10 नवंबर की दोपहर को मध्य महाराष्ट्र के नांदेड़ शहर का वजीराबाद चौरस्ता तुरहियों, ढोल, झांझ और देशभक्ति के गीतों से गुंजायमान था. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लगभग सौ स्थानीय कार्यकर्ता अपने पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का स्वागत करने के लिए जमा हुए थे. गांधी के सूर्यास्त से पहले पहुंचने की उम्मीद थी और वह एक रैली को संबोधित करने वाले थे. एक कोने में दर्जनों युवा राष्ट्रीय ध्वज लिए खड़े थे.
चौराहे के बीच ब्राह्मण पुजारी एक स्वर में श्लोकों का उच्चारण कर रहे थे. यह गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का 64वां दिन था, जिसमें वह कन्याकुमारी से श्रीनगर तक लगभग 3500 किलोमीटर की पदयात्रा कर रहे थे. गांधी ने दो हफ्ते पहले तेलंगाना में एक भीड़ को संबोधित करते हुए कहा था, “आप सभी ने देखा होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के लोग देश में नफरत और हिंसा फैला रहे हैं, भाई को भाई से लड़ा रहे हैं.” उन्होंने कहा कि उनकी यात्रा का उद्देश्य इस नफरत और हिंसा के साथ-साथ बेरोजगारी, महंगाई और क्रोनी कैपिटलिज्म के खिलाफ खड़ा होना है.
शाम 4.30 बजे तक चौराहे पर भीड़ उमड़ पड़ी. स्थानीय पुलिस ने लगभग एक किलोमीटर उत्तर की दिशा में रेलवे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क पर यातायात को रोक दिया था. मार्च को देखने के लिए सड़क के दोनों ओर लोग अपनी दुकानों और घरों के बाहर खड़े थे. उन्हें सबसे पहले एक एक खुली छत वाला ट्रक नजर आया, जिसके ऊपर लगभग एक दर्जन कैमरा ऑपरेटर खड़े थे. उन सभी के लेंस उत्तर दिशा की ओर थे. ट्रक के पीछे एक पिकअप वैन थी, जिसमें मार्च को हर एंगल से फिल्माने के लिए कैमरा जिब (कैमरा लगाने के लिए एक विशेष प्रकार की क्रेन) लगा हुआ था. ठीक इसके पीछे गांधी आधा दर्जन आमंत्रित मेहमानों के साथ चल रहे थे, जिनमें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की नेता सुप्रिया सुले, महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नाना पटोले और बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह शामिल थे. नवनिर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी उस शाम रैली को संबोधित किया.
बीच-बीच में गांधी सड़क किनारे खड़े दर्शकों का हाथ हिला कर अभिवादन कर रहे थे. वह लगभग सौ पुलिस कर्मियों द्वारा बनाए गई घेरे के भीतर एक मोटी रस्सी पकड़े आगे बढ़ रहे थे. मुझे पूर्वाभास था कि कोई भी उनसे संपर्क कर सकता है, उनसे हाथ मिला सकता है या उन्हें गले लगा सकता है, जैसा कि यात्रा के बारे में कई सोशल-मीडिया वीडियो में दिखाया जा रहा था, लेकिन ऐसा नहीं था. कई लोग उनका नाम लेकर “राहुल!” चिल्ला रहे थे. चौराहे पर पहुंचने के बाद उन्होंने पूर्वी दिशा में अपनी यात्रा जारी रखने से पहले पुजारियों और पार्टी कार्यकर्ताओं को देख हाथ हिलाया.
मैं सड़क के किनारे एक मंच से यह सब देख रहा था और लगभग आधा किलोमीटर तक गांधी के पीछे चलता रहा. अचानक भीड़ में एक दर्जन तिरंगों के बीच एक अंबडेकरवादी मानक की मौजूदगी ने मेरा ध्यान खींचा- समानता, दलित गौरव और प्रतिरोध का प्रतीक अशोक चक्र वाला चौकोर नीला झंडा. घेरे से थोड़ी दूरी पर कुछ महिलाएं यह झंडे थामे चल रही थी. मैं उनके पास गया और उनसे पूछा कि वह किन कारणों से यात्रा का समर्थन कर रही हैं? उन्होंने बताया कि वह यात्रा का हिस्सा नहीं हैं. वह प्रकाश अंबेडकर के राजनीतिक दल वंचित बहुजन अघाड़ी के एक अन्य कार्यक्रम से लौट रहे थे. उनमें से एक महिला ने मुझे बताया कि चूंकि स्थानीय प्रशासन ने सड़कों को बंद कर दिया था, इसलिए उन्हें यात्रा के मार्ग पर चलना पड़ा. उनका कहना था, “हम जय भीम वाले हैं. हम उनके साथ नहीं हैं.”
नांदेड़ एक मजबूत अंबडेकरवादी गढ़ है, जहां बौद्धों की आबादी 15 प्रतिशत से अधिक है. पांच दिन पहले ही प्रकाश अंबेडकर ने उसी मैदान में एक रैली आयोजित की थी, जहां अब गांधी जा रहे थे. यह रैली 15 अक्टूबर 1956 को बी आर अंबेडकर द्वारा अपने अनुयायियों के बौद्ध धर्म अपनाने के बाद उन्हें दिलाई गई 22 प्रतिज्ञाओं के समर्थन में आयोजित की गई थी. इसमें शामिल कुछ प्रतिज्ञाएं थी: “ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई आस्था न रखना” और “मनुष्य की समानता में विश्वास करना.”
हर साल अंबेडकर के धर्मांतरण की वर्षगांठ पर देश भर में हजारों दलित हिंदू धर्म का त्याग करते हुए ये प्रतिज्ञाएं लेते हैं. इनमें एक प्रतिज्ञा के अनुसार हिंदू धर्म “मानवता की उन्नति और विकास को अवरुद्ध करता है, क्योंकि यह असमानता पर आधारित है.” 5 अक्टूबर 2022 को दिल्ली सरकार में कैबिनेट मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने एक कार्यक्रम आयोजित किया. उन्होंने कार्यक्रम के बारे में में ट्वीट करते हुए लिखा कि वहां दस हजार से अधिक लोगों ने 22 प्रतिज्ञाएं ली. कार्यक्रम का एक वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित होने के बाद उत्तर पूर्वी दिल्ली के सांसद मनोज तिवारी जैसे बीजेपी नेताओं सहित कई हिंदू कट्टरपंथियों ने गौतम को मंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए विवश किया. प्रकाश अंबेडकर की नांदेड़ रैली भी इन प्रतिज्ञाओं की विरासत और दलितों के जीवन में उनके महत्व पर आधारित थी. गौरतलब है कि गौतम को समर्थन देने वाले चुनिंदा राजनेताओं में प्रकाश अंबेडकर भी शामिल थे. गांधी, जिन्होंने इस घटना से एक शाम पहले अपने माथे पर त्रिपुंड (एक हिंदू धार्मिक चिह्न) लगाकर भाषण दिया था, ने अपने श्रोताओं से केवल घृणा और हिंसा के खिलाफ खड़े होने का आग्रह किया, लेकिन इस पूरे प्रकरण पर एक शब्द नहीं कहा. उन्होंने प्रतिज्ञाओं, गौतम के इस्तीफे या दलितों के वार्षिक धर्मांतरण अनुष्ठानों के खिलाफ हिंदू कट्टरपंथियों की धमकियों का कोई उल्लेख नहीं किया. उनकी यह खामोशी आश्चर्यजनक नहीं थी, लेकिन इस पर बात किया जाना जरूरी है.
2014 में सत्ता में आने के बाद से बीजेपी ने लगातार हिंदू धर्म को एक ऐसे श्रेष्ठ धर्म के रूप में पेश किया है, जिसे आक्रामक तरीके से फिर से स्थापित किए जाने की जरूरत है. संघ परिवार की विचारधारा के अनुसार इस व्यवस्था में जातिगत भेदभाव भी कायम रहता है, जो समाज में हाशिए पर खड़े लोगों को उच्च जातियों के अधीन रखता है. उत्पीड़ित-जाति के नेताओं, जिनमें बीजेपी के कुछ सहयोगी भी शामिल हैं, द्वारा शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण बढ़ाने की मांगों के बीच मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदुओं के दुश्मन के रूप में पेश किया जा रहा है. राष्ट्रीय स्तर पर अभी भी इस बात पर सहमति नहीं बन पाई है कि किस राजनीतिक विचारधारा को बीजेपी के खिलाफ लामबंद मोर्चे की अगुवाई करनी चाहिए. गांधी की यात्रा का उद्देश्य 2024 के आम चुनावों से पहले देश के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ना था. दिल्ली पहुंचने के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान गांधी ने दावा किया कि कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है, जो बीजेपी से लड़ने के लिए “केंद्रीय वैचारिक ढांचा और संरचना” प्रदान कर सकती है.
इसके बावजूद गांधी का गौतम को समर्थन न देना इस बात का पुख्ता उदाहरण है कि वह उस अहम मुद्दे को संबोधित करने में बार-बार विफल रहे हैं, जिससे लड़ने का वह दावा करते हैं : बीजेपी की नफरत और हिंसा. यात्रा के दौरान अपने भाषणों और साक्षात्कारों में गांधी ने कहा कि हिंसा एक ध्यान भटकाने वाली रणनीति भर है, जिसकी आड़ में नरेन्द्र मोदी सरकार कुछ कुलीन वर्गों को धन और राष्ट्रीय संसाधन पहुंचाती है. उन्होंने कहा कि सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण जनता में हताशा है, जिससे नफरत फैल रही है. संक्षेप में कहें तो गांधी बेरोजगारी, महंगाई और कुछ लोगों द्वारा पूंजी जमाखोरी को नफरत और हिंसा का मूल कारण मानते हैं.
वह इस नफरत और हिंसा के पीड़ितों को किसानों, युवाओं और छोटे व्यापारियों के रूप में वर्गीकृत करते हैं. उनका यह तर्क, जो शायद उनके सवर्ण मतदाताओं को लुभा सकता है, उन्हें मोदी सरकार के कार्यकाल में पनपे नफरती अपराधों के खिलाफ खुलकर न बोलने की सहूलियत देता है. गौरतलब है कि ऐसे अधिकांश अपराधों के पीड़ित दलित, आदिवासी और मुसलमान हैं, जो गांधी के भाषणों से नदारद दिखते हैं. इन अपराधों को केवल अर्थव्यवस्था तक सीमित रखना विभिन्न समुदायों के बीच कमजोर होते सामाजिक संबंधों की अनदेखी है.
यह उचित है कि इन वर्गों को मोदी के शासन में तकलीफ से गुजरना पड़ा है, लेकिन यह पीड़ा ज्यादातर उनकी आजीविका तक ही सीमित रही है, उनके जीवन तक नहीं. वास्तव में इन समुदायों के कई लोग बीजेपी का समर्थन करते रहे हैं. उदाहरण के लिए, मोदी सरकार के कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन के चरम पर भी भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने अपनी बिरादरी के बीजेपी नेता संजीव बालियान के साथ मुलाकात कर तस्वीर खिंचवाई. बालियान और कई बीकेयू नेताओं पर मुजफ्फरनगर में 2013 की सांप्रदायिक हिंसा से पहले धार्मिक नफरत फैलाने का आरोप है, जिसमें 62 लोग (दो-तिहाई मुस्लिम) मारे गए थे. किसानों, नौजवानों और छोटे व्यापारियों को बीजेपी की नफरत और हिंसा की राजनीति के शिकार लोगों के समान रखते हुए गांधी न तो हाशिए के समुदायों पर होने वाले अत्याचार, अपमान और भेदभाव को समझ रहे हैं, और न ही इस समस्या के निवारण के लिए आवश्यक एक राजनीतिक विकल्प पेश कर रहे हैं.
भारत जोड़ो यात्रा आगामी राजनीतिक संघर्ष में कांग्रेस समर्थकों के बीच उत्साह पैदा कर सकती है, लेकिन इसे एक वैचारिक विकल्प के रूप में देखना अतिशयोक्ति होगा. नफरत और हिंसा का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिए गांधी को हिंदुत्व से सीधे तौर पर टकराना होगा, क्योंकि वही बीजेपी की शक्ति का मूल स्त्रोत है. इसके बजाय वह सारा ठीकरा उन ‘खराब हिंदुओं’ पर फोड़ते हैं, जो उनके जैसे ‘अच्छे हिंदुओं’ का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. वह अक्सर दो सिरों के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश करते हैं: रूढ़िवादी हिंदू धर्म की ज्यादतियों के खिलाफ प्रतिरोध का नेतृत्व करना और रूढ़िवादी हिंदुओं को साथ लेकर चलना. राजनीतिक रंगमंच की इस उठापठक की मंशा है कि गांधी की छवि को एक युवा नेता से संविधान के सिपाही के रूप में बदल दिया जाए, ताकि वह “अगर मोदी नहीं तो कौन?” जैसे सवालों का जवाब बनकर उभरें. लेकिन गांधी के दोहरे मानकों और विरोधाभासी राजनीति के साथ-साथ अगर कांग्रेस की नफरत और हिंसा (जिसे गांधी मिटाने की बात करते हैं) को सींचने की ऐतिहासिक भूमिका पर गौर करें, तो देश जोड़ने का उनका संकल्प केवल एक राजनेता की छवि सुधारने का प्रयास भर नजर आता है.
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान गांधी के भाषणों में बार-बार देश को “वैकल्पिक भविष्य” देने की बात की गई है. जयपुर में एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान उन्होंने कहा, “आरएसएस और बीजेपी का एक खास उद्देश्य है. यह एक हिंसा से भरा रास्ता है. यह नफरत से भरा रास्ता है. यह एक ऐसा रास्ता है, जिसे दो भारत खड़े करने के लिए बनाया गया है. एक ऐसा भारत जहां कुल पांच या छह अरबपति हैं और दूसरा भारत, जहां हर कोई हताश और गरीब है. यही उनका उद्देश्य है.” इसके जवाब में गांधी ने कहा कि हमारा ध्येय एक ऐसा देश होना चाहिए, जो “स्वयं के साथ संवाद करे और अपने प्रति स्नेह रखे. जो देश का दर्द समझ सके. इसमें अहंकार नहीं होना चाहिए. इसे विनम्र होना चाहिए. इसे लोगों तक पहुंचना चाहिए. इसे अन्य लोगों को गले लगाना चाहिए. यह एक मकसद है. और भारत जोड़ो यात्रा ने दिखाया है कि यह संभव है.” गांधी ने यह कहने की जहमत नहीं उठाई कि इस संवाद प्रक्रिया में किस तरह की बातचीत की जानी चाहिए- अपनी पार्टी की राजनीतिक विचारधारा, इसके सामाजिक दृष्टिकोण, आर्थिक मॉडल या धर्म पर इसके रुख के विषय पर उन्होंने कुछ नहीं कहा.
उन्होंने स्वीकार किया कि बीजेपी इस बात को लेकर “पूरी तरह स्पष्ट है कि वह कौन हैं. उनके लिए इस बारे में स्पष्ट राय रखना आसान है, क्योंकि उनके लिए सिर्फ यह मायने रखता है कि, ‘क्या आप फलां-फलां शख्स से नफरत करते हैं? अगर हां, तो ठीक है. यही आपकी पहचान है.’ हमारे लिए यह एक जटिल सवाल है. लेकिन जिस दिन कांग्रेस पार्टी गहराई से समझ जाएगी कि वह कौन है और उसका मकसद क्या है, तो वह हर चुनाव में विजयी होगी.” गांधी जिस वैकल्पिक उद्देश्य की बात करते हैं, उसकी गहराई से पड़ताल की जानी चाहिए.
मुंबई में एक रिपोर्टर ने गांधी से पूछा कि वह आलोचना और ट्रोलिंग से कैसे निपटते हैं? उन्होंने जवाब दिया कि वह “सत्य और अहिंसा” के माध्यम से अपना पक्ष रखने का प्रयास करते हैं, जिसका श्रेय वह हिंदू धर्म को देते हैं. यह विमर्श का विषय है कि सत्य और अहिंसा वास्तविक रूप से हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म या जैन धर्म की उपज हैं. लेकिन इतना साफ है कि गांधी अपने धर्म से राजनीतिक प्रेरणा लेते हैं. अपने हालिया चुनाव अभियानों की तरह भारत जोड़ो यात्रा में भी उन्होंने खुद को एक कट्टर हिंदू के रूप में पेश किया है, जो कर्मकांडों और शास्त्रों में विश्वास करता है. सितंबर 2022 में उन्होंने स्वरूपानंद सरस्वती (एक हिंदू पुजारी, जो जाति व्यवस्था और छूआछूत के पक्षधर रहे हैं) को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उन्हें “सदा सत्य और धर्म का मार्ग दिखाने” वाला कहा. उन्होंने संविधान के बजाय गीता का हवाला देते हुए हिंदुओं से अपने साथी नागरिकों के प्रति अहिंसक होने की अपील की. डॉक्टर आंबेडकर का कहना था कि गीता ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था के मूल्यों का “दार्शनिक बचाव” करती है. जाहिर है कि इन मूल्यों पर भारत के भविष्य की समावेशी कल्पना नहीं की जा सकती.
गांधी ने अपनी पूरी यात्रा के दौरान हिंदू धर्म में निहित प्रतीकों की भाषा के जरिए राजनीतिक संदेश दिए हैं. यात्रा के 80वें दिन उन्होंने मध्य प्रदेश में मंदिरों के शहर उज्जैन में अपने माथे पर तिलक लगाकर अपना भाषण “जय महाकाल” के साथ शुरू किया, जो देवता शिव को समर्पित एक धार्मिक मंत्र है. यह दावा करते हुए कि शिव, राम और कृष्ण सभी तपस्वी थे, उन्होंने कहा कि “भारत तपस्वियों का देश है. हिंदू धर्म में तपस्वियों की पूजा की जाती है और उन्हें प्यार किया जाता है.” उन्होंने अपनी यात्रा को भी एक तपस्या करार दिया, लेकिन कहा कि यह महामारी के दौरान घर लौटने वाले मजदूरों और हर दिन कड़ी मेहनत करने वाले किसानों, नाई, फूलवालों, बिजली मिस्त्रियों और छोटे दुकानदारों की तपस्या के सामने कहीं नहीं टिकती. उन्होंने पूछा, “इस देश में इन तपस्वियों की पूजा क्यों नहीं की जाती? सरकार उन्हें कुछ क्यों नहीं देती. इसके बजाय सब कुछ उन दो लोगों को दिया जा रहा है, जो दिन-रात मोदी की पूजा करते हैं.” उनका इशारा उद्योगपति गौतम अडानी और मुकेश अंबानी की ओर था, जिनके मोदी से करीबी रिश्ते हैं.
जनवरी में जब गांधी जम्मू पहुंचे, तो एक पत्रकार ने उनसे बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री ‘इंडिया: द मोदी क्वेश्चन’ को सरकार द्वारा सेंसर किए जाने पर उनकी प्रतिक्रिया के बारे में पूछा. उन्होंने जवाब दिया, “देखिए, आप हमारे शास्त्र पढ़िए. यदि आप गीता और उपनिषदों को देखें, तो जान जायेंगे कि सच छिपाया नहीं जा सकता. सच हमेशा सामने आता है.” इससे दो हफ्ते पहले कुरुक्षेत्र में एक अन्य पत्रकार ने उनसे पूछा कि यात्रा समाप्त होने के बाद वह क्या करेंगे? महाभारत की एक कहानी का जिक्र करते हुए उन्होंने जवाब दिया, “जब अर्जुन मछली की आंख पर निशाना लगा रहे थे, तो क्या उन्होंने बताया था कि मछली की आंख भेदने के बाद वह क्या करेंगे? नहीं न? गीता भी यही कहती है. आप केवल अपने कर्म पर ध्यान दें. हमारी यात्रा की भी यही सोच है.”
जहां गांधी खुद को किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा तक सीमित रखने से परहेज करते हैं, वहीं वह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वह एक शैव हिंदू हैं. जब मुंबई में एक यूट्यूबर ने उनसे पूछा कि क्या वह भगवान में विश्वास करते हैं, तो उन्होंने हां में जवाब देते हुए कहा कि भगवान के विषय में उनकी अवधारणा “एक बहुत ही व्यक्तिगत और आंतरिक विचार” है. उन्होंने शिव को “एक सकारात्मक विचार” का उदाहरण बताते हुए कहा कि शिव “स्वयं के विचार को खंडित करने का प्रतीक हैं.” धर्म की उनकी यह अवधारणा वास्तव में व्यक्तिगत और आदर्शवादी प्रतीत होती है, लेकिन गांधी का ब्राह्मणवादी अनुष्ठानों में शामिल होना शिव की मूलभूत धारणा के विपरीत है. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक रिडल्स इन हिंदुइज्म में शिव को यज्ञों के प्रति उनके तिरस्कार के कारण “वैद-विरोधी भगवान” कहा है. इसके उलट गांधी शिव को ब्राह्मणवादी दायरे में वापस लाना चाहते हैं. यह यात्रा गांधी की हिंदू छवि में बदलाव का एक अहम पड़ाव भी है. 2019 के आम चुनावों के दौरान उन्होंने “चौकीदार चोर है” के नारे को लोकप्रिय बनाते हुए मोदी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. नतीजों में कांग्रेस को अपनी सबसे बड़ी चुनावी हार का सामना करना पड़ा. जल्द ही पार्टी ने अपनी रणनीति बदलते हुए एक नया राग छेड़ा और हिंदू धर्म बनाम हिंदुत्व की चर्चा को हवा दी. हिंदू राष्ट्रवादी विचारक वीडी सावरकर ने धर्म को राजनीतिक विचारधारा से अलग बताते हुए हिंदुत्व शब्द का प्रयोग किया था. वास्तविकता में हिंदू धर्म और हिंदुत्व के बीच का यह भेद ही दिखावटी है. आंबेडकर तर्क देते हैं कि हिंदू धर्म में मौजूद वर्गीकृत असमानता का केंद्रीय सिद्धांत इसे लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के साथ असंगत बनाता है. और फिर आम लोगों द्वारा हमेशा ही नकली चीज की जगह मूल वस्तु को ही पसंद किया जाता है.
गांधी ने अब धर्म को ही अपने राजनीतिक संदेश का माध्यम बना लिया है. राजनीति को धर्म से जोड़ने के लिए मोदी को चुनौती देने के बजाय, उनकी नई रणनीति यह दावा करती है कि मोदी की नीतियां हिंदू धर्म के विपरीत हैं. हिंदू धर्म को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर वह मोदी के ही रास्ते पर चल रहे हैं. यह हालांकि सच है कि गांधी ने धार्मिक विभाजन के खिलाफ एकता का आह्वान करने के लिए हिंदू धर्म का इस्तेमाल किया है. दिसंबर 2022 में उन्होंने दिल्ली में कहा कि बीजेपी “हिंदू धर्म के बारे में बात करती है, लेकिन मैं आपसे पूछता हूं कि यह कहां लिखा है कि गरीबों और कमजोरों को रौंदा जाना चाहिए? यह कहां लिखा है कि कमजोरों को मारा जाना चाहिए? मैंने गीता और उपनिषद पढ़े हैं, लेकिन मुझे कहीं ऐसा कुछ नहीं मिला.” नफरत का मुकाबला करने के लिए धर्म का उपयोग करना राजनीतिक रूप से मददगार हो सकता है, लेकिन ऐसा करने से राजनीति में धर्म की उपस्थिति को अप्रत्यक्ष रूप से बल मिलता है. बाल गंगाधर तिलक (जो ब्राह्मण थे) द्वारा गीता को “धर्म के खजाने” और “मानव जाति की सर्वोच्च भलाई” के ग्रंथ के रूप में देखने और अंबेडकर (जो दलित थे) द्वारा गीता को असमानता बनाए रखने वाले प्राचीन साहित्य के रूप में देखे जाने में जमीन-आसमान का अंतर है.
धर्म में निहित शोषण को स्वीकार किए बिना गांधी द्वारा हिंदू धर्म का राजनीतिक उपयोग भविष्य में केवल उन लोगों को नुकसान पहुंचाएगा, जो हिंदू सामाजिक क्रम के निचले तबके में गुजर करते हैं. देश को एक ‘अच्छे हिंदू’ की जरूरत नहीं है, जो लोगों को यह बताए कि उसके धर्म में करुणा है और प्रेम और सद्भाव के लिए शास्त्रों का उपयोग आवश्यक है. देश को एक सच्चे लोकतांत्रिक नेता की जरूरत है, जो नफरत और हिंसा का मुकाबला करने के लिए संविधान को एक राजनीतिक हथियार के रूप में स्थापित कर सके.
गांधी द्वारा पेश किए जा रहे “वैकल्पिक उद्देश्य” को भी इतिहास की कसौटी पर परखा जाना चाहिए. कर्नाटक में पत्रकारों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि कांग्रेस “एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो हर एक भारतीय का प्रतिनिधित्व करती है. यह जाति, समुदाय, धर्म या राज्य के बीच भेदभाव नहीं करती. हम सबकी पार्टी हैं.” जयपुर में उन्होंने कहा कि कांग्रेस विकास के दौर से गुजर रही है. उन्होंने कहा, “हमारी पार्टी देश के मौजूदा हालात के मुताबिक खुद को ढाल रही है. यह अपनी जड़ों की ओर बढ़ रही है. और मैं आपको एक बात बता सकता हूं: एक बार जब कांग्रेस अपनी जड़ें पा लेती है और वह संगठन बन जाती है जो वह असल में है, तो कोई भी उसे हरा नहीं पाएगा.” गांधी जिन जड़ों पर जोर दे रहे थे, उन पर भरोसा करना आसान नहीं है. यह तथ्य है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उसके सांप्रदायिक चरित्र और पूंजीपति वर्ग से नजदीकियों के लिए जाना जाता है. अपने शुरुआती दशकों में यह अधिकांश रूप से एक उच्च-जाति बुर्जुआ संगठन रहा, जो औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने के बजाय ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर भारतीय अभिजात वर्ग को स्थापित करने में अधिक रुचि रखता था. ब्रिटिश इतिहासकार रेजिनाल्ड कपलैंड लिखते हैं कि कांग्रेस के शुरुआती सत्रों में “ब्रिटिश विरोधी भावना का कोई निशान नहीं था” और 1892 के भारतीय परिषद अधिनियम, जिसने विधान परिषदों में भारतीय प्रतिनिधित्व के लिए प्रवेश मार्ग खोले, ने “दिखाया कि भारत सरकार किसी भी तरह उनकी आकांक्षाओं के प्रति सहानुभूति रखने में पीछे नहीं थी.” कपलैंड लिखते हैं कि हिंदुओं के प्रभुत्व वाले एक संगठन (पहले सत्र में 72 में से केवल दो लोग मुस्लिम थे) के लिए इस सहानुभूति ने “मुस्लिम चिंताओं को पुनर्जीवित” कर दिया था.
1906 में मुस्लिम अभिजात वर्ग ने औपनिवेशिक संरक्षण पाने के लिए अधिक प्रभावी ढंग से मैदान में उतरने के लिए अपने स्वयं के प्रतिनिधि संगठन, मुस्लिम लीग का गठन किया. 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम, जिससे विधानसभाओं के चुनाव की शुरुआत हुई, में मुसलमानों को अलग निर्वाचक मंडल दिया गया. कांग्रेस ने अपने लिए अधिक से अधिक राजनीतिक शक्ति की मांग की, लेकिन इस बारे में बहुत कम स्पष्टता थी कि वह उस शक्ति के माध्यम से क्या करना चाहते थे. उन्होंने अंग्रेजों के अधीन धन सिकुड़ने की निंदा की और 34 प्रतिनिधि संस्थानों की स्थापना का आह्वान किया, लेकिन उनके पास अधिकांश भारतीयों को गरीबी से निकालने के लिए कोई ठोस प्रस्ताव नहीं था. कांग्रेस के पहले दो दशकों के दौरान मजदूरों के मुद्दों को कभी नहीं उठाया गया. वार्षिक अखिल भारतीय सामाजिक सम्मेलन में सामाजिक सुधार पर चर्चा करने का प्रयास जरूर किया गया. लेकिन पूना में 1895 के कांग्रेस अधिवेशन में तिलक के नेतृत्व में सुधार-विरोधी लोगों ने धमकी दी कि अगर सामाजिक सम्मेलन को कार्यक्रम स्थल उपयोग करने की अनुमति दी गयी, तो वह वहां आग लगा देंगे. जैसे-जैसे कांग्रेस की राजनीति बड़ी होती गई, रूढ़िवादी हिंदू धर्म के प्रति समर्पण उनकी नियमित विशेषता बनता गया. तिलक (जो संभवत एक बड़े राजनीतिक आधार वाले पहले कांग्रेसी नेता थे) के चर्चित होने के पीछे उनके द्वारा सहमति की उम्र को बढ़ा कर 12 करने वाले कानून का विरोध और मुहर्रम में हिंदू भागीदारी को हतोत्साहित करने के लिए गणेश चतुर्थी के जुलूसों को संगठित करने जैसे कारण शामिल थे.
कांग्रेस के नेता एनसी केलकर, लाला लाजपत राय, मदन मोहन मालवीय और बीएस मुंजे ने आरएसएस और हिंदू महासभा की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और मोतीलाल नेहरू और मोहनदास गांधी ने महासभा के कुछ शुरुआती सत्रों की अध्यक्षता की थी. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स' में लिखा है कि गांधी के कांग्रेस की कमान संभालने के बाद “यह कार्रवाई करने वाली पार्टी बन गई, या, जैसा कि कांग्रेसी कहते हैं, उन्होंने सतही प्रतिबंध लगा दिए. यह एक अभूतपूर्व घटना थी.” यह प्रतिबंध “दुधारी तलवार था- सामाजिक और आर्थिक. सामाजिक पक्ष के चलते नाई, धोबी, कसाई, पंसारी, व्यापारी आदि की सेवाओं को भी बंद कर दिया गया. संक्षेप में कहा जाए तो दोषी का जीवन हर तरह से असंभव बना दिया गया. आर्थिक पक्ष ने सभी व्यापारिक संबंधों को काट दिया, जैसे कि सामान खरीदना और बेचना. इसका उद्देश्य विदेशी सामान बेचने वाले व्यापारी वर्ग से जुड़ा था.”
उन्होंने लिखा कि खिलाफत आंदोलन में मुस्लिम भागीदारी के अलावा ये प्रतिबंध, जिन्हें उन्होंने एक ऐसी “त्रासदी” कहा जिसकी प्रभावशीलता पर “गंभीर रूप से विचार किया जाना चाहिए”, “ज्यादातर हिंदुओं द्वारा” लागू की गई थी. अंबेडकर आगे कहते हैं कि कांग्रेस दलितों को उनके असहयोग लिए “ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्यादा” कहेगी. वह इसे एक “बेतुकी व्याख्या” कहते हैं, क्योंकि उनके समुदाय को असल में यह डर था कि “भारत की स्वतंत्रता हिंदू प्रभुत्व को स्थापित करेगी, जिससे निश्चित रूप से उनके लिए जीवन, आजादी और खुशियों की सभी संभावनाएं हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी और उन्हें हमेशा के लिए केवल लकड़ी काटने वाला और पानी भरने वाला बना दिया जाएगा.”
आंतरिक असंतोष के प्रति कांग्रेस के रवैए को समझने के लिए गांधी द्वारा अपने साथी भारतीयों के खिलाफ किए गए सत्याग्रह का उदाहरण लिया जा सकता है. 1918 में उन्होंने अहमदाबाद में हड़ताली मिल मजदूरों के खिलाफ भारतीय धरती पर अपनी पहली भूख हड़ताल की, ताकि वह उन्हें उस समझौते के लिए राजी कर सकें, जो उन्होंने मालिकों के संघ के साथ किया था. इस घटना के सात साल बाद त्रावणकोर में एक मंदिर में प्रवेश को लेकर चल रहे संघर्ष में उन्होंने हस्तक्षेप किया. यह संघर्ष एक शताब्दी से अधिक समय से चल रहा था. गांधी ने तुरंत ही आंदोलन के गैर-हिंदू आयोजकों के निष्कासन की मांग की, जिसमें द्रविड़ नेता ई.वी. रामासामी (पेरियार) भी शामिल थे. उनका तर्क था कि सत्याग्रह के “शुद्ध और मजबूत” होने के लिए इसका नेतृत्व “शुद्ध हिंदुओं” द्वारा किया जाना चाहिए. आंदोलन के सभी क्रांतिकारी पहलुओं को हटाने के बाद उन्होंने अंतिम निर्णय को त्रावणकोर की प्रभावशाली जातियों के बीच कराए गए एक जनमत संग्रह पर छोड़ दिया. कोई हैरानी नहीं है कि जनमत ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया.
अंबेडकर लिखते हैं, “हिंदू सांप्रदायिक बहुमत कांग्रेस की रीढ़ है. यह हिंदुओं से बना है और हिंदुओं द्वारा फलता-फूलता है. यही कांग्रेस का बहुमत है और इसलिए कांग्रेस अपने बहुमत के अधिकारों की रक्षा करने के लिए बाध्य है.” इस क्रम में कांग्रेस अन्य समुदायों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व हासिल करने के प्रयासों का भी विरोध करती थी. मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों के निर्माण के बाद कांग्रेस ने अपने 1910 के सत्र में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें “मताधिकार के मामले में महामहिम के अधीन विषयों के विभिन्न वर्गों के बीच विषम प्रतिबंधों को हटाने” की मांग की गई थी. आखिरकार 1916 में इसने अंग्रेजों को एक संयुक्त संवैधानिक प्रस्ताव पेश करने के लिए मुस्लिम लीग के साथ एक समझौता किया.
पार्टी के पूर्व अध्यक्ष अबुल कलाम आजाद ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखा है, “कांग्रेस में एक ऐसा समूह है जिसे राष्ट्रवादियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन वास्तव में उनके दृष्टिकोण पूरी तरह से सांप्रदायिक हैं. उन्होंने हमेशा तर्क दिया है कि भारत के पास कोई एकीकृत संस्कृति नहीं है और माना है कि कांग्रेस चाहे कुछ भी कहे, हिंदुओं और मुसलमानों का सामाजिक जीवन पूरी तरह से अलग है.” वह इस सांप्रदायिक तत्व का एक उदाहरण देते हैं. वे लिखते हैं कि बंगाल प्रांत में भले ही मुसलमान बहुसंख्यक समुदाय थे, लेकिन “विभिन्न कारणों से वे शैक्षिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े थे. भले ही उनकी वह आबादी का 50 फीसदी थे लेकिन सरकार के अधीन उनके पास केवल 30 फीसदी पद थे.” वह उल्लेख करते हैं कि 1923 के प्रांतीय चुनाव में स्वराज पार्टी के अध्यक्ष चितरंजन दास, जिन्होंने चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था, ने वादा किया था कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आई, तो यह सभी नई सरकारी नियुक्तियों में मुसलमानों को 60 प्रतिशत आरक्षण देगी. आजाद इस घटना को याद करते हुए कहते हैं, “इस साहसिक घोषणा ने बंगाल कांग्रेस की नींव हिला दी थी. कांग्रेस के कई नेताओं ने इसका हिंसक विरोध किया और श्री दास के खिलाफ एक अभियान चलाया. उन पर अवसरवाद और यहां तक कि मुसलमानों के लिए पक्षपात का आरोप लगाया गया, लेकिन वह चट्टान की तरह अडिग रहे.” 1925 में दास की मृत्यु हो गई, जिसके बाद, आजाद कहते हैं, “उनके कुछ अनुयायियों ने उनकी जगह हथिया ली और उनकी घोषणा को निरस्त कर दिया गया. इसका परिणाम यह हुआ कि बंगाल के मुसलमान कांग्रेस से दूर चले गए. यहीं से विभाजन के पहले बीज बोए जाने की शुरुआत हुई.”
1919 के भारत सरकार अधिनियम ने सिखों, ईसाइयों और एंग्लो-इंडियन सहित अन्य समुदायों के लिए अलग निर्वाचक मंडल का विस्तार किया. जब अंबेडकर ने गोलमेज सम्मेलनों में दमित वर्गों के लिए अलग निर्वाचक मंडल के विस्तार के लिए सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी, तो गांधी ने 1932 में एक और भूख हड़ताल की, ताकि अंबेडकर को एक संयुक्त निर्वाचक मंडल को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा सके. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब अंग्रेजों ने सत्ता के हस्तांतरण की बातचीत शुरू की, तो कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के लिए रियायतों का विरोध करना जारी रखा. उसने इसे आंतरिक मामला बताते हुए तर्क दिया कि इसे संविधान सभा में हल किया जाना चाहिए. जाहिर है कि वहां हिंदुओं का वर्चस्व होना तय था. अंबेडकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए एक हद तक संवैधानिक सुरक्षा हासिल करने में सफल हुए, लेकिन उन्हें रूढ़िवादी हिंदुओं के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. वह लिखते हैं कि “संवैधानिक गारंटी की मांग का विरोध करने में कांग्रेस का असली मकसद राजनीतिक क्षेत्र को हिंदू बहुमत के लिए एक खुला चरागाह बनाए रखना है.” कानून मंत्री के रूप में हिंदू धर्म के पितृसत्तात्मक तत्वों के निवारण के लिए व्यापक कानून पारित करने में उनकी असफलता इस बात की तस्दीक करती है कि संसद में कांग्रेस के भारी बहुमत के बावजूद पार्टी पर रूढ़िवादी हिंदुओं की पकड़ बेहद मजबूत थी.
भारत के पहले प्रधानमंत्री और राहुल गांधी के परदादा जवाहरलाल नेहरू की समाजवाद को कांग्रेस की आर्थिक नींव के रूप में स्थापित करने की कोशिशों का भी यही हश्र हुआ था. अंबेडकर कहते हैं कि यह "पूंजीपतियों, जमींदारों और साहूकारों द्वारा संचालित" व्यवस्था थी. इतिहासकार पीतांबर दत्ता कौशिक ने लिखा है कि इसे "पूंजीपतियों का संगठन कहा गया है, क्योंकि कई बड़े उद्योगपतियों- विशेष रूप से जी.डी. बिड़ला और सेठ जमनालाल बजाज- ने कांग्रेस फंड में भारी मात्रा में योगदान दिया है. ऐसा इसलिए था क्योंकि इसकी कार्यसमिति के अधिकांश सदस्य और सबसे बढ़कर उनके 'सुपर प्रेसिडेंट' महात्मा गांधी वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते थे और उन्होंने ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को अपनाया, जो पूंजीपतियों को धन का संरक्षक मानता है." कौशिक लिखते हैं कि यह सिद्धांत "आर्थिक समानता को अहिंसक स्वतंत्रता की कुंजी मानता है, लेकिन फिर भी यह वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत को खारिज करता है और आर्थिक समानता लाने के लिए हिंसा के इस्तेमाल को मंजूरी नहीं देता है. इसके बजाय यह वर्ग सहयोग के सिद्धांत और हृदय-परिवर्तन की तकनीक अपनाने की बात करता है."
नेहरू का समाजवाद उत्पादन के साधनों पर राज्य के स्वामित्व के बजाय राज्य के नियंत्रण में अधिक विश्वास करता था और काफी हद तक पूंजीवादी दुनिया के केनेसियन कल्याणकारी राज्यों जैसा था. फिर भी कांग्रेस में नेहरू के दक्षिणपंथी सहयोगियों द्वारा उनके इस हल्के-फुल्के प्रस्ताव को भी लगातार तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया. इन दक्षिणपंथी सहयोगियों के बार में कौशिक लिखते हैं कि वह "सीधे टकराव की नीति से परहेज करते थे और आंतरिक स्तर पर चालबाजियों या गैर-कार्यान्वयन की तकनीक अपनाते थे." नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान पार्टी को वाम दिशा दी, लेकिन नव-उदारवाद लाने में कांग्रेस ने प्रमुख भूमिका निभाई. इससे उस असमान अर्थव्यवस्था का संचार हुआ, जिसके बारे में आज राहुल गांधी भाषण देते नहीं थकते.
यदि राहुल गांधी का वैकल्पिक उद्देश्य कांग्रेस की जड़ों की ओर लौटने पर आधारित है, तो उन जड़ों में पार्टी का सांप्रदायिक और पूंजीवादी इतिहास भी जुड़ा है. ऐसे में कांग्रेस को बीजेपी की मुख्य चुनौती के रूप में देखने से पहले उनके दावों को टटोला जाना आवश्यक है. अक्सर कांग्रेस और बीजेपी की राजनीतिक विचारधारा एक-दूसरे के आगे-पीछे डोलती रही है. समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजकुमार भाटी ने हाल ही में एक टेलीविजन साक्षात्कार में कहा, "हम उन्हें कुछ मुद्दों पर एक जैसा मानते हैं. मसलन, सामाजिक न्याय और अर्थव्यवस्था के मामले. अर्थव्यवस्था की बात करें तो दोनों ही पूंजीपतियों की सोच के हैं. हां, सांप्रदायिकता के मुद्दे पर हम उन्हें बीजेपी से अलग देखते हैं. कांग्रेस उतनी जहरीली और नफरती नहीं है. लेकिन जब वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग लागू किया था”—जिसने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सिफारिश की—“तब बीजेपी और कांग्रेस दोनों विरोध में थे.” भाटी ने कहा कि कांग्रेस को अब "स्पष्ट करना होगा कि उनकी सोच बदली है या वही है."
इस तरह के स्पष्टीकरण देने के लिए गांधी के पास बहुत मौके थे. अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने लगभग एक दर्जन प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया, जिसमें पत्रकारों ने उनसे पूछा कि भारत में वास्तव में क्या टूटा हुआ है, जिसे वह ठीक करना चाहते हैं? उनका उत्तर तकरीबन हर जगह एक जैसा था. उन्होंने बीजेपी पर देश को "धार्मिक आधार पर" विभाजित करने का आरोप लगाया और कहा कि देश में माहौल खराब करने के लिए बहुत हद तक सरकार की नीतियां (जैसे वस्तु एवं सेवा कर) जिम्मेदार हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में कई लोगों को अपनी पहचान की वजह से हिंसा का सामना करना पड़ा है. मैंने ऐसे कई मामलों को कवर किया है जहां बीजेपी और आरएसएस कैडर ने मुसलमानों पर उनके पेशे, खानपान और धार्मिक पहचान के चिन्हों के चलते हमला किया है. मैंने बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश में दलित गांवों पर ठाकुरों के हमलों को भी कवर किया है.
2014 से मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों के खिलाफ नफरत और हिंसा के विषय पर संसद में कम से कम पांच बहसें हुई हैं. दिसंबर 2014 में विश्व हिंदू परिषद के घर वापसी नामक एक धर्मांतरण अभियान के दौरान आगरा में लगभग दो सौ मुसलमानों ने हिंदू धर्म में परिवर्तन किया, जिसके चलते संसद में जबरन धर्मांतरण पर चर्चा हुई. विपक्ष ने वीएचपी पर धर्मांतरण कराने के लिए दबाव डालने और प्रलोभन देने का आरोप लगाया. तृणमूल कांग्रेस के सांसद सौगाता राय ने भी सरकार पर "राजनीतिक और सांप्रदायिक आधार पर" विश्वविद्यालय के कुलपतियों की नियुक्ति करने और भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद पर हिंदू पौराणिक दावों पर शोध करने के आरोप लगाए. कुछ समय बाद ही देश में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता के विरोध में दर्जनों लेखकों, फिल्म निर्माताओं और बुद्धिजीवियों ने अपने सरकारी पुरस्कार लौटा दिए.
इस क्रम में नवंबर 2015 में एक बहस के दौरान सांसदों ने तर्कवादी गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या, मोहम्मद अखलाक की लिंचिंग और दिल्ली में गिरजाघरों में तोड़फोड़ सहित कई उदाहरण पेश किए. उन्होंने कैबिनेट मंत्री वीके सिंह पर जातिवाद का आरोप लगाया, क्योंकि उन्होंने हरियाणा में राजपूतों द्वारा दलितों के घर में आग लगाने पर बयान दिया था कि, "अगर कोई कुत्ते पर पत्थर फेंकता है, तो सरकार इसके लिए जिम्मेदार नहीं है." सिंह वर्तमान में नागरिक उड्डयन और सड़क परिवहन राज्य मंत्री हैं.
तीन महीने बाद संसद ने हैदराबाद विश्वविद्यालय में प्रशासन द्वारा महीनों उत्पीड़न का सामना करने वाले दलित शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उच्च शिक्षा में वंचित समुदायों के छात्रों के खिलाफ संस्थागत भेदभाव पर चर्चा की. विपक्ष ने उल्लेख किया कि केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी को लिखे पत्र में वेमुला को “देशद्रोही” कहा था. ईरानी ने दत्तात्रेय और विश्वविद्यालय प्रशासन का बचाव किया. वह कैबिनेट में बनी हुई हैं, जबकि दत्तात्रेय अब हरियाणा के राज्यपाल हैं.
अगस्त 2016 में दलितों के खिलाफ अत्याचार पर एक बहस के दौरान वामपंथी सांसद पीके बीजू ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें पाया गया था कि हर अठारह मिनट में दलितों के खिलाफ एक अपराध होता है, हर दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, दो दलितों की हत्या कर दी जाती है, दो दलित घरों को जला दिया जाता है और ग्यारह दलितों को पीटा जाता है. लगभग एक साल बाद, जुलाई 2017 में संसद में लिंचिंग पर एक विशेष बहस हुई. इसका मुख्य कारण था बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती का राज्यसभा से इस्तीफा क्योंकि डिप्टी चेयरपर्सन ने उन्हें दलितों के खिलाफ अत्याचार पर बोलने से मना कर दिया था. इस बहस में कई घटनाओं का जिक्र किया गया. उदाहरण के लिए उना में पांच दलितों की सरेआम पिटाई सहारनपुर में दलित गांवों पर हमले और दिल्ली के बाहरी इलाके में एक मुस्लिम युवक की छुरा घोंपकर की गई हत्या. यात्रा के दौरान अपने कई सार्वजनिक संबोधनों और मीडिया से बातचीत के दौरान नफरत और हिंसा को परिभाषित करते हुए गांधी ने इनमें से किसी भी घटना को उठाना उचित नहीं समझा.
केरल में गांधी के पहले सार्वजनिक संबोधन ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह इस मुद्दे को कैसे देखते हैं. उन्होंने कहा, “नफरत और आरएसएस और बीजेपी के बीच एक संबंध है. आरएसएस और बीजेपी को सीमित लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाया गया है. वे देश की पूंजी को कुछ लोगों तक सीमित रखना चाहते हैं. और अगर देश में सद्भाव है, लोग खुश हैं और एक दूसरे के खिलाफ नहीं लड़ रहे हैं, तो वह यह नहीं कर पायेंगे. अंग्रेज भी ठीक यही किया करते थे.” यह ठीक है कि नफरत फैलाने का एक आर्थिक आयाम हो सकता है. लेकिन इस तर्क से यह नहीं समझ आता कि सरकार केवल कुछ समुदायों के खिलाफ ही हिंसा क्यों होने देती है? न ही यह 2020 के दिल्ली दंगों जैसी घटनाओं की व्याख्या करता है, जब अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा जैसे बीजेपी विधायकों ने बंद कमरों के बजाय खुले तौर पर हिंसा भड़काई थी. हिंसा का हमेशा एक राजनीतिक और सामाजिक आयाम होता है. लेकिन उन आयामों को तलाशने और यह समझने के लिए कि केवल कुछ समुदायों को ही निशाना क्यों बनाया जाता है, कुछ सवर्ण जातियों का खुल कर नाम लेने की आवश्यकता है. ये वही लोग हैं, जिनके नाम और हित में बीजेपी हिंदू पहचान की आड़ में हिंसा फैलाती है. गांधी की राजनीति के लिए यह एक असुविधाजनक स्थिति है. वह सवर्ण समुदायों को बीजेपी से दूर कर उनका वोट चाहते हैं और अन्य दलों के बहुजन वोटों का विश्वास भी जीतना चाहते हैं. नतीजतन वह नफरती घटनाओं के दोषियों और पीड़ितों का सीधा नाम लेने की जगह किसानों, मजदूरों और युवाओं जैसी व्यापक श्रेणियों का सहारा लेते हैं. उनके कथानक में हर कोई अपराधी है और हर कोई पीड़ित.
गांधी ने नांदेड़ की रैली में कहा, “उनकी नीतियां डर फैलाती हैं. किसानों को ऋण या न्यूनतम समर्थन मूल्य देने से इनकार करना उनके दिलों में डर पैदा करता है. नौजवानों को यह कहना कि उनके माता-पिता ने उनकी शिक्षा पर भले लाखों रुपए खर्च किए हैं, पर फिर भी उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी, उनके दिल में डर पैदा करता है. मजदूरों को यह कहना कि हम राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना को बंद कर देंगे, उनके दिल में डर पैदा करता है. फिर नरेंद्र मोदी और बीजेपी उस डर को नफरत में बदल देते हैं.” वह यह नहीं समझाते कि बीजेपी कैसे इस डर को नफरत में बदलती है. इस तरह नफरत का खामियाजा भुगतने वालों पर किसी का ध्यान नहीं जाता.
वह प्रताड़ित समुदायों की पीड़ा के बारे में बात भी कर लेते हैं और सवर्ण जातियों पर इसकी कोई आंच भी नहीं आने देते. वेबसाइट मूकनायक की मीना कोटवाल ने गांधी से सीधा सवाल किया कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व की लड़ाई में देश के दलित, आदिवासी और मुसलमान खुद को कहां पाते हैं? लेकिन गांधी ने तब भी पीड़ितों की पहचान को अनदेखा कर दिया. उनका जवाब था, “देखिए, लड़ाई देश के गरीबों और दो-तीन उद्योगपतियों के बीच है. असली लड़ाई पूंजी को लेकर है, इस बात को लेकर कि देश की पूंजी का वितरण कैसे किया जा रहा है. उस लड़ाई में दलितों, अल्पसंख्यकों, गरीबों, किसानों और पिछड़ी जातियों, सभी की अपनी जगह है.” इसका तात्पर्य यह है कि उत्पीड़ित समुदायों की बात तभी सुनी जायेगी जब उनका दमन आर्थिक संदर्भ से जुड़ा होगा, क्योंकि जिस घृणा और हिंसा का वे दैनिक आधार पर सामना करते हैं, उसे “वास्तविक लड़ाई” नहीं माना जाता है.
ऐसा नहीं था कि गांधी ने केवल अतीत की घटनाओं पर चुप्पी ओढ़े रखी. वह वर्तमान पर भी कुछ भी कहने से बचते नजर आए. दिसंबर के अंत में जब वह दिल्ली पहुंचे, तो वहां से तीन सौ किलोमीटर से भी कम दूरी पर उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर में चार हजार परिवारों (ज्यादातर मुस्लिम) पर भारतीय रेलवे द्वारा बेघर किए जाने का खतरा मंडरा रहा था. स्थानीय कांग्रेस ने आंदोलनरत निवासियों के संघर्ष का समर्थन किया लेकिन गांधी ने इसका जिक्र तक नहीं किया. लगभग उसी समय एक और घटना हुई. तमिलनाडु के इरायूर गांव के उच्च-जाति के लोगों ने (जिला अधिकारियों ने पाया कि बीजेपी अभी भी छूआछूत करते हैं) स्थानीय दलितों द्वारा उपयोग की जाने वाली पानी की टंकी में मल फेंक दिया. गांधी इस घटना पर भी चुप रहे. इसी तरह, गांधी के नांदेड़ पहुंचने से ठीक पहले दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थी. 4 नवंबर को स्थानीय जिला अदालत ने आरएसएस के एक पूर्व सदस्य यशवंत शिंदे द्वारा दायर एक आवेदन पर फैसला सुनाने से इनकार कर दिया. शिंदे का दावा था कि तकरीबन 17 साल पहले देश भर में हुए बम धमाकों, जिनमें तकरीबन 100 लोग मारे गए थे (अधिकांश मुस्लिम), के लिए संघ परिवार के वरिष्ठ नेता जिम्मेदार थे और वह खुद इस साजिश के गवाह थे. शिंदे का दावा गांधी की बात को पुख्ता कर रहा था कि आरएसएस और बीजेपी देश में नफरत और हिंसा फैलाते हैं लेकिन गांधी ने इस पूरे प्रकरण पर कुछ नहीं कहा. स्पष्ट रूप से कांग्रेस अब हिंदू आतंक की पहचान करने और उन पर मुकदमा चलाने में कोई भूमिका नहीं निभाना चाहती. इस घटना के तीन दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा और रोजगार में आरक्षण के लिए आर्थिक मानदंड को वैध आधार के रूप में बरकरार रखा. फैसले में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए निर्धारित आरक्षण से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों को बाहर रखने के प्रस्ताव को भी स्वीकार किया गया. बीजेपी ने 2019 में ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू किया था, जो उत्पीड़ित समुदायों के प्रतिनिधित्व को कमजोर करता है और इसे उत्पीड़क समुदायों के गरीब वर्गों को प्रदान करता है. राजनेता और कानूनी विशेषज्ञ कोर्ट के फैसले पर बंटे हुए थे. कांग्रेस ने फैसले का समर्थन किया लेकिन बाद में इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए एक आंतरिक समीक्षा की स्थापना की.
गांधी ने, हालांकि, इस पर कुछ कहने से इनकार कर दिया. 28 नवंबर को जैसे ही यात्रा मध्य प्रदेश से गुजरी, एक पत्रकार ने उनसे इस बारे में पूछा. उन्होंने कहा, "देखिए, इस यात्रा का एक स्पष्ट उद्देश्य है. मैं उससे हटना नहीं चाहता. यह यात्रा देश में फैलाई जा रही नफरत, हिंसा और भय के खिलाफ है. मूल विचार यह है कि लोगों की आवाज सुनना महत्वपूर्ण है. यह देश में बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई का विरोध भी है. इनके अलावा मैं और अधिक राजनीतिक मुद्दे नहीं उठाना चाहता या इस यात्रा को भटकाना नहीं चाहता. लेकिन हम लोगों से मिलने वाले फीडबैक पर जरूर चर्चा करेंगे." ऐसा प्रतीत होता है कि उनके लिए उत्पीड़ित समुदायों का बहिष्कार कोई ठोस मुद्दा नहीं था. ऐसा भी लग रहा था कि जिन लोगों से वह पिछले महीने मिले थे, उन्होंने इस मुद्दे के विषय पर उन पर दबाव नहीं डाला था. दूसरे शब्दों में कहें तो जिस भारत को गांधी एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे, उसे शायद इस बात की परवाह नहीं थी कि देश की एक बड़ी आबादी अपनी सामाजिक गतिशीलता का बेहद अहम माध्यम गंवाने की दहलीज पर खड़ी थी.
15 अक्टूबर को कर्नाटक के बेल्लारी से गुजरते समय गांधी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सकारात्मक कार्रवाई की बात करने में बहुत खुश थे, क्योंकि इसने उन्हें राज्य में बीजेपी पर हमला करने का अवसर मिला था. उन्होंने कहा कि जब कांग्रेस राज्य में गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही थी, तो उसने नागमोहन दास समिति का गठन किया था. यह एक न्यायिक आयोग था, जिसने एसटी के लिए आरक्षण को 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 7 प्रतिशत और एससी के लिए 15 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत करने की सिफारिश की थी. उन्होंने कहा, “बीजेपी सरकार इसे लागू करने से इनकार क्यों कर रही है? बीजेपी को कर्नाटक में बहाने बनाना बंद करना चाहिए."
गांधी के दोहरे मापदंड सकारात्मक कार्रवाई तक ही सीमित नहीं थे. उन्होंने आगे कहा कि बेल्लारी में बीजेपी शासित राज्य में "एससी और एसटी भाइयों के खिलाफ अत्याचार में 50 प्रतिशत की वृद्धि" हुई है." इस हिसाब से देखा जाए तो राजस्थान में, जहां कांग्रेस की सरकार है, दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. लेकिन वहां गांधी केवल शोक संवेदना व्यक्त करने तक ही सीमित रहते हैं. राजस्थान में मार्च में दो ब्राह्मणों ने मूंछें रखने के लिए एक दलित व्यक्ति, जितेंद्र मेघवाल की चाकू मारकर हत्या कर दी थी. गांधी चुप रहे.
पांच महीने बाद, एक राजपूत शिक्षक ने नौ वर्षीय दलित छात्र इंद्र मेघवाल को पानी के बर्तन को छूने के लिए मार डाला. इस बार गांधी ने घटना के बारे में ट्वीट किया. उन्होंने छूआछूत या भेदभाव जैसे शब्दों का उपयोग किए बिना इसे एक "क्रूर कृत्य" कहा. उन्होंने न्याय में तेजी न दिखाने के लिए राज्य सरकार की आलोचना नहीं की और न ही बच्चे के परिवार से मिलने का कोई प्रयास किया. जब दिसंबर में उनकी यात्रा राजस्थान से गुजरी, तो राजपूत आदमियों ने मेघवाल के पिता को धमकाया और उनके चाचा पर बेरहमी से हमला किया. गांधी ने फिर भी कोई टिप्पणी नहीं की. उन्होंने अलवर का दौरा भी किया, जहां 2017 में पहलु खान को मवेशियों को ले जाने के लिए पीट-पीट कर मार डाला गया था. उन्होंने खान का कोई उल्लेख नहीं किया, हालांकि उन्होंने एक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने घोषणा की, "मैं नफरत के बाजार में प्यार की दुकान खोल रहा हूं. तुम मुझसे नफरत करते हो, यह तुम्हारे दिल की बात है. तुम्हारी दुकान है नफरत की, मेरी है मुहब्बत की... क्योंकि हमारा धर्म, हमारा देश, मुहब्बत का देश है."
इन उदाहरणों से इतर कुलीन वर्गों के साथ व्यापार में भी गांधी के दोहरे मानदंड साफ देखे जा सकते हैं. दिल्ली में गांधी ने कहा कि मोदी "अडानी और अंबानी की सरकार" का नेतृत्व कर रहे हैं. वहीं यात्रा शुरू होने के एक महीने बाद 7 अक्टूबर को राजस्थान सरकार ने एक निवेश शिखर सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें अडानी ने घोषणा की कि वह राज्य में अगले पांच से सात वर्षों में 65000 करोड़ रुपए का निवेश करेंगे और अपने सीमेंट और सौर ऊर्जा व्यवसायों का विस्तार कर जयपुर हवाई अड्डे का नवीनीकरण करेंगे. राज्य में पहले ही अडानी समूह की एक बड़ी उपस्थिति है. वह एक सौर ऊर्जा पार्क और थर्मल प्लांट चलाने के अलावा राज्य के पावर प्लांटों को कोयला उपलब्ध कराते हैं.
अगले दिन अडानी के निवेश के बारे में पूछने वाले एक पत्रकार से गांधी ने कहा, “कोई भी मुख्यमंत्री इस तरह के प्रस्ताव से इनकार नहीं कर सकता है. बल्कि किसी मुख्यमंत्री के लिए इस तरह के प्रस्ताव को ठुकराना सही नहीं होगा. मैं कुछ चुनिंदा व्यवसायों को राजनीतिक मदद दिए जाने के खिलाफ हूं. मेरा विरोध यह है कि दो, तीन या चार बड़े व्यवसायों को इस देश में हर व्यवसाय पर एकाधिकार जमाने के लिए राजनीतिक रूप से मदद दी जा रही है. राजस्थान सरकार ने श्री अडानी को मदद देने के लिए राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया है. जिस दिन वह ऐसा करेंगे, मैं उनका भी विरोध करूंगा.”
अगर कांग्रेस शासित राज्यों में अडानी को समूची आपूर्ति श्रृंखला थमाए जाने पर नजर डालें, तो गांधी का एकाधिकार का विरोध करना सतही लगता है. मार्च में छत्तीसगढ़ सरकार ने हसदेव वन में परसा ईस्ट केटे बासन कोयला ब्लॉक को राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम को आवंटित किया, जो अडानी के साथ मिल कर खदान का संचालन करेगी. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, जो मध्य प्रदेश में यात्रा में शामिल हुए, ने मूकनायक को बताया कि राजस्थान के पावर प्लांटों को कोयला उपलब्ध कराने के लिए खदानें आवश्यक थी. अडानी समूह राजस्थान में एक थर्मल पावर प्लांट चलाता है. दिसंबर में स्क्रॉल ने रिपोर्ट किया कि हसदेव से लाखों टन कोयले को छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में अडानी के तीन अन्य प्लांटों में भेजा जा रहा था.
ऐसा लगता है कि गांधी आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के अपने वादे से भी मुकर गए हैं, जो 2010 से हसदेव में खनन का विरोध कर रहे हैं. मई में केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बोलते हुए उन्होंने कहा था कि उन्हें कोयला ब्लॉक के आवंटन “के निर्णय से कुछ आपत्ति थी.” उन्होंने कहा कि वह “इस पर काम कर रहे हैं” और “कुछ ही हफ्तों में परिणाम सामने होंगे.” जुलाई में छत्तीसगढ़ विधानसभा ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से आवंटन रद्द करने का आग्रह किया. तीन महीने बाद राज्य सरकार ने वन मंत्रालय से मामले में हस्तक्षेप करने के लिए कहा. लेकिन कार्यकर्ताओं का कहना था कि छत्तीसगढ़ सरकार नाटक कर रही थी क्योंकि वह स्वयं ही परियोजना को जारी किए गए अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) को रद्द कर सकती थी. खनन लगातार जारी रहा.
24 नवंबर को गांधी ने मध्य प्रदेश के पंधाना में एक आदिवासी सभा की. उन्होंने कहा, “हम आपको आदिवासी कहते हैं, क्योंकि हम मानते हैं कि आप भारत के पहले और मूल मालिक हैं. वह आपको वनवासी कहते हैं (संघ परिवार की पसंदीदा शब्दावली) क्योंकि वह आपके अधिकारों को छीनना चाहते हैं.” कई सवर्ण बुद्धिजीवियों ने आरएसएस की विचारधारा पर किये गये इस हमले की प्रशंसा की. लेकिन यह तथ्य है कि बयानबाजी से परे गांधी ने हसदेव में आदिवासी अधिकारों को सुरक्षित करने के बजाय अडानी के पैसों को चुना.
गांधी के नांदेड़ पहुंचने से एक दिन पहले वजीराबाद चौरास्ता से लगभग सौ मीटर की दूरी पर स्थित होटलों के कमरे स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ताओं से भरने लगे थे. पार्किंग में खड़ी गाड़ियों पर भारत जोड़ो यात्रा के के साथ-साथ उनके मालिकों के पेशे और सामाजिक ओहदे के स्टिकर्स लगे हुए थे. (कई लोग नौकरशाही और न्यायपालिका से संबंधित थे.) ये वह लोग थे जो आलीशान कमरों में रुके हुए थे और जिन्हें यात्रा के साथ चलने वाले काफिले में शामिल होने की अनुमति मिली थी. इस काफिले में पत्रकारों की गाड़ियां, एम्बुलेंस, फायर ट्रक और कंटेनर ट्रक भी शामिल थे, जिसमें यात्री रात में सोते थे. जब मैं निजी कमरों में रह रहे लोगों से नाश्ते पर मिला, तो मुझे लगा कि वह सार्वजनिक रूप से अपनी राजनीति के बारे में बात करने में सहज नहीं हैं.
सबसे ऊपर के माले पर बनी डॉरमिटरी (जहां मैं 2006 के नांदेड़ धमाकों पर चल रहे मुकदमे को कवर करते हुए ठहरा था) में अधिकतर ऐसे लोग रह रहे थे, जो यात्रा में शामिल होने के लिये ट्रेन से मुंबई से आए थे. एक दिन मैंने उनमें से आठ लोगों के साथ बातचीत की- तीन कैथोलिक, चार मुसलमान और राजपूत जाति से एक हिंदू. ये सभी लोग कांग्रेस में जिला स्तर के पदों पर थे. (डॉरमिटरी में कोई दलित या आदिवासी प्रतिभागी नहीं थे.)
मुंबई के उपनगर वसई के रहने वाले कैथोलिक प्रतिभागी रॉयस रॉजर फैरेल, विल्फ्रेड मैनुएल डिसूजा और अशर ने मुझे बताया कि वह पिछले दिन गांधी से मिलने के लिए पच्चीस किलोमीटर पैदल चले थे, लेकिन असफल रहे. वह फिर से प्रयास करने वाले थे, लेकिन उन्हें बहुत उम्मीद नहीं थी. फैरेल ने कहा, “हमें अब पास नहीं चाहिए. हम समझ गए हैं कि यह केवल उन लोगों के लिए है, जो सुर्खियों में आने वाले हैं.”
फैरेल ने एक रूसी से विवाह किया है और वह एक निजी शिक्षा कंपनी चलाते हैं. उन्होंने मुझे बताया कि 2016 में रूस से लौटने और अपना व्यवसाय स्थापित करने के बाद से उन्हें व्यक्तिगत भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा है. उन्होंने कहा, “हम अल्पसंख्यक हैं. हम भारत में बहुसंख्यक नहीं बनना चाहते. लेकिन जो हमारे पास है, उसे हमसे मत छीनिए. यह मैं अपने बारे में नहीं कह रहा हूं. मेरे पास अपना व्यवसाय है, घर है, गाड़ी है. लेकिन मैं आने वाले कल के लिए लड़ रहा हूं.” हाल में मुंबई में शिवसेना के एक धड़े का बीजेपी के साथ गठबंधन की सरकार बनाना उन्हें चिंतित करता है. कैथोलिकों ने नगर निगम में जिस पार्टी को समर्थन दिया, उसने अब भाजपा का दामन थाम लिया है. फैरेल बीजेपी सरकार के शासन में अपने समुदाय की संभावनाओं को लेकर भी बहुत आशावादी नहीं हैं. वह अपने पड़ोस की एक लड़की का उदाहरण देते हैं, जिसने क्रिकेट में बेहतर मौके पाने के लिए एक हिंदू नाम अपना लिया था. उन्होंने बताया, “हमें लगता है कि सरकारी नौकरी पाने के लिए, कॉलेज में जल्दी से दाखिले के लिए, बैंकों में अच्छी नौकरी पाने के लिए, रेलवे में और यहां तक कि खेलों में प्रवेश करने के लिए भी हिंदू पहचान होना बेहतर है.”
मैंने फैरेल से पूछा कि सत्ता में आने पर वह गांधी से किस बदलाव की उम्मीद रखते हैं? उन्होंने कहा कि उन्हें जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव को समाप्त करना चाहिए. जातिगत भेदभाव के विषय में उनकी एक अलग समझ है. उनका मानना है कि वंचित समुदायों के लिए सकारात्मक कार्रवाई से प्रभावशाली जाति के लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है. वह कहते हैं, “मैंने एमबीबीएस के लिए सौ से अधिक छात्रों को रूस भेजा है. इसलिए जब से आरक्षण आया, तो छात्रों को महाराष्ट्र में दाखिला नहीं मिल पाता है.” मैंने उनसे पूछा कि इसके लिए सीटों की कमी जिम्मेदार है या आरक्षण? तीनों ने एक स्वर में उत्तर दिया, “आरक्षण.” तीनों में सबसे युवा अशर प्रबंधन में स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं. उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए आम तौर पर प्रचलित आरक्षण-विरोधी तर्क दिए, जो अधिकांश रूप से केवल सुनी-सुनायी बातों पर आधारित होते हैं. इस तर्क के अनुसार उत्पीड़ित जातियों के सभ्रांत घरों के बच्चों को आरक्षण के चलते अच्छे अंक लाने वाले उच्च-जाति के उम्मीदवारों पर वरीयता दी जाती है. उन्होंने कहा, “ईडब्ल्यूएस ही एक ऐसा तबका है, जिसे आरक्षण मिलना चाहिए.”
अपनी यात्रा के दौरान गांधी ने अक्सर छात्रों के साथ हुई बातचीत का जिक्र किया. उन्होंने कहा कि जब छात्र उनसे कहते हैं कि वह एक नौकरशाह, डॉक्टर या इंजीनियर बनना चाहते हैं, तो वह उनसे पूछते हैं कि जब हजारों आवेदकों के लिए कुछ सैकड़ों सीट ही उपलब्ध हैं, तो वह अपने सपनों को कैसे पूरा करेंगे? गांधी ने भले ही कभी यह सुझाव नहीं दिया कि सीटों की कमी आरक्षण से संबंधित थी, लेकिन शायद उनके समर्थक ऐसा मानते हैं.
अनुराग ठाकुर, जिनकी उम्र 20 वर्ष से कुछ अधिक है, उन “भारत यात्रियों” में से एक थे, जो बड़ी संख्या में कन्याकुमारी से श्रीनगर तक मार्च में भाग ले रहे थे. महीने भर के लिए घर लौटने से पहले उन्होंने केरल तक गांधी की यात्रा में भाग लिया था. ठाकुर ने मुझे बताया कि वह 2020 तक “पूरी तरह से भाजपा वाले” थे. उन्होंने कहा, “मैं जिस क्षेत्र से आता हूं, वहां पचपन प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है. तो मेरी विचारधारा भी ऐसे ही विकसित हुई. जो सब मैंने बचपन से देखा, जैसे कि मुस्लिम जुलूस निकाले जा रहे हैं वगैरह वगैरह. मेरे दिमाग में ये बैठ गया था कि ये लोग कब तक यहां रहेंगे, कब तक यह सब करेंगे.”
ठाकुर ने कहा कि उनकी मानसिकता तब बदलनी शुरू हुई, जब एक परिचित के कहने पर उन्होंने कांग्रेस के एक शिविर में भाग लिया और पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से मुलाकात की. “फिर मैं समझ गया कि मुस्लिम धर्म बुरा नहीं है. इसमें बस कुछ बुरे लोग हैं. हिंदुओं में भी कुछ बुरे लोग हैं.” किसी के धर्म पर आधारित भेदभावपूर्ण धारणा को समझने की जगह कलाम (जिन्हें बीजेपी भी एक अच्छा मुसलमान मानती है) के माध्यम से एक धर्म के लोगों को समझना यह दर्शाता है कि कांग्रेस की मूल विचारधारा हमेशा से अस्पष्ट रही है.
ठाकुर ने मुझे बताया कि वह राजस्थान में दलितों पर अत्याचार पर गांधी की चुप्पी का समर्थन करते हैं. उन्हें अत्याचारों की सच्चाई पर संदेह था. जब मैंने उनसे नौ वर्षीय इंद्र मेघवाल के बारे में पूछा, जिसे उनके शिक्षक ने मार डाला था, तो उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि यह एक आपसी मामला है. हो सकता है उनके बीच अनबन रही हो.” उन्होंने कहा कि उनका मानना है कि “आरक्षण एक बुरी चीज है और यह किसी को भी नहीं दिया जाना चाहिए.”
वहां मौजूद चारों मुसलमान बाकी यात्रियों की तुलना में अपेक्षाकृत गरीब पृष्ठभूमि से थे. वह मुंबईया हिंदी बोल रहे थे और शहर के कम-आय वाले इलाकों के रहने वाले थे. उनका प्रतिनिधित्व कर रहे मोबीन रीन चौबीस साल से अधिक समय से राजनीति में हैं, लेकिन अभी भी केवल ब्लॉक स्तर के पदाधिकारी हैं. उन्होंने मुझे बताया कि वह राज्य के पूर्व मंत्री आरिफ नसीम खान की वजह से कांग्रेस में हैं. उन्होंने कहा, “हम जहां भी जाते हैं, हम कहते हैं कि हम नसीम खान के लोग हैं. राहुल गांधी अपनी जगह हैं, लेकिन मुंबई में हमारे लिए नसीम भाई ही सब कुछ हैं.” उन्होंने कहा कि राजनीति ने उन्हें शक्ति और सुरक्षा की भावना दी है. वह कहते हैं कि राम मंदिर पर पार्टी के राष्ट्रीय रुख या गांधी की कट्टर हिंदू की छवि से उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता. जब भी मैं उनसे धर्म के बारे में पूछता, तो रीन गांधी की तरह बात को बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था के विषयों पर ले आते. उन्होंने कहा कि उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं है कि सामाजिक या आर्थिक आधार पर आरक्षण होना चाहिए या नहीं, लेकिन मानते हैं कि किसी के लिए भी आरक्षण नहीं होना चाहिए.
नांदेड़ में मैं जिन कांग्रेस समर्थकों से मिला, वे एक खास श्रेणी के मतदाता हैं, जिन्हें यात्रा बढ़ावा देती है: आंशिक सांप्रदायिक, शायद पूर्ण धर्मनिरपेक्ष, लेकिन पूर्ण जातिवादी और बहुजनों के संघर्षों के प्रति शत्रुतापूर्ण या बेखबर. गांधी ऐसे समर्थकों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि बीजेपी उनका दोहन कर रही है. लेकिन वह शायद ही कभी उनसे अपने विशेषाधिकारों को समझने की अपील करते हैं. इसके विपरीत उनके लिए जातपात एक ऐसा विषय है, जिसे वे अपनी सुविधानुसार बीजेपी की आलोचना के लिए इस्तेमाल करते हैं.
आंध्र प्रदेश में गांधी ने बीजेपी पर जाति व्यवस्था को बनाए रखने का आरोप लगाया लेकिन स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा कि कांग्रेस इसे खत्म करेगी. उन्होंने आश्वासन दिया कि उनकी पार्टी संविधान और लोगों को अधिकार देने में विश्वास करती है. कर्नाटक के एक गांव बदनावलु में उन्होंने एक सड़क का उद्घाटन किया, जो दलित और लिंगायत बस्तियों को जोड़ती है. भारत जोड़ो यात्रा टीम द्वारा प्रकाशित एक वीडियो ने इसे दो समुदायों को एकजुट करने के रूप में प्रचारित किया, जो तीन दशक पहले एक-दूसरे से अलग हो गए थे. (1993 में लिंगायत समुदाय के सदस्यों ने मंदिर प्रवेश विवाद को लेकर दलितों पर हमला किया था, जिसमें तीन लोगों की मौत हो गई थी.)
दो समुदायों को एक साथ लाने में गांधी की भूमिका ज्यादातर दिखावटी प्रतीत होती है. द वायर द्वारा प्रकाशित एक ग्राउंड रिपोर्ट में कहा गया है, “ग्रामीणों ने खुद ही पुरानी घटनाओं के बारे में बातचीत की और आपसी जाति समीकरणों में बदलाव किए बिना ही समझौता कर लिया. क्या गांव में भारत जोड़ो यात्रा मनाने की कांग्रेस की सांकेतिक गतिविधियां बदनावलु को एक जातिविहीन, समतावादी सामाजिक व्यवस्था के रूप में पेश करना चाहती हैं? वास्तव में बर्बाद अर्थव्यवस्था और सामाजिक सामंजस्य को असल मायनों में जोड़ने के लिए सिर्फ प्रेम के संदेश और अंतर्जातीय खानपान से कहीं अधिक एक मजबूत राजनीतिक एजेंडा की जरूरत है. राहुल गांधी ने प्रतीकात्मक रूप से एक अच्छा काम किया है. लेकिन जहां यह एक सिरे पर केवल एक सरल काम नजर आता है, वहीं दूसरे सिरे पर यह ‘सबाल्टर्न हिंदुत्व’ और नवउदारवाद को बल देता है.”
यह स्पष्ट है कि गांधी की यात्रा का दलितों और मुसलमानों पर कुछ प्रभाव पड़ा है. नांदेड़ में मैंने कुछ युवा मुसलमानों को उनके पीछे दौड़ते हुए देखा. पुलिस द्वारा धकेले जाने के बाद भी वह गांधी से हाथ मिलाना चाहते थे. तेलंगाना में रोहित वेमुला की मां राधिका यात्रा में शामिल हुईं. आयोजकों ने राधिका वेमुला को गले लगाते हुए गांधी की तस्वीरें पोस्ट की. लेकिन इस फोटो-ऑप के अलावा गांधी के पास उन मांगों के बारे में कहने के लिए कुछ नहीं था, जो राधिका ने यात्रा के प्रति एकजुटता दिखाते हुए उठाई थीं.
उन्होंने बाद में एक ट्वीट में लिखा कि इसमें “संविधान को बीजेपी-आरएसएस के हमले से बचाना, रोहित वेमुला को न्याय देना, रोहित अधिनियम पारित करना, उच्च न्यायपालिका में दलितों, उत्पीड़ित वर्गों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना, सभी के लिए शिक्षा के अधिकार” की मांगें शामिल थीं.
आई कुड नॉट बी हिंदू के दलित लेखक भंवर मेघवंशी भी गांधी के साथ राजस्थान में शामिल हुए. उन्होंने इसे “सुखद और प्रेरणादायक अनुभव” कहा. राजनीतिक विज्ञानी रावसाहेब कसाबे ने मुझे बताया कि वह भी एक कांग्रेसी नेता के निमंत्रण पर यात्रा में शामिल हुए थे. कसाबे ने कहा, “मैंने देखा है कि राहुल गांधी में साफगोई है. मुझे लगता है कि वह अंततः अपना मुकाम हासिल करेंगे.” वह हालांकि चिंता जताते हैं कि “गांधी चीजों को आध्यात्मिक स्तर पर ले जा सकते हैं.”
गांधी की अजीबोगरीब प्रतिक्रियाओं के संदर्भ में कसाबे की यह चिंता वाजिब दिखती है. मध्य प्रदेश में एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि यात्रा से उनमें क्या बदलाव आया है? गांधी ने जवाब दिया, “भाई, मैंने राहुल गांधी को बहुत पहले पीछे छोड़ दिया था. राहुल गांधी बस आपके दिमाग में है, मेरे नहीं. इसे समझने की कोशिश करिए.”
(कारवां अंग्रेजी के फरवरी 2023 अंक की इस कवर स्टोरी का हिंदी में अनुवाद कुमार उन्नयन ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)