पेगासस में निर्वासित तिब्बती सरकार के अधिकारियों का नाम आने से भारत के प्रति बढ़ा संदेह

तिब्बत की निर्वासित सरकार के पूर्व राष्ट्रपति लोबसांग सांगे धर्मशाला में एक समारोह के दौरान दलाई लामा से बात करते हुए. अश्विनी भाटिया / एपी फोटो
03 September, 2021

जुलाई में 17 अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने अपनी एक संयुक्त पड़ताल, जिसे उन्होंने पेगासस प्रोजेक्ट कहा है, में खुलासा किया कि इजराइली कंपनी एनएसओ द्वारा विकसित पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल दुनिया भर के 50000 फोन नंबरों की जासूसी करने के लिए किया गया है. भारत में ऐसे लोगों की सूची में पत्रकार, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, नेता और एक पूर्व चुनाव आयुक्त शामिल हैं. लेकिन हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में एक और अप्रत्याशित समूह निगरानी के संभावित निशाने पर दिखाई दिया है. यह है तिब्बती की निर्वासित सरकार.

तिब्बत के आध्यात्मिक नेता तेनजिन ग्यात्सो या दलाई लामा के करीबी तिब्बती अधिकारियों और सलाहकारों के फोन नंबर संभवत: पेगासस के माध्यम से सुने गए हैं. एनएसओ का कहना है कि वह केवल सरकारों को पेगासस स्पाइवेयर बेचती है.

निर्वासित तिब्बती समुदाय की सरकार, जिसे केंद्रीय तिब्बती प्रशासन कहा जाता है, का मुख्यालय धर्मशाला में है. 1959 में चीनी सरकार की कार्रवाई से बच कर दलाई लामा के भारत आने के कुछ समय बाद ही इसकी स्थापना की गई थी. एक कार्यकारी, विधायी और एक न्यायिक शाखा के साथ इसकी संरचना संसदीय लोकतंत्र की तरह है.

ऐसे संभावित लोगों की सूची में, जिनकी निगरानी की आशंका है, निर्वासित तिब्बती सरकार के पूर्व अध्यक्ष लोबसांग सांगे और धर्मगुरु लोबसांग तेनजिन के नाम शामिल हैं. तेनजिन को पांचवें समधोंग रिनपोछे के रूप में जाना जाता है. अन्य लोगों में नई दिल्ली में दलाई लामा के दूत टेंपा त्सेरिंग, दलाई लामा के दोनों सहयोगी- तेनजिन ताकला और चिम्मी रिग्जेन- और सत्रहवें करमापा लामा उरग्येन ट्रिनले दोरजी भी हैं जो तिब्बती बौद्ध धर्म में सर्वोच्च पद वाली शख्सियतों में से एक हैं. जानकारी के अनुसार दलाई लामा खुद कोई निजी मोबाइल फोन नहीं रखते हैं.

मैंने केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के मीडिया प्रवक्ता तेनजिन लेक्षय से बात की. यह पूछे जाने पर कि क्या इससे भारत सरकार के बारे में तिब्बती सरकार की धारणा बदल सकती है उनका जवाब संक्षिप्त था, "नहीं, बिल्कुल नहीं," उन्होंने कहा. "मीडिया रिपोर्टों के सिवा हमारे पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है... इसलिए हम इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते हैं. और जहां तक ​​भारत और तिब्बत के संबंधों की बात है तो वह मजबूत है और अधिक मजबूत हो रहा है.”

यह जांचने के लिए कि तिब्बत और चीन के साथ भारत के संबंधों के लिए पेगासस हैक का क्या मतलब है मैंने रॉबर्ट बार्नेट से बात की, जो लंबे समय से तिब्बती मामलों के विशेषज्ञ और न्यूयॉर्क में कोलंबिया विश्वविद्यालय में आधुनिक तिब्बती अध्ययन कार्यक्रम के संस्थापक और पूर्व निदेशक हैं. वह वर्तमान में लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में प्रोफेसरियल रिसर्च एसोसिएट हैं. बार्नेट ने बताया, "भारत ने आमतौर पर तिब्बत के सवाल के राजनीतिक आयामों पर स्पष्ट रुख रखने से परहेज किया है. उसका रुख राजनीतिक उतार-चढ़ाव के अनुसार बदलता रहता है." उन्होंने मुझे बताया कि भारत लंबे समय से अपनी इस जरूरत के लिए कि चीन सिक्किम और कश्मीर पर भारतीय संप्रभुता को मान्यता दे, तिब्बत के मुद्दे को देखा है. बार्नेट ने कहा, "यह कई दशकों से भारत के लिए एक प्रमुख मुद्दा रहा है और तिब्बत ने इसे यह मौका दिया है क्योंकि इससे भारत चीन पर दबाव बना सकता है कि यदि उसने कश्मीर और सिक्किम पर नजर डाली तो वह भी तिब्बत को मान्यता देने से परहेज नहीं करेगा.”

बार्नेट का मानना है कि तिब्बती निर्वासित समुदाय के मामले में सामने आए पेगासस हैकिंग का क्या मतलब है यह अभी साफ नहीं हैं. उन्होंने कहा, "इसका इस्तेमाल चीन भारत और तिब्बती निर्वासित नेतृत्व के बीच कुछ दूरी के संकेत के रूप में कर सकता है. यह इस बात का सबूत नहीं है कि नई दिल्ली और धर्मशाला के बीच संबंध कमजोर हो रहे हैं. यह तिब्बत के राजनीतिक प्रश्न पर एक सुसंगत और दीर्घकालिक रणनीतिक नजरिया विकसित करने की भारत की तत्कालीन जरूरतों को रेखांकित करता है."

पेगासस हैकिंग तिब्बती समुदाय पर साइबर सुरक्षा हमले और निगरानी का पहला मामला नहीं है. 2009 में टोरंटो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने घोस्टनेट नामक एक खुफिया कोशिश का खुलासा किया था जिसमें धर्मशाला में केंद्रीय तिब्बती प्रशासन मुख्यालय को निशाना बनाया बना गया था. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने बताया था कि इस ऑपरेशन को चीन में स्थित कंप्यूटरों से नियंत्रित किया जा रहा था. लेकिन वे निर्णायक रूप से यह नहीं कह सके कि इसमें चीन की सरकार शामिल थी.

वर्षों से चीनी से होने वाले इसी तरह के हमले और निगरानी के प्रयास तिब्बत की निर्वासित सरकार के जीवन का एक हिस्सा बन गया है. सिटीजन लैब के संस्थापक और प्रमुख रॉन डिबर्ट ने मुझे बताया, "अगर आप पिछले कई वर्षों से तिब्बती समुदाय और उनके डिजिटल सुरक्षा जोखिमों को देखें, तो आप जान पाएंगे कि साइबर जासूसी कैसे विकसित हुई है.” सिटीजन लैब टोरंटो विश्वविद्यालय स्थित साइबर सुरक्षा की वही शोध प्रयोगशाला है जिसने घोस्टनेट जांच की थी. इसके बाद कई संगठनों ने तिब्बत के बाहर रहने वाले तिब्बतियों को साइबर सुरक्षा शिक्षा और प्रशिक्षण देने के लिए समर्पित तिब्बती कंप्यूटर इमरजेंसी रेडीनेस टीम तैयार की. डिबर्ट ने बताया, "मैं अक्सर मानव अधिकारों के लिए चंदा देने वालों से कहता हूं कि यदि आप साइबर सुरक्षा जोखिम का जवाबी मॉडल चाहते हैं तो तिब्बती जो कर रहे हैं उस पर एक नजर जरूर डालें.”

अबकी बार भारत सरकार पर जासूसी का संदेह है. भारत सरकार 1959 से ही निर्वासित तिब्बती समुदाय का समर्थन करती रही है. भारत ने तिब्बती समुदाय को सांस्कृतिक और वित्तीय सहायता दी है.

हालांकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर तिब्बतियों और दलाई लामा के लिए भारत का समर्थन चीन के साथ भारत के राजनयिक संबंधों के समानांतर बढ़ता और घटता है फिर भी आधिकारिक रूप से भारत "वन चाइना" नीति को मान्यता देता है जो तिब्बत और ताइवान जैसे विवादित क्षेत्रों पर चीन की संप्रभुता के दावे की पुष्टि करता है. 2018 में दलाई लामा ने बताया था कि मई 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे के वक्त जिनपिंग से उनकी मुलाकात तय हुई थी लेकिन भारत सरकार ने ऐसा नहीं होने दिया.

जब मोदी सत्ता में आए और भारत निर्वासित समुदाय के तत्कालीन अध्यक्ष लोबसांग सांगे को अपने पहले शपथग्रहण कार्यक्रम में आमंत्रित किया, तो कुछ तिब्बतियों में यह उम्मीद जगी कि भारत स्वतंत्रता के लिए तिब्बती संघर्ष का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और अधिक समर्थन करना शुरू करेगा. फिर 2017 की शुरुआत में दलाई लामा को अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र में तवांग मठ का दौरा करने की इजाजत दी गई जिसका चीन ने विरोध किया था.

लेकिन बाद में डोकलाम के सीमावर्ती क्षेत्र में गतिरोध के चलते चीन-भारत संबंधों में आई दरार के बाद तिब्बत के साथ रिश्तों में एक मोड़ आ गया. फरवरी 2018 में भारत-चीन संबंधों के "बेहद नाजुक वक्त" में होने का हवाला देते हुए भारत ने सरकारी अधिकारियों को दलाई लामा के निर्वासन के 60 साल पूरे होने के मौके पर आयोजित कार्यक्रम में जाने से रोक दिया. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय कैबिनेट सचिव पीके सिन्हा ने केंद्र और राज्य सरकारों के वरिष्ठ नेताओं और सरकारी पदाधिकारियों को यह निर्देश दिया कि वे निर्वासित तिब्बती नेतृत्व द्वारा किए जा रहे इस आयोजनों में भाग न लें. दि वायर के अनुसार इस बेहद नाजुक वक्त में ही संभावित पेगासस सूची में तिब्बती नेताओं के नंबर जुड़े.

भारत सरकार कई कारणों से केंद्रीय तिब्बती प्रशासन और दलाई लामा की निगरानी में दिलचस्पी ले सकती है. भारतीय अधिकारी असहमति या आंतरिक सुरक्षा खतरों के बारे में चिंतित हो सकते हैं; वे चीन या संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ निर्वासित सरकार की किसी भी तरह की बातचीत की निगरानी कर सकते हैं; वे इस बात पर नजर रखने में रुचि ले सकते हैं कि चीन तिब्बतियों की निगरानी कर रहा है या नहीं और इस क्षेत्र में चीन क्या कर रहा है.

बार्नेट ने कहा, "यह एक सुरक्षा संबंधी मुद्दा है और भारत के पास इस बात की जानकारी होना बेहद जरूरी है कि तिब्बत के भीतर चीन क्या कर रहा है. आपको अभी भी स्थानीय मुखबिरों की जरूरत है. और इस मामले में इसका पहला अर्थ निर्वासित तिब्बतियों के साथ काम करना है."

भारत सरकार की भी इसमें दिलचस्पी हो सकती है कि तिब्बती समुदाय 86 साल के दलाई लामा के उत्तराधिकार की तैयारी कैसे कर रहा है. वे लगभग निश्चित रूप से दलाई लामा की मृत्यु की आसन्न वास्तविकता और उनकी मृत्यु के बाद होने वाले भू-राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में चिंतित हैं. यह भारत के लिए सुरक्षा का भी मुद्दा है. वर्तमान दलाई लामा की मृत्यु के बाद के सवाल ने तिब्बती समुदाय को लंबे समय से परेशान कर रखा है और हाल में अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान भी आकर्षित करने लगा है. दलाई लामा के मरने के बाद उनके उत्तराधिकारी को चुनने के लिए सत्ता संघर्ष की संभावना है. जबकि चीनी नेतृत्व निश्चित रूप से तिब्बत के भीतर चीन-अनुमोदित उत्तराधिकारी नियुक्त करने की को​​शिश करेगा. चीन ने तिब्बत में तिब्बती लामाओं को उनकी पसंद का समर्थन करने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया है. दलाई लामा और तिब्बत की निर्वासित सरकार पहले ही इसे खारिज कर चुकी है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई लोग स्थिति को गौर से देख रहे हैं; संयुक्त राज्य अमेरिका ने उत्तराधिकार के मामलों में चीन को हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए अपनी तिब्बत नीति में संशोधन किया है.

बार्नेट ने इस बात पर जोर दिया कि भारत के विभिन्न सरोकारवालों के तिब्बती समुदाय में अलग-अलग रणनीतिक हित हो सकते हैं. बार्नेट ने कहा, "जब तिब्बत के मुद्दे की बात आती है, तो इसे लेकर भारतीय नीति निर्धारक अभिजात वर्ग के भीतर प्रतिगामी रुझान और हित ​दिखाई देते हैं, जो चीन को सैन्य खतरे के रूप में देखने से लेकर इसे एक रणनीतिक प्रतियोगी और एक शक्तिशाली पड़ोसी के रूप में देखते हैं.” उन्होंने आगे कहा, "कट्टरपंथियों और राष्ट्रवादियों के लिए भी तिब्बत को तिब्बती सीमाओं के साथ चीन की सैन्य घुसपैठ का मुकाबला करने के लिए संभावित बफर के रूप में देखा जाता है. जबकि यथास्थितिवादी राजनयिक, कारोबारी और यथार्थवादी नीति समर्थक बीजिंग के साथ संबंधों को जोखिम में डालने के बजाय तिब्बतियों के लिए भारत के समर्थन को बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक या मानवीय स्तर पर समर्थक करते हैं."

बार्नेट ने कहा कि अगर दलाई लामा के जीवनकाल में तिब्बत मुद्दे का कोई राजनयिक समाधान नहीं निकलता है तो संभवतः दलाई लामा के उत्तराधिकारी के प्रश्न के उठने पर तिब्बत पर एक सुसंगत स्थिति बनाए रखने की भारत की जरूरत को कमजोर कर देगा. यदि भारत में पैदा हुए निर्वासित बच्चे को अगले दलाई लामा के रूप में पहचान मिलती है, तो भारत अपने लाभ के लिए इसे इस्तेमाल कर सकता है. बार्नेट ने मुझे बताया, "राजनीतिक दृष्टिकोण से भारत की स्थिति बेहतर है."

इस बीच पिछले एक दशक में कई तिब्बती भारतीय समाज के भीतर अपनी हाशिए की जिंदगी से टूट चुके हैं. भारत में तिब्बतियों को शरणार्थी का दर्जा नहीं दिया जाता है; भारत शरणार्थियों को लेकर 1951 के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है. वे सरकारी नौकरियों के लिए पात्र नहीं हैं और नागरिकता पाना बहुत मुश्किल बना हुआ है. 2011 से 2021 की बीच भारत में तिब्बतियों की संख्या 150000 से 44 प्रतिशत घट कर 850000 रह गई है. भारत से तिब्बती पश्चिम देशों में पलायन कर रहे हैं और कई बार वे वापस तिब्बत लौट जाते हैं. जो बचे हैं वे अपनी जिंदगी की अनिश्चितता को गहराई से जानते हैं. जिन तिब्बतियों से मैंने बात की, उन्होंने भारत में अपनी पहले से ही कमजोर स्थिति को खतरे में डालने के डर से पेगासस मुद्दे के बारे में ऑन रिकॉर्ड बात करने से मना कर दिया.

जिन्होंने बात की वे हैरान हैं. "हम पहले से ही जानते थे कि भारत सरकार तिब्बत के मामलों को काफी गंभीरता से देख रही है," एजेंस फ्रांस-प्रेस (एएफपी) के फोटोग्राफर और तिब्बती समाचार पोर्टल tibetsun.com के संपादक लोबसांग वांग्याल ने मुझसे कहा. उन्होंने बताया, "यह समझ में आता है कि भारत सरकार निर्वासित तिब्बती सरकार पर कड़ी नजर रखेगी. यह सिर्फ राजनीति है."

भारत में तिब्बत की आजादी के सबसे मुखर लोगों में से एक तेनजिन त्सुंडु ने उपरोक्त कथन से सहमति जाहिर की. एक राजनीतिक आंदोलनकारी के रूप में वह हमेशा यह मानते आए हैं कि वह कुछ हद तक टैपिंग के दायरे में हैं. उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि कई तिब्बती नेता भी शायद ऐसा ही मानते हैं.

लेकिन उन्होंने कहा कि वह इसको लेकर निराश हैं. त्सुंडे ने कहा. "पेगासस ने भारत सरकार की गलत प्राथमिकताओं का पर्दाफाश किया है. पेगासस ने जाहिर किया है कि भारत सरकार अपने ही लोगों की जासूसी कर रही है. लेकिन जहां उसका फोकस होना चाहिए था, यानी चीन पर, वहां सरकार का ध्यान नहीं है. यह पूरी तरह से सरकार की विफलता है." भारत सरकार के अधिकारियों ने पेगासस सॉफ्टवेयर के उपयोग की पुष्टि करने से इनकार किया है. हालांकि उन्होंने आधिकारिक तौर पर इसे नकारने से भी परहेज किया है. भारत ने कहा कि "कोई अनधिकृत टैपिंग नहीं हुई है."

बार्नेट ने कहा, "यह इस बात का संकेत नहीं है कि नई दिल्ली और दलाई लामा के बीच तनाव है. बल्कि यह इस बात का संकेत है कि नई दिल्ली तिब्बत मुद्दे के बारे में अपनी सार्वजनिक घोषणाओं, गतिविधियों और सोच में उल्लेखनीय रूप से अस्पष्ट और रणनीतिक रूप से डगमगाती रही है.” उन्होंने आगे कहा, "यह इस बात का संकेत है कि भारत ने अभी तक कोई दीर्घकालिक रणनीतिक दृष्टि पैदा नहीं की है जो न केवल अपने रणनीतिक लाभ को अधिकतम करे बल्कि चीन के साथ बड़े संघर्ष को भी न भड़कने दे."