गीता के जरिए जातिवादी और ब्राह्मणवादी विचारों को पुन: स्थापित करने की मोदी की कोशिश

26 फरवरी 2019 को दिल्ली के इस्कॉन मंदिर में तीन मीटर लंबी भगवद् गीता का अनावरण करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी. पिछले सात वर्षों में मोदी सरकार ने दुनिया भर में हुए विभिन्न आयोजनों, सरकारी कार्यक्रमों और प्रकाशनों के माध्यम से गीता को भारत और पूरे विश्व की परेशानियों के लिए रामबाण के रूप में प्रचारित करने में काफी काम किया है. पीआईबी
23 November, 2022

9 मार्च 2021 को अपने आवास पर भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से खचाखच भरे कमरे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाषण देते हुए कहा, "भगवद् गीता भारत में वैचारिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता की परंपरा का एकमात्र स्रोत रही है. इसने महाभारत के समय से हमारे देश का मार्गदर्शन किया है." टेलीविजन पर व्यापक रूप से प्रसारित किए गए इस संबोधन के बाद मोदी ने जम्मू और कश्मीर में स्थित हिंदू धार्मिक मान्यताओं का प्रचार करने वाले धर्मार्थ ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किया गया 21 नए व्याख्यानों का एक संग्रह जारी किया. मोदी बीच-बीच में लंबे समय तक विराम लेते हुए बोले जिससे उनकी भाषा पुरातन संस्कृत और हिंदी के शब्दों से युक्त लगे. मार्च के मध्य तक प्रधानमंत्री की दाढ़ी लंबी और अधिक सफेद दिखने लगी थी. और यह पूरा भेष टेलीविजन पर आने वाली हिंदी पौराणिक कहानियों की पहचान बन चुके बूढ़े ऋषियों के चित्रण से बहुत अधिक मेल खाता है. इसका मकसद साफ तौर पर दिख रहा था कि मोदी की छवि एक आर्थिक सुधारक और तेजतर्रार राष्ट्रवादी नेता से ब्राह्मणवादी दार्शनिक के रूप में परिभाषित होने वाले एक बदलाव के दौर से गुजर रही थी.

हालांकि 9 मार्च के पूरे भाषण को ध्यान से देखने से पता चलता है कि यह केवल एक दार्शनिक या अकादमिक प्रयोग भर नहीं था. मोदी अपने भाषण में कई बार तेजी से आत्मनिर्भर भारत अभियान के सत्यापन पर बात करने लगते जो गीता के संदर्भ में कही और इसके आधार पर न्यायोचित ठहराई गई थी. कारवां के लिए लिखे गए आत्मनिर्भर भारत अभियान पर मेरे निबंध में मैंने तर्क दिया कि इस नीति का उद्देश्य कोयला और कृषि जैसे सार्वजनिक संसाधनों का निजीकरण करना और कानून में बदलाव करके बैंकिंग क्षेत्र को नियंत्रित करने की कोशिश है. उस निबंध में यह भी बताया गया है कि कैसे मोदी की आर्थिक योजना, जो उनकी नीतियों पर एक सहनशील प्रभाव रखने वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी योजना है, का उद्देश्य जाति के आधार पर एक मजबूत आर्थिक व्यवस्था बनाने और सामाजिक व्यवस्था चतुर्वर्ण व्यवस्था में ढालने का है. एक सामाजिक व्यवस्था जिसका अंतिम लक्ष्य ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को विशेषाधिकार और छूट देना, स्त्रियों और शूद्रों को नीचा दिखाना, किसी की योग्यता को उसके जन्म से जोड़ना, विभिन्न जातियों के बीच एक असामाजिक भावना को कायम रखना और श्रेणीबद्ध असमानता की एक प्रणाली बनाना है.

 9 मार्च को दिया मोदी का भाषण कश्मीर में लोकतंत्र को लेकर भारत सरकार द्वारा की गई कार्रवाई और मोदी के हिंदू राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के विरोधियों को बदनाम करने जैसी अन्य राजनीतिक योजनाओं के औचित्य से भी भरा था. मोदी की निजी वेबसाइट पर दिए गए एक समाचार अपडेट के अनुसार, "इस अवसर पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने धर्मार्थ ट्रस्ट के अध्यक्ष डॉ. कर्ण सिंह द्वारा भारतीय दर्शन पर किए गए कार्यों की सराहना की. उन्होंने कहा कि “उनके प्रयास ने सदियों से पूरे भारत की विचारिक परंपरा का नेतृत्व करने वाली जम्मू-कश्मीर की पहचान को पुनर्जीवित किया है." इसे मोदी सरकार द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक विनाश को लेकर कश्मीरियों के बीच फैले डर की पृष्ठभूमि के विरोध में देखा जाना चाहिए, जिसने जम्मू और कश्मीर को स्वायत्तता को सीमित कर दिया.

मोदी शासन से नाखुश अन्य विरोधियों के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा, "आज हमारे आस-पास ऐसे लोग हैं जो हमेशा संवैधानिक संस्थानों की गरिमा को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं." उन्होंने आगे कहा, "चाहे हमारी संसद हो, न्यायपालिका हो, या यहां तक ​​कि भारतीय सेना हो यह सभी ऐसे लोगों के निशाने पर हैं. वे अपने राजनीतिक हितों के लिए इन संस्थाओं पर हमला करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. इस तरह की प्रवृत्तियां देश को नुकसान पहुंचाती हैं." इस बात से पहले और बाद में दोनों बार मोदी ने गीता के दर्शन के संदर्भ में ऐसे लोगों द्वारा की गई अपनी आलोचना को सही ठहराया. पूरे भाषण में यही पैटर्न जारी रहा.

 गीता की सार्वभौमिकता का उल्लेख और उसके बाद मोदी की नीतियों का विज्ञापन और उनके विरोधियों द्वारा की गई आलोचना दोनों को गीता के आधार पर उचित ठहराया गया. मोदी सरकार ने पिछले सात वर्षों में विभिन्न आयोजनों, सरकारी कार्यक्रमों और प्रकाशनों के माध्यम से भारत के साथ-साथ दुनिया की सभी समस्याओं के रामबाण के रूप में भगवद् गीता के विज्ञापन, प्रचार में काफी निवेश किया है. इस निवेश को समझने के लिए गीता और अन्य ब्राह्मण ग्रंथों को आलोचनात्मक रूप से पढ़ना जरूरी है.

भारत के पहले कानून मंत्री बीआर आंबेडकर द्वारा लिखी गई ऐतिहासिक साहित्य के स्रोत के रूप में गीता, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति और वेदों जैसे ब्राह्मण ग्रंथों पर आधारित रिवोल्यूशन एंड काउंटर रेवोल्यूशन इन एंशिएंट इंडिया नामक किताब उन दुर्लभ शोधों में से एक है जिसमें इन ऐतिहासिक ग्रंथो को एक पूरा सत्य मानने के बजाए उनका विश्लेषण किया गया है. आंबेडकर इतिहास और समाजशास्त्र के विद्वान भी थे और उन्होंने संस्कृत के स्रोतों और यूरोपीय इतिहासकारों द्वारा भारतीय इतिहास को लेकर उनकी विद्दता दोनों का उपयोग करके अपनी थीसिस का निर्माण किया.

आंबेडकर की थीसिस बताती है कि छठी और दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच बौद्ध धर्म एक सामाजिक क्रांति के रूप में उभरा जो एक ऐसे समाज में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व लेकर आया जो पदानुक्रमित, कुलीन और नैतिक रूप से भ्रष्ट था. इस अवधि के दौरान बौद्ध धर्म भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश लोगों का प्रमुख धर्म बन गया और ब्राह्मणवाद को एक दर्शन के रूप में न देखकर केवल अनुष्ठानों और गहरे भेदभावपूर्ण कानूनों के एक कमजोर संग्रह के रूप में देखा गया.

185 से 149 ईसवी पूर्व के बीच पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल को अक्सर ब्राह्मण राजा द्वारा चलाया गया पहला शासन काल माना जाता है और उसी समय विभिन्न कानूनों जैसे हिंदू धर्म में जाति, लिंग आधारित व्यवहार और दंड को परिभाषित करने वाली मनुस्मृति के कानूनों को लागू करने बाद से उत्तरी भारत में रूढ़िवादी ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना देखी गई. आंबेडकर ने तर्क दिया कि बौद्ध धर्म के खिलाफ इस जवाबी क्रांति को वैध ठहराने के लिए पुष्यमित्र को गीता की आवश्यकता पड़ी, जो स्वयं बौद्ध दर्शन से साहित्यिक चोरी के आधार पर बनी थी, ताकि ब्राह्मणवाद के कमजोर कर्मकांड और भेदभावपूर्ण संहिता को एक दार्शनिक और बौद्धिक रूप प्रदान किया जा सके.

आंबेडकर लिखते हैं कि पुष्यमित्र के बाद से ब्राह्मणवाद की रक्षा करने वाले कई अन्य नेताओं ने गीता को अपनी हिंसक और जातिवादी कार्रवाई को वैध बनाने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया. वह लिखते हैं कि कई ब्राह्मणवादी धर्मशास्त्रियों जैसे शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, निंबार्काचार्य, वल्लभाचार्य और 1900 के दशक की शुरुआत से कांग्रेस के नेता बाल गंगाधर तिलक ने इसी तरीके का इस्तेमाल किया. मैंने मोदी के राजनीतिक जीवन और उनकी सरकार में गीता की भूमिका को समझने के लिए आंबेडकर की थीसिस का प्रयोग किया. मेरे अध्ययन से पता चला कि पहले के कईं लोगों की तरह मोदी को गीता को लोकप्रिय बनाने की आवश्यक्ता है क्योंकि यह उन नीतियों को वैध ठहराने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है जिनसे हिंसक, अलोकतांत्रिक, वर्गीय और जातिवादी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश की जाती है. जिस तेजी के साथ मोदी सरकार ने गीता का प्रचार किया है उसे कम करके नहीं आंका जा सकता.

 उदाहरण के लिए, फरवरी 2019 में मोदी ने दिल्ली में एक समारोह में गीता की तीन मीटर लंबी और 800 किलोग्राम की प्रति जारी की. उस कार्यक्रम का प्रबंधन इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) द्वारा किया गया था, जो भगवान कृष्ण के नाम पर बना एक अंतरराष्ट्रीय पंथ है. कार्यक्रम में दिया उनका भाषण वैसा ही था जैसा उन्होंने इस साल मार्च में दिया था. मोदी ने सभी को बताया कि कैसे गीता "सारे ज्ञान का स्रोत और हमारी संस्कृति का मूल प्रतीक है." उन्होंने गीता की कल्पित सार्वभौमिकता, हिंदू धर्म और भारत में इसकी महत्ता दोनों पर लगातार जोर दिया. यहां भी उन्होंने अपनी सरकार की नीतियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर सरकार द्वारा की गई कार्रवाई को सही ठहराने के लिए गीता का इस्तेमाल किया. मोदी ने गीता के एक अंश का हवाला दिया जहां कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जब भी असुर हिंदू धर्म को नष्ट करने की कोशिश करेंगे, वह हर बार उन्हें मारने के लिए वापस आएंगे. "भगवान ने स्पष्ट रूप से कहा है कि परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे." मोदी ने आगे इन पंक्तियों का अर्थ समझाते हुए कहा, "हमारे अंदर हमेशा अपनी भूमि को दुष्टों और मानवता के दुश्मनों से बचाने के लिए ईश्वर की दी हुई शक्ति निहित होती है."

इस बात पर मोदी के सामने बैठे दर्शक हंस पड़े. उन्होंने विशेष रूप से उन राक्षसों के नाम नहीं लिए जिनसे वह लड़ रहे थे, लेकिन हर कोई समझ गया था. भीमा कोरेगांव गांव में ब्राह्मण शासित मराठा साम्राज्य के खिलाफ दलित बटालियन की सैन्य जीत की याद में आयोजित एक कार्यक्रम के बाद, दलित कार्यकर्ताओं की हालिया गिरफ्तारी के बारे में टिप्पणियों को इशारा बतौर देखना मुश्किल नहीं है. मोदी ने असुर शब्द का इस्तेमाल ऐसे समय में किया जब देश भर के आंबेडकरवादी कार्यकर्ता खुद को अपने देश में विरोधियों के निशाने और ब्राह्मणवाद के ऐतिहासिक विरोधी के रूप में बता रहे हैं.

इस साल 9 मार्च को हुए इस आयोजन से एक हफ्ते पहले नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग ने "भारतीय ज्ञान परंपरा" नामक से तीसरी, पांचवीं और आठवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में गीता, रामायण और वेदों को शामिल किया. यह पाठ्यक्रम उन 40 लाख से अधिक छात्रों पर लागू होगा जो केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओपन स्कूलिंग प्रणाली के तहत नामांकित हैं, जिनमें 100 मदरसे भी शामिल हैं. बीजेपी शासित हरियाणा और मध्य प्रदेश के राज्य स्कूल पाठ्यक्रम में गीता को कहीं पर पूरी तरह तो कहीं आंशिक तौर पर शामिल किया गया है. 2016 के बाद से हरियाणा सरकार सरकारी खर्चे पर हर साल दिसंबर में एक सप्ताह के लिए गीता महोत्सव मनाती है. भारत की सीमा से बाहर और यहां तक की इस पृथ्वी की सीमा तक मोदी ने गीता के दूत के रूप में अपनी भूमिका को बहुत गंभीरता से ले लिया है. मोदी ने गीता की प्रतियां संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति और जापान के सम्राट जैसे अन्य देश के नेताओं को आधिकारिक राजनयिक यात्राओं पर उपहार में दी हैं. फरवरी 2021 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने अंतरिक्ष यान के ऊपरी पट्टी पर उकेरी गई मोदी की एक तस्वीर के साथ गीता की एक डिजीटल प्रति भी अंतरिक्ष में भेजी थी. इसपर उपग्रह को बनाने वाले संगठन ने कहा, "यह पीएम की आत्मानिर्भरता को लेकर की गई पहल और अंतरिक्ष में भी पहचान के लिए एकजुटता और कृतज्ञता दिखाने के लिए किया गया है." 2014 में तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा गीता को भारत की राष्ट्रीय पुस्तक घोषित किए जाने की बात कहने के बाद से विदेश संबंधों के मामले में गीता का प्रचार करना और गीता को तौहफे में देना लगभग एक अलिखित नियम बन गया है.

गीता की सार्वभौमिकता और ऐतिहासिकता दोनों के बारे में मोदी के दावे जांच के दायरे से परे हैं. 9 मार्च को अपने आवास पर हुए कार्यक्रम में मोदी ने दावा किया कि गीता एक बहुत पुरानी किताब है और यह युद्ध के मैदान के बीच में लिखी गई थी. यह बात किसी भी ऐतिहासिक सबूत में दिखाई नहीं पड़ती. गीता एक युद्ध के दौरान एक योद्धा और उसके सारथी के बीच होने वाली बातचीत पर आधारित है, जब योद्धा संपत्ति को लेकर अपने ही रिश्तेदारों को मारने पर दुविधा में पड़ जाता है. आंबेड़कर लिखते हैं कि हिंदुओं का ऐसा विश्वास रखना कि उनका पवित्र साहित्य बहुत पुराना है, वास्तव में वह आस्था पर आधारित चीज के अलावा और कुछ नहीं है. आंबेड़कर अपनी किताब क्रांति में तर्क देते हैं कि गीता एक ही लेखक द्वारा लिखी गई पुस्तक नहीं है, बल्कि यह विभिन्न लेखकों द्वारा अलग-अलग समय पर लिखी गई कई पुस्तकों का संग्रह है. ऐतिहासिक साबूतों के आधार पर उन्होंने तर्क दिया कि गीता की रचना 400 से 467 ईसा पूर्व के बीच हुई होगी. वर्तमान समय में कई ऐतिहासिक अध्ययन गीता के लेखकों और समय अवधि से जुड़े उनके तर्क का समर्थन करते हैं. आंबेड़कर के अनुसार गीता मूल रूप से भाइयों के बीच हुए युद्ध पर कवियों द्वारा सुनाई गई बस एक गीतगाथा है. वह लिखते हैं, "यह एक रूमानी कहानी हो सकती है लेकिन इसमें धार्मिक या दार्शनिक होने जैसा कुछ भी नहीं है." पुस्तक का एक प्रमुख भाग और गीता का मुख्य आधार ब्राह्मणवादी सिद्धांत, की रचना 200 से 467 ईसा पूर्व के बीच की गई थी. जिसके बाद से उत्तर भारत में बौद्ध धर्म के पतन की शुरूआत हुई.”

प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति, भारत के पहले कानून मंत्री, बीआर आंबेडकर द्वारा किए उन दुर्लभ शोधों में से एक है, जिन्होंने ऐतिहासिक साहित्य के स्रोत के रूप में विश्लेषण के लिए न कि भगतवोपदेश के लिए गीता, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति और वेदांत जैसे ब्राह्मणवादी ग्रंथों का अध्ययन किया.

आंबेड़कर अपने लेखन में गीता से जुड़ी समय अवधि को ब्राह्मणवाद की सफलता के रूप में संदर्भित करते हैं. यह काल-निर्धारण संभवतः सटीक है, क्योंकि वह जैमिनी के पूर्वमीमांसा और बदरनारायण के ब्रह्म सूत्र जैसे अन्य ग्रंथों के बारे में भी बताते हैं जो 200 ईसवी पूर्व के बाद के थे और उनके सिद्धांत गीता में शामिल किए गए हैं. 624 से 185 ईसवी पूर्व के बीच बौद्ध धर्म उत्तर भारत के कई साम्राज्यों का राज्य धर्म था जिसमें नाग, नंद और मौर्य शामिल थे. आंबेड़कर तर्क देते हैं कि मौर्य और नंद शूद्र राजा थे. आधुनिक समय में इतिहास पर किए गए कई शोध भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मौर्य को उनके शासन काल के दौरान शूद्र के रूप में मान्यता दी गई थी, जिसमें आरके मुखर्जी का अध्ययन ‘चंद्रगुप्त मौर्य एंड हिज टाइम्स’ और एचएस कोटियाल की लिखी ‘प्रारंभिक मध्यकालीन समय के शूद्र शासक और अधिकारी’ शामिल थे. कई प्राचीन ग्रंथ और आधुनिक अध्ययन भी निष्कर्ष निकालते हैं कि नंद एक शूद्र राजा थे. आंबेड़कर के अनुसार नागा गैर-आर्य थे, हालांकि उन्होंने मौर्य और नंदों के बारे में ऐसा दावा नहीं किया. उनकी जानकारी में आर्य एक जाति नहीं बल्कि एक संस्कृति थी और केवल असुर नागा जैसे उस संस्कृति के खिलाफ विद्रोह करने वाले सही मायने में गैर-आर्य हो सकते हैं. जबकि आधुनिक ऐतिहासिक शोध जाति, नस्ल और सांस्कृतिक मूल के बीच इतना सटीक संबंध नहीं बनाते. बाकि शोधों के अलावा अमेरिकी आनुवंशिकीविद् डेविड रीच द्वारा किया गया डीएनए शोध यह दर्शाता है कि सगोत्र विवाह ने आनुवंशिक विविधता संकुचित कर दी है. रीच के शोध के मुताबिक वर्तमान समय के ब्राह्मणों की तुलना में उत्पीड़ित जातीय समुदायों के मध्य एशियाई स्टेपी के वांशिय गुण होने की कम संभावना कम है. जो कि वह जगह है जहां से आर्यनों के आकर बसे थे.

 टोनी जोसेफ की अर्ली इंडियंस जैसी अन्य रचनाओं में भी इसी तरह के निष्कर्ष सामने आते हैं, लेकिन इसमें तर्क दिया गया है कि आनुवंशिक मिश्रण वास्तव में मौर्य साम्राज्य के पतन की अवधि के आसपास समाप्त हो गया था जिसे आंबेड़कर ने ब्राह्मणवाद की सफलता कहा था. आंबेड़कर बताते हैं कि किस तरह नंद और मौर्य काल के दौरान बौद्ध धर्म का मूल सिद्धांत अहिंसा ब्राह्मणों को छोड़कर सभी के लिए जीवन जीने का एक तरीका बन गया था. उन्होंने बौद्ध धर्म को प्राचीन भारत के इतिहास में एक क्रांति कहा जो लोगों के बीच तर्कसंगत सोच का निर्माण करके समाज में शूद्रों और महिलाओं के लिए समानता लेकर आया. अपने इस वर्णन को अधिक सटीक ठहराने के लिए आंबेड़कर अशोक के शिलालेखों और अन्य समकालीन ग्रंथों सहित ऐतिहासिक अभिलेखों से विस्तृत रूप से सामने लेकर आए हैं. इस अवधि की जांच करते हुए उन्होंने आयरिश इतिहासकार विंसेंट स्मिथ द्वारा रचित भारत के ऑक्सफोर्ड इतिहास का भी उपयोग किया.

आंबेड़कर भी उस काल अवधि में ब्राह्मणवाद या आर्य संस्कृति का वर्णन करते हैं जो अंधविश्वास, बलिदान, मनुष्यों के बीच विभाजन को बढ़ावा देता है और जिसने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्गों को विशेष अधिकार दिए. साफ तौर पर यह सिद्धांत रूढ़िवादी ब्राह्मणवाद द्वारा जरूरी किए गए विभिन्न प्रकार के बलिदान करने के रिवाज थे. जैमिनी के पूर्वमीमांसा और बदरनारायण के ब्रह्म सूत्र जैसे ब्राह्मणवादी ग्रंथों को आलोचनात्मक रूप से पढ़ने पर पता चलता है कि यह ग्रंथ इस मत का समर्थन करते हैं. इस व्यवस्था में ज्ञान पर ब्राह्मण का, शस्त्र रखने पर क्षत्रिय और व्यापार करने पर केवल वैश्य का ही अधिकार है. इस व्यवस्था के अनुसार शूद्रों को इन तीन वर्णों की सेवा करनी चाहिए. पूर्वमीमास, ब्रह्म सूत्र, मनुस्मृति और वेदों ने इसी तरह के सामाजिक विभाजन की वकालत की है. आंबेड़कर का तर्क है कि पूजा करने के इस तरीके और सामाजिक विभाजन ने बौद्ध धर्म को जनता के लिए ब्राह्मणवाद की तुलना में अधिक आकर्षक बना दिया. वह लिखते हैं, "जो लोग अहिंसा को अपने जीवन के सिद्धांत के रूप में मानते आए थे. और इसे जीवन का एक नियम बनाने के लिए इतनी दूरी तय कर चुके थे, उनसे इस हठधर्मिता को स्वीकार करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है कि क्षत्रिय बिना पाप किए किसी की भी हत्या कर सकते हैं क्योंकि वेदों के अनुसार मारना उसका कर्तव्य है?" वह आगे लिखते हैं, "जिन लोगों ने सामाजिक समानता की सच्चाई को स्वीकार कर लिया था और जो हर एक के गुणों के आधार पर समाज का पुनर्निर्माण कर रहे थे, वे चातुर्वर्ण्य सिद्धांत को कैसे स्वीकार करते और जन्म के आधार पर मनुष्य के विभाजित करते, क्योंकि वेद ऐसा कहते हैं?"

मौर्य वंश का अंत एक ब्राह्मण सैन्य कमांडर पुष्यमित्र द्वारा तख्तापलट के कारण 185 ईसा पूर्व में हुआ. पुष्यमित्र के शासन के उदय का वर्णन तीसरी शताब्दी के शुरुआती बौद्ध साहित्य जैसे अशोकवादन, इंडोलॉजिस्ट यूजीन बर्नौफ की भारतीय बौद्ध धर्म के इतिहास का परिचय और बाद में स्मिथ द्वारा लिखी गई बीसवीं शताब्दी की किताब, ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया में किया गया था. तीनों किताबों में उल्लेख किया गया है कि सत्ता पर काबिज होने के बाद ही पुष्यमित्र ने बौद्ध भिक्षुओं के उत्पीड़न का आदेश दे दिया और यहां तक ​​कि प्रत्येक बौद्ध भिक्षु को ढूंढने या मारने पर ईनाम की घोषणा भी की गई. आंबेडकर ने लिखा कि पुष्यमित्र के शासनकाल के दौरान नए कानून पारित किए गए जिन्होंने ब्राह्मणों को शासन करने के लिए कुछ विशेष अधिकार दिया. क्रांति पुस्तक में पुष्यमित्र को अपने राज्य पर शासन करने में आने वाली बाधाओं को दर्शाने के लिए उनके समकालीन रहे कवि बाणभट्ट की लिखी कुछ पंक्तियों का सहारा लिया गया है.

आंबेड़कर पुष्यमित्र की बौद्ध धर्म के खिलाफ क्रांति के पहले दिन से ही आर्य कानून के पूरी तरह से लागू किए तीन बिंदुओं को सूचीबद्ध करते हुए लिखते हैं. "तत्कालीन आर्य कानून के तहत घोषित किया गया पहला नियम था कि शासन करना केवल क्षत्रियों का अधिकार है. ब्राह्मण कभी राजा नहीं हो सकता. दूसरा था कि कोई भी ब्राह्मण शस्त्रों से जुड़ा कोई व्यवसाय नहीं करेगा और तीसरा था कि राजा की सत्ता के खिलाफ विद्रोह करना पाप था. पुष्यमित्र ने विद्रोह को बढ़ावा देते हुए इन तीनों कानूनों को तोड़ा था.”

आंबेड़कर तर्क रखते हैं कि इस अवधि के दौरान मनुस्मृति को एक ब्राह्मण पुष्यमित्र द्वारा शासन संभालने की बात का औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रचारित किया गया था. आंबेड़कर क्रांति में लिखते हैं, "कानूनी परिवर्तन जितने क्रांतिकारी थे उतने ही आवश्यक थे." उनका उद्देश्य अंतिम मौर्य राजा की हत्या करके पुष्यमित्र द्वारा बनाई गई स्थिति को वैधता प्रदान करना और नियमित करना था. इन कानूनी परिवर्तनों के आधार पर एक ब्राह्मण अब कानूनी रूप से राजा बन सकता था, कानूनी रूप से हथियार ले सकता था, चतुर्वर्ण का विरोध करने वाले किसी भी शासक को कानूनी रूप से पदच्युत या हत्या कर सकता है और ब्राह्मणों के अधिकार का विरोध करने वाली किसी भी चीज को कानूनी रूप से खत्म कर सकता है.. मनु ने ब्राह्मणों के हितों की रक्षा के लिए आवश्यक्ता पड़ने पर बर्थलोमू करने का अधिकार दिया. यह शब्द कड़ी से कड़ी सजा देने के लिए प्रयोग किया जाता है."

आंबेड़कर आगे कहते हैं कि पुष्यमित्र ने अकेले ही मौजूदा राजनीतिक हलातों का मुकाबला नहीं किया, बल्कि लोगों की आध्यात्मिक मान्यताओं को भी बदलने की कोशिश की. आंबेड़कर के सभी तीन सहायक ग्रंथों में उल्लेख किया गया है कि बौद्ध काल के दौरान सभी त्यागों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिसने ब्राह्मणों को गंभीर रूप से प्रभावित किया, जिनका काम मुख्य रूप से बलिदान पर निर्भर रहता था. सत्ता पर कब्जाने के बाद पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया जिसमें एक घोड़े की बलि दी जाती थी. आंबेड़कर ने दावा किया कि पुष्यमित्र ने अहिंसा में लोगों के विश्वास को कम करने के लिए ही घोड़े की बलि दी थी. क्रांति में आंबेड़कर ने लिखा कि ब्राह्मणवादियों के लिए सत्ता हासिल करने और बौद्ध धर्म को नष्ट करने के लिए अब तक का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण गीता थी. आंबेड़कर तर्क रखते हैं कि इसी समय के दौरान ब्राह्मणवाद के अर्थहीन कर्मकांडों को तार्किक स्तर पर उचित और जनता की नजर में इसे वैध बनाने के लिए गीता को औपचारिक रूप दिया गया था. उन्होंने लिखा, "भगवद गीता की सहायता के बिना ब्राह्मणवाद समाप्त हो जाता और पूर्वमीमांसा भूला दी जाती. गीता बौद्ध धर्म से दार्शनिक सिद्धांतो की थोक नकल करके ही ब्राह्मणवाद को वैध बनाने में सक्षम रही थी.” कर्म और ज्ञान गीता में उपयोग किए गए ऐसे दो दार्शनिक सिद्धांत हैं जिन्हें अक्सर ब्राह्मणवाद के समर्थकों द्वारा इसे एक गैर-सांप्रदायिक पुस्तक दर्शाने के लिए उपयोग किया जाता है. आंबेड़कर का तर्क है कि ज्ञान बौद्ध धर्म से ली गई एक अवधारणा थी और इसके अर्थ को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया.

 9 मार्च 2021 के अपने भाषण में मोदी ने गीता को भारत की "कर्म-निष्ठा" का प्रतीक कहा. उन्होंने कहा कि "भगवान भी अपने कर्म किए बिना नहीं रह सकते." अपने से पहले के ब्राह्मणवाद के अन्य समर्थकों की तरह मोदी भी कर्म शब्द का इस्तेमाल किसी व्यक्ति द्वारा किए कार्यों के संदर्भ में करते थे. हालांकि आंबेड़कर लिखते हैं कि "भगवद गीता में कर्म योग का अर्थ है मोक्ष के मार्ग का एक रास्ता रीति-रिवाजों, जैसे यज्ञों का संपादन करना है. आर्य धर्म में बलिदान शामिल था. यह देवताओं के देवत्व तक पहुंचने और यहां तक कि देवताओं को भी नियंत्रित करने का एक साधन था.” आंबेड़कर बताते हैं कि आर्य संस्कृति में बलिदान के 21 पारंपरिक रूप थे, जिनमें सबसे पवित्र मानव और घोड़ों की बलि मानी जाती थी. वह दावा करते हैं कि बलि देने वाले को भी बलि के बाद जानवर का मांस खाना होता था. आंबेड़कर का कहना है कि गीता में उसे बदसूरत बनाने वाले इस फोड़े जैसे दाग को हटाने के जरिए कर्म योग का बचाव किया गया है.

भागवत गीता पर लिखने वाले अधिकांश लेखक कर्म योग शब्द को 'क्रिया' और ज्ञान योग शब्द का 'ज्ञान' के रूप में अनुवाद करते हैं और एक सामान्यीकृत रूप में ज्ञान की क्रिया से तुलना और अंतर करते हुए भगवत गीता पर चर्चा करते हैं. आंबेड़कर इसे बेहद गलत बताते हैं. उनका विश्लेषण उस ऐतिहासिक संदर्भ पर आधारित है जिसमें यह ग्रंथ रचे गए थे. "भागवत गीता क्रिया बनाम ज्ञान से जुड़ी किसी भी सामान्य और दार्शनिक चर्चा से संबंधित नहीं है ... गीता में कर्म योग या क्रिया का अर्थ जैमिनी के कर्म कांड में निहित धर्म सिद्धांत और ज्ञान योग या ज्ञान का मतलब बदरायण के ब्रह्म सूत्रों में निहित धर्म सिद्धांत से है. जिसके अनुसार गीता कर्म की बात करते समय सामान्य शब्दों में गतिविधि या निष्क्रियता, शांतता या ऊर्जावाद की बात नहीं करती, लेकिन भागवत गीता पढ़ने वाला कोई व्यक्ति धार्मिक कृत्यों और धार्मिक संस्कारों को नहीं नकारा सकता है.” आंबेड़कर ने 1915 में गीता की अपनी व्याख्या पर एक खंड प्रकाशित करने वाले तिलक को भी गीता में कर्म और ज्ञान को गलत अर्थ देने के लिए दोषी ठहराया. उन्होंने कहा कि तिलक ने भी यूरोपीय उपनिवेशवाद द्वारा ब्राह्मणवाद के लिए एक संभावित खतरा पैदा होने के कारण उस समय गीता और हिंदू धर्म को तार्किक रूप देने के एक और प्रयास के तौर पर ऐसा किया था. उन्होंने तर्क दिया कि तिलक जैसे रूढ़िवादी ब्राह्मण लेखकों का बौद्ध धर्म को उस दर्शन के लिए श्रेय नहीं देना जिसे गीता ने उससे उधार लिया था, उनकी एक संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है. मोदी द्वारा भी उन्हीं श्लोकों का उल्लेख किया गया था जो बताते हैं कि कैसे गीता ने यज्ञ अनुष्ठानों का बचाव किया.  हालांकि उन्होंने अलग तरह से इसकी व्याख्या की थी. मोदी ने गीता के दूसरे अध्याय के पचासवें श्लोक का हवाला देते हुए कहा, "योगः कर्महशु कौशल." पूरा श्लोक है, "बुद्धियुक्तो जहतिः उभे सुकृतद्रुष्कृते, तस्मौद्योगय युज्यसब योगः कर्मसु कसुशलम्," जिसका शाब्दिक अर्थ है- "ज्ञान से संपन्न जीवन अच्छे और बुरे दोनों कर्मों से मुक्त होता है, इसलिए कुशलता से काम करने की कला अर्थात योग करने का प्रयास करें." श्लोक में भक्तों से कर्म करने से पहले और स्वयं के मोह से छुटकारा पाने के लिए दिमाग से सोचने को और अंधविश्मास नहीं करने के लिए कहा गया है.

आंबेड़कर ने तर्क दिया कि गीता ने रणनीतिक रूप से यज्ञ और कर्म की अवधारणाओं को सही ठहराने के लिए बौद्ध दर्शन से स्थितप्रज्ञा और अनाशक्ति दोनों दर्शन उधार लिए थे. स्थिरप्रज्ञा का अर्थ है बुद्धि या बुद्धि युक्त और अनाशक्ति का अर्थ है "स्वार्थ". आंबेडकर ने लिखा है, "गीता कर्म योग की एक आवश्यक शर्त के रूप में बुद्धि योग के सिद्धांत को पेश करके उसपर भद्दी दिखने वाली इस चीज को हटाने की कोशिश करती है. स्थिरप्रज्ञा बनने और कर्म कांड का पालन करने में कुछ भी गलत नहीं है. कर्म कांड पर दूसरा अंश स्वार्थ था जो कर्मों के होने के पीछे का मकसद था."

 9 मार्च को दिए भाषण में मोदी ने एक और लोकप्रिय श्लोक के जरिए बताया कि किस तरह गीता निस्वार्थ कर्म करना सिखाती है. उन्होंने कहा, "गीता ने हमें हर कदम पर सिखाया है, "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन," मतलब व्यक्ति को अपना कर्तव्य करने का अधिकार होता है, लेकिन उसके परिणामों को नियंत्रित करने का अधिकार नहीं होता. इन पंक्तियों में बताई गई निस्वार्थता की शिक्षा वही अवधारणा है जिसे आंबेड़कर ने बौद्ध दर्शन से लिया गया बताया था. जिस चालाकी से कर्म को क्रिया के रूप में व्याख्यायित किया गया, या सामाजिक रूप से किसी व्यक्ति से जिन कर्तव्यों की अपेक्षा की जाती है, ने मोदी को कठिन श्रम करने वाले समुदायों के हितों के खिलाफ लिए फैसलों को भी सही ठहराने में मदद की.

मोदी के 9 मार्च के भाषण में यह सबसे अधिक ध्यान देने लायक बात थी. उन्होंने कहा, "कर्म और विचारों की यह स्वतंत्रता ही भारत के लोकतंत्र की सच्ची पहचान है." उन्होंने आगे कहा, "अपने अधिकारों की बात करते समय, हमें अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखना चाहिए. आज ऐसे लोग भी हैं जो हमेशा इस गरिमा को कम करने की कोशिश कर रहे हैं.” मोदी ने यह भाषण सरकार द्वारा पारित किए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन के चौथे महीने की शुरूआत में दिया था. मोदी ने कृषि कानूनों का विरोध करने वाले लोगों को न केवल असंतुष्ट बल्कि उनके स्वयं के श्रेष्ठ उद्देश्य को पूरा करने में विफल भी बताया. यह आंबेड़कर द्वारा बताए कर्म को ब्राह्मणवाद के बलिदान किए दायित्वों के रूप में नहीं, बल्कि जाति व्यवस्था द्वारा थोपे गए वंशानुगत कार्य को करने के एक पवित्र कर्तव्य को बताता है. यह तिलक द्वारा चुनी गई विवेचना, जैमिनी के कर्म सिद्धांत से लिया गया था. आंबेड़कर गीता को लेकर अपने अध्ययन में यह इंगित करने के लिए तत्पर दिखाई पड़ते हैं कि पाठ के सबसे जघन्य पहलुओं को मिटाने के सदियों से चल रहे प्रयासों के बावजूद कठोर जाति पदानुक्रम का संरचनात्मक ढांचा अभी भी इसमें दिखाई देता है. वह उन दो हिदायतों की ओर इशारा करते हैं जो समर्थकों को चतुर्वर्ण प्रणाली का पालन करने को कहते हैं. वह लिखते हैं, "पहला आदेश तीसरे अध्याय के 26वें श्लोक में निहित है. इसमें कृष्ण कहते हैं: कि एक बुद्धिमान व्यक्ति को सिद्धांत द्वारा कर्मकांड का पालन करने वाले किसी भी अज्ञानी व्यक्ति के मन में संदेह पैदा नहीं करना चाहिए, जिसमें निश्चित रूप से चतुर्वर्ण्य के संसकारों का पालन शामिल है."

आंबेड़कर ने आगे लिखा, "दूसरा आदेश अठाहरवें अध्याय के श्लोक 41-48 में दिया गया है. जिसमें कृष्ण बताते हैं कि हर कोई सिर्फ अपने वर्ण के लिए निर्धारित किए गए कर्तव्य करता है. वह उनकी पूजा करने वाले और उनके भक्तों को बताते हैं कि वे केवल भक्ति से नहीं बल्कि भक्ति भाव से अपने वर्ण के लिए निर्धारित किए गए कर्तव्य के पालन करने से मुक्ति प्राप्त करेंगे. आंबेड़कर के अनुसार ब्राह्मणवादी शासन काल में गीता की रचना करने के उद्देश्य को पृथक करके नहीं समझा जा सकता. ब्रहाम्णवादी धर्मसिद्धांत को सही ठहराने वाले गीता के दार्शनिक पहलू बौद्ध धर्म के पतन के बाद रचे गए थे. उन्होंने तर्क दिया कि इसकी रचना को ब्राह्मणवाद के समर्थक और जनता के आध्यात्मिक विश्वास को बदलने की चाह रखने वाले पुष्यमित्र और उनके वंशजों द्वारा चलाई गई एक परियोजना के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए. और यह केवल मनुस्मृति जैसे कानूनों को लागू करने से संभव नहीं था. इन नए सामाजिक रूप से हिंसक और नैतिक संहिताओं को लेकर विश्वास पैदा करने के लिए उन्हें प्राचीन लोक कथाओं और कहानियों के उपयोग की भी आवश्यकता थी. वंचित समुदायों के मौलिक अधिकारों पर प्रहार करने वाले कानून पास करने के बाद से मोदी सरकार भी ऐसी ही कहानियों और प्रतीकवाद को हथियार के रूप में प्रयाग करने में सक्षम रही है. इसका एक हालिया उदाहरण नागरिकता संशोधन अधिनियम को वैध बनाने के लिए पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों की पीड़ा का अपने हथियार के तौर पर उपयोग करना है. जहां सीएए नाम मात्र के लिए भारत के पड़ोसी देशों से गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने और नागरिकों की राष्ट्रीय रजिस्ट्री को लेकर तेजी से काम करता दिखता है वहीं यह भारत के मुसलमानों को पूरी तरह से वंचित करने का काम भी कर सकता है. अफगानिस्तान और पाकिस्तान में रह रहे हिंदू पीड़ितों की कहानी का प्रभावी ढंग से भारतीय हिंदूओं का समर्थन हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, जो इस बात से आंखें मूंद लेंगे कि इसका उनके अपने पड़ोसियों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है.

आंबेड़कर द्वारा गीता की ऐतिहासिक व्याख्या में जो उभरकर आता है वह है कि वह न तो एक अपरिवर्तनीय धार्मिक पुस्तक है और न किसी के जीवन को कैसे संचालित किया जाए, इस बारे में एक धर्मनिरपेक्ष घोषणापत्र. और इन्हीं दो तरीकों से रूढ़िवादी और नकली-उदारवादी विचारकों ने पुस्तक को चित्रित करने का प्रयास किया है. इसके बजाए, आंबेड़कर ने ऐतिहासिक अभिलेखों के आधार पर एक ऐसे विषय का वर्णन किया है जिसे हर समय काल के दौरान ब्राह्मणवाद के समर्थकों के संकीर्ण हितों के लिए जोड़ा, हटा और बदला गया है. आंबेड़कर बताते हैं कि जाति व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश करने वाले लोकप्रिय आंदोलनों के खिलाफ हुई प्रतिक्रांति को वैध और लोकप्रिय बनाने में यह विशेष रूप से उपयोगी था. यह सच है कि जोतिबा फुले और आंबेड़कर जैसे बहुजन क्रांतिकारी महाराष्ट्र के बहुजन समुदायों में जो ऊर्ध्वगामी गतिशीलता लेकर आए थे, उसे दूर करने के लिए तिलक ने इसका इस्तेमाल किया. मोदी भी पुष्यमित्र से लेकर शंकराचार्य और तिलक तक लंबी आती इस कतार में ब्राह्मणवाद के एक और दूत ही है. इसके लिए उनके द्वारा उठाया गया पहला कदम गीता को देवता के रूप में पेश करना और इसे सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए एक मार्गदर्शक मूलग्रंथ के रूप में चिह्नित करना था. जो मोदी पहले ही कर चुके हैं. फरवरी 2019 में दिल्ली के इस्कॉन मंदिर में मोदी ने अपने भाषण में दर्शकों से कहा कि उनकी सभी नीतियां और हर निर्णय गीता के सिद्धांत पर आधारित रहे हैं. अपने 9 मार्च के भाषण में उन्होंने दोहराया था कि आत्मानिर्भर भारत की उनकी नीति भी गीता पर आधारित थी. दोनों ही भाषणों में उन्होंने जनता को बताया कि उनका व्यक्तिगत व्यवहार और उनकी सरकार का राजनीतिक प्रशासन दोनों ही गीता द्वारा मार्गदर्शित हैं.

पुष्यमित्र, वर्तमान में मोदी की भूमिका और आधुनिक हिंदुत्व के उदय के बीच एक विचित्र समानता है. पिछले कुछ दशकों में हिंदुत्व के विचार के लोकप्रिय होने की शुरूआत 1992 की रथ यात्रा-रथ से मानी जाती है, जो उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में स्थित सोलहवीं शताब्दी में बनी बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर समाप्त हुई. कई राजनीतिक समीक्षकों के अनुसार इस घटना के लिए प्रेरित किया गया ब्राह्मणवादी उन्माद न केवल हिंदुत्व के मूल सिद्धांत में रहे प्रबल इस्लामोफोबिया से, बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए सकारात्मक कार्रवाई की मांग करने वाले मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के कारण भी पैदा हुआ था. सत्ता संभालने के बाद से मोदी की नीतियां बहुजनों और धार्मिक अल्पसंख्यकों की बेदखली, निरंतर दासता और गिरावट जैसे पुष्यमित्र द्वारा अपनाए गए उद्देश्यों का भी परिणाम हो सकता है. मोदी के अपने शब्दों में, नागरिकता संशोधन अधिनियम, कृषि और श्रम कानूनों में संशोधन और अनुच्छेद 370 को निरस्त करना ऐतिहासिक कदम हैं. सरकार के यह निर्णय अधिकारों पर आधारित धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से अलग नजर आते हैं, जिसका भारत अक्सर व्यवहार में न उतार पाने की विफलता के बावजूद प्रतिनिधित्व करता है. कृषि और श्रम कानून में किए गए संशोधन भारतीय राज्य की संवैधानिक रूप से समाजवादी बने रहने की इच्छा के विपरीत है. सीएए भारत के धर्मनिरपेक्षता के दावे से कोसो दूर है और अनुच्छेद 370 को निरस्त करना राजनयिक आंतरिक नीति के अनुसार एक बड़ी दरार को दर्शाता है जिसे भारत ने कई भाषाई और राष्ट्रीय समुदायों के साथ हासिल करने की उम्मीद की थी, जिनका वह प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है.

आखिर में, जैसा कि मैंने अपने पिछले निबंध में वर्णन किया था, कि आत्मानिर्भर भारत, वर्तमान में भारत की उदार आर्थिक स्थिति को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदू अर्थशास्त्र के आधार पर ढ़ालने का एक तरीका है. मोदी सरकार द्वारा लाए गए कानूनी परिवर्तनों के अलावा, पिछले एक दशक में देश में कुछ सामाजिक और आध्यात्मिक परिवर्तन भी देखे गए हैं.

मोदी के उदय से पहले ही चले आ रही कट्टरता और हिंसा के बावजूद मुसलमानों के खिलाफ हिंसा, मस्जिदों के विध्वंस, आदिवासियों और दलितों से प्रतिनिधित्व के अधिकार छीनने का विस्तृत उत्साह ऐसा नहीं था जो मोदी के समय में दिखाई दे रहा है. सरकार की बड़े पैमाने पर बनियों द्वारा नियंत्रित मीडिया पर बढ़ती पकड़ ने हिंदुत्व को देश में व्यापक रूप से कट्टर ब्राह्मणवादी मानसिकता को विकसित करने में मदद की है. यह बौद्ध भिक्षुओं के खिलाफ हिंसा और शांतिवाद की परंपरा के माध्यम से पुष्यमित्र द्वारा बौद्ध धर्म की आध्यात्मिकता के प्रतीकात्मक पतन की तरह ही है.

वर्तमान समय में बहुसंख्यकों के बीच जातिगत कट्टरता का प्रसार करने में मीडिया ने जामिनी या शंकराचार्य की भूमिका निभाई है. इसी कारण भारतीय बुद्धिजीवियों ने मोदी द्वारा गीता के उपयोग पर सवाल उठाना शुरू किया. इस उपयोग को केवल भारतीय दर्शन की रक्षा या भारत सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सॉफ्ट पावर हासिल करने के लिए उपयोग किए जाने वाले प्रतीक के रूप में नहीं समझा जा सकता है. इसके बजाए गीता को एक उपकरण के रूप में समझा जाना चाहिए, भारत के वादा किए गए धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने में एक प्रमुख घटक जिसके मूल में एक कठोर ब्राह्मणवादी जातीय गैरबराबरी है. गीता कोई नई किताब नहीं है. न ही यह गैर-सांप्रदायिक है. और मोदी और उनकी सरकार ने बहुजनों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों की मांग के खिलाफ एक प्रतिक्रांति के उद्देश्य को पूरा करने के लिए इसका इस्तेमाल किया है, जो उनसे पहले भी कई लोग कर चुके हैं.