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‘शशि थरूर, जीतेगा ज़रूर!’ 1975 में दिल्ली के सेंट स्टीफ़ंस कॉलेज के छात्र संघ चुनाव में अध्यक्ष पद के उम्मीदवार शशि थरूर के लिए यह नारा लगा था. कॉलेज के अध्यक्ष पद से लेकर आज तक सिर्फ़ दो ही चुनाव ऐसे रहे हैं जहां यह नारा हक़ीक़त नहीं बन पाया और थरूर हारे : साल 2006 में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पद का और 2022 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद का.
शशि थरूर लोक जीवन में अपने कामों से अधिक विवादों के लिए चर्चा में रहते हैं. सार्वजनिक जीवन में कभी उनके विचार, कभी उनकी किताब और कभी उनका निजी जीवन सुर्खियों में रहता है. बीते कुछ महीनों में कांग्रेस पार्टी से नोक-झोंक के चलते थरूर लगातार बहस का मुद्दा बने हुए हैं.
हालांकि इस बार मामला थोड़ा गंभीर है क्योंकि मुद्दा राजनीति से जुड़ा है. इस बीच कांग्रेस पार्टी के भीतर थरूर को लेकर विभिन्न कयास लगाए जा रहे हैं. इस बार पुलवामा आतंकी हमले के बाद सरकार की पाकिस्तान में आतंकी अड्डों पर की गई कार्रवाई ऑपरेशन सिंदूर के समर्थन और सरकार की बेलगाम प्रशंसा ने पार्टी और उनके बीच दूरी के कयासों को बढ़ा दिया है. साल 2022 में कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के चुनाव के बाद से उनके और पार्टी के बीच मन-मुटाव की ख़बरें आम हो गई थीं, लेकिन सवाल यह है कि क्या थरूर की यह नाराज़गी कांग्रेस में और बेहतर मुक़ाम नहीं पाने के कारण है.
‘24 अकबर रोड’, ‘सोनिया : एक जीवनी’ और ‘नेता अभिनेता : स्टार पावर इन इंडियन पॉलिटिक्स’ जैसी किताबों के लेखक वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई के अनुसार, किसी भी राजनीति दल में सभी नेताओं को वक़्त-वक़्त पर दिक्कतें आती रहती हैं. हमारे यहां के राजनीतिक दलों में संजीदा नेताओं के लिए कोई स्थान नहीं है. संगठनों में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव के कारण चैलेंजिंग लीडर का पार्टी के भीतर बहुत सीमित स्थान होता है. थरूर वैसे ही एक चैलेंजिंग लीडर है. और जो चैलेंजर होता है, उस चैलेंजर का पार्टी के भीतर कोई भविष्य नहीं होता.
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