी करीब 33 फीसदी है. ग्रामीण क्षेत्र में यह आबादी 37 फीसदी तक हो जाती है. दोआबा क्षेत्र के कई इलाकों में यह अनुपात 45 से 50 फीसदी तक चला जाता है. दलितों का समूचा वोट कभी भी किसी एक पार्टी को नहीं पड़ा है. इसके कई कारण हैं. पंजाब में दलित भाईचारा 39 जातियों में बंटा हुआ है. उनके आपसी हित भी टकराते हैं. पंजाब में दलितों की मुख्य जातियों में रामदासिए, मजहबी व वाल्मीकि प्रमुख हैं. पंजाब के बड़े क्षेत्र मालवा में जाटव और मजहबी सिख बड़ी तादाद में हैं. माझा क्षेत्र में ज्यादातर मजहबी सिख और ईसाई दलित हैं. दोआबा में जाटव और वाल्मीकि समूह बड़ी तादाद में हैं. आमतौर पर मना जाता है कि जाटव मतदाताओं के वोट ज्यादातर कांग्रेस को जाते हैं, वहीं वाल्मीकि और मजहबी मतदाता अकाली दल, बसपा और अन्य पार्टियों को वोट देते हैं.
हालांकि यह माना जाता है कि पंजाब में बाकि कई राज्यों की अपेक्षा दलितों की हालत अच्छी है. सिख धर्म में जातपात की कोई जगह नहीं है लेकिन वर्तमान और अतीत की कुछ ऐसी कड़वी सच्चाइयां भी हैं जिनसे मुंह नहीं फेरा जा सकता.
20वीं सदी के शुरुआत में हरमंदिर साहिब में दलितों से भेदभाव किया जाता था. उनके लिए दरबार साहिब के दर्शनों के लिए अलग समय और स्नान के लिए अलग जगहें निश्चित थीं. उस समय का पुजारी वर्ग दलितों के हाथों से कड़ाह प्रसाद नहीं लेता था और न ही उनके लिए अरदास करता था. इसके खिलाफ सिख भाईचारे को लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी. पंजाबी लेखक बलबीर माधोपुरी 25 जून 2020 को पंजाबी ट्रिब्यून में छपे अपने लेख ‘आदि धर्म अते दलितां नाल वापरे साके’ में उल्लेख करते हैं कि 1931 की जनगणना से पहले जब पंजाब में “आदि धर्म” नए धर्म के तौर पर रजिस्टर्ड हुआ तो हिंदुओं और सिखों द्वारा अछूत समझे जाने वाले समाज पर जुल्म का सांगठनिक रूप देखने को मिला. हिंदुओं और सिखों ने इसे अपनी तौहीन समझी कि सदियों से गुलाम रहने वाले हमारे बराबर कैसे हो गए. विरोधस्वरूप, अछूतों की नाकांदियां की गईं और जगह-जगह उन पर हमले हुए. पंजाब में कई स्थानों पर जनगणना में अपना धर्म “आदि धर्म” लिखवाने वाले दलितों को जान से मारा गया.
दलितों के साथ पंजाब में होने वाले भेदभाव को दर्शाती बेहतरीन आत्मकथा ‘छांग्या रुख’ के लेखक बलबीर माधोपुरी मुझे बताते हैं, “पंजाब में निम्न समझी जाने वाली जातियां आजादी के बाद बेशक कुछ आर्थिक तौर पर ठीक हुई हैं लेकिन सामाजिक गैरबराबरी की लड़ाई अभी बाकि है. मैंने छोटी उम्र से छूआछात, दलितों की गुरुद्वारों में प्रवेश की मनाही, दलितों की बहन-बेटियों के साथ शारीरिक शोषण आदि जुल्म खुद देखे और सहे हैं. पंजाब में अभी भी कई गुरुद्वारों में दलितों की मनाही की खबरें मिल जाती हैं इसीलिए दलितों के अलग गुरुद्वारे और डेरे बने. अभी भी दलितों के श्मशान घाट अलग हैं, गुरुद्वारों से उनके सामाजिक बहिष्कार की अनाउंसमेंट्स होती हैं, यहां तक कि दलित समाज आपस में भी ऊंच-नीच का शिकार है.”
पंजाब में दलितों के साथ सामाजिक गैरबराबरी अहम मुद्दा है. धान के मौसम में धान की बिजाई के रेट धनी किसानों द्वारा खुद ही तय कर दिए जाते हैं. अगर दलित खेत मजदूर इसका विरोध करते हैं तो उनका सामाजिक बहिष्कार करने के मामले सामने आते हैं. प्रमुख पार्टियों के स्थानीय नेता भी इस बहिष्कार में शामिल पाए जाते हैं. दलितों की आर्थिक मांगों की लड़ाई कभी भी किसी दलित संगठन या पार्टी ने नहीं लड़ी, यह लड़ाई हमेशा वामपंथी संगठन लड़ते आए हैं. इनमें एक अहम लड़ाई है पंचायती जमीन में दलितों के एक तिहाई हिस्से की, जो अक्सर ही दलितों को नहीं मिलती. इस हक के लिए वामपंथी संगठनों ने मालवा क्षेत्र में लंबी लड़ाई लड़ी है. जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी के मुकेश मलोद ने मुझे बताया, “हमारे इस संघर्ष का अकाली और कांग्रेसियों ने तो विरोध किया ही लेकिन कई दलित संगठन भी हमारे साथ नहीं खड़े हुए. बहुजन समाज पार्टी की भूमिका भी बहुत नकारात्मक रही.”
दोआबा और माझा में काम करने वाले वामपंथी दलित कार्यकर्ता तरसेम पीटर बताते है, “जैसे मालवा में दलितों की जमीनों का मुद्दा अहम है, दोआबा में दलितों के रिहाइशी प्लाटों का मुद्दा बड़ा है. इसका वादा पिछली अकाली सरकार ने किया था लेकिन अब तक पूरा नहीं हो सका. यह पंचायत द्वारा प्रस्ताव पास करके दिए जाने होते हैं. हमारे संगठन ने इसके लिए काफी काम किया लेकिन कई जगह इस मुद्दे को लेकर दलितों का सामाजिक बहिष्कार भी हुआ. राज्य सरकार ने लंबे समय से दलितों के सहकारी कर्जे माफ करने का वादा किया था लेकिन अभी तक पूरा नहीं हो सका है.”
पीटर आगे बताते हैं कि दोआबा में दलित अस्मिता एक अहम मुद्दा हैं. दोआब का दलित बड़ी गिनती में विदेश में गया है. यहां आपको बड़ी संख्या में दलित अस्मिता को दर्शाते मंदिर और गुरुद्वारे मिल जाएंगे. कई बार दलित डेरों का उग्र सिख ग्रुपों के साथ सीधा टकराव भी हुआ है जिसके चलते संत रामानंद डेरा बल्लां (जालंधर) की हत्या हुई. माझा क्षेत्र में दलितों की समस्याएं हालांकि समान हैं लेकिन यहां ईसाई दलित बड़ी संख्या में होने के कारण उनके कब्रिस्तान की मांग काफी लंबे समय से लटक रही है.
पंजाब में दलित विद्यार्थियों की रुकी हुई स्कॉलरशिप का मुद्दा एक अहम मुद्दा है जिस पर विपक्षी पार्टियां मौजूदा सरकार को घेर रही हैं. इन वजीफों में गड़बड़ी के आरोपों में पंजाब सरकार के एक मंत्री भी विपक्षी पार्टियों के निशाने पर हैं. दलित विद्यार्थियों के वजीफे समय पर न मिलने का मुद्दा अकाली सरकार के समय भी चर्चा में रहा था. पंजाब के नामवर राजनीतिक शास्त्री रौनकी राम का मानना है, “सारी सियासी पार्टियां दलितों को वोट बैंक के रूप में देखती रही हैं. अकालियों ने भी अपने राज में दलित वोट खींचने के लिए आटा-दाल स्कीम, शगुन स्कीम जैसी स्कीमें चलाई लेकिन बाद में इनमें भी गड़बड़ियां पाई गईं. आज दलितों के हक की बात करने वाली अकाली दल, 2007 में जब डेरा विवाद हुआ, तब उसके कार्यकर्ता ही दलितों का सामाजिक बहिष्कार करवा रहे थे.”
ताजा अकाली-बसपा गठबंधन पर समाजशास्त्री प्रोफेसर बावा सिंह कहते हैं, “मौजूदा किसान संघर्ष ने पंजाब की सभी पारंपरिक पार्टियों को नंगा करके रख दिया है. इसलिए पार्टियां मौकापरस्त गठजोड़ करने में लगी हुई हैं. अकाली दल लोगों के दिल से उतर चुका है, उनसे अपने पुराने सिद्धांत- जैसे कि अल्पसंख्यकों के लिए खड़े होना, संघीय ढांचे की रक्षा करना, आदि,- को छोड़ दिया है. बीजेपी के साथ गठजोड़ टूटने के बाद वह दलित वोटों से अपनी भरपाई करना चाहता है.”
गौरतलब है कि अकाली दल के दस सालों के राज में हुई नशीले पदार्थों की तस्करी, गैर-कानूनी माइनिंग, गैंगस्टरों का बढ़ना, स्थानीय अकाली नेताओं की गुंडागर्दी, बादल परिवार का ट्रांसपोर्ट पर कब्जा, गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी और बरगाड़ी गोलीकांड ने अकाली दल का जनाधार खत्म कर दिया. 2017 के विधानसभा चुनावों में अकाली दल को महज 15 सीटों के साथ ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा, तो दो साल बाद हुए 2019 के लोकसभी चुनावों में वह मात्र दो सीटों में सिमट कर रह गई.
लोगों का आरोप है कि बादल परिवार ने बीजेपी के साथ गठजोड़ करते हुए और मोदी सरकार में सत्ता का सुख भोगते हुए अपने सारे सिद्धांत रद्दी की टोकरी में फेंक दिए हैं. इस दौरान अकाली दल ने कभी भी मुसलमानों और दलितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज नहीं उठाई. अनुच्छेद 370 को खत्म करने पर जब सारा पंजाब कश्मीरियों के हक में आवाज बुलंद कर रहा था तो अकाली दल ने मोदी सरकार का साथ दिया. आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ने के दावे करने वाली अकाली दल मोदी सरकार के तानाशाही रवैये पर चुप रही. केंद्र सरकार ने जब विवादास्पद किसानी बिल पास किए तो शुरू में अकाली दल ने इसका समर्थन किया.
पंजाब के राजनीतिक टिप्पणीकार प्यारालाल गर्ग कहते हैं, “अकाली दल और बसपा का 1996 का गठजोड़ नेचुरल लगता था, उस समय पंजाब आतंकवाद के दौर से निकल रहा था. लेकिन अब यह गठजोड़ मौकापरस्ती पर आधारित है. दोनों पार्टियां अब हाशिए पर हैं, इनके गठजोड़ को सिख-दलित एकता और संघीय हितों के लिए लड़ने वाला गठजोड़ कहना गलत होगा.”
अब सवाल यह पैदा होता है कि इस गठजोड़ का दोनों पार्टियों को क्या फायदा होगा? इस पर जानकारों की राय अलग-अलग है. प्यारा लाल गर्ग का मानना हैं, “इस गठजोड़ से दोनों पार्टियों को बेशक कोई बड़ा फायदा न हो पर फिर भी कुछ न कुछ हासिल जरूर होगा. अकाली दल ने बसपा के लिए जो 20 सीटें छोड़ी हैं उनमें से 18 सीटें इस समय कांग्रेस के पास हैं. एक सीट आम आदमी पार्टी के कब्जे में है और एक बीजेपी के पास है. साफ है कि कांग्रस को कुछ तो नुकसान होगा ही.”
दूसरी ओर पंजाब के वरिष्ठ पत्रकार हमीर सिंह का कहना है, “इस गठजोड़ से अकाली दल तो भले ही अपनी थोड़ी सीटें या वोट प्रतिशत बढ़ा ले पर बसपा को ज्यादा फायदा नहीं होगा. बसपा के हिस्से जो बीस सीटें आई हैं उनमें से 13 जनरल सीटें हैं. कई ऐसी सीटें, जो अकाली दल के लिए जीतनी मुश्किल थीं, वे बसपा को दे दी गईं, जैसे मोहाली, भोया और पठानकोट की सीटें. बसपा को वे सीटें नहीं दी गईं जिन पर उसकी स्थिति मजबूत रहती, जैसे कि फिल्लौर और गढ़शंकर की सीटें.”
अब आगे देखना यह है कि अपनी पारंपरिक विचारधारा को छोड़ कर दोनों पार्टियों द्वारा मौकापरस्ती पर आधारित गठजोड़ बनाना उन्हें कितनी कामयाबी दिलाता है.