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शादाब आलम के लिए 24 फरवरी 2020 का दिन रोजमर्रे की तरह ही शुरू हुआ था. वह उत्तर दिल्ली के पुराने मुस्तफाबाद के अपने घर में, जहां वह पांच साल से भी ज्यादा वक्त से रह रहे थे, तड़के ही जग गए थे. तैयार होकर सुबह के 10 बजे वह स्मार्ट मेडिकल स्टोर के लिए रवाना हुए. वजीराबाद रोड पर वृजपुरी चौक के पास की इस दुकान में वह कई सालों से नौकरी करते थे और सुबह से ही उनकी ड्यूटी शुरू हो जाती थी.
इसके ठीक एक दिन पहले, दोपहर को भारतीय जनता पार्टी के नेता कपिल मिश्रा ने उनकी दुकान से कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के पास एक बेहद भड़काऊ भाषण दिया था. इस स्टेशन पर सैकड़ों महिलाएं नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) के खिलाफ धरने पर बैठी थीं. केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने पिछले साल यह कानून बनाया था और अब उसका प्रस्ताव राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को कानून बनाने का है. सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शनों की लहर दिल्ली और पूरे देश में फैल गई थी. जाहिरा तौर पर इन धरना-प्रदर्शनों की अगुवाई ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग ही कर रहे थे, जो सरकार की इन कवायदों से भारतीय गणतंत्र में खुद को हाशिए पर समेट दिए जाने के खतरों से खौफजदा थे. बीजेपी और हिंदुत्ववादी समूहों ने इन प्रदर्शनकारियों का तिरस्कार किया था. अनेक जगहों पर तो प्रदर्शनकारियों को खूब डराया-धमकाया गया था और उनके खिलाफ हिंसा भी हुई थी. कपिल मिश्रा ने उस सभा के दौरान अपने पास खड़े उत्तर-पूर्वी दिल्ली के पुलिस उपायुक्त से ऐलानिया तौर पर कहा था कि अगर दिल्ली पुलिस ने जाफराबाद और इसके पड़ोसी मेट्रो स्टेशन चांद बाग को प्रदर्शनकारियों के चंगुल से मुक्त नहीं कराया तो, ''हमें सड़कों पर उतरना ही पड़ेगा.”
आलम इससे वाकिफ थे कि कपिल मिश्रा के आग लगाऊ भाषण के बाद बीती रात मुसलमानों पर हमले हुए थे, लेकिन तब उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि हालात इस हद तक बिगड़ जाएंगे. 24 फरवरी 2020 को उन्होंने कुछ घंटे फार्मेसी की दुकान पर काम किया और फिर दोपहर की नमाज पढ़ने के लिए कसाब पुरा की मस्जिद चले गए. आलम नमाज अदा कर लौटने ही वाले थे कि उनके एक दोस्त ने फोन पर इत्तिला दी कि मुसलमानों पर फिर से हमले किए जा रहे हैं. लिहाजा, आलम ने दुकान पर सही सलामत पहुंचने के लिए आम दिनों के बजाए एक लंबा रास्ता तय किया और इस तरह वह 3 बजे वहां पहुंचे.
उस इलाके में तुरंत ही जोर-जोर से आवाजें आने लगीं और राहगीरों को आने वाले खतरों के बारे में आगाह किया जाने लगा. फार्मेसी के मालिक अनुराग घई ने दुकान का शटर गिराया और अपने चार मुलाजिमों समेत दुकान की छत पर आ गए. आलम के अलावा उनके दो मुलाजिम नावेद और अकील भी मुसलमान थे.
थोड़ी देर बाद पुलिस का एक जत्था पड़ोस के उस गेट पर नामूदार हुआ, जो उनके पड़ोसी की छत से लगा था. वह जत्था उस छत पर आने की कोशिश करने लगा, जहां घई और उनके मुलाजिम पहले से खड़े थे. जैसे ही उन्होंने पुलिस वालों को आने के लिए कहा, उन्होंने घई के मुस्लिम कर्मचारियों से सवाल पर सवाल करने शुरू कर दिए; घई ने इसका जिक्र बाद में दिए गए अपने हलफनामे में भी किया है. उन्होंने पुलिस से अपील की कि उनके मुलाजिम उनके यहां काम पर थे और वे किसी भी दंगा-फसाद में शामिल नहीं थे. इसी बीच, घई को यह लगा कि आलम और नावेद छत पर नहीं हैं. वे उन्हें खोजने के लिए नीचे भागे, तो देखा कि पुलिस उन्हें एक गाड़ी में बैठा रही है. पुलिस ने घई से कहा कि वह अपने मुलाजिमों को छुड़ाने के लिए दयालपुर थाने आ जाएं.
अनुराग घई उस दिन और अगले तीन दिनों तक रोजाना थाने के चक्कर काटते रहे, लेकिन वे उनको नहीं छुड़ा सके. घई ने आलम की जमानत के लिए दिए गए अपने हलफनामे में लिखा है, ''पुलिस ऑफिसर ने न तो शादाब को हिरासत में लेने की कोई वजह बताई और न इस बाबत कोई जानकारी ही दी कि उन्हें कब रिहा किया जाएगा.” आलम के भाई ने भी जाने कितनी बार कोतवाली के चक्कर लगाए, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
आलम को अगली चार रातों तक दयालपुर थाने में ही रखा गया था, जहां उत्तर-पूर्वी दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से पकड़ कर लाए गए 23 अन्य मुस्लिमों को रखा गया था. “पहली रात, कुछ पुलिस वाले आए, उन्होंने हमारा नाम पूछा और फिर हमें जितना पीट सकते थे, पीटते रहे,” आलम ने बताया, “वे शराब में धुत थे. उन्होंने हमें बहुत मारा.”
पकड़ कर लाए गए लोगों को बाथरूम जाने तक की इजाजत नहीं थी, “जब हमने पुलिस अफसरों से कहा कि हमें पेशाब लगी है, तो उन्होंने हमसे कहा कि सेल में ही कर लो”, आलम ने कहा. “हमने मुस्लिम युवकों को बाथरूम ले जाते वक्त बुरी तरह पिटते देखा था. यह देख कर हम में से किसी ने भी फिर बाथरूम जाने देने के लिए नहीं कहा.”
उनकी (पुलिस की) गालियां तो बिल्कुल सांप्रदायिक रंगों में रंगी हुई थीं. आलम ने कहा, पकड़ कर लाए गए लोगों से जबरदस्ती “जय श्रीराम” के नारे लगवाए गए. उन्होंने याद करते हुए कहा कि उस रात पुलिसवालों ने बहुत सारे मुस्लिमों की पिटाई की. वे शेखी बघारते हुए बताते कि उन्होंने उस दिन कितने मुसलमानों को गोलियां मारी हैं.
दयालपुर के मोहम्मद राजी भी पकड़ कर लाए गए उन युवकों में से थे. उन्हें 24 फरवरी को 2.30 बजे दिन में पकड़ा गया था. उन्होंने बाद में बताया कि वह काम करके घर लौट रहे थे कि रास्ते से ही उन्हें उठा लिया गया. “एक पुलिस वाले ने मेरा नाम पूछा और फिर मुझे डंडे से मारा और अपनी गाड़ी में बैठने को कहा,” राजी ने बताया. “थाने आने के रास्ते में पुलिस ने कई मुसलमान लड़कों को जबर्दस्ती उठाया, और इस तरह हमें 4.30 बजे शाम को थाने लाया गया.”
राजी ने भी अगली चार रातों तक हिरासत में उन्हें दी गई भीषण यातनाओं का बयान किया. राजी ने बताया, “पहली रात तो उन्होंने मुझे इतना मारा कि मुझ पर उनकी दो लाठियां टूट गईं. फिर बेल्ट से मेरी पिटाई की गई और रूम हीटर पर पेशाब करने के लिए कहा गया.'' रूम हीटर के तार उघड़े हुए थे और राजी को यह डर सता रहा था कि अगर उन्होंने उस पर पेशाब किया तो उनके यौनांगों में करंट लग जाएगा. “मैं चुपचाप खड़ा रहा. खुद को और पीटे जाने के लिए मन ही मन तैयार करता रहा,” उन्होंने कहा. खैर, पुलिस ने हीटर पर पेशाब करने के लिए उन पर और जोर नहीं डाला.
भारतीय अपराध प्रक्रिया संहिता हिरासत में लिए गए किसी व्यक्ति को अदालत में मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए बिना थाने में 24 घंटे से ज्यादा समय तक रखने का अधिकार पुलिस को नहीं देती है. अभियुक्तों के परिवारों की तरफ से वकीलों की एक टीम ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और 28 फरवरी को एक मजिस्ट्रेट ने दयालपुर पुलिस थाने को आदेश दिया कि वह हिरासत में लिए गए युवकों को अदालत में पेश करे. तब जाकर इसके एक दिन बाद पुलिस ने उन्हें अदालत में पेश किया.
मजिस्ट्रेट ने उनके वकीलों को भी पुलिस थाने में अपने मुवक्किलों से मिलने की इजाजत दी. हिरासत में लिए गए 24 में से 5 लोगों को उनके वकीलों के वहां पहुंचने से पहले ही अदालत ले जाया गया था. लेकिन आलम और राजी के साथ कुछ अन्य लोग तब तक पुलिस लॉकअप में ही थे. “हम उनकी बुरी हालत को देखकर गहरे सदमें में थे,” उनके वकीलों में से एक ने बताया. ''उन्हें गालियां दी जा रही थीं. पकड़ कर लाए गए कई सारे लोग तो लॉकअप की फर्श पर सुन्न से बैठे हुए थे.”
वकीलों के मुताबिक दिल्ली पुलिस ने हिरासत में लिए गए पहले पांच लोगों को आर्म्स एक्ट के तहत गिरफ्तार दिखाया था, इस प्रावधान का इस्तेमाल अवैध हथियार रखने वाले व्यक्ति के खिलाफ किया जाता है. अदालत ने उन सब को न्यायिक हिरासत में भेज दिया. उन पांचों के वकील तब तक वहां पहुंचे भी नहीं थे कि पुलिस ने अदालत में उनकी पेशी करा दी थी. लेकिन 19 अन्य लोगों को जब पेश किया गया तो उनके वकील वहां मौजूद थे. इन वकीलों ने अपने मुवक्किलों पर हिरासत में ढाए गए पुलिसिया जुल्मों की शिकायत की, लेकिन पुलिस ने इसे खारिज कर दिया. पुलिस ने इस आरोप से भी इनकार किया कि इन लोगों को अवैध तरीके से हिरासत में लिया गया है और यह कि 24 घंटे की तय सीमा बीतने के बावजूद इन्हें अदालत में पेश नहीं किया गया है. पुलिस ने यह दावा किया कि बाकी सभी 19 लोगों को 24 फरवरी को दर्ज की गई दो एफआइआर के तहत उसी दिन थोड़ा पहले दयालपुर पुलिस थाने के इलाके से गिरफ्तार किया गया था.
10 लोगों को पहले एफआइआर नंबर 57/2020 के तहत गिरफ्तार किया गया था. इन्हें सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के दौरान 23 फरवरी की रात को खजूरी खास में शेरपुर चौक के पास स्थित एक चिकन शॉप और वाहनों के जलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. एफआइआर में एक भी साजिशकर्ता का नाम नहीं लिया गया था. दूसरे एफआइआर 58/2020 में हिंसा का आम जिक्र किया गया था और इसमें भी किसी आरोपित के नाम नहीं लिए गए थे. बाकी बचे 9 लोगों को इसी आरोप में गिरफ्तार किया गया था. वकील के मुताबिक, “पुलिस दर्ज की गई दो एफआइआर में बांटे जाने वाले नामों को लेकर स्पष्ट नहीं थी”, जबकि वह इन्हें पेशी के लिए अदालत लाई थी.
यह दावा करने के बावजूद कि इन लोगों को उसी दिन गिरफ्तार किया गया था, पुलिस उन्हें हिरासत में लेकर उनसे आगे की पूछताछ नहीं करना चाहती थी : लिहाजा, उसने इनकी पुलिस हिरासत मांगने के बजाए अदालत से इन्हें न्यायिक हिरासत में भेजे जाने की गुहार लगाई; जबकि पुलिस हिरासत में उनसे और पूछताछ की जा सकती थी.
मजिस्ट्रेट रिचा मनचंदा ने इन लोगों की रिहाई पर गौर नहीं फरमाया. इसकी जगह उन्होंने दो एफआइआर में दर्ज मामलों में इन अभियुक्तों को 13 मार्च तक न्यायिक हिरासत में रखे जाने का एक जैसा फरमान सुनाया.
आरोपितों के वकीलों ने पुलिस हिरासत में अपने मुवक्किलों को यातनाएं देने के आरोप लगाते हुए इनकी फौरन मेडिकल जांच की मांग की. पुलिस ने इसका विरोध किया और दावा किया कि उनकी जांच पहले ही हो चुकी है. मनचंदा वकीलों की बात से सहमत हो गईं और दिल्ली की मंडोली सेंट्रल जेल पहुंचने पर इन लोगों की मेडिकल जांच की गई. आलम की मेडिकल जांच में खुलासा हुआ कि उनकी “पीठ और नितम्ब पर खरोंच के बड़े निशान” तथा “बाई जांघ, दाईं जांघ के ऊपर और नितम्बों पर गहरे जख्म” हैं.
गिरफ्तार किए गए इन लोगों को अदालत में पेश किए जाने तक यह नहीं मालूम था कि उन्हें किस जुर्म में गिरफ्तार किया गया है. “हमें कुछ भी मालूम नहीं पड़ा कि वे हमारे बारे में क्या बातें कर रहे थे,” राजी ने कहा. जब उन्हें जेल लाया गया, तब राजी को मालूम हुआ कि उन्हें एफआइआर-58 के तहत गिरफ्तार किया गया था. आलम को एफआइआर-57 के तहत गिरफ्तार किया गया था.
आलम के वकील ने 11 मार्च को उनकी जमानत की पहली अर्जी दाखिल की. इस अर्जी में उन्होंने हिरासत में उनके साथ किए गए जुल्म और सबूत के रूप में अपनी मेडिकल जांच रिपोर्ट को पेश किया. साथ ही, अनुराग घई के हलफनामे को भी पेश किया जिसमें उनकी फार्मेसी तथा छत पर लगे सीसीटीवी के फुटेज को सबूत के रूप में पेश किया गया जिसके आधार पर यह साबित करने की कोशिश की गई कि एक दिन पहले गिरफ्तार किए जाने के पुलिसिया दावे के एकदम उलट आलम की गिरफ्तारी चार दिन पहले की गई थी. जमानत अर्जी में कहा गया है, “सच तो यह है कि एफआइआर में किसी भी तथाकथित अभियुक्त का न तो नाम लिया गया है और न ही उसका विस्तृत विवरण दर्ज किया गया है. इसके मायने हैं कि पुलिस ने अपनी मर्जी से मुस्लिम युवकों को चुन-चुन कर उठाया और जिन्हें वह गिरफ्तार करना चाहती थी, गिरफ्तार किया.”
हुकुम सिंह ने, जो इस केस के जांच अधिकारी (आइओ) थे, दिल्ली पुलिस की तरफ से अदालत में अपना जवाब पेश किया. उन्होंने दावा किया कि एक अज्ञात ‘खास मुखबिर’ ने उन्हें खबर दी कि 28 फरवरी की 3 बजे भोर में शेरपुर चौक पर कुछ लोग दंगा करने के इरादे से इकट्ठा हुए हैं. इसके बाद पुलिस वहां पहुंची और इन अभियुक्तों को गिरफ्तार किया. हुकुम सिंह ने अपने जवाब में लिखा है, “ये अभियुक्त आम जनता में अव्यवस्था फैलाना चाहते थे,” “शांति भंग करने की कोशिश की”, “देश विरोधी नारे लगाए” और “संपत्ति को जलाने, नुकसान पहुंचाने का काम किया”. उन्होंने अदालत से अपील की कि अगर इन अभियुक्तों को छोड़ा गया तो दंगा और भड़क सकता है. मजिस्ट्रेट विनोद कुमार गौतम ने एफआइआर-57 के तहत गिरफ्तार सभी लोगों के मामले में एक जैसी वजह गिनाते हुए उन्हें जमानत पर रिहा करने से इनकार कर दिया.
आलम के वकीलों ने सेशन जज की अदालत में जमानत के लिए दूसरी अर्जी दाखिल की. इसमें पहली अर्जी की बातों और इसके समर्थन में दिए गए सबूतों को रखते हुए अदालत से अपील की गई थी कि हुकुम सिंह के हलफनामे में अभियुक्त की पहचान के आधार या उस पर लगाए गए तथाकथित गुनाहों के मद्देनजर उसकी भूमिका/गतिविधियों का कोई भी ब्योरा नहीं दिया गया है”. न्यायाधीश सुधीर कुमार जैन ने पुलिस द्वारा एक भी सबूत पेश करने में विफल रहने पर कोई टिप्पणी नहीं की और आलम की जमानत अर्जी खारिज कर दी. जैन ने अपने आदेश में लिखा, “आलम को मौका ए वारदात से ही पकड़ा गया था और वह बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी के मामलों में लिप्त था.”
आलम के वकीलों ने उनकी जमानत की मांग को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. न्यायाधीश मुक्ता गुप्ता ने अपने आदेश में पुलिस के दावे में भारी अंतरों का विस्तार से उल्लेख किया. पुलिस ने दो चश्मदीद होने का दावा किया था, हालांकि वह एक चश्मदीद का ही बयान ले सकी थी. यहां तक कि उस बयान में भी, जैसा कि न्यायाधीश गुप्ता ने टिप्पणी की कि “यह सर्वग्राही बयान है और इसमें किसी अभियुक्त की पहचान नहीं होती है.” न्यायाधीश ने “पुलिस कस्टडी की मांग न करने को” बहुत अजीब बताया और बचाव पक्ष की इस अपील को दर्ज किया कि सीसीटीवी फुटेज इस बात की तस्दीक करते हैं कि आलम और नावेद को 24 फरवरी को ही गिरफ्तार किया गया था. “निश्चित रूप से याचिकाकर्ता और सह अभियुक्त की गिरफ्तारियों को लेकर एक रहस्य बना हुआ है,” मुक्ता गुप्ता ने लिखा, “जो याचिकाकर्ता के शरीर पर बने जख्मों के निशान से और पुष्ट होता है.” पुलिस के दावों पर संदेह होने के इतने सारे कारण गिनाने के बावजूद न्यायाधीश गुप्ता ने आलम की जमानत अर्जी खारिज कर दी.
पुलिस ने इस केस में अप्रैल में चार्जशीट दाखिल की. उसने 10 अभियुक्तों में से 9 के कबूलनामे को दर्ज किया. इन बयानों में से सात आरोपितों के बयान एक जैसे थे. यह उन बयानों के मनगढंत होने की तरफ इशारा करता था. अन्य दो बयानों के कुछ हिस्सों की भाषा एक जैसी थी. ठीक एक जैसी जुबान में सातों अभियुक्तों ने अपने गुनाह कबूल किए थे. “हमने वहां खड़े दूसरी बिरादरी के लोगों को डंडे से मारा” सभी सातों ने बाद में एलान किया, “हम आज भी झगड़े के इरादे से वहां खड़े थे”. य़े सभी नौ बयान इस कबूलानामे से खत्म होते थे, “मुझसे गलती हो गई, माफ किया जाए.”
आखिरकार आलम को मई में जमानत पर रिहा किया गया, जब एक जज ने टिप्पणी की कि चार्जशीट दायर होने के बाद अभियुक्त को न्यायिक हिरासत में रखने से कोई मकसद हल नहीं होता है. एफआइआर-57 के तहत गिरफ्तार सभी अभियुक्तों को रिहा किया जा रहा है. मामले की सुनवाई जारी रहेगी. एफआइआर-58 के तहत नामजद लोग अभी भी सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं और उनमें से कई अभी भी जेल में हैं.
आलम और अन्य लोगों को जब दयालपुर थाने में रखा जा रहा था, हिंदू भीड़ ने पूरी उत्तरी दिल्ली में अपना कहर बरपाया था. मुसलमानों के घरों और उनकी परिसंपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया था. इस दंगे में 50 से ज्यादा लोग मारे गए थे, जिनमें बड़ी तादाद मुसलमानों की थी. कुछ लोगों की मौत उन्हें बुरी तरह से पीटे जाने की वजह से हुई थी तो बाकी लोगों को चाकुओं से गोद दिया गया था या गोली मारी गई थी. कारवां ने एक वीडियो प्रसारित किया था, जिसमें एक हिंदू दंगाई ने बिना किसी पछतावे के हमलों में हिस्सा लेने और तीन मुसलमानों को जिंदा जलाने की बात कही थी..
हजारों मुसलमानों ने अपने घर गंवाए थे या मारे खौफ के अपने घरों से भाग गए थे. मुसलमानों के कारोबारों को खास तौर पर निशाना बनाया गया था. अंदर से ढही हुई और जली ये इमारतें आज भी खड़ी हैं और इनकी बगल में हिंदुओं की संपत्तियों को एक खरोंच तक नहीं लगी है. दंगे में कई मस्जिदें भी आग के हवाले कर दी गई थीं.
भारतीय गणतंत्र में लक्षित और व्यापक सांप्रदायिक हिंसा का हमेशा से एक स्थानिक स्वरूप रहा है. फरवरी में हुई हिंसा में खासकर 1984 की मजबूत प्रतिध्वनियों को सुना जा सकता है, जब उन्मादी हिंदू भीड़ ने देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 3000 सिखों का संहार कर दिया था और इसके बाद, सन 2002 में गुजरात में कम से कम 7000 मुसलमानों का संहार किया था. दोनों मामलों में आईं ढेरों रिपोर्टें इनमें राजनीतिक नेतृत्व और पुलिस के सीधा हाथ होने की ओर इशारा करती हैं; केवल आधिकारिक रिपोर्टें ही उनकी जटिलता को बढ़ाती हैं.
फरवरी में, दिल्ली में हुई हिंसा भारतीय मुसलमानों के खिलाफ सालों से चले आ रहे दोषारोपण का हिस्सा थी, जिसे भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदुत्व ताकतों को उकसा कर मुमकिन किया था. सीएए विरोधी प्रदर्शन हिंदुत्व प्रोजेक्ट के खिलाफ सबसे घने हालांकि लोकप्रिय प्रतिरोधों की अभिव्यक्ति थे, जिसने कपिल मिश्रा को इस तरह से उत्तेजित कर दिया था. हमले के दौरान और उसके बाद बहुत सारे सबूत उभर कर सामने आए हैं, जो दिल्ली पुलिस और बीजेपी की सांठगांठ को दर्शाते हैं. इस हिंसा से उबरे हुए दो दर्जन से अधिक लोगों और गवाहों ने हमें बताया कि वे हिंसा के दौरान और उसके बाद अपने साथ हुई ज्यादतियों के बारे में विस्तार से आधिकारिक शिकायत दर्ज कराने कई बार पुलिस थाने गए थे. उनमें से अधिकतर लोगों को तो भगा दिया गया, ज्यादातर मामलों में उन्हें गालियां दे कर खदेड़ा गया और य़े धमकियां दी गईं कि अगर उन्होंने शिकायत दर्ज कराने पर जोर दिया तो उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसा दिया जाएगा. ज्यादातर शिकायतकर्ताओं ने कहा कि उनकी शिकायतें मान भी ली गईं तो पुलिस ने उसके और राजनीतिक गठजोड़ की ओर इशारा करने वाले विवरणों को उनमें से जान-बूझ कर हटा दिया. यहां तक कि पुलिस अधिकारियों और बीजेपी नेताओं के नाम भी हटा दिए.
कई मुसलमान तो मुस्तफाबाद के ईदगाह मैदान पर बने अस्थायी राहत शिविरों में पुलिस हेल्प डेस्क पर ही अपनी शिकायतें दर्ज करा सके थे. यह शिविर मार्च तक काम करता रहा था. इन शिकायतों पर उस थाने या संबद्ध थानों की मुहरें लगी रहती थीं. इन शिकायतों में से कुछेक की कॉपी भी की गई और उनमें से कई शिकायतों को प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, दिल्ली के उपराज्यपाल के दफ्तर और अनेक पुलिस थानों में भी भेजे जाने को चिह्नित किया गया था.
कारवां के पास ऐसी ढेर सारी शिकायतें हैं, जिन्हें उत्तर-पूर्व दिल्ली के बाशिंदों ने फरवरी में दर्ज कराईं थीं. कई लोगों ने वीडियो इंटरव्यू भी दिए हैं, जिनमें उन्होंने अपनी शिकायतों को दोहराया है ओैर कहा है कि केस वापस लेने के लिए पुलिस उन पर दबाव डाल रही है.
एक महिला शिकायतकर्ता ने दर्ज कराया है कि उन्होंने पड़ोस के चांद बाग इलाके में तीन सीनियर पुलिस अफसरों को प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाते और उनकी हत्या करते देखा है. एक दूसरी महिला ने दर्ज कराया कि उन्होंने असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर को फोन पर कपिल मिश्रा को यह भरोसा दिलाते सुना है कि “ फ्रिक न करें, हम गलियों को उनकी (मुसलमानों की) लाशों से इस कदर पाट देंगे कि वे कई पीढ़ियों तक इसे याद रखेंगे.” हालांकि एक अन्य शिकायत में कहा गया है कि उन्होंने पुलिस अफसरों को एक मस्जिद और मदरसे को लूटने व उन्हें फूंके जाने के पहले उनका मुआइना करते देखा था. यहां से लूटी गई रकम को बीजेपी नेता सत्य पाल सिंह के घर भेजने का निर्देश देते सुना था.
उत्तर प्रदेश के बागपत से भारतीय जनता पार्टी के सांसद सत्य पाल सिंह का नाम कई शिकायतों में लिया गया है. उनके और कपिल मिश्रा के अलावा, जिन बीजेपी नेताओं के नाम दर्ज कराए गए हैं, उनमें उत्तर प्रदेश के लोनी से बीजेपी विधायक नंद किशोर गुर्जर भी शामिल हैं. लोनी दिल्ली की सीमा पर है, जो उत्तर-पूर्वी दिल्ली और उत्तर प्रदेश को अलग करता है. बागपत यहां से 25 किलोमीटर दूर उत्तर में पड़ता है.
शिकायतों में, दिल्ली के करावल नगर क्षेत्र से बीजेपी विधायक मोहन सिंह बिष्ट और पूर्व विधायक जगदीश प्रधान के नाम भी शामिल हैं. प्रधान, हिंसा से कुछ ही हफ्ते पहले हुए विधानसभा चुनाव में मुस्तफाबाद सीट से हार गए थे.
जिन पुलिस अफसरों के बारे में शिकायतें की गई हैं, उनमें डिप्टी पुलिस कमिश्नर वेद प्रकाश सूर्य भी शामिल हैं, जो कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण के वक्त उनके बाजू में खड़े थे. उनके साथ ही, अतिरिक्त पुलिस कमिश्नर अनुज कुमार और दिनेश शर्मा के नाम भी दर्ज कराए गए हैं. इनके अलावा, हिंसा के दरम्यान दयालपुर थाने के एसएचओ रहे तारकेश्वर सिंह और उनके पड़ोसी भजनपुरा थाने के एसएचओ रहे आर एस मीणा के भी नाम लिए गए हैं.
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्देशों-आदेशों में बार-बार ताकीद की है कि संज्ञेय अपराध की किसी भी शिकायत पर एफआइआर दर्ज करना पुलिस का कर्त्तव्य है. फिर भी, शिकायतों में दर्ज किए गए बीजेपी नेताओं में से एक के भी खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई. यहां तक कि प्राथमिकी में दर्ज पुलिसवालों में से एक के भी खिलाफ न तो विभागीय जांच कराई गई और न उन पर कार्रवाई हुई. पुलिस ने यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया कि ये शिकायतें काफी देर से की गईं, लेकिन उसने कई शिकायतों में दर्ज इस तथ्य को भी नजरअंदाज कर दिया कि पुलिस ने मामला दर्ज न कराने के लिए लोगों पर किस हद तक दबाव डाला, और कि किस तरह पुलिस ने अहम ब्योरे और नामों को दबा दिया.
इतना ही नहीं, दिल्ली पुलिस मुसलमानों पर किए गए हमलों के अहम पहलुओं की जांच करने में भी बुरी तरह नाकाम रही है. बहुत सारी शिकायतों में यह खुलासा किया गया है कि उन्मादी हिंदू भीड़ ने किस तरह उन पर गोलियां चलाईं, उन पर पेट्रोल बम फेंके और भजनपुरा पुलिस थाने से सटे, एक प्राइवेट मोहन नर्सिंग होम और अस्पताल की छत से पुलिस की मौजदूगी में उन पर पत्थर बरसाए गए. उस समय के कई वीडियो भी सामने आए हैं, जो यह दिखाते हैं कि जिस वक्त नर्सिंग होम की छत से हिंदू दंगाई गोलियां बरसा रहे थे, उसी समय सामने की छत पर अपनी जान बचाने की कोशिश करते एक मुस्लिम युवक को गोली मार दी जाती है. पुलिस ने अस्पताल में हुए इस वाकयात की जांच की भी जहमत नहीं उठाई.
उन्मादी हिंदू भीड़ और पुलिस तथा नेताओं की सांठगांठ की जांच करने के बजाए दिल्ली पुलिस ने शक-शुबहा पैदा करने वाले सबूतों के आधार पर सैकड़ों मुस्लिम बाशिंदों को ही दागी ठहरा दिया. यह दावा किया कि नागरिक कार्यकर्ताओं, सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों तथा मशहूर मुस्लिम हस्तियों ने इस हिंसा की साजिश रची. दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने दंगे के तथाकथित साजिशकर्ताओं के खिलाफ बेहद कठोर कानून गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत मामला दर्ज किया है. इसके तहत 19 लोग अगस्त महीने के आखिर तक गिरफ्तार किए जा चुके थे. इनमें से मात्र एक व्यक्ति जमानत पर रिहा हुआ था.
गुजरात में, नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते 2002 में मुस्लिम विरोधी हिंसा हुई थी. जिन पुलिस अफसरों ने अपने हलकों में मुसलमानों के खिलाफ खून-खराबे को रोकने की कोशिश की थी या जिन्होंने इस हिंसा में नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के हाथ खून से रंगे होने के आरोप लगाए थे, उन्हें दंगा थमने के बाद दंडित किया गया था. ऐसे पुलिस अफसर, जिन्होंने उन्मादी और हिंसक भीड़ को अपनी मनमर्जी करने की खुली छूट दी थी तथा दंगों के लिए कसूरवार ठहराए जा रहे राजनीतिक नेतृत्व का बचाव किया था, उन्हें पुरस्कृत किया गया था. उस समय, गुजरात पुलिस सीधे-सीधे प्रदेश के गृह मंत्री अमित शाह के प्रति जवाबदेह थी. दिल्ली पुलिस भी केंद्र सरकार और खास कर गृह मंत्रालय के प्रति जवाबदेह है. मौजूदा केंद्र सरकार के मुखिया नरेन्द्र मोदी हैं, जबकि गृह मंत्री अमित शाह हैं.
दयालपुर थाने में पकड़ कर रखे गए लोगों में एक 17 वर्षीय मुस्लिम किशोर था, जिसका नाम एफआइआर-58 में दर्ज किया गया था. पुलिस हिरासत में उसके साथ किए गए सलूक का ब्योरा आलम और राजी से मिलता-जुलता है. उसने बताया, “24 फरवरी को मैं अपने काम पर से घर लौट रहा था, जब पुलिस अधिकारियों ने मुझे रोका. उन्होंने मुझसे मेरा नाम पूछा और डंडों से पीटने लगे. फिर मुझे अपनी गाड़ी में बैठा लिया. उस गाड़ी में तीन-चार लोग पहले से ही बैठे हुए थे, वे सभी मुस्लिम थे.”. दयालपुर पुलिस थाने में उन लोगों को लॉकअप में इंतजार करने को कहा गया. फिर जल्दी ही उनकी पिटाई शुरू हो गई. “वे आए और बेल्टों से हमें पीटने लगे,” उस 17 वर्षीय किशोर ने कहा. “हमने उनसे कहा कि हम बस अपना काम-धंधा कर रहे थे.’’ यह बात वे भी जानते थे. यह पिटाई इतनी निर्मम थी कि पुलिस ने “अपनी बेल्ट और डंडे तक हम पर तोड़ डाले”. उसने पैरों को बांध कर की गई पिटाई के बारे में बताते हुए अपनी पूरी पीठ और देह पर जहां-तहां उभरे निशानों को भी दिखाया.
जब कोई पिटाई से अपना होश-हवास खो बैठता तो वे उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारकर होश में लाते और कहते “साले ड्रामा कर रहा है. वे फिर से उसकी पिटाई करने लगते.” कई लोगों को छत पर ले जाया गया था. लौट कर उन्होंने बताया कि वहां उन्हें पहले नंगा किया गया और फिर पीटा गया.” पिटाई का यह सिलसिला 28 फरवरी को अदालत में बंदियों की पेशी तक जारी रहा. बंदियों को बाथरूम तक जाने की इजाजत नहीं थी. “अगर कोई (पेशाब जाने के लिए) कहता तो पुलिस वाले बाथरूम जाने तक डंडे से उसे पीटते जाते”, 17 वर्षीय किशोर ने बताया. “मैंने पैंट में ही कई बार पेशाब कर दी थी.” उसे शौच जाने की जरूरत नहीं थी क्योंकि ''हमने कुछ खाया नहीं था.” हिरासत में रखने के कई दिनों के बाद, “हमें पहली बार 27 फरवरी को खाने के लिए पूरी और सब्जी दी गई थी. इसके पहले, वे हमें केवल पानी देते थे.” बंदियों को हर रोज ''दो लीटर की दो पानी की बोतलें'' दी जाती थीं, जिनमें सभी को काम चलाना होता था. उस किशोर ने बताया, “बंदियों को रात में जाड़ा लगता था, लेकिन उन्हें ओढ़ने के लिए कुछ नहीं दिया गया था.”
27 फरवरी की रात को बंदियों को उत्तर-पूर्वी दिल्ली के जीटीबी अस्पताल में मेडिकल जांच के लिए ले जाया गया था. 17 वर्षीय उस किशोर ने याद करके बताया, “पांच कैदियों की एक साथ जांच की गई. डॉक्टर ने बस मेरा चेहरा देखा था. उन्होंने मुझसे कुछ नहीं पूछा कि क्या मुझे दर्द हो रहा है या कोई तकलीफ हो रही है. उन्होंने मेरी कोई जांच ही नहीं की. फिर उन्होंने एक कागज पर कुछ लिखा और इसके बाद हम चले आए.”
इसके अगले दिन जब अदालत में उन्हें पेश किया गया, तो वह किशोर बुरी तरह रो रहा था. उसके वकील ने उसे सांत्वना देने का प्रयास किया. “मैंने उनसे कहा कि मैंने कोई गुनाह नहीं किया है. मैं तो बस अपने काम पर से घर लौट रहा था और उन्होंने रास्ते में मुझे उठा लिया.” उसके वकील ने उसके परिवार को फोन किया, “और मेरी मां मेरे आधार कार्ड लेकर अदालत आई.” इसका मजिस्ट्रेट के निरीक्षण करने के बाद, 17 वर्षीय किशोर को किशोर अदालत भेज दिया गया और फिर वहां से उसे बाल सुधार गृह भेज दिया गया.
उसने याद करते हुए कहा, “वहां लोग मेरे साथ नरमी से पेश आए.'' बाल सुधार गृह से उसे मार्च में रिहा कर दिया गया.“ मैं अब और कहीं नहीं जाना चाहता. मुझे डर है कि वे कहीं फिर मुझे उठा न लें”. अगस्त के पूर्वार्ध में दिल्ली पुलिस ने इस 17 वर्षीय किशोर के खिलाफ दंगा करने और विस्फोटक का इस्तेमाल करने के आरोप लगाते हुए चार्जशीट दाखिल की और अन्य अभियुक्तों से पूछताछ पूरी करने के लिए अदालत से और मोहलत देने की गुजारिश की.
पुलिस पर आरोप है कि उसने 24 फरवरी की रात को खजूरी खास पुलिस थाने में चार और मुस्लिम बंदियों को काफी यातनाएं दीं. ऑटो चालक मुश्तकीन ने हमें बताया कि वे दोपहर को भजनपुरा दरगाह के पास की एक गली में खड़े थे, जब उन पर उन्मादी हिंदू भीड़ और पुलिस वालों ने हमला कर दिया. उनकी टोपी से उनके मुसलमान होने की शिनाख्त की गई. पुलिस वालों ने भीड़ की तरफ उंगली उठाई और उनसे कहा, “क्या हम तुम्हें उनके हवाले कर दें?” मुश्तकीन ने याद कर बताया, “यह साबित करने के लिए कि मुसलमान दंगा-फसाद कर रहे हैं और लोगों को मार-काट रहे हैं,” पुलिस ने उन पर एक कुल्हाड़ी को पकड़ने के लिए दबाव डाला और भीड़ से कहा कि वह उसका एक वीडियो बनाएं.
मुश्तकीन को खजूरी खास थाने में हिरासत में रखा गया था. मुश्तकीन ने बताया कि थाने पर “एक बड़े और लंबे आकार की चमड़े की बेल्ट से उनकी पिटाई की गई. पुलिस वाले “आओ मिलो सजना” और “फिर कब मिलोगे” कहते हुए उन्हें पीटते जाते. दर्जी इकराम को भी उस रात खजूरी थाने में रखा गया था. उन्होंने भी अपने साथ हुए पुलिसिया जुल्म का इकरार किया था. इकराम और मुश्तकीन दोनों ने बताया कि बाकी दो मुस्लिमों सरफराज और अमन को भी वहां रखा गया था और उनकी भी पिटाई की गई थी.
इन चारों मुस्लिमों को बाद में दर्ज एफआइआर में एक साथ नामजद किया गया था. मुश्तकीन और इकराम ने कहा जमानत पर छूटने से पहले वे 3 महीने से ज्यादा समय तक जेल में रहे थे.
इकराम ने बताया कि चार्जशीट में उन पर भजनपुरा के पुलिस बूथ को फूंकने का इल्जाम लगाया गया था. कारवां ने पहले की अपनी रिपोर्ट में भजनपुरा पुलिस बूथ के नजदीक हिंदू उन्मादी भीड़ द्वारा एक पेट्रोल पंप स्टेशन और एक मजार को जलाए जाने की खबर दी थी. पुलिस बूथ में अपने आप आग पकड़ लेने की कोई खबर नहीं थी.
2.
एफआइआर-57 में आलम और दूसरे लोगों पर संजार चिकन कॉर्नर, जिसे एफआइआर में गलती से “पंजाबी चिकन कॉर्नर” कहा गया है, को जलाने के आरोप लगाए गए हैं. दुकान के मालिक मोहम्मद मुमताज ने घटना के आसपास की परिस्थितियों के बारे में बताया था. उनका ब्योरा एफआइआर-57 के संदर्भ में दिल्ली पुलिस के रवैया तथा हिंसा में बीजेपी और पुलिस की भूमिका के बारे में गहरे सवाल खड़े करता है. मुमताज ने बताया कि चूंकि 23 फरवरी को रविवार था, लिहाजा उस दिन दुकान पर ग्राहकों की बड़ी भीड़ थी. “मैंने देखा कि शेरपुर चौक, जो मेरी दुकान से डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर है, वहां पर 300 से 400 लोगों की भीड़ है.” मुमताज ने सुना भीड़ “जय श्री राम”, “मोहन सिंह बिष्ट जिंदाबाद” और “कपिल मिश्रा जिंदाबाद” के नारे लगा रही थी.
रात के लगभग 8 बजे “एक भीड़ वहां से आई और मेरी दुकान पर पत्थरबाजी करने लगी,” मुमताज ने आगे कहा, “इससे बचने के लिए मैं और मेरा स्टाफ टेबल के नीचे छिप गए. हम अपनी जान बचाते हुए दुकान के पिछले दरवाजे से भाग गए.”
मुमताज ने ऐसे कई लोगों की शिनाख्त की है, जो उनकी दुकान की तरफ हथियार लेकर बढ़े चले आ रहे थे. “मेरे भाई ने इसे देखा, मेरे स्टाफ ने इसे देखा, वे इसकी तसदीक कर सकते हैं. वे लोग पिस्तौल, तलवार, लाठी, लोहे की छड़ें, पेट्रोल बम से लैस थे यानी उनके पास सभी तरह के हथियार थे. मैंने पिछले दरवाजे से देखा कि वे मेरे गल्ले (कैशबॉक्स) को लूट रहे हैं. जब मैंने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने मेरे सर पर बंदूक तान दी.” भीड़ ने रात 10 बजे उनकी दुकान में आग लगा दी.
मैंने 100 नंबर (पुलिस हेल्पलाइन नंबर) पर फोन किया. उस रात इस नंबर पर मैंने कम से कम 100 बार फोन किया था. मुमताज ने कहा कि मेरे भाई ने भी कॉल किया लेकिन हमें कोई जवाब नहीं मिला. हमने उनसे मौके पर तुरंत पहुंचने की गुजारिश करते हुए बताया था कि दंगाइयों की एक बड़ी भीड़ यहां मौजूद है, जिसमें अधिकतर स्थानीय लोग हैं.” पुलिस और फायर ब्रिगेड की गाड़ियां तभी वहां पहुंचीं, जब मुमताज की दुकान खाक हो चुकी थी.
मुमताज ने कहा कि उस रात 2.30 बजे पुलिस उनके घर आई और कहा कि एक अन्य अफसर हुकुम सिंह को इस मामले में जांच अधिकारी बनाया गया है. उस अफसर ने मुमताज से कहा कि वह तुरंत दयालपुर थाने जाकर उनसे मिल ले. लेकिन जब मुमताज उस थाने पर गए तो हुकुम सिंह ने उन्हें बताया कि वह एक मीटिंग में हैं और अगले दिन लौटेंगे. 24 फरवरी को 10 बजे सुबह दयालपुर थाने के तत्कालीन एसएचओ तारकेश्वर सिंह का फोन आया. एसएचओ ने मुमताज को बताया कि उनकी दुकान के कुछ सामान रोड पर बिखरे पड़े हैं. मुमताज ने याद करके बताया कि उनसे कहा गया कि वह सामान हटा ले नहीं तो उठा लिया जाएगा. मुमताज जब दुकान पर पहुंचे तो पाया कि एसएचओ और कुछ पुलिस अधिकारी पहले से ही वहां मौजूद थे. मुमताज ने एक पुलिस वाले को तारकेश्वर सिंह के नजदीक जा कर कहते सुना, ''सर, सांसद सत्य पाल जी का कॉल है.'' सत्य पाल सिंह, बीजेपी में शामिल होकर राजनीति में आने से पहले मुंबई में पुलिस कमिश्नर थे. मुमताज ने तारकेश्वर को सत्य पाल सिंह से फोन पर कहते हुए सुना, ''ठीक है नेता जी, सत्य़ पाल जी. आज कोई भी नहीं बचेगा जिंदा.”
मुमताज ने कहा कि सत्य पाल सिंह से फोन पर बातचीत के बाद तारकेश्वर वहां से चले गए थे. इसके तुरंत बाद शेरपुर चौक की तरफ से एक भीड़ आई. मुमताज ने पहचाना कि इसमें शामिल लोग स्थानीय थे और इनमें से कई आरएसएस के सदस्य थे. “मैं उनमें से एक-एक को जानता हूं,” उन्होंने बताया. “यह भीड़ उस इलाके के मुस्लिम कारोबारियों की दुकानों के ताले तोड़ने लगी और उन्हें लूटना शुरू कर दिया.” उन्होंने एक मुसलमान मोटर मैकेनिक मकबूल की दुकान, ‘मकबूल मोटरसाइकिल वाला’ को तोड़ दिया था. भीड़ ने उनकी दुकान से सभी कीमती सामान लूट लिए. फिर उनकी दुकान फूंक दी.” मुमताज 2 मार्च को अपनी रिपोर्ट लिखवाने दयालपुर पुलिस थाना गए थे. वहां “जब मैंने भीड़ में शामिल संघ के सदस्यों के नाम दर्ज किए तो पुलिस ने उसे लेने से इनकार कर दिया. फिर मैंने एक कोरी शिकायत दर्ज कराई जिसमें लिखा एक भीड़ 'जय श्रीराम' के नारे लगाते हुए आई और मेरी दुकान में आग लगा दी.” लेकिन पुलिस ने उनसे इस नारे लगाने की बात को भी हटाने के लिए कहा और लिखा कि साजिशकर्ता अज्ञात दंगाई थे.
“जो मैं कहना चाहता था पुलिस ने मेरी वह एफआइआर दर्ज ही नहीं की”, मुमताज ने कहा. “उन्होंने वही किया जो वे चाहते थे.” 2 जुलाई को मुमताज ने अपनी दुकान जलाने वालों के नामों का खुलासा करती एक नई शिकायत भेजी. इसमें विधायक बिष्ट तथा दिल्ली पुलिस के कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव के खिलाफ विस्तार से आरोप लगाए.
मुमताज ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर को भेजी अपनी शिकायती खत में लिखा कि 23 फरवरी की रात को उनकी दुकान को जला दिए जाने बाद जब वे अपने घर लौट रहे थे, तो उन्हें रास्ते में मोहन सिंह बिष्ट मिले. उन्होंने विधायक मोहन सिंह बिष्ट को अपने सहयोगियों से बातचीत करते सुना था. मुमताज ने कहा, बीजेपी विधायक उनसे कह रहे थे, “समय आ गया है कि इन कटुओं को ढूंढ़-ढूंढ़ कर मार दें.” बिष्ट ने उस जगह से मुस्लिमों के घर और उनकी कारों को जला देने तथा दुकानों को लूटने और उन्हें जला देने के लिए भी उकसाया. मुमताज ने लिखा उन्होंने बिष्ट को यह कहते हुए भी सुना कि इससे “उनकी आने वाली पीढ़ियां इन्हें याद रखेगी” और वह सीएए का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगी. “और हमारे खिलाफ सिर नहीं उठाएंगी.” मुमताज ने अपनी शिकायत में यह भी लिखा कि 25 फरवरी की सुबह वे और कुछ स्थानीय मुस्लिम अपने जान-माल को हुए नुकसानों का जायजा लेने के लिए घर से बाहर निकले थे. रास्ते में एक जत्थे ने उन्हें रोका और उनके साथ बदसलूकी की. मुमताज के साथ के लोग अपनी जान बचाने के लिए गली में भाग खड़े हुए तो भीड़ ने उनसे चिल्लाकर कहा, “अभी तो तुम लोग बच गए हो, लेकिन देखना कि अगले दो घंटे में क्या होता है. तुम में से एक भी आदमी को जिंदा नहीं छोड़ा जाएगा.”
इसके थोड़ी देर बाद, जैसा कि मुमताज ने अपनी शिकायत में लिखा है कि तारकेश्वर के साथ भीड़ उनकी गली में आ गई थी. जल्दी ही बिष्ट भी उनके साथ आ मिले. मुमताज ने लिखा है कि भीड़ “मोहन सिंह बिष्ट जिंदाबाद” के नारे लगा रही थी. अपनी शिकायत में मुमताज ने लिखा, “बिष्ट ने उस भीड़ से कहा “जल्दी काम तमाम करो. इन मुसलमानों को इसके बाद जिंदा नहीं रहने दिया जाना चाहिए.” इसके बाद बिष्ट और भीड़ गली के घरों पर पेट्रोल बम और पत्थर फेंकती हुई आगे बढ़ने लगी. “मैंने देखा कि मोहन सिंह बिष्ट ने एक बम लिया और मेरे घर पर फेंक दिया.” चूंकि वह पास की छत से देख रहे थे,''घर में तेज धमाके के साथ विस्फोट हुआ और बाद में भीड़ ने दरवाजे के ताले को तोड़ दिया और सब के सब मेरे घर में घुस आए.” जब भीड़ उनका घर लूट रही थी, मुमताज ने बताया कि बिष्ट वहां से गायब हो गए.
मुमताज भी उन कई चश्मदीदों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी आधिकारिक शिकायत में पुलिस और बीजेपी के बीच सांठगांठ की बात को मजबूती से रखा है. दिल्ली पुलिस में दर्ज कराई गई शिकायत के मुताबिक, 23 फरवरी को जाफराबाद में कपिल मिश्र ने सीएए के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों को अपने भाषण में धमकाया था, इसके कुछ ही घंटे के बाद, बीजेपी नेता ने यहां से ठीक दो किलोमीटर दूर कर्दमपुरी इलाके में हथियारबंद भीड़ को हिंसा के लिए उकसाने का काम किया था. जैसा कि दिल्ली पुलिस से की गई दो शिकायतों में कहा गया है.
इन शिकायतों में से एक, जिन पर गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ दिल्ली के उपराज्यपाल और दिल्ली पुलिस कमिश्नर कार्यालय से पावती की सूचना अंकित है, वह 24 फरवरी को दर्ज कराई गई है. यह शिकायत दिल्ली के यमुना विहार में रहने वाले मोहम्मद जमी रिजवी ने दर्ज कराई थी. उन्होंने अपनी शिकायत में लिखा है कि 23 फरवरी को दिन के लगभग 2 बजे कपिल मिश्रा कर्दमपुरी में 25 लोगों के जत्थे के साथ आए थे. यह दूसरी जगह थी, जहां सीएए के खिलाफ प्रदर्शन चल रहा था. उस दिन सार्वजनिक पदों में प्रमोशन में कोटे की गई कटौती के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में दलितों द्वारा ‘भारत बंद’ के आय़ोजन के कारण धरना स्थल पर आम दिनों की अपेक्षा ज्यादा लोग थे. रिजवी ने लिखा कि भीड़ नारे लगा रही थी-
कपिल मिश्रा तुम लठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.
लंबे-लंबे लठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.
खींच-खींच के लठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.
मुल्लों पर तुम लठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.
चमारों पर तुम लठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.
मिश्रा ने भीड़ में भाषण भी दिया. रिजवी ने अपनी शिकायत में लिखा है, “कपिल मिश्रा और उनके सहयोगी बंदूक, तलवार, त्रिशूल, लाठी, पत्थर और बोतल आदि से लैस थे और जातिवादी तथा सांप्रदायिक नारे लगाते हुए प्रदर्शन-स्थल की तरफ बढ़ रहे थे. वे जो हमारे घरों में लैटरीन साफ करते हैं, उन्हें हम कुर्सी पर बैठने दें? उनके सहयोगी जवाब में नारे लगा रहे थे, बिल्कुल नहीं. फिर कपिल मिश्रा ने कहा, ये मुसलमान पहले सीएए और एनआरसी का विरोध कर रहे थे और अब उन्होंने आरक्षण के लिए भी प्रदर्शन शुरू कर दिया है. अब हमें उन्हें सबक सिखाना होगा.” रिजवी ने लिखा, यह सुनने के बाद, “मिश्रा के सहयोगी कर्दमपुरी में प्रदर्शनकारियों पर पत्थर फेंकने लगे”, और, “पुलिस की मौजूदगी में कारों को सड़कों पर चलने से रोकने लगे, मुसलमानों और दलितों के वाहनों की पहचान कर उन्हें गालियां देने लगे, उन्हें राष्ट्र द्रोही मुल्ला बताते तथा दलितों को जातिसूचक गालियां देते, उनकी पिटाई करने और उनकी कारों में तोड़-फोड़ करने लगे.”
रिजवी ने लिखा, “इसी दौरान कपिल मिश्रा ने अपनी बंदूक हवा में लहराई और अपने साथी हमलावर से कहा, ‘इन सालों को मत छोड़ना. आज हम इन्हें ऐसा सबक सिखाएंगे कि ये प्रदर्शन करना भूल जाएंगे.”
दूसरी शिकायत यमुना विहार में रहने वाले मोहम्मद इलयास ने दायर कराई है. उन्होंने 17 मार्च को ईदगाह राहत शिविर में अपनी शिकायत दर्ज कराई जिस पर दयालपुर पुलिस थाने की मुहर लगी हुई है. इलयास ने लिखा है, “23 फरवरी 2020 की दोपहर को कपिल मिश्रा और उनके सहयोगियों ने कर्दमपुरी सड़क पर मुसलमानों और दलितों की कारों को रोकना और उनको नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया.” पुलिस ऑफिसर वहां खड़े थे और उनकी मदद कर रहे थे. इसके बाद तो इलाके के हालात बेहद खराब हो गए. इसके बाद डीसीपी वेद प्रकाश सूर्य दूसरी गली में घुसे और प्रदर्शनकारियों को चेतावनी दी, “अगर तुमने इस प्रदर्शन को खत्म नहीं किया तो यहां ऐसी भयानक हिंसा होगी कि जिसमें तुम सब लोग मारे जाओगे.” रिजवी ने अपनी शिकायत में सूर्य का जिक्र किया है, जिन्होंने कहा था, ''हमें यह सुनिश्चित करने का आदेश ऊपर से मिला है कि दो दिन बाद यहां कोई प्रदर्शन नहीं होगा. अगर कोई प्रदर्शन करता है तो ऐसा दंगा होगा कि तुम और तुम्हारा विरोध प्रदर्शन दोनों मारे जाएंगे. तुम सभी काट दिए जाओगे.”
दूसरे दिन, उत्तर-पूर्व दिल्ली में जैसे ही हिंसा ने जोर पकड़ा, चांद बाग के प्रदर्शन स्थल पर खास तौर पर हिंसा हुई थी. देश में हो रहे बहुत सारे प्रदर्शनों की तरह यहां की कमान भी स्थानीय महिलाओं के हाथ में थी. अनेक शिकायतों में चश्मदीदों ने विस्तार से इसका विवरण दिया है. चांद बाग की रहने वाली रुबीना बानो अपनी शिकायत की शुरुआत में लिखती हैं, “मैं 3 महीने की गर्भवती हूं और इसके बावजूद मैं इस देश के संविधान को बचाने के लिए और इस देश के असंवैधानिक और अवैध कानूनों से अपने बच्चों के भविष्य को बचाने के लिए चांद बाग के प्रदर्शनों में शरीक होती रही हूं.” उन्होंने लिखा कि जैसे ही वह सुबह 11 बजे धरना स्थल पर पहुंचीं तो उन्होंने पाया कि पूरे इलाके में पुलिस ही पुलिस है. इन पुलिस वालों में गोकुलपुरी पुलिस स्टेशन के सहायक पुलिस आयुक्त अनुज कुमार और तारकेश्वर सिंह जी जैसे सीनियर पुलिस अफसर भी थे. बानो ने लिखा है कि पुलिस प्रदर्शन स्थल पर मौजूद औरतों से गालियों की जुबान में बात कर रही थी और प्रदर्शन को जारी रखने पर काट दिए जाने की धमकियां दे रही थी. उन्होंने यह भी दर्ज किया कि पुलिस कुछ आम लोगों को अपने साथ लिए हुई थी, “जिन्होंने अपने गलों में गमछे लपेट रखे थे और वे लाठियों, डंडों, तलवारों, पत्थरों, बंदूकों और बमों से लैस थे.''
अन्य शिकायतकर्ताओं के विवरण भी बानो से मेल खाते हैं. चांद बाग के एक अन्य बाशिंदे और शिकायतकर्ता ने अपनी शिकायत में लिखा कि उस सुबह तारकेश्वर समेत बड़ी संख्या में पुलिस बल धरना स्थल पर मौजूद था. इमराना परवीन जो न्यू मुस्तफाबाद में रहती हैं, ने लिखा है कि जब वे सुबह 10 बजे धरना स्थल पर पहुंचीं, तभी से पुलिस बल वहां मौजूद था. पुलिस प्रदर्शनकारियों से कह रही थी, “आज तुम्हारा भी आखिरी दिन है. तुम सभी को आजादी दे दी जाएगी.” (पुलिस सीएए के खिलाफ प्रदर्शन में लगाए जा रहे आजादी के नारे पर व्यंग्य कस रही थी.) शिकाय़त में यह भी दर्ज किया गया कि पुलिस के साथ कुछ लोग अपने हाथों में डंडे, त्रिशूल, ग्रेनेड, तलवारें और पत्थर लिए हुए थे. “वे नारे लगा रहे थे, ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’, उन्होंने बताया कि कई पुलिस ऑफिसर दो-दो बंदूकें लिए हुए थे. दयालपुर के एसएचओ हम औरतों को धमका रहे थे, “हमने कई बार तुमको समझाया है कि यह धरना-प्रदर्शन बंद कर दो, लेकिन तुमने मेरी बात नहीं सुनी. हमें ऊपर से आदेश मिला है कि किसी को भी धरना पर नहीं बैठने दो.”
बानो ने अपनी शिकायत में लिखा है, उसी पल पुलिस और भीड़ ने हम पर हमला कर दिया. ''हम लोग यहां शांति पूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे हैं तो आप हमारे साथ ऐसा सुलूक क्यों कर रहे हो?’ बानो ने लिखा है कि उन्होंने एसीपी कुमार से यह सवाल किया था. जवाब में उन्होंने हमें गालियां दीं और कहा, ''कपिल मिश्रा और उनके साथी तुम लोगों को, तुम्हारी जिंदगी से आजाद कर देंगे.” बानो ने आगे बताया कि उसी पल तारकेश्वर फोन लेकर कुमार के पास आए कि कपिल मिश्रा लाइन पर हैं. मिश्रा से बातचीत में एसीपी “जी, जी” कह रहे थे. उन्होंने यह कहते हुए फोन रखा, “चिंता न करें हम गलियों को उनकी लाशों से इस कदर पाट देंगे कि वे पीढ़ियों तक इसे याद रखेंगे.” बानो ने लिखा, जैसे ही कुमार ने फोन पर बातचीत खत्म की कुमार तारकेश्वर की तरफ मुड़े और आदेश दिया “मारो सालों को.”
अली ने अपनी शिकायत में लिखा, इसके बाद एकतरफा भीषण दंगा शुरू हो गया था. “मैंने देखा भजनपुरा के एसएचओ महिला प्रदर्शनकारियों पर लाठियां भांज रहे थे और दूसरे एसएचओ आर एस मीणा और अन्य पुलिसकर्मी भी महिलाओं पर निर्दयता से हमले कर रहे थे. बानो ने लिखा कि पुलिस और उसके साथ का हुजूम औरतों पर हमलावर था. “ये लोग पंडाल में घुस आए” और वहां “धरने पर बैठे प्रदर्शनकारियों को गालियां देने लगे”. उन्होंने कहा, “ तुम सब आजादी चाहती थी ना, अब हम मार-मार कर जय भीम का भूत तुमसे भगा देंगे. (भीमराव अंबेडकर के नाम पर ‘जय भीम’ का नारा प्रदर्शनकारियों में मशहूर था.) पुलिस ने धरना स्थल पर लगे अंबेडकर, मोहनदास गांधी, सावित्रीबाई फुले और अन्य राष्ट्रीय नेताओं के पोस्टरों को फाड़ दिया. बानो ने लिखा, “एसीपी अनुज कुमार ने बाबा साहेब अंबेडकर के पोस्टर को फाड़ दिया, और उसे अपने जूतों तले कुचल दिया, फिर रगड़-रगड़ कर रौंद दिया.”
अन्य चश्मदीदों ने भी अंबेडकर को अपमानित किए जाने की बात लिखी है. चांद बाग की एक महिला ने अपना नाम उजागर न करने का अनुरोध करते हुए लिखा, ''उन्होंने सावित्रीबाई फुले, अशफाक उल्ला खान, अब्दुल कलाम आजाद और हमारे यासीन शरीफ के पोस्टरों में आग लगा दी.”
“फिर मैंने दयालपुर के एसएचओ (श्री तारकेश्वर), भजनपुरा के एसएचओ (श्री मीणा) और एसीपी (श्री अनुज कुमार) को तीन लोगों पर गोलियां चलाते हुए देखा था, जिनसे कुछ लोगों की मौत हो गई थी. मैं यह देखकर बदहवास और स्तब्ध हो गई थी कि आज के दिन हमें कौन बचाएगा. पुलिस अफसर हमें मार रहे हैं. फिर मैं अपनी जान बचाने के लिए भागी.” परवीन ने लिखा है कि कुछ पुलिस अफसर प्रदर्शनकारिय़ों शामिल कुछ मर्दो पर गोलियां चलाने लगे थे. उन्होंने भजनपुरा पुलिस थाने के एक और एसीपी दिनेश शर्मा की पहचान की, जिन पर परवीन ने हिंसक भीड़ का नेतृत्व करने और उसे हिंसा के लिए उकसाने का आरोप लगाया है. उन्होंने लिखा, “जब हमारा पंडाल हमले में धू-धू कर जलने लगा तो 40-50 औरतें अपनी जान बचाने के लिए सीमेंट के गोदाम की तरफ भागीं. मैंने देखा दिनेश शर्मा भीड़ से चिल्ला कर कह रहे थे, 'सत्य पाल सांसद जी ने जो कहा था, उसे आज करके दिखाना है.'” परवीन ने बताया, शर्मा लगातार कह रहे थे, “आगे बढ़ो, डरो मत, पुलिस तुम्हारे साथ है. एक-एक को चुन-चुन कर जिंदगी से आजाद करना है.”
सबसे ज्यादा दिल दहला देने वाली शिकायतों में से एक न्यू सीलमपुर के रहने वाले इकरार ने 8 मार्च को भजनपुरा पुलिस थाने में दर्ज कराई थी. इसमें कहा गया था, इकरार ने यमुना विहार के नजदीक घोंडा चौक को जैसे ही पार किया, उनके स्कूटर को आठ-दस लोगों ने रोक दिया. जो वहां पुलिस वालों के साथ ही खड़े थे. इस भीड़ की तुलना में लगभग दोगुने पुलिस वाले वहां मौजूद थे.
शिकायत के मुताबिक जिन लोगों ने और पुलिस ने उन्हें रोका, वे सभी के सभी तलवारें, डंडों और बंदूकों से लैस थे. इकरार ने उन लोगों को अपना नाम राजू बताया और उनके साथ मिल कर “जय श्री राम'' का नारा भी लगाए, फिर भी वे अपनी मुस्लिम पहचान छिपाने में कामयाब नहीं हुए. भीड़ ने उनकी जेब से उनका पर्स निकाल कर उनका असली नाम पढ़ लिया. वह उन्हें मारने लगे तभी पुलिस ने उनसे कहा कि “इसे भी पूरी आजादी दे दो.” वह आदमी जो उस भीड़ का नेतृत्व कर रहा था, सामने आया और उसने दूसरों को उसे मारने से रोका. इकरार ने अपनी शिकायत में लिखा है, उस आदमी ने कहा कि “नंदकिशोर गुर्जर जी ने कहा था दो-चार लोगों के जिंदा जलाने का वीडियो बनाना है.”
शिकायत के अनुसार, “उनमें से ही एक आदमी ने वहां ढक कर रखी हुई खून से सनी चार से पांच लाशों को दिखाते हुए इशारा किया और कहा, इसे भी उन्हीं चारों की तरह काट देते हैं.” लेकिन, इकरार ने लिखा है कि उनका नेता इससे सहमत नहीं हुआ. उस आदमी ने कहा, “यह हट्ठा-कट्ठा है. इसका वीडियो लंबा बनेगा.
शिकायत में कहा गया है कि नेता ने तब अपने दो आदमियों को पेट्रोल लाने के लिए भेजा. बाकी सब इंतजार करने लगे. नेता ने उनमें से एक व्यक्ति से लोनी के बीजेपी विधायक गुर्जर को फोन लगाने के लिए कहा, जबकि बाकी थप्पड़ों, घूसों और लातों से इकरार को पीटते रहे. इस दौरान वह आदमी अपने नेता को इसकी सूचना देने के लिए कॉल करने की कोशिश करता रहा, लेकिन बात नहीं हो पा रही थी. इकरार ने अपनी शिकायत में लिखा उस आदमी ने स्पष्ट किया, ''मैं साहब के दिए हुए दूसरे नंबर पर कॉल कर रहा हूं, लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो पा रहा है.”
अपनी शिकायत जारी रखते हुए इकरार ने कहा कि भीड़ के नेता ने दूसरे आदमी को उनके बजाए प्रधान को कॉल करने को कहा. इस बार संपर्क हो गया और नेता ने मुस्तफाबाद के पूर्व विधायक प्रधान से बातचीत की. इकरार की शिकायत कहती है, उसने नेता को यह कहते हुए सुना : जगदीश भाई हमने एक हट्ठे-कट्ठे कछुए को पकड़ रखा है. हमने उसे पकड़ कर बहुत पीटा है. लेकिन अभी भी उसमें बहुत जान बाकी है. हमने उसके लिए पेट्रोल मंगवाया है और कैमरा भी रेडी है. हम इसका पूरा वीडियो बनाकर आपके दूसरे नंबर पर भेज देंगे.”
ठीक तभी, जैसा कि शिकायत में कहा गया है, इकरार की हत्या करने को तैयार लोगों ने मोटरसाइकिल पर सवार दो लोगों को देखा जिनकी दाढ़ी थी, वे अपनी तलवारें लहराते उनकी तरफ चले गए. इकरार उनका ध्यान बंटा होने का फायदा उठा कर जान बचाकर वहां से भाग गए.
पुलिस ने इकरार पर हमले के मामले में एफआइआर दर्ज तो की, लेकिन इसमें उनकी हत्या करने की कोशिश करने वाले किसी भी व्यक्ति का ब्योरा दर्ज नहीं किया. ऐसा मालूम होता था जैसे पुलिस ने खुद इकरार से ब्योरा लेने के बजाए लोक नायक जय प्रकाश हॉस्पिटल में दर्ज मेडिको—लीगल केस के आधार पर उसे पूरी तरह से तैयार किया हो, हमले के बाद इकरार को इसी अस्पताल में ले जाया गया था.
इकरार ने अपनी शिकायत में बताया है कि उनके भाई ने यह जानकारी दी कि भजनपुरा पुलिस थाने में एक एफआइआर दर्ज कराई गई है और इस मामले में जांच इसलिए लंबित है क्योंकि पुलिस अब तक उनका बयान नहीं ले पाई है. उन्होंने लिखा कि जब वे बोलने की हालत में आ गए तो उन्होंने 8 मार्च को अपना बयान टाइप कराया, उस पर दस्तखत किए और अपने अंगूठे का निशान भी लगाया. उन्होंने लिखा, “कृपा कर इस लिखित बयान को मेरे बाबत दर्ज कराई गई प्राथमिकी में शामिल किया जाए और मेरे हमलावरों के खिलाफ आपराधिक जांच शुरू की जाए.”
भजनपुरा थाने के एक सब इंस्पेक्टर और इस मामले के असल जांच निरीक्षक (आइओ) नईम अली ने जून में इसकी पुष्टि की कि इकरार की शिकायत को ‘फाइल में नत्थी’ कर लिया गया था, लेकिन उनको जांच के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है क्योंकि वह मेडिकल छुट्टी पर थे. जब उनसे अगस्त में संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि अब यह मामला भजनपुरा थाने के असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर नरेंद्र को सौंप दिया गया है.
नरेंद्र ने हमें बाद में बताया कि इस केस में अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. “जब तक हमें मामले से संबंधित वायरल वीडियो और कुछ सबूत नहीं मिलते हैं, हम किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकते,” उन्होंने कहा. इसके बावजूद उन्होंने जोर दिया कि पुलिस ने ‘बहुत कुछ किया है’. उन्होंने मीडिया संगठनों को जारी नोटिसों का भी जिक्र किया, जिनमें कहा गया था कि उनके पास अगर इस वारदात के बारे में कोई सबूत हो तो आगे आ कर उसे पेश करें.
जब हमने यह गौर करने के लिए कहा कि इकरार ने कहा है कि उसका बयान दर्ज करने के लिए पुलिस अभी तक उसके पास नहीं आई है, तो नरेंद्र ने स्वीकार करते हुए कहा, “पुलिस ने पहले ही उसके दिए गए बयान के आधार पर एफआइआर दर्ज की हुई है.”
प्रधान का नाम दयालपुर थाने के बापू नगर में रहने वाली समीना की शिकायत में भी लिया गया है. उस शिकायत को दयालपुर थाना, गृह मंत्रालय, दिल्ली पुलिस आयुक्त के कार्यालय और उपराज्यपाल को भी भेजा गया है.
सात मार्च को बड़ी संख्या में औरतें चांद बाग के धरना स्थल पर गई थीं और सीएए के खिलाफ धरना प्रदर्शन को फिर से शुरू करने की कोशिश की थी. “वहां पहले से ही काफी संख्या में पुलिस के अफसर मौजूद थे,” समीना ने लिखा है, “उन्होंने कहा कि उन्हें डीसीपी ने प्रदर्शन करते दिखने वाले किसी भी व्यक्ति को गोली मारने का आदेश दिया है. फिर पुलिस ने हम सब के नाम और पते नोट करना शुरू किया और हम सभी औरतें डर के मारे अपने-अपने घरों को लौट गईं.”
समीना अपनी शिकायत में लिखती हैं, इसके दो घंटे के बाद, चार से पांच लोगों का एक दल उनके घर में घुस आया. उन्होंने खुद को पुलिस अफसर बताया, लेकिन वे सभी सिविल ड्रेस में थे और माथे पर तिलक लगा रखे थे. समीना ने पहचाना कि उनमें से कुछ तो प्रधान के संगी-साथी थे और इसके पहले उन्हें बीजेपी सांसद के साथ देखा था. “हालांकि जगदीश प्रधान ने तुम्हारे कई सारे आदमियों को काट डाला है, तुम अब भी धरना-प्रदर्शन करना चाहती हो?” उन्होंने कहा. जैसा कि शिकायत में कहा गया है, “अब तुम देखना. हम तुम्हें उठाकर जिंदगी भर के लिए जेल में डाल देंगे और एनकाउंटर में मार देंगे. तभी तुझे होश आएगा. तुम जगदीश प्रधान की ताकत को नहीं जानती.”
समीना ने लिखा, वे लोग उस रात 9.30 बजे उनके घर से चले गए. जब हमने उन्हें रोकने की कोशिश की उन्होंने मेरी छाती पर मारा और कहा, ''हट जाओ, नहीं तो हम लोग तुम्हारा रेप कर देंगे” और फिर वे मुझे गालियां देने लगे,” समीना बताती हैं, ''मैं फौरन चीखने-चिल्लाने लगी. इससे मेरे घर के बाहर एक भीड़ जमा हो गई. भीड़ को देख कर उन लोगों ने अपनी बंदूकें निकालीं और बाहर खड़े लोगों पर तान दीं. उन्होंने कहा, 'यहां से हट जाओ, नहीं तो हम तुम्हें गोली मार देंगे’. भीड़ पर बंदूक ताने हुए, वे लोग वहां से भाग गए.”
समीना ने लिखा है, अगले दिन दोपहर को वे लोग फिर आ गए और उन्हें फिर धमकियां दीं, “मैंने उनसे कहा कि मैं उन लोगों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराऊंगी.” उन्होंने लिखा है, “उन्होंने जवाब दिया 'अगर हमारे खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई तो हम तुम्हें और तुम्हारे परिवार को काट डालेंगे.”
समीना की शिकायत पर पुलिस ने एफआइआर दर्ज नहीं की, ठीक उसी तरह जैसे उसने बीजेपी नेताओं को नामजद करने वाली शिकायतों को दर्ज नहीं किया था. ढेर सारी शिकायतें दिल्ली पुलिस को हत्या, हमले, हिंसा को भड़काने और आपराधिक धमकियां देने का दोषी ठहरा रही हैं. कई अधिकारियों, यहां तक कि सीनियर अधिकारियों पर भी आरोप लगे, लेकिन इस कदर किसी का नाम सामने नहीं आया, जिस तरह तारकेश्वर सिंह का नाम लिया गया है. कारवां के पास इन शिकायतों की प्रतियां मौजूद हैं.
मुमताज की शिकायत में, तारकेश्वर सिंह के सत्य पाल से 24 फरवरी को फोन पर निर्देश लेने के ब्योरे के अलावा, 25 फरवरी की सुबह को मुमताज की लेन में भीड़ के साथ एसएचओ के पहुंचने के बाद की गई कार्रवाई का भी ब्योरा भी तफसील से दिया गया था. “बिष्ट के वहां पहुंचकर भीड़ में शामिल होने से पहले ही तारकेश्वर भीड़ के साथ मौजूद था”, मुमताज ने लिखा. उन्होंने सुना, भीड़ ‘दिल्ली पुलिस जिंदाबाद के नारे’ लगा रही थी. फिर उन्होंने तारकेश्वर को भीड़ से यह कहते सुना, “आज किसी को भी यहां से बचकर जाने मत देना.”
मुमताज ने बताया, तारकेश्वर ने अपने एक सहयोगी की तरफ इशारा किया, जिसने एसएचओ के हाथ में एक चौड़ी नाली वाली बंदूक थमा दी. उसने उस बंदूक से हमारे घर की छत की तरफ फायर किया, जिससे वह इलाका धुएं से भर गया. उसने कई बार फायर किया, जिसमें आंसू गैस थी.”
उस शिकायत के मुताबिक, नजदीक की लूटी गई दुकानों के सामानों को ढूंढ़ने के लिए वहां घटनास्थल पर कई टेंपो लाये गए थे. मुमताज ने लिखा है कि तारकेश्वर और अन्य पुलिस ऑफिसरों की मौजूदगी में भीड़ उस इलाके के मकानों में घुसने लगी और उनमें लूटपाट करने लगी, और वहां मिले कीमती सामानों को उन टेंपो में भरने लगी.
तारकेश्वर को 24 फरवरी को धरना-प्रदर्शनस्थल वाले इलाके की हिंसा में कथित भागीदारी के अलावा 25 फरवरी को चांद बाग में हुई हिंसा के मामले में भी आरोपित किया गया है. परवीन की शिकायत के मुताबिक, ''मै तारीख 25.02.2020 को कुछ औरतों के साथ जला दिए गए पंडाल को देखने गई थी, वहां जाकर मैंने एक चादर बिछाई, उस पर बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की तस्वीर रखी और फिर से धरने पर बैठ गई.” धरना-प्रदर्शन को फिर से शुरू करने की यह कवायद ज्यादा देर नहीं चली. जल्दी ही एक भीड़ वहां मौजूद औरतों पर पत्थर बरसाने लगी और वे सब मोहन नर्सिंग होम की छत से चलाई जा रही गोलियों की जद में आ गई थीं. परवीन ने लिखा,‘'वहां मौजूद दयालपुर थाने के एसएचओ ने बाबा भीमराव अंबेडकर की तस्वीर को टुकड़े—टुकड़े कर दूर फेंक दिया, और कहां “यह भीम अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकता तो यह तुम लोगों की सुरक्षा कैसे करेगा.” इसके बाद तारकेश्वर ने दंगाइयों में शामिल होकर हम पर लाठी और डंडों से हमला कर दिया. इस हमले में कई औरतें जख्मी हो गईं.”
इलयास की शिकायत कहती है इसके बाद 25 फरवरी को शाम की नमाज के वक्त पुलिसकर्मिंयों ने भीड़ के साथ मिलकर हमला कर दिया और मुस्तफाबाद की वृजपुरी इलाके की फारुकिया मस्जिद में आग लगा दी. कारवां पत्रिका ने भी इसके पहले की अपनी रिपोर्ट में हमले में बाल-बाल बचे कम से कम दो चश्मदीदों के हवाले से बताया था कि उन्होंने पुलिस वालों को मस्जिद में आग लगाते देखा था. इलयास ने लिखा है कि अगली सुबह वह नुकसान का जायजा लेने के लिए फारुकिया मस्जिद गए थे. वहां उन्होंने पाया कि तारकेश्वर और अन्य पुलिस अधिकारी एक स्थानीय स्टोर्स के मालिक और इलाके के दबंग आदमी चावला के साथ पहले से ही मौजूद थे. शिकायत में लिखा है कि पुलिस और चावला के शागिर्द इलाके में लगे सीसीटीवी कैमरे को नष्ट कर रहे थे और मस्जिद एवं उसके पास के मदरसे लूट रहे थे. इलयास ने लिखा है, उसने तारकेश्वर से इसमें दखल देने की गुजारिश की, लेकिन एसएचओ ने टका सा जवाब दिया, ''मैंने तुमसे कई बार अपना धरना-प्रदर्शन रोकने के लिए कहा था, लेकिन तब तो तुमने मेरी बात पर कान ही नहीं दिया.”
इलयास कहता है, इसी बीच चावला किसी के कॉल पर फोन लेकर तारकेश्वर के पास आया और कहा कि सत्य पाल सिंह का कॉल है. दर्ज शिकायत में कहा गया है कि तारकेश्वर ने बीजेपी नेता से बातचीत की, फिर चावला को यह निर्देश दिया कि मस्जिद और मदरसे से लूटी हुई राशि को जमा कर ले और इसे सत्य पाल सिंह के घर पर भिजवा दे. “चावला ने वहां की आलमारियों से मिली रकम को एक बैग में रखा,” इलयास ने लिखा. “बैग रुपयों से लबालब भरा हुआ था और उसमें रखी हुई नकदी ऊपर से ही देखी जा सकती थी.”
इलयास ने लिखा कि तारकेश्वर ने तब उससे कहा था, “सभी मुसलमानों को बता दो कि वह आसपास के इलाके को छोड़ दें, यहां से भाग जाएं; अन्यथा वे सब के सब काट दिए जाएंगे.” उसने आगे लिखा है कि एक पुलिसकर्मी तारकेश्वर की कार से पेट्रोल का एक डिब्बा ले आया और इसे मदरसे में रख दिया. “इसके बाद पुलिसकर्मियों ने मदरसा में आग लगा दी और जैसे ही धुंए की लहरें ऊपर उठीं, चावला और पुलिस बल वहां से खिसक लिए.”
हिंसा के बाद तारकेश्वर सिंह को दयालपुर के एसएचओ पद से और आर एस मीणा को भी भजनपुरा के एसएचओ पद से तबादला कर दिया गया. उत्तर-पूर्व दिल्ली के एसीपी और डीसीपी को उनके पदों पर ही बने रहने दिया गया.
हम लोगों ने इस रिपोर्ट में उल्लिखित पुलिस अधिकारियों से अपने विरुद्ध लगाए गए आरोपों पर प्रतिक्रियाएं जानने के लिए संपर्क करने की कोशिश की (दयालपुर पुलिस थाने,दिल्ली पुलिस कंट्रोल रूम तथा उत्तर-पूर्व एवं केंद्रीय दिल्ली के डीसीपी दफ्तरों में अनगिनत बार संपर्क करने के बावजूद हम तारकेश्वर सिंह से संपर्क साधने में नाकामयाब रहे). जून महीने में जब कारवां ने दिल्ली पुलिस और बीजेपी नेताओं के विरुद्ध शिकायतों पर अपनी पहली रिपोर्ट छापी थी, तब हमने दिल्ली पुलिस आयुक्त एसएन श्रीवास्तव और पुलिस बल के तत्कालीन जनसंपर्क अधिकारी एमएस रंधावा को एक ईमेल किया था. यह जानने के लिए कि शिकायतों के मद्देनजर क्या जांच की गई है तथा आरोपित पुलिस अफसरों के विरुद्ध क्या कार्रवाई की गई है.
न तो श्रीवास्तव ने और न ही रंधावा ने हमारे ईमेल का कोई उत्तर दिया. अलबत्ता, दिल्ली पुलिस ने रंधावा के दस्तखत से ट्विटर पर एक प्रत्युत्तर पोस्ट किया. इसमें बिना किसी तथ्य का सहारा लिए कहा गया था कि बीजेपी नेताओं के विरुद्ध लगाए गए आरोप पर आधारित रिपोर्ट “कोरी कल्पना और कपट जाल से भरी एक ऐसी पटकथा है, जो दुर्भावनापूर्ण, अधूरी जानकारी तथा अपुष्ट तथ्यों पर आधारित है.” पुलिस ने लेख में उल्लिखित शिकायतों को प्राप्त करने से इनकार नहीं किया या, वह संज्ञेय अपराधों की सभी शिकायतों को एफआइआर में दर्ज करने के जाहिर तकाजों के बावजूद उन पर अमल करने में विफल रही है. उस प्रत्युत्तर ने विशेषकर उन आरोपों के उत्तर नहीं दिये, जो हिंसा में संलिप्त रहे बीजेपी नेताओं के बारे में लगाए गए थे और इससे इनकार किया कि शिकायतों में नामजद बीजेपी नेताओं के विरुद्ध कोई जांच या कार्रवाई ही हुई है.
उस प्रत्युत्तर का एक बड़ा हिस्सा इस तथ्य पर आधारित था कि हिंसा के दौरान पुलिस अधिकारी घायल हुए हैं-इस तथ्य पर रिपोर्ट में कोई विवाद ही नहीं किया गया था. इस गलत दिशा के साथ पुलिस ने रिपोर्ट के मुख्य विषय से भी किनारा कर लिया : कि दिल्ली पुलिस ने हमले में सहयोगी या इसके साजिशकर्ता बीजेपी नेताओं को नामजद करने वाली शिकायतों को प्राप्त तो किया है, लेकिन उसे नजरअंदाज कर दिया.
अपनी इस रिपोर्ट में पुलिस बल के विरुद्ध लगाए गए आरोपों के बारे में एक सवालों की एक लंबी फेहरिस्त हमने अगस्त महीने में दिल्ली पुलिस के जनसंपर्क अधिकारी को भेजा था. हमने हिंदू भीड़ की बंदूकों और विस्फोटकों तक उनकी पहुंच तथा मोहन नर्सिंग होम की भूमिका के बारे में भी सवाल पूछे थे. रंधावा की जगह पर पीआरओ बनाए गए एस सिंघल ने ई-मेल मिलने के कुछ ही मिनट बाद हमें फोन कर कहा कि वे उनके सवालों के जवाब नहीं दे सकते, क्योंकि उनकी नियुक्ति हिंसा के बाद हुई है. उन्होंने स्वयं की बजाए ज्वाइंट कमिश्नर आलोक कुमार से मिलने का निर्देश दिया, जो पूर्वी दिल्ली के मामलों के लिए जवाबदेह हैं. कुमार ने हमारे फोन का जवाब नहीं दिया, न तो उन्होंने हमारे द्वारा भेजी गई सवालों की सूची लौटाई और न उनका कोई जवाब ही दिया.
हमने रिपोर्ट में नामजद सभी बीजेपी नेताओं से उनके विरुद्ध लगाए गए आरोपों तथा उनके खिलाफ जांच की संभावना के बारे में पूछा था. जगदीश प्रधान ने हिंसा में अपनी किसी भी प्रकार की संलिप्तता से इनकार किया और यह भी जोड़ा कि “वे सभी को सहायता देने के प्रति सदय रहे हैं; चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान.’’ शिकायतों में उनके नाम कई बार आने के बारे में पूछे जाने पर उनका उत्तर था, “कोई कुछ भी कह सकता है, लेकिन इससे वह सब सच तो नहीं हो जाता.” मोहन सिंह बिष्ट ने जवाब दिया, “लोग किसी का भी नाम ले सकते हैं. हिंसा में मेरा कोई हाथ नहीं था.”
नंदकिशोर गुर्जर ने जवाब दिया कि हिंसा के दौरान वह लखनऊ में थे और दंगों से मेरा कोई लेना-देना नहीं है. उन्होंने आगे बताया कि उनके निर्वाचन क्षेत्र लोनी में, उस समय “किसी ने एक पत्थर भी नहीं फेंका था.”
जब हमने सत्य पाल सिंह को फोन किया तो उनके निजी सहायक विनीत चौधरी ने बताया कि वे अस्वस्थ हैं. हमने चौधरी के कहे मुताबिक सत्य पाल सिंह के लिए व्हाट्सएप पर सवाल भेजें, जो उन्हें मिल भी गए, लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया.
कपिल मिश्रा ने जवाब दिया, “कारवां एक जिहादी पत्रिका है और आप दिल्ली दंगों में संलिप्त इस्लामी आतंकवादियों को संरक्षण देने के लिए झूठ फैला रहे हैं. मैं आतंकवादियों से सहानुभूति रखने वालों से बातचीत नहीं करता.”
अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने उत्तर-पूर्व दिल्ली के ब्रम्हपुरी इलाके के स्थानीय बीजेपी नेता बृजमोहन शर्मा को हिंसा के दौरान हुई हत्या के एक मामले में पुलिस की चार्जशीट में उनका नाम दर्ज होने की एक रिपोर्ट छापी थी. ‘द क्विंट’ ने भी उनके पड़ोस के इलाके उत्तरी घोंडा में हत्या और दंगा-फसाद के लिए 16 लोगों को गिरफ्तार किए जाने की खबर छापी थी, ये सभी के सभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य, पदधारक या सहायक थे. इस बारे में आगे कोई जानकारी नहीं है कि फरवरी में हुए नरसंहार मामले में किसी बीजेपी नेता या हिंदुत्व समूह के किसी सदस्य के विरुद्ध कोई कार्रवाई हो रही है.
3.
अनेक शिकायतों में कहा गया है कि 24 फरवरी को चांद बाग इलाके के मोहन नर्सिंग होम की छत से हिंदू भीड़ मुसलमानों पर बंदूकों से फायर कर रही थी, उन पर पत्थर बरसा रही थी और पेट्रोल बम से हमले कर रही थी. इमराना परवीन ने लिखा है कि जैसे ही सशस्त्र पुलिस अफसरों ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलानी शुरू की, “मोहन नर्सिंग होम के स्टाफ ने भी हम पर बुलेट से फायर करना शुरू कर दिया, जिसमें अनेक प्रदर्शनकारी घटनास्थल पर ही मारे गए.” दयालपुर पुलिस थाने की डायरी में भी परवीन की शिकायत को 53 नंबर पर दर्ज किया गया है, इस पर दिल्ली पुलिस कमिश्नर और उपराज्यपाल द्वारा 15 मार्च की पावती की मुहर लगी हुई है. लेकिन पुलिस ने इसके खिलाफ भी एफआइआर दर्ज नहीं की.
दिल्ली पुलिस ने मोहन नर्सिंग होम की भूमिका की जांच के किसी प्रयास से किनारा कर लिया, जो इन और तथा अन्य गंभीर शिकायतों की रोशनी में साफ-साफ दिख रही है. 25 वर्षीय ऑटो चालक शाहिद अल्वी की हत्या मामले से इस पर और तेज रोशनी पड़ती है.
24 फरवरी को 3.30 बजे दिन में चांद बाग में स्थित सप्त ऋषि इस्पात और एलॉय, आयरन और स्टील की एक दुकान और गोदाम की छत पर शाहिद को उनके पेट में गोली मार दी गई. यह जगह वजीराबाद चौराहे पर मोहन नर्सिंग होम के सामने है. रात के 8.53 बजे ज़ीटीवी अस्पताल में उन्हें मृत लाया हुआ घोषित कर दिया गया. सप्त ऋषि इमारत की छत से उस समय बनाए गए एक वीडियो में यह दिखाया है कि शाहिद को गोली मारने के वक्त मोहन नर्सिंग होम की छत पर जमा भीड़ राइफल से गोलियां चला रही थी. इस मामले में दिल्ली पुलिस ने छह मुसलमानों को गिरफ्तार किया बिना इसकी पहचान किए कि इनमें से किसने शाहिद को गोली मारी थी.
इस केस में पुलिस की चार्जशीट में कई अनोखे दावे किए गए हैं. पुलिस का दावा है कि 24 फरवरी की दोपहर को सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों ने वजीराबाद रोड को जाम कर रखा था और वे पुलिस बल पर हमलावर थे, तब इसमें हिंदू भीड़ प्रति-हिंसा में शामिल हुई और प्रदर्शनकारियों को पीछे लौटने पर मजबूर कर दिया. चार्जशीट में कहा गया है कि शाहिद और अन्य कई मुस्लिम प्रदर्शनकारी हिंदू भीड़ पर हमला करने के लिए सप्त ऋषि इमारत की छत पर चढ़ गए थे. पुलिस का कहना है कि छत पर मौजूद अन्य मुस्लिम प्रदर्शनकारियों की गोली लगने से शाहिद की मौत हुई थी.
चार्जशीट इसकी कैफियत नहीं देता कि यह सब कैसे और किस वजह से हुआ. इसमें शाहिद की हत्या के कथित आरोपितों का इकबाल ए जुर्म भी शामिल नहीं किया गया है. चार्जशीट के मुताबिक सभी छह आरोपितों ने कबूल किया है कि वे लोग पुलिस पर पत्थर फेंक रहे थे और गोलियां दाग रहे थे, जब उन्हें वापस लौटने पर मजबूर किया गया क्योंकि हिंदू भीड़ उन पर आंसू गैस फेंक रही थी और मुठभेड़ जारी रखे हुई थी. इन छह लोगों ने कबूल किया कि वे सब किसी की सलाह सुनकर ही छत पर चढ़े थे. उन्होंने यह भी बताया कि उनमें से सबों ने यह महसूस किया कि किसी को गोली लगी है. इसके बाद वे लोग उस इमारत से भाग खड़े हुए थे.
पुलिस ने इस चार्जशीट में तीन चश्मदीदों के बयानों को शामिल किया है. ये लोग मजदूर हैं, जो सप्त ऋषि इमारत की दूसरी मंजिल पर रहते हैं. इनमें से कोई भी शाहिद की हत्या का न तो गवाह है और उनका बयान सिर्फ प्रदर्शनकारियों और हिंदू भीड़ के बीच संघर्ष होने के बारे में बताता है. उनका बयान इतना कहता है कि उन्होंने देखा कि मुस्लिम प्रदर्शनकारी पत्थर और बंदूक लिए छत पर चढ़े जा रहे हैं. गवाहों ने ‘न्यूजलॉन्ड्री’ वेबसाइट को बाद में बताया कि चार्जशीट में उनके बयानों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है.
पुलिस ने दावा किया है कि इनमें से एक मजदूर 20 वर्षीय मुकेश ने इमारत में घुसने वाले एक व्यक्ति की पहचान की है, जिसका पुलिस ने चार्जशीट में नाम रईस खान बताया है. लेकिन मुकेश ने ‘न्यूजलॉन्ड्री’ से कहा कि वह इस नाम के किसी भी व्यक्ति को नहीं जानता है और न तो इमारत में घुसने वाले किसी आदमी की उसने पहचान ही की है. मुकेश और एक दूसरे मजदूर नारायण ने कहा कि उसने किसी भी व्यक्ति को किसी हथियार के साथ नहीं देखा था जबकि चार्जशीट में उन दोनों के बयान को यह कहते उद्धृत किया गया है, “हर व्यक्ति के पास डंडे, बोतलें, पत्थरों से भरे थैले और बंदूकें थीं.”
ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस किस बिना पर इस नतीजे पर पहुंची कि शाहिद को एक मुसलमान ने गोली मारी थी.
चार्जशीट में लिखा गया है कि 5 मार्च को एनडीटीवी ने एक फुटेज दिखाया था, जिसमें शाहिद को गोली मारे जाने के बाद एक अनजान व्यक्ति द्वारा उसे सप्त ऋषि इमारत की छत से सीढ़ियों द्वारा उतारते हुए दिखाया गया था. इस फुटेज को एनडीटीवी के कार्यक्रम ‘प्राइम टाइम’ में रवीश कुमार द्वारा प्रसारित किया गया था. पुलिस ने इस फुटेज पर भरोसा करते हुए स्थापित किया कि “शाहिद उस दिन और घटना के समय मौका ए वारदात पर मौजूद था और वह जख्मी हो गया था, जिससे उसकी मौत हो गई थी.” हालांकि उस दिन एनडीटीवी का कार्यक्रम इस चिंता पर केंद्रित था कि भीड़ की पहुंच हथियारों तक कैसे मुमकिन हो जाती है. रवीश कुमार ने रिपोर्ट किया कि शाहिद की हत्या के वक्त हथियारों से लैस भीड़ भी मोहन नर्सिंग होम की छत से गोलियां चला रही थी और इसका उन्होंने फुटेज भी दिखाया.
मोहन नर्सिंग होम के फुटेज का पुलिस की चार्जशीट में बेहद अदब से जिक्र किया गया है.
एनडीटीवी के फुटेज में मोहन नर्सिंग होम की छत पर खड़े कुछ दंगाई पत्थर-बोतल फेंकते तथा बंदूक से गोलियां दागते हुए दिखाई दे रहे हैं. यह इमारत सप्त ऋषि इस्पात और एलॉय प्राइवेट लिमिटेड की बिल्डिंग के ठीक सामने है. मोहन नर्सिग होम एवं सप्तऋषि इमारतों के बीच की दूरी नापी गई. पाया गया कि दोनों के बीच 78 मीटर का फासला है. मृतक शाहिद के शरीर से बुलेट के तांबे के तीन टुकड़े मिले हैं. इसकी एफएसएल (फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी) की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है कि कितने बोर की बुलेट या किस तरह की बंदूक या पिस्तौल से गोलियां चलाई गई थीं. अभी यही मालूम पड़ता है कि गोलियां छोटे हथियार से चलाई गई हैं. ऐसे में यह बिल्कुल असंभव है कि इसे मोहन नर्सिंग होम की छत से दागी गई होंगी. हालांकि इस तथ्य की पुष्टि के लिए एफएसएल की रिपोर्ट की दरकार है, जिसका अभी भी इंतजार है.
बिना किसी फॉरेंसिक रिपोर्ट के पुलिस का प्राथमिक निष्कर्ष कि बुलेट मोहन नर्सिंग होम से नहीं फायर किया गया होगा, तुच्छ प्रतीत होता है. इस मामले से जुड़े जांच अधिकारी ने हमें अगस्त महीने में बताया था कि एफएसएल रिपोर्ट अभी भी प्रतीक्षित है.
हमने इस चार्जशीट को एक फॉरेंसिक और प्लास्टिक साइंस के विशेषज्ञ क्रांति शर्मा को दिखाया था, जो पंजाब पुलिस और अन्य सुरक्षा अधिकारियों को अपनी विशेषज्ञ सलाह देते हैं. शर्मा ने शाहिद के पोस्टमार्टम रिकॉर्ड की पड़ताल कर बताया कि “उसमें जख्म के इर्द-गिर्द कालापन, झुलसने या गोदना के जैसे चिह्न नहीं हैं.” उन्होंने बताया कि यह दिखाता है कि “गोली करीब से नहीं मारी गई थी,” जिससे शाहिद की मौत हो गई थी. उन्होंने आगे बताया कि “जैसे टुकड़े के शरीर से मिलने की बात कही गई है, वे टुकड़े कम दूरी से गोली चलाने की स्थिति में नहीं पाए जाते हैं.”
शर्मा ने कहा कि दोनों इमारतों के बीच की दूरी, जैसा कि चार्जशीट में दर्ज किया गया है, से गोली मोहन नर्सिंग होम से चलाए जाने की संभावना ही पुष्ट होती है. दूरी को चार्जशीट में शामिल कर “आईओ ने यहां जान-बूझ कर विचारोत्तेजक और आत्म विरोधाभासी है.” शर्मा ने इस नतीजे को सिरे से खारिज कर दिया कि बुलेट को छोटे हथियार से चलाया गया था.”और छोटे हथियार पिस्तौल और रिवाल्वर होते हैं, जिनका सिरा छोटा होने के चलते आमतौर पर उनका उपयोग बहुत करीब से फायर करने के लिए ही किया जाता है. उन्होंने कहा कि बंदूक का सिरा सामान्यत: लंबा होता है, जिसका इस्तेमाल पुलिस द्वारा किया जाता है.” यहां फिर आइओ की दुष्ट मंशा जाहिर होती है; क्योंकि तांबे के जैकेट वाले बुलेट का इस्तेमाल भी लंबी दूरी तक मार करने वाले हथियारों से जैसे बंदूक के लिए होता है, जिसका उपयोग पुलिसकर्मी करते हैं. उन्होंने आगे बताया कि जब तक कि पूरा का पूरा बुलेट नहीं मिल जाता, गोली की मारक क्षमता को ठीक-ठीक नहीं आंका जा सकता; “ऐसे में छोटे हथियार से नजदीक से मार करने के बारे में कोई कैसे सुझाव दे सकता है.”
हमने उन चश्मदीदों से भी बातचीत की, जो शाहिद के मारे जाने के वक्त सप्त ऋषि इमारत की छत पर मौजूद थे. वे सभी के सभी हिंसा की जारी घटनाओं को कवर करने आए फोटो जर्नलिस्ट थे और यह उन्हीं के फुटेज को एनडीटीवी ने अपने प्रोग्राम में चलाया था, लेकिन दिल्ली पुलिस ने चार्जशीट दायर करने से पहले उनमें से किसी से भी संपर्क नहीं किया था. उनमें से एक मोहम्मद मेहरबान ने हमें बताया कि 24 फरवरी को दिन के 1.00 बजे के लगभग सप्त ऋषि इमारत में घुसने के पहले वह मोहन नर्सिंग होम गया था. उसने देखा, दूसरी मंजिल पर कई पुलिसकर्मी जख्मी पड़े हैं. यह भी पाया कि बुर्कानशीं तीन मुस्लिम औरतें पहली मंजिल पर बैठी हुई हैं, उन्हें स्टाफ के लोग एक आइसीयू की तरह बनाये गए एक कमरे में छिपाये हुए है और हां, उन महिलाओं की हिफाजत में जो लोग चिंतित थे, वे सब के सब हिंदू थे.” मेहरबान ने आगे बताया कि अस्पताल में उसके आए हुए दो घंटे बीतने के बाद हिंदू भीड़ वहां घुसने लगी. स्टाफ के कुछ सदस्यों ने भीड़ को अंदर आने से रोकने की कोशिश की. आखिरकार हिंदू भीड़ को छत पर जाने देने के लिए अस्पताल के पिछले दरवाजे को खोल दिया गया.”
इसी समय पुलिस ने मेहरबान को दूसरी मंजिल से एक वीडियो बनाते देखा और उन पर हमला कर दिया. जब उन्होंने कहा कि वह मीडियापर्सन हैं तो वे हम पर चिल्ला पड़े, तो क्या हुआ? हमने तुमको फोटो खींचने से पहले भी मना किया था ना?” मेहरबान ने याद कर बताया. यह तो गनीमत रही कि किसी ने उनसे उनका आइकॉर्ड नहीं मांगा क्योंकि वे एक मुस्लिम होकर मोहन नर्सिंग होम में मौजूद थे, जिस पर हिंदू भीड़ ने कब्जा कर लिया था.
इसी दौरान, सप्त ऋषि की छत पर “मुस्लिम लड़कों के पीछे दो अन्य फोटो जर्नलिस्ट भी खड़े थे.” मेहरबान ने बताया कि वे अस्पताल से निकल कर अपने सहयोगियों के पास चले गए.
वे दो फोटो जर्नलिस्ट हिंदू थे और उन्होंने अपनी पहचान जाहिर न करने की बात कही. उनमें से एक ने कहा कि हमने हिंदुओं की उग्र भीड़ को तीन तरफ से हमले करते देखा-मोहन नर्सिंग होम, इमारत की बाई तरफ बनी फुट ब्रिज और पेट्रोल पंप स्टेशन से. “मुसलमान छत पर थे, उन्होंने हमसे अपने पीछे रहने के लिए कहा और हमारी सुरक्षा का भरोसा दिलाया. वे चाहते थे कि हम मोहन नर्सिंग होम की तरफ से होने वाली फायरिंग की तस्वीरें लेते रहें.”
उन सभी तीनों फोटो जर्नलिस्टों ने कहा की सप्त ऋषि इमारत की छत पर खड़े मुसलमानों में किसी के पास भी बंदूक नहीं थी. “उस समय केवल मोहन नर्सिंग होम की तरफ से गोलियां चलाई जा रही थीं और कहीं से भी नहीं. हम उसके गवाह हैं,” मेहरबान ने कहा. इस तरफ खड़े मुसलमानों के पास हिंदू भीड़ को चांद बाग में घुसने से रोकने के लिए सिर्फ पत्थर थे.
वे तीनों फोटो जर्नलिस्ट सप्त ऋषि इमारत की छत पर करीब दो घंटे तक रहे थे, उन तीनों ने हमें बताया कि मोहन नर्सिंग होम की छत से यहां नीचे खड़े मुसलमानों पर कई बार गोलियां चलाई गई थीं. मेहरबान के पहले साथी ने कहा, “एक समय तो उन लोगों ने तो अचानक हम पर निशाना साधा और मैंने उन्हें हमारी दिशा में गोलियां चलाते हुए देखा था.” इससे डरे हुए फोटो जर्नलिस्ट ने दूसरों को भी चेतावनी दी कि वे जल्द से जल्द छत से चले जाएं. “उन्होंने मेरी नहीं सुनी और हम लोग लकड़ी की सीढ़ी से छत से नीचे उतरने लगे”, मेहरबान के एक साथी ने बताया. उस समय शाम के करीब 5.45 बजे थे.
“हम अपनी जान बचाने के लिए छत से नीचे भागे क्योंकि मोहन नर्सिंग होम की छत पर खड़े लोगों ने तब तक हमारी मौजूदगी को भांप लिया था और वह अपनी राइफल्स से उन पर निशाना साध रहे थे,” मेहरबान ने कहा.
मेहरबान के दूसरे साथी ने भी याद कर बताया कि उन्होंने छत से एक राइफल को अपनी ओर तने हुए देखा था और फिर उन्होंने दूसरों से भी छत से उतरने के लिए कहा था. “जैसे ही तीनों फोटो जर्नलिस्ट सीढ़ियों से उतर रहे थे,” दूसरे सहयोगी ने बताया, “मैंने दूसरी बार गोली की आवाज सुनी और फिर पीछे आ रहे लोगों की चीख-पुकार सुनी. वे लोग शाहिद को लगभग मरणावस्था में नीचे ला रहे थे.”
चार्जशीट में शाहिद के भाई इरफान के बयान को भी शामिल किया गया है. पर आश्चर्यजनक रूप से इसमें इस बात पर कोई रोशनी नहीं पड़ती कि उन्होंने कैसे जाना कि उनका भाई मर गया है. इरफान का बयान सिर्फ यह कहता है कि कुछ अनजान लोग उनके भाई शाहिद को जख्मी हालत में उनके परिवार के घर के बाहर छोड़ गए थे और वे उन्हें लेकर जीटीवी अस्पताल भागे थे, जहां केवल यह मुनादी की गई कि उन्हें मरा हुआ लाया गया.
इरफान की पुलिस के साथ बातचीत एक दूसरी ही कहानी कहती है, “मैंने अपने बयान में उनसे कहा था कि मेरे भाई की गोली मारकर हत्या की गई थी और वह गोली मोहन नर्सिंग होम से चलाई गई थी. इरफान ने हमसे कहा था,” लेकिन मैं नहीं जानता कि पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में क्या लिखा था.” जब उसने जोर देकर पूछा कि आखिरकार उसका भाई कैसे मारा गया, उसने कहा, तब पुलिस ने तब उसे दो थप्पड़ रसीद कर दिये थे. उन्होंने मेरा मोबाइल फोन यह देखने के लिए छीन लिया कि कहीं उसमें हिंसा से जुड़ी कोई तस्वीर या वीडियो तो नहीं है. जबकि चार्जशीट में दावा किया गया है, कुछ अज्ञात व्यक्तियों ने शाहिद के शव को उसके परिजनों के घर के बाहर छोड़ दिया था, जिसे ज़ीटीवी अस्पताल ले जाया गया था. इरफान ने कहा, उसे फोन पर किसी ने बताया था कि उनके भाई की गोली मारकर हत्या कर दी गई है और उन्हें मदीना अस्पताल लाया गया है.
चार्जशीट में यह खुलासा किया गया है कि हालांकि पुलिस शाहिद की मौत से 24 फरवरी को ही वाकिफ हो गई थी, लेकिन उसने 1 मार्च तक इस मामले में कोई एफआइआर दर्ज नहीं कराया था. इससे भी जाहिर होता है कि पुलिस ने एफएसएल टीम को सप्त ऋषि इमारत का निरीक्षण करने के लिए 7 मार्च तक नहीं कहा था जबकि शाहिद की गोली मारकर हत्या किए जाने के 12 दिन बीत चुके थे.
मोहन नर्सिंग होम की छत पर खड़े होकर हिंसा फैला रहे लोगों की धर-पकड़ करने के बजाए पुलिस ने बेहद तुच्छ साक्ष्यों के आधार पर छह मुसलमानों को गिरफ्तार कर लिया था. उनमें से एक आरोपित मोहम्मद फिरोज ने हमें कहा था कि उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया है. “मुझे मुस्लिम होने के कारण निशाना बनाया गया है,” पेशे से टैक्सी चालक फिरोज ने कहा. उन्हें दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच के अफसरों ने 11 मार्च को उठाया, जब वह वजीराबाद रोड पर सवारी के इंतजार में खड़े थे. फिरोज ने कहा कि उनके बेटे का नाम टैक्सी की पिछली खिड़की पर लिखा हुआ था और इससे उनके मुस्लिम होने की शिनाख्त हो गई, जिस वजह से पुलिस ने उनको आसानी से अपना शिकार बना लिया.’
फिरोज को 45 दिनों की जेल की सजा काटने के बाद 12 अप्रैल को छोड़ा गया था, वह भी कोविड-19 वैश्विक महामारी के प्रकोप के चलते जेल में कैदियों की भीड़ भाड़ कम करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद रिहा किया गया था. उनकी जमानत के आर्डर, जो चार्जशीट के साथ संलग्न है, में उन्हें हत्या के लिए आरोपित नहीं किया गया है बल्कि दंगा फैलाने और सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने के अपराध में नामजद किया गया है.फिरोज ने कहा कि उन्हें पुरानी दिल्ली के दरियागंज इलाके के क्राइम ब्रांच में 1 मई को तलब किया गया था और उनसे तीन सादे कागज पर दस्तखत करने के लिए कहा गया था. “पुलिसकर्मिंयों ने मुझसे इसका ब्योरा नहीं दिया और कहा वे मेरे घर पर केवल यह सूचित करने गए थे कि मैं हत्या के मामले में अभियुक्त हूं,” उन्होंने कहा.
फिरोज ने बहुत बाद में यह जाना कि उन्हें शाहिद की हत्या के गुनाह में फंसाया गया है. हालांकि उन्होंने वह इमारत भी नहीं देखी थी, जहां शाहिद को गोली मारी गई थी. “24 फरवरी को मैं अपने घर पर था,” उन्होंने हमें बताया. अपने खिलाफ मामले को जाता हुआ समझ कर फिरोज विचारों में डूबते हुए पूछा, “यह दंगा मुसलमानों और मुसलमानों के बीच हुआ था या मुसलमानों और हिंदुओं के बीच?”
वह फिर से जेल में हैं.
रिपोर्टिंग के दौरान हमें सीधे तौर पर इस बात के साक्ष्य मिले कि कैसे पुलिस ने मोहन नर्सिंग होम की किसी भी तरह जांच को दबाने का काम किया था.
दयालपुर पुलिस थाने को एक मुहर लगी शिकायत 15 मार्च को मिली थी और थाने के रोजनामचा (डेली डायरी) में इस केस की इंट्री नंबर-55 दर्ज है. इसमें पुराने मुस्तफाबाद के 22 वर्षीय बाशिंदा अकरम खान ने बताया है कि चांद बाग में 24 फरवरी को हुई हिंसा में उन्होंने भी अपने हाथ गंवाये थे. उस दिन उस इलाके में हुए विस्फोट से जख्मी होने वाले अनेक मुसलमानों में वे भी थे. वे नमाज पढ़कर घर लौट रहे थे, उन्होंने लिखा तभी एक भीड़ उनके पास जमा हो गई. जैसे ही वे भागने लगे, जमीन पर गिर पड़े. “मोहन नर्सिंग होम के मालिक और उनके स्टाफ इमारत की छत से पत्थर और बम फेंक रहे थे,” उन्होंने लिखा. “तभी मैंने एक बम को फेंकते हुए देखा, लेकिन मैं वक्त रहते जमीन से उठ नहीं पाया. वह बम मेरे हाथ के पास गिरा और फट गया. मेरे हाथ उसके धमाके की जद में आ गए.” इलाके के मुसलमानों ने उन्हें पास के मेहर नर्सिंग होम में दाखिला कराने का बंदोबस्त किया और मेरी जान बचाई. उन्होंने बताया कि बाद में उन्हें ज़ीटीवी अस्पताल में दाखिल कराया गया.
कारवां ने 28 जून को दिल्ली पुलिस को एक ईमेल भेजकर यह जानना चाहा था कि खान की शिकायत मामले में क्या कार्रवाई की गई है. दूसरे दिन जब हम लोग खान से एक इंटरव्यू के सिलसिले में उनके भाई की टेलरिंग वर्क शॉप पर गए थे, हमने वहां चकित कर देने वाले एक आगंतुक-महिपाल सिंह-को पहले से मौजूद पाया. महिपाल सिंह दयालपुर पुलिस थाने में सहायक उपनिरीक्षक थे और सिविल ड्रेस में, खान की शिकायत के बाबत उसका बयान दर्ज करने के लिए वहां आए थे.
खान ने अपनी आपबीती शुरू की, उन्होंने जैसे ही बताया कि मोहन नर्सिंग होम की छत से फायरिंग हो रही थी, महिपाल सिंह ने उसको दर्ज नहीं किया. जब खान ने इस पर जोर दिया तो सिंह ने जवाब दिया, “भजनपुरा साइड से लिख दिया, एक ही बात है.”
“सर, जब मैं जमीन पर गिरा तो एक बम मोहन नर्सिंग होम की तरफ से आकर मेरे पास फटा था,” खान ने कहना जारी रखा. एक बार फिर महिपाल सिंह ने दखल दिया, “यह सब जांच में आ जाएगा.” उन्होंने तफ्सील से उनका ब्योरा लिखने से इनकार कर दिया.
जब उन्होंने और दर्ज कराए ब्योरे के बारे में पूछा तो सिंह ने जवाब दिया-“सुनो, सुनो, वह शिकायत मनगढ़ंत है.” महिपाल सिंह के विवरण के मुताबिक “24 फरवरी को शास्त्री पार्क के पुलिस थाने के समीप एक दुर्घटना घटी थी, यह जगह चांद बाग से कम से कम 5 किलोमीटर दूर है. खान को एक वाहन ने धक्का मारा था, सिंह ने कहा, इससे उसका हाथ कुचल गया और उसे वहां से ज़ीटीवी अस्पताल ले जाया गया था, जहां उसे दाखिल कराया गया था. इलाज के दौरान उसके हाथ काटने पड़े. बाद में दुर्घटना की एफआइआर दर्ज कराई गई थी. शास्त्री पार्क पुलिस थाने में प्रवीण कुमार इस मामले के आइओ हैं और इसका एफआइआर नंबर 60/2020 है.” सिंह ने खान का बयान दर्ज करते वक्त उनसे इस बारे में कुछ नहीं पूछा.
सिंह के मुताबिक अकरम खान ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा फरवरी दंगे में घायल हुए लोगों को मुआवजा देने की घोषणा के बाद अपनी कहानी में यह बदलाव किया है. उन्होंने कहा, “यह सब ड्रामा कर रहा है कि हमारे साथ ये हो गया.बात ही खत्म हो गई इसकी कंप्लेन की.”
जिस एफआइआर का जिक्र सिंह ने किया था, उसमें उस वाहन का जिक्र ही नहीं किया गया था, जिससे दुर्घटना हुई थी. आरोपित व्यक्ति के बारे में कुछ नहीं कहा गया था. इसका भी जिक्र नहीं किया था कि किन परिस्थितियों में यह दुर्घटना हुई और खान को अस्पताल ले जाने का अनुमान कैसे कर लिया गया था? इतना कहा गया था कि एक मेडिको-लीगल केस (एमएलसी) दर्ज किया गया है, लेकिन खान ने कहा कि उन्हें एमएलसी की कोई रिपोर्ट नहीं दी गई है. अपना बयान दर्ज कराते हुए खान ने जब इस बारे में पूछा तो सिंह ने उन्हें जवाब दिया कि शास्त्री पार्क थाने जाओ और वहां से उसकी कॉपी ले लो.
हमने इस मामले के जांच अधिकारी प्रवेश कुमार से दुर्घटना के बारे में पूछा था. “कुछ भी पता नहीं चल सका है, लिहाजा हम इस मामले में अन्ट्रेस लिख देंगे,” कुमार ने कहा था. “शास्त्री पार्क की लाल बत्ती पर लगे सीसीटीवी फुटेज में भी कुछ भी नहीं मिला है.” सिंह के जैसे प्रवेश ने भी खान की शिकायतों में लगाए गए आरोपों को केजरीवाल की घोषणा के बाद मुआवजे की लालच में कहानी में किया गया बदलाव बताया.
पुलिस के बयान में और खान की शिकायतों में एक चमकता हुआ विरोधाभास है. खान 24 फरवरी को न्यू मुस्तफाबाद में मेहर नर्सिंग होम के पास घायल हुए, जहां उन्हें प्राथमिक उपचार के लिए ले जाया गया था, इसकी पुष्टि अस्पताल में लहूलुहान लेटे खान की तस्वीर से हुई, जिसे उनके दोस्त ने खींची थी. बाद में उनके दोस्त और उनका प्राथमिक उपचार करने वाले हेल्थ वर्कर के इंटरव्यू से भी होती है. जब खान की फोटो दिखाई गई तो उस हेल्थ वर्कर ने कहा, “हां मैंने उनके हाथों में मरहम-पट्टी की थी.” उसने दिल्ली पुलिस के भय से अपनी पहचान छुपाने का अनुरोध हमसे किया, “मैं इस लड़के को चेहरे से पहचानता हूं.” हेल्थ वर्कर ने याद किया कि खान को गंभीर हालत में यहां लाया गया था और बाद में उन्हें ज़ीटीवी अस्पताल रेफर किया गया था.
अगर खान शास्त्री पार्क में घायल हुए थे, जैसा कि पुलिस का दावा है, तो यही उसके तर्क को खारिज करता है जिसमें खान को मेहर नर्सिंग होम और ज़ीटीवी अस्पताल में दाखिले की बात कही जा रही है. दोनों जगहें एक दूसरे से सर्वथा विपरीत दिशा में और छह किलोमीटर की दूरी पर हैं. इस विरोधाभास पर पुलिस ने कुछ नहीं कहा है.
जब हमने मोहन नर्सिंग होम के मालिकों और निर्देशकों में से एक सुनील कुमार से बातचीत की तो उन्होंने हिंसा में अस्पताल की किसी संलिप्तता से इनकार किया. कुमार ने कहा कि वे और उनके स्टाफ ने क्राइम ब्रांच को अपने बयान दर्ज करा दिये हैं. लेकिन उन्होंने क्राइम ब्रांच से क्यों संपर्क किया था, यह सवाल पूछने के पहले ही उन्होंने मेरा फोन काट दिया. बाद में किए गए मेरे कॉल का भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और न ही टेक्स्ट मैसेज का कोई उत्तर दिया.
जिस तरह से खान की शिकायतों के साथ बर्ताव किया गया उससे हमले के अन्य पहलुओं, हिंदू भीड़ द्वारा व्यापक पैमाने पर की गई हिंसा और उसमें विध्वंसकारी विस्फोटकों के इस्तेमाल के बारे में पुलिस जांच की विफलताएं ही उजागर हुई.
हिंसा में विस्फोटकों के इस्तेमाल पर मीडिया के कवरेज में मुख्य रूप से आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन की छत पर मिले विस्फोटकों की बरामदगी अहम रही. ताहिर को खुफिया ब्यूरो के स्टाफ अंकित शर्मा की हत्या का अभियुक्त करार दिया गया है. यद्यपि बेशुमार शिकायतों में भीड़ द्वारा खुलेआम विस्फोटकों के इस्तेमाल और बिना किसी भय के जान-माल को नुकसान पहुंचाने की खबरें मुस्तफाबाद, चांद बाग और करावल नगर इलाके से आती रही हैं.
“25 फरवरी की रात के 11 बजे मेरे बेटे के नंबर पर इलाके से किसी का फोन आया, जिसमें बताया गया कि मेरी दुकान पर हमला हुआ है और उसे लूटा जा रहा है,” मुस्तफाबाद के इलयास ने अपनी शिकायत में इसे दर्ज कराया है. उन्होंने यह शिकायत 19 मार्च को राहत शिविर में बनाए गए पुलिस हेल्प डेस्क पर दर्ज कराई थी. इलयास ने बताया कि वे अपनी दुकान की तरफ भागे, वहां उन्होंने लोगों के एक जत्थे को, उनकी दुकान से सामान को हटाते और उन्हें एक टेंपो में रखे जाते देखा. ये लोग हथियारों से लैस थे. इलयास ने उस समूह में शामिल कम से कम सात लोगों के नाम लिए हैं.
इलयास ने लिखा है, “तभी वहां मिठाई बेचने वाला अनिल नाम का शख्स आता है. और सभी को यहां से चलने के लिए कहता है.” इसके पहले उन्होंने “जगदीश प्रधान जिंदाबाद”, “नंदकिशोर गुर्जर जिंदाबाद”, “सत्य पाल सांसद जिंदाबाद” के नारे लगाए.
इलयास ने बताया कि किस तरह अनिल ने तब उसकी दुकान पर बम फेंक दिया था, जो तेज आवाज के साथ फटा गया था. उस धमाके ने मेरी दुकान की छत को ऐसे उड़ा दिया था कि उसके टुकड़े पूरे इलाके में फैल गए थे. तेज आवाज से मेरे कान बहरे हो गए थे.” इसके बाद इलयास खौफ में घर भाग गए थे.
इलयास ने अपनी शिकायत में लिखा है कि हमले के तुरंत बाद पहले उन्होंने गोकुलपुरी पुलिस थाने में एक शिकायत दर्ज कराई थी. बाद में यह एफआइआर में बदल गई थी. उन्होंने इसकी कैफियत भी दी थी कि इसके बावजूद उन्होंने नई शिकायत क्यों दर्ज कराई.
गोकुलपुरी पुलिस थाने में दर्ज एफआइआर बताता है कि इलयास ने अपनी दुकान के लुटे जाने और दंगाइयों द्वारा उसे जला दिए जाने की शिकायत दर्ज कराई थी. इसमें कहा गया था कि इस हमले में उसे आठ से नौ लाख रुपये तक के सामान का नुकसान हुआ है. इसमें किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिया गया था. इलयास ने दूसरी शिकायत में उन व्यक्तियों के नाम लिए थे और उन्होंने बताया कि उनकी दुकान को विस्फोटकों से तहस-नहस कर देने वालों में से कुछ को वे पहचानते हैं.
“जब मेरे बेटे ने एफआइआर को मुझे पढ़कर सुनाया तो मैं सदमे में था,” इलयास ने हेल्प डेस्क पर लिखी अपनी शिकायत में कहा कि “इसमें किसी अभियुक्त का नाम नहीं लिया गया था और सबसे बड़ी बात यह कि बेहद आसानी “दो मंजिली परिसंपत्ति नष्ट हो जाने” का जिक्र कर दिया गया था. हालांकि मैंने पुलिस अफसरों से साफ-साफ कहा था कि अनिल स्वीट वाला ने एक थैले से बम निकाला और उसे मेरे घर पर फेंक दिया. मेरी संपत्ति को बर्बाद कर दिया.”
इलयास ने इस बात को मामले के जांच अधिकारी आशीष गर्ग के समक्ष भी उठाया था. शिकायत में कहा गया है, “इसके बाद मैंने आशीष गर्ग जी से कई बार गुजारिश की कि यह वो एफआइआर नहीं है, जिसका जिक्र मैंने आपसे किया था, लेकिन उन्होंने जवाब दिया,”चुप रहो और बैठ जाओ, नहीं तो मैं तुम्हें 302 के मामले में फंसा दूंगा.”
दिल्ली पुलिस ने दूसरी शिकायत के आधार पर एफआइआर दर्ज नहीं किया. इस बाबत जुलाई में पूछे जाने पर गर्ग ने कहा था अभी वह मेडिकल अवकाश पर हैं और उन्होंने हमारे किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया. गोकुलपुरी थाने के एसएचओ प्रमोद जोशी ने कहा इलयास पुलिसिया जांच में सहयोग नहीं कर रहा है और वह अपनी शिकायत में फर्जी तरीके से लोगों को दोषी ठहरा रहा है. “शिकायतकर्ता खुद ही यह नहीं जानता कि किसने उसकी दुकान में आग लगाई है,” जोशी ने कहा विस्फोटकों के इस्तेमाल के ब्योरे पूछे जाने पर एसएचओ ने इसे खारिज कर दिया. उन्होंने पूछा, “यहां बम का इस्तेमाल कैसे हुआ होगा?”
4.
हिंसा से संबंधित अधिकांश चार्जशीट विस्तृत घटनाक्रमों के साथ आरंभ होती है, जिन्हें पुलिस इस प्रकार के संबंध को जोड़ने के लिए कम साक्ष्य होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से हत्या तथा इसके एक हिस्से के रूप में किए गए अपराध के अनुरूप मानती है. दिल्ली पुलिस के मुताबिक, फरवरी में हुआ दंगा मुसलमानों तथा एनआरसी का विरोध करने वाले दूसरे संगठनों के कार्यकर्ताओं की साजिश का नतीजा है. इसका एक मकसद 24 और 25 फरवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत आने के मौके पर धरना-प्रदर्शन कर विदेशों में भारत की छवि और साख को धूमिल करने का भी था. हिंसा की शुरुआत से लेकर हिंसा तक की दिल्ली पुलिस की इस क्रोनोलॉजी में जामिया मिलिया इस्लामिया में दिसम्बर में की गई पुलिस-कार्रवाई और इसी महीने सीएए के खिलाफ प्रदर्शनों की शुरुआत तथा धरना-प्रदर्शन स्थलों पर हिंसा की शुरुआत को भी समेटा गया है. पुलिस ने सीएए की मुखालफत कर रहे अनेक देश के अन्य प्रख्यात बुद्धिजीवी-विरोधियों को भी इसमें शामिल किया है तथा मोदी सरकार के असंतुष्ट आलोचकों को भी अपनी साजिश की थ्योरी में जांच का मुद्दा बनाया है.
दिल्ली पुलिस के एक कांस्टेबल रतनलाल की 24 फरवरी को हिंसा के दौरान हुई हत्या मामले की चार्जशीट में एक चार्ट को भी शामिल किया गया है, जो कथित साजिश के बारे में है. जून की शुरुआत में दाखिल यह चार्जशीट साजिश में शामिल तीन स्तर के किरदारों के बारे में दिखाती है. पहला, सबसे ऊपर दंगा-फसाद की साजिश करने वालों को रखा गया है, उसके नीचे स्थानीय साजिशकर्ताओं और सबसे नीचे स्थानीय दंगाइयों को.
इनके अलावा, पिंजड़ा तोड़ (महिलाओं की सामूहिक स्वायत्त संस्था) के सदस्यों, यूनाइटेड अगेंस्ट हेट, (देश में लिंचिंग की घटनाओं के खिलाफ के लिए काम करने वाली संस्था) और जामिया कोऑर्डिनेशन कमिटी (जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में सीएए खिलाफ छात्रों के विरोध का अगुवा); ये तीनों समूह भारत सरकार के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर रहे हैं. इस सूची में ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया लिबरेशन( मार्क्सवादी-लेनिन वादी) सीपीआइएमएल की छात्र इकाई और कांग्रेस एवं आम आदमी पार्टी के पूर्व पार्षद आदि शामिल हैं.
दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने मार्च की शुरुआत में इस तथाकथित साजिश को लेकर की गई खास जांच के बाबत एक एफआइआर-59/2020 दर्ज किया था. तब से इसे मुख्य साजिश की जांच मामले के रूप में जाना जाता है. अप्रैल में यह एफआइआर दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल को सौंप दी गई थी. शुरुआत में भारतीय दंड संहिता के तहत दंगे फैलाने और गैर कानूनी तरीके से एक जगह जमा होने के अपराधों के मामले में भारतीय दंड संहिता के तहत ही एफआइआर दर्ज की गई थी. यह विशेष शाखा आइपीसी के तहत हत्या, हत्या के प्रयास, धार्मिंक वैमनस्य भड़काने और सावर्जनिक परिसम्पत्ति की क्षति से रोकथाम अधिनियम के तहत किए जाने वाले अपराधों एवं आर्म्स एक्ट के मामलों को भी दर्ज करती है. यह स्पेशल शाखा सर्वाधिक कठोर गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत भी मामले को दर्ज करती है, जिसके तहत गैर कानूनी गतिविधियां करने, आतंकवाद का वित्तपोषण करने और आतंक की साजिश रचने और उन्हें अंजाम देने तक के अपराधों को शामिल किया गया है.
एफआइआर से साजिश की बाबत बहुत थोड़े ब्योरे मिलते हैं और इनमें किसी आतंकवादी गतिविधियों के आरोपों को दर्शाया नहीं गया है. यह केवल दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच एक सब इंस्पेक्टर अरविंद कुमार की उस शिकायत पर विश्वास करती है, जिन्होंने कहा कि उन्हें अपने माध्यम से यह मालूम हुआ कि फरवरी में, दिल्ली में हुई हिंसा “एक पूर्व नियोजित साजिश” थी.”
एफआइआर में यह कहा गया है, “जेएनयू के छात्र उमर खालिद और उनके साथियों, जो कई संगठनों से जुड़े हुए हैं, ने मिलकर दिल्ली को दंगे से दहलाने की साजिश रची थी.” इसमें दावा किया गया है कि सरकार की मुखालफत करने के मामले में जेएनयू से निष्कासित किये गए उमर खालिद ने व उनके साथियों ने अपने भाषणों के जरिये लोगों को ट्रंप की यात्रा के दौरान विरोध के लिए लामबंद किया था और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं और बच्चों में हिंसा भड़काने का काम किया था. एफआइआर के अंत में कहा गया है, “आग्नेयास्त्र, पेट्रोल बम, तेजाब की बोतलें, पत्थर, गुलेल और अन्य घातक उपकरण मौजपुर, कर्दमपुरी, जाफराबाद, चांद बाग, गोकुलपुरी और शिव विहार एवं उनके आसपास के इलाकों के घरों से बरामद किए गए थे.”
चूंकि गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम पुलिस को 180 दिन के अंदर चार्जशीट दाखिल करना आवश्यक बनाता है, दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने एफआइआर-59 के तहत दर्ज मामलों से से एक भी केस में अभी चार्जशीट दाखिल नहीं किया है. लेकिन अन्य मामलों में दायर की गई चार्जशीट से जांच के बारे में पुलिस के नजरिये का पता चलता है.
अंकित शर्मा की हत्या के बारे में जून में जमा की गई चार्जशीट में दिल्ली पुलिस ने यह दावा किया है कि यूनाइटेड अगेंस्ट हेट के संस्थापक खालिद सैफी ने आम आदमी पार्टी (आप) के पार्षद ताहिर हुसैन और उमर खालिद के बीच 8 जनवरी को शाहीन बाग के धरना स्थल पर एक मीटिंग कराई थी. पुलिस का दावा है, इस बैठक में, “यह तय किया गया कि सीएए एवं एनआरसी पर केंद्र सरकार को हिला देने तथा भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि व साख पर बट्टा लगाने के लिए एक बड़ा धमाका करना चाहिए.”
चार्जशीट में कहा गया है कि उन तीनों ने ट्रंप की दिल्ली की आधिकारिक यात्रा से पहले या बाद में दंगे कराने की साजिश रची थी. लेकिन बाद में जब बहुत सारे संचार माध्यमों के केंद्र ने यह उद्घाटित किया कि ट्रंप की भारत यात्रा के बारे में 13 जनवरी तक कोई सार्वजनिक सूचना नहीं थी. जब ‘द हिंदू’ ने अमेरिकी राष्ट्रपति के “फरवरी के अंत में दौरे पर आने की संभावना” जताते हुए एक खबर प्रकाशित की थी, तब पुलिस ने अपने दावों में दमकते इस दोष का परिहार करते हुए अपनी दूसरी चार्जशीट में साजिश के इस हिस्से को या तो हटा दिया है या उसे संशोधित कर दिया.
दिल्ली पुलिस ने चार्जशीट में यह भी दावा किया है कि उसने “हिंसा को रोकने और उस स्थिति में किसी उत्तेजना को बेकाबू न होने देने” के लिए दिसम्बर में जामिया परिसर में दखल दिया था. उसके बाद भारी तादाद में आए वीडियो और चश्मदीदों ने पुष्ट किया कि पुलिस ने दरअसल शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे छात्रों को बुरी तरह से पीटा और यहां तक की उन छात्रों को भी नहीं बख्शा गया, जो लाइब्रेरी में पढ़ने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे थे.
रतन लाल की चार्जशीट में पुलिस ने बड़ी मुखरता से यह दावा किया है, “ यह समझना मुश्किल नहीं है कि मौजूदा घटनाएं एक गहरी साजिश की नतीजा हैं, जो नागरिकता अधिनियम के लोकतांत्रिक विरोध की आड़ में रची गई थी.”अब यह समझना कठिन है कि पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कैसे; इसलिए कि चार्जशीट में उसके इस निष्कर्ष के समर्थन में कुछ भी शामिल नहीं किया गया है.
स्पेशल सेल ने 25 अगस्त को कम से कम 19 लोगों को इस साजिश मामले में गिरफ्तार किया था. इनमें से केवल एक सफूरा जरगर को जमानत पर रिहा किया गया है. जनता ने उनकी गर्भावस्था के दौरान जेल में रखे जाने पर सरकार की काफी लानत-मलामत की थी, जिसके बाद जरगर को छोड़ा गया.
पटियाला हाउस की जिला अदालत ने इस केस में चार्जशीट दायर करने के लिए पुलिस को 17 सितम्बर की मोहलत दी थी.
इस तरह के आरोप लगाने का सिलसिला दिल्ली पुलिस ने जारी रखा है. जुलाई में उसने हिंसा से जुड़ी हुई जांच के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया था. यह हलफनामा कहता है, “प्रथमदृष्टया जांच में यह खुलासा हुआ कि यह स्वत:स्फूर्त हिंसा फैलने का यह मामला नहीं है बल्कि सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने के लिए की गई एक सुनियोजित साजिश का हिस्सा है.” इसमें कहा गया है, “इस बड़ी साजिश की योजना और उसका लक्ष्य सविनय अवज्ञा और धरना-प्रदर्शन की आड़ में वैधता प्रदान करना था. लेकिन उसकी असली मंशा किसी भी हद तक जाकर, हिंसा करना था और इस मकसद के लिए वैधानिक रूप से गठित मौजूदा सरकार को उखाड़ फेंकना था.”
पुलिस ने अपने पहले के इस दावे में संशोधन किया कि आरोपित साजिशकर्ता डोनाल्ड ट्रंप की यात्रा की तारीख को तभी जान गए थे, जबकि उसकी आधिकारिक घोषणा भी नहीं हुई थी. पुलिस ने अपने हलफनामे में इसे संशोधित करते हुए दावा किया कि ट्रंप की यात्रा की तिथि घोषित होने के बाद साजिशकर्ताओं ने प्रदर्शन को और विस्तृत रूप देने का फैसला किया था.
यह हलफनामा मुकदमों की तादाद को गिनाता है. पुलिस ने कुल 751 एफआइआर दर्ज किए थे, जिनमें से 59 मामलों की जांच क्राइम ब्रांच कर रही है, 691 मामले की जांच स्थानीय पुलिस थाने को सौंपी गई है और एक मामले की जांच स्पेशल सेल कर रही है. पुलिस ने 200 मामलों में चार्जशीट दायर किया हुआ है और 1,430 गिरफ्तारियां की गई हैं. दंगों में 53 लोग मारे गए हैं, जिनमें 13 की मौत गोली लगने से घायल होने के बाद हुई है. 34 लोगों की मौत जलने से और दंगों के कारण हुई है, जबकि 6 लोगों की मौत अज्ञात कारणों से बताई गई है. हलफनामा में लिखा गया है कि पुलिस ने 581 जख्मी लोगों को मेडिको-लीगल सर्टिफिकेट (एमएलसी) के तहत दर्ज किया है, जिनमें 18 महिलाएं और 563 पुरुष शामिल हैं, जबकि इसमें 108 पुलिसकर्मी भी हैं. इस आंकड़ों के दम पर दिल्ली पुलिस ने दावा किया कि उसने “निष्पक्ष रवैया अपनाया है और दंगों मामलों की जांच में कानून के मुताबिक काम किया है.”
हलफनामा यह खुलासा नहीं करता कि संज्ञेय़ अपराधों की बाबत पुलिस को कितनी शिकायतें मिली हैं, इनमें से कितने मामलों में एफआइआर दर्ज की गई है और इन दोनों की तादाद में अंतर का अनुपात क्या रहा है? इनके न होने का मतलब है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित संहिता का उल्लंघन किया गया है. हलफनामा यह भी नहीं बताता कि कितनी शिकायतों में बीजेपी नेताओं और दिल्ली पुलिसकर्मिंयों को नामजद किया गया है या कितने बीजेपी नेताओं तथा पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए हैं, उनकी जांच हुई है और एफआइआर में उनके नाम दिए गए हैं.
पुलिस ने दंगों के दौरान संपत्ति-परिसंपत्तियों के होने वाले नुकसान की एक फेहरिस्त अदालत को सौंपी है : इसके मुताबिक, 13 मस्जिद और 6 मंदिर नष्ट हुए हैं. कुल क्षतिग्रस्त 185 घरों में से 90 घर मुसलमानों के और हिन्दुओं के 18 घरों को नुकसान पहुंचा है. बाकी घरों की मिल्कियत के बारे में जानकारी नहीं है. कुल 468 दुकानों में मुसलमानों की 250 दुकानें और हिन्दुओं की 66 दुकानों को क्षति पहुंची है. बाकी की दुकानों की मिल्कियत स्पष्ट नहीं है. मुसलमानों की संपत्तियों को हुए नुकसान के अनुपात को देखते हुए पुलिस के इस दावे पर फिर से सवाल उठता है कि दंगे मुसलमानों ने भड़काये थे. इसी तरह, मरने वालों की सूची भी पुलिसिया दावे की चुगली करती है. कुल 53 मारे गए लोगों की आधिकारिक संख्या में 40 लोग मुसलमान समुदाय के थे.
पुलिस की कहानी में केवल एक ही दावा भरोसे लायक लगता है. वह यह कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों ने सड़कें जाम कर दी थी. यह उनके प्रदर्शन की रणनीति को उजागर करने वाला व्यापक हिस्सा था. हलफनामा कहता है, “अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आधिकारिक भारत यात्रा के समय रास्ता जाम करने की उनकी मंशा यह जतलाने की थी कि मौजूदा सरकार मुस्लिम विरोधी है और वह सरकारी मशीनरी/ताकत का उपयोग कर इस देश के मुसलमानों के खिलाफ कार्यक्रम चलाती है तथा भारत में मुसलमानों के विरुद्ध बड़ी संख्या में मुकदमे चला रही है. इन सब को लेकर उनका मकसद अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचना था.” हालांकि हलफनामा इसके बारे में कोई कैफियत नहीं देता कि तथाकथित साजिशकर्ताओं को यह कैसे अनुमान हो गया कि ट्रंप की यात्रा के दौरान प्रदर्शनकारियों के खिलाफ राज्य की मशीनरी और ताकतों का इस्तेमाल किया जाएगा.
याचिकाओं में से एक जिसके बारे में हलफनामा में जवाब दिया गया है, वह कपिल मिश्रा और बीजेपी के अन्य नेताओं के घृणा-विद्वेषपूर्ण भाषणों के जरिए दंगे भड़काने के आरोप में उनके खिलाफ एफआइआर दर्ज करने की मांग के बारे में है.
यह मामला मौलिक रूप से दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस डीएन पटेल की बेंच के समक्ष 26 फरवरी को लाया गया था. न्यायमूर्ति पटेल उस दिन छुट्टी पर थे तो इसकी सुनवाई उनके बदले न्यायमूर्ति एस मुरलीधर और न्यायमूर्ति तलवंत सिंह की दो सदस्यीय खंडपीठ ने की थी. खंडपीठ के अध्यक्षता न्यायाधीश मुरलीधर कर रहे थे.
सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता अदालत में पेश हुए और दलील दी कि तत्काल एफआइआर दर्ज करने की कोई जरूरत नहीं है. मेहता केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में पेश हुए थे जबकि वह इस केस का हिस्सा भी नहीं थी. इस लिहाजन, सॉलिसिटर जनरल से उस दिन अदालत के सामने पेश होने की अपेक्षा नहीं थी.
मेहता ने इसकी सफाई देते हुए कहा कि उपराज्यपाल ने उनसे दिल्ली पुलिस कमिश्नर की तरफ से हाई कोर्ट में पेश होने के लिए कहा है-हालांकि ऐसा अमूमन होता नहीं है. मेहता ने कहा, चूंकि इस मामले की सुनवाई अगले दिन भी होनी है, लिहाजा एफआइआर दर्ज करने की कोई जल्दी नहीं है. “यह उचित समय पर दर्ज कर ली जाएगी,” उन्होंने कहा.
“वह उचित समय कब होगा, मिस्टर मेहता? शहर जल रहा है”, न्यायमूर्ति मुरलीधर ने उनसे पूछा. “और कितनी जिंदगियां इसमें होम होंगी? और कितनी परिसंपत्तियों को बर्बाद किया जाएगा.”
“जब परिस्थितियां अनुकूल होंगी, तब एफआइआर दर्ज किया जाएगा.” मेहता ने जवाब दिया और अदालत से कहा कि वह “गुस्सा” न हो.
“यह गुस्सा नहीं, पीड़ा है.” न्यायमूर्ति मुरलीधर ने छूटते ही मेहता से कहा. सुनवाई के अगले चरण में मुरलीधर ने जोर देकर कहा, “यह एक संवैधानिक अदालत की पीड़ा है. जब ऐसे मामलों में एफआइआर करने की बात आती है, आप तत्परता क्यों नहीं दिखाते,” न्यायमूर्ति मुरलीधरन ने कहा, “इस नगर में पहले ही काफी हिंसा हो चुकी है. अब तो हम 1984 को न दोहराएं.”
सुनवाई के दौरान मेहता और दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने अदालत से कहा कि उन्होंने सवालों के घेरे में नेताओं के भाषणों के वीडियो को अभी तक देखा नहीं है. हालांकि तब तक वह वीडियो व्यापक रूप से वायरल हो चुका था. “दरअसल, मैं दिल्ली पुलिस के मामलों से स्तब्ध हूं.” इसके बाद, खंडपीठ ने उन भाषणों के वीडियो को खुली अदालत में चलाने का निर्देश दिया.
वीडियो में कपिल मिश्रा को जाफराबाद में भाषण देते दिखाया गया था. सांसद प्रवेश वर्मा को उनके सार्वजनिक भाषणों एवं एक इंटरव्यू को दिखाया गया था, जिसमें उन्हें शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को बलात्कारियों और हत्यारा कहते सुना गया था. केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को” के नारों के साथ सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों पर हमला बोला था. दिल्ली के विधायक अभय वर्मा को “पुलिस के हत्यारों को/ गोली मारो सालों को” नारे के साथ भीड़ का नेतृत्व करते दिखाया गया था.
खंडपीठ ने एफआइआर दर्ज करने के मामले में पुलिस को “विवेकपूर्ण निर्णय लेने” का निर्देश दिया और अगले दिन सुनवाई के लिए इसे अधिसूचित कर दिया. न्यायमूर्ति मुरलीधर का रातों-रात तबादला कर दिया गया और यह मामला फिर से मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल की अदालत में सूचीबद्ध हो गया, जिन्होंने भारत सरकार को भी इस मामले में एक पक्षकार बनाया और याचिका पर उत्तर देने के लिए उसे चार हफ्ते का वक्त दे दिया.
मार्च के पूर्वार्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई की, जिसमें उन्हीं चारों बीजेपी नेताओं के विरुद्ध हिंसा और हत्या के मामले में प्राथमिकी दर्ज कराने की मांग की गई थी. इस केस को सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय को भेज दिया ताकि इसे हिंसा से जुड़ी पहले की याचिकाओं के साथ नत्थी करते हुए एक साथ सुनवाई की जा सके .
अंतत: दिल्ली पुलिस ने एक शपथ पत्र के जरिए उन सभी याचिकाओं के बारे में जवाब देते हुए कहा कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा की अब तक की जांच में उन लोगों की दंगे-फसाद में किसी तरह की भूमिका या भागीदारी के सबूत नहीं मिले हैं, जिनके बिना पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई की जा सके.
5.
फरवरी के उत्तरार्ध में ऐसे ही दिल्ली पुलिस हिंसा से जुड़े मामलों में गिरफ्तारियों का अभियान चलाती रही है. कितने मुस्लिम युवकों को उसने उनकी गलियों से गिरफ्तार किया गया तो कई लोगों को उनके घरों से उठाया गया था. कई मामलों में मुसलमानों को परिसंपत्तियों को जलाने और यहां तक कि अपने ही समुदाय के लोगों की जान लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, तब जबकि शिकायतकर्ता दंगाइयों के रूप में पुलिस के दावे के विपरीत दूसरे-दूसरे समुदायों के लोगों की शिनाख्त कर रहे थे. दिल्ली पुलिस ने अपनी गिरफ्तारी का औचित्य साबित करने के लिए उस व्यक्ति के हाथ में लाठी-डंडा और इसी तरह के अपरिष्कृत हथियारों की तस्वीर या फुटेज का प्राय: इस्तेमाल किया है. गिरफ्तार कई लोगों और उनके परिवारों ने भी हिंदू भीड़ से अपने को बचाने के लिए ये हथियार रखे थे और उस समय जबकि वे उस घटनास्थल पर मौजूद ही नहीं होते थे, जहां होने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया था.
पेशे से दर्जी 30 वर्षीय जमरीन हसन चांद बाग में रहते हैं. वे 22 जून अपने घर पर आराम कर रहे थे, तभी पुलिस ने उन्हें खींचकर गोकुलपुरी थाने ले आई थी. जब हम बीच जुलाई में उनके घर गए थे तो उनकी बीवी रुखसाना ने हाथ में कुरान और निगाहों में दहशत लिए हुए दरवाजा खोला था. एक अनजान व्यक्ति के हाथ में नोटबुक और कलम लिए हुए देखना हमारी रिपोर्टिग के दौरान बहुतों के लिए अक्सर पुलिस के प्रतिनिधि होने का भ्रम देता था. हालांकि हमें पत्रकार जानकर रुखसाना बाद में आश्वस्त हो गई थीं.
जमरीन के भाई नूर ने कहा कि पुलिस ने उनके परिवार से कहा था कि “पूछताछ” के बाद जमरीन को घर भेज देगी. नूर इसके बाद गोकुलपुरी थाने गए थे और वहां घंटों इंतजार करने के बाद वे अपने भाई को लॉकअप में ही देख सके थे. पुलिस ने उनके बारे में कोई भी ब्योरा देने से इनकार कर दिया. “दूसरे दिन हमसे कहा गया कि जमरीन का दंगे में हाथ था और हमें अब उसकी जमानत की कोशिश करनी चाहिए,” नूर ने कहा.
“जब हमने पुलिस से उनके मामले और एफआइआर के बारे में पूछा तो वह उत्तेजित हो गई,” उसने बताया. एक पुलिस वाले ने तो मुसलमानों को हिंसा की शुरुआत करने का कसूरवार ठहरा दिया.
जमरीन के परिवार ने बताया जमरीन विगत 22 जून से दिल्ली की मंडोली सेंट्रल जेल में हैं. रुखसाना ने हमसे कहा, नूर के मार्फत उन्होंने कुछ कपड़े भिजवाए थे, लेकिन पुलिस वालों ने जमरीन को देने से यह कहकर इनकार कर दिया, कोरोना वायरस के प्रकोप के चलते ऐसा करना संभव नहीं है. उन्होंने हमसे बताया कि “उनके गिरफ्तार होने के बाद से आज तक मैंने उनका सिर्फ एक कॉल रिसीव किया है, जो उन्होंने जेल से मुझे किया था. उन्होंने मुझसे कहा कि वह पहन कर आए कपड़ों को ही धो-धो कर पहनते हैं.” जमरीन को पहली अगस्त को जमानत पर रिहा किया गया.
“हमसे कहा गया था कि जमरीन हाथ में डंडा लिए हुए था.” डंडा पकड़े हुए उनकी तस्वीर हमारी गली के सीसीटीवी फुटेज में आई थी. रुखसाना ने हमसे बातचीत में उन हालातों को दोहराया, जिनमें जमरीन को डंडा उठाने की नौबत आ गई थी-24 फरवरी की शाम को वजीराबाद रोड की तरफ से हथियारों से लैस भीड़ चांद बाग में घुसने की कोशिश कर रही थी और पड़ोस में पेट्रोल बम फेंक रही थी. “वे हिंसा कर रहे थे, दुकानों में आग लगा रहे थे. आंसू गैस के गोले को मैंने खुद अपने पास गिरते देखा था,” उन्होंने याद करते हुए बताया. रुखसाना के मुताबिक उनके शौहर बड़े नेक इंसान हैं, उन्होंने “बस वहां पड़े एक डंडे को पकड़ लिया और चुपचाप यह देखते रहे कि उनकी गली में नुक्कड़ की तरफ से तरफ चल क्या रहा है. सिर्फ यही उनका कसूर है.”
रुखसाना ने पूछा,”हाथ में डंडा लेना भी गुनाह है, क्या?
रुखसाना और जमरीन के तीन बच्चे हैं, जिनकी उम्र 10 से 15 साल है.“मैं उनसे क्या कहती जब पुलिस वाले उनके अब्बा को उनकी आंखों के सामने पकड़ कर ले गई थी”, रुखसाना ने पूछा.
आस-पड़ोस की अन्य औरतों जो हमारी बातचीत सुन रही थीं, वे भी गुफ्तगू में शामिल हो गईं. उन्होंने पुलिस की खूब शिकायतें कीं. “हम ने पुलिस को हजारों बार कॉल किया, लेकिन वह कभी नहीं आई,” एक उम्रदराज औरत शहनाज ने कहा, जो समूह में ज्यादा मुखर थीं. उन्होंने कहा, “हां, हमने पत्थरों से उनका डटकर मुकाबला किया था. इसके सिवा और हम कर क्या सकते थे?” अगर मुस्तफाबाद के लड़के यहां आकर भीड़ को पत्थर मार-मार कर नहीं भगाते तो यह चांद बाग भी दूसरा शिव विहार हो गया होता.” शिव विहार दंगों के दौरान सर्वाधिक पीड़ित इलाका था.
एक अन्य उम्र दराज औरत अफसाना ने रैपिड एक्शन फोर्स, जो केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की नई बल्कि विशेष इकाई है, को उन मुसलमानों के पड़ोस में हिंदू भीड़ द्वारा किए जा रहे हमले में मदद करने के लिए कसूरवार ठहराया. “मुझे बिल्कुल अच्छी तरह याद है कि किस तरह नीली वर्दी पहना आदमी भीड़ के पीछे से हमारे बच्चों को भगाने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़ रहा था,” उन्होंने कहा. “लेकिन हमारे बच्चों ने बहुत बढ़िया काम किया और भीड़ को हमारी लेन में घुसने नहीं दिया था.”
“हमारे पास उस भीड़ को रोकने के लिए सिर्फ पत्थर और लाठियां थीं, जो हमारे घरों और दुकानों पर हमले कर रही थी, “जय श्रीराम” के नारे लगा रही थी, पेट्रोल बम फेंक रही थी, गोलियां चला रही थी.” शहनाज ने कहा, “और हां, यह सब कुछ पुलिस की मौजूदगी में हो रहा था. उसने उन स्थानीय लोगों जो “अपने मुस्लिम समुदाय की निगरानी” कर रहे थे, उनको गिरफ्तार करने के लिए पुलिस की काफी लानत-मलामत की.
नूर के मुताबिक दिल्ली पुलिस ने केवल चांद बाग से ही दो से तीन सौ मुसलमानों को पकड़ा था. “लोग-बाग मारे डर के इस बारे में अपना मुंह नहीं खोलते हैं,” उन्होंने कहा, “हम लोग खुद खौफ में हैं क्योंकि यहां कानून की हुकूमत नहीं है. मेरा भाई जेल में है, आप मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं और हम इस बात से डरे हुए हैं कि पुलिस बदला ले सकती है, मेरे भाई के साथ जेल में कोई भी अनहोनी हो सकती है.”
रुखसाना के मकान से पांच सौ से भी कम दूरी पर हार्डवेयर की अपनी दुकान में बैठे इमरान सैफी ने बिल्कुल वही आपबीती दोहराई. दिल्ली पुलिस ने उनके भाई मेहराबान अली को उठाया और उन पर वजीराबाद रोड पर एक वाहन जलाने का आरोप चस्पां कर दिया. जमरीन के मामले की तरह की पुलिस ने मेहरबान को भी सीसीटीवी के फुटेज के बिना पर पकड़ लिया, जिसमें उस वजीराबाद रोड के चौराहे, जहां से एक लेन चांद बाग को जाती है, वहां एक डंडा पकड़े उन्हें दिखाया गया था.
“इसमें क्या गलती थी हमारी?” सैफी पूछते हैं. “क्या हिंसक भीड़ को अपने घरों के बाहर रोक देने के लिए हम एक डंडा तक नहीं रख सकते?” उन्होंने जोर देकर कहा कि 24 फरवरी की रात को चांद बाग के मुसलमानों ने कोई “सैकड़ों कॉल” किये होंगे, लेकिन सब बेकार. हम लोगों को कोई मदद नहीं मिली.
“हमारी एक भी दुकान का बाल बांका इसलिए नहीं हुआ कि हम सब हाथों में डंडा लिए उसकी हिफाजत कर रहे थे. लेकिन तब हम नहीं जानते थे कि इस डंडा रखने की हमें इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी,”उन्होंने कहा कि चांद बाग में इस 25 फुट रोड पर बनी दुकानें अधिकतर मुसलमानों की हैं, इस गली में हिंदुओं की दुकानें छह से ज्यादा नहीं होंगी. उनकी दुकानों की भी हिफाजत स्थानीय मुसलमानों ने की.
सैफी ने कहा कि मेहरबान को दयालपुर पुलिस थाने में 9 जून को तलब किया गया और उनके मकानों के बाहर लगे सीसीटीवी के फुटेज को उन्हें दिखाया गया. सैफी भी अपने भाई के साथ थाने गए थे. “जब मैंने अपने भाई के कसूर के बारे में पूछा तो उन्होंने मुझे भी धमकी दी,” उन्होंने कहा. “इसके दो दिन बाद मुझे एफआइआर की कॉपी थमा दी गई, जिसमें कहा गया था कि 24 की रात को दंगों के दौरान ही एक ट्रक फूंका गया था”. तब मुझे समझ में आया कि मेरे भाई को क्यों पकड़ा गया है. एफआइआर में आरोपित व्यक्तियों के कॉलम को यों ही कोरा छोड़ दिया गया था.
सैफी ने खुलासा किया कि मेहरबान पोलियोग्रस्त हैं और वे दूर तक चल भी नहीं सकते. इसलिए “मेन वजीराबाद रोड, जहां वाहन को फूंका गया, वहां तक उनके जाने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता”, उन्होंने कहा. “हमारे कॉल रिकार्ड देख लें, हमारे फोन का उस वक्त का लोकेशन देख लीजिए. यह सब जिस वक्त हो रहा था, हम अपनी लेन की हिफाजत में लगे थे, असहाय होकर पुलिस को कॉल कर रहे थे, जो कभी नहीं आई.” सैफी ने आगे कहा, “रोज का काम है, लड़के बाहर निकलने से डरते हैं.”
जब हम मेहरबान के वकील नासिर अली से मिले तो उन्होंने हमें चार एफआइआर दिखाते हुए चांद बाग इलाके से पुलिस द्वारा मनमाना तरीके की गई गिरफ्तारी की बात कही. उन्होंने बताया कि इन चारों मामलों में जिनको आरोपित किया गया है, वे सब के सब मुसलमान युवक हैं. उनकी गिरफ्तारियां सीसीटीवी फुटेज के बिना पर की गई हैं, जो चांद बाग के 25 फुट रोड मार्केट के गली नंबर 11 के कैमरे से मिली है. लेकिन यह एफआइआर वजीराबाद रोड पर दूसरी घटना के बाबत है, जो यहां से 250 से लेकर 800 मीटर दूर है और जिसकी सीसीटीवी कैमरे के फुटेज में अभियुक्त की फोटो दिखाई गई है.
एक एफआइआर में गिरफ्तार लोगों में हबीब अहमद को 24 फरवरी को किसी सलीम की दफ्तर में आग लगाते हुए आरोपित किया गया है. अहमद को एक कांस्टेबल की तरफ से उन्हें दोषी के रूप में शिनाख्त किय़े जाने के बाद 14 जून को गिरफ्तार किया गया है और उन्हें 19 जून को जमानत पर रिहा किया गया था.
अहमद की जमानत पर आर्डर करते हुए एडीशनल सेशन जज विनोद यादव का आकलन था कि इस मामले में एफआइआर का अवलोकन मात्र पर्य़ाप्त है कि वह जगह जहां पर याचिकाकर्ता को दंगा करते देखा गया है, वह बिल्कुल अलहदा है. सीसीटीवी फुटेज और इस केस में दर्ज की गई घटना का आपस में कोई संबंध बैठाना मुश्किल है. “जहां तक पुलिस कांस्टेबल सुनील का याचिकाकर्ता की शिनाख्त किए जाने का संबंध है तो इसका भी कोई मतलब इसलिए नहीं है कि वह 24 फरवरी 2020 से लेकर 14 जून 2020 तक क्यों प्रतीक्षा करता रहा और उसने पुलिस को तब जानकारी क्यों नहीं दी थी?”
नासिर ने कहा कि ऐसे बहुत सारे मामले हैं जिनमें कई सारे मुसलमानों को केवल मुसलमानों की परिसंपत्तियों को नुकसान पहुंचाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. इनमें से बहुतों की सीसीटीवी फुटेज या घटनास्थल पर किए गए अपराधों का कोई वीडियो नहीं है और पुलिस ने उन्हें फंसाने के लिए किसी दूसरी जगह की फुटेज का इस्तेमाल किया है.”
नासिर ने कहा कि 25 अगस्त को ही ऐसे कई मुकदमों में फंसे 70 लोगों की जमानत करानी पड़ी थी.
खजूरी खास और मुस्तफाबाद में भी पुलिस ने सीसीटीवी के फुटेज में डंडा पकड़े मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया था और बाद में उन्हें एवं उनके परिवार को बताया गया कि इन युवकों को दंगा फैलाने के मामले में गिरफ्तार किया गया है.
खजूरी खास के ही मोहम्मद सुलेमान को ऐसे ही सीसीटीवी फुटेज के आधार पर गिरफ्तार कर लिया गया था और बाद में उन पर संजार चिकन कॉर्नर में आग लगाने का गुनाह चस्पा कर दिया गया था. दुकान के मालिक मुमताज और सुलेमान के पुराने दोस्त सुलेमान के साथ ही थे, जब हम उनसे गुफ्तगू कर रहे थे.
“हम हाथों में डंडे लिए भीड़ के हमले से अपनी गली की हिफाजत में खड़े थे और मुझे इस मौके के वीडियो के आधार पर पुलिस ने पकड़ लिया था,” सुलेमान ने हमसे कहा. मुमताज ने भी कहा कि उनका दोस्त बेकसूर है. उन्होंने सुलेमान के खिलाफ आरोप को “फर्जी” बताया. उन्होंने जोर देकर कहा जिन लोगों ने उनकी दुकान फूंकी, वे मुस्लिम नहीं थे बल्कि वे पास के शेरपुर गांव के गुर्जर थे.
दिल्ली पुलिस के स्पेशल कमिश्नर इंटेलिजेंस रवि रंजन ने इस हिंसा के मामले की जांच करने वाले अधिकारी को जुलाई में लिखा था कि इस मामले में हिंदू युवकों की गिरफ्तारी के बाद “हिंदू समुदाय में असंतोष है”. रंजन ने उन्हें “अधिक सतर्कता और सावधानी से काम करने” और उन्हें अपने सहकर्मियों “उपयुक्त” मार्गदर्शन करने का निर्देश दिया. इस संदेश को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी जिसने पुलिस को उसे नजरअंदाज करने का ऑर्डर दिया और यह ताकीद की कि कोई भी जांच पूर्वाग्रह रहित होकर किया जाए. इस बारे में जानने के लिए रंजन के दफ्तर में हमारी तरफ से किए गए फोन कॉल और मैसेज का कोई जवाब नहीं आया.
इन सभी मामलों में मुस्लिमों को मुकदमों में फंसाये जाने का डर मन में बैठाने, जाहिराना तौर पर गिरफ्तारियों में भेदभाव के साथ कई मुसलमानों पर उनकी शिकायतें वापस लेने के लिए पुलिस द्वारा दबाव बनाया जा रहा है.
सबीर अली, जिन्होंने चांद बाग इलाके में प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध हमले में पुलिस और मोहन नर्सिग होम की भूमिका की शिकायत की है, अपने इन ब्योरे के आधार पर एफआइआर दर्ज करने के लिए हिंसा थमने के बाद से लेकर कितने प्रयास किये, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. उन्होंने कहा, इस वक्त पुलिस उनके बेटे को पकड़ कर ले गई और रात भर हाजत में रखा. उसके फोन छीन लिए, जिसमें उसने हिंदू भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा के वीडियोज बना रखे थे. हमलों से वे पहले से ही जूझ रहे थे, जून में उन्हें ऑपरेशन कराना पड़ गया. इसी परिस्थिति में उनके बेटे ने मुकदमा वापस लेने के लिए उनसे आरजू की. अली ने कहा, “हमारे बेटे ने पुलिस को लिख कर दे दिया कि हम अपनी शिकायत वापस लेना चाहते हैं.”
इमराना परवीन जिन्होंने चांद बाग में पुलिस की बर्बरता की शिकायत की थी, जून में कारवां से बातचीत में कहा कि वह हिंसा को लेकर आज भी दहशत में हैं. “अगर मैं उस मंजर को याद करूं तो मैं जार-जार रोये बिना नहीं रह सकतीं.”उन्होंने कहा, “मैंने सब कुछ अपने सामने घटते देखा है, गोलियां खाए लोग, जिनके सर बुरी तरह फट गए थे, और बुरी तरह पीटी जातीं वे औरतें.” वह दो महीनों तक रात में सो नहीं पाई थीं, परवीन ने बताया कि वह अब भी खौफजदा हैं.
बातचीत के दौरान वे अपने इरादों में मजबूत दिखी थीं और एफआइआर दर्ज कराने के लिए लगातार जोर देती रही थीं. उन्होंने कहा, “मैंने उन्हें जता दिया है कि मैं अपनी शिकायत वापस नहीं लूंगी. अब जो होना है हो, कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं इंसाफ की मांग करती रहूंगी.”
लेकिन अगस्त के मध्य आते-आते उनका इरादा फेल हो गया. परवीन की दोस्त और पड़ोसी रुबिना बानो ने हमें बताया कि परवीन ने अपनी शिकायत को आगे न बढ़ाने का फैसला किया और वह उनका पड़ोस छोड़ कर उत्तर प्रदेश में अपने गांव को लौट गईं. जब हमने परवीन को फोन किया लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
दूसरी ओर, नौ महीने की गर्भवती बानो हैं, जो डराये-धमकाए जाने के बावजूद चांद बाग हिंसा मामले में अपनी शिकायत को आगे बढ़ाने पर आज भी अडिग हैं. 22 अगस्त को उनकी एक पड़ोसन ने बानो को कॉल किया कि पुलिस उनके घर पर आई है और उनके 14 साल के बेटे के बारे में पूछताछ कर रही है. वह अपनी बहन के साथ भागी-भागी घर आईं. “मैं पुलिस वालों से उलझ गई. उनमें से एक वर्दी में था, जबकि दो सिविल ड्रेस में, जो मेरे भतीजे को ले जाने के लिए किसी तरह के कागजात की मांग रहा था,” बानो की बहन ने कहा. बानो ने कहा कि पुलिस ने घर के बाहर लगे सीसीटीवी से खिंची गई एक तस्वीर दिखाई, जिसमें उनके बेटे और कजिन क्रिकेट के बैट और विकेट लिए हुए हैं.
“पुलिस ने मुझे गिरफ्तार करने की धमकी दी और कहा कि अगर मैंने अपने बेटे को उनके हवाले नहीं किया तो वे उसके गर्भवती होने का भी ख्याल नहीं करेंगे,” बानो ने कहा, “मुझे सुरक्षा के साथ-साथ मीडिया एवं मेरे वकील के सहयोग की जरूरत है. मुझे जब भी जरूरत हो, इन्हें मेरी मदद के लिए हाजिर होना चाहिए; यहां तक कि इमरजेंसी में भी.”
यद्यपि बानो की आवाज मद्धिम थी फिर भी उन्होंने कहा, “मैं झुकुंगी नहीं. मैं अपनी लड़ाई जारी रखूंगी. न केवल अपने बेटे की खातिर बल्कि हमारे आसपास के सभी बच्चों और उन महिलाओं की हिफाजत के लिए, जो मेरे साथ खड़ी रही हैं.”
मोहम्मद इलयास जिनकी शिकायत में कपिल मिश्रा की हिंसा में संलिप्तता की बात की गई है और जिसमें तारकेश्वर सिंह को लूटी गई रकम सत्य पाल सिंह के घर पहुंचाने का निर्देश देते हुए सुना गया है, अब उन्हें और उनके परिवार को नतीजा भुगतने की धमकी दी जा रही है. उन्होंने बताया कि 12 अगस्त को पुलिस उनके अब्बा के घर पर आई थी. मेरे भाइयों मोहम्मद खालिद और मोहम्मद एजाज को सम्मन देने की कोशिश की थी. यह नोटिस उन्हें एफआइआर-59 में धारा-43 एफ का उपयोग करते हुए दी गई थी, जिसमें पुलिस को जांच के लिए जरूरी सूचनाएं इकट्ठा करने के लिए किसी व्यक्ति को थाने बुलाने का अधिकार है.
इलयास के मुताबिक उस समय उनके दोनों भाई देहरादून में थे और उनके अब्बा ने अपने बेटों की तरफ से नोटिस लेने से इनकार कर दिया था. पुलिस ने दोनों भाइयों को अलग-अलग जारी की गई नोटिस को उसके दरवाजे के बाहर चिपका दिया था और स्पेशल सेल के समक्ष 14 अगस्त को पेश होने के लिए कह कर चली गई थी. इलयास ने कहा कि उनके दोनों भाइयों ने अपने वकील के माध्यम से भेजे गए जवाब में आने में असमर्थता जताई थी.
इलयास ने हमसे कहा, “पुलिस चाहती है कि मैं उसके खिलाफ की गई शिकायत वापस ले लूं. मुझे काफी समय से पुलिस थाने से भी इस तरह के मैसेज मिलते रहे हैं, जिसमें मुझसे कहा जाता रहा है कि मिल बैठकर मामले को निपटा लूं.” उसने कहा कि पिता के घर पर नोटिस चिपकाने से एक दिन पहले क्राइम ब्रांच ने उन्हें भी बुलाया था. वे नहीं गए. इलियास ने कहा कि उन्होंने अपने वकील के माध्यम से कहलवा दिया “वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के चलते व्यक्तिगत मौजूदगी तभी संभव है कि जो स्टाफ मुझे बुलाना चाहते हैं, मेरे जानने वाले हों और उनका कोविड-19 का टेस्ट करा लिया गया हो.”
समीना भी अपनी शिकायत वापस लेने के लिए पुलिस का दबाव झेल रही हैं, जिन्होंने अपनी शिकायत में चांद बाग के प्रदर्शनकारियों को पुलिस द्वारा धमकाने के बारे में लिखा है और बीजेपी नेता जगदीश प्रधान का नाम लिया है. “शिकायत दर्ज कराने के बाद से ही पुलिस वाले मेरे घर आते रहे हैं और धमकियां देते रहे हैं,” उसने कहा,” वे हर दूसरे-तीसरे दिन आ धमकते रहते हैं.”
जून के उत्तरार्ध में समीना ने कड़कड़डूमा जिला अदालत में पुलिस सुरक्षा देने के लिए अर्जी दी. उसने कहा कि अदालत ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसी द्वारा मुझे नुकसान न पहुंचाया जाए, एक महिला पुलिस अधिकारी को रोजाना मेरे घर जाने का आदेश दिया. “लेकिन तब से कुछ भी नहीं हुआ,” समीना ने कहा, “ न तो मुझे कोई कॉल ही आया और न महिला पुलिस ही उसके घर आई.” उसने कहा कि मार्च में शिकायत करने के बाद से अब तक पुलिस ने मेरे एफआइआर दर्ज करने के बाबत एक लफ्ज़ भी नहीं कहा है. समीना ने कहा कि पुलिस ने एक अगस्त को ईद के रोज उसके शौहर से संपर्क किया था. उनसे कहा था, “आज तो तुम ईद मना सकते हो, लेकिन हम तुम्हें और तुम्हारी बीवी को कल उठा लेंगे. लिहाजा, उससे अपनी शिकायत वापस लेने के लिए कहो.”
हमने 22 अगस्त को जब समीना से आखिरी बार बातचीत की तो समीना ने कहा कि पुलिस उनके घर अभी चार रोज पहले ही आई थी और उनसे शिकायत वापस लेने के लिए कह रही थी. समीना ने हमसे कहा, “ उनका काम है ही हमें डराना और धमकाना, लेकिन मैं उनसे डरी हुई नहीं हूं. जब भी बात करनी होती है, मैं उनके पास जाती हूं.” लेकिन समीना अपने डर को नहीं छिपा सकीं “मैं इससे खौफजदा हूं कि वह मेरे पीछे में मेरे शौहर को उठा ले जाएंगे.” उन्होंने कहा, “मैं उन्हें अपनी नजरों से हटने नहीं देती हूं. मैं उन्हें छोड़ती क्योंकि वे उन्हें या मेरे 17 वर्षीय बेटे या मेरे दो छोटे-छोटे बच्चे को उठा ले सकते हैं.”
कुछ शिकायतकर्ता को अपने दूसरे बाशिंदों से धमकियां मिल रही हैं. मुमताज, जिन्होंने अपना चिकन शॉप जलते हुए देखा था और हिंसा में अपने मकान पर हमले होते देखा था, ने कहा कि वे आज भी उन लोगों से बचते चलते हैं, जिन्होंने उन पर हमले किए थे. और जिन्हें उन्होंने बीजेपी विधायक मोहन सिंह बिष्ट के सहयोगी के रूप में शिनाख्त की थी. “आज भी अगर मैं बाहर निकलता हूं, तो वे मेरे पास आ जाते हैं, डरावने अंदाज में मुझे घूरते हैं, और कहते हैं, अभी तो मैंने तुम्हारा केवल घर जलाया है. अब हम तुम्हारी बोटी-बोटी काटेंगे.”
मुमताज ने कहा- “मैं उन सभी को जानता था क्योंकि चुनाव के दरमियान विधायक खुद हमारे पास आते थे और हमसे वोट मांगे थे,” उन्होंने बताया-“सभी मुझे जानते हैं, विधायक मुझे जानते हैं और जिन्होंने मुझ पर हमला किया, वह भी मुझे जानते हैं.”
हिंसा के कुछ हफ्ते पहले जब दिल्ली विधानसभा चुनाव का प्रचार चल रहा था, “बिष्ट के सहयोगी हमारे पास आए थे और कहा कि हमें इस बार इन्हें विधायक बनाना है,” मुमताज ने याद करते हुए बताया. “मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि हमारे समुदाय के लोग उनको वोट देंगे”. मुमताज ने बिष्ट और उनके सहयोगियों को चुनाव प्रचार करने के लिए अपने मकान में एक कमरा तक दिया था.
विधायक भी इस बात को जानते हैं कि इस गली का एक भी वोट किसी दूसरे को नहीं जाकर केवल उन्हें ही मिले हैं.” मुमताज ने कहा कि “इसके बावजूद वे हिंसा बाद यह जानने के लिए हमारे पास एक दिन के लिए भी नहीं आए कि हम लोगों पर क्या गुजरी है.”
हमने मुमताज से पूछा कि क्या वे हमले के बाद बिष्ट से मिलने गए थे. “इस जख्म देने वाली घटना के बाद मैं उनसे क्या कहने जाता?” उन्होंने जवाब दिया. “और जब मैंने अपनी आंखों से हमारे घर पर बम फेंकते हुए देखा था, ऐसे में मैं क्या मुंह लेकर उनके पास जाता और कैसे उनसे मदद मांगता?”
मुमताज की अम्मी बीच अगस्त में गुजर गईं. उनकी उम्र महज 50 साल थी. मेरी अम्मी तंदुरुस्त थी. दंगा होने के बाद उन्होंने देखा कि जो कुछ भी कमाया था और अपने बच्चों के लिए बचाया था, वह सब का सब बर्बाद हो गया. इसी कश्मकश में अम्मी बीमार पड़ गईं. वह दंगे का सदमा नहीं झेल पाईं और मरने से पहले ज्यादा बीमार होती चली गईं. मुमताज के घर-बार को देखकर जिंदगी की जद्दोजहद साफ दिखती है. “हम यहां रहने लायक नहीं रह गए हैं,” उनके भाई ने कहा, “अब तो जीने के लिए कोई सहारा भी नहीं बचा. अगर हम बाहर जाते हैं, तो हमें लोगों की आवाजें सुनाई देती हैं-‘तुम अभी इंतजार करो. मैंने सिर्फ तुम्हारा घर जलाया है. अब हम तुम सबको काटेंगे.’ ऐसे माहौल में कौन यहां रहना चाहेगा?”
मुमताज के अस्सी साल के बुजुर्ग अब्बा मोहम्मद जहीर भी इसी तरह की डूबती आवाज में कहते हैं, “अब यहां रहना बेहद कठिन है. हम इस कदर खौफ में रहते हैं कि रात की नींद मुहाल हो गई है. अगर हम सड़क पर निकलते हैं तो हमें किसी का कहा सुनाई दे जाता है, ‘सालों अभी तो सिर्फ तुम्हारा घर फूंका है. अब हम तुम्हें एक-एक कर काटेंगे. तुम अपने घर को फिर से बना लो, सजा लो, जो तुम करना चाहो कर लो. लेकिन हम तुम्हें काट डालेंगे.”
जहीर ने हमसे कहा कि इस इलाके में वे लगभग 50 वर्षो से रहते आए हैं और इसके पहले अपने पड़ोसियों को ऐसा सलूक करते हुए कभी नहीं देखा था जैसा उन्होंने हम लोगों के साथ फरवरी में किया. “यहां हर कोई हमें जानता है, हमारे परिवार को जानता है,” उन्होंने कहा, “लोग हमारे घर आते थे और हम सभी उनके यहां जाते थे. एक परिवार मालूम पड़ता था. मैं नहीं जानता कि कैसे उनके दिलों में इतनी नफरत भर गई थी और कब से वह हम सब से इतनी घृणा करने लगे थे.”
“पिछले 40 सालों में उन्होंने जो कुछ भी कमाया था, वह सब इस घर में लगा दिया था,” जहीर ने कहा. फिर उन्होंने अपनी बीवी को याद किया : जब यह घर जला तो उनका जो कुछ जमा-जोड़ा हुआ था, सब इसमें खाक हो गया. इस घर के जलने से जो उन्हें सदमा पहुंचा, उससे जद्दोजहद करतीं, वह भी गुजर गईं. जो कुछ भी हमने पूरी जिंदगी में कमाया था, वह सब बर्बाद हो गया.”
80 वर्षीय बुजुर्ग जहीर ने कहा, 25 फरवरी को जब बिष्ट ने उनके परिवार के मकान पर बम फेंक था और चले गए थे. तब हिंसक हिंदू भीड़ ने यहां हमला कर दिया था. देर से आई पुलिस ने यहां के बाशिंदों को हिफाजत की गरज से सुरक्षित जगह ले गई. सब के चले जाने के बाद उनका मकान खाली पड़ गया. जहीर ने याद किया, “हमारे पास एक कुत्ता था- बंटी. आधे घंटे तक वह किसी को भी मेरे घर में घुसने नहीं दिया.” लिहाजा, उन लोगों ने उसे 2 गोलियां मार दी. “आखिर बंटी ने उनका क्या बिगाड़ा था?” गोली लगने के बाद वह दूसरी मंजिल पर भाग गया, जहां हम रहते थे और वहीं उसने दम तोड़ दिया. मुमताज जो अपने अब्बा के बोलने के वक्त चुप था, उसने यह कहते हुए अपनी चुप्पी तोड़ी, “मैं तो बस यह कहूंगा जो जानवर था, उसने वफादारी करी और जो इंसान थे, उन्होंने गद्दारी करी.”
(कारवां अंग्रेजी के सितंबर 2020 में प्रकाशित कवर स्टोरी का यह हिंदी अनुवाद डॉ विजय कुमार शर्मा ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)