जब कोलंबो में उग्र प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के भव्य राष्ट्रपति निवास को तहस-नहस कर दिया और हवाई अड्डे के आप्रवासन कर्मचारियों ने देश से बाहर जाने वाली नागरिक उड़ानों पर रोक लगा दी, तब राजपक्षे के पास रात बिताने के लिए श्रीलंका के एक सैन्य अड्डे के अभ्यारण्य के अलावा कोई जगह नहीं बची थी. आखिरकार, अगले दिन 13 जुलाई को वह और उनकी पत्नी वायु सेना के एक विशेष विमान में सवार हो कर मालदीव भाग निकले. गोटाबाया अपने पीछे छोड़ गए वह देश जिसे उन्होंने अपने भाइयों के साथ मिल कर आर्थिक रूप से पूरी तरह बर्बाद कर दिया है. अपने इतने बुरे समय में भी गोटाबाया को पता था कि सेना अभी भी वह आखिरी संस्था है जो उन लोगों से लड़ सकती है जिनके कारण उन्हें भागना पड़ रहा है.
सिंगापुर जाने के बाद ही गोटाबाया ने राष्ट्रपति पद छोड़ा और गिरफ्तारी से बचे. उनका पद अंतरिम तौर पर रानिल विक्रमसिंघे के पास चला गया जिन्होंने पहले महिंदा राजपक्षे के स्थान पर प्रधानमंत्री का पदभार संभाला था. राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के कुछ ही घंटों बाद विक्रमसिंघे सेना के शीर्ष अधिकारियों के साथ उन सैनिकों को देखने एक सैन्य अस्पताल पहुंचे जो प्रदर्शनकारियों के संसद परिसर में हमला करने के समय घायल हो गए थे.
आर्थिक संकट से त्रस्त लाखों नागरिकों की यह एकजुटता एकदम से सामने नहीं आई थी. कई लोगों के पास भोजन, ईंधन और दवाएं वगैरह कुछ भी नहीं बचा था. 20 जुलाई को विक्रमसिंघे ने पूर्ण रूप से सेना की साख पर भरोसा किया. सैना ने राजधानी में एक बड़े विरोध शिविर पर छापा मारा, जो विक्रमसिंघे द्वारा पहले की गई घोषणा का एक प्रमाण है कि उन्होंने सेना और पुलिस को व्यवस्था बहाल करने के लिए जो कुछ भी करने की आवश्यकता हो, वह करने का आदेश दिया है. यह एक महत्वपूर्ण मोड़ और विक्रमसिंघे के लिए सेना के समर्थन का प्रमाण था. अप्रैल में जब गोटाबाया फिर से सत्ता में बने रहने की उम्मीद कर रहे थे तब सेना ने इस तरह की अटकलों का खंडन किया कि वह किसी कार्रवाई की तैयारी कर रही थी. सेना ने इसके बजाय देश के संविधान को बनाए रखने का वादा किया था.
यह छापेमारी इस बात की याद दिलाती है कि सेना भले ही प्रत्यक्ष रूप से शक्ति का केंद्र नहीं है, फिर भी श्रीलंका की आगे की स्थिति तय करने में बड़ी भूमिका निभाने वाली है. जब देश की राजनीतिक व्यवस्था और सरकार को वैधता के संकट का सामना करना पड़ रहा है, ऐसे में सेना इस उथल-पुथल का सामना करने के लिए तैयार है क्योंकि सत्ता के अन्य केंद्रों के मुकाबले इसकी ताकत काफी बरकरार है या कहें कि बढ़ी ही है. इसकी ताकत एक लोकतांत्रिक सरकार के तहत सशस्त्र बलों के लिए परिभाषित पारंपरिक भूमिकाओं से कहीं अधिक है और इसमें राजनीतिक अभिजात वर्ग के साथ मिलीभगत के कारण काफी व्यावसायिक हित भी शामिल हैं. यह सेना को संतुलन बनाए रखने की एक मुश्किल स्थिति में छोड़ देता है जहां पुरानी राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ एक लोकप्रिय विद्रोह को, व्यवस्था के उन भागों की रक्षा करते हुए जिससे इसे बहुत फायदा हुआ हो, नियंत्रित करना होता है.
प्रदर्शनकारियों ने सशस्त्र बलों के कामकाज में सुधार की कोई मांग नहीं की है लेकिन बढ़ाए गए सैन्य बजट ने अर्थव्यवस्था को नीचे लुढ़काने में भूमिका निभाई है. पिछले साल अक्टूबर में भोजन की कमी और कीमतों में बढ़ोतरी के साथ सरकार ने 2022 के लिए 1.86 अरब डॉलर का रक्षा बजट प्रस्तावित किया था. यह पिछले वर्ष की तुलना में रक्षा बजट में प्रचुर वृद्धि थी. यह कुल सरकारी खर्च का करीब 15 फीसदी है.
जनता की नजरों में नहीं आते हुए सेना ने व्यापारिक उद्योगों से गुपचुप तरीके से आर्थिक मदद ली. 2018 तक एक अभियान समूह ने होटल, रेस्तरां, गोल्फ कोर्स, एक हवाई अड्डे, एक एयरलाइन, एक यात्रा-बुकिंग सेवा, एक स्कूबा-डाइविंग सेंटर और ऐसे ही अन्य स्वामित्व वाले या आर्थिक रूप से सैना से जुड़े प्रतिष्ठानों का दस्तावेजीकरण किया. देश के तमिल बहुल उत्तर-पूर्व और अन्य हिस्सों में सेना हजारों एकड़ निजी और सार्वजनिक भूमि पर कब्जा करके कभी-कभी उन पर उत्पादित उत्पादों को बेचती है, जो राज्य द्वारा प्राप्त प्रभावी सब्सिडी के कारण स्थानीय कीमतों से कम पर होते हैं. यह स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करता है और पहले से ही गरीब स्थानों के लिए विशेष रूप से हानिकारक है. इस जून में सेना ने घोषणा की कि सैनिक "देश भर में 1500 एकड़ से अधिक बंजर या परित्यक्त राज्य भूमि पर खेती करके द्वीप के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को बढ़ावा देने में मदद करेंगे."
सैन्य अधिकारी दर्जनों उच्च नागरिक कार्यालयों को भी नियंत्रित करते हैं. 2019 में गोटाबाया के सत्ता में आने के बाद दि इकोनॉमिस्ट में एक रिपोर्ट छपी कि "पहले और वर्तमान समय के जनरल सीमा शुल्क, बंदरगाह प्राधिकरण, विकास, कृषि और गरीबी उन्मूलन के प्रभारी रहे हैं." रक्षा बजट में सशस्त्र बलों को मिलने वाले सीधे वित्त पोषण के अलावा बहुउद्देश्यीय विकास कार्य बल के लिए आवंटन शामिल है और गरीबी से लड़ने के लिए स्थापित किया गया एक निकाय भी अब सैन्य नेतृत्व के अधीन है. इसे 2020 में राष्ट्रीय पुलिस अकादमी और आव्रजन और उत्प्रवास विभाग के साथ-साथ रक्षा मंत्रालय के तहत रखा गया था जो लोकतंत्र के लिए बड़े खतरे की घंटी है. यहां तक कि देश की कोविड-19 टास्क फोर्स को भी एक आर्मी कमांडर को सौंपा गया था. संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकारों के उच्चायुक्त ने 2021 की शुरुआत में श्रीलंका पर एक रिपोर्ट में "सरकारी कार्यों के सैन्यीकरण में तेजी" का जिक्र किया और कम से कम 28 पूर्व या सक्रिय सैन्य और खुफिया अधिकारियों के प्रशासनिक पदों पर काम करने की ओर इशारा किया.
श्रीलंका की सरकार और अर्थव्यवस्था का धीरे-धीरे होता सैन्यीकरण राजपक्षे से पहले के समय से ही चल रहा था, उन्होंने बस इसे रिकॉर्ड ऊंचाई तक बढ़ा दिया. 1970 के दशक के उत्तरार्ध में देश के पहले कार्यकारी राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने ने बाजार समर्थक आर्थिक सुधारों के लिए एक कल्याणकारी अर्थव्यवस्था से नाता तोड़ लिया. राजेश वेणुगोपाल ने अपनी पुस्तक, नेशनलिज्म, डेवलपमेंट एंड एथनिक कॉन्फ्लिक्ट इन श्रीलंका, में विवरण दिया है कि कैसे जयवर्धने के अर्थशास्त्र ने सेना सहित अन्य क्षेत्रों में राज्य का विस्तार अन्य क्षेत्रों में राज्य की भूमिका को निम्न करके किया. इन सुधारों ने निजी क्षेत्र के तेजी से विकास में सहायता की लेकिन आर्थिक असमानता को भी काफी हद तक बढ़ा दिया. जयवर्धने ने अपने उस एक दशक में पिछले तीन दशकों में कल्याणवाद के तहत जो कुछ हासिल किया था उसे बर्बाद कर दिया.
कुल जनसंख्या में एक बड़ा हिस्सा रखने वाले ग्रामीण सिंहाली के लिए निजीकरण बहुत कुछ नहीं कर सकता था. इसके बजाय, वेणुगोपाल लिखते हैं, राज्य में नागरिक के लिए रोजगार सीमित हो गया, सैन्य नौकरियां कमजोर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण गरीबी उन्मूलन तंत्र बन गईं और बढ़ती असमानता को कम करने के लिए कार्य किया. 1990 के दशक में जैसे ही श्रीलंका जयवर्धने के एक दशक से अधिक के शासन से बाहर आया और सरकार को अलगाववादी लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम के खिलाफ एक बढ़ते गृहयुद्ध का सामना करना पड़ा तब सेना देश में सबसे अधिक नौकरी देनी वाली संस्था बन गई.
गृहयुद्ध के दौरान ही सेना एक बड़ी ताकत के रूप में उभरी. वेणुगोपाल लिखते हैं कि 1982 में कुल 15000 सैनिक थे जो 2009 तक लड़ाई के समापन पर 200000 से अधिक हो गए थे. उस समय राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के नेतृत्व में घोर रक्तपात हुआ. श्रीलंका की सेना जो अभी भी द्वीप के तमिल-बहुसंख्यक उत्तर और पूर्व में एक विशाल उपस्थिति बनाए रखती है, वर्तमान में यूनाइटेड किंगडम की सेना के आकार से दोगुने से अधिक है जबकि श्रीलंका की आबादी यूनाइटेड किंगडम की आबादी से एक तिहाई से भी कम है.
2011 के एक शोध पत्र में विद्वान दरिनी राजसिंघम-सेनानायके ने युद्ध के बाद की अर्थव्यवस्था के लिए एक अत्यधिक असमान, सैन्यीकृत और टेढ़े नवउदारवादी विकास मॉडल का वर्णन किया है. उन्होंने लिखा, "जबकि अर्थव्यवस्था के चुनिंदा क्षेत्रों- सुरक्षा व्यवसाय, पर्यटन और सट्टेबाजी- में लाभ हो रहा है, कई अन्य क्षेत्र वर्तमान विकास मॉडल और प्रतिमान से अविकसित और गरीबी में हैं." ऐसे में एक पर्यटन-केंद्रित विकास नीति शासक परिवार के सदस्यों, संबंधित क्रोनी पूंजीपतियों और सुरक्षा प्रतिष्ठान के वर्गों को लाभांवित कर रही है." शोध पत्र में इसे पाकिस्तान में सैन्य व्यापार मॉडल के समान पेश किया गया, जहां एक सर्व-शक्तिशाली सेना पहले से ही राज्य को दबाने की कोशिश में है.
सेना भी तेजी से नागरिक सरकार का अतिक्रमण कर रही थी. राजसिंघम-सेनानायके ने लिखा, "प्रशासक और व्यापारिक समुदाय से विशेषज्ञता प्राप्त लोगों को तेजी से किनारे करके पूर्व और सेवारत सैन्य अधिकारियों को सरकार के प्रमुख केंद्रीय, स्थानीय और विदेश सेवा पदों पर नियुक्त किया जा रहा है." उनके विश्लेषण के अनुसार यह सैन्यीकरण "अक्सर इस धारणा के साथ और वैध होता है कि देश का नागरिक समाज और व्यापारिक समुदाय देशद्रोही, अक्षम और भ्रष्ट या तीनों हैं." यह तर्क कि नागरिक समाज या व्यापारिक समुदाय द्वारा किए जाने वाले कार्यों को, सेना बेहतर तरीके से कर सकती है, स्पष्ट रूप से खतरनाक है; अतीत में इसका उपयोग सैन्य तख्तापलट या सैन्य शासन को वैध बनाने के लिए भी किया गया है. 1962 में श्रीलंका ने ऐसे ही तख्तापलट के प्रयास देख चुका था ऐसे में यह चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक बन जाती है.
राजपक्षे और सेना एक सहजीवी संबंध में आगे बढ़े. सेना ने आर्थिक लूट के लिए दी गई छूट का खूब लाभ लिया और दूसरी ओर राजपक्षे ने लिट्टे को हराने के बाद प्राप्त अपनी अपील का इस्तेमाल विरोधियों को नीचा दिखाने और उन पर सशस्त्र बलों को धोखा देने का आरोप लगाया.
कई महीनों की उथल-पुथल के दौरान सेना चुपचाप राजपक्षे के साथ खड़ी रही लेकिन इस अप्रैल में, जब उसने घोषणा की कि वह संविधान को बनाए रखेगी और प्रदर्शनकारियों के खिलाफ नहीं जाएगी, तो लगता है उसे आभास हो गया था कि राजनीतिक हवा किस दिशा में बह रही है.
सेना खुद को राजपक्षे से दूर करने का जोखिम उठा सकती है क्योंकि उसके पास राजनीतिक सहयोगियों की एक लंबी कतार है और इसलिए भी कि श्रीलंका की राजनीति में गहरे तक फैले सैन्य-राजनीतिक गठजोड़ के टूटने का कोई वास्तविक खतरा भी नहीं है. विक्रमसिंघे राष्ट्रपति बनने से पहले छह बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं. वह राजपक्षे से अलग कोई विकल्प नहीं थे, उन्होंने एक बार दावा किया था कि "गृहयुद्ध के दौरान महिंदा के समय में मानवाधिकारों के हनन की अंतरराष्ट्रीय जांच को रोक कर उन्होंने महिंदा राजपक्षे की कुर्सी को बचाया था." जब उन्होंने पहली बार राष्ट्रपति के रूप में गोटाबाया की जगह ली, तब प्रदर्शनकारियों के "गोटा गो होम" के नारे को "रानिल गो होम" में बदलने में समय नहीं लगाया. जब संसद में राष्ट्रपति के लिए मतदान हुआ तब उनके विरुद्ध एकमात्र उम्मीदवार दुलस अल्हाप्परुमा थे, जो राजपक्षे के सहायक थे और विरोध के दौरान उनके आलोचक बन गए थे. एक प्रमुख विपक्षी नेता और पूर्व सैनिक रहे सरथ फोंसेका ने गृहयुद्ध के अंत तक सेना का नेतृत्व किया था. विपक्ष के नेता साजिथ प्रेमदासा ने वोटिंग से एक दिन पहले राष्ट्रपति चुनाव में पीछे हटते हुए अपना समर्थन अल्हाप्परुमा को दे दिया. बाद में यह घोषणा की गई कि अलहाप्परुमा के जीतने पर उन्हें प्रधान मंत्री बनाया जाएगा. इसके बजाय, प्रधानमंत्री के पद पर अब राजपक्षे के एक अन्य पुराने सहयोगी दिनेश गुणवर्धने हैं.
जुलाई के अंत में विक्रमसिंघे को लेकर मोहभंग के बावजूद प्रदर्शनकारियों के समूह कोलंबो की सड़कों से पीछे हट गए थे, कुछ थकान से और कुछ पिछले सप्ताह के छापे के बाद सैन्य और सुरक्षा बलों के नए डर से. आपातकाल एक ऐसा हथियार है जिसका श्रीलंका के इतिहास में सशस्त्र बलों ने बेहद दुरुपयोग किया है और यह विक्रमसिंघे के कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित होने के बाद भी जारी है. ठोस योजना के आभाव में आर्थिक बर्बादी जारी है. इस बीच गोटाबाया सुरक्षा का इतना भरोसा हो चुका है कि वह सिंगापुर से श्रीलंका लौटना चाहने लगे हैं. लगता है गोया व्यवस्था बहाल की जा चुकी है.