1992 में मैंने हिन्दुस्तान टाइम्स टीवी के स्वामित्व वाली एक मासिक वीडियो समाचार पत्रिका आईविटनेसेज के लिए बतौर संवाददाता काम किया था. वरिष्ठ पत्रकार करण थापर शो के कार्यकारी निर्माता थे. हमारी टीम उत्तर प्रदेश को नियमित रूप से कवर कर रही थी. मैं जुलाई में बाबरी मस्जिद का दौरा कर चुकी थी. दो साल पहले भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी यह घोषणा करते हुए महीनों तक देशव्यापी रथ यात्रा कर रहे थे कि इस जगह पर हिंदुओं का अधिकार है. उनका रथा जहां-जहां से गुजरा वहां-वहां सांप्रदायिक हिंसा भड़की थी. 1992 की सर्दियों में अयोध्या में माहौल गरमाने लगा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कारसेवकों ने 6 दिसंबर को मस्जिद में इकट्ठा होने की योजना बनाई. थापर ने तीन वीडियो क्रू सदस्यों और बतौर रिपोर्टर मुझे अयोध्या भेजने का फैसला किया. हमें उम्मीद थी कि भीड़ मस्जिद के चारों ओर राम मंदिर का प्रतीकात्मक निर्माण करेगी. हमें लगा कि यह अच्छी रिपोर्ट हो सकती है. हमारी टीम 4 दिसंबर को ही फैजाबाद और अयोध्या में तैनात हो गई थी. इसे महज एक रिपोर्टिंग यात्रा भर होना था.
जो हुआ उसके लिए हम बिल्कुल तैयार नहीं थे. 6 दिसंबर की सुबह से लगभग छह घंटे में हजारों कारसेवकों ने नाटकीय ढंग से तीन गुंबद वाली 464 साल पुरानी मस्जिद को बीजेपी और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं के उग्र भाषणों की धुन पर धराशायी कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने प्रतीकात्मक कारसेवा के लिए मस्जिद के ठीक बाहर एक क्षेत्र का सीमांकन किया था. क्षेत्र में घूमने के बाद, आडवाणी और उनके उत्तराधिकारी के रूप में बीजेपी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के साथ विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल राम कथा कुंज में बस गए थे जो कुछ मीटर की दूरी पर स्थित एक अस्थायी बैठक मैदान था. विनय कटियार और उमा भारती सहित अन्य हिंदुत्ववादी नेताओं ने एकत्रित भीड़ को भाषण, टीका-टिप्पणियां और विभिन्न प्रकार के उपदेश दिए, जिसने तोड़फोड़ करने वाली भीड़ को जोश से भर दिया. जो कुछ सामने आ रहा था उसे रिकॉर्ड करने से रोकने के लिए कारसेवकों ने कई पत्रकारों पर भी हमला किया. उन्होंने पत्रकारों के कुछ उपकरण तोड़ दिए. मेरे सहयोगी और मैं दूर भगाए जाने से पहले कुछ घातक फुटेज रिकॉर्ड करने में कामयाब रहे.
मस्जिद की रखवाली करने वाले अर्धसैनिक बल के जवान परिसर से जल्दी निकल गए थे और कोई अन्य केंद्रीय बल आसपास के क्षेत्र में नहीं था. दोपहर तक पुलिसकर्मी भी तमाशबीन बने रहे. जिला प्रशासन और पुलिस ने सीता रसोई मंदिर के बगल में एक इमारत पर डेरा डाला हुआ था जो एक देखने की गैलरी के रूप में कार्य करता था. मेरे ज्यादातर पत्रकार सहयोगी भूतल पर शरण लिए थे. मैं पास की मिठाई की दुकान में छिप गई. दोपहर में हममें से कुछ लोग अपने ट्रांजिस्टर सेट पर ऑल इंडिया रेडियो बुलेटिन सुनने में कामयाब रहे. इसमें मस्जिद के गुंबदों को "छुट-पुट नुकसान" की बात की गई थी. हमारे सामने मस्जिद को, कानून का पालन कराने वालों की बिना किसी बाधा के, व्यवस्थित रूप से तोड़ा जा रहा था. कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व में उत्तर प्रदेश में बीजेपी सत्ता में थी. कांग्रेस के पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे. दोनों नेता मीडिया से दूर रहे. भीड़ ने आखिरकार मस्जिद को जमींदोज कर दिया.
शाम के आसपास राज्य सशस्त्र कांस्टेबुलरी ने पत्रकारों को ट्रकों में भर दिया और हमें जिला मुख्यालय फैजाबाद ले गए जहां शहर के मात्र दो बड़े होटल स्थित थे. पूरी शाम हम क्षितिज पर मुस्लिम घरों से उठते धुएं के बादलों को देख सकते थे, जिन्हें हिंदू भीड़ ने विध्वंस शुरू होते ही आग लगा दी थी. इसे अंजाम देने वालों के समर्थकों के बीच भी बेचैनी की भावना थी क्योंकि वे इस बात को लेकर बहुत यकीनी नहीं थे कि राष्ट्र इसे किस तरह लेगा. उन्होंने जश्न नहीं मनाया. अगर सभी नहीं तो भी अयोध्या के मुसलमानों में से ज्यादातर अपने घरों को छोड़ कर आस-पास के शहरों में चले गए थे. अगले दिन का मीडिया कवरेज ज्यादातर अस्पष्ट और फीका था. हालांकि उत्तर प्रदेश में हिंदी अखबारों में निराशा नहीं दिखाई दी, लेकिन उत्सव भी नहीं था.
विध्वंस के कुछ ही घंटों के भीतर सांप्रदायिक दंगों ने हजारों लोगों की जान ले ली. उस महीने बाद में बंबई दशकों के सबसे बुरे दंगे और हिंसा की आग में जल गया, जो जनवरी 1993 तक जारी रहे. आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताकिब, हिंसा में कम से कम 900 लोगों मारे गए थे और 2000 से ज्यादा लोग घायल हुए थे.
जब किसी बड़ी इमारत को ढहाया जाता है, तो बहुत ज्यादा धूल उड़ती है. कभी-कभी इसके खंडहर सहस्राब्दियों तक अपनी कहानियों को बताते हुए बेहद जरूरी गवाहों के रूप में बचे रहते हैं. कभी-कभी केवल मलबा होता है.
बाबरी मस्जिद के राम मंदिर में परिवर्तन को कई तरह से बताया जा सकता है. अदालतें, केंद्रीय जांच ब्यूरो और एमएस लिब्रहान जांच आयोग यानी ऐसी संस्थाएं जिन्हें धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारत के स्तंभों का गठन करना था- ने किस तरह विध्वंस के बाद के माहौल को संभाला, यह जानना बहुत जरूरी है.
लेकिन विध्वंस भारत की कहानी में एक ऐसा प्रसंग है जिसका अभी भी खुलासा नहीं हुआ है. यह हमेशा स्पष्ट नहीं होता है कि हमारी राजनीति, हमारे समाज और हमारी चेतना में इसकी विरासत कितनी है. विध्वंस ने देश और उसके भविष्य के बारे में जो पूर्वाभास दिया वह एक अशांत दशक की उथल-पुथल में कहीं सिमट गया.
टोयोटा ट्रक, जिसे आडवाणी के लिए एक भव्य "रथ" में बदल दिया गया था, धर्म और रंगमंच को राजनीति में ले आया. तीस साल बाद यह तमाशा बस बड़ा ही हुआ है. मस्जिद के गिरने की गूंज नियमित रूप से दिल दहला देने वाले मुस्लिम विरोधी नरसंहारों के दौरान, लोकप्रिय समाचार चैनलों पर नफरत से भरी शोरगुल वाली बहसों में, हाल ही में नवरात्रि के दौरान मुसलमानों की पिटाई के लिए भड़की भीड़ में और मुसलमानों के घरों पर अवैध रूप से बुलडोजर चलाने पर जनता की चुप्पी के बतौर नामुदार होती है.
जवाहरलाल नेहरू ने प्रसिद्ध रूप से भारत को "पालिम्प्सेस्ट" कहा, जहां परिवर्तन सतत था लेकिन अतीत हमेशा एक निशान, एक चिन्ह या कम से कम एक दाग के रूप में आगे बढ़ता रहा. एक बड़ी मध्ययुगीन मस्जिद को एक नए मंदिर में बदलने की लंबी प्रक्रिया में क्या कुछ हमेशा के लिए खो गया और क्या कुछ बचा है, यह सभी भारतीयों से जुड़ा है. इस दौरान मुझ सहित तमाम पत्रकार भारत के विचार पर हो रहे हमले के चश्मदीद गवाह बन गए हैं. जैसा कि हम उस निर्णायक दिन पर थे. यह ऐसी कहानी बन गई जो हमें कभी नहीं छोड़ेगी, जितना कि इसने कभी राष्ट्र को नहीं छोड़ा.
बाबरी मस्जिद 1528 से 1992 तक उत्तर प्रदेश के तत्कालीन फैजाबाद जिले में अयोध्या में वजूद में थी. यह भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना के दो साल बाद मीर बाकी द्वारा बनाई गई थी, जब बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराया था. कहा जाता है कि इसे बाबर के निर्देश पर बनाया गया था लेकिन बादशाह के संस्मरण बाबरनामा में इसका कोई जिक्र नहीं है.
यह स्पष्ट नहीं है कि मस्जिद के नीचे एक संरचना होने की बात कब शुरू हुई, कब इस पर एक तोड़े हुए मंदिर का दावा किया गया या कब इस स्थान को राम जन्मभूमि के रूप में जाना जाने लगा. यहां तक कि 2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने, जिसने हिंदुओं को यह जगह सौंप कर सम्मानित किया, इस दावे को साबित नहीं किया कि एक हिंदू मंदिर को नष्ट करने के बाद मस्जिद का निर्माण किया गया था. फिर भी यह मस्जिद अपने नष्ट होने से पहले और बाद में भी दशकों तक इस संघर्ष में उलझी रही.
मस्जिद को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पहली बार 1853 में झड़प दर्ज की गई थी. छह साल बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने परिसर के भीतर क्षेत्रों को सीमांकित करने के लिए एक बाड़ लगाई, जिससे मुसलमानों को भीतरी और हिंदुओं को बाहरी प्रांगण का उपयोग करने की अनुमति मिल गई. 1885 में एक स्थानीय पुजारी रघुबर दास ने मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के करीब एक मंच पर, जिसे उन्होंने "राम चबूतरा" कहा गया, और जिसे राम का जन्म स्थान माना गया, एक छत्र बनाने की अनुमति मांगी. फैजाबाद जिला अदालत ने उनकी याचिका खारिज कर दी.
आजादी के बाद मस्जिद में पहली नाटकीय और वास्तविक-परिवर्तनकारी चाल दिसंबर 1949 में चली गई जब स्थानीय हिंदुओं ने एक रात इसके अंदर राम की एक मूर्ति रख दी. 2012 में आई अपनी किताब, अयोध्या : द डार्क नाइट, दि सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ राम्स अपीयरेंस इन बाबरी मस्जिद में, कृष्णा झा और धीरेंद्र के झा लिखते हैं कि अयोध्या पुलिस द्वारा दर्ज की गई प्राथमिक सूचना रिपोर्ट में निर्वाणी अखाड़ा के मुखिया अभिराम दास का नाम है. “समय के साथ अयोध्या में कई हिंदुओं ने उन्हें रामजन्मभूमि उद्धरक कहना शुरू कर दिया.”
लेखकों ने इसे चन्हित किया कि विभाजन के दौरान फैला हुआ सांप्रदायिक उन्माद अभी तक शांत नहीं हुआ था; एमके गांधी की हत्या के दो साल से भी कम समय बाद छल-कपट का यह काम हुआ. जबकि गांधी की हत्या दिन के उजाले में की गई थी और मूर्ती रखने का कामअंधेरे में किया गया था. लेखक लिखते हैं, "न तो साजिशकर्ता और न ही उनके अंतर्निहित उद्देश्य अलग थे. दोनों ही मामलों में, साजिशकर्ता हिंदू महासभा के नेतृत्व के थे- मूर्ति लगाने के कुछ प्रमुख प्रस्तावक गांधी हत्या के मामले में मुख्य आरोपी थे, और उनका उद्देश्य इस बार भी भगवान राम के नाम पर बड़े पैमाने पर हिंदू लामबंदी को भड़का कर कांग्रेस से सत्ता हथियाना था.”
मूर्ती के प्रकट होने के बाद स्थानीय प्रशासन ने मस्जिद परिसर के दरवाजों को बंद कर दिया जिससे आने वाले दशकों के लिए भारत के मुकद्दर पर मुहर लग गई. यह साफ था कि नेता पूरी तरह से उपद्रवियों के साथ थे. 1949 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बड़े हिस्से ने भारत में हिंदुओं की प्रधानता पर हिंदू महासभा के विचारों का समर्थन किया. उनका और साथ ही फैजाबाद जिला कलेक्टर नायर जैसे राज्य प्रशासन का समर्थन साइट को बदलने के लिए महत्वपूर्ण था. नायर 1967 में भारतीय जनसंघ के टिकट पर सांसद चुने गए थे. उनकी पत्नी 1952 में हिंदू महासभा के टिकट पर जीती थीं.
1986 में एक चतुर राजनीतिक पैंतरेबाजी की कोशिश करते हुए तत्कालीन सरकार ने कथित तौर पर प्रधानमंत्री राजीव गांधी के चचेरे भाई अरुण नेहरू की सलाह पर हिंदू वोटों की उम्मीद में मस्जिद परिसर खोल दिया. इससे भानुमती का पिटारा ही खुल गया. दक्षिण एशिया में, जहां धार्मिक आधार पर राष्ट्रों का गठन किया गया था, कभी गौरवपूर्ण अपवाद रहा, धर्मनिरपेक्ष भारत अब उस दिशा में तेजी से बढ़ रहा था जहां हिंदू होने को राष्ट्रीय पहचान के पर्याय के रूप में देखा जाने लगा.
मुकदमेबाजी हमेशा इस कायापलट के केंद्र में थी. 1950 और 1989 के बीच चार मुकदमे दायर किए गए. 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने स्थानीय अदालत से स्थापित मूर्तियों की पूजा करने का अधिकार मांगा. अदालत ने मूर्तियों को हटाने पर रोक लगा दी और पूजा को जारी रखने की इजाजत दी. 1959 में निर्मोही अखाड़े ने उस स्थान का संरक्षक होने का दावा करते हुए, जिस स्थान पर राम का जन्म माना जाता था, कब्जे के लिए मामला दायर किया. 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ऑफ वक्फ ने मस्जिद और आसपास की जमीन पर कब्जे का दावा किया. 1986 में एक जिला न्यायाधीश ने हिंदुओं को दर्शन की इजाजत देने के लिए फाटकों को खोलने का निर्देश दिया. इसके अगले साल मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनाई, जिसका मकसद मस्जिद की हिफाजत करना था. 1989 में विहिप के पूर्व उपाध्यक्ष देवकी नंदन अग्रवाल ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में राम के नाम पर अपने पक्ष में कब्जे को लेकर चौथा मुकदमा दायर किया.
अक्टूबर 1989 में सभी चार मुकदमे लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक विशेष पीठ को स्थानांतरित कर दिए गए. वयोवृद्ध पत्रकार राम दत्त त्रिपाठी अक्सर जिक्र करते हैं कि कैसे सुनवाई के लिए विरोधी दलों के प्रतिनिधियों को एक साथ एक फिएट में लखनऊ की यात्रा करते देखा जा सकता था. लंबे समय से चली आ रही जटिल अदालती कार्यवाही में बाहर के लोगों को इस तथ्य से रूबरू कराने का एक तरीका था कि यह प्रेशर कुकर उबाल पर था.
1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के अपने फैसले की घोषणा की, जिसे सरकारी नौकरियों और संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करना था. ऊंची जातियों के विरोध ने देश को हिला कर रख दिया. लोकप्रिय हिंदू राय को पुख्ता करने के मौके को भांपते हुए लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में राम मंदिर के लिए समर्थन हासिल करने के लिए अपनी रथ यात्रा शुरू की. उन्हें बिहार में नौजवान लालू प्रसाद यादव ने रोका लेकिन यात्रा ने देश की राजनीति पर अपनी छाप छोड़ दी.
नरसिम्हा राव सरकार ने 13 दिसंबर 1992 को विध्वंस का मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दिया. सीबीआई अदालत में जांच और मुकदमे में लगभग तीन दशक लग गए.
इस घटना पर 49 प्राथमिकी दर्ज की गई थीं जिनमें से दो विध्वंस के लिए महत्वपूर्ण थीं : प्राथमिकी 197, अज्ञात कारसेवकों पर आरोप लगाते हुए, और प्राथमिकी 198, जिसमें आडवाणी, जोशी, भारती और कटियार शामिल थे. सीबीआई ने पहली प्राथमिकी 197 की जांच शुरू की और बाद में सभी 49 शिकायतों को अपने हाथ में ले लिया. विभिन्न तबादलों और तार्किक मुद्दों के बाद सीबीआई ने आखिरकार एफआईआर 197 और 198 को एकसाथ जोड़ दिया. 1993 में इसने सभी 49 मामलों में एक संयुक्त पूरक आरोप पत्र दायर किया. एक दशक से अधिक समय तक किसी भी गवाह को बुला कर उसकी जांच नहीं की गई, कोई सबूत दर्ज नहीं किया गया, अदालतों द्वारा कोई आरोप तय नहीं किया गया. प्रक्रियात्मक सवालों को लेकर मामला अटका रहा.
पहले से ही सुस्त व्यवस्था में बीजेपी के राजनीतिक भाग्य में तेजी से बदलाव के जरिए अतिरिक्त जड़ता का परिचय दिया गया था, जिसके नेता सीधे तौर पर विध्वंस में शामिल थे, और कांग्रेस और दूसरी पार्टियां रेत में सिर गढ़ाए तूफान के गुजर जाने के इंतजार में थीं. 1996 में राव को हटा वाजपेयी सत्ता में आए, जिनकी सरकार दो सप्ताह तक चली. 1996 और 1998 के बीच दो गठबंधन सरकारें बनीं और गिर गईं. अगले आम चुनाव के बाद बीजेपी और अन्य पार्टियों ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का गठन किया और वाजपेयी एक बार फिर प्रधानमंत्री बने. 1999 में उनकी सरकार फिर गिर गई लेकिन एनडीए ने बाद के चुनावों में एक आरामदायक जीत हासिल की और वाजपेयी ने तीसरी बार शपथ ली. इस बीच उत्तर प्रदेश में 1990 के दशक के आखिर और 2000 के दशक की शुरुआत में बीजेपी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच कई बदलाव देखे गए.
जिन लोगों के खिलाफ सीबीआई कार्रवाई करने वाली थी उन्हें चुनावी जीत मिली थी और उन्होंने उच्च राजनीतिक पदों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था. वाजपेयी के दूसरे और तीसरे कार्यकाल में आडवाणी को गृहमंत्री और तत्कालीन उप प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया जबकि जोशी मानव-संसाधन विकास मंत्री थे. इसी दौरान कारगिल युद्ध और पोखरण में परमाणु परीक्षण भी हुआ- राष्ट्रवादी भावनाओं में इजाफा के लिए दोनों महत्वपूर्ण थे.
सीबीआई के मामले ने एक लंबा, जटिल और भ्रमित करने वाला रास्ता अपनाया, जो दर्शाता है कि नई दिल्ली और लखनऊ में सत्ता में कौन था. फरवरी 2001 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एफआईआर 197 और 198 को जोड़ने में एक प्रक्रियात्मक "दोष" का उल्लेख किया. इसने साजिश के आरोप पर कार्यवाही को प्रभावी ढंग से रोक दिया और त्रुटि को सुधारने के लिए इसे राज्य सरकार पर छोड़ दिया. उस समय राज्य में शासन कर रही बीजेपी सरकार ने कोई सुधारात्मक उपाय नहीं किया.
कुछ महीने बाद लखनऊ की एक विशेष अदालत ने एफआईआर 198 में आरोपियों के खिलाफ आरोप हटा दिए. सीबीआई और एनडीए सरकार विपक्ष के शोर-शराबे के दबाव में यह सुनिश्चित करने के लिए मजबूर हुईं कि एजेंसी उच्च न्यायालय में फैसले के खिलाफ अपील करेगी. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया और रायबरेली की एक विशेष अदालत में एफआईआर 198 की अलग सुनवाई का आदेश दिया. जब सीबीआई ने 31 मई 2003 को रायबरेली अदालत में एक पूरक आरोप पत्र दायर किया, तो उससे साजिश के आरोप को हटा लिया गया जिसकी विपक्ष ने संसद में कड़ी निंदा की.
मेरे सहयोगियों और मैंने सीबीआई अदालत के सामने गवाही दी- मैं 2014 में एक बार और 2019 में तीन बार पेश हुई. हर बार समन को हम तक पहुंचने में कई साल लगे. एजेंसी को कोई जल्दी नहीं थी. यह अपनी नौकरशाही प्रक्रियाओं और हिमनद गति से संतुष्ट लग रही थी, यह साबित करने के लिए कि वीडियो फुटेज के साथ छेड़छाड़ नहीं की गई थी, किसी भी विशेषज्ञ से कोई बुनियादी प्रमाणीकरण पाने की जहमत नहीं उठाई. हर जगह सेल फोन होने के बावजूद, सीबीआई अधिकारियों को जाने-माने पत्रकारों का पता लगाने में असमर्थ होने के बारे में बड़बड़ाते हुए सुना जा सकता था. फोटोग्राफर प्रवीण जैन के पास अयोध्या में एक दिन पहले विध्वंस का पूर्वाभ्यास करने वाले हिंदुत्व कार्यकर्ताओं के कीमती सबूत थे और मेरे पास विस्तृत वीडियो फुटेज थे, जो 1992 में दुर्लभ था. जैन खासकर इसलिए परेशान थे कि सीबीआई उनकी खींची उन बेशकीमती तस्वीरों के निगेटिव की हालत के बारे में ज्यादा परवाह करती नहीं दिखी, जो उसके कब्जे में थीं. सीबीआई को गवाहों को सुनने में जितना समय लगा उससे 1992 में हमने जो यूमैटिक टेप शूट किए थे, वे लगभग विलुप्त हो गए. हमारी गवाही ने सीबीआई अधिकारियों को अदालत में बेचैन कर दिया. तेजी से बदलते राजनीतिक परिदृश्य में उत्साही गवाहों ने एजेंसी के अधिकारियों के जीवन को जटिल बना दिया. लेकिन सीबीआई को तूफान का सामना करने के लिए बस इतना करना था कि वह समय को अपना असर दिखाने दे, यादों को कमजोर करे, सबूतों को नष्ट करे और गवाहों को मरने दे.
मई 2004 में यूपीए सरकार के सत्ता में आने के बाद सीबीआई ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के समक्ष बीजेपी नेताओं के खिलाफ कार्यवाही बंद करने की चुनौती को फिर से शुरू किया. लेकिन छह साल बाद अदालत ने इस पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया. फरवरी 2011 में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.
सुप्रीम कोर्ट को मामले की सुनवाई में छह साल और लग गए. अप्रैल 2017 में उसने कहा कि वह मामले में मुकदमे को समयबद्ध पूरा करने का समर्थन करती है. इसने आडवाणी और जोशी के खिलाफ जो अब अपनी जिंदगी के 8वें दशक में थे, साथ ही साथ भारती और अन्य के आपराधिक साजिश के आरोपों को बहाल किया और वीआईपी और कारसेवकों दोनों से जुड़े मामलों में मुकदमे को एक साथ मिला दिया. इसने लखनऊ में ट्रायल कोर्ट को दो साल के भीतर सुनवाई पूरी करने का भी आदेश दिया. लेकिन युग सत्य पूरी तरह से बदल गया था. बीजेपी एक बार फिर केंद्र में सत्ता में थी, इस बार अपने बहुमत के साथ. यह अलग दांव लगा.
20 मई 2017 को आखिरकार लखनऊ में सीबीआई की विशेष अदालत में दैनिक सुनवाई शुरू हुई. मामले को "अयोध्या प्रकरण" करार दिया गया प्रसार. अदालत ने उन सभी को सुना और उनकी समीक्षा की जिन्हें सीबीआई विध्वंस के ढाई दशक बाद पकड़ सकी और गवाही देने के लिए ला सकी थी.
अदालत सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 2019 की समय सीमा को पूरा नहीं कर सकी और उसे अप्रैल 2020 तक और फिर सितंबर तक एक और विस्तार दिया गया. इस समय तक जमीन और भी आगे खिसक चुकी थी. 2019 में, बीजेपी बढ़े हुए बहुमत के साथ फिर से चुनी गई थी. नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बतौर पहले कार्यकाल के दौरान राजनीति, मीडिया के माहौल और इस विषय पर छिड़ी बहस ने मस्जिद के चार सौ साल के अस्तित्व को ही अपराध की तरह बना दिया न की इसके विनाश को नहीं. यह भावना उनके दूसरे कार्यकाल में तेजी से और भड़क गई, जैसे कि भारतीय राजनीति के सीने में कोई गांठ कस रही हो.
सीबीआई द्वारा उद्धृत 1026 गवाहों में से एक तिहाई को भी नहीं सुना जा सका. 17 आरोपी और लगभग 50 गवाह मारे गए थे. औपचारिक प्रमाणीकरण के अभाव में न्यायाधीश एसके यादव ने साक्ष्य तस्वीरों, समाचार पत्रों की कटिंग और समकालीन प्रकाशित लेखों को यह कहते हुए स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि मूल कॉपी पेश नहीं की गई. 30 सितंबर को कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया. न्यायाधीश ने कहा कि सीबीआई आडवाणी, जोशी, भारती और कारसेवकों के साथ काम करने वाले अन्य लोगों के बारे में कोई सबूत पेश करने में असमर्थ रही है जिन्होंने वास्तव में संरचना को ध्वस्त कर दिया था. उन्होंने कहा, ''आरोपी के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं है.''
मस्जिद के गिरने के दस दिन बाद लिबरहान आयोग का गठन किया गया था और तीन दिन बाद केंद्र ने सीबीआई को मामले को देखने के लिए कहा. आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एमएस लिब्रहान को उन घटनाओं के क्रम की जांच करने के लिए कहा गया जिनके कारण विध्वंस हुआ. आयोग का कार्यकाल तीन महीने का था लेकिन इसे 48 बार विस्तार दिया गया, आखिरकार 30 जून 2009 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी.
नब्बे के दशक में, साथी पत्रकारों के साथ, मैंने आयोग के सामने कई बार गवाही दी. लिब्रहान आयोग का कार्यालय दिल्ली के विज्ञान भवन में था.
पहली कुछ सुनवाइयों में ही लिब्रहान ने एक बेहुदा स्वर सेट किया जिसने लगता है कि कम से कम आयोग के सदस्य-सचिव, नौकरशाह एसके पचौरी को निकाल दिया. इंडियन एक्सप्रेस के राकेश सिन्हा, इंडिया टुडे के न्यूजट्रैक शो के मृत्युंजय कुमार झा, बीबीसी के मार्क टुली और राम दत्त त्रिपाठी और फोटोग्राफर प्रवीण जैन जैसे पत्रकार बयान देने वालों में शामिल थे. हममें से हर कोई जो उस दिन अयोध्या में मौजूद था, वे नोट्स, लेख, तस्वीरें और रिकॉर्ड किए गए साक्षात्कार लेकर आए थे- यह सब सबूत हैं.
माहौल ट्रायल कोर्ट जैसा था. गवाहों को हटा दिया गया और विध्वंस करने के आरोपी नेताओं और कारसेवकों के प्रतिनिधियों ने उनसे जिरह की. बतौर चश्मदीद गवाही देने वाले पत्रकारों को वकीलों के दुश्मनाना सवालों का सामना करना पड़ा, जिन्होंने हमारी व्यक्तिगत विश्वसनीयता को कम करने के लिए सब कुछ किया. हमारे धर्म, हमारे नाम, हमारी पृष्ठभूमि और अनुमानित संबद्धता सभी को सामने लाया गया. फिर भी लिब्रहान ने कार्यवाही को सभ्य बनाए रखने के लिए एक बहादुर प्रयास किया.
शुरुआती उत्साह जल्द ही फीका पड़ गया. साल घसीटते गए. सरकारें बदलीं और यादें फीकी पड़ गईं. स्टील की अलमारी के भीतर फाइलें और टेप पीले पड़ गए. कर्मचारी थके हुए और चीजों को समेटने के लिए बेचैन होने लगे.
जब रिपोर्ट जारी की गई, तो यह इतिहास के एक कठिन लेकिन अस्पष्ट अध्याय की तरह पढ़ी गई. लेकिन इसके बाद के तेरह सालों ने, लगता है रिपोर्ट को और ज्यादा जरूरी बना दिया है. रिपोर्ट में कहा गया है, "मुट्ठी भर द्वेषपूर्ण नेताओं ने शांतिपूर्ण समुदायों को असहिष्णु भीड़ में बदलने के लिए बेशर्मी के साथ सहिष्णुता की मिसाल का नाम लिया." यह "निर्विवाद सबूत" है, जिसका तर्क था कि, "सत्ता या धन की संभावना के लालच में बीजेपी, आरएसएस, विहिप, शिव सेना, बजरंग दल आदि के भीतर नेताओं की एक कतार उभरी जो न तो किसी विचारधारा से निर्देशित थी और न ही किसी हठधर्मिता से ओत-प्रोत थी और न ही किसी नैतिक क्षोभ से बाधित थे. इसने बीजेपी और संघ के सहयोगियों के शीर्ष नेतृत्व को भी नहीं बख्शा, जिन्होंने 'अयोध्या मुद्दे' को अपनी सफलता की राह के रूप में देखा और इस राह पर रौंदते हुए गाड़ी दौड़ा दी. ये नेता विचारकों द्वारा उन्हें दी गई तलवार चलाने वाले जल्लाद थे.
लिब्रहान आयोग ने संघ परिवार के उन दावों को साफ तौर पर खारिज कर दिया कि विध्वंस हिंदू जुनून का एक स्वतःस्फूर्त नतीजा था. इसमें लिखा है कि "कारसेवकों की लामबंदी और अयोध्या और फैजाबाद में उनका जुटान न तो स्वतःस्फूर्त था और न ही स्वैच्छिक. यह अच्छी तरह से सुनियोजित और योजनाबद्ध था." इसने दर्ज किया कि इस घटना को अंजाम देने के लिए "दसियों करोड़ रुपए" का अनुदान दिया गया था. ये विराट संसाधन "लामबंदी के साथ शुरू होकर और विध्वंस तक आंदोलन की पूरी प्रक्रिया के लिए किए गए नियोजन और पूर्व-योजना के लिए एक स्पष्ट संकेतक थे." आयोग ने पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी, आडवाणी और जोशी को विध्वंस के लिए "छद्म नरमपंथी" करार दिया. इसने संघ परिवार के विभिन्न नेताओं और संगठनों का भी नाम लिया. इसमें कहा गया कि "इस तरह के आंदोलन को पूरा करने के लिए, आवश्यक वित्त को संघ के विभिन्न खजानों से लिया गया. संघ परिवार ने आंदोलन के लिए आवश्यक कृत्यों को अंजाम देने के लिए विभिन्न बैंकों, विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों के नाम पर खातों के माध्यम से धन जुटाया. अज्ञात स्रोतों से नकदी की आमद के अलावा, नकदी को भी बैंकों के माध्यम से प्राप्तकर्ता संगठनों को हस्तांतरित और लेनदेन किया गया. आरएसएस, विहिप, बीजेपी और संघ परिवार के अन्य सदस्यों ने भी समय-समय पर आंदोलन के संचालन के लिए धन जुटाया.
आयोग हालांकि नरसिम्हा राव सरकार की दोषों की जांच करने में विफल रहा. संयोग से, जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार सत्ता में थी, तब रिपोर्ट प्रस्तुत की गई और सार्वजनिक की गई. लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के मनीष छिब्बर, जिनके पास रिपोर्ट के कुछ हिस्से थे, द्वारा सामने लाए जाने के अलावा केंद्र ने शायद रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया.
1992 और 2019 के बीच न्यायपालिका के सभी स्तरों ने हमेशा अयोध्या में मालिकाना हक के मुकदमे को- भूमि के स्वामित्व पर कानूनी मामला- एक नियमित भूमि विवाद से अधिक के रूप में देखा था. यह लंबे समय से चली आ रही मान्यताओं और दोनों पक्षों में कड़वाहट की एक मजबूत अंतर्धारा के बारे में था जिसे केवल राजनीति के साथ मिश्रित धर्म ही प्रेरित कर सकता था. अदालतें भूमि के मामले को कैसे सुलझाएंगी, यह इस बात के लिए महत्वपूर्ण था कि भारत एक बहुल, गैर-सांप्रदायिक लोकतंत्र होने के अपने संवैधानिक वादे के साथ कितना खड़ा है. क्या भारत अपने अलग-अलग भागों के योग से बड़ा था?
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2010 में कुछ बेढंगे जवाब देने में 18 साल का समय लिया. इसने एक विभाजित फैसला दिया, मालिकाने के मुकदमे को बटवारे के मुकदमे में बदल दिया. इसने तीन मालिकों के साथ भूमि को तीन भागों में विभाजित कर दिया: मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाला सुन्नी वक्फ बोर्ड; राम लला विराजमान, जिसे मामले के दौरान एक न्यायिक इकाई में बनाया गया था और निर्मोही अखाड़ा. कोई भी पक्ष खुश नहीं हुआ और सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई.
1990 के दशक की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद मस्जिद को लेकर न्याय का सवाल हमेशा के लिए खो गया. गुजरात में 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के बाद, एनडीए सरकार ने इस मुद्दे पर अपनी हठधर्मिता छोड़ दी और इसे चुनिंदा तरीके से उठाया. यूपीए इस पर आगे बढ़ने की भावना, मुसलमानों के संबंध में कांग्रेस की जिम्मेदारी के बारे में सवालों की अनुमति न देने और हिंदुत्व की भावना को भड़काने से रोकने की चिंता लेकर आई. जनसंचार माध्यमों और जनता के लिए, यह एक ऐसा समय था, जब 9/11 और संसद पर हमले की छाया में, आतंकवाद को मुसलमानों से पूरी तरह से जोड़ दिया गया था.
2014 के बाद प्रचलित राजनीतिक और सामाजिक मिजाज ने उस जगह पर राम मंदिर के निर्माण की मांग की. मीडिया बयान और अदालती कार्यवाही "मुस्लिम" पक्ष की अशिष्टता पर केंद्रित थी. राजनीतिक संदर्भ ने ऐसा जताया मानो मामला यह हो कि मंदिर का निर्माण कैसे और कब किया जाए, बजाए इसके कि कैसे विवेकपूर्ण तरीके से मालिकाना हक का फैसला किया जाए या मस्जिद को ध्वस्त करने के लिए जिम्मेदार लोगों को जिम्मेदार ठहराया जाए.
9 नवंबर 2019 को भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के अपना कार्यकाल पूरा करने के कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया. इसने एक परिशिष्ट के साथ एक सर्वसम्मत और अभूतपूर्व रूप से अहस्ताक्षरित निर्णय दिया, जो कुल मिलाकर एक हजार से ज्यादा पेजों का था. कोर्ट ने कानूनी रूप से बाबरी मस्जिद को ढहाते हुए पूरे विवादित स्थल को रामलला विराजमान को सौंप दिया. इसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह "तर्क की अवहेलना करता है और कानून के स्थापित सिद्धांतों के विपरीत है," और तीन में विभाजन को "कानूनी रूप से अस्थिर" बताया. इसने कहा कि "उच्च न्यायालय को विशेष रूप से मुकदमों में मालिकाने के सवाल पर फैसला करने के लिए बुलाया गया था ... लेकिन उच्च न्यायालय ने वह रास्ता अपनाया जो इसके लिए खुला नहीं था." इसने आगे निर्देश दिया कि सुन्नी वक्फ बोर्ड को उस जगह से दूर, जहां कभी मस्जिद थी, पांच एकड़ जमीन आवंटित की जाए. फैसले ने केंद्र सरकार को मंदिर निर्माण का काम सौंपा, उसे मंदिर ट्रस्ट स्थापित करने और उसे जमीन सौंपने की योजना बनाने के लिए तीन महीने का समय दिया.
अदालत ने 1992 में विध्वंस को "भयानक" पाया और इस बारे में विस्तार से बात की कि किस तरह "ऐसे तरीकों से जिन्हें कानून के शासन के लिए प्रतिबद्ध एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में नियोजित नहीं किया जाना चाहिए था," यह तर्क देते हुए कि "न्याय प्रबल नहीं हो सकता" जब तक इसको ठीक नहीं किया जाता मुसलमानों को बाबरी मस्जिद पर उनके अधिकार से वंचित किया गया था.
इसमें कहा गया है, "मुसलमानों ने मस्जिद का परित्याग नहीं किया. इस न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक गलत काम को ठीक किया जाए. ...संविधान सभी धर्मों की समानता को मानता है. सहिष्णुता और आपसी सह-अस्तित्व हमारे राष्ट्र और उसके लोगों की धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता को पोषित करता है.” फिर भी ऐसा लगता है कि अदालत ने जमीन देने का फैसला देते हुए किसी ऐसे विचार का इस्तेमाल नहीं किया है. इसने उन लोगों का पक्ष लिया जिन्होंने बेरहमी से विध्वंस को अंजाम दिया था और कोई पछतावा नहीं दिखाया था. उनके दावे को स्वीकार करके और मुसलमानों को निर्वासित करके, इसने प्रभावी रूप से 1992 में अपनाए गए तरीकों को सही ठहराया.
अपनी आत्मकथा “जस्टिस फॉर द जज” में गोगोई लिखते हैं कि फैसले के बाद शाम को “मैं जजों को रात के खाने के लिए ताज मानसिंह होटल पर ले गया. … हमने चीनी खाना खाया और वहां उपलब्ध सबसे अच्छी वाइन की एक बोतल पी. मैंने सबसे बड़ा होने के नाते बिल चुकाया." उन्होंने अपनी किताब में शाम की एक तस्वीर शामिल की. इसका कैप्शन था : " अयोध्या के ऐतिहासिक फैसले का जश्न." गोगोई के सेवानिवृत्त होने के चार महीने बाद मोदी सरकार के कहने पर राष्ट्रपति ने गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया.
शीर्ष अदालत के समक्ष एक और मामला बीजेपी नेता कल्याण सिंह, जो 1992 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, के खिलाफ अवमानना कार्यवाही की मांग वाली एक याचिका थी. उनकी सरकार ने अदालत में हलफ उठाया था कि वह मस्जिद को नुकसान नहीं होने देगी. याचिका 1992 में दायर की गई थी और याचिकाकर्ता ने इसे सूचीबद्ध करने के लिए कई आवेदन दायर किए थे. अगस्त 2022 में, याचिकाकर्ता और पूर्व मुख्यमंत्री दोनों की मृत्यु हो गई. पीठ ने समय बीतने और 2019 के फैसले का हवाला देते हुए मामले को बंद कर दिया. कोर्ट ने कहा, ''मैं आपकी चिंता की सराहना करता हूं. लेकिन अब इस मामले में कुछ भी नहीं बचा है." मामले को जारी रखना "एक मरे हुए घोड़े को कोड़े मारने" जैसा होगा.
लेकिन किसी राष्ट्र के जीवन में शायद ही कोई बात होती हो जिसे खत्म माना जा सकता हो. भारत की राजनीति को बड़े करीने से विध्वंस पूर्व और बाद के युगों में विभाजित किया जा सकता है. चीजों की पुरानी योजना में हिंदुत्व तत्वों को "बाहरी" के रूप में देखा जाता था. प्रमुख विपक्ष में समाजवादी और कम्युनिस्ट शामिल थे, जो भारत की तात्विकता पर सत्तारूढ़ कांग्रेस से भिन्न नहीं थे - सबसे पुरानी पार्टी कम से कम एक समग्र पहचान की शपथ लेती थी और पूरे समाज में वोट हासिल करने में रुचि रखती थी. लालकृष्ण आडवाणी की खून से लथपथ यात्रा और विध्वंस ने इस विचार को दृढ़ता से चुनौती दी, तुरंत रेत में एक रेखा खींची और बीजेपी को राजनीतिक विकल्प के केंद्र में रख दिया. कांग्रेस ने अपने दोष को स्वीकार करने या अपने ढर्रे को ठीक करने से इनकार करके केवल मामले को और खराब कर दिया.
फरवरी 1993 में नरसिम्ह राव सरकार ने अयोध्या पर एक श्वेत पत्र जारी किया, जिसमें उसने पूरी तरह से बीजेपी पर दोष मढ़ दिया. अपनी मौन निष्क्रियता के बावजूद इसने यह तर्क देते हुए जवाबदेह होने से इनकार कर दिया कि विध्वंस "पूरी तरह से व्यवस्था की विफलता नहीं थी." इसमें कहा गया है कि उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को “एक तरफ रख दिया”. "उसमें असफलता छिपी है, उसमें विश्वासघात निहित है." विध्वंस को रोकने में अपनी विफलता के चलते राव ने "बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री" का खिताब हासिल किया. उसी साल जारी किए गए बीजेपी के श्वेत पत्र ने खरे ढंग से कहा कि "यह अयोध्या और लोगों की धारणा के कारण था कि बीजेपी ने अपना मतदाता समर्थन बढ़ाया."
1996 के आम चुनाव में बीजेपी ने 161 लोकसभा सीटें जीतीं. वाजपेयी की 13 दिन की सरकार पहली बार थी जब पार्टी केंद्र में सत्ता में आई थी. अगले कुछ सालों में गठबंधन सरकारें विध्वंस का प्रत्यक्ष परिणाम थीं क्योंकि राजनीतिक दलों ने बीजेपी का मुकाबला करने के सरल उद्देश्य के साथ गठबंधन किया. 1999 में राम मंदिर के मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने और अपनी हिंदू राष्ट्रवादी साख को ठुकराने के बाद ही बीजेपी सहयोगियों को बचा पाई थी. कांग्रेस के नेतृत्व में और वाम मोर्चे के बाहरी समर्थन से बनी 2004 की यूपीए सरकार, राजनीति में एक सीधी धर्मनिरपेक्ष-बनाम-सांप्रदायिक धुरी बनाने वाले विध्वंस की छाया के बिना कभी नहीं बनती.
उत्तर प्रदेश ने सबसे अधिक उथल-पुथल देखी. इसी राज्य में विध्वंस का मंचन किया गया था और यहीं बीजेपी और उसकी पूर्ववर्ती पार्टी भारतीय जनसंघ को पहले से ही 1967 से महत्वपूर्ण समर्थन प्राप्त था. राज्य के विशाल आकार ने हमेशा यह सुनिश्चित किया है कि भारत के राजनीतिक समीकरण में यह एक निर्णायक वजन रखे. 1993 के विधानसभा चुनाव से पहले, बसपा और सपा ने गठबंधन की घोषणा की. उन्हें क्रमशः 67 और 109 सीटें मिलीं. बीजेपी ने अपने दम पर 177 सीट जीतीं, पर वह सरकार नहीं बना सकी. सपा नेता मुलायम सिंह यादव कांग्रेस और जनता दल के समर्थन से मुख्यमंत्री बने. इसने इस विचार को बल दिया कि जाति ने धार्मिक विभाजन को रौंद डाला था.
लेकिन अब, लगभग तीस साल बाद, यह एक जल्दबाजी में निष्कर्ष की तरह लगता है, जो उन दरारों के पूर्ण प्रभाव का सामना करने से बचता है जो अयोध्या चौड़ी और मजबूत हो गई थी. बीजेपी ने अपना पहला विधानसभा चुनाव 1980 में लड़ा था, जिस वर्ष इसकी स्थापना हुई थी, और 11 सीटों पर जीत हासिल की थी. राम मंदिर लामबंदी ने अपने वोट शेयर को 1989 में 11.6 प्रतिशत से 1991 में 31.5 प्रतिशत तक तेजी से धकेल दिया. विपक्षी एकता अक्सर सीटों के मामले में पार्टी को पीछे छोड़ देती है, इसके बावजूद इस शेयर ने वास्तव में कभी हार नहीं मानी.
उत्तर प्रदेश पर बीजेपी की राजनीतिक पकड़ शायद केंद्र में सत्ता हथियाने की उसकी क्षमता का सबसे बड़ा कारण है. इस राज्य में, बीजेपी को अपने हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे पर कभी भी परत चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ी. हर बार जब बीजेपी ने केंद्र में सरकार बनाई है, तो उसने उत्तर प्रदेश में किसी भी अन्य पार्टी की तुलना में अधिक सीटें जीती हैं- केवल एक बार राज्य में बहुमत हासिल करने में विफल रही. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि 2014 में मोदी ने अहमदाबाद को छोड़ दिया और वाराणसी को अपनी पसंद के निर्वाचन क्षेत्र के रूप में चुना.
विध्वंस और उसके परिणाम ने दंड से मुक्ति की राजनीति के लिए जमीन साफ कर दी जो नियमित और सुसंगत अभिव्यक्ति पाती है. 1990 में आरक्षण के कार्यान्वयन के बाद ओबीसी के दावे ने ऐसा प्रतीत किया जैसे मंडल ने कमंडल को सर्वश्रेष्ठ बनाया था. लेकिन बाकी के बीजेपी के खिलाफ सफलतापूर्वक गठबंधन करने में सक्षम होने के बावजूद पार्टी पूरे भारत में एक बहुत बड़ा समर्थन आधार बनाने में कामयाब रही जो आने वाले वर्षों तक इसे बनाए रखेगा. यह 1992 की सबसे बड़ी और सबसे स्थायी छाप है- बीजेपी की संसदीय सीटें बढ़ी हैं और तब से कभी भी तीन अंकों से नीचे नहीं खिसकी हैं.
1992 की विध्वंस से लेकर 2002 की गुजरात हिंसा तक एक बामुहावरा भी चलता है- अयोध्या से आ रही एक ट्रेन थी, साबरमती एक्सप्रेस, जिसे गोधरा में आग लगा दी गई थी, जिसमें 49 कारसेवक मारे गए थे और गुजरात में मुस्लिम विरोधी नरसंहार हुआ था. यह ध्यान देने योग्य है कि 2002 की हिंसा और राम मंदिर के लक्ष्य ने एक हिंदू राष्ट्रवादी राजनेता के रूप में 2022 में मोदी की स्थिति को कैसे मजबूत किया. इस बिंदु को विस्तार से बताना होगा.
और ऐसा होने के बाद आंतरिक शत्रु पैदा करना सफल राजनीति बन गई. भारत में पहले से ही टूटे हुए सामाजिक विभाजन पर से पर्दा हटा दिया गया था.
1990 के दशक ने भारतीय होने के अर्थ में एक स्पष्ट विराम चिह्नित किया था. उदारीकरण ने उपभोक्ता-संचालित समाज की ओर एक यात्रा की शुरुआत की और भारतीय आकांक्षाओं को बदल दिया. इस समय को अनिवार्य रूप से अच्छा या बुरा याद करना कठिन है - बेचैनी की एक नई भावना भारत की विशेषता बनने लगी. मीडिया के संचालन और व्यवहार में पहले और बाद में यह सबसे ज्यादा दिखाई दे रहा था.
लिंचिंग और दूसरे घृणा अपराध जो आज वायरल हो रहे हैं, इसके उलट बाबरी मस्जिद का विध्वंस दूरदर्शन के युग में हुआ, जब भारत उदारीकरण के मुहाने पर था. बीबीसी वर्ल्ड ने भारत में अभी-अभी सैटेलाइट समाचार प्रसारण शुरू किया था और कुछ ही मिनटों के फ़ुटेज को कुछ घरों तक पहुंचाने में कामयाब रहा. आईविटनेस और न्यूजट्रैक जैसी वीडियो समाचार पत्रिकाओं ने भी दर्शकों का निर्माण शुरू कर दिया था. निजी केबल टेलीविजन के शुभारंभ ने उन भारतीयों को जो इसकी कीमत अदा कर सकते थे, अपनी पसंद का चैनल चुनने का विकल्प दिया जो पहले नामुमकिन था. लोगों ने विज्ञापनों के जरिए दुनिया की व्याख्या करना शुरू कर दिया, जो उस वक्त के मिजाज को दर्शाता था और उपभोक्ता वस्तुओं और मुक्त बाजार का स्वागत करने के लिए उत्सुक था. टेलीविजन धारावाहिकों की एक नई फसल ने परिवार और समुदाय के प्रति वफादारी के नए मूल्यों को पोषित करने में मदद की.
आधुनिकता के नए विचारों को वरीयता दी गई जिसकी विशेषता पत्रकार माइक मार्कुसी ने वॉर माइनस द शूटिंग: ए जर्नी थ्रू साउथ एशिया में 1996 के क्रिकेट विश्व कप के दौरान, ज्यादा आक्रामकता, ज्यादा सामान और ज्यादा चीजों को सफलता के प्रतीक के रूप में व्यक्त किया. हिंदी सिनेमा और क्रिकेट जैसी लोकप्रिय संस्कृति पर केंद्रित राष्ट्रवाद ने वैश्वीकरण के नए विचारों के साथ मिल कर "मध्यम वर्ग" के अर्थ को हमेशा के लिए बदल दिया. अप्रवासी भारतीयों को अब प्रतिभा पलायन के रूप में नहीं देखा जाता बल्कि उन्हें अनुकरणीय माना जाने लगा.
मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने से सामाजिक गतिशीलता के अवसरों पर सवर्णों की पकड़ ढीली पड़ने की आशंका के बावजूद मीडिया ने पलटवार किया. इसने निजीकरण के सपने को खरीदा और बेचने का फैसला किया, जो निश्चित रूप से मंडल विरोधी था. यह इसके उच्च-वर्ग, उच्च-जाति के मालिकों के अनुकूल था, जो सकारात्मक कार्रवाई को "योग्यता" पर हमला बतौर प्रचारित कर खुश थे. संघ परिवार के हिंदू भारत के बाहुबलीकरण के अप्रामाणिक दावों को मान्यता और स्वीकृति मिली.
फिर भी बाबरी के सवाल पर, पहले मुसलमानों को राक्षस बनाने और उन पर हमला करने में शर्म की भावना थी, जो देश की आबादी का सातवां हिस्सा हैं. "वैश्विक" मानदंडों, या कम से कम जिसे पश्चिम में स्वीकार्य मानदंडों के रूप में देखा जा सकता है, का मतलब था कि बाबरी मस्जिद के तूफान का केवल मीडिया और व्यापारिक घरानों द्वारा गुप्त रूप से स्वागत किया गया था, जिनके संस्थापक लंबे समय तक संघ के सदस्य या उससे सहानुभूति रखने वाले थे. टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स की 7 दिसंबर 1992 की सुर्खियों ने पिछले दिन को एक कलंक के रूप में पेश किया. दिलीप अवस्थी ने इंडिया टुडे में लिखा, ''विक्षिप्त भूतों की तरह दृश्य लौट आएंगे, हममें से उन लोगों को परेशान करने के लिए जो एक धर्मनिरपेक्ष सपने को दफनाने के लिए कब्र के पास थे. कुदाल की हर चोट, डंडे के हर वार, ढहते हुए हर गुम्बद के साथ खुशी की चीखें.”
आज उन्हीं व्यावसायिक घरानों द्वारा चलाए जा रहे टेलीविजन चैनलों में कटौती की गई और परिवर्तन अधिक स्पष्ट नहीं हो सका. इंडिया टुडे के हिंदी चैनल आजतक ने हाल ही में सुधीरो चौधरी को काम पर रखा है जो अपने प्राइमटाइम शो में नियमित रूप से अभद्र भाषा और इस्लामोफोबिया के नए मानक स्थापित करने के लिए जाने जाते हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया के टेलीविजन अवतार टाइम्स नाउ ने हमें अर्नब गोस्वामी दिया जो मोदी सरकार का सबसे मुखर मीडिया चीयरलीडर है. 2019 में जब सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुओं को विवादित भूमि देने के अपने फैसले की घोषणा की, तो मुख्यधारा के इन मीडिया संगठनों में से कुछ ने अपने उल्लास को छिपाने तक की जहमत नहीं उठाई. जैसे ही उन्होंने फैसले का जश्न मनाया उनमें से लगभग सभी ने उस हिंसा को छोड़ दिया जो विध्वंस से पहले और उसके बाद हुई थी. भले ही यह मालिकों की एक वैचारिक पसंद नहीं थी लेकिन यह वही था जो आंखों की पुतलियों और विज्ञापनों को बनाए रखने के लिए और सत्ताधारी सरकार के तहत सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किया जाना था. विध्वंस के 25 साल पूरे होने पर दिल्ली प्रेस क्लब में एक कार्यक्रम में, एक युवा पत्रकार, जिसने 21वीं सदी में भारतीय राजनीति पर अभी ताजा-ताजा रिपोर्टिंग शुरू की थी, ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा, "अजीब है कि आप सभी को 1992 में रिपोर्ट करने से रोकने के लिए पीटा गया था."
इस बीच, भारत में, बाबरी मस्जिद ढहने, एक खूनी विभाजन रेखा खिंचने और भारतीय राजनीतिक के संविधान की बजाए किसी की आस्था पर फोकस होने के बाद एक पूरी पीढ़ी बड़ी हुई है. "जेन जेड", 1997 के बाद पैदा हुए, राजनीतिक दलों और व्यवसायों के लिए समान रूप से भारत में सबसे महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय बन गए हैं. 2020 में भारत की औसत आयु 29 साल होने की उम्मीद थी, जिससे यह दुनिया में सबसे कम उम्र का हो गया.
सबसे बढ़ कर, इन तीस सालों में हिंदू होना अब भारतीय होने का केंद्र बन गया है. मोदी के उठान ने उन सभी को मिटाने का संकेत दिया है जो हिंदू नहीं हैं, खासकर वह जो मुस्लिम हैं. 2021 में इस कट्टर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रधानमंत्री संत की तरह राम मंदिर की नींव रखने वाली पूजा में बैठे.
जून 2022 में संयुक्त राष्ट्र के तीन विशेष दूतों ने सरकार को बताया कि बीजेपी शासित विभिन्न राज्यों में प्रशासन द्वारा स्वीकृत बुलडोजर से मुस्लिम घरों को मनमाने ढंग से नष्ट करने को मुसलमानों के लिए "सामूहिक दंड" के रूप में देखा जा सकता है. बहुतों के लिए, वे बाबरी मस्जिद की प्रतिध्वनि लेकर चलते हैं, विनाश के साथ धार्मिक दोष रेखाओं के साथ प्रतिशोधी न्याय के रूप में तैयार की गई.
लामबंदी के सबसे महत्वपूर्ण परिणामों में से एक पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 था, जिसे बीजेपी के अलावा संसद में सभी दलों द्वारा पारित और समर्थित किया गया था. यह ऐसा था जैसे भीड़ और शेष भारत के बीच एक वस्तु विनिमय की मांग की गई थी, अयोध्या को देश भर के अन्य पूजा स्थलों को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में रोक देने के बदले में अलग कर दिया गया था. लेकिन यह अधिनियम भी अब चुनौती के दायरे में है, जैसा कि वाराणसी और मथुरा में हिंदुत्व समूह राम मंदिर आंदोलन की पुनरावृत्ति करते हैं, जो 1990 के दशक की शुरुआत की तुलना में कहीं अधिक अनुकूल राजनीतिक परिदृश्य से प्रभावित है.
ज्ञानवापी मस्जिद पर विचार करें, जो मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर के करीब है. संघ परिवार के नेताओं ने खुशी-खुशी पूजा स्थल अधिनियम का सीधे उल्लंघन करते हुए इस मस्जिद को मंदिर के रूप में पुनः प्राप्त करने की अपनी मांग को खुले तौर पर रखा है. प्रधानमंत्री की अपनी मनपसंद परियोजना काशी कॉरिडोर के निर्माण ने जनता का ध्यान मस्जिद की ओर आकर्षित किया और इसे गिराने के लिए हिंदू दक्षिणपंथ के बीच नए सिरे से मांग के साथ मेल खाता है. गलियारा वाराणसी को हिंदुओं के शहर के रूप में पेश करता है, जो अपने मुसलमानों और उनके ऐतिहासिक संबंधों को इस जगह से दूर करता है. लेकिन प्रधानमंत्री के अनुसार, परियोजना "विकास और विरासत" का प्रतिनिधित्व करती है. अगर 1992 का समय बाहुबलियों की भीड़ के मस्जिद और व्यवस्था में घुसने के बारे में था, तो आज उन्हें आंतरिक गर्भगृह में स्थापित देखा जाता है.
राजनीतिक दावों और कार्यों में, इतिहास और पुरातत्व के सार्वजनिक अभिलेखों में, स्कूली पाठ्यक्रम में, मुख्यधारा और सोशल मीडिया में एक हिंदू भारत की ओर जोर दिखाई देता है. मुसलमानों के खिलाफ लगातार अपराध सार्वजनिक तमाशा बन गए हैं. प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के कार्यकाल में गोहत्या के अप्रमाणित आरोपों पर दर्जनों मुसलमानों की लिंचिंग, राष्ट्रीय राजधानी में सांप्रदायिक हिंसा, हिंदू धार्मिक आयोजनों के दौरान मुसलमानों की सार्वजनिक पिटाई और सार्वजनिक रूप से प्रार्थना करने वाले मुसलमानों के खिलाफ हिंसक आपत्तियों और अनगिनत अन्य हमले देखे गए हैं. बाबरी मस्जिद की तरह बहुलतावादी पहचानों को बेशर्मी से खत्म किया जा रहा है.
इस बीच बाबरी मस्जिद के मलबे की तलाश की जा रही है. 26 दिसंबर 2019 को ऑल-इंडिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी, जो कि मस्जिद की सुरक्षा के लिए 1987 में बनाई गई एक संस्था है, ने मीडिया को बताया कि वह विध्वंस के बाद छोड़े गए मलबे को अपने कब्जे में लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करने पर विचार कर रही है. समिति के संयोजक जफरयाब जिलानी ने मीडिया से कहा, "ध्वस्त मस्जिद के खंभे, पत्थर और अन्य अवशेषों को मुसलमानों को सौंप दिया जाना चाहिए क्योंकि शरीयत कानून के मुताबिक मस्जिद के अवशेषों का किसी अन्य निर्माण में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है." लेकिन समिति के तौर-तरीकों से परिचित लोगों ने मुझे बताया कि यह विचार ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. मैंने मामले के प्रमुख अधिवक्ता एमआर शमशाद से पूछा कि क्या उन्हें पता है कि मलबा कहां है? "हम नहीं जानते कि वह कहां चला गया," उन्होंने कहा.
तीस साल बाद भी भारत विध्वंस के रोमांच में डूबा हुआ है. इस हरकत से भारत को हुए नुकसान की एक ईमानदार नापजोख अभी भी होनी है. मुस्लिम विरोधी क्रूरता आज भारत की व्यवस्था का दोष नहीं एक विशेषता है. लेकिन जो लोग एक संकीर्ण जातीय राष्ट्र-राज्य के विचार से सहमत नहीं हैं, वे आज कितना भी हाशिए पर हों लेकिन उनकी कल्पना और साहस को सलाम है जो भारत की आत्मा को फिर से हासिल करने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए एक उदार और दूरंदेशी भारत के विचार को संभाले हुए हैं. मस्जिद के मलबे की तरह भारत को लापता नहीं होने देना होगा.
(अनुवाद : पारिजात)