9 मार्च 2021 को अपने आवास पर भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से खचाखच भरे कमरे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाषण देते हुए कहा, "भगवद् गीता भारत में वैचारिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता की परंपरा का एकमात्र स्रोत रही है. इसने महाभारत के समय से हमारे देश का मार्गदर्शन किया है." टेलीविजन पर व्यापक रूप से प्रसारित किए गए इस संबोधन के बाद मोदी ने जम्मू और कश्मीर में स्थित हिंदू धार्मिक मान्यताओं का प्रचार करने वाले धर्मार्थ ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किया गया 21 नए व्याख्यानों का एक संग्रह जारी किया. मोदी बीच-बीच में लंबे समय तक विराम लेते हुए बोले जिससे उनकी भाषा पुरातन संस्कृत और हिंदी के शब्दों से युक्त लगे. मार्च के मध्य तक प्रधानमंत्री की दाढ़ी लंबी और अधिक सफेद दिखने लगी थी. और यह पूरा भेष टेलीविजन पर आने वाली हिंदी पौराणिक कहानियों की पहचान बन चुके बूढ़े ऋषियों के चित्रण से बहुत अधिक मेल खाता है. इसका मकसद साफ तौर पर दिख रहा था कि मोदी की छवि एक आर्थिक सुधारक और तेजतर्रार राष्ट्रवादी नेता से ब्राह्मणवादी दार्शनिक के रूप में परिभाषित होने वाले एक बदलाव के दौर से गुजर रही थी.
हालांकि 9 मार्च के पूरे भाषण को ध्यान से देखने से पता चलता है कि यह केवल एक दार्शनिक या अकादमिक प्रयोग भर नहीं था. मोदी अपने भाषण में कई बार तेजी से आत्मनिर्भर भारत अभियान के सत्यापन पर बात करने लगते जो गीता के संदर्भ में कही और इसके आधार पर न्यायोचित ठहराई गई थी. कारवां के लिए लिखे गए आत्मनिर्भर भारत अभियान पर मेरे निबंध में मैंने तर्क दिया कि इस नीति का उद्देश्य कोयला और कृषि जैसे सार्वजनिक संसाधनों का निजीकरण करना और कानून में बदलाव करके बैंकिंग क्षेत्र को नियंत्रित करने की कोशिश है. उस निबंध में यह भी बताया गया है कि कैसे मोदी की आर्थिक योजना, जो उनकी नीतियों पर एक सहनशील प्रभाव रखने वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी योजना है, का उद्देश्य जाति के आधार पर एक मजबूत आर्थिक व्यवस्था बनाने और सामाजिक व्यवस्था चतुर्वर्ण व्यवस्था में ढालने का है. एक सामाजिक व्यवस्था जिसका अंतिम लक्ष्य ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को विशेषाधिकार और छूट देना, स्त्रियों और शूद्रों को नीचा दिखाना, किसी की योग्यता को उसके जन्म से जोड़ना, विभिन्न जातियों के बीच एक असामाजिक भावना को कायम रखना और श्रेणीबद्ध असमानता की एक प्रणाली बनाना है.
9 मार्च को दिया मोदी का भाषण कश्मीर में लोकतंत्र को लेकर भारत सरकार द्वारा की गई कार्रवाई और मोदी के हिंदू राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के विरोधियों को बदनाम करने जैसी अन्य राजनीतिक योजनाओं के औचित्य से भी भरा था. मोदी की निजी वेबसाइट पर दिए गए एक समाचार अपडेट के अनुसार, "इस अवसर पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने धर्मार्थ ट्रस्ट के अध्यक्ष डॉ. कर्ण सिंह द्वारा भारतीय दर्शन पर किए गए कार्यों की सराहना की. उन्होंने कहा कि “उनके प्रयास ने सदियों से पूरे भारत की विचारिक परंपरा का नेतृत्व करने वाली जम्मू-कश्मीर की पहचान को पुनर्जीवित किया है." इसे मोदी सरकार द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक विनाश को लेकर कश्मीरियों के बीच फैले डर की पृष्ठभूमि के विरोध में देखा जाना चाहिए, जिसने जम्मू और कश्मीर को स्वायत्तता को सीमित कर दिया.
मोदी शासन से नाखुश अन्य विरोधियों के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा, "आज हमारे आस-पास ऐसे लोग हैं जो हमेशा संवैधानिक संस्थानों की गरिमा को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं." उन्होंने आगे कहा, "चाहे हमारी संसद हो, न्यायपालिका हो, या यहां तक कि भारतीय सेना हो यह सभी ऐसे लोगों के निशाने पर हैं. वे अपने राजनीतिक हितों के लिए इन संस्थाओं पर हमला करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. इस तरह की प्रवृत्तियां देश को नुकसान पहुंचाती हैं." इस बात से पहले और बाद में दोनों बार मोदी ने गीता के दर्शन के संदर्भ में ऐसे लोगों द्वारा की गई अपनी आलोचना को सही ठहराया. पूरे भाषण में यही पैटर्न जारी रहा.
गीता की सार्वभौमिकता का उल्लेख और उसके बाद मोदी की नीतियों का विज्ञापन और उनके विरोधियों द्वारा की गई आलोचना दोनों को गीता के आधार पर उचित ठहराया गया. मोदी सरकार ने पिछले सात वर्षों में विभिन्न आयोजनों, सरकारी कार्यक्रमों और प्रकाशनों के माध्यम से भारत के साथ-साथ दुनिया की सभी समस्याओं के रामबाण के रूप में भगवद् गीता के विज्ञापन, प्रचार में काफी निवेश किया है. इस निवेश को समझने के लिए गीता और अन्य ब्राह्मण ग्रंथों को आलोचनात्मक रूप से पढ़ना जरूरी है.
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