गृह कलेश

थरूर विवाद से उजागर होतीं कांग्रेस की अंदरूनी दरारें

कांग्रेस नेता शशि थरूर नई दिल्ली में अपने आवास पर पार्टी अध्यक्ष पद के लिए नामांकन दाखिल करने के बाद मीडिया को संबोधित करते हुए. (एएनआई फ़ोटो)
20 August, 2025

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‘शशि थरूर, जीतेगा ज़रूर!’ 1975 में दिल्ली के सेंट स्टीफ़ंस कॉलेज के छात्र संघ चुनाव में अध्यक्ष पद के उम्मीदवार शशि थरूर के लिए यह नारा लगा था. कॉलेज के अध्यक्ष पद से लेकर आज तक सिर्फ़ दो ही चुनाव ऐसे रहे हैं जहां यह नारा हक़ीक़त नहीं बन पाया और थरूर हारे : साल 2006 में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पद का और 2022 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद का.

शशि थरूर लोक जीवन में अपने कामों से अधिक विवादों के लिए चर्चा में रहते हैं. सार्वजनिक जीवन में कभी उनके विचार, कभी उनकी किताब और कभी उनका निजी जीवन सुर्खियों में रहता है. बीते कुछ महीनों में कांग्रेस पार्टी से नोक-झोंक के चलते थरूर लगातार बहस का मुद्दा बने हुए हैं.

हालांकि इस बार मामला थोड़ा गंभीर है क्योंकि मुद्दा राजनीति से जुड़ा है. इस बीच कांग्रेस पार्टी के भीतर थरूर को लेकर विभिन्न कयास लगाए जा रहे हैं. इस बार पुलवामा आतंकी हमले के बाद सरकार की पाकिस्तान में आतंकी अड्डों पर की गई कार्रवाई ऑपरेशन सिंदूर के समर्थन और सरकार की बेलगाम प्रशंसा ने पार्टी और उनके बीच दूरी के कयासों को बढ़ा दिया है. साल 2022 में कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के चुनाव के बाद से उनके और पार्टी के बीच मन-मुटाव की ख़बरें आम हो गई थीं, लेकिन सवाल यह है कि क्या थरूर की यह नाराज़गी कांग्रेस में और बेहतर मुक़ाम नहीं पाने के कारण है.

‘24 अकबर रोड’, ‘सोनिया : एक जीवनी’ और ‘नेता अभिनेता : स्टार पावर इन इंडियन पॉलिटिक्स’ जैसी किताबों के लेखक वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई के अनुसार, किसी भी राजनीति दल में सभी नेताओं को वक़्त-वक़्त पर दिक्कतें आती रहती हैं. हमारे यहां के राजनीतिक दलों में संजीदा नेताओं के लिए कोई स्थान नहीं है. संगठनों में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव के कारण चैलेंजिंग लीडर का पार्टी के भीतर बहुत सीमित स्थान होता है. थरूर वैसे ही एक चैलेंजिंग लीडर है. और जो चैलेंजर होता है, उस चैलेंजर का पार्टी के भीतर कोई भविष्य नहीं होता.

कांग्रेस पार्टी में गांधी-नेहरू परिवार से हट कर विचार रखने वालों का पार्टी छोड़ कर जाने का लंबा और निरंतर इतिहास रहा है, जवाहरलाल नेहरू के समय में और उसके बाद जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और वाई. बी. चव्हाण, सभी को पार्टी छोड़ कर जाना पड़ा. इसी तरह नरसिंह राव के ख़िलाफ़ मोर्चा लेने वाले अर्जुन सिंह को पार्टी छोड़ कर जाना पड़ा था. हालांकि सोनिया गांधी के समय वह वापस आए, लेकिन उनका राजनीतिक भविष्य वैसा ही हो गया जैसा एक चैलेंजर का या जो पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेता का होता है वैसा.

किदवई ने मुझे बताया, ‘साल 2022 में थरूर ने जब कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के ख़िलाफ़ कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा, तो शायद उनको एहसास नहीं था कि वह किस तरह से दलदल में जा रहे हैं. वह चुनाव तो लड़े लेकिन उन्होंने इतना नहीं सोचा कि आगे क्या होगा. उनको लोगों ने हवा दी और वह लड़ गए. और जिन लोगों ने हवा दी उन्होंने जाकर मल्लिकार्जुन खड़गे के समूह, जिसको आलाकमान का समर्थन मिला था, से हाथ मिला लिया.’

लेकिन थरूर और आलाकमान रिश्तों में खटास 2022 से नहीं बल्कि उससे बहुत पहले ही आ चुकी थी, जब गुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व में कांग्रेस में जी-23 ग्रुप बना और थरूर उसका हिस्सा बने. जी-23, पार्टी में हाई कमान और राहुल गांधी के काम से असंतुष्ट और नाखुश वरिष्ठ नेताओं का एक समूह है. गुलाम नबी आज़ाद उस समय अहमद पटेल जितना अहम स्थान रखते थे और पटेल विरोधी गुट में थे. अगस्त 2020 में आज़ाद ने कांग्रेस के शुभचिंतक होने के नाते जी-23 के नेताओं के महत्व को समझाने के लिए सभी नेताओं को एक चिट्ठी लिखने के लिए मनाया और इस चिट्ठी पर शशि थरूर, वीरप्पा मोइली, पृथ्वी राज चौहान, आनंद शर्मा जैसे दिग्गज नेताओं ने दस्तख़त किए थे. (आनंद शर्मा ने हाल में कांग्रेस पार्टी के विदेश विभाग के प्रमुख के पद से इस्तीफ़ा दिया है.)

रशीद किदवई ने बताया कि उनके साथ निजी बातचीत में थरूर ने गुलाम नबी आज़ाद की ‘क्रांतिकारी’ बातों में आ जाने को अपनी ग़लती माना है. हालांकि ‘क्रांति’ की कोशिश पूरी तरह विफल हो गई. तभी से थरूर की आलाकमान के प्रति निष्ठा को संदेह की नज़र से देखा जाने लगा. जी-23 नेताओं का उद्देश्य पार्टी में चल रही ग़लत गतिविधियों को रोकना और सकारात्मक बदलाव लाना था, लेकिन अन्य नेताओं ने इसे राहुल गांधी पर हमले के रूप में देखा. किदवई ने मुझे बताया कि पार्टी के भीतर के एक अन्य गुट जिसमें के. सी. वेणुगोपाल थे, ने सोनिया गांधी और अन्य नेताओं को भड़काने का काम किया. उन्होंने कहा, ‘10 जनपद से इस चिट्ठी को लीक करने में इस गुट का हाथ था.’

इसी घटना के बाद से असंतुष्ट नेताओं और राहुल गांधी के बीच एक दीवार खड़ी हो गई और शशि थरूर चाहते, न चाहते प्रमुख किरदार बन गए.

थरूर की राजनीति में पैराशूट लैंडिंग हुई थी. विदेश से सीधे केरल आकर उन्होंने राजनीति में आने का मन बनाया और कांग्रेस का दामन थाम लिया. केरल कांग्रेस में उनका बहुत विरोध हुआ. एक बाहरी होने के नाते पार्टी में एंट्री मिलते ही लोकसभा का टिकट मिल जाना और जीतने के बाद राज्यमंत्री पद भी मिल जाने से केरल के नेताओं में थरूर के ख़िलाफ़ रोष पैदा हुआ.

किदवई यूपीए सरकार के समय को याद करते हुए बताते हैं कि, ‘उस समय सरकार में थरूर का अलग रूतबा हुआ करता था. वह राज्य मंत्री थे लेकिन कैबिनेट मिनिस्टर के बराबर जलवा रखते थे. विदेशों से कोई भी शिष्ठमंडल आता, तो थरूर से मिलने के लिए कहता था और सरकार भी ख़ुशी-ख़ुशी थरूर को आगे कर देती थी. मैंने थरूर जितना अनुशासित व्यक्ति नहीं देखा. वह किताब पब्लिश करने के लिए अलग टीम रखते हैं. राजनीतिक मामलों के लिए अलग और अन्य कामों के लिए अलग.’

कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में थरूर की दावेदारी को लेकर मैंने थरूर के एक पुराने क़रीबी सहयोगी से बात की. उन्होंने नाम नहीं लिखने की शर्त पर मुझे बताया, ‘भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कांग्रेस में अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ. इस चुनाव में जो सपोर्ट थरूर को मिलना चाहिए था, नहीं मिला. नेताओं के विरोधी हर पार्टी में होते हैं. थरूर का विरोध केरल और दिल्ली के कांग्रेस के नेता कर रहे थे. केरल के नेताओं के लिए शशि थरूर हमेशा से चैलेंजिंग रहे हैं.’

थरूर को लेकर पार्टी के अलग-अलग नेताओं के दिए बयानों पर बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘सोशल मीडिया पर पार्टी के नेता पता नहीं क्या-क्या बातें बोलते हैं. थरूर को गाली भी देते हैं. हमारी पार्टी के कार्यकर्ताओं में नैतिकता का अभाव है. कांग्रेस और बीजेपी में सबसे बड़ा अंतर यह है कि बीजेपी राज्यों में नया नेतृत्व तैयार कर रही है लेकिन कांग्रेस में बड़े नेताओं को रहनुमा बना दिया जाता है. जैसे हरियाणा में सिर्फ़ हुड्डा, राजस्थान में सिर्फ़ गहलोत, मध्य प्रदेश में कमलनाथ और केरल में सिर्फ़ के. सी. वेणुगोपाल की ही चलती है.’

‘पार्टी में अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ, जिसे स्वतंत्र और लोकतांत्रिक चुनाव बताया गया लेकिन अधिकतर नेता खड़गे जी के साथ थे. आलाकमान अप्रत्यक्ष रूप से खड़के जी के खेमें में थी. थरूर अकेले थे. कहने के लिए यह स्वतंत्र चुनाव था, किसी का कोई डर नहीं था लेकिन समर्थन के मामले में खड़गे और थरूर के बीच बड़ा अंतर था. फिर आप कैसे लोकतांत्रिक और निष्पक्ष चुनाव कह सकते हैं.’

ऑपरेशन सिंदूर के बाद विदेश दौरे के लिए भेजे जाने वाले सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के लिए थरूर को चुने जाने की बात भी कांग्रेस पार्टी को नहीं भायी. पार्टी की नाराज़गी के बावजूद थरूर ने मोदी सरकार के संदेशवाहक बनना स्वीकार किया. पार्टी की अवज्ञा का बचाव करते हुए थरूर के उस क़रीबी ने मुझसे कहा, ‘कांग्रेस ने शशि साहब को दरकिनार कर दिया था. पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सभी दलों को एक होना चाहिए था. पार्टी को सरकार के इस फ़ैसले का स्वागत करना चाहिए था. साफ़ तौर से, थरूर को नहीं भेजने का फ़ैसला पार्टी के बड़े नेताओं की तरफ़ से आया, जो उनके विरोधी रहे हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘सभी राज्यों की बड़ी लॉबी दिल्ली की राजनीति में हावी है. यही लॉबी सारे फ़ैसले लेती है. जयराम रमेश जैसे नेता जब मीडिया के सामने थरूर के विरोध में बयान देते हैं, तो वह पार्टी का ही विचार रख रहे होते हैं. वह इस पद पर हैं कि उनकी हर बात पार्टी का पक्ष मानी जाती है. अगर आप देखें तो कांग्रेस के जीतने भी बड़े और पुराने नेता हैं उनमें से थरूर टेक्नोलॉजी और प्रगतिशील विचारों के मामले में सबसे आगे हैं. पार्टी के नेतृत्व से लोग जुड़ नहीं पाते. इसलिए कार्यकर्ता परेशान रहते हैं. शशि थरूर बड़े लेखक हैं और विद्वान आदमी हैं. हो सकता है पार्टी में उनके विरोधी नेताओं को इस बात से दिक्कत हो. उन्हें असुरक्षा महसूस होती हो. हमारी पार्टी अपने कार्यकर्ताओं के मुक़ाबले बाहरी लोगों पर अधिक भरोसा करती है.’

शशि थरूर की बीजेपी में जाने की मंशा को लेकर किए मेरे सवाल पर उन्होंने कहा, ‘उनका बीजेपी में जाने का कोई विचार नहीं है. ऑपरेशन सिंदूर को लेकर वह बस देश की बात रख रहे थे. थरूर बाकि नेताओं की तरह नहीं हैं. वह पार्टी के स्टैंड के साथ-साथ अपने विचार भी सामने रखना पसंद करते हैं. वह अपने व्यक्तिगत विचार भी रखते हैं.’

थरूर और कांग्रेस के बीच संबंधों को समझने के लिए मैंने लंबे समय से पार्टी को कवर कर रहे पत्रकार ज़करिया ख़ान से बात की. ख़ान ने मुझे बताया, ‘थरूर और कांग्रेस हाई कमान के बीच तल्खी ऑपरेशन सिंदूर के दौरान खुल कर सामने आई. सरकार के सर्वदलीय प्रतिनिधीमंडल में शशि थरूर और असदुद्दीन ओवैसी, दो ऐसे चेहरे थे जो ख़ासी चर्चा में रहे.’ उन्होंने आगे कहा, ‘शशि थरूर के ऑपरेशन सिंदूर पर सरकार की भाषा बोलने को पार्टी विरोधी बताया गया. अब हाल में आरएसएस को लेकर दिए गए उनके बयानों ने ऐसा माहौल बना दिया था कि मानों बस अभी पार्टी छोड़ने वाले है.’

10 जून, 2025 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने आवास पर ऑपरेशन सिंदूर को लेकर विभिन्न देशों में गए प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों की मेजबानी करने के दौरान कांग्रेस सांसद शशि थरूर के साथ हाथ मिलाते हुए. (पीएमओ/एएनआई फ़ोटो)

थरूर के बीजेपी में जाने की अटकलों को बल इस बात से भी मिला कि हाल में केरल के थिरुवनंनतपुरम में हुई मोदी की एक रैली में क्षेत्र के सांसद होने के नाते थरूर को भी मंच पर स्थान दिया गया था. आमतौर पर विपक्षी सांसदों को मोदी के साथ मंच पर जगह नहीं दी जाती है. यहीं से उनके बीजेपी से जुड़ने की अटकलें शुरू हुई.

हालांकि बीजेपी में जाने के सवालों को थरूर ने हर बार नकारा है. उनकी छवि एक लेखक, संयुक्त राष्ट्र संघ के राजनायिक और विदेशी मामलों के विशेषज्ञ के तौर पर ज़्यादा बड़ी है. अचानक पार्टी के इतने बड़े चेहरे को पार्टी विरोधी बताया जाना कई सवाल खड़े करता है. सबसे पहले तो यह कि ऐसा कौन और क्यों कर रहा है.

हाल ही में केरल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के. मुरलीधरन ने कहा कि थरूर राज्य के नेताओं में से एक नहीं हैं और उन्हें पार्टी की बैठकों में नहीं आना चाहिए. जयराम रमेश सहित कई ऐसे नेता हैं जिन्होंने इसी तरह के कई बयान दिए हैं. इसे लेकर ख़ान ने कहा, ‘कांग्रेस में थरूर सरीखे नेताओं को सीधे पार्टी से नहीं निकाला जाता, यहां बहुत कम ऐसा हुआ है कि किसी को निकाला गया हों, चाहे सिंधिया हों, मिलिंद देवड़ा हों, जतिन प्रसाद हों. यहां बस व्यक्ति को इतना परेशान किया जाता है कि वह ख़ुद ही पार्टी छोड़ देता है.’

पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से अधिक केरल राज्य के नेता थरूर को चुनौती मानते हैं. के. सी. वेणुगोपाल केरल से आते हैं और राज्य में बड़ा चेहरा बनना चाहते हैं. ख़ान ने कहा, ‘के. सी. कभी नहीं चाहेंगे कि शशि थरूर बड़ा चेहरा बन जाए. दक्षिण भारत का कांग्रेस अध्यक्ष के दफ़तर पर इसलिए भी कब्ज़ा है क्योंकि दक्षिण से पार्टी को अधिक वोट मिले हैं. दक्षिण की पूरी लीडरशीप नहीं चाहती कि थरूर और बड़े नेता बनें. केरल की राजनीति में राज्य के नेता उन्हें राज्य से बाहर रखना चाहते हैं. ऐसा मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने सिंधिया और राजस्थान में गहलोत ने सचिन पायलट के साथ और महाराष्ट्र में कांग्रेस के बड़े नेताओं ने अन्य नेताओं के साथ भी किया है.’

पार्टी में दक्षिण गुट और के. सी. वेणुगोपाल के समीकरण को राशीद किदवई ने मुझे विस्तार से बताया. 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद वेणुगोपाल को राहुल को क़रीब लाने को फ़ैसला अहमद पटेल का था, जिस पर बाद में उन्हें बहुत पछतावा भी हुआ. वेणुगोपाल ने राहुल गांधी के इर्द-गिर्द ऐसा ताना-बाना बुन लिया जिससे पटेल खुद भी नहीं बच पाए. फिर 2019 अहमद पटेल को राहुल की किचन कैबिनट से ही बाहर कर दिया गया.

किदवई का कहना है कि वेणुगोपाल ने न सिर्फ़ राहुल और कार्यकर्ता बल्कि राहुल और शशि के बीच भी एक दीवार खड़ी कर दी. किदवई राहुल गांधी को कान का कच्चा नेता बताते हुए संसद का वह किस्सा याद करते हैं जहां थरूर और राहुल का अमना-सामना हुआ लेकिन राहुल इस कदर फ़ोन में व्यस्त रहे कि थरूर के सामने से निकल जाने के बाद ही उन्होंने अपनी नज़रे फ़ोन से हटाईं.

थरूर से पिछड़ जाने का वेणुगोपाल और राज्य के अन्य नेताओं का डर लाज़मी भी है. हाल ही में एक स्वतंत्र एजेंसी ‘केरल वोट वाइब’ ने केरल में एक सर्वेक्षण किया जिसमें राज्य में ज़बरदस्त सत्ता विरोधी लहर का पता चला. साथ ही 28.3 प्रतिशत लोगों ने यूडीएफ़ के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में थरूर को पहली पसंद माना. केरल में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, ऐसे में न सिर्फ़ राज्य की वर्तमान एलडीएफ़ सरकार बल्कि केरल कांग्रेस के नेताओं को भी इस सर्वेक्षण से धक्का लगा है.

सर्वेक्षण के अनुसार 30 प्रतिशत पुरुषों, 27 प्रतिशत महिलाओं, 34 प्रतिशत वृद्ध मतदाताओं (55 वर्ष से अधिक आयु के), 18-24 वर्ष के 20.3 प्रतिशत युवाओं ने तिरुवनंतपुरम से चार बार से सांसद थरूर को मुख्यमंत्री पद के लिए पसंद किया है. दिलचस्प बात यह है कि इस सर्वे को कांग्रेस रिजैक्ट कर रही है. ऐसा पहली बार देखने को मिला है जहां पार्टी सिर्फ़ एक नेता की लोकप्रियता के डर से अपनी ही जीत बताने वाले सर्वे को नकार दे. दरअसल, इस साल की शुरुआत में केरल सरकार की नई औघोगिक नीति की प्रशंसा करने के बाद भी राज्य कांग्रेस के नेताओं ने उनकी आलोचना की थी. थरूर ने अभी तक चार बार केरल से लोकसभा चुनाव लड़ा और चारों बार राज्य कांग्रेस में उनका विरोध हुआ है.

दक्षिण के नेताओं के हमेशा से निशाने पर रहने वाले थरूर को अध्यक्ष पद की दावेदारी करते देखना पार्टी के कई नेताओं को अच्छा नहीं लगा. खड़गे और थरूर दोनों ही दक्षिण से थे इसलिए वह चुनाव रोचक भी था. रशीद किदवई ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के बारे में बात करते हुए मुझे बताया, ‘2020 में जो लोग जी-23 में थरूर के साथ थे, 2022 में अध्यक्ष के चुनाव में वही लोग खड़गे के प्रस्तावक बने थे. ऐसे में थरूर को लगा कि उनका इस्तेमाल हो गया. राहुल ने 2019 में अध्यक्ष पद से इस्तिफा देते हुए कहा था कि न तो मैं और न ही परिवार का कोई सदस्य अध्यक्ष बनेगा और न हम किसी को समर्थन देंगे. लेकिन 2022 में ऐसा नहीं हुआ. पार्टी की एक लॉबी ने दिग्विजय सिंह के स्थान पर खड़गे को चुनाव में खड़ा करवाया. दिग्विजय सिंह जब पर्चा भरने से पहले खड़गे का आशीर्वाद लेने उनके घर गए, तब 10 जनपद से खड़के को फोन आता है कि आप चुनाव लड़े. इस तरह सभी को पता चल गया कि खड़गे ही गांधी परिवार के अधिकृत उम्मीदवार हैं.’

राहुल गांधी पर आरोप लगाते हुए किदवई ने कहा, ‘पूरे चुनाव में राहुल जानबूझ कर अनजान बने थे जो उनकी बहुत बड़ी कमी थी. उनकी कथनी और करनी में सभी ने अंतर देख लिया है. इससे कांग्रेस, खड़गे को भी नुक़सान हुआ. खड़गे को अध्यक्ष बने तीन साल होने वाले हैं. वह एक बहुत ही कमज़ोर अध्यक्ष रहे हैं.’ उन्होंने आगे बताया, ‘अध्यक्ष बनने की महत्वकांक्षा थरूर में थी और गांधी परिवार का समर्थन किस तरफ़ है यह जानते हुए भी थरूर ने चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया, लेकिन वह गूढ राजनीति नहीं करते. थरूर के समर्थक कांग्रेस का भला चाहने वाले, बदलाव की उम्मीद रखने वाले थे, न की परिवार को ख़ुश करने वाले. थरूर उस चुनाव में ख़ुशी-ख़ुशी शहीद हुए थे फिर भी उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया. उन्हें 10-11 फीसदी वोट मिले जो अधिकृत यानी कांग्रेस आलाकमान के उम्मीदवार के ख़िलाफ़ मिलना बहुत बड़ी बात है.’

किदवई ने बताया, ‘सत्ता से बाहर होकर भी कांग्रेस महल की राजनीति में आज भी माहिर है. जहां एक दूसरे के ख़िलाफ़ जम कर षड़यंत्र किए जाते हों. पार्टी में कई रूटलेस वंडरर हैं यानी जिसका कोई जनाधार नहीं है, लेकिन वे सर्वेसर्वा हैं. के. सी. और जयराम उन्हीं में से हैं. जयराम ने डेलिगेशन वाली लिस्ट को सार्वजनिक करके थरूर का अनादर करने की कोशिश की थी.‘

वैसे थरूर की दूसरी पत्नी सुनंदा पुष्कर के ख़ुदकुशी करने और आईपीएल टीम के विवाद तक पार्टी ने थरूर का हमेशा बचाव किया. बीजेपी के इन्हीं मामलों को लेकर थरूर पर दबाव बनाने की संभावनाओं से इनकार करना मुश्किल है. यहां तक कि थरूर ने समाचार पत्र ‘द हिंदू’ में लिखे अपने लेख में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भारत का ‘प्राइम एसेट’ बताया था. शशि के बीजेपी की तरफ़ झुकाव पर किदवई ने कहा, ‘उनकी विचारधारा बीजेपी से अलग हैं. केरल में बीजेपी फ़िलहाल कहीं भी नहीं है. आएसएस पर बयान देकर वह पार्टी और नेताओं का पेशैंस टैस्ट कर रहे हैं. और लोकसभा में अभी थरूर के चार साल बाकि हैं, वह क्यों अपनी सदस्यता खोना चाहेंगे. ऑपरेशन सिंदूर के समय उन्होंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया जिसके चलते पार्टी उन पर कोई कार्रवाई कर सके.’

सुनंदा पुष्कर को लेकर दबाव बनाने की ख़बरों को लेकर किदवई ने कहा, ‘थरूर चार बार से सांसद हैं. यूएन में रह चुके हैं, प्रसिद्ध लेखक हैं, राजनीति में उनका रुतबा बेहद बड़ा है. उन पर इस तरह के दबाव काम नहीं करेंगे. यह सब कॉन्सपिरेसी थियोरी हैं. और अगर ऐसा कुछ है तो कांग्रेस उनको अपने साथ जोड़ कर क्यों नहीं रख पा रही है. उनका विदेश नीति के मामलों, शिक्षा और अन्य मुद्दों पर इस्तेमाल क्यों नहीं कर पा रही है.’

शशि थरूर के राजनायिक और नेता के तौर पर लंबे अनुभव के बावजूद और केरल में सीएम पद, सर्वे के हवाले से, के लिए पहली पसंद होने के बावजूद पार्टी से उनकी दूरियों के बारे में किदवई ने कहा, ‘कांग्रेस पार्टी में मुख्यमंत्री पद का चुनाव निषपक्ष नहीं होता. यहां गणेश परिक्रमा करनी होती है. बड़े नेताओं के चक्कर लगाने होते है, जिसमें थरूर कमज़ोर हैं. थरूर के जिस तरह के संबंध सोनिया गांधी से थे, वैसे राहुल से नहीं हैं. शशि को सोनिया से बात करनी चाहिए, लेकिन पार्टी में कम्यूनिकेशन ही नहीं होता है.’