सेक्युलर भारतियों का इस्लामोफोबिया

कोलकाता में सीएए और एनआरसी के खिलाफ विरोध रैली. देबज्योति चक्रवर्ती / नूरफोटो / गेटी इमेजिस

14 दिसंबर की दोपहर में एक अधेड़ उम्र का आदमी जामिया मिलिया इस्लामिया के रसायन शास्त्र विभाग की दीवार पर पेंटिंग बना रहा था. विश्वविद्यालय का यह विभाग सेंट्रल कैंटीन के सामने है. उस दिन बहुत सारे छात्र जामिया की दीवारों पर रंग-बिरंगे संदेशों वाली पेंटिंगें बना रहे थे. एसा कर छात्र नागरिकता संशोधन कानून (2019) के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करा रहे थे.

पेंटिंग कर रहा वह आदमी अरबी भाषा में लिखे नारे “ला इलाहा इल्लल्लाह”, जिसका अर्थ है : “अल्लाह ही है उसके सिवाय कोई सच्चा पूज्य नहीं है”, को मिटाने का प्रयास कर रहा था. जब वह ऐसा कर रहा था, तो वहां तकरीबन 15 छात्र और सुरक्षा गार्ड मौजूद थे. छात्रों का समूह इस बात की तारीफ कर रहा था कि सांप्रदायिक नारे के खिलाफ उनकी मांग मान ली गई. उसी वक्त 10 या 15 छात्रों का एक और समूह वहां आ गया, जो नारे को मिटाए जाने से खफा लग रहा था. उनमें से एक ने पूछा, “इस नारे को मिटाने की हिम्मत किसने की? क्या इसी वजह से नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजिका के जरिए हम लोगों पर निशाना नहीं साधा जा रहा है?”

पेंटिंग कर रहे आदमी ने तनाव भांप लिया और वहां से खिसक गया. छात्रों में से एक ने मिटे हुए अक्षरों को दुबारा ठीक कर दिया. वहां मौजूद अन्य छात्रों को ये छात्र समझाने लगे कि नागरिकता संशोधन कानून को इस्लाम ओर मुसलमानों पर हमले की तरह देखा जाना चाहिए और इसी बिंदू से मुसलमानों को अपने हक की आवाज उठानी चाहिए. दूसरा समूह तकरीर करने लगा कि “ला इलाहा इल्लल्लाह” एक सांप्रदायिक नारा है जो गैर-मुसलमानों की मौजूदगी वाले धर्मनिरपेक्ष आंदोलन में नहीं लगना चाहिए.

शाम होते-होते दीवार से जाहिर हो रहे मुस्लिमपने को फीका करने के लिए, उस नारे के आसपास “सेक्युलर इंडिया”, “बी यूनाइटेड”, “सिविल नाफरमानी” और “सब एक हैं” के नारे उकेर दिए गए थे. बाद में जब जामिया के गेट नंबर 7 के पास छात्र जमा हुए तो वहां “लाल सलाम” और “इंकलाब जिंदाबाद” के गगनभेदी नारे गूंजने लगे.

एक के बाद एक, लोग मंच पर आते और सीएए-एनआरसी के बारे में बोलते. लेफ्ट-लिबरल छात्र नेता, जिनका माइक्रोफोन पर कब्जा था, उन सभी वक्ताओं को खामोश करा देते जो यह कहने की कोशिश करते कि सीएए और एनआरसी मुख्यतः मुस्लिम विरोधी हैं. जो लोग “अल्लाह हू अकबर” के नारे लगाते उन्हें सांप्रदायिक कहकर खामोश कर दिया जाता. लेफ्ट-लिबरल छात्रों ने अपने वक्तव्यों में कहा कि “हम एक हैं और आंदोलन को सांप्रदायिक नहीं बनने दिया जाना चाहिए. हम “ला इलाहा” नारा नहीं लगाने देंगे.”

दूसरे दिन पुलिस ने जामिया के छात्रों पर बर्बर हमला किया. पुलिस जामिया के परिसर में घुस आई और लाइब्रेरी में आंसू गैस से हमला किया और छात्रों को बेरहमी से पीटा. पुलिस की कार्रवाई में कई छात्र घायल हुए और तकरीबन 50 छात्रों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. 21 दिसंबर को हम लोग जैसे-तैसे जामिया परिसर के भीतर घुस पाए. वहां हम देख सकते थे कि गमले टूटे हुए हैं और फर्श पर टूटा हुआ कांच बिखरा पड़ा है. हमने पाया कि केवल उस दीवार को रंग दिया गया है जिस पर उस दिन इस्लामी नारा लिखा गया था.

लेकिन चहल—पहल से दूर की दीवारों पर “अल्लाह हू अकबर” और दूसरे तमाम नारे लिखे थे. बहुत मुमकिन है कि अगर हम दुबारा वहां जाएं तो वहां से भी वे नारे मिटा दिए गए हों.

आखिर वह मुस्लिम पहचान है क्या जिससे पीछा छुड़ाना उदार-वामपंथियों के साथ एकता की शर्त है? यह सिर्फ जामिया की बात नहीं है. उदारवादियों की एकजुटता शर्तिया होती है क्योंकि मुसलमानों के बारे में उनकी समझदारी कहती है कि वे लोग सारत: अनुदार होते हैं. उदारवादी लोग देश की विविधता वाली संस्कृति के कसीदे पढ़ते नहीं थकते लेकिन ऐसे मुसलमानों को जो अपनी मुस्लिम पहचान को जाहिर करते हैं उन्हें वे भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के खिलाफ पाते हैं.

भारत में इस्लामोफोबिया (इस्लाम के प्रति पूर्वाग्रह) की कई किस्में हैं. यहां एक तरफ सरकार है जो अपने इस्लामोफोबिया को शान से जाहिर करती है. 1939 में जब पाकिस्तान भी नहीं बना था तब हिंदुत्व के विचारक विनायक दामोदर सावरकर ने टिप्पणी की थी, “अगर भारत के हिंदू मजबूत होंगे तो एक ऐसा वक्त आएगा जब लीग (मुस्लिम) के दोस्त मुस्लिमों की भूमिका जर्मनी के यहूदियों की तरह रह जाएगी.” सावरकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नेता था जो आज की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की पितृ संस्था है.

पिछले सालों में बीजेपी के चुनावी घोषणापत्रों, उसके नेताओं के भाषणों और नीति दस्तावेजों ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत और धर्मांधता को हवा दी और जिसके चलते उनके खिलाफ खुली हिंसा की कई घटनाएं हुईं. इन घटनाओं में उत्तर प्रदेश में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना और 2002 में गुजरात में मुसलमानों का कत्लेआम शामिल हैं. ओपी जिंदल विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर खिंवराज जांगिड़ बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भारत की कल्पना असाध्य स्तर तक मुस्लिम विरोधी है. 2014 और 2019 में उनकी भारी चुनावी जीतें, उस दृष्टिकोण का चरमबिंदू है. यह प्रक्रिया नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजिका पर खत्म न भी हो तो यह अंतिम चरणों में गिनी जा सकती है.

मोदी के शासन में बीजेपी ने अपने इस एजंडे को मुस्लिम विरोधी व्यापक कार्रवाइयों में रुपांतरित किया है. डेटा पत्रकारिता वेबसाइट इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2010 से अब तक गोहत्या से संबंधित हत्याओं में मरने वाले 84 प्रतिशत लोग मुस्लिम हैं और 97 प्रतिशत ऐसे मामले 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद घटित हुए हैं. दंडहीनता की संस्कृति ने, जिसमें ऐसे अपराधों में शामिल लोगों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती और बीजेपी के नेता ऐसे अपराधियों को प्रोत्साहन देते नजर आते हैं, पूरे मुस्लिम समुदाय के भीतर खौफ पैदा किया है. ऐसा दिखता है कि बीजेपी के लिए मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा ही पर्याप्त नहीं है बल्कि वह मुस्लिम पुरुषों को बदनाम करने में भी अमादा है. मिसाल के लिए वह उनको “लव जिहाद” के नाम पर बदनाम करती है और नीतिगत स्तर पर तीन तलाक को उसने अपराध बना दिया है. मुस्लिम महिलाओं के वैवाहिक अधिकारों का संरक्षण कानून (2019), मुस्लिम औरतों को इस्लाम से स्थाई तौर पर पीड़ित और सरकार को उनके संरक्षक के रूप में पेश करता है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के उस स्थान पर, जहां पहले बाबरी मस्जिद थी, राममंदिर निर्माण के बीजेपी के सपने को भी हरी झंडी दे दी है.

हिंदुत्व प्रोजेक्ट के औपनिवेशिक मंसूबों का प्रदर्शन करते हुए 5 अगस्त 2019 को भारतीय राज्य ने कश्मीर के संवैधानिक दर्जे को बदल डाला. कारवां में अक्टूबर 2019 में प्रकाशित एक लेख में शोधार्थी अदिति शराफ ने लिखा है कि जम्मू-कश्मीर के स्थाई रहवासियों को वहां की जमीन का अधिकार देने वाले संविधान के अनुच्छेद 35ए को राज्य से हटाने से कश्मीर की जनता के सामने अस्तित्व को संकट पैदा हो गया है.

ऐसा लगता है कि 5 अगस्त के बाद की स्थिति के लिए भारतीय राज्य यह मान कर चल रहा था कि कश्मीरी युवक, जिनको लंबे समय से गद्दारों की तरह पेश किया जाता रहा है, सड़कों में उतर आएंगे और मारे जाएंगे. लेकिन ऐसी नहीं हुआ. बल्कि सीएए के बाद भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य मुसलमान, जिनसे दक्षिणपंथी संभवतः कश्मीरी मुसलमानों के बाद सबसे अधिक नफरत करते हैं, बढ़ी तादाद में सड़कों पर उतर आए. इसने मुसलमानों के दमन को प्रदर्शित करने, जैसा हमने मैंगलौर और उत्तर प्रदेश में देखा भी, और बहुसंख्यकवादी वोट बैंक को ठोस करने का अवसर प्रदान किया.

2019 में कश्मीर, अयोध्या और सीएए ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिनसे सरकार अपनी आर्थिक नाकामयाबी पर पर्दा डालना चाहती है, बल्कि यह मुसलमानों का बहिष्करण करने वाले दक्षिणपंथ के हिंदू राष्ट्र के सपने को साकार रूप देने के लिए किया गया है. जब मोदी ने घोषणा की कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को “कपड़ों से पहचाना जा सकता है” तो यह मुस्लिमों को देश की शांति के लिए खतरे के रूप में पेश करने का उनका तरीका था.

मुसलमानों को कांग्रेस के शासन में भी संस्थानिक भेदभाव और नजरअंदाजी झेलनी पड़ी है. मुस्लिमों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व हमेशा से ही कमजोर रहा है. बीजेपी द्वारा उस पर लगाए जाने वाले मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों से पीछा छुड़ाने के लिए कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति करने लगी. भारत में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के मद्देनजर, मुसलिम तुष्टीकरण की बात बेमानी है. रिसर्च स्कॉलर क्रिस्तोफ जाफ्रलो और कलैयारासन ने दि इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है, “बहुसंख्यकवादी जमाने में अल्पसंख्यकों के लिए किया गया कोई भी कार्य अवैध माना जाता है.”

लेकिन लेफ्ट-लिबरल लोगों के बीच जो इस्लामोफोबिया है वह ज्यादा घातक और अधिक खतरनाक है. ऐसा कहने का अर्थ यह कतई यह नहीं है कि जो हजारों लोग- बूढ़े, नौजवान, बच्चे, औरत और मर्द- सीएए के खिलाफ सड़कों पर हैं उनकी जरूरत नहीं है. साथ ही हम उन सैकड़ों मुसलमानों की अनदेखी नहीं कर सकते जो हाथों में उस तिरंगे को थामे रैलियों में चल रहे है, जो मादरे वतन के लिए अपनी मुहब्बत और उन मूल्यों का प्रतीक है जिसके लिए वे लड़ रहे हैं.

लेकिन इस वक्त उस सलेक्टिव सॉलिडेरिटी (सुविधाजनक एकजुटता) का भंडाफोड़ करना जरूरी है जो राष्ट्र के नाम पर मांगी जाती है, वह एकजुटता जो धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के नाम पर इस्लाम के सभी संदर्भों को मिटा देना चाहती है. अगर ऐसा नहीं है तो क्यों उन मुसलमानों का तो स्वागत किया जाता है जो अपनी भारतीय पहचान प्रकट करते हैं लेकिन उन मुसलमानों को किनारे लगाया जाता है जो लिबरल फ्रेमवर्क की धार्मिक पहचान से बाहर अपनी धार्मिक पहचान को जाहिर करते हैं? अगर लोग संविधान में उल्लेखित धर्मनिर्पेक्ष मूल्यों को बचाने के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं तो क्या यह जरूरी है कि उनके धर्म को किनारे कर दिया जाए, सार्वजनिक जगहों में मुस्लिम अदब के किसी भी रूप को नामंजूर किया जाए, वह भी तब जब इस बहिष्कार के निशाने पर साफतौर पर मुस्लिम पहचान है.

हर देश में, धर्म, राजनीति और राज्य के बीच चलने वाली खींचतान की जटिल प्रक्रिया अगल-अलग संदर्भों में बदलती रहती है. जब भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब राज्य द्वारा सभी धर्मों से समान व्यवहार करना है तो क्यों अपनी धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता साबित करने का पूरा दायित्व केवल मुसलमानों पर है? ऐसा क्यों है कि भारतीय मुसलमानों को अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए अपनी धर्मिक पहचान का गला घोटने को कहा जाता है? जब सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद के भग्नावेषों पर राम मंदिर निर्माण को मंजूरी देकर मस्जिद के गुनहगारों को पुरस्कृत किया, तो क्यों मुसलमानों से देश ने आशा की कि वे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के नाम पर इस फैसले को मान जाएं?

सांस्कृतिक मानवशास्त्री तलाल असद ने तर्क दिया है कि धर्म के स्वीकृत सार्वजनिक चेहरे को परिभाषित करने का काम राज्य करता है. जब बात मुस्लिमों की धार्मिक पहचान की आती है तो मुस्लिमों को या तो उदार मूल्यों में समाहित हो जाना पड़ता है- ऐसा करने को उदारवादी लोग अंतरनिहीत रूप से इस्लाम के खिलाफ देखते हैं- या मुसलमानों को राष्ट्र-राज्य की राजनीतिक कल्पना से बाहर हो जाना होता है. यह मुसलमानों के “गुड मुस्लिम” और “बेड मुस्लिम” के उस राजनीतिक वर्गीकरण के बराबर है जिसके बारे में राजनीतिक विज्ञानी महमूद ममदानी ने पश्चिमी दुनिया के संदर्भ में लिखा था. अमेरिका में 9/11 के बाद होने वाली सार्वजनिक चर्चाओं के संदर्भ में ममदानी ने लिखा है :

राष्ट्रपति बुश ने “गुड मुस्लिम” और “बेड मुस्लिम” में फर्क किया. इस मान्यता के अनुसार “बेड मुस्लिम” साफतौर पर आतंकवाद के लिए जिम्मेदार हैं. इसके साथ ही राष्ट्रपति ने अमेरिकियों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की कि “गुड मुस्लिम”, आतंकवाद रूपी भयानक अपराध से अपना नाम हटाने और अपनी चेतना से अपराधबोध को मिटाने के लिए बेताब हैं और इसलिए वे लोग निश्चित तौर पर “उनके” खिलाफ युद्ध में “हमारा” सहयोग करेंगे. लेकिन उनकी इस मान्यता का केंद्रीय संदेश स्पष्ट था, यानी जब तक कोई मुसलमान “गुड” साबित नहीं होता तब तक वह “बेड” है. अब सभी मुसलमानों पर यह दायित्व डाल दिया गया था कि जब तक वे अपनी प्रतिबद्धता युद्ध में शरीक होकर साबित नहीं कर लेते तब तक वे “बेड मुस्लिम” माने जाएंगे.

हम उपरोक्त नजरिए को वहां भी देख सकते हैं जब लेफ्ट-लिबरल कार्यकर्ता, भारत के मुसलमानों के लिए जीवन और मरण के आंदोलन को दिशा देते दिखते हैं. जब जामिया के छात्रों का मुस्तैदी से बचाव कर रहीं लादीदा सखालून और आयशा रैना की तस्वीर ऑनलाइन हुईं तब सोशल मीडिया में उन्हें सीएए विरोधी आंदोलन के नायिकाओं की तरह पेश किया गया. लेकिन फिर उनकी वह सोशल मीडिया पोस्ट शेयर की जाने लगीं जिनमें सखालून कह रहीं हैं, “हमने बहुत पहले ही सेक्युलर नारों को तिलांजली दे दी है.” अचानक ट्वीटर नागरिकों ने उन दोनों को सेक्युलर मूल्यों का गद्दार बताना शुरू कर दिया.

29 दिसंबर को कांग्रेस पार्टी के सांसद शशी थरूर, जो लिबरल विचार वाले माने जाते हैं, ने प्रदर्शनों में लगाए जा रहे “ला इलाहा इल्लल्लाह” नारे का वीडियो ट्वीट किया. थरूर ने वीडियो के नीचे लिखा, “हिंदुत्व के खिलाफ हमारी लड़ाई से इस्लामिक कट्टरपंथियों को मौका नहीं मिलना चाहिए.” आगे थरूर ने लिखा, “हम” विविधता और अनेकता का “स्थान दूसरी तरह के धार्मिक कट्टरवाद को नहीं लेने दे सकते.”

जब उनके इस वक्तव्य के लिए उनकी थू-थू हुई तो थरूर ने एक के बाद एक कई ट्वीट पोस्ट कर लिखा कि वह इस्लाम में इस नारे की “आदिम भूमिका” के समझते हैं लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने कमजोर ज्ञान का रहस्योद्घाटन यह पुछ्ल्ला जोड़कर कर दिया कि “हम मुस्लिम सांप्रदायिकता को प्रोत्साहन देकर हिंदू सांप्रदायिका से नहीं लड़ सकते.” उनकी समझदारी, कि भारत की विविधता को समझना मुस्लिमों के लिए जरूरी है, की जड़ में वह स्वाधिकार है जो एक ऐसे समुदाय को कृपापात्र की तरह देखती है जिसके सामने अस्तित्व का संकट है.

थरूर ने दावा किया कि बीजेपी ऐसे वीडियो का प्रसार आंदोलन को सांप्रदायिक रंग देने के लिए कर रही है. थरूर यह नहीं समझ सके कि विविधता पर मंडरा रहा खतरा उन लोगों से पैदा होता है जो मुस्लिमों की दावेदारी को दरकिनार कर और उसे नकारात्मक विचार बताकर सेक्युलर मूल्यों का बचाव करने का दावा करते हैं. मुसलमानों को किनारे लगाने के लिए बीजेपी और कांग्रेस के तरीकों में बस यही एक फर्क है कि एक पार्टी हिंदू राष्ट्र के नाम पर ऐसा करती है और दूसरा पक्ष विविधता, उदारता और सेक्युलर भारत की अपनी भोथरी परिभाषा के जरिए.

“अलग” मुसलमानों को उदार मूल्यों के साथ कदमताल करने की नसीहत देने से ज्यादा जरूरी है स्वाधिकारियों को कटघरे में खड़ा किया जाए. अपनी धार्मिक पहचान के चलते हिंसा का सामना कर रहे एक समूह के लिए एकजुटता के उदार मूल्य क्या होंगे? “धर्मनिरपेक्षिता” और “विविधता” का उदारवादी नजरिया क्या है?

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद, दि वायर में प्रकाशित लेख में लिखते हैं कि मिट जाने की संभावित हद में पहुंच चुके मुसलमानों को “भारत में कुछ साबित करने की जरूरत नहीं है.” उन्होंने बताया कि मुसलमानों के कितने सारे हितैषी हैं जिन्हें चिंता है कि बीजेपी सीएए के विरोध को सांप्रदायिक और, खासतौर पर, मुस्लिम आंदोलन दिखाएगी. अपूर्वानंद ने तर्क दिया, “क्या यह ठीक न होता कि जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आंदोलन न होते या सीलमपुर या पुर्णिया में आंदोलनकारी अपने-अपने दैनिक कामों में लगे रहते, क्योंकि उनकी “उपस्थिति” सीएए के खिलाफ तर्कों को कमजोर करती है.”

जामिया में भी हमारी मुलाकात ऐसे विद्यार्थियों से हुई जिनको लगता है कि सीएए को मुसलमानों के बहिष्करण के संदर्भ में देखने और मुस्लिमपने की गंद वाले नारों के जरिए जामिया की छवि एक पिछड़े, आतंकी और अल्पसंख्यकों के गेटो (बस्ती) की सी बनेगी. सितंबर 2008 में बाटला हाउस में हुई हत्याओं के बाद यह छवि बनी थी. उस घटना में पुलिस ने जामिया नगर में हुए कथित एनकाउंटर में दो छात्रों को गोली से मार दिया था.

जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन समेत कई मानव अधिकार समूहों ने उस एनकाउंटर पर सवाल खड़े किए थे और इसे “न्यायेतर हिंसा का शर्मनाक इतिहास” करार दिया था. इन हत्याओं ने मुस्लिम इलाके और खासतौर पर विश्वविद्यालय के प्रति शक को और गहरा बना दिया. इस शक के पौधे को दक्षिणपंथियों ने पानी से सींचा. इस घटना के बाद, गुजरात के तत्कानील मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, “दिल्ली के यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी. इस यूनिवर्सिटी ने पब्लिकली घोषणा की है इस आतंकवादियों की रक्षा करने के लिए कोर्ट का मुकदमा जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी लड़ेगी, खर्च यूनिवर्सिटी करेगी. अरे, डूब मरो, डूब मरो.” 2017 में आरएसएस के संगठन विश्व हिंदू परिषद ने जामिया को “राष्ट्रद्रोहियों की शरणस्थली” कहा था.

बाटला हाउस के इसी संदर्भ का उल्लेख करते हुए, जामिया कैंपस में एक छात्रा ने हमसे कहा था, “यह जामिया की छवि का सवाल है.” बहुत सारे छात्रों ने हमसे जामिया नगर में रहने वालों से दूरी बनाने के लिए कहा था जो यहां के विद्यार्थियों के साथ एकबद्धता जाहिर करने के लिए सड़क पर उतर आए थे. कई छात्रों का कहना था, “यह अनुशासनहीन लोगों की भीड़ है, जबकि हम पढ़े-लिखे और उनसे अलग हैं. उनसे दूर रहो.”

जामिया में आधुनिक इतिहास के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया था कि सीएए विरोधी प्रदर्शनों के जरिए जामिया के विद्यार्थी अपना धार्मिक अधिकार नहीं बल्कि संवैधानिक हक मांग रहे हैं और यह जरूरी है कि लोग इस बात को समझें कि जामिया किसी भी अन्य “आधुनिक, उदार संस्थानों” की तरह ही है.

लेकिन यह उदाहरण जामिया के आगे भी जाता है. मिसाल के लिए, इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने 2018 में द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था कि मुस्लिम समुदाय को “मध्यकालीन गेटो से बाहर निकलकर आधुनिक दुनिया के साथ संवाद” करने की आवश्यकता है. उन्होंने यह भी तर्क दिया था कि मुस्लिम औरतों के सार्वजनिक स्थानों में बुर्का पहनने का कोई भी विरोध, मुक्ति और उदार मूल्यों की वकालत करना है.

ये टिप्पणियां मुसलमानों के बारे में उस प्राच्यवादी स्टेरियोटाइपिंग को मान्यता देती हैं जो मुस्लमानों को बर्बर मानती है और उन्हें प्रबुद्ध जीवन जीने के अदब सीखने पर जोर देती है. ये टिप्पणियां मुस्लिम पहचान को बदनाम कर, केवल सरकारी मुसलमान होने को वैध ठहराती हैं यानी ऐसा मुसलमान जो सार्वजनिक स्थानों में इस्लाम के प्रतीकों का प्रदर्शन नहीं करता, जो हाइपरनेटेड भारतीय-मुसलमान से अधिक अपनी भारतीय पहचान को पसंद करता है, जो दाढ़ी और गोल टोपी के साथ उस खाके पर फिट बैठता है जो भारत की अनेकता वाली छवि के मुताबिक है. सांस्कृतिक सिद्धांतकार संतोष एस के अनुसार इसका आशय है कि “मुसलमानों की तरह जीना ही अपने-आप में समस्याग्रस्त है.”

उदारवादियों द्वारा एकजुटता का प्रदर्शन यह मांग करता है कि मुसलमान अपनी धार्मिक पहचान छोड़ दें, संभवतः राष्ट्र के नाम पर इसे त्याग कर साबित करें कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं. यह मांग करता है कि शिक्षित और आदर्श मुसलमान अन्य मुस्लिमों से दूरी बनाएं. सच तो यह है कि उदारवादियों की यह एकजुटता पूर्ण अलगाव की मांग करती है, बहिष्कृतों का बहिष्कार.

जब से ये विरोध प्रदर्शन शुरू हुए हैं, हमने अपने-आप से पूछा है : कश्मीरी होने के नाते हम इस आंदोलन में कहां खड़े हैं? हम लोगों के भीतर भारत के सभी राजनीति रूपों से अलगाव की मानसिकता है. कश्मीर में हम अक्सर बाते करते हैं कि कश्मीर के बाहर के मुसलमानों में हमारी स्थिति को लेकर विरक्ति है. हमारे उन संवादों में, आज भारत में हो रही लड़ाई की कल्पना नहीं थी.

कश्मीर और भारत में “आजादी” के नारों का मतलब अलग-अलग है. आज जो भारत में हो रहा है वह “भारत का कश्मीरीकरण” नहीं है, जैसा प्रताप भानू मेहता जैसे विश्लेषक बताते हैं. इस शब्द का इस्तेमाल बस तभी किया जा सकता है जब भारतीय राज्य देश की घेराबंदी करे. लेकिन यह इसलिए एक महत्वपूर्ण समय है क्योंकि भारतीय मुसलमान अपनी दावेदारी कर रहा है और सड़कों पर उतर रहा है. हकीकत तो यह है कि यह वह वक्त नहीं है कि हम इन लोगों को सांत्वना भरे उपदेश दें.

हम मुस्लिम पहचान के संबंध में इस आंदोलन के प्रति आकर्षित हुए हैं. इसके अलावा चूंकि हम खुद दशकों से भारतीय राज्य द्वारा सताए और उत्पीड़ित हैं, इसलिए सामान्यत: हमारे भीतर ऐसे लोगों के प्रति एकबद्धता का भाव है. हमारी एकबद्धता से मुस्लिमपने को खारिज करना, लेफ्ट-लिबरल कार्यकर्ताओं की तरह वक्त की सच्चाई से आंखें मूंद लेने के समान होगा.

यह शायद मुस्लिमपना ही है जिसके चलते कश्मीरी जनता दशकों से फिलिस्तीन के संघर्ष की समर्थक है. कश्मीर की गलियों में “सेव गाजा” और इस्लाम की दुहाई देने वाले नारे “फलस्तीन से रिश्ता क्या- ला इलाहा इल्लल्लाह” सहज दिखाई पड़ जाते हैं. यही वह बहुकोणीय एकबजुटता है जिसके चलते 1969 में जेरूसलम में अल-अक्सा मस्जिद को खंडित करने पर कश्मीरी लोग सड़कों पर उतर आए थे. और इसीलिए कश्मीरियों ने उत्पीड़न के शिकार बोसनिया और इराक के मुसलमान, अराकान के रोहिंग्या मुसलमान और ऊगुर मुसलमानों से एकबद्धता का इजहार किया.

एकजुटता खुद के विवेक और उत्पीड़ित जनता के प्रति एक जिम्मेदारी है. यह शर्तिया नहीं हो सकती और इसे यथार्थ के अलग-अलग संदर्भों को स्वीकार करना होगा. जब इसे सुविधाजनक कृपालुता की तरह अभिव्यक्त किया जाए और जब यह लोगों की विशेष पहचान और उनके द्वारा भोगी जा रही सच्चाई से आंखें मूंद लेती है तो वह एकजुटता नहीं रह जाती. यह बस “अदरिंग” और बहिष्करण का वही प्रयास रह जाती है जिसका आरोप राज्य पर लगाया जा रहा है. एकजुटता सीखना और सीखी हुई गलत चीजों को भूलाना और निरंतर संवाद करना है, लेकिन उस तरह नहीं कि जिसमें शर्ते और प्रावधान हों.

20 दिसंबर को हमारी मुलाकात जामिया की एक महिला रिसर्च स्कॉलर से हुई जिसने हमें बताया कि वह लोगों को सड़कों पर उतर कर उनको मिटा देने में अमादा शक्ति को चुनौती देते देख बहुत खुश है. उसने हमसे कहा, “कुछ विद्यार्थियों और स्थानीय लोगों ने मुझे बताया कि उनको यह पता भी नहीं है कि विरोध को कैसे समझें या विरोध का सही तरीका क्या है? लेकिन ऐसे लोग अपने परिवारों के साथ आ रहे हैं. क्या यह एक तरह की शुरुआत नहीं?”