बौद्धिक संकट

मोदी समर्थक बुद्धिजीवियों की निराशा

20 जुलाई 2019
सदानंद धूमे, आशुतोष वार्ष्णेय, प्रताप भानु मेहता और गुरुचरण दास (बाएं से दाएं).
सदानंद धूमे, आशुतोष वार्ष्णेय, प्रताप भानु मेहता और गुरुचरण दास (बाएं से दाएं).

इस साल मार्च में आयोजित इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में दिए अपने भाषण में प्रताप भानु मेहता ने दावा किया कि भारतीय लोकतंत्र न केवल संकटग्रस्त है बल्कि इसकी तुलना 5 या 10 साल पहले की अवस्था से की जाए तो हमें उम्मीदों के लगातार खत्म होते जाने का एहसास होता है. यह मोदी के 5 साल के शासन पर मेहता का बिना अगर-मगर वाला फैसला था. उन्होंने आगे कहा, “इन 5 सालों में भारत की आत्मा को छलनी-छलनी कर दिया गया है. सत्ता के शीर्ष पर विराजमान लोग हर उस चीज के समर्थक हैं जो भारतीयता की विरोधी हैं और हमारे लोकतंत्र द्वारा प्रत्येक नागरिक को मिलने वाले हर आश्वासन को धता बताया जा रहा है.

मेहता ने आगे बताया, “पिछले 10 या 15 सालों में बदलाव की जैसी आशा थी और जैसा सोचा जा रहा था कि भारत में अब एक ऐसा माहौल बनेगा जो उसे विकास, समावेशी और रोजगार निर्माण के नए दौर में ले जाएगा, उम्मीदों के जिस बड़े खजाने का भंडार हमने बनाया था, उसे गहरा धक्का लगा है. हमारी पहचान को उन्नत बनाने वाले धर्म का इस्तेमाल आज लोगों को निशाना बनाने के लिए हो रहा है.” मेहता ने बताया कि भारत में आज ज्ञान निर्माण का लक्ष्य सत्य को जानना नहीं है बल्कि इसका इस्तेमाल लोगों को मंदबुद्धि बनाने के लिए हो रहा है. आज के समय में अपनी बात रखना एक खतरनाक कृत्य बन गया है. मैं पूछता हूं कि जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग धमकाने और डराने वालों का साथ देते हैं तो क्या शिष्टाचार बचा रहेगा?” इसके बाद उन्होंने दावा किया, “यदि आगामी चुनाव (2019) सत्ता संरचना में बदलाव नहीं लाते तो भारतीय लोकतंत्र को एक बड़े खतरे का सामना करना पड़ेगा.”

मंच से मेहता नैतिकता का बड़ा दावा कर रहे थे. वह भारत के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले टिप्पणीकार हैं. उन्हें भारतीय उदारवाद का ऐसा चमकीला सितारा माना जाता है जो असहज करने वाली सच्चाई सामने रखने के एक बुद्धिजीवी के कर्तव्य का निर्वाहन करता है. लेकिन मेहता अपना दूसरा कर्तव्य पूरा नहीं कर पाए जो है- आत्मनिरीक्षण. इस भाषण में उन्होंने कहीं भी अपनी कमजोरियों का उल्लेख नहीं किया.

इंडियन एक्सप्रेस और अन्य जगह प्रकाशित होकर व्यापक रूप से पढ़े जाने वाले महेता, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने से भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर की जाने वाली 2014 के आम चुनाव से पहले की चिंताओं को गंभीरता से नहीं लेते थे. मेहता उन लोगों की चिंताओं को खारिज कर देते थे जो नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक रिकॉर्ड को लेकर सवाल उठाते थे. दिसंबर 2012 में जब मोदी फिर एक बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने तब मेहता के लिखे एक लेख का शीर्षक था “मोदीमय राजनीति”. उस लेख में मेहता ने राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए मोदी की पात्रता का बचाव किया था और 2002 के मुस्लिम नरसंहार में मोदी की भूमिका को लेकर की जाने वाली आलोचना पर अपने विचार पेश किए थे. मेहता ने लिखा था, “हम लोग मोदी के कैबिनेट में मंत्रियों की सूची का अध्ययन कर साल 2002 के अपराध में मोदी की भूमिका का मूल्यांकन कर सकते हैं.” (मोदी सरकार में 2009 तक महिला एवं बाल विकास मंत्री माया कोडनानी को 2002 के नरसंहार के लिए उम्र कैद की सजा दी गई थी. 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिनों बाद, गुजरात उच्च अदालत ने कोडनानी को जमानत दे दी और बाद में दोषमुक्त करार दे दिया.) लेकिन मेहता ने उस लेख में लिखा, “आप इन लोगों को देख कर हैरान हो जाते हैं कि क्यों 1984 में दिल्ली में हुए सिख विरोधी हिंसा में शामिल कांग्रेस के कैबिनेट मंत्रियों को सजा नहीं मिली. मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि 1984 का हवाला देकर मोदी का राजनीतिक बचाव किया जाना चाहिए. मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि बुराई पर हमला करना इस सूरत में अधिक कठिन हो जाता है जब अन्य संदर्भों में आप इसे जायज मानते हैं.”

लीक हुए सरकारी डेटा से पता चलता है कि मोदी के शासन में बेरोजगारी अपने सबसे भयंकर स्तर पर पहुंच गई है. अच्छे दिन के कमजोर पड़ते वादे को छिपाने के लिए जीडीपी के आंकड़ों के साथ बेशर्मी से छेड़छाड़ की गई.

प्रवीण दोंती कारवां के डेप्यूटी पॉलिटिकल एडिटर हैं.

Keywords: Narendra Modi Pratap Bhanu Mehta Ramchandra Guha democracy Sadanand Dhume RSS Adani Group erdogan Vladimir Putin Donald Trump fascist
कमेंट