“यह युद्ध सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ नहीं है. यह युद्ध डॉ. आंबेडकर के संविधान के खिलाफ भी है.” मंच से थोल थिरुमावलवन गरज रहे थे.
थिरुमावलवन तमिलनाडु के सांसद हैं और विड़ूदलाई चिरुतैगल कच्ची (लिबरेशन पैंथर्स पार्टी) के अध्यक्ष भी. वह दमदार तमिल में भाषण दे रहे थे जिसे शायद वहां मौजूद बहुत से लोग समझते भी न हों. तकरीबन एक हजार लोगों की भीड़ सिर हिला-हिला कर उनकी बातों से अपनी सहमति जता रही थी और जब उनकी गर्जन विराम लेती तो “जय भीम” के नारे लगने लगते. यह दृश्य था 4 मार्च को जंतर-मंतर में हुई “चलो दिल्ली रैली” का जिसका आयोजन देशभर के आंबेडकरवादी संगठनों ने किया था. इस रैली का आह्वान वंचित बहुजन आघाड़ी के प्रकाश आंबेडकर ने किया था जो महाराष्ट्र में उत्पीड़ित जातियों के समूहों का गठबंधन है. महाराष्ट्र में इस गठबंधन की मजबूत उपस्थिति है.
थिरुमावलवन से पहले वाला भाषण उत्तरी तेलंगाना के छौंक वाली तेलगू में था. यह क्षेत्र खनन के लिए जाना जाता है. थिरुमावलवन के भाषण के बाद महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित विदर्भ की तीखी मराठी में भाषण हुआ. लेकिन इन मिलीजुली बोलियों और भाषाओं में उत्पीड़ित समूह राज्य से अपनी पहचान और तेजी से दक्षिणपंथी धुर की ओर खिसक रही देश की राजनीति से संविधान को बचाने की मांग कर रहे थे. वहां अपनी बात रखने वाले लोगों को कहना था कि देश के कोने-कोने में हो रहे नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक पंजिका और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के खिलाफ आंदोलनों को नजरअंदाज किया जा रहा है. इन लोगों का कहना था कि केवल मुसलमान ही इन नीतियों का विरोध नहीं कर रहे हैं, जैसा कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी दावा कर रही है, बल्कि अन्य उत्पीड़ित समूहों और आंबेडकरवादी संगठन भी सरकार की इन नीतियों के खिलाफ मुसलमानों के साथ एकजुटता दिखाते हुए उठ खड़े हुए हैं.
मैंने भीड़ में खड़े विशाखापट्टनम के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग, मुस्लिम मोर्चा के संयोजक एरमल्ला राम से बात की. उन्होंने आंध्र प्रदेश में पिछले 3 महीनों से जारी राजनीतिक उठापटक के बारे में मुझे बताया. उन्होंने कहा कि पहले अधिकांश दलित संगठन केवल अपने मामलों पर ध्यान दिया करते थे और राष्ट्र में हो रहे बड़े बदलावों पर गौर नहीं करते थे लेकिन “भारत बंद के बाद हमने समझ लिया कि हम भी अपने मुस्लिम भाइयों की तरह ही सत्ता के निशाने पर हैं और इसलिए हम सड़कों पर उतर आए.” वह फरवरी में आयोजित भारत बंद की बात कर रहे थे जो सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ था जिसमें अदालत ने कहा था कि, “यह एक स्थापित कानून है कि राज्य सरकार को सार्वजनिक पदों में आरक्षण देने के लिए निर्देश नहीं दिया जा सकता. इसी तरह राज्य प्रमोशन के मामलों में अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है.” उत्पीड़ित जातियों के संगठनों के लिए यह संविधान द्वारा उन्हें प्राप्त सुरक्षा से वंचित करने जैसा था. ठीक उसी तरह जैसा कि सत्तारूढ़ सरकार मुसलमानों के साथ कर रही है.
दलित-मुस्लिम सेना (इंदौर) के दिलकर राव अंभोरे ने मुझे बताया, “महाराष्ट्र में मुस्लिमों की अगुवाई में हो रहे प्रदर्शनों में अंबेडकरवादियों की उपस्थिति बढ़ रही है. जनवरी से मुस्लिम औरतों ने इंदौर में सीएए और एनआरसी विरोधी बहुत सारे प्रदर्शन आयोजित किए. उनमें सबसे महत्वपूर्ण प्रदर्शन शहर के मुस्लिम बहुल बड़वाली चौकी में हुआ. जब इन प्रदर्शनों में पुलिस ने कार्रवाई की तो बहुत कम दलित मदद के लिए पहुंचे थे, लेकिन बंद के बाद आंबेडकरवादी संगठनों ने आसपास के ग्रामीण इलाकों से दलितों को समर्थन के लिए बुलाया.” अंभोरे ने आगे बताया, “अब हम वहां जाते हैं ताकि पुलिस के हमलों से उन्हें बचा सकें. हम उनके लिए खाना भी पकाते हैं. वे हमारा बनाया खाना खाते हैं. हम सब साथ बैठ कर खाना खाते हैं. क्या खुद को हिंदू कहने वाले ऐसा करेंगे?”
मंच से थिरुमावलवन ने पुकारा, “यह जंग सनाथानम (ऊंची जाति के हिंदुओं) और संविधान के बीच है.” विड़ूदलाई चिरुतैगल कच्ची के एक अन्य प्रतिनिधि ने थिरुमावलवन से पहले अपने संबोधन में कहा था कि सीएए और एनआरसी मुसलमानों के साथ-साथ दलितों को भी उनके मताधिकार से वंचित करने की साजिश है. उन्होंने बताया कि बहुत-सी दलित महिलाएं शादी के बाद अपना नाम बदल लेती हैं और उनके पास अपने पूर्व के नाम और अपने मूल परिवार से अपने संबंध को स्थापित करने वाला कोई दस्तावेज नहीं होता. इसका मतलब है कि ये औरतें अपने वंश से अपना रिश्ता साबित नहीं कर सकतीं जैसा कि सरकार अब अपने नागरिकों से मांग कर रही है. एक अन्य वक्ता ने बताया कि कर्नाटक में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों के एक छात्रावास को डिटेंशन केंद्र बना दिया गया है. उन्होंने बताया कि तमिलनाडु की घुमंतू नारिकुर्वा जनजाति के पास ऐसे दस्तावेज नहीं हैं जो ये साबित करते हों कि वे लोग कहां से आए हैं और सरकारी कार्यालय में तो अभी से ही उन्हें बाहरियों की तरह माना जाने लगा है. हिजड़ा समुदाय के एक वक्ता ने बताया कि असम में हुए एनआरसी में 2000 से ज्यादा हिजड़ा औरतों का नाम एनआरसी सूची में नहीं आया क्योंकि उनके पास दस्तावेज नहीं थे.
थिरुमावलवन ने कहा, “संविधान हमें अंतरजातीय विवाह करने की इजाजत देता है और हमें पढ़ने और सीखने की अनुमति देता है और इसीलिए सत्ता में विराजमान ऊंची जाति के लोग संविधान की धज्जियां उड़ा देना चाहते हैं. ये लोग ऐसी किसी भी चीज को नहीं मानते जो बराबरी और भाईचारे की बात करती हो. वे ऐसे किसी भी दस्तावेज को स्वीकार नहीं कर सकते जो उनके वर्चस्व को चुनौती देता हो.”
थिरुमावलवन ने आगे कहा, “जब वे लोग मुसलमानों का कत्लेआम करते हैं तब कोई ब्राह्मण नहीं मरता, मरते हैं तो हमारे लोग यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के लोग.”
जब रैली खत्म हो रही थी तो मैंने विड़ूदलाई चिरुतैगल कच्ची के आदि मोझी और वीआर जयंती से बात की. दोनों वहां फैला कचरा उठा रही थीं और तमिलनाडु की लंबी यात्रा पर निकलने से पहले नीले और लाल रंगों के झंडों को समेट रही थीं. आदि मोझी विड़ूदलाई चिरुतैगल कच्ची की प्रचार सचिव हैं. उन्होंने कहा कि सीएए के पास होने के कुछ दिनों के भीतर ही पार्टी ने राज्य भर में हो रहे प्रदर्शनों में शामिल होना शुरू कर दिया था. उन्होंने बताया, “हमने चेन्नई में मणिथनेय मक्कल कच्ची या मानवतावादी जन मोर्चा के विरोध प्रदर्शनों के आयोजन में मदद की.” मोझी ने श्रीलंका में गृह युद्द से बच कर आए और फिलहाल तमिलनाडु में रह रहे श्रीलंका के 150000 से अधिक तमिलों के प्रति चिंता भी व्यक्त की. मोझी ने कहा, “मोदी सरकार इन देशों से भागे हुए लोगों को नहीं अपनाएगी क्योंकि ये लोग नरसंहार करने वाली सरकारों के प्रशंसक हैं. बर्मा की सरकार मुसलमानों की जिंदगियां तबाह कर रही है और श्रीलंका की सरकार वहां के तमिलों की.”
वीआर जयंती विड़ूदलाई चिरुतैगल कच्ची की महिला शाखा की सदस्य हैं. उन्होंने ऐसी कई जगहों का उल्लेख किया जहां आंबेडकरवादियों, पेरियारवादियों और मुस्लिम समूहों ने प्रदर्शन किए हैं. उन्होंने 22 फरवरी को थिरुचिअन में देशव्यापी भारत बंद के साथ हुए राष्ट्र बचाओ रैली के बारे में बताया. उसमें शामिल हुए हजारों लोगों ने सीएए, एनआरसी और एनपीआर को खत्म करने और आरक्षण को संवैधानिक संरक्षण देने के प्रस्ताव पारित किए. उन्होंने बताया कि एक स्थान पर आंदोनलकारियों ने मुस्लिम औरतों के लिए वल्लाकापुस या पारंपरिक तमिल हिंदू गर्भावस्था का प्रदर्शन किया जिससे आशा की गई कि उनके बच्चे धर्म के भेदभाव में नहीं पड़ेंगे. मोझी ने बताया कि मुस्लिम प्रदर्शनकारी कोलम बना रहे थे जो चावल के आटे से जमीन पर बनाई जाने वाली रंगोली है. रंगोली से लिखा था, “न सीएए, न एनआरसी, न एनआरपी. मोझी ने बताया, “आमतौर पर कोलम महिलाएं बनाती हैं” लेकिन प्रदर्शन में मर्दों को रंगोली बनाते वह “देख दंग रह गईं.”
उत्तर-पूर्वी छत्तीसगढ़ के जशपुर के केथोलिक पादरी विन्संट अक्का ने मुझे बताया कि राज्य के आदिवासी समूहों को भी सीएए और एनआरपी के खिलाफ परिचालित किया गया है और वे लोग उनके गांवों में आंकड़े लेने आने वाले सरकारी अधिकारियों का बॉयकोट करने की तैयारी में हैं. “जिन बातों से हम डरते हैं उन्हें हमने असम में होते देखा है.” अक्का ने कहा कि उन्हें यह जान कर बड़ा अफसोस हुआ कि असम के डिटेंशन केंद्र में मरने वाले पूना मुंडा झारखंड के आदिवासी थे. मुंडा को बांग्लादेशी मान कर बंदी बनाया गया था. उनकी मौत जून 2019 में हुई थी.
अक्का ने समझाया कि सांस्कृतिक उपनिवेशवाद और आदिवासियों को उनके इतिहास से वंचित कर देने के चलते, आदिवासियों के अलग-अलग उपनाम होते हैं. “मेरे दादा का नाम शनी ओरान था लोकिन मेरे पिता का नाम गुजुआ अक्का और मेरा नाम विन्संट अक्का है. मेरे पास ऐसा कौन सा दस्तावेज है जो बताए कि मैं अपने ही परिवार का हिस्सा हूं?” उन्होंने बताया कि अक्सर आदिवासियों के पास जमीन के दस्तावेज भी नहीं होते जो एनआरसी प्रक्रिया में उनके खिलाफ पूर्वाग्रह पैदा करेगा. उन्होंने कहा, “अब तक क्या होता आया है कि हमें जमीन से बेदखल करने के लिए हमें विकास विरोधी, राज्य विरोधी और राष्ट्र विरोधी कहा जाता था. अब वे हमें सीधे-सीधे मताधिकार से ही वंचित कर देंगे.”
इससे पहले महाराष्ट्र के एक वक्ता ने कहा था कि असम के एनआरसी में बाहर किए गए लोगों में से अधिकतर ऐसे हैं जो उत्पीड़ित जातियों से आते हैं. अक्का ने मुझे बताया, “वे लोग कह रहे हैं कि असम के एनआरसी में बाहर हुए 13 लाख लोग हिंदू हैं. यह भ्रामक है.” ज्यादातर ऐसे लोग आदिवासी हैं जिन्हें “हिंदू कहा गया है. सीएए हमारे लोगों को मिटा देने के लिए बना है.”