ध्वंसावशेष

बाबरी मस्जिद विध्वंस के तीस साल और भारत के लिए आगे का रास्ता

25 नवंबर 2022
दिसंबर 1992 में अयोध्या में छाती पर "जय श्री राम" गुदवाए एक कारसेवक.
टी नारायण
दिसंबर 1992 में अयोध्या में छाती पर "जय श्री राम" गुदवाए एक कारसेवक.
टी नारायण

1992 में मैंने हिन्दुस्तान टाइम्स टीवी के स्वामित्व वाली एक मासिक वीडियो समाचार पत्रिका आईविटनेसेज के लिए बतौर संवाददाता काम किया था. वरिष्ठ पत्रकार करण थापर शो के कार्यकारी निर्माता थे. हमारी टीम उत्तर प्रदेश को नियमित रूप से कवर कर रही थी. मैं जुलाई में बाबरी मस्जिद का दौरा कर चुकी थी. दो साल पहले भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी यह घोषणा करते हुए महीनों तक देशव्यापी रथ यात्रा कर रहे थे कि इस जगह पर हिंदुओं का अधिकार है. उनका रथा जहां-जहां से गुजरा वहां-वहां सांप्रदायिक हिंसा भड़की थी. 1992 की सर्दियों में अयोध्या में माहौल गरमाने लगा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कारसेवकों ने 6 दिसंबर को मस्जिद में इकट्ठा होने की योजना बनाई. थापर ने तीन वीडियो क्रू सदस्यों और बतौर रिपोर्टर मुझे अयोध्या भेजने का फैसला किया. हमें उम्मीद थी कि भीड़ मस्जिद के चारों ओर राम मंदिर का प्रतीकात्मक निर्माण करेगी. हमें लगा कि यह अच्छी रिपोर्ट हो सकती है. हमारी टीम 4 दिसंबर को ही फैजाबाद और अयोध्या में तैनात हो गई थी. इसे महज एक रिपोर्टिंग यात्रा भर होना था.

जो हुआ उसके लिए हम बिल्कुल तैयार नहीं थे. 6 दिसंबर की सुबह से लगभग छह घंटे में हजारों कारसेवकों ने नाटकीय ढंग से तीन गुंबद वाली 464 साल पुरानी मस्जिद को बीजेपी और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं के उग्र भाषणों की धुन पर धराशायी कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने प्रतीकात्मक कारसेवा के लिए मस्जिद के ठीक बाहर एक क्षेत्र का सीमांकन किया था. क्षेत्र में घूमने के बाद, आडवाणी और उनके उत्तराधिकारी के रूप में बीजेपी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के साथ विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल राम कथा कुंज में बस गए थे जो कुछ मीटर की दूरी पर स्थित एक अस्थायी बैठक मैदान था. विनय कटियार और उमा भारती सहित अन्य हिंदुत्ववादी नेताओं ने एकत्रित भीड़ को भाषण, टीका-टिप्पणियां और विभिन्न प्रकार के उपदेश दिए, जिसने तोड़फोड़ करने वाली भीड़ को जोश से भर दिया. जो कुछ सामने आ रहा था उसे रिकॉर्ड करने से रोकने के लिए कारसेवकों ने कई पत्रकारों पर भी हमला किया. उन्होंने पत्रकारों के कुछ उपकरण तोड़ दिए. मेरे सहयोगी और मैं दूर भगाए जाने से पहले कुछ घातक फुटेज रिकॉर्ड करने में कामयाब रहे.

मस्जिद की रखवाली करने वाले अर्धसैनिक बल के जवान परिसर से जल्दी निकल गए थे और कोई अन्य केंद्रीय बल आसपास के क्षेत्र में नहीं था. दोपहर तक पुलिसकर्मी भी तमाशबीन बने रहे. जिला प्रशासन और पुलिस ने सीता रसोई मंदिर के बगल में एक इमारत पर डेरा डाला हुआ था जो एक देखने की गैलरी के रूप में कार्य करता था. मेरे ज्यादातर पत्रकार सहयोगी भूतल पर शरण लिए थे. मैं पास की मिठाई की दुकान में छिप गई. दोपहर में हममें से कुछ लोग अपने ट्रांजिस्टर सेट पर ऑल इंडिया रेडियो बुलेटिन सुनने में कामयाब रहे. इसमें मस्जिद के गुंबदों को "छुट-पुट नुकसान" की बात की गई थी. हमारे सामने मस्जिद को, कानून का पालन कराने वालों की बिना किसी बाधा के, व्यवस्थित रूप से तोड़ा जा रहा था. कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व में उत्तर प्रदेश में बीजेपी सत्ता में थी. कांग्रेस के पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे. दोनों नेता मीडिया से दूर रहे. भीड़ ने आखिरकार मस्जिद को जमींदोज कर दिया.

शाम के आसपास राज्य सशस्त्र कांस्टेबुलरी ने पत्रकारों को ट्रकों में भर दिया और हमें जिला मुख्यालय फैजाबाद ले गए जहां शहर के मात्र दो बड़े होटल स्थित थे. पूरी शाम हम क्षितिज पर मुस्लिम घरों से उठते धुएं के बादलों को देख सकते थे, जिन्हें हिंदू भीड़ ने विध्वंस शुरू होते ही आग लगा दी थी. इसे अंजाम देने वालों के समर्थकों के बीच भी बेचैनी की भावना थी क्योंकि वे इस बात को लेकर बहुत यकीनी नहीं थे कि राष्ट्र इसे किस तरह लेगा. उन्होंने जश्न नहीं मनाया. अगर सभी नहीं तो भी अयोध्या के मुसलमानों में से ज्यादातर अपने घरों को छोड़ कर आस-पास के शहरों में चले गए थे. अगले दिन का मीडिया कवरेज ज्यादातर अस्पष्ट और फीका था. हालांकि उत्तर प्रदेश में हिंदी अखबारों में निराशा नहीं दिखाई दी, लेकिन उत्सव भी नहीं था.

बाबरी मस्जिद, 1863 से 1887 के बीच की तस्वीर. . सौजन्य : जे पॉल, गैटी आर्काइव बाबरी मस्जिद, 1863 से 1887 के बीच की तस्वीर. . सौजन्य : जे पॉल, गैटी आर्काइव
बाबरी मस्जिद, 1863 से 1887 के बीच की तस्वीर.
सौजन्य : जे पॉल, गैटी आर्काइव

सीमा चिश्ती दिल्ली में रहने वाली एक लेखिका और पत्रकार हैं. उन्होंने 1990 से प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन, अंग्रेजी और हिंदी में काम किया है. वह बीबीसी इंडिया की दिल्ली संपादक और इंडियन एक्सप्रेस में उप संपादक रहीं. वह नोट बाय नोट: द इंडिया स्टोरी (1947-2017), की सह-लेखिका हैं जिसमें स्वतंत्र भारत का एक इतिहास, जिसे साल दर साल हिंदी फिल्मी संगीत के साथ दर्ज किया गया है. उसकी यह कोशिश एक बड़े और विविध देश में परिवर्तन के कई पहलुओं को छेड़ने, खोलने और फिर व्याख्या करने में मदद करने की रहती है.

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