बीजेपी के पूर्व डेटा ऐनलिस्ट का खुलासा, पार्टी ने कैसे जीते चुनाव

बीजेपी के पूर्व डेटा विश्लेषक शिवम शंकर सिंह बताते हैं कि पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए जातिवादी और सांप्रदायिक संघर्ष को बढ़ावा देने के लिए कैसे तकनीक का इस्तेमाल किया. क्रेडिट/शिवम शंकर सिंह
29 January, 2019

जून 2018 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के पूर्व डेटा ऐनलिस्ट शिवम शंकर सिंह ने मीडियम नाम के ब्लॉग “मैं बीजेपी से इस्तीफा क्यों दे रहा हूं” शीर्षक से एक पोस्ट लिखी. उस लेख में सिंह ने लिखा कि “नरेंद्र मोदी और अमित शाह सरकार की बुराइयां उनकी अच्छाइयों पर भारी हैं.”

2017 के मणिपुर और त्रिपुरा चुनावों में सिंह ने बीजेपी के लिए काम किया था. सिंह ने डेटा की मदद से चुनावी रणनीति तैयार की थी और सोशल मीडिया के जरिए मतदाता समूहों को लक्ष्य कर प्रचार किया था. लेकिन उनका कहना है कि बीजेपी कुछ विशेष तरह के संदेशों वाला प्रोपोगेंडा चला रही है. सिंह ने पार्टी के वादों और उसके कामों के बीच के जबर्दस्त अंतर का भी हवाला दिया. उनका पार्टी से मोहभंग होने लगा. अपनी पोस्ट में सिंह ने लिखा, “वह राष्ट्रीय बहस को अंधेरे में ढकेल रही है.”

संप्रति, सिंह बिहार में महागठबंधन के साथ काम कर रहे हैं. इस महीने के आरंभ में कारवां के रिपोर्टिंग फेलो तुषार धारा ने सिंह से दिल्ली में मुलाकात की. सिंह ने बताया कि बीजेपी चुनाव जीतने के लिए जातिवादी और सांप्रदायिक द्वेष फैलाती है. सिंह के साथ बातचीत का एक हिस्सा नीचे दिया जा रहा है.

2013 में जब मैंने बीजेपी के लिए पहली बार प्रचार किया उस वक्त 2जी, कोलगेट, राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला जैसे भ्रष्टाचार के बड़े मामले सामने आए थे. मोदी ने स्वयं को महान प्रशासक की तरह पेश किया और देश को ऐसे ही नेतृत्व की जरूरत थी. चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने एक समूह बनाया था जिसका नाम “सिटीजन फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस (सीएजी)” था. मैं आरंभ में अनौपचारिक तौर पर इस समूह के साथ जुड़ा. मैंने कुछ लेख और फेसबुक पोस्ट लिखीं. केपीएमजी और अर्नेस्ट एण्ड यंग जैसी कंपनियों में काम करने वाले युवाओं ने नौकरियां छोड़ कर सीएजी ज्वाइंन किया और मोदी के प्रचार में लग गए.

2014 में बीजेपी का डेटा सेटअप बहुत मजबूत था. लेकिन जल्द ही यह नष्ट हो गया क्योंकि पार्टी को लगने लगा कि वह मोदी की वजह से चुनाव जीती है. पार्टी का मत था कि डेटा की कोई आवश्यकता नहीं है. इसके बाद 2015 में दो बड़ी बात हुईं. पार्टी बिहार और दिल्ली में विधान सभा चुनाव हार गई. प्रधानमंत्री ने बिहार की एक रैली में लोगों से पूछा, “क्या आपको बिजली-पानी मिल रहा है.” उनको लग रहा था कि लोग कहेंगे “नहीं”. लेकिन जवाब मिला “हां”. एक छोटा सा सर्वे ही कर लिया होता तो पता चल जाता कि इस मुद्दे को नहीं उठाना चाहिए था. बीजेपी ने आंखे बंद कर चुनाव लड़ा और बुरी तरह हार गई. इसके बाद पार्टी ने पुनः डेटा सेटअप तैयार करना शुरू किया. 2016 आते-आते वह एक बार फिर मजबूत हो गई.

उस साल मैं प्रशांत की संस्था इंडियन पॉलिटकल एक्शन कमिटि में शामिल हो गया और कुछ दिन पंजाब में काम किया. (उस वक्त पंजाब विधान सभा चुनावों के लिए आईपीएसी कॉग्रेस के लिए काम कर रही थी.) माहौल यह था कि “महाराजा” कहलाए जाने वाले अमरिंदर सिंह को, जो कांग्रेस पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे, आलसी कहा जाता था, एक ऐसा व्यक्ति जो मेहनत करना नहीं जानता. कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी थी कि उसके पास काडर नहीं था और जहां था भी उसमें काम करने की इच्छाशक्ति नहीं थी.

लेकिन मंहगे और ऊर्जावान अभियान “पंजाब द कैप्टिन” से चीजें बदलने लगीं. इस अभियान ने दो काम किए. पहला तो यह कि सिंह को ‘महाराजा से कैप्टिन’ बना दिया. दूसरी बात कि इस अभियान में उन्हें पंजाब की सभी निर्वाचन क्षेत्रों में पहुंचा दिया जिससे छवि बनी कि वह जमीनी नेता हैं और काडर के अंदर इच्छाशक्ति पैदा हुई. पंजाब में काम करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ परामर्श या ब्रांडिंग तक सीमित नहीं रहना चाहता और मेरे भीतर राजनीति में जाने की चाहत है.

उसके बाद मैंने बीजेपी के महासचिव राम माधव से संपर्क किया. उन्होंने मुझे 2017 में होने वाले मणिपुर चुनाव के मद्देनजर मणिपुर जाने को कहा. वहां न पार्टी का ऑफिस था और न ढांचा. हमने ग्राफिक डिजाइनर, शोधकर्ता रखे, एक कैंपेन टीम बनाई और कुछ सर्वे कराए. उसके बाद, वहां पर इनर लाइन परमिट पर पार्टी का प्रतिबद्ध नहीं हो पाना, मणिपुर पर नाकेबंदी और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (इसाक-मुइवा) के साथ गुप्त संधि जैसे भावनात्मक मुद्दे बीजेपी के खिलाफ जाने लगे. बीजेपी को 31 सीटें चाहिए थी लेकिन वह मात्र 21 जीत पाई. मार्च 2017 में छोटी पार्टियों के साथ मिलकर उसने सरकार बना ली.

जब मैं वापस दिल्ली आया तो मैंने डेटा की मदद से निर्वाचन क्षेत्रों की प्रोफाइलिंग शरू की. मैंने पूर्वोत्तर से यह काम शुरू किया. यदि बीजेपी निर्वाचन क्षेत्र जीतना चाहती है तो उसे बूथ पर ध्यान देना होगा. और ऐसी सीटों में जहां उसके जीतने की कम संभावना है वहां बूथों पर भी प्रयास नहीं करना चाहिए.

हमने पिछले तीन संसदीय और विधान सभा चुनावों का डेटा निर्वाचन आयोग से लिया और उन्हें जोड़ कर ट्रेंड की पड़ताल की. पूर्वोत्तर में बीजेपी का अस्तित्व नहीं था. कांग्रेस और अन्य पार्टियां वहां मौजूद थीं. पड़ताल से हमने जाना कि कौन से बूथ त्रिपुरा की सत्तारूढ पार्टी सीपीएम के खिलाफ हैं. हमने सर्वे डेटा, जाति और अर्थ-सामाजिक तथ्यांकों को मिलाया. हमने फोकस समूह चर्चाएं की और जानना चाहा कि कौन से जातीय और आदिवासी समुदाय किन पार्टियों को वोट देते हैं.

चुनावों के लिए बीजेपी की रणनीति है कि यदि आप बूथ जीते तो सीट भी निकाल लेंगे और राज्य का चुनाव भी. हमने पूर्व के बूथ स्तरीय वोटिंग डेटा की जांच की. निर्वाचन आयोग के फार्म 20 से पता चलता है कि किसी बूथ में कैसी वोटिंग हुई. इससे समझा जा सकता है कि किसी पार्टी का कोर वोटर कौन है और शिफटिंग वोटर कौन हैं. हमने मतदाता सूची को डिजिटल फार्म में परिवर्तित कर मोबाइल नंबर से जोड़ दिया ताकि सोशल मीडिया के जरिए संदेश पहुंचाया जा सके. बीजेपी का पन्ना प्रमुख 60 नामों का इंचार्ज होता है. पन्ना मतदाता सूची का एक पृष्ठ होता है. पन्ना प्रमुख की जिम्मेदारी इन लोगों के घर जाकर पार्टी का संदेश पहुंचाना होता है और उनकी प्रतिक्रिया पार्टी को बतानी होती है.

हालांकि हमने मणिपुर में सरकार बना ली थी लेकिन छवि निर्माण की लड़ाई हार गए थे. इस कारण त्रिपुरा में हम लोग सावधान हो गए. उदाहरण के लिए यह सच था कि त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने राज्य में शांति बहाली की थी. हमने दावा किया कि पिछले 15-20 सालों में पूर्वोत्तर शंतिपूर्ण हो गया है और इसलिए माणिक सरकार की उपलब्धि उल्लेखनीय नहीं है. हमने सातवें वेतन आयोग को मुख्य मुद्दा बनाया क्योंकि राज्य सरकार के कर्मचारियों को चौथे वेतन आयोग के अनुसार वेतन मिल रहा था. हमने अतिरिक्त 20-30 हजार रुपए देने की बात की जिसने बाजी पलट दी. बीजेपी भारी बहुमत से जीती.

बीजेपी ने इस रणनीति का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में किया. यहां लोगों के नाम से उनकी जाति या धर्म का पता चल जाता है. मतदाता सूची को मोबाइल के साथ मिला लेने के बाद व्यक्तिगत संदेश भेजा जा सकता है. उदाहरण के लिए सपा का कोर वोटर यादव समुदाय है जो ओबीसी श्रेणी में आता है. तो बीजेपी ने गैर यादव और गैर जाटव को लक्ष्य बनाया. संदेश दिया गया कि यादवों को आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है और जब तक सपा सत्ता में बनी रहेगी गैर यादवों को इसका लाभ नहीं मिलेगा. यह संदेश बीजेपी के आधिकारिक चैनल से नहीं भेजा जाता बल्कि “नमो समर्थक 2019 बनारस”, “कट्टर हिंदू सेना” या “हिंदू महासभा” जैसे वाट्सएप समूहों से भेजा जाता है.

बीजेपी ने ऐसे हिंदू समुदायों की पहचान भी की जो मुस्लिम समुदाय के कट्टर विरोधी हैं. उनके लिए संदेश जाता कि मुस्लिम आबादी हिंदुओं से अधिक हो जाएगी. यह सच नहीं है लेकिन ऐसे संदेशों से पार्टी भावनाओं को भड़काती है. इसके साथ ही फेक न्यूज भी भेजे जाते जैसे सीरिया का विडियो भेज कर कहा जाता कि देखो मुजफ्फरनगर में क्या हो रहा है. लोगों को पता नहीं चल पाता कि विडियों कहां का है क्योंकि विडियो में जो लोग दिखाई देते हैं वे दाढ़ी वाले हैं और गोल टोपी पहने हुए हैं.

सोशल मीडिया में होने वाली फंडिंग निर्वाचन आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है. लेकिन इसे ट्रेक किया जाना चाहिए. सोशल मीडिया कैंपेन का अधिकांश भाग ऐसी संस्थाओं को आउट सोर्स कर दिया जाता है जिसका बीजेपी से कोई औपचारिक संबंध नहीं होता. यह टीवी या रेडियो में विज्ञापन करने जैसा है. मैं ऐसे समूहों को जानता हूं जो मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से काम करते हैं और बीजेपी समर्थक 20-30 फेसबुक पेज चलाते हैं. “वी सपोर्ट इंडियन आर्मी”, “वी सपोर्ट नमो” नाम के पेज हैं जिनका दावा है कि उनके 15 लाख से अधिक फॉलोवर हैं. ये फेसबुक में निरंतर विज्ञापन करते हैं, ग्राफिक डिजाइनर और विडियो एडिटर रखते हैं. इस तरह की फॉलोवर हासिल करने के लिए बूस्ट करना जरूरी है. तो ऐसे में फंडिंग करना जरूरी है लेकिन यह नहीं पता होता कि कौन फंड कर रहा है. पार्टी का दावा है कि ये उसके पेज नहीं हैं और समर्थक चला रहे हैं. यह बात गले नहीं उतरती क्योंकि इन पेजों के प्रमोशन में डेढ़ से दो करोड़ रुपए प्रति माह खर्च हो रहा है.

यह दूसरी तर्फ से भी हो रहा है. फेसबुक में ऐसे बहुत से पेज बन गए हैं, जो किसी भी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े हैं. ये बीफ जनता पार्टी, इंडिया रेजिस्ट जैसे पेज हैं. ये सभी पेज बीजेपी के खिलाफ पोस्ट करते हैं.

अन्य पार्टियों ने भी बीजेपी की रणनीति अपनाई है और उसके बराबर हो गए हैं. कांग्रेस ने भी मतदाता सूची को डिजिटल कर लिया है और अपने पार्टी कार्यकर्ताओं का डेटा बेस तैयार किया है. यह पहले उसके पास नहीं था. उनके पास पंचायत स्तर में लोगों के आंकड़े हैं जिन्होंने चुनाव जीता है और कांग्रेस के समर्थक हैं. संदेश भेजने के मामले में पार्टी ने सुधार किया है लेकिन लोगों तक पहुंच के मामले में अभी पीछे है.

बहुत सी पार्टिया वाट्सएप ग्रुप बना रही हैं लेकिन नीति में हुए बदलाव के कारण ये पार्टियां बीजेपी का मुकाबला नहीं कर पाएंगी. बीजेपी ने पहले से ही अपने ग्रुप बना लिए थे. उस वक्त कोई भी इन नंबरों को अपने फोन में सेव कर सकता था, स्क्रिप्ट लिख सकता था और उसे सभी ग्रुपों से जोड़ सकता था. अब यदि आप कोई नया नंबर लेकर ग्रुप बनाते हैं तो वाट्सएप उस नंबर को ब्लॉक कर देगा. यह घोषित नीति नहीं है लेकिन अब से छह महीने पहले संदेश फार्वड करने की संख्या को सीमित करने वाले निर्णय के साथ ही इस नीति को भी लागू किया गया था.

लेकिन इसका भी तोड़ है. कुछ पार्टियां कर भी रही हैं. ये लोग शेयर कर सकने वाला लिंक बनाते हैं और इस लिंक में क्लिक कर इससे जुड़ा जा सकता है. लिंक में क्लिक कर जुड़ने से नंबर ब्लॉक नहीं होता क्योंकि एडमिन्सिट्रेटर नहीं जोड़ रहा है. लेकिन इस काम में सीधे जोड़ देने से अधिक समय लगता है. विदेशी फोन नंबर को इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि उसमें फार्वड करने की संख्या पर रोक नहीं है. लेकिन कुछ दिनों पहले वाट्सएप ने दुनिया भर में संदेशों की संख्या को पांच कर दिया है. आप पहले की तरह ग्रुप नहीं बना सकते. पुराने ग्रुप अभी भी वैसे ही हैं क्योंकि बने बनाए ग्रुपों को बंद नहीं किया गया है. इस कारण बीजेपी वॉट्सएप में अभी भी हावी है.

हाल के दिनों में सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई है कि बीजेपी का आईटी सेल खत्म हो गया है. जो ट्रोल आईटी सेल से अलग काम कर रहे थे उनमें से कई अब पार्टी को समर्थन नहीं देते- ये लोग सरकार से असंतुष्ट हैं. कुछ की लड़ाई आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय से हो गई. आईटी सेल व्यापक पैमाने पर अपने आप संदेश नहीं भेज सकता. इसके लिए आपके पास ऐसे लोग होने चाहिए जो बता सकें कि किसे हैशटैग करना है, किसे ट्रेंड करना है. पहले बीजेपी के आईटी सेल ने ऐसे लोगों का इस्तेमाल किया लेकिन बाद में इनकी अनदेखी करने लगा क्योंकि उन लोगों को लगा कि मोदी का जादू पर्याप्त है. पार्टी इसलिए मुसीबत में है क्योंकि केवल आईटी सेल, फेक अकाउंट या बोट (ऑटोमेटिक प्रोग्राम) वह हासिल नहीं कर सकते जो सोशल मीडिया के जरिए हासिल किया जा सकता है.