इस साल मार्च में आयोजित इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में दिए अपने भाषण में प्रताप भानु मेहता ने दावा किया कि भारतीय लोकतंत्र न केवल संकटग्रस्त है बल्कि इसकी तुलना 5 या 10 साल पहले की अवस्था से की जाए तो हमें उम्मीदों के लगातार खत्म होते जाने का एहसास होता है. यह मोदी के 5 साल के शासन पर मेहता का बिना अगर-मगर वाला फैसला था. उन्होंने आगे कहा, “इन 5 सालों में भारत की आत्मा को छलनी-छलनी कर दिया गया है. सत्ता के शीर्ष पर विराजमान लोग हर उस चीज के समर्थक हैं जो भारतीयता की विरोधी हैं और हमारे लोकतंत्र द्वारा प्रत्येक नागरिक को मिलने वाले हर आश्वासन को धता बताया जा रहा है.
मेहता ने आगे बताया, “पिछले 10 या 15 सालों में बदलाव की जैसी आशा थी और जैसा सोचा जा रहा था कि भारत में अब एक ऐसा माहौल बनेगा जो उसे विकास, समावेशी और रोजगार निर्माण के नए दौर में ले जाएगा, उम्मीदों के जिस बड़े खजाने का भंडार हमने बनाया था, उसे गहरा धक्का लगा है. हमारी पहचान को उन्नत बनाने वाले धर्म का इस्तेमाल आज लोगों को निशाना बनाने के लिए हो रहा है.” मेहता ने बताया कि भारत में आज ज्ञान निर्माण का लक्ष्य सत्य को जानना नहीं है बल्कि इसका इस्तेमाल लोगों को मंदबुद्धि बनाने के लिए हो रहा है. आज के समय में अपनी बात रखना एक खतरनाक कृत्य बन गया है. मैं पूछता हूं कि जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग धमकाने और डराने वालों का साथ देते हैं तो क्या शिष्टाचार बचा रहेगा?” इसके बाद उन्होंने दावा किया, “यदि आगामी चुनाव (2019) सत्ता संरचना में बदलाव नहीं लाते तो भारतीय लोकतंत्र को एक बड़े खतरे का सामना करना पड़ेगा.”
मंच से मेहता नैतिकता का बड़ा दावा कर रहे थे. वह भारत के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले टिप्पणीकार हैं. उन्हें भारतीय उदारवाद का ऐसा चमकीला सितारा माना जाता है जो असहज करने वाली सच्चाई सामने रखने के एक बुद्धिजीवी के कर्तव्य का निर्वाहन करता है. लेकिन मेहता अपना दूसरा कर्तव्य पूरा नहीं कर पाए जो है- आत्मनिरीक्षण. इस भाषण में उन्होंने कहीं भी अपनी कमजोरियों का उल्लेख नहीं किया.
इंडियन एक्सप्रेस और अन्य जगह प्रकाशित होकर व्यापक रूप से पढ़े जाने वाले महेता, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने से भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर की जाने वाली 2014 के आम चुनाव से पहले की चिंताओं को गंभीरता से नहीं लेते थे. मेहता उन लोगों की चिंताओं को खारिज कर देते थे जो नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक रिकॉर्ड को लेकर सवाल उठाते थे. दिसंबर 2012 में जब मोदी फिर एक बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने तब मेहता के लिखे एक लेख का शीर्षक था “मोदीमय राजनीति”. उस लेख में मेहता ने राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए मोदी की पात्रता का बचाव किया था और 2002 के मुस्लिम नरसंहार में मोदी की भूमिका को लेकर की जाने वाली आलोचना पर अपने विचार पेश किए थे. मेहता ने लिखा था, “हम लोग मोदी के कैबिनेट में मंत्रियों की सूची का अध्ययन कर साल 2002 के अपराध में मोदी की भूमिका का मूल्यांकन कर सकते हैं.” (मोदी सरकार में 2009 तक महिला एवं बाल विकास मंत्री माया कोडनानी को 2002 के नरसंहार के लिए उम्र कैद की सजा दी गई थी. 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिनों बाद, गुजरात उच्च अदालत ने कोडनानी को जमानत दे दी और बाद में दोषमुक्त करार दे दिया.) लेकिन मेहता ने उस लेख में लिखा, “आप इन लोगों को देख कर हैरान हो जाते हैं कि क्यों 1984 में दिल्ली में हुए सिख विरोधी हिंसा में शामिल कांग्रेस के कैबिनेट मंत्रियों को सजा नहीं मिली. मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि 1984 का हवाला देकर मोदी का राजनीतिक बचाव किया जाना चाहिए. मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि बुराई पर हमला करना इस सूरत में अधिक कठिन हो जाता है जब अन्य संदर्भों में आप इसे जायज मानते हैं.”
यह घुमाफिरा कर किया गया वह बचाव है जो मोदी के समर्थक उनके हिंसक इतिहास के सवाल पर दुहराते हैं. जो भी यह सवाल पूछता है उसे कांग्रेस का समर्थक कह दिया जाता है. मेहता ने आगे लिखा, “मोदी पर पत्थर उछालने वालों को यह समझना चाहिए कि उनके अपने घर शीशे के बने हैं और मोदी पर उछाला गया हर पत्थर पलट कर उनकी छत पर भी गिर सकता है.” यहां मेहता समझाना चाहते थे कि अच्छा होगा कि मोदी की आलोचना न की जाए. मेहता की यह समझदारी इस तथ्य को नजरअंदाज करती है कि मोदी की आलोचना करने वालों में वे लोग भी हैं जो 1984 के लिए कांग्रेस की आलोचना करते रहे हैं.
मेहता ने लिखा,
मोदी एक विचार हैं. मोदी कर्कशी सरकार के बिखराव वाले युग में केंद्रीयता, रुकावट के बीच में विकास और अनिर्णय के समय में निर्णायक बनने की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. उन्हें ऊंचे उदार मूल्यों और लोकतांत्रिक विविधताओं के प्रति चिंता करने वाले लोग पसंद नहीं करते. किंतु वह मरणासन्न धनाढ्य लोगों के शासन के खिलाफ लोगों की बगावत के सूत्रधार होने की क्षमता रखते हैं.
लेकिन राष्ट्रीय भूमिका वाले रास्ते में मोदी के सामने कई बाधाएं हैं... उस व्यक्ति से भारत पर शासन करने की उम्मीद नहीं की जा सकती जो संश्लेषण करने की राजनेताओं जैसी क्षमता नहीं रखता हो. ऐसा कोई व्यक्ति भारत का शासन लंबे समय तक नहीं कर सकता जो इस देश के अल्पसंख्यकों को असुरक्षित होने का एहसास कराता है. क्या आपको भारत के लोकतंत्र की उस विशेषता पर भरोसा है जो गहरे जन्मजाती पूर्वाग्रहों को नरम बनाने की क्षमता रखती है? क्या आपको यह डर है कि लोकतंत्र मोदी को निरंकुश शासन चलाने की छूट लेने देगा?
यह जनसंहारों की अनदेखी करने वाला तर्क था. मेहता के अंदाज ने उन्हें एक सोचे-समझे नाकारा को अपना लेने का अवसर दिया. उनके व्यापकीकरण और बार-बार दोहराए जाने वाले सवालों पर ध्यान देना जरूरी है जो आत्मगत व्याख्या को लोकप्रिय भाषा के आवरण में लपेटकर पेश करते हैं. मेहता यहां मोदी के उत्थान पक्ष में जिरह कर रहे हैं. मोदी को जैसा पसंद ठीक उसी तरह मेहता ने एक नेता को उसके वास्तविक रिकॉर्ड से नहीं बल्कि जैसी ब्रांडिंग उसने खुद की कि है उस आधार पर तौला. यह ब्रांड मोदी को आर्थिक विकास का जादूगर, भविष्य पर नजर रखे हुए मजबूत नेता और भारत की सभी परेशानियों की संजीवनी की तरह दिखाता है. मेहता ने भारतीय लोकतंत्र की ताकत पर घोर विश्वास को प्रोत्साहन दिया. यह एक ऐसा विश्वास है जो मानता है कि भारत की संस्थाएं और मूल्य मोदी को अपने खांचे में ढाल लेंगे और मोदी उनको नहीं बदल सकेंगे. मेहता के विश्वास में वह अनकही मान्यता है जिसके तहत उनके इस विचार को न मानने वालों को ऐसा लाइलाज सनकी समझा जाता है जिसकी अनदेखी की जानी चाहिए. इसका यह अर्थ है कि यदि मतदाता उनके पूर्व कर्मों को माफ करता है तो मोदी खुद को पूरी तरह से बदल लेंगे इसलिए उन्हें एक मौका दिया जाना चाहिए. ऐसा कहते हुए मेहता ने मोदी के उत्थान के पीछे की मुख्य शक्तियों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व की विचारधारा एवं अडानी समूह जैसी कॉर्पोरेट शक्तियों को नजरअंदाज कर दिया.
उनके इस लेख का अंदाज और विषय चुनाव आने से पहले के मोदी पर लिखे मेहता के तमाम लेखों से मिलता जुलता है. 2014 जनवरी में मेहता ने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था “सनक का इलाज”. इसमें उन्होंने लिखा,
बाहर से दिखने वाले ड्रामे और प्रतिक्रियावादी विचारों की छुटपुट नुमाइश के आवरण वाले सम्मोहन से बाहर निकल कर हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि बीजेपी भी एक नया भाष्य तैयार करने में लगी. मोदी पर लगे दागों को देख पाना आसान था. लेकिन आलोचक उनकी नवीनता से गच्चा खा गए. खुद को ताकत के साथ राष्ट्रीय महत्व का बना लेने के बाद मोदी ने दिखा दिया कि वह अपने लिए स्वीकृति का नया आधार भी निर्माण कर सकते हैं. वह बार-बार ऐसा दिखा रहे थे कि भारत को अपनी महत्वाकांक्षाओं को विस्तार देना चाहिए. एक दिलचस्प मोड़ ऐसा भी आया जहां जिस नेता पर शक करने के ढेरों कारण थे वह साफ-सुथरेपन का प्रतीक बन गया.
मेहता ने लिखा कि “मोदी ने अपनी तीव्र ऊर्जा से अपनी बुराइयों को धो दिया है”. लेकिन यहां भी मेहता ने उन बुराइयों के बारे में नहीं बताया जो उनके दिमाग में थी. “पेशेवर सनकी लोग हमें चेतावनी देंगे कि अपनी सनक को भुलावे में न बदलें और हमें उनकी सनक से निराश नहीं होना चाहिए. इन की चेतावनी के मायने हैं. लेकिन इस बात पर कोई शक नहीं है कि 2014 उस पार्टी का साल होगा जो निराशा से बाहर आने की चाहत का प्रतिनिधित्व करेगी.”
मार्च में प्रकाशित “लौह पुरुष” शीर्षक वाले अपने लेख में मेहता, मजबूत नेतृत्व की आकांक्षा के सवाल से जूझते नजर आए. टर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इरदुगान, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ऐसे ही मजबूत नेता हैं. मेहता मानते हैं कि जब ऐसा नेता निर्वाचित होता है,
तो वह दो विरोधाभासी लहरों पर सवार होकर आता है. कुछ लोग उसे इसलिए वोट देते हैं क्योंकि वह खुद को मजबूत, निर्णायक, बेरहम और लोकप्रिय निर्णय लेने की क्षमता वाला दिखाते हैं. अन्य लोग दूसरे कारणों से वोट देते हैं. ऐसे नेता के आने का डर वास्तविक हो सकता है. लेकिन उनकी क्षमताओं पर लोगों को भरोसा होता है.
मेहता के विचार में,
नेता की पहचान परिवर्तन ला सकने की उसकी क्षमता के अनुसार स्थापित होती है. अतीत में उससे खतरा रहा होगा लेकिन उसकी एक विशेषता यह होती है कि वह राजनीतिक अफसरों को पहचान लेता है और मौका हाथ से जाने नहीं देता. यदि उसे सही अवसर मिलता है तो वह बदलाव ला सकता है और चीजों को दुरुस्त कर सकता है.
मेहता ने विश्वास जताया कि उपरोक्त दोनों गुण नरेन्द्र मोदी में हैं. ऐसा कहते हुए उन्होंने लोकतंत्र पर विश्वास रखने की ओर इशारा किया “जो बुराई को अच्छाई में और विचारधारा को बदलने में सक्षम है और लोकतंत्र नेताओं को भी उतना ही बदलता है जितना नेता इसे बदलते हैं.” लोकतंत्र इस तरह का जोखिम इसलिए नहीं उठाता क्योंकि वह ताकत के आगे घुटने टेक देता है बल्कि इसलिए क्योंकि उसे खुद की उस ताकत का एहसास होता है जो नेता की ताकत को नरम कर देती है. कभी-कभार यह विश्वास काम कर जाता है और कई बार नहीं भी.” पाठक को यह सोचना पड़ता है कि क्या मेहता को पता भी है इरदुगान, पुतिन और राजपक्षे ने अपने-अपने देशों का क्या हाल बना रखा है.
अपने घुमावदार तर्कों के सहारे मेहता एक अजीब किस्म के निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं. उनके अनुसार, ऐसे में “जायज सवाल” मजबूत नेताओं की “विचारधारा या विश्वास का नहीं है बल्कि मतविरोधियों को सहने की उनकी क्षमता का है. इसके बाद वह फिर वही सवाल दोहराते हैं,
क्या आलोचक लोकतंत्र का जायज हिस्सा हैं जिनका संरक्षण और सम्मान होना चाहिए? एक नेता को, जो जनता की आवाज है, उसे विरोध के स्वर को गद्दारी घोषित करना चाहिए? विरोध को सहने की क्षमता का मूल्यांकन हम कैसे कर सकते हैं?
उस साल अप्रैल के पहले सप्ताह में, जब पहले चरण के मतदान होने में महज कुछ दिनों का वक्त रह गया था मेहता ने लिखा, “मोदी की हर चीज को अपने नियंत्रण में रखने की प्रवृत्ति को लेकर जो डर का माहौल बनाया जा रहा है उसके बरअक्स पिछले कुछ महीनों में बीजेपी में देखे जाने वाले विकास में एक बात देखते हैं. वह यह है कि मोदी ने शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया और सुशील कुमार मोदी जैसे, किसी भी बीजेपी मुख्यमंत्री और यहां तक कि क्षेत्रीय नेताओं को अलग-थलग करने की कोशिश नहीं की है. यदि यह नेता पार्टी में बने हुए हैं और मोदी के साथ काम करने के इच्छुक हैं तो क्या इससे हमें बीजेपी पर भरोसा करने का कारण नहीं मिलता. अंततः मेहता कहते हैं, “मोदी के बारे में सुनाई देने वाला हल्ला हमें झांसा दे सकता है. व्यक्ति पूजा वाली पार्टी कई बार असली पार्टी होती हैं. मोदी का व्यक्तित्व हमारे लिए कोई मामला नहीं है बल्कि हमारे लिए बीजेपी में क्षेत्रीय नेताओं के संबंध कैसे होंगे यह जानना महत्वपूर्ण है.”
इसके अगले हफ्ते मेहता ने मोदी को फासीवादी कहने वालों की निंदा की. “बहुत आसानी से फासीवाद की चिंताओं को उस बिखरते संभ्रांत की बौखलाहट कहा जा सकता है जो वास्तविक राजनीतिक चुनौतियां के जवाब में नैतिकता को ढाल बना लेता है. फासीवाद के लक्षण हैं- सैन्य शक्ति, पूर्ण जनपरिचालन और लोगों को मिटा देना. क्या भारत में इसकी पुनरावृत्ति संभव है?”
मेहता ने माना कि फासीवाद की चिंता भारत में बढ़ रहे संप्रदायवाद के कारण है. 6 महीने पहले ही मुजफ्फरनगर दंगों में दर्जनों मुस्लिम मारे गए थे और हजारों मुसलमानों को विस्थापित होना पड़ा था. लेकिन इसके बावजूद मेहता का विश्वास बना रहा है कि मोदी और उनकी पार्टी का प्राथमिक लक्ष्य आर्थिक विकास है. उन्होंने तर्क दिया कि उस लक्ष्य को हासिल करने के प्रयास संप्रदायवाद के खतरे को कम कर देंगे. मेहता ने लिखा कि “इस वक्त बीजेपी को मिलने वाला लाभ बहुत अलग प्रकार का है. लंबी अवधि में व्यापक संप्रदायवाद अस्थिरता निर्माण करता है जो विकास को क्षति पहुंचा सकता है. स्थानीय संदर्भों में हिंसा का लाभ तो हो सकता है लेकिन जब राष्ट्रीय स्तर पर बात होती है तो यह घाटे का सौदा हो सकता है.” मेहता ने इस बात पर विचार नहीं किया कि यदि बीजेपी आर्थिक विकास का वादा पूरा नहीं कर पाई तो वह वापस संप्रदायवाद की ओर लौट कर आ सकती है.
मेहता पाठकों को आश्वासन देते हुए कहते हैं, “हमारे सामने जो घट रहा है वह फासीवाद नहीं है. जो हम देख रहे हैं वह एक जटिल देश की भावना है, जो पुरानी शक्ति संरचना से ऊभी हुई है और एक कठिन समय से गुजर रही है. लोग असली चिंता से बचने के लिए फासीवाद शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं.”
इसे मेहता की भलमनसाहत कहें या जानबूझकर पाठकों को गुमराह करना लेकिन उदारवादी बुद्धिजीवी के आवरण में मेहता ने उस महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी कर दी कि आरएसएस ने एक लंबे वक्त तक बेनिटो मुसोलिनी और एडोल्फ हिटलर के प्रति सम्मान को छुपाया नहीं है. यदि उन्हें यह जानना ही था कि भारत में फासीवाद के अनुकूल परिस्थिति है या नहीं तो मेहता इटली के लेखक और दार्शनिक उम्बर्तो इको को पढ़ लेना था जिन्होंने फासीवाद का सामना किया था. अपने ऐतिहासिक निबंध उर- फासीवाद में इको ने लिखा है कि यदि हम फासीवाद को सिर्फ “एक सर्वसत्तावादी सरकार मानते हैं जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के पहले यूरोप पर राज किया था तो हम यह आसानी से कह सकते हैं कि विभिन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों में अपने पूर्व स्वरूप में फासीवाद दोबारा प्रकट नहीं होगा”. लेकिन “फासीवाद एक अस्पष्ट सर्वसत्तावाद है. वहां अलग-अलग दार्शनिक और राजनीतिक विचारों का कोलाज है, वह विरोधाभासों का जमघट है. मैं जिसे उर-फासीवाद या अनंत फासीवाद कहता हूं उसके आम लक्षणों की सूची बनाना संभव है. इस सूची में, मर्दानगी, असहमति से डर, परंपरा की उपासना और एक्शन के लिए एक्शन की उपासना शामिल हैं.” इको चेतावनी देते हुए कहते हैं, “अनंत फासीवाद मासूमियत के आवरण में लौट सकता है और हमारा कर्तव्य है कि नए आवरण में जब भी वह दुनिया के किसी भी भाग में दिखाई दे, उसे बेनकाब करें.
निंदकों और आलोचकों से मोदी का बचाव करने वाले मेहता एकमात्र जाने-माने उदारवादी नहीं थे. ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय भी मेहता के चश्मे से ही मोदी को देखते थे. 2014 के चुनाव से चंद दिन पहले वार्ष्णेय ने द इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में लिखा था, “अक्सर की जाने वाली फासीवाद के साथ तुलना बहुत कमजोर तुलना है. आज के भारत की स्थिति 1930 के जर्मनी जैसी नहीं है.”
वार्ष्णेय ने तर्क दिया कि भारतीय राजनीति में भारत की विविधताओं के साथ सामंजस्य बनाना जरूरी है और सत्ता के लिए मोदी की आकांक्षा उन्हें समावेशी बनाए रखेगी. मेहता की भांति मोदी और बीजेपी के शब्दों पर आंख मूंदकर विश्वास करते हुए वार्ष्णेय ने बताया, “बीजेपी के 2014 के घोषणापत्र में प्रशासन और विकास को मुख्य मुद्दा बनाया गया है.” वार्ष्णेय ने बीजेपी के घोषणापत्र में मुसलमानों के लिए किए गए वादों को भी बताया जिसमें ऐतिहासिक धरोहरों का जीर्णोधार और रखरखाव करना एवं उर्दू भाषा को प्रोत्साहन देना, वक्फ बोर्ड को सशक्त बनाना शामिल था. उन्होंने कहा कि जिस किसी ने “हिंदू राष्ट्रवादी वी. डी. सावरकर या गोलवलकर को पढ़ा है उसे उपरोक्त घोषणाएं विचारों में संशोधन की तरह लग सकती हैं”. उन्होंने आगे लिखा कि मोदी यह “दावा कर सकते हैं कि उनका अभियान मुस्लिम निंदा रहित है”. इससे एक माह पहले वार्ष्णेय ने “मोदीः द मॉडरेट” नाम के अपने लेख में विस्तार से इन बातों को रखा था. साथ ही वार्ष्णेय ने यह भी माना कि “बेहद बेचैन मुस्लिम समुदाय मोदी के मेल-मिलाप वाले इशारों को विश्वसनीय नहीं मानता.”
मुसलमानों की बेचैनी के अलावा वार्ष्णेय ने अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर चिंताओं को भी संबोधित किया. इस मोर्चे पर पूर्व में मोदी की खामोशी और एक्शन न लेने की घटनाओं को गिनाते हुए वार्ष्णेय पूछते हैं, “क्या मोदी के सत्ता में आने के बाद आलोचकों को डराया या सजा दी जाएगी और अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध लगाया जाएगा?”
उसी महीने लिखे दूसरे लेख में, जिसका शीर्षक “मोदी और संतुलन” था वार्ष्णेय ने उन चिंताओं को दूर करने का प्रयास किया जिसमें माना जाता था कि यदि मोदी भारत के शासन की बागडोर हाथ में लेते हैं तो देश सांप्रदायिकता या फासीवाद के गहरे दलदल में फंस जाएगा. उन्होंने समझाया कि “जिस राजनीतिक विज्ञान विषय को मैंने दो दशकों तक पढ़ाया है, उपरोक्त विचार से सहमत नहीं होता. इसके दो कारण हैः पहला, ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है जो भविष्य को अतीत द्वारा खींची सीधी रेखा मानता है. दार्शनिक सच्चाई पर किसी को संदेह नहीं है लेकिन जब इसे मोदी की राजनीति पर फिट किया जाता है तो सवाल खड़ा होना लाजमी है.”
मेहता की ही तरह वार्ष्णेय ने मोदी के पूर्व में पूर्णकालिक आरएसएस प्रचारक के अतीत को दरकिनार कर दिया और गुजरात में उनके खूनी शासन के इतिहास को भी भुला दिया. मेहता की ही तरह वार्ष्णेय ने मोदी की खुद को पूरी तरह बदल सकने की उस क्षमता पर असीमित विश्वास व्यक्त किया जो यहां तक मोदी को पहुंचाने वाली ताकतों और विश्वासों पर निर्भर नहीं है.
दूसरी तरफ वार्ष्णेय ने मेहता के इस तर्क को दोहराते हुए कहा था कि संप्रदायिकता को स्वायत्त संस्थाओं से बड़ा खतरा रहता है. इन संस्थाओं का ढांचा किसी नेता की भीतरी इच्छा को संस्थान पर हावी होने नहीं देता. ये संस्थाएं पार्टी, संसद, संविधान और इसी तरह की अन्य संस्थाएं होती हैं. “मोदीः द मॉडरेट” नाम के अपने लेख में वार्ष्णेय ने पाठकों को आश्वासन दिया कि “मोदी की आलोचना इसलिए होती है क्योंकि वह सर्वसत्तावादी बनने की चाहत रखते हैं. राजनीतिक सिद्धांतों के आलोक में देखें तो यह निंदा करने लायक बात तब तक नहीं है जब तक इससे लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर नहीं होतीं.” लेकिन मोदी और स्वायत्त संस्था की बात करते हुए वार्ष्णेय यह भूल गए कि आरएसएस एक ऐसी संस्था है जो हिंदुत्ववादी पूर्वाग्रहों से भरी पड़ी है और इसने चुनावों में मोदी के समर्थन के लिए व्यापक संजाल तैयार किया था.
इसी प्रकार गुरुचरण दास भी उन उदारवादियों में से हैं जिन्होंने पूर्व में मोदी का समर्थन किया था. ऐसा उन्होंने मोदी की बुराइयों को जानते हुए खुशी-खुशी किया था. टाइम्स ऑफ इंडिया में 2014 के मतदान से पहले प्रकाशित हुए लेखः “धर्मनिरपेक्षता या विकास? पसंद आपकी” में उन्होंने लिखा था कि मोदी के जीतने से ध्रुवीकरण, संप्रदायिकता और निरंकुशता का खतरा है.” फिर गुरुचरण ने तर्क दिया कि उनके न जीतने का और भी बड़ा खतरा है. “यदि मोदी नहीं जीते तो 8 से 10 मिलियन युवा, जो प्रत्येक साल श्रम बाजार में प्रवेश करते हैं, उनके लिए रोजगार का निर्माण नहीं होगा. भारत जनसांख्यिकी का लाभ नहीं उठा पाएगा. मतदान करते वक्त 8 प्रतिशत विकास दर को पुनः हासिल करने के बारे में जरूर सोचा जाना चाहिए. मूल्यों में हमेशा बदलाव होता रहेगा और जो लोग धर्मनिरपेक्षता को जनसांख्यिकीय लाभ के ऊपर रखते हैं वे लोग संभ्रांत वर्ग से आने वाले गलत लोग हैं.”
दास को आर्थिक विकास और आरएसएस के एजेंडे को अलग-थलग कर सकने की मोदी की क्षमता पर जबरदस्त विश्वास था. गुरुचरण दास ने लिखा कि “मोदी के रिकॉर्ड को देखते हुए संभव है कि वह भ्रष्टाचार कम करेंगे. मोदी के अलावा बीजेपी के पास अन्य विकल्प नहीं है और मोदी को वोट देना का मतलब आरएसएस के सामाजिक एजेंडे को वोट देना नहीं है. सच तो यह है कि आरएसएस को इस बात का डर है कि उसका हिंदुत्व का एजेंडा आर्थिक एजेंडे की बलि चढ़ जाएगा.” एक बार फिर दास ने मोदी को जिताने में लगी आरएसएस की ताकत को नजरअंदाज कर दिया था.
अन्य बुद्धिजीवियों ने भी अपने-अपने शब्दों में यही दलील दी. वॉल स्ट्रीट जर्नल के टिप्पणीकार सदानंद धूमे ने मोदी को विलक्षण आर्थिक सुधारवादी बताया. (धूमे द कैरवैन मैगजीन के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं.) 2014 के चुनावों के कुछ दिन पहले धूमे ने “द मेकिंग ऑफ ए न्यू मोदी” नाम से लेख लिखते हुए कहा, “दुखी होने की जगह भारतीय उदारवादियों को इस बात का संतोष करना चाहिए कि उनका एक नंबर का दुश्मन जीतने वाला है. उदारवादियों ने मोदी को पार्टी के विवादास्पद मुद्दों को दरकिनार करने और अपनी कट्टरवादी छवि को नरम बनाने और आर्थिक विकास पर ध्यान देने के लिए मजबूर किया है”. ऐसे समय में जब मोदी के आलोचक इस बात से डर रहे थे कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हिंदू राष्ट्रवाद की भेंट चढ़ जाएगा, धूमे ने पाठकों को भरोसा दिलाया कि “मोदी के विकासक्रम पर गौर किया जाए तो एक उल्टी ही तस्वीर सामने आती है.” इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने चुनाव से पहले एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मोदी को धौंस दिखानेवाला या धर्मांध कहा था लेकिन इसके बावजूद लिखा कि “जिन लोगों को यह डर है कि मोदी के आने से फासीवादी काल या आपातकाल जैसा शासन आ जाएगा, वे लोग हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं और संघीय व्यवस्था की शक्ति को कमतर कर आंकते हैं.”
5 साल के मोदी शासन की एक कड़वी सच्चाई सामने है जो बताती है कि इस तरह का विश्लेषण कितना कच्चा था. वह तथाकथित नया मोदी गर्भ में ही मर चुका था.
भारत की सबसे शक्तिशाली संस्थाएं: भारतीय रिजर्व बैंक, निर्वाचन आयोग, केंद्रीय सूचना आयोग, केंद्रीय सतर्कता आयोग, भारत के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक, गुप्तचर ब्यूरो और यहां तक कि उच्च न्यायालय में भी दखल दिए जाने का शक है. और तो और सरकार की सांख्यिकी संस्थाओं की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाए गए हैं. इनमें से कई संस्थाओं में पिछले 5 साल में जबरदस्त घोटाले पाए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट के जजों को प्रेस के सामने आकर अपनी शिकायत करनी पड़ी जो उसके अंदर की गड़बड़ी को दर्शाता है. इसी प्रकार सीबीआई के शीर्ष पद को लेकर हुई रस्साकशी को कैसे समझा जाए? इसी बीच खुद पार्टी के अंदर मोदी की पकड़ को इस बात से समझा जा सकता है कि अमित शाह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया. बड़ी संख्या में मीडिया संस्थाओं ने मोदी पर्सनैलिटी कल्ट वाले सरकारी प्रचार को बढ़ा-चढ़ा कर प्रसारित किया और अपने संपादकों को हटाने, पड़ताल नहीं करने देने और सत्ताधारी लोगों को खुश करने के लिए प्रकाशित खबरों को हटा लेने जैसे काम किए. हाल में गौरी लंकेश की हत्या और भीमा कोरेगांव में दलित मार्च से जुड़े कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके नागरिक समाज को धमकाया गया है. सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुमड़े सहित नागरिक अधिकारों की बात करने वाले अन्य लोगों को मनगढ़ंत आरोपों में गिरफ्तार किया गया और उनकी जमानत नहीं होने दी गई. जबकि आरएसएस से जुड़े माया कोडनानी, असीमानंद, प्रज्ञा सिंह ठाकुर और अमित शाह और वे पुलिस अधिकारी जिन पर गुजरात में एक्स्ट्रा ज्यूडिशल हत्या कराने का आरोप है, के मामलों को व्यवस्थित रूप से कमजोर बनाया गया ताकि वे छूट जाएं या उन्हें जमानत मिल जाए.
आर्थिक मोर्चे पर मोदी की भयानक नोटबंदी ने पूरी दुनिया को ऐसा न करने का सबक दिया है. माल एवं सेवा कर (जीएसटी), जो सिद्धांतों में सकारात्मक दिखता था, मोदी प्रशासन के हाथों में झटका साबित हुआ. कृषि संकट गहरा गया है और रोजगार निर्माण बिल्कुल भी नहीं हो रहा. लीक हुए सरकारी डेटा से पता चलता है कि मोदी के शासन में बेरोजगारी अपने सबसे भयंकर स्तर पर पहुंच गई है. अच्छे दिन के कमजोर पड़ते वादे को छिपाने के लिए जीडीपी के आंकड़ों के साथ बेशर्मी से छेड़छाड़ की गई.
सांप्रदायिक हिंसा बढ़ी है. गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों की हत्या इतनी आम हो गई हैं कि अब समाचारों में इन्हें स्थान मिलता है. दलितों पर अत्याचार अधिक हो गए हैं. हालांकि धर्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति बड़े पैमाने पर होने वाले दंगे नहीं हुए लेकिन पिछले साल बुलंदशहर की घटना से साफ हो जाता है कि इनकी कोशिशें जारी हैं. योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना कर मोदी ने एक पूरा राज्य हिंदू धर्मगुरु को सौंप दिया है. एक समय योगी आदित्यनाथ को हिंदुत्ववादी गुडों का नेटवर्क चलाने के लिए जाना जाता था. स्वयंभू साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर पर आतंकी हमलों का षडयंत्र करने के आरोपों का मुकदमा चल रहा है और वह 2019 के चुनावों में बीजेपी की उम्मीदवार हैं.
मोदी के “निर्णयाक” प्रशासन ने कश्मीर में सालों के काम के बाद हासिल उपलब्धि को खो दिया है और घाटी में हिंसा का चक्र फिर शुरू हो गया है. हमारे सभी पड़ोसी नाराज हैं और सरकार का चीन को आंख दिखाने का दावा नाटक से ज्यादा कुछ नहीं लगता. आधिकारिक दस्तावेजों से स्पष्ट है कि विवादास्पद राफेल करार में गड़बड़ी प्रधानमंत्री कार्यलय की करतूत है.
इन सब बातों के पहले ही मोदी के उदारवादी समर्थकों का हमें दिया गया आश्वासन खोखला साबित हो चुका है. मोदी के बदल जाने का दावा और उनकी घोषणाएं और इरादे ख्याली पुलाव साबित हुए हैं. इतिहासकार मुकुल केसवन ने 2015 में लिखा था कि बीजेपी बदलेगी ऐसी उम्मीद करना बेकार है. वह लिखते हैं, “कौन सी दुनिया में यह संभव माना जा सकता है कि एक बहुसंख्यकवादी सरकार, जिसका नेतृत्व एक विभाजक नेता कर रहा है, वह चुनाव में भाग लेते ही अपने मूल चरित्र को बदल लेगी”. उपरोक्त बातों के अलावा मोदी समर्थकों ने अपने विरोधाभास भी प्रकट किए हैं.
2014 में ही पत्रकार टोनी जोसफ ने मोदी के बौद्धिक हितैषियों के तर्कों की कमजोरी की ओर इशारा कर दिया था. तर्क दिया जाता था कि कि “मोदी अपनी मनमानी नहीं कर पाएंगे क्योंकि उन पर विभिन्न किस्म के अंकुश होंगे. जैसे, गठबंधन साझेदारों का अंकुश, अन्य बीजेपी नेताओं का अंकुश और नागरिक समाज और अन्य का अंकुश. इस तर्क में एक गड़बड़ी यह थी कि वह मोदी को निर्णायक कहने वाले उनके सर्मथकों के दावों को नहीं समझ रहे थे. सीधे-सादे शब्दों में कहें तो मोदी के समर्थकों की अपेक्षा थी कि एक मजबूत मोदी आर्थिक निर्णय का नेतृत्व करें और कमजोर मोदी के हाथों में सामाजिक निर्णयों की बागडोर रहे. यह एक सपना है.” जोसफ ने अपने विश्लेषण को आगे नहीं बढ़ाया लेकिन यही बात मोदी के अतीत के बारे में इन समर्थकों के विश्लेषणों में देखी जा सकती है. उन लोगों ने इस नेता के सर्वसत्तावादी और सांप्रदायिक इतिहास से कोई सीख नहीं ली. विकास के गुजरात के रिकार्ड को उनके नेतृत्व में होने वाले राष्ट्रीय अर्थतंत्र में चमत्कार का अकाट्य सबूत माना गया.
मोदी के गुजरात मॉडल को कई तरह से उनके पक्ष में इस्तेमाल किया गया. बहुत कम लोगों ने मोदी के पहले से जारी गुजरात के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया जो उनका अकेला का किया चमत्कार नहीं था. दूसरी ओर उदारवादी लोग विकास दर से इतने सम्मोहित थे कि इसके पीछे की अर्थ-सामाजिक विशेषताओं को नहीं समझ पाए. राजनीतिक विज्ञानी क्रिस्टोफर जेफरलॉट ने दिखाया है कि “गुजरात से संबंधित एक बड़ी पहेली है कि सफल आर्थिक विकास ने जीवन स्तर की गुणवत्ता को नहीं बढ़ाया है. (जेफरलॉट कारवां के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं.) वह लिखते हैं,
गुजरात में हो रहे विकास ने व्याप्त असमानता पर पर्दा डाला है. सच तो यह है कि गुजरात की एक तिहाई आबादी गुजरात मॉडल के विकास से लाभांवित नहीं हुई है. जिन लोगों को इस विकास ने नहीं छुआ वे हैं- मुस्लिम, दलित और आदिवासी.
सच्चाई यह है कि गुजरात की अर्थव्यवस्था पारंपरिक रूप से ही विकास उन्मुख पूंजीपतियों और इन्हें सहयोग करने वाले राज्य पर निर्भर रही है. 1990 के दशक से ही गुजरात का सफल विकास आपूर्ति को तरजीह देने वाली सार्वजनिक नीतियों पर आधारित रहा. इसके दो सामाजिक स्वरूप रहेः पहले तो राज्य के पास शिक्षा, स्वास्थ और अन्य क्षेत्रों में निवेश के लिए बहुत कम धन था और उसकी इच्छा भी इन क्षेत्रों में निवेश में कम थी. दूसरी यह कि मजदूरी भी हमेशा कम रही (राज्य ने इसमें सुधार करने का बहुत सीमित प्रयास किया.) इसलिए गुजरात को सांप्रदायिक धुव्रीकरण के लिए तो जाना ही जाता था (जिसकी परिणति 2002 में हुई), साथ ही यह सामाजिक धुव्रीकरण वाला राज्य भी था.
मोदी के शासन में इशरत जहां, सोहराबुद्दीन शेख, कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति की गैरकानूनी हत्याएं भी गुजरात मॉडल का हिस्सा हैं. इसी तरह राज्य में मुस्लिमों का अपनी बस्तियों में सिमट कर रह जाना भी इसी मॉडल का एक अंश है. मोदी के उदारवादी प्रशंसकों ने इनकी बात नहीं की. यह नहीं माना जा सकता की उन्हें इसका पता नहीं था. स्वयं मेहता ने सोहराबुद्दीन और कौसर बी की हत्या के एक साल बाद 2007 में लिखा था कि हत्यारों से लोगों का ध्यान हटाने का प्रयास करने से बीजेपी की “नैतिक असंवेदनशीलता” सामने आई है. मेहता ने यहां तक लिखा था,
यह शेखी बघारने जैसी बात है कि सड़क और आधारभूत संरचना निर्माण में दक्षता आधारभूत सामाजिक मूल्यों का विकल्प है. समृद्ध से समृद्ध समाज भी कानून और विश्वास के अभाव में जल्दी खत्म होने लगते हैं. इन बातों को हवा में उड़ाना भ्रम पैदा करता है... हिंदुत्व का परिणाम क्या होगा? बीजेपी की ओर से इसका जवाब सीधा सा है: ठगों का राज. यहां एक पैटर्न दिखाई देता है. बीजेपी ने सभी प्रकार की संस्थाओं के खिलाफ खुला युद्ध छेड़ दिया है फिर चाहे वह न्यायपालिका हो या निर्वाचन आयोग. उसकी नफरत की नारेबाजी तेज हो गई है और जिन राज्यों में उसका शासन है वहां सार्वजनिक वाद-संवाद की संस्कृति नष्ट की जा रही है.
2014 में उपरोक्त प्रकार के विचारों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था. 2013 में इशरत जहां मामले को लेकर गुप्तचर ब्यूरो पर सवाल उठे थे और कुछ लोगों को लग रहा था कि इस एजेंसी की जिम्मेदारी तय होगी. इसी वक्त मेहता ने सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार पर एजेंसी को नष्ट करने का प्रयास करने का आरोप लगाया. अपने एक लेख में जिसमें मेहता ने मंहगाई, बेरोजगारी और नागरिक स्वतंत्रता पर सरकार के कामकाज की आलोचना की थी, मेहता ने लिखा,
इसके बाद इन लोगों ने संस्थाओं पर हमले किए. इन लोगों ने हमेशा ही ऐसा किया है. यह पिछले चार दशकों से कांग्रेस के डीएनए में है. इन लोगों ने उन संस्थाओं की लिस्ट तैयार की जो अभी तक बेदाग हैं- संसद, आईबी, नौकरशाही और अन्य. इसके बाद उनके खिलाफ हमला कर दिया. ये लोग संस्थाओं को अपने राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं.
भारतीय मुख्यधारा के उदारवादी बुद्धिजीवियों के गुमराह करने वाले तर्क और तथ्यों और मोदी के राजनीतिक इतिहास और व्यवहार को नजरअंदाज करने में उनकी भूमिका, उदारवाद के प्रति उनकी और उनके समर्थकों की प्रतिबद्धता के दिवालियापन को प्रकट करता है. इन लोगों के ब्रह्मांड में उदारवादी यदि खोखला शब्दभर नहीं हैं तो भी यह बाजार की यज्ञ का चढ़ावा तो है ही. सभी जानते हैं कि इन लोगों ने जाति के सवाल को किस तरह संबोधित किया है लेकिन कम से कम सांप्रदायिकता के सवाल पर इनके विचार पहले की तरह ही बने हुए थे लेकिन मोदी के शीर्ष पर आ जाने के बाद सांप्रदायिकता के प्रति इनके विचार भी ढोंग रह गए.
मैंने राजनीतिक टिप्पणीकार पंकज मिश्रा से इस परिघटना के बारे में जानना चाहा. मिश्रा ने अपने जवाब में लिखा, “मुझे लगता है कि नवउदारवादी बुद्धिजीवियों की चालबाजी को समझना जरूरी है. इन लोगों ने शक्तिशाली हो रहे एवं अमेरिका के सहयोगी बन रहे भूमंडलीकृत भारत की नई शक्ति संरचना में अपने स्वार्थ के लिए मोदी के बहुत पहले ‘नेहरूकालीन समाजवाद’ का मर्सिया और मुक्त बाजार का कसीदा पढ़ना आरंभ कर दिया था. मिश्रा ने बताया, ”वर्तमान भारत या मोदी परिघटना को हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक विदेश में रह रहे भारतीय और विदेशों से लौटे भारतीयों की निजी आकांक्षाओं की पड़ताल नहीं करते. इन लोगों की इच्छा सत्ता में स्थान पाना (धन कमाना) था, इसलिए ये लोग ‘आधुनिकीकरण’ करने वाले मोदी को अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने वाले के रूप में मानने को तैयार हो गए.
पिछले साल मिश्रा ने एक इंटरव्यू में कहा था, “मैं आपको बता सकता हूं कि भारत में रहने वाले अमेरिका में शिक्षित और अमेरिका को आदर्श मानने वाले वर्ग ने अनियंत्रित बाजार की वकालत की है”. मेहता, वार्ष्णेय, दास और धूमे, मिश्रा की उपरोक्त टिप्पणी में फिट बैठते हैं. ये लोग खुद को उदारवादी बताते हैं लेकिन यह लोग हिंदू दक्षिणपंथ में भी मौजूद रहते हैं और उदारवादी और दक्षिणपंथी खेमों में इनका आना-जाना लगा रहता है.
इन लोगों की विचारधारा से शायद एकाध मतदाता प्रभावित होता हो लेकिन संख्या के हिसाब से चुनाव में इसका असर नहीं पड़ता. इन लोगों की ऐसी वकालत ने मोदी का रास्ता आसान किया. इन लोगों ने उपलब्ध मंचों और प्राप्त ख्याति का इस्तेमाल एक ऐसे नई तरह के ‘नॉर्मल’ को स्वीकार्य बनाने के लिए किया जिसके तहत भारत के प्रधानमंत्री कार्यालय के दरवाजे अब ऐसे प्रजापालक के लिए खोल दिए गए जिसके हाथों में खून के छींटे थे और जहां सीमित प्रकार के ध्रुवीकरण को तब तक ठीक माना जा सकता था जब तक कि वह आर्थिक विकास में अवरोध नहीं डालता. एक तरह से कहें तो भारत के कुछ प्रसिद्ध उदारवादियों ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री जैसे गरिमामय पद के लिए व्यक्ति में होने वाली नैतिकता के मानदंड को कम करने में सहायता की है.
अंततः जैसे ही मोदी जीते, मेहता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मेहता ने घोषणा की कि “मोदी की जीत भारतीय इतिहास की सबसे शानदार जीत है और लोकतांत्रिक किंवदंतियों में बहुत कम ऐसी कहानियां है”. मेहता ने लिखा, “नए प्रधानमंत्री में राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण गुण मौजूद है यानी अवरोधों को अवसरों में बदलने की क्षमता. वह एक बाहर के आदमी थे जिसकी बुद्धिजीवियों ने छवि बिगाड़ी, केंद्र सरकार जिसके पीछे पड़ी रही. लेकिन उन्होंने इन सारे अवरोधों को चीर कर मैदान मारा है और अब वह स्वतंत्रता के बाद पहली बार भारतीय सत्ता संरचना में सबसे बड़ा बदलाव लाने वाले हैं.”
मेहता ने उन लोगों की सीधे-सीधे आलोचना की जो मोदी को उनके चश्मे से नहीं देखते थे. मेहता ने लिखा, “नेतृत्व के सवाल का जवाब धूर्तता से दिया जा रहा था. नेतृत्व की बात करते ही लोग सर्वसत्तावाद का हवाला देने लगते थे. यह कड़वी सच्चाई है कि हाल के चुनाव इसलिए राष्ट्रपति चुनाव की तरह बन गए क्योंकि हमारे पास पिछले कुछ सालों से प्रधानमंत्री नहीं था. मोदी ने एक चीज साबित कर दी है- “आलोचना से बिना घबराए अपनी बात पर टिके रहना.” उनकी इस बात में एकाध महीने पहले खुद की ही बताई हुई परिवर्तनशील नेता वाली बात गायब थी.
हल्के फुल्के अंदाज में मेहता ने बताया कि उत्तर प्रदेश जैसी जगह पर बीजेपी के प्रचार ने पूरी तरह से सामाजिक ध्रुवीकरण किया है और पार्टी का एक भी लोकसभा सदस्य मुसलमान नहीं है. यह तथ्य मेहता के हिसाब से ऐसी बात थी जिसे बीजेपी को खुद हल करना था. लेकिन मेहता के अब ऐसा कहने का कोई अर्थ नहीं था क्योंकि चुनाव हो चुके थे. मेहता का मानना था कि यह ऐसी बात है “जिसके भारतीय लोकतंत्र पर भविष्य में पड़ने वाले असर पर बाद में बात की जानी चाहिए” क्योंकि यह वक्त इस बात को तवज्जो देने का नहीं है.
तीन महीने बाद स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर मोदी ने जब भाषण दिया तो मोदी से सम्मोहित मेहता ने मोदी की तुलना चार्ल्स डी गॉल से की जो मेहता के अनुसार, “गणतांत्रिक सम्राट” थे. मेहता ने लिखा कि फ्रांस के इस पूर्व राष्ट्रपति की तरह मोदी में “एक अनूठी क्षमता है जिससे वह शक्ति संपन्न होते हुए भी जनता की आवाज बन जाते हैं”. उनके भाषण में “लोकतांत्रिक सहमति का आह्वान था” जो मेहता के अनुसार “लोगों को साथ लेकर चलने का संदेश देता है”. मेहता लिखते हैं, “अवरोध खड़ा करने वाली शत्रुता के समय यह बहुत अच्छा संदेश है”.
वार्ष्णेय ने 2014 के चुनाव की तुलना स्वतंत्रता के बाद भारत के पहले चुनाव से की. उन्होंने लिखा, “1952 के चुनाव ने एक ऐसी लोकतांत्रिक राजनीति की शुरुआत की जिसमें वे मूल्य, मान्यता और विचार थे जो आज पूरी तरह से खत्म हो चुके हैं. आज एक नई ताकत, नई मान्यता और नई परंपरा का जन्म हुआ है और मोदी इसका प्रतिनिधित्व करते हैं.” वार्ष्णेय ने जीत के बाद अहमदाबाद में मोदी के भाषण को शानदार बताया जिसमें मोदी ने कहा था कि जिस तरह महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता की लड़ाई को एक ऐसे आंदोलन में बदल दिया था जिसमें करोड़ों लोगों ने भाग लिया था उसी प्रकार वह ‘विकास’ को जन आंदोलन में बदलना चाहते हैं. वार्ष्णेय ने लिखा, “मोदी चीन के नेता देंग शियोपिंग हो सकते हैं जिन्होंने चीन में मुक्त बाजार का दरवाजा खोला था”. ऐसा कहने के बाद ही वार्ष्णेय, मोदी के आरएसएस के साथ संबंध (जिस संगठन ने उन्हें तैयार किया था और उनके अभियान के लिए काम किया था) के प्रति थोड़ा सचेत कराते हैं. वार्ष्णेय लिखते हैं, “क्या आरएसएस भारतीय राजनीति में विकास की भूमिका को स्वीकार करेगा? हम अभी यह नहीं जानते”.
लेकिन जल्द ही हमें इसका जवाब मिल गया. जैसे ही इस बात के संकेत मिलने लगे कि सरकार का हिंदुत्व एजेंडा पीछे नहीं रहेगा तो मोदी के लिबरल शुभचिंतकों ने उनकी छवि को बचाने के लिए बहाने बनाए. उदारवादी सिद्धांतों के बलिदान को न्यायोचित बताने के लिए उन्होंने आर्थिक विकास की आशा सामने रखी लेकिन धीरे-धीरे वह भी खत्म हो गए. अब एक ऐसा समय आया जब इनका सपना चूर-चूर हो गया.
2014 में वार्ष्णेय ने मोदी की यह कहकर प्रशंसा की थी कि वह कट्टर हिंदूवादी राष्ट्रवाद से अधिक “व्यवहारवादी” नेता हैं. उन्होंने लिखा, “मोदी के कामकाज पर आरएसएस की पृष्ठभूमि का असर जरूर रहेगा और यह सोचना कि वह किसी तरह का हिंदू राष्ट्रवादी विमर्श मंजूर नहीं करेंगे कुछ ज्यादा ही मानना होगा.” उन्होंने माना कि पार्टी और सांस्कृतिक और शैक्षिक संस्थानों में आरएसएस का व्यक्तिगत प्रतिनिधित्व होगा लेकिन इसके बावजूद उन्होंने पाठकों को आश्वस्त किया कि जब तक मोदी का प्राधिकार बना रहेगा “आरएसएस का नेतृत्व आर्थिक या सांस्कृतिक नीति में अपनी बात नहीं मनवा सकेगा”.
इस साल अक्टूबर में लिखे एक लेख में वार्ष्णेय ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, वडोदरा और पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक घटनाओं का जिक्र किया. लेकिन वार्ष्णेय ने तर्क दिया कि मोदी अपने काडर या पार्टी द्वारा राजनीति में दंगों के इस्तेमाल करने का विरोध करेंगे. वार्ष्णेय ने दावा किया कि “छोटे-मोटे उपद्रव होते रहेंगे लेकिन बड़ी टकराहटें नहीं होंगी और किसी भी हालात में यह ज्यादा नहीं होंगी.” उनके लेख का शीर्षक थाः “चिंगारियों को आग मत कहो”.
अक्टूबर के उनके लेख की बड़ी चिंता नैतिक नहीं आर्थिक थी. उन्होंने कहा कि यदि वह गलत साबित होते हैं तो भारी हिंसक घटनाएं भारत के आर्थिक विकास की परियोजना को हिला कर रख देंगी. उस साल दिसंबर में दास ने भी कुछ इसी तरह की बात लिखी थी. लेख का शीर्षक थाः “आर्थिक एजेंडे को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पार्टी के सांस्कृतिक दक्षिणपंथ को ठिकाने लगाना होगा”. दास ने मान लिया था कि मोदी आधुनिकीकरण के रास्ते पर चल रहे हैं. उन्होंने लिखा, “राजनीतिक पार्टियां चुनाव तब जीतती हैं जब वे मॉडरेट सेंटर की राह पर चलती हैं. यही मोदी की चमत्कारिक जीत की व्याख्या है”.
मोदी के कार्यकाल के एक साल में मेहता को मानना पड़ा कि मोदी सरकार और उसके पहले की सरकार का “आर्थिक मॉडल अलग नहीं है” और यहां तक कि “दोनों के वित्त मंत्री भी एक समान हैं”. अपनी पूर्व की आशा से विपरीत मेहता ने तब लिखा कि मोदी चुप रहते हैं इसलिए उनका मूल्यांकन करना कठिन है. लेकिन फिर भी उन्होंने दावा किया कि हमें इस बात की आशा नहीं छोड़नी चाहिए कि विकास गति नहीं पकड़ेगा. उन्होंने लिखा, “आशा बेचैनी से बड़ी ताकत है.”
मेहता ने सुझाव दिया कि मोदी के शासन के प्रति जो भी बेचैनियां थी वह खत्म हो गई हैं. “कुछ लोग डराने की कोशिश कर रहे हैं जो स्थानीय झगड़ों को कयामत का दिन दिखाना चाहते हैं. अल्पसंख्यकों को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से हाशिए पर करना एक सच्चाई है लेकिन ऐसा हमारे भेदभाव वाले ढांचे के कारण है. यह इस सरकार का किया हुआ नहीं है”.
2015 के सितंबर में हिंदुओं की एक भीड़ ने दादरी में मोहम्मद अखलाक की हत्या कर दी. भीड़ का दावा था कि अखलाक ने गौकशी की है. यह मोदी सरकार और उदारवादी टिप्पणीकरों की परीक्षा की घड़ी थी. मेहता ने लिखा, “उम्मीद नहीं थी कि बीजेपी की खराबी आसानी से मिट जाएगी लेकिन यह उम्मीद जरूर थी कि अवसरवाद धर्मांधता को काबू में कर लेगा और भारत को 21वीं सदी पर पहुंचाने की जरूरत बुरे लोगों को हरा देंगी”. मेहता इस बात से आंख नहीं मूंद पाए कि बीजेपी में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो “असहिष्णुता को अस्वीकार करता है. इसका दोष पूरी तरह से मोदी के ऊपर था. नफरत फैलाने वालों के सर पर मोदी का हाथ है. सरकार एक ऐसी लकीर खींच रही है जो डरावनी, दुर्भावनापूर्ण और स्वतंत्रता के लिए खतरा है.”
वार्ष्णेय ने इस बात के लिए दुख व्यक्त किया कि “कई दिनों तक प्रधानमंत्री ने पुरातनकाल वाली वहशियत को नजरअंदाज किया. अंततः जब वे बोले तो भी उन्होंने घुमाफिरा कर बात की. स्पष्ट बात नहीं रखी”. वार्ष्णेय लिखते हैं,
विश्वसनीय समाचारों से पता चलता है कि प्रधानमंत्री की पार्टी के स्थानीय सदस्य इस कुकृत्य में शामिल थे. उनकी कैबिनेट के मंत्री, उनकी पार्टी का मुख्यमंत्री, बीजेपी के विधायक और हिंदू राष्ट्रवादी मुखपत्र ने हत्यारों का समर्थन किया. इन लोगों ने पीड़ित का पक्ष नहीं लिया. यदि यह कानून के उल्लंघन जैसी सीधी-साधी बात होती तो प्राइम मिनिस्टर का वैचारिक परिवार इस में शामिल नहीं होता. यह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट था.
यह देर से आंख खुलने की एक और मिसाल थी. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के समय, जबकि अमित शाह ने बीजेपी के उत्तर प्रदेश चुनाव का प्रभार संभाला था वार्ष्णेय ने लिखा था, “इस वक्त यह माना जाना चाहिए कि यदि यह सच है तो, मुजफ्फरनगर पार्टी के शीर्ष लोगों की नहीं बल्कि स्थानीय नेताओं की करतूत है”. चुनाव होने के कुछ दिन पहले अप्रैल 2014 में वार्ष्णेय ने “मोदी द मॉडरेट” नाम से लिखे लेख में बताया कि “दंगे बीजेपी की चुनावी रणनीति की गलती है जिसका संबंध मोदी के साथ जोड़ा कर नहीं देखा जा सकता है.”
धूमे ने उस वक्त टाइम्स ऑफ इंडिया में कॉलम लिखना शुरू किया था. दादरी में हुई हत्या के बाद उन्होंने अपने एक कॉलम में लिखा कि मोदी को इस हत्या की “कड़ी और स्पष्ट निंदा करनी चाहिए.” यदि वह ऐसा नहीं करते हैं तो “उनकी पार्टी और संघ परिवार के लोग ऐसी बेवकूफी, खराब हरकत और विभत्सता बेरोकटोक करने लगेंगे”. ऐसा कहने के बाद धूमे मोदी के समर्थकों की तर्ज पर तर्क देने लगे कि हर कानून एवं व्यवस्था में होने वाली कमजोरी के लिए मोदी को निजी तौर पर जिम्मेदार नहीं माना जा सकता. “क्यों कुछ हत्याओं को समाचार पत्रों और प्राइम टाइम में प्रमुखता दी जाती है जबकि अन्य खबरों पर किसी का ध्यान नहीं जाता?” धूमे के अनुसार, “एक प्रकार से इन सवालों में दम है. मोदी पर होने वाले बहुत से हमले राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित होते हैं.”
दादरी में हुई लिंचिंग के कुछ दिनों बाद धूमे ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका की संभावित यात्रा के बारे में लिखा था. अमेरिका में मोदी अपने प्रशंसकों और सिलिकॉन वैली के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों से मिलने वाले थे. साथ ही, धूमे के शब्दों में, ऐसी आशंका थी कि उन्हें “कथित दमनकारी विचारधारा” के लिए विरोध का सामना करना पड़ सकता है. धूमे ने अमेरिका के अकादमिक जगत के एक समूह के उस पत्र का उल्लेख किया जिसमें मोदी पर “मानव अधिकार के उल्लंघन, आलोचकों पर शिकंजा कसने, न्यायपालिका को प्रभावित करने और धार्मिक स्वतंत्रता का दमन करने” का आरोप था. मोदी की आलोचकों के भीतरी संताप को धूमे ने नया शब्द दिया “मोदी मनोविकृति लक्षण”. उन्होंने इसका अर्थ एक ऐसी प्रवृत्ति बताई जो प्रधानमंत्री से संबंधित किसी भी बात को केवल सर्वनाश के अर्थों में ग्रहण करती है.”
मोदी के उदारवादी बचाव में अतार्किकता पहले से अधिक होती चली गई. दिसंबर 2015 में मेहता ने लिखा की “कुछ सालों की राजनीतिक परिपक्वता, संस्थाओं का जीर्णोद्धार, आर्थिक गतिकी और नए सामाजिक संबंधों की आशा तेजी से धूमिल होती जा रही है.” मेहता ने आने वाले दिनों में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तूफान की भविष्यवाणी की.
फरवरी में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रतिरोध को कुचलने की कार्रवाई और छात्र नेता कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद मेहता ने लिखा, “हम ऐसी सरकार के साए में जी रहे हैं जो बुरी तरह से हानिकारक और राजनीतिक रूप से असक्षम है. यह राष्ट्रवाद का प्रयोग संवैधानिक देशभक्ति को कुचलने, कानूनी निरंकुशता का इस्तेमाल विरोध की आवाज को दबाने और राजनीतिक शक्ति को क्षुद्र जीत हासिल करने और प्रशासनिक शक्ति का प्रयोग संस्थानों को नष्ट करने के लिए कर रही है.” लेकिन मई 2016 के आते-आते वह फिर एक बार आशा से भर गए जबकि सरकार बहुत सीमित प्रयास इस दिशा में कर रही थी. मेहता ने लिखा, “पीछे देखने की सरकार की कमजोरी उसके आगे बढ़ने के मिशन में बाधक है” लेकिन ये विरोधाभास “फिलहाल इतने नहीं बढ़े हैं कि इन्हें नियंत्रित न किया जा सके”. जो कुछ भी हो रहा है इसके बावजूद,
भारत की कथा संभावनाओं से भरी है न कि आशंकाओं से. वैश्विक संदर्भ में, जिसमें वैचारिक पागलपन और आर्थिक अनिश्चितता हावी है, भारत के गंभीर दिखने वाले सवाल कम डरावने लगते हैं. यह प्रधानमंत्री की सफलता ही मानी जाएगी कि जिस प्रकार की राजनीतिक वैधता उन्हें हासिल है उस के आसपास अन्य कोई नेता नहीं भटकता.
उसी महीने सिंगापुर में लोगों को संबोधित करते हुए मेहता ने कहा, “बहुसंख्यकवाद का खतरा यकीनी लग रहा है.” वहां वह बिलकुल स्पष्ट थे कि सरकार का हिंदू कट्टरवाद चुनावी पैंतरों से बढ़कर है. वह बताते हैं, “मुझे सच में लगता है कि मोदी ने पार्टी में उन तत्वों को हावी होने दिया है जो चुनावी संदर्भों में चीजों को नहीं देखता और जिसकी कोशिकाओं में बहुसंख्यकवाद भरा है. लगता है कि पार्टी के इस हिस्से को मजबूत होने दिया जाएगा.”
इसके दो महीने बाद जुलाई में मेहता ने मोदी मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल की सराहना की. जिन मंत्रियों को नियुक्त किया गया उससे मेहता ने यह निष्कर्ष निकाला कि “प्रधानमंत्री बिना अतीत की क्षुद्रता में उलझे हुए निरंतर राजनीतिक हिसाब से विचार कर सकते हैं और वह बिना आंख झपके भविष्य पर नजर जमाए हुए हैं.” इस फेरबदल में स्मृति ईरानी के स्थान पर “राजनीति प्रतिभा” वाले प्रकाश जावडेकर को वह मंत्रालय सौंप दिया गया था जो ईरानी के कार्यकाल में जेएनयू और इसी तरह के दमनों के लिए जिम्मेदार था. संघ की वफादारी का जावडेकर का इतिहास और राज्यसभा के सदस्य के रूप में बीजेपी की लाइन का पालन करने के उनके इतिहास को नजरअंदाज करते हुए मेहता ने तर्क दिया, “क्या वह पार्टी के विचारों और आरएसएस के साथ उसके संबंधों को वश में कर सकेंगे ताकि थका देने वाली साधारणता और सांस्कृतिक और राजनीतिक घमंड के आगे आत्मसमर्पण न किया जाए? क्या वह एक ऐसे मंत्रालय में बदलाव ला सकते हैं जिसने लगातार भारत के भविष्य को दांव पर लगाया है?“
जब मेहता इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सके कि मोदी के कैबिनेट में ऐसे मंत्री भी हैं जो आरएसएस के दरबरी हैं तो मेहता फिर लागलपेट करने लगे. वह लिखते हैं, “क्या कुछ एक मतान्ध लोगों को कैबिनेट में रखना यह संकेत है कि ऐसे व्यवहार को पुरस्कृत किया जाएगा या इससे यह संकेत जाता है कि ऐसा व्यवहार जिसे कभी कभार सहन किया जा सकता है, वह सीमा पार नहीं करेगा जिसका उल्लंघन पद न दिए जाने से हो सकता है.”
इसके बाद वाले महीने में मेहता ने नेहरू स्मृति संग्राहलय एवं पुस्तकालय से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने कम पात्रता वाले एक पूर्व नौकरशाह को निदेशक बनाए जाने के विरोध में इस्तीफा दिया था. इससे पहले के निदेशक ने संस्कृति मंत्री की आलोचना के बाद इस्तीफा दे दिया था. नवंबर में मेहता ने एक व्यंग्य लिखा: “यह आपातकाल कहां है?”. यहीं से मेहता का मोदी सरकार के प्रति लगाव पूरी तरह से खत्म हो गया. मेहता ने उस व्यंग्य में लिखा, “कई लोग कह रहे हैं कि यह अघोषित आपातकाल है. वे कहते हैं कि नेता की व्यक्तिपूजा अभूतपूर्व स्तर तक पहुंच गई है... लेकिन यह व्यक्तिपूजा आपातकाल जैसी शायद न हो क्योंकि हमारा नेता हमेशा सही होता है.”
मजाकिया लहजे में मेहता ने ऐसी परिस्थितियों का उल्लेख किया जो चार दशक पहले इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन से संभावित रूप से जुदा थीं.
राज्य की ताकत का इस्तेमाल विपक्ष का गला घोटने के लिए होना... सभी प्रकार के विचारों के दमन के लिए राष्ट्रवाद का इस्तेमाल... अप्रत्यक्ष दबाव देकर प्रेस, खासकर टीवी मीडिया को सरकार के अदृश्यों के अनुकूल करना... भारतीय नागरिक समाज के भ्रष्टाचार के खिलाफ विद्रोह को शांत करना और अदृश्य बना देना... छात्रों और शिक्षकों द्वारा अपने अधिकारों का प्रयोग करने पर अकादमिक संस्थाओं पर खतरे के बादल मंडराने लगना... राज्य का लगातार ऐसा माहौल बनाना जहां गैर कानूनी हत्याओं को जायज ठहराया जा सके... प्रधानमंत्री का उपद्रव के खिलाफ चेतावनी देने के बावजूद मंत्रियों द्वारा उपद्रवियों का सम्मान करना और उन पर तिरंगा ओढ़ाना... निगरानी का व्यापक प्रयोग... न्यायपालिका पर नियंत्रण करने का प्रयास... राज्य की न्याय प्रवर्तन मशीनरी का मनमाना प्रयोग... सैन्यवाद और सैन्य प्रतीकों का राजनीति में बढ़ता इस्तेमाल... कश्मीर में दमन...
मेहता ने उपरोक्त के साथ जोड़ा “जी हां यह सब अर्थतंत्र के लिए जरूरी है. जीडीपी दर प्रभावित करने वाली है.” प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए मेहता ने कहा, “निश्चित ही आपके आलोचक गलत हैं. समकालीन समय को कैसे आपातकाल कहा जाए? किसी भी मूल्यांकन को “पूर्वाग्रहरहित” तब ही माना जा सकता है जब वह मूल्यांकन आपके सच से मेल खाता हो. आपका सच हमें आज की स्थिति को आपातकाल जैसा कुछ महसूस करने की अनुमति नहीं देता.”
एक के बाद दूसरों के भी मोदी के बारे में विचार बदलने लगे.
अप्रैल में धूमे ने लिखा,
पांच साल बाद कोमा से उठे आदमी के लिए भारत के आज के हालात को समझ लेना आसान नहीं होगा. आज सार्वजनिक जीवन में लोग 17 करोड़ 50 लाख मुसलमान अल्पसंख्यकों के लिए जिस तरह की भाषा बोलते हैं उसका पुराने समय के शिष्टाचार से कोई मेल नहीं है. यदि वर्ल्ड बैंक धर्मान्धता की सहजता वाली कोई सूची तैयार करे तो 2014 से अब तक भारत हैरान करने वाली “तरक्की” करता दिखाई देगा और न जाने कितने देशों को पछाड़ देगा.
वार्ष्णेय ने अगस्त 2017 में लंदन के फाइनेशियल टाइम्स में लिखे लेख में बताया कि मोदी का भारत हर तरह के जड़ लोकतंत्र की तरह दिखाई देता है. ऐसा भारत जो “केवल चुनावों के बारे में सोचता है और दो चुनावों के बीच के समय लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करता है.” उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मुस्लिमों के प्रति उन्मादी हिंसा का विशेष तौर पर उल्लेख किया. पिछले साल कुछ राज्यों में बीजेपी की हार के बाद वार्ष्णेय ने लिखा, “यह साधारण समय नहीं है. मई 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हमने राजनीतिक हेकड़ी का प्रदर्शन साफ-साफ देखा है.” उन्होंने पूछा कि अब आम चुनावों में पार्टी मतदाताओं को रिझाने के लिए कौन से वादे करेगी क्योंकि, “आर्थिक प्रदर्शन या प्रशासनिक रिकार्ड पर्याप्त नहीं हैं.” वह लिखते हैं, “2014 के चुनावों में हिंदू राष्ट्रवाद की अनुपस्थिति के बावजूद मोदी के चुनाव अभियान में आरएसएस ने साथ दिया था... फिलहाल यह साफ नहीं कि हिंदुत्व के अलावा यह पार्टी किस मुद्दे को चुनाव में उठाएगी.”
मोदी के शासन की तीसरी बरसी पर लिखते हुए दास आशावान बने रहे. उन्हें इस बात की निराशा थी कि रोजगार का वादा पूरा नहीं हुआ लेकिन उनको लगता था कि अर्थतंत्र को ठीक तरह से चलाया गया है. मोदी के खतरे पर उनका मानना था कि “कोई भी सांप्रदायिक दंगा नियंत्रण से बाहर जाने नहीं दिया गया लेकिन बहुत से खतरे अभी भी दिखाई देते हैं.” दास ने चिंता व्यक्त की कि “यह विचार तेजी से मजबूत हो रहा है कि हिंदुत्व का अर्थ गाय के नाम पर की जाने वाली गुंडागर्दी और गाय को मनुष्य से बड़ा मानना है.” उनका मानना था कि यह विचार मोदी की छवि को नुकसान पहुंचा रहा है और यह हिंदुत्व की विचारधारा के खिलाफ है. हालांकि उन्होंने नहीं बताया कि कैसे यह हिंदुत्व से मेल नहीं खाता. “इस आशा के साथ कि मोदी का उद्देश्य के प्रति गंभीर रहना और उनकी दृढता इन कमजोरियों को मिटा देगी” दास दो साल और इंतजार करने को तैयार थे.
2019 के चुनावों के शुरू में अमेरिका के फॉरेन अफेयर के लिए लिखते हुए दास ने मोदी से मोहभंग होने की बात स्वीकारी. स्वयं को मोदी का समर्थन करने वाले पहले उदारवादियों में से एक बताते हुए उन्होंने लिखा कि मोदी को लेकर उनके सपने टूट गए हैं. उन्होंने लिखा, “यदि मोदी ने तीव्रता के साथ सुधार किया होता और रोजगार के वादों को निभाया होता तो मैं भारत की जनसांख्कीय लाभ का फायदा उठाने के लिए उनकी प्रशंसा करता. ऐसे में शायद मैं उनके बेस्वादी नस्लीय राष्ट्रवाद को भी क्षमा कर देता.”
यहां भी दास ने कुछ ऊटपटांग दावे किए. उन्होंने लिखा, “मोदी की जबरदस्त विजय ने भारतीय दूकानदारों को आत्मसम्मान प्रदान किया और अंग्रेजी प्रेमी संभ्रात को अपने ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों का पुनः प्रशिक्षण करने का अवसर दिया है.” मोदी को “व्यवहारिक आधुनिकीकरणकर्ता” बताते हुए दास ने उनकी तुलना सिंगापुर के ली क्वान यू से की. दिवंगत ली को सिंगापुर के अर्थसामाजिक रूपांतरण का श्रेय दिया जाता है.
टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हुए उन्होंने अपनी निराशा भी व्यक्ति की. इस निराशा के बावजूद वह यह तय नहीं कर पा रहे थे कि इस बार के चुनावों में वह किसे वोट देंगे. वह लिखते हैं, “फिलहाल मोदी सबसे लोकप्रिय नेता हैं. इस बात की आशा कम है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी प्रभावकारी सरकार बनाने के लिए एक हो सकेंगे. जो विकल्प मौजूद हैं उन्हें देखते हुए मैं मानता हूं कि मोदी आर्थिक और प्रशासनिक सुधार के स्तर पर अधिक काम करेंगे लेकिन क्या मैं विरोध और सामाजिक एकजुटता की कीमत पर ऐसा होने देने के लिए तैयार हूं.” दास ने महसूस किया कि उनके जैसे व्यवहारिक “मध्यमार्गी” के लिए आगे खाई पीछे कुआं की स्थिति है.
मैंने दास से साक्षत्कार के लिए समय मांगा था लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया. जब मैंने धूमे से संपर्क किया तो उनका जवाब था, “हालांकि मैंने साफ तौर पर 2014 में किसी दल या उम्मीदवार को प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं माना था लेकिन एक बात यकीनी तौर पर कही जा सकती है कि 2013 के आखिर तक आते-आते मैं यह तर्क नहीं दे रहा था कि भारत के लिए मोदी सही नहीं हैं. उस वक्त मेरा विचार था कि 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की हार के बाद से रूके हुए आर्थिक सुधारों को आगे ले जाने के लिए बीजेपी सबसे उपयुक्त पार्टी है.” जब मैंने उनसे पूछा कि सरकार के सामाजिक रिकार्ड को क्या वह समर्थन देते यदि मोदी आर्थिक स्तर पर सफल रहते तो? धूमे का जवाब था, “2017 में मोदी द्वारा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में आदित्यनाथ का चयन मेरे लिए अस्वीकार्य होता. यह उस स्थिति में भी होता यदि मोदी ने बेकार की नोटबंदी जैसी नीति लागू न की होती और उस हाल में भी यदि उन्होंने मेरी आशा के अनुरूप तीव्र आर्थिक सुधारों को अंजाम दिया होता.”
हालांकि उदारवादी व्यवस्था लागू होने के बाद बनने वाले प्रधानमंत्रियों में मोदी ऐसे हैं जिन्होंने सबसे अधिक शक्तियों को केंद्रित किया है लेकिन धूमे को लगता था कि “अक्सर हम भारत जैसे देश में होने वाली संघीय राजनीति को भुला देते हैं. इतना कहने के बावजूद मैं मानता हूं कि चार साल पहले की तुलना में आज सर्वसत्तावाद की चिंता अधिक गंभीर है. लेकिन अक्सर यह तर्क बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है. मैं मोदी को निरंकुश या सर्वसत्तावादी की जगह एक निर्वाचित शक्तिशाली व्यक्ति मानता हूं.”
हालांकि मोदी की यह आलोचना धूमे के लिए नई बात नहीं थी. 2010 में “प्रधानमंत्री मोदी उड़ान नहीं भर सकेंगे” शीर्षक वाले एक लेख में धूमे ने गुजरात में मोदी शासन को लेकर चिंता जाहिर की थी. मोदी के व्यक्तिवाद और मतविरोधियों के प्रति असहनशीलता के प्रति अपनी चिंता प्रकट करते हुए लिखा था, “अपनी प्रशासनिक क्षमता और सत्यनिष्ठा के बावजूद मोदी बीजेपी और भारत के लिए गलत चयन साबित होंगे.” एक स्तर तक धूमे को लग रहा था कि 2002 का नरसंहार मोदी की छवि को “जीवनभर कलंकित करता रहेगा” और एक अरब की जनसंख्या वाले मुल्क में किसी नेता से उम्मीद करना कि उसके “हाथों में खून के छोटे ही सही लेकिन दाग न हों” कोई बड़ी उम्मीद नहीं है. 2011 के आरंभ में धूमे ने लिखा था, “मोदी के समर्थक राज्य की समृ़द्धि में मोदी के योगदान को बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं.” इस दशक के आरंभ में मोदी से पहली बार दूरी बनाने के बाद धूमे ने अबकी दूसरी दूरी बना ली.
वार्ष्णेय ने ईमेल पर मुझे बताया कि उन्होंने “मोदी के उदय को और उनके प्रशासन को अनुभवसिद्ध रूप में देखा न कि मानदंड के तौर पर. क्या होना चाहिए और क्या हो रहा है इस बात का अंतर लोकप्रिय टिप्पणियों में अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है. मैंने कभी भी हिंदू राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया और न ही करूंगा. मैं उनके सांस्कृतिक प्रोजेक्ट को लेकर उदासीन हूं लेकिन मुझे यह जरूर लगता था कि आर्थिक प्रोजेक्ट अच्छा चलेगा लेकिन मैं गलत साबित हुआ. आप सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर के मेरे इस अंतर को देख सकते हैं जिसे मैंने उनकी जीत के बाद अपने पहले लेख में प्रस्तुत किया था.”
वार्ष्णेय ने महसूस किया कि चुनावों को छोड़कर हर स्तर पर आज भारत का लोकतंत्र पहले से अधिक कमजोर हुआ है. उन्होंने तर्क दिया कि मोदी के शासन में उनके प्रदर्शन को लेकर राजनीतिक विज्ञान की समझदारी को चुनौती दी है. “सामाजिक विज्ञान हमें स्पष्ट भविष्यवाणी और यकीनी संभावनाओं की घोषणा करने की अनुमति नहीं देता. इसके बावजूद प्रधानमंत्री ने संभावनाओं को खारिज किया है.” मोदी, मध्य के दक्षिण की ओर लुढ़की सरकार नहीं चला रहे हैं, जैसा कि संस्थानिक ढांचा उन्हें उस ओर ले जाता था. उन्होंने संस्थाओं को हद तक पीछे धकेला है और भारत को पहली दक्षिणपंथी सरकार दी है.”
सितंबर 2016 में मेहता ने तर्क दिया था कि उनके सभी आलोचनात्मक हथियार असफल साबित हुए हैं. ब्राउन यूनिवर्सिटी में श्रोताओं को संबोधित करते हुए मेहता ने कहा था, “मैं पूरी तरह से विश्वस्त नहीं हूं कि जो आलोचनात्मक अस्त्र हमारे पास हैं वे आज जो घटित हो रहा है उसकी वास्तविकता को समझने के लिए पर्याप्त हैं.” इस यूनिवर्सिटी में वार्ष्णेय अध्यापन करते हैं. मेहता कहते हैं, “यदि आप राजनीतिक ढांचे को समझना चाहते हैं तो केवल तकनीशियन और समाज विज्ञानियों पर निर्भर नहीं रह सकते. आपको एक नए नैतिक मनोविज्ञान और मानव आत्मा का अध्ययन करने वाले शास्त्र की जरूरत पड़ेगी.” लेकिन जिन लोगों ने मोदी के खतरे को भांप लिया था उन लोगों ने पुराने ही तरीकों से इसे समझा था.
साक्षात्कार के लिए मेरे अनुरोध को मेहता ने ठुकरा दिया. उन्होंने जवाब दिया, “मेरा यह विश्वास है कि एक लेखक को अपने मामले पर फैसला नहीं सुनाना चाहिए और किसी लेखक का इरादा महत्वपूर्ण नहीं होता.” उन्होंने जवाब में एक कविता भी भेजी,
अपना जीवन अंकित कर
फेंक दिया है राजपथ पर
थम कर पल भर आते-जाते
हम कब अपनी बात छुपाते
जब मैंने मोदी को मिले उदारवादियों के समर्थन के बारे में रामचंद्र गुहा को पत्र लिखा तो उनका जवाब था, “बस में इतना बता सकता हूं कि बीसवीं सदी के यूरोप के सबसे प्रसिद्ध लेखक और बुद्धिजीवी स्टालिन के प्रशंसक बन गए थे और अन्य कई लेखक और बुद्धिजीवी हिटलर का समर्थन करने लगे थे”. गुहा ने आगे लिखा, “इसलिए इस बात को मानने का कोई कारण नहीं है कि 21वीं सदी में भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग, यहां की सर्वसाधारण जनता से बढ़िया राजनीतिक फैसला कर सकता है.”
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव के भाषण के अंत में मेहता ने कहा था कि इस बार के चुनाव परिणामों का नतीजा जो भी आए जब तक कि पिछले पांच सालों में निर्मित संस्कृति का व्यापक तौर पर खंडन नहीं होता मुझे नहीं लगता कि हम राष्ट्र, स्वतंत्रता, सच्चाई या अपने धर्म को पुनः हासिल कर सकेंगे. यही 2019 के चुनावों में दांव पर लगा है.”
इतना कहने के बाद मेहता इंडिया टुडे के स्टार एंकर राहुल कंवल के सवालों का जवाब देने को तैयार थे. जैसा होना ही था, राहुल कंवल ने सरकार का बचाव किया.
राहुल ने मेहता से पूछा, “आपने 13 मिनटों में पिछले पांच साल की वे तमाम बातें बताईं जो आपकी नजरों में गलत हैं. क्या आपको कुछ ऐसा भी दिखाई देता है जिसे आप ठीक मानते हैं या आप केवल नकारात्मक चीजें ही देख पाते हैं?”
मेहता ने घबराहट से भरे लहजे में बताना शुरू किया कि पांच या दस साल पहले जो कायाकल्प का सपना दिखाई दिया था वह असफल हो गया है. उन्होंने पूछा कि क्या भारत भाई-भतीजावाद वाले पूंजीवाद से व्यवस्थित तरीके से चलने वाला बाजार बन पाया है. इसका जवाब था- नहीं.
कंवल ने उन्हें बीच में टोकते हुए सरकार की कुछ उपलब्धियां गिनाई और मेहता पर आरोप लगाया कि वह आधा खाली गिलास दिखा रहे हैं. जैसा पांच साल पहले मोदी के आलोचकों को वे खुद कहा करते थे.
मेहता ने इसके उत्तर में कहा कि सैद्धांतिक तौर पर अच्छी नव आर्थिक नीतियों को खराब तरीके से कार्यान्वित किया गया. “सवाल यह है कि जिस तरह का जनादेश सरकार को मिला और जैसा बहुमत उसके पास है क्या उसके अनुरूप रूपांतरण करने में वह सफल हुई है? ऐसा रूपांतरण जो विकास या रोजगार का निर्माण करता?”
कंवल ने फिर एक बार मेहता को बीच में टोका. उन्होंने मेहता को चुनौती दी, “भारत का विचार उस तरह से आगे नहीं बढ़ रहा है जैसा कि आप देखना चाहते हैं. आपके विचार की हार हो रही है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है भारत भी हार रहा है.”
इस तरह वह चर्चा आगे भी जारी रही. इस बीच, जैसा की मेहता के भाषण के दौरान भी हो रहा था, पृष्ठभूमि में भीमकाय मोदी, गले पर लहलहाता भगवा रंग का रुमाल डाले हुए भारत के मानचित्र पर मंडरा रहे थे. भगवा रंग की विशाल लकीरें दो-अंको वाला विकास दिखा रहीं थीं और छत के ऊपर हरे और भगवा रंग वाला बीजेपी का झंडा लहरा रहा था.