कितने शाहीन बाग : 1857 की विरासत और मुस्लिम औरतों का सीएए विरोधी आंदोलन

कारवां के लिए शाहिद तांत्रे
कारवां के लिए शाहिद तांत्रे

आम हिंदुस्तानी के दिमाग में मुसलमान औरत की जो तस्वीर गढ़ी गई है वह सिमटी-सिसकी, बेआवाज औरत की है, जो किसी घनी आबादी वाले इलाके में बीड़ी बनाती है या घर के अंदर होने वाले दस्तकारी के कामों को अंजाम देती है. यानी घर की दहलीज ही उसका दायरा होता है. फिर अचानक सीएए आंदोलन ने मुसलमान औरतों की उपरोक्त तस्वीर को छलनी-छलनी कर दिया. भारतीयों ने देखा जींस और हिजाब में गाड़ी की छत पर खड़ी होकर हजारों छात्रों को ललकारती लड़कियां, बैरिकेडों से छलांग लगतीं, पुलिसवालों को मुट्ठी भींच कर ललकारती लड़कियां.

महज कुछ दिन पहले, बस एक महीने पहले, मुस्लिम औरतों के इस रूप की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था. रातों-रात हजारों-हजार मुस्लिम औरतें सड़क पर उतर आईं. राजधीनी दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाके शाहीन बाग की औरतों की तस्वीरें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर छा गईं. पिछले इतवार औरतों के इस आंदोलन को पूरा एक महीने हो गया. तमाम तरह के जोखिम होने के बावजूद, इन औरतों ने एक इंच भी पीछे न हटने का ऐलान किया है.

दरअसल घर की दहलीज के बाहर न निकलने वाली मुस्लिम औरत की छवि पुरानी नहीं है. यह तस्वीर आजादी के बाद गढ़ी-बनाई गई है. हकीकत तो यह है कि भारतीय मुस्लिम औरतों के प्रतिरोध की कहानियों का पुराना इतिहास है. बावजूद इसके हमारा इतिहास, खाततौर पर महिला परिप्रेक्ष्य से इतिहास लेखन को लेकर बहुत बेरहम रहा है. इस लेखन में राजनीतिक परिदृश्य से औरतें अदृश्य रहीं क्योंकि इतिहास लेखन अभिलेखागार के दस्तावेजों का मोहताज होता है, जहां औरतों का इतिहास लगभग न के बराबर मिलता है. और अगर उसके साक्ष्य हैं भी तो औरत को मर्द के “सपोर्टर” के रूप में दिखाया जाता है. आवश्यकतानुसार उन्हें आंदोलनों के साथ जोड़ा गया और जब मकसद पूरा हुआ तो वापस चाहरदिवारी में भेज दिया गया.

1857 के बाद सिलसिलेवार तौर पर बड़े पैमाने पर विद्रोही मुस्लिम औरतों का इतिहास मिलता है. इन औरतों का इतिहास गृह विभाग की फाइलों में, पोर्ट ब्लेयर के रिकार्डों में, ब्रिटिश डायरियों में और म्यूटिनी पेपरों में दर्ज है. इनमें सैकड़ों मुस्लिम औरतों के नाम, उनकी बहादुरी के चर्चे दर्ज हैं. ये दस्तावेज बताते हैं कि जब भी औरतों को लगा कि मर्द पस्त पड़ रहे हैं, उन्होंने फौरन मोर्चा संभाल लिया.

दरअसल इतिहास लेखन की सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि यह हमेशा राजदरबार केंद्रित रहा और जब कभी औरतों की बात भी हुई भी, तो हरम से बाहर नहीं हो पाई.

फिरदौस अजमत सिद्दीकी जामिया मिलिया इस्लामिया के सरोजनी नायडू सेंटर फॉर विमिन स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर और ए स्ट्रगल फॉर आइडेंटिटी : मुस्लिम विमिन इन यूनाइटेड प्राविंस (कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस) की लेखक हैं.

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