लगभग तीन से चार हजार साल पहले यूरेशियाई स्टेप से लोगों के यहां आने के बाद के हजार सालों में भारतीय आबादी एक जबरदस्त मंथन से गुजरी है. आज लगभग हर भारतीय में स्टेप और अस्तिवमान सिंधु घाटी की आबादी के जीनों के अलग-अलग अनुपात का मिश्रण है. और फिर हजारों सालों के मिश्रण के बाद वह मंथन, जिसने हम सभी को पैदा किया, थम गया.
आनुवंशिकीविद डेविड राइक के मुताबिक, भारत की आबादी बहुत बड़ी तो है लेकिन यह कुल मिला कर छोटे-छोटे समूहों का एक बड़ा गुच्छा है. राइक ने एक निबंध में लिखा है, "एक ही गांव में साथ-साथ रहने वाले भारतीय जाति समूहों के बीच आनुवंशिक फर्क का स्तर आमतौर पर उत्तरी और दक्षिणी यूरोपीय लोगों के बीच आनुवंशिक फर्क की तुलना में दो से तीन गुना ज्यादा है. भारत में शायद ही कोई समूह हो जो जनांकिकी या डीमॉग्रफिक के हिसाब से बहुसंख्यक कहा जा सकता हो.” वह लिखते हैं कि इसके उलट “चीन के हान वास्तव में एक बड़ी आबादी हैं जो हजारों सालों से अधिकता से मिक्स हो रहे हैं.”
एक-दूसरे से अलग इस सहजातीय समूहों को हम आज जाति कहते हैं. उन्हें वर्णानुसार वर्गीकृत किया गया है. जातियों की इस दर्जाबंदी की शरुआत कहीं ना कहीं तब हुई होगी जब आपस में मिक्स होने का दौर खत्म हो गया था या उसके तुरंत बाद. राइक का कहना है, "जाति व्यवस्था में कम से कम 4600, और कुछ के मुताबिक तो लगभग 40000 सहजातीय समूह शामिल हैं. हरेक का वर्ण व्यवस्था में एक खास दर्जा है लेकिन मजबूत और पेचीदा सहगोत्रीय नियम अलग-अलग जातियों के लोगों को एक-दूसरे के साथ मिक्स होने से रोकते हैं, भले ही वे एक ही वर्ण स्तर के हों.”
आज यह पता लगाना मुश्किल है कि दर्जाबंदी में अपमानजनक दर्जों पर पहुंचाए गए लोगों ने इस स्थिति को स्वीकार कैसे किया. कोई भी समूह ऐसी स्थिति को खुशी-खुशी मानने वाला तो नहीं था. संभवतः इसके लिए धार्मिक औचित्य और बल प्रयोग की की जरूरत पड़ी होगी ताकि ऐसे समुदाय इस स्थिति को चुनौती ना दे सकें. हालांकि उपरोक्त दावा हाइपॉथेटिकल अथवा अनुमानिक है और इसकी पुष्टि करना या इसके पक्ष में सबूत जुटाना मुश्किल है, लेकिन अब हमारे सामने वैसा ही कुछ हो रहा है जो है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तहत भारत के मुसलमानों की स्थिति में गिरावट और उनका हाशियाकरण.
मुख्तलिफ पैमाने पर इसमें लगभग वे सभी घटक उपस्थित हैं जो किसी आबादी को उन जातियों से नीचे स्थापित करते हैं जो खुद को ऊंची जातियां कहती हैं. इनमें अंतर-विवाह पर प्रतिबंध, आबादी का घेटोआइजेशन, भोजन को खास समुदायों से जोड़ना और सामाजिक सत्ता संरचना में भागीदारी से वंचित करना शामिल है.
मिसालें भरी पड़ी हैं कि मोदी और भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के साथ इस प्रक्रिया में एकदम तेजी आई है. जैसा कि कारवां ने अपने अगस्त 2023 अंक में रिपोर्ट किया था, उत्तराखंड में, ये ताकतें राज्य से मुसलमानों के नस्लीय सफाए की कोशिशें कर रही हैं क्योंकि उन्होंने इसे देवभूमि या हिंदुओं की पवित्र भूमि के रूप में परिभाषित कर दिया है. हरियाणा के नूंह जिले में सांप्रदायिक हिंसा, जो जुलाई में शुरू हुई और कई दिनों तक राज्य के अन्य हिस्सों में फैल गई, भी इस परियोजना का एक हिस्सा है.
संघ परिवार और हिंदुत्व की विचारधारा को मानने वाले कई चरम संगठन इन जारी अपराधों में भागीदार रहे हैं. इन अपराधों को ऐसे संगठनों के सदस्यों की हिंसा के जरिए और 2014 के बाद से बीजेपी सरकारों द्वारा पारित कई कानूनों के जरिए किया गया है. ये ऐसे अपराध हैं जो साफ तौर पर 1998 के रोम करार के तहत, जिसने अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय की नींव रखी, इंसानियत के खिलाफ अपराध के दायरे में आता है.
मुसलमानों को हाशिए पर पहुंचाने का काम चरणबद्ध रूप से किया गया है. यहां मैं इनमें से हरेक कदम पर अपनी बात रखूंगा. इसकी शुरुआत हिंदुत्व के उस कदम पर अपनी बात से करूंगा जिसे वह नस्लों की मिलावट को रोकना कहता है.
हिंदू धर्मग्रंथ जातियों के अंतर्मिश्रण के भय से अटे पड़े हैं. भगवद गीता में अर्जुन कृष्ण से कहते हैं:
अधर्म की वृद्धि से स्त्रियां दूषित हो जाती हैं. स्त्रियों के दूषित होने से वर्ण संकर पैदा हो जाते हैं. इस तरह इन वर्ण संकर पैदा करने वाले दोषों से कुल का नाश करने वालों के जातिधर्म (वर्णधर्म) नष्ट हो जाते हैं.
गीता अपवाद नहीं है. महाभारत के संक्षिप्त संस्करण का लगभग कोई भी खंड पाठक को उपरोक्त किस्म की चेतावनियां देता है. इनमें एक ऐसे समाज के पतन का दावा है जहां जातियां आपस में संबंध स्थापित करती है. राजा के कर्तव्यों का जिक्र करते समय शांति पर्व की इन चेतावनियों पर गौर करें:
राजा के संरक्षण के बिना, सभी प्रकार के अन्याय आरंभ हो जाते हैं. वर्ण संकरता फैलती है और राज्य अकाल नष्ट हो जाता है...
जो गांव या घर में आग लगावे, चोरी करे अथवा व्यभिचार द्वारा वर्ण संकरता फैलाने का प्रयत्न करे, ऐसे अपराधी का वध अनेक प्रकार से करना चाहिए.
जब राजा पापों पर लगाम नहीं लगाता, तो जाति संकरता फैलती है और पापी राक्षस, अपंग या मोटी जीभ वाले और मूर्ख बच्चे, कुलीन परिवारों तक में पैदा होने लगते हैं.
कालांतर में चेतावनियां बेहद असरदार साबित हुईं. राइक ने आंध्रप्रदेश के वैश्य लोगों की मिसाल दी है. इन्हें दो से तीन सहस्राब्दी पहले तक जांचा जा सकता था. राइक लिखते हैं, “इसका मतलब यह था कि बंदिश के बाद वैश्य के पूर्वजों ने सख्त अंतर्विवाह बनाए रखा था, जिससे हजारों सालों तक लाजिमी तौर पर उनके समूह में कोई आनुवंशिक मिश्रण नहीं हुआ. यहां तक कि इन वैश्यों में यदि हर पीढ़ी में एक फीसदी भी मिश्रण होता तो बंदिश के पालन ना होने के संकेत मिलते.''
इन महाकाव्यों और आज के संघ परिवार में एक हजार साल से भी ज्यादा समय का फासला है, लेकिन नजरिया वही बना हुआ है. मोदी के सत्ता में आने के कुछ महीनों के भीतर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा, "आने वाली पीढ़ी की लड़कियों को 'लव जिहाद' का मतलब और उनके जाल से खुद को बचाने के तरीके बताए जाने चाहिए." जैसा कि भागवत के शब्दों से संकेत मिलता है, हिंदुत्ववादी संगठनों ने अपनी पितृसत्तात्मक धारणाओं को ध्यान में रखते हुए, खुद को हिंदू औरतों की यौनिकता का रखवाला तैनात किया है. इसके अलावा, "लव जिहाद" शब्द इस बारे में कोई भ्रम नहीं छोड़ता कि औरतों को कथित तौर पर कौन "फंसाता" है; इससे पता चलता है कि मुसलमानों के साथ गलत रिश्ते को अलग से चिह्नित करने की जरूरत है. दूसरी ओर मुस्लिम कट्टरपंथ को मुस्लिम औरतों की यौनिकता को काबू में करने और उनकी पसंद को निर्देशित करने की यही जरूरत महसूस होती है. लेकिन यह तुलना उस राज्य में गैरजरूरी है जो एक कट्टरवाद को दूसरे से ज्यादा समर्थन देता है और इसी मकसद से अपने साजो-सामान का इस्तेमाल करता है.
प्राचीन महाकाव्यों के रचनाकारों की तरह ही आरएसएस इस बात को जानता है कि हिंदू-मुस्लिम जोड़े केवल हमारी प्रजाति के सबसे पुराने आवेग यानी एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो रहे हैं. यह ऐसा आवेग है जि पर आसानी से अंकुश नहीं लगया जा सकता. यह कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उभर कर सामने आता है.
यानी इसकी रोकथाम के लिए निरंतर हिंसा की जरूरत है, जो केवल हिंदुत्व राज्य की मौन और सक्रिय मिलीभगत से ही कायम हो सकता है. यह ऐसी शादियों पर बंदिशों की रोकथाम के कानूनी इतिहास में जाहिर है.
वकील चंद्र उदय सिंह एक विश्लेषण में कहते हैं कि 2022 के आखिर तक ग्यारह भारतीय राज्यों में लव जिहाद कानून थे. उन्होंने कहा, "लेकिन गिनती रखना मुश्किल होता जा रहा है."
कुछ, जैसे 2019 में हिमाचल और 2021 में गुजरात और मध्य प्रदेश ने अपने पुराने 'धर्म की स्वतंत्रता' अधिनियमों के लिए कड़े नए प्रतिस्थापन अधिनियम बनाए हैं, जिनका मकसद हिंदू औरतों को धर्म के बाहर शादी करने से रोकना है.
उड़ीसा (1967), छत्तीसगढ़ (1968), अरुणाचल प्रदेश (1978) और झारखंड (2017) में धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए कानून हैं, लेकिन वे अधिनियम विवाह जैसे निजी क्षेत्र में नहीं घुसते.
लेकिन नवागंतुकों, जैसे उत्तराखंड (2018), उत्तर प्रदेश (2020), कर्नाटक (2021) और हरियाणा (2022) ने "लव जिहाद की बढ़ती प्रवृत्ति" के खिलाफ लड़ाई के घोषित उद्देश्य के साथ बेधड़क कानून बनाए.
तारीखें बताती हैं कि कैसे धर्मांतरण के खिलाफ मौजूदा पूर्वाग्रह, जो 2014 से पहले के कानूनों में जाहिर थे, को अब एक अलग ही दर्जे पर ले जाया गया है.
लव जिहाद कानूनों के समर्थक अक्सर इसी तरह के तर्क देते हैं. मिसाल के लिए, उत्तराखंड में ऐसे ही एक विधेयक के साथ जुड़े उद्देश्यों और कारणों के बयान में जिक्र किया गया है कि ऐसे "विभिन्न मामले" हैं जिनमें "लोग अपने धर्म को छिपा कर लड़कियों से शादी कर रहे हैं और शादी के बाद लड़कियों को अपने धर्म में परिवर्तित कर रहे हैं." इन उदाहरणों के आधार पर, सिंह लिखते हैं, "उत्तराखंड विधायिका ने एक कानून बनाया जो ना केवल प्यार को अपराध मानता है बल्कि अंतरधार्मिक विवाहों को भी अमान्य घोषित करता है, अगर विवाह से पहले या बाद में धर्म परिवर्तन होता है." यह कोई रहस्य नहीं है कि ये कानून किसे निशाना बनाते हैं. गार्जियन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अगस्त 2021 तक उत्तर प्रदेश में लव जिहाद कानून के तहत 208 लोगों को गिरफ्तार किया गया था. सभी 208 मुस्लिम थे.
जैसे-जैसे ये गिरफ्तारियां होती जाती हैं, ऐसे मामलों में हिंसा की घटनाएं बढ़ती जाती हैं. राज्य की मिलीभगत और योजना सामान्य हो जाती है. कहानियां अखबारों के अंदर के पन्नों में चली जाती हैं.
आहार संबंधी प्रतिबंधों के मामले में भी यही कहानी है. दिवंगत इतिहासकार डीएन झा ने वेदों का व्यापक अध्ययन कर बताया है कि गोमांस पुरोहित वर्ग का पसंदीदा भोजन था. लेकिन ये ग्रंथ महान बंदिश से पहले के हैं. हजारों वर्षों के मिश्रण में, जब वैदिक लोग और सिंधु घाटी के निवासी दोनों मवेशियों का मांस खाते थे, तब पुरोहित वर्ग को श्रमणिक “विधर्मियों” के विचारों की चुनौती का सामना करना पड़ा. ब्राह्मणों के विपरीत, श्रमणों का मानना था कि ज्ञान की खोज किसी एक समूह के लोगों तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए. और आमतौर पर वे इच्छुक सभी लोगों के लिए खुले थे. ये विचार बौद्ध धर्म से लेकर जैन धर्म तक विभिन्न संप्रदायों में प्रकट हुए.
सबसे बड़ी सफलता बौद्धों को मिली. बीआर आंबेडकर ने "दि अनटचेबल्स" में लिखा है, "बौद्ध धर्म के प्रसार के चलते ब्राह्मणों ने शाही दरबार और लोगों के बीच सारी शक्ति और प्रतिष्ठा खो दी थी." ब्राह्मणवाद अंततः जीव हत्या ना करने या मांस खाने पर प्रतिबंध जैसे बौद्ध धर्म के कई मूल विचारों को अपना कर इस चुनौती से निपट सका. ब्राह्मणवादी व्यवस्था मांस त्याग कर, जो कि एक बार उनकी शक्ति के लिए पुरस्कार था, पुरोहिती सर्वोच्चता का दावा करने के दूसरे चरम पर पहुंच गई. उनका सबसे अच्छा मांस सबसे अधिक वर्जित हो गया. आंबेडकर ने कहा, "शाकाहारी बने बिना ब्राह्मण अपने प्रतिद्वंद्वी से खोई हुई जमीन वापस नहीं पा सकते थे."
इस उलट ने उन लोगों को, जो मरे हुए जानवरों का मांस खाते थे, जो कि पशु प्रोटीन का सबसे सस्ता जरिया है, दर्जाबंदी के भीतर और ज्यादा बदनामी की हालत में डाल दिया. आंबेडकर ने लिखा है कि मुख्य समुदायों को "अछूत" माना जाता है जो "मृत गाय खाते हैं और जो लोग मृत गाय खाते हैं वे ही अस्पृश्यता से कलंकित होते हैं. अस्पृश्यता और मृत गाय के उपयोग के बीच सह-संबंध इतना बड़ा और इतना घनिष्ठ है कि यह थीसिस कि यह अस्पृश्यता की जड़ है, निर्विवाद प्रतीत होती है.'' आज, इस वर्जित, कभी खाए जाने वाले भोजन के उपभोक्ता के रूप में मुसलमानों पर वही बदनामी थोपी जा रहा है. हिंसा, राज्यतंत्र का विधायी उपयोग और पुलिस के जोर जबर का लगभग वही पैटर्न लव जिहाद को लेकर भी दोहराया जाता है.
झा ने लिखा है कि कैसे ब्राह्मणों के गोमांस खाने के इतिहास को भारत में इस्लाम के साथ जोड़ कर नजरअंदाज कर दिया गया था. एक इंटरव्यू में, उन्होंने कहा कि उनकी किताब "होली काउ: बीफ इन इंडियन डाइटरी ट्रेडिशंस" ग्रंथों के अध्ययनों पर आधारित है जिससे पता चलता है कि वैदिक काल में गोमांस खाना काफी आम था, जब अक्सर मवेशियों की बलि दी जाती थी." उन्होंने कहा कि बाद में ऐसा लगा कि ब्राह्मणों ने इस प्रथा को अछूत जातियों में पहुंचा दिया. "मध्यकाल के दौरान, खाने के लिए गायों को मारने की प्रथा मुसलमानों से भी जुड़ी हुई थी." झा ने कहा कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से, "गाय को तेजी से 'हिंदू' पहचान के प्रतीक के रूप में माना जाने लगा है- मुसलमानों को गोमांस खाने वालों के रूप में चित्रित किया गया और हिंदू दक्षिणपंथियों ने हमेशा गलत तरीके से दावा किया है कि भारत में गोमांस खाना मुसलमान लेकर आए."
किताब के स्वागत समारोह में आज की घटनाओं की भविष्यवाणी मिलती है. झा ने उन कठिनाइयों का जिक्र किया है जिनका सामना उन्हें 2001 में अपनी किताब प्रकाशित होने पर करना पड़ा था: "एक हिंदुत्व ब्रिगेड ने मेरे घर में तोड़फोड़ की, मेरी किताब की प्रतियां जला दीं और मेरी गिरफ्तारी की मांग की. मुझे मौत सहित सभी तरह की धमकियां मिलीं."
मौत की धमकी कोई हैरानी की बात नहीं थी. अब तो इसे हिंदुत्व की मंजूरी दे दी गई है. हिंदुस्तान टाइम्स में 2017 की एक हेडलाइन खुद ही कहती है: "2010 के बाद से गाय से जुड़ी हिंसा में मारे गए 86 फीसदी मुस्लिम हैं, 97 फीसदी हमले मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हुए." इस खबर के कुछ महीनों के भीतर, नफरती हिंसा को दर्ज करने वाले हिंदुस्तान टाइम्स के ट्रैकर को बंद कर दिया गया और इसके संपादक इस्तीफा देने ने के लिए मजबूर कर दिया गया. वह आखिरी साल था जब राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने लिंचिंग और नफरती अपराधों पर डेटा जुटाया था. बाद में गृह मंत्रालय ने संसद को बताया कि इसे रोका इसलिए गया है क्योंकि "डेटा अविश्वसनीय थे क्योंकि इन अपराधों को परिभाषित नहीं किया गया है."
24 जून 2023 को महाराष्ट्र में गोहत्या के शक में अफान अब्दुल अंसारी की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई और इस साल से ऐसी कई घटनाओं की सूची बनाई जा सकती है. लेकिन ना तो अंसारी और ना ही इस साल के दूसरे नाम उतने जाने-पहचाने हैं जितने पहलू खान और जुनैद खान के नाम हैं, जिन्हें 2017 में पीट-पीट कर मार डाला गया था. 2017 के बाद से इन हत्याओं पर रिपोर्टिंग बदल गई है क्योंकि एक राष्ट्र के रूप में इन्हें सहन करने की हमारी क्षमता बढ़ गई है. हैरत नहीं कि कानूनों को इतना सख्त कर दिया गया है कि ऐसी किसी भी घटना स्थल से बरामद किए गए कुछ ग्राम मांस पर पुलिस का उतना ही या शायद उससे भी ज्यादा ध्यान जाता है, जितना कि भीड़ द्वारा मारे गए मुसलमानों की लाशों पर जाता है.
जैसा कि आकार पटेल "अवर हिंदू राष्ट्र" में लिखते हैं, गोहत्या के खिलाफ कानूनों का शुरुआती मकसद "मुसलमानों, जिनमें से ज्यादातर कसाई व्यापार में शामिल हैं, को पीड़ित करना है." मिसाल के लिए, उत्तर प्रदेश सरकार ने कथित गोहत्या के लिए मुसलमानों के खिलाफ खुले दिल से आतंकवाद विरोधी राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम लागू किया है- जो बिना मुकदमे या औपचारिक आरोप के जेल भेजने की इजाजत देता है. पटेल कहते हैं, ''गुजरात में गोहत्या के लिए ताउम्र जेल की सजा तर्कसंगतता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती.'' वह लिखते हैं, हालांकि गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की कोशिशें नई नहीं हैं लेकिन बीजेपी शासन के तहत लाए गए कानून "सनक भरे" हैं.
2003 में भोपाल में रहने और रिपोर्टिंग के दौरान, मैंने हिंदू-बहुल क्षेत्रों से मुसलमानों और मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों से हिंदुओं के पलायन की घटना पर ध्यान देना शुरू किया. देश के ज्यादातर हिस्सों में पहले से ही मुस्लिम और हिंदू इलाकों में काफी अलगाव था लेकिन यह नया था क्योंकि यह 2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा से प्रेरित था. जो मुसलमान छोड़ कर जा रहे थे, उनमें से कई ने अपने डर को सबसे सरल शब्दों में इस तरह पेश किया: कौन एहसान जाफ़री बनना चाहता है?
गुलबर्ग सोसायटी में, जिसमें कई मुस्लिम रहते थे लेकिन एक हिंदू क्षेत्र में थी- जाफरी और दर्जनों दूसरे लोगों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी. वह एक व्यक्ति थे जो सांसद रह चुके थे, जिन्होंने ऐसे इलाके में रहना चुना जहां मुस्लिमों की तादात ज्यादा नहीं थी, जो हिंदुओं और मुसलमानों के एक साथ रहने की जरूरत को बताने के लिए हमेशा तैयार रहते थे और जिनकी पहुंच ना केवल अहमदाबाद के सीनियर पुलिस अधिकारियों तक थी बल्कि मोदी से लेकर बीजेपी के तमाम नेताओं तक थी. उन्होंने उन सभी को कॉल किया जिन्हें वह जानते थे. लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया और बाद में दावा किया कि उन्हें कुछ पता नहीं था. भीड़ ने उन्हें मार डाला.
कुछ साल बाद, तहलका के लिए काम करते हुए, मैं एक लड़के के साथ जो हमले के दौरान सोसायटी के अंदर था, गुलबर्ग सोसायटी गया. हमारे साथ पड़ोस के मोहल्ले का उसका एक दोस्त भी थी जहां वह लड़का बाद में चला गया था. वह हिंदू थी. नरसंहार के बारे में जो बताया गया था उसे वह खुद देखना चाहती थी. वह लड़का हमें जले हुए घरों के अवशेषों, सोसायटी की टूटी-फूटी दीवारों के बीच से ले गया, जिन्हें भीड़ ने गिरा दिया था. जब हम वहां जा रहे थे, तभी गुजरात पुलिस आई और हमें पास के एक पुलिस स्टेशन में एक घंटे से ज्यादा समय तक हिरासत में रखा. जिस पुलिस ने हत्यारी भीड़ को नहीं रोका था, वह अब उन लोगों के घुसने पर रोक लगा रही थी जो कभी कॉलोनी के अंदर रहते थे. इसके जले हुए अवशेष अब शहर में कभी मिलने वाली मिली-जुली आबादी के अवशेषों का प्रतीक थे.
एहसान जाफरी प्रकरण से पैदा हुए डर ने उस प्रक्रिया को तेज कर दिया जो पहले से ही कई भारतीय शहरों में दिखाई दे रही थी जहां पुराना शहर मुख्य रूप से मुस्लिम था और नया शहर हिंदू था. पुराने शहरों में रहने वाले हिंदू वहां से जाने लगे थे. लेकिन यह उन मुसलमानों के लिए भी सच था, जिन्होंने ठीक-ठाक संपत्ति हासिल कर ली थी- अब अगर वे कहीं जाते, तो नए शहर में दूसरी मुस्लिम-बहुल कॉलोनियों में ही जा सकते थे.
दिल्ली में, निजामुद्दीन पश्चिम में कुछ समय तक रहने के बाद, जो कि दिल्ली के सबसे महंगे इलाकों, जैसे निजामुद्दीन पूर्व, जोर बाग और गोल्फ लिंक, के पास का इलाका है, मैंने एक बड़े आवास के लिए वसंत कुंज की तुलना में कम किराया चुकाया. वजह आसान थी: निजामुद्दीन पश्चिम मुख्यतः मुस्लिम बहुल था. हिंसा और कट्टरता से उपजी इस बस्ती को गुजरात जैसे राज्यों में नियमों और कानूनों में अपेक्षित रूप से शामिल किया गया है, जहां कॉलोनियों को इस बात का अधिकार है कि उनके पड़ोस में संपत्ति कौन खरीद या बेच सकता है. वास्तव में, मुसलमानों को बाहर जाने से रोका जा रहा है या बाजार में मिलने वाली कीमत की तुलना में कहीं कम देकर पलायन के लिए मजबूर किया जा रहा है. गुजरात में 1991 के "अशांत क्षेत्र" कानून का उपयोग इसे दर्शाता है. कारवां में नीलिना एमएस ने लिखा है, "इसे राज्य में बार-बार होने वाली सांप्रदायिक हिंसा के आलोक में संपत्तियों की संकटपूर्ण बिक्री यानी जब संपत्तियां बाजार मूल्य से कम दर पर बेची जाती हैं, की जांच करने के लिए पारित किया गया था." "हालांकि, व्यवहार में, राज्य ने मुसलमानों के साथ संपत्ति लेनदेन को हतोत्साहित करने के लिए कानून को हथियार बना लिया है, जिससे धार्मिक आधार पर स्थानिक अलगाव हो रहा है." कानून को और ज्यादा सख्त बनाने वाले एक संशोधन पर चर्चा करते हुए, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने कहा, “एक हिंदू का मुस्लिम को संपत्ति बेचना ठीक नहीं है. एक मुस्लिम का किसी हिंदू को संपत्ति बेचना भी ठीक नहीं है.'' उन्होंने कहा, "हमने उन क्षेत्रों में यह नियम तय किया है जहां दंगे हुए हैं ताकि उन्हें- मुसलमानों को- यह बताया जा सके कि उन्हें अपने इलाकों में संपत्ति खरीदनी होगी."
जातियों की थोपी गई वरीयताक्रम का एक काम यह तय करना था कि निचले दर्जे के समझे जाने वाले लोगों को गांवों के बाहरी इलाके में धकेल दिया जाए और उन्हें बुनियादी सुविधाओं और पानी तक से महरूम कर दिया जाए. आज के भारत में मुसलमान अब हिंदुत्व राष्ट्र के कस्बों और शहरों में उसी दुर्दशा में जी रहे हैं.
फिलहाल, संसद में सत्तारूढ़ बीजेपी का संसद में कोई भी मुस्लिम सांसद नहीं है. 543 में से 301 सांसद सत्तारूढ़ दल को लोकसभा में मजबूत पकड़ देते हैं. इस तरह दूसरे दलों के सांसद की नीति-नर्माण में लगभग कोई भूमिका नहीं है. इस तरह लगभग 20 करोड़ भारत के नागरिकों वस्तुतः दरकिनार कर दिया गया है. बीजेपी शासित ज्यादातर राज्यों का भी यही सच है. आजादी के बाद से भारत के बारे में जो सच है, वह यह कि देश में सत्ता के सभी अंगों- विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका- में मुसलमानों का कम प्रतिनिधित्व अब बजेपी के तहत कहीं ज्यादा चरम रूप में सार्वजनिक नीति बतौर लागू किया जा रहा है.
"1980 से 2014 के बीच भारत की संसद के निचले सदन में मुस्लिम सांसदों का प्रतिनिधित्व लगभग दो-तिहाई कम हो गया है, जबकि इसी अवधि के दौरान जनसंख्या में मुसलमानों की हिस्सेदारी बढ़ गई है," क्रिस्तोफ जाफ्रलो और जील्स वर्नियर्स ने 2018 में इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था. उस समय लोकसभा में मुस्लिम सदस्यों की संख्या 19 थी, 1952 के बाद से सबसे कम. जाफ्रलो और वर्नियर्स ने लिखा है, "इस बदलाव के लिए खासकर बीजेपी जिम्मेदार है, जिसने 1980 के बाद से आम चुनावों में केवल 20 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जिनमें से केवल तीन जीते."
2019 में मुस्लिम सांसदों की संख्या थोड़ी बढ़ी लेकिन इसका बीजेपी से कोई लेना-देना नहीं था और इसकी वजह तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे अन्य दलों के विजयी उम्मीदवार थे. कांग्रेस पर बीजेपी तुष्टीकरण का आरोप लगाती है लेकिन इस पार्टी ने भी कभी देश में आबादी के अनुपात में मुसलमान उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारे हैं.
सत्ता से वंचित होने से यह सुनिश्चित होता है कि पहुंच के सभी अनौपचारिक साधन- रिश्तेदारों और सामुदायिक नेटवर्क के जरिये भी बंद हो रहे हैं, जो भारत में जीने का एक जरिया है. यह एहसान जाफरी की घटना में दिखाई दे रहा था क्योंकि उनकी आवाज अनसुनी कर दी गई.
मोदी और उनके समर्थकों ने लंबे समय से तर्क दिया है कि विकास समुदायों के बीच अंतर नहीं करता है, यह मुसलमानों पर लक्षित विकास योजनाओं का विरोध करने का एक बहाना है- यह अफवाह बड़ी संख्या में विकास अर्थशास्त्रियों के जरिए भी दोहराई गई है क्योंकि उनके पास ऐसी असमानताओं का अध्ययन करने के लिए साधन और डेटा की कमी है.
मोदी के पुराने विधानसभा क्षेत्र मणिनगर का मामला इस सिद्धांत में सुराख कर देता है, जैसा कि मैंने न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए 2013 के एक लेख में लिखा था. अहमदाबाद में स्थित मणिनगर काफी हद तक मध्यमवर्गीय इलाका था. "लेकिन मणिनगर का दिल कहे जाने वाले और 20000 मुसलमानों का घर, मिल्लत नगर की सड़कों में गड्ढे ही गड्ढे हैं.
2007 में इलाके में मेरी पहली यात्रा पर, निवासियों ने बताया था कि ज्यादातर घरों में पीने का पानी नहीं है और ना ही मोदी या किसी दूसरे बीजेपी सदस्य ने कभी उनसे मुलाकात की. मैं 2012 के राज्य चुनावों के दौरान इलाके में फिर गया और पाया कि “इलाके में कुछ नहीं बदला है, सिवाय सड़कों और सीवरों पर कुछ काम के, जो 2011 में नगरपालिका चुनावों में कांग्रेस के टिकट पर चुने गए इलाके के कुछ मुसलमानों ने शुरू किए थे.” फिर भी मुस्लिमों को छोड़ कर जिनके पास मणिनगर में केवल 8 फीसद वोट हैं, बाकी सभी इलाकों पर ध्यान केंद्रित कर मोदी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र में 77 फीसद वोट हासिल किए.
घेटोआइजेशन अथवा बस्ती में सीमित करना, मुसलमानों को सुविधाओं से महरूम करने का एक और साधन बन गया है. इसके साथ ही हमारी बहुमत प्रणाली ने मुसलमानों को जानबूझ कर हाशिए पर रखा है. यहां तक कि दूसरी पार्टियों ने भी, मोदी की पार्टी द्वारा भड़काए गए कट्टरता के इस माहौल में, इसी कदम पर चलने और मुस्लिम उम्मीदवारों को उतनी संख्या में भी मैदान में नहीं उतारा है जितना कभी वे उतारा करते थे. यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो खुद को खाद-पानी देती है: मुसलमानों की ताकत अब जितनी कम होगी, भविष्य में उनकी ताकत उतनी ही कम होगी.
अपनी स्थापना के बाद से ही आरएसएस ने हिंदू राष्ट्र की अपनी अवधारणा को मुसलमानों के प्रति तीखी घृणा के साथ जोड़ है. मुसलमानों के प्रति आए दिन की नफरत, कट्टरता और उन्हें हाशिए पर धकेलने के लिए इस्तेमाल की जा रही शारीरिक और मनोवैज्ञानिक हिंसा, अपवाद नहीं है बल्कि आरएसएस के लंबे समय से चले आ रहे विचारों के अनुरूप ही है.
"डॉ. हेडगेवार: दि एपोक मेकर" में आरएसएस के वरिष्ठ सदस्य बीवी देशपांडे और एसआर रामास्वामी लिखते हैं कि संघ की स्थापना से पहले, 1925 में, हेडगेवार कुछ बुनियादी सवालों के जवाब ढूंढने में तल्लीन हो गए थे. जैसे, हमारे भाईचारे के इन सालों में, क्या मुसलमानों ने कभी हमारे किसी भी कदम पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है? क्या उनमें हिंदू समाज के प्रति कोई गर्मजोशी पैदा हुई है? क्या उन्होंने सहिष्णुता, 'जियो और जीने दो' की हिंदू परंपरा को दोहराया है? क्या उन्होंने भारत मां को श्रद्धांजलि देने में हमारे साथ शामिल होने की थोड़ी सी भी इच्छा दिखाई है?"
ऐसे बेतुके सूत्रीकरण इन सालों में संघ की कट्टरता का मुख्य आहार बन गए. एक अन्य जीवनी लेखक, सीपी भिशीकर, जो आरएसएस से भी जुड़े हुए हैं, ज्यादा साफ कहते हैं कि हेडगेवार ने मुसलमानों को "यवनी सांप" कहा था.
मुसलमानों के बारे में हेडगेवार के दृष्टिकोण को वीडी सावरकर के "हिंदुत्व : हू इज हिंदू?" ने वैचारिक आकार दिया. देशपांडे और रामास्वामी लिखते हैं, "सावरकर की 'हिंदुत्व' की अवधारणा की प्रेरणादायक और शानदार व्याख्या ने, जो निर्विवाद तर्क और स्पष्टता से चिह्नित थी, डॉक्टर जी के दिल को छू लिया." संघ के अंदरूनी सूत्रों द्वारा "शानदार" और "निर्विवाद" जैसे शब्दों का उपयोग सावरकर के फॉर्मूलेशन की गलत प्रकृति को छिपाने के लिए है. अंग्रेजों से कई बार दया की गुहार लगाने के बाद सावरकर को जेल से रिहा कर दिया गया और उनकी किताब में औपनिवेशिक शासन की वास्तविकता के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है. वास्तव में, ब्रिटेन के प्रति वफादारी की कसम खाने वाले किसी व्यक्ति द्वारा लिखी गई यह किताब कुछ इस तरह से लिखी गई है जो हिंदुओं की भीतरी और मुसलमानों को बाहरी के तौर पर पेश करती है.
सावरकर एक राजनीतिक व्यक्ति थे और हिंदू महासभा के प्रमुख के रूप में वह उस संघ का हिस्सा थे जिसे आज हम संघ परिवार कहते हैं. जैसा कि धीरेंद्र के झा ने कारवां में नाथूराम गोडसे पर अपने गहन निबंध में लिखा है, एमके गांधी की हत्या से पहले के सालों में महासभा और आरएसएस के बीच लगभग कोई फर्क नहीं था, कई वरिष्ठ नेता एक साथ दोनों का हिस्सा थे. हत्या के बाद ही, इसके नतीजों से बचने के लिए, आरएसएस ने महासभा से अपने अलग होने की कहानी गढ़ने की कोशिश की.
हिंदू महासभा के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में सावरकर ने जो भाषण दिया था, उसमें उन्होंने हिंदू कौन है, इस पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा था, "हर कोई जो सिंधु से लेकर समुद्र तक इस भारतभूमि को अपनी पितृभूमि और पवित्र भूमि मानता है और उस पर दावा करता है, वह हिंदू है." हेडगेवार की भारत मां और सावरकर की पितृभूमि की अवधारणा के बीच संघर्ष आखिरकार "मां" शब्द के पक्ष में हल हो गया लेकिन दोनों तरह से इसका मतलब बहिष्करण था. सावरकर ने कहा, “जैसा कि हिंदुत्व का पहला हिस्सा, एक सामान्य पवित्र भूमि पर कब्जा, भारतीय मुसलमानों, यहूदियों, ईसाइयों, पारसियों, वगैरह को खुद को हिंदू होने का दावा करने से बाहर रखता है, जो वास्तव में वे करते भी नहीं हैं… दूसरी ओर परिभाषा का दूसरा हिस्सा यानी एक समान पितृभूमि रखने का, जापानी, चीनी और अन्य लोगों को हिंदू धर्म से बाहर रखता है.
इस बहिष्कार का हेडगेवार के वारिस एमएस गोलवलकर ने समर्थन किया, जिन्होंने हिटलर द्वारा जर्मनी के यहूदी अल्पसंख्यकों प्रति किए गए व्यवहार की खुली प्रशंसा की. वी ऑर अवर नेशनहुड हिफाइन्ड" में वह लिखते हैं, "जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि नस्लों और संस्कृतियों के लिए, जिनमें जड़ तक मतभेद हैं, एक एकजुट इकाई में समाहित होना कितना असंभव है, यह हिंदुस्तान में हमारे लिए सीखने और लाभ उठाने के लिए एक अच्छा सबक है." 2014 में मोदी की जीत के तुरंत बाद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक बयान दिया था जिसे इस इतिहास के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए: "हिंदुस्तान एक हिंदू राष्ट्र है... हिंदुत्व हमारे राष्ट्र की पहचान है और यह दूसरों को अपने में समाहित कर सकता है."
इसके बाद जो कुछ हुआ वह आरएसएस की इसी विचारधारा के अनुरूप है. केंद्र सरकार इस प्रक्रिया में भागीदार रही है. प्रधानमंत्री खुद आरएसएस से हैं और उसके मूल्यों से ओत-प्रोत हैं. 2008 में, उन्होंने "ज्योतिपुंज: बीम्स ऑफ लाइट" नामक एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने 16 आरएसएस प्रमुखों की जीवनियां हैं जिन्होंने उन्हें प्रेरित किया है. सबसे लंबा लेख गोलवलकर पर था. मोदी ने एक ऐसी सरकार की अध्यक्षता की है जिसने संघ परिवार के सदस्यों और हिंदुत्व के विचार से जुड़े लोगों द्वारा मुसलमानों पर हिंसा भड़काने पर चुप्पी धरी है.
2002 की गुजरात हिंसा से लेकर अब तक मोदी का राजनीतिक करियर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बारे में लगातार अफवाहों पर आधारित रहा है. सितंबर 2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद एक भाषण में उन्होंने कहा, "मैं अपने कांग्रेस मित्रों से एक प्रश्न पूछता हूं... हम श्रावण के महीने में साबरमती में पानी लाते हैं, जब आप वहां हो, तो आप इसे रमजान के महीने में ला सकते हो. जब हम श्रावण के महीने में पानी लेकर आए तो आपको बुरा लगता है... क्या भाई, हम राहत शिविर चलाएं? क्या मुझे वहां बच्चे पैदा करने वाले केंद्र शुरू करने चाहिए? हम संकल्प के साथ परिवार नियोजन की नीति अपना कर प्रगति हासिल करना चाहते हैं. हम पांच और हमारे पच्चीस! ऐसा विकास किसके नाम पर किया जाता है? क्या गुजरात परिवार नियोजन लागू नहीं कर सकता? किसकी रुकावटें हमारे रास्ते में आ रही हैं? कौन सा धार्मिक संप्रदाय आड़े आ रहा है? गरीबों तक पैसा क्यों नहीं पहुंच रहा? अगर कुछ लोग बच्चे पैदा करते रहेंगे तो बच्चे साइकिल का पंक्चर ही बनाएंगे?"
तो कोई हैरत की बात नहीं है कि आज भारत में जो कुछ भी हो रहा है उसकी भविष्यवाणी गोलवलकर ने ही की थी. उनके विचार में, "हिंदुस्तान में विदेशी जातियों को या तो ... हिंदू जाति में मिल जाने के लिए अपना अलग अस्तित्व त्यागना होगा या देश में रहना होगा तो पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के अधीन होकर और कुछ भी दावा नहीं करना होगा, कोई विशेषाधिकार नहीं होगा, किसी भी तरजीही व्यवहार की तो बात ही दूर है, यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं मिलेंगे.”
मानवता के खिलाफ अपराधों को परिभाषित करने का विचार नाजियों के न्यूरेंमबर्ग मुकदमों के बाद से ही विचाराधीन रहा है, लेकिन आखिरकार इसे 1998 के रोम करार के तहत तैयार किया गया. नरसंहार रोकथाम पर संयुक्त राष्ट्र ने इस तरह के अधिनियम के गठन की पूरी शर्त सूचीबद्ध की है.
यूएनओजीपी का कहना है, "रोम करार के अनुच्छेद 7 (1) के अनुसार, मानवता के खिलाफ अपराधों को सशस्त्र संघर्ष से जोड़ने की जरूरत नहीं है और यह नरसंहार के अपराध के समान, शांतिकाल में भी हो सकता है." वही लेख बताता है कि ऐसे अपराध के तीन तत्व होते हैं:
1. भौतिक रूप से इसमें "निम्नलिखित में से कोई भी कार्य" करना शामिल है:
a. हत्या
b. विनाश
c. गुलामी
d. आबादी का निर्वासन या जबरन स्थानांतरण;
e. कैद;
f. यातना;
g. यौन हिंसा के गंभीर रूप;
h. उत्पीड़न;
i. व्यक्तियों का जबरन गायब होना;
j. नस्लीय अपराध;
k. अन्य अमानवीय कृत्य
2. सांदर्भिक रूप में इसमें शामिल हैं: "जब किसी नागरिक आबादी के खिलाफ व्यापक या व्यवस्थित हमले किए जाएं"; और
3. मानसिक रूप में इसमें शामिल हैं: "हमले दुर्घटनावश ना हों"
मुसलमानों को निशाना बनाना भौतिक रूप के मानदंड को पूरा करता है. हत्या की कसौटी से कहीं ज्यादा खरी उतरती है गोमांस के नाम पर होने वाली लिंचिंग.
सांदर्भिक रूप में लिंचिंग को शामिल किया जा सकता है. यूएनओजीपी के सांदर्भिक रूप के विस्तार में कहा गया है कि "मानवता के खिलाफ अपराधों में या तो पीड़ितों की संख्या के संबंध में बड़े पैमाने पर हिंसा या एक व्यापक भौगोलिक क्षेत्र (व्यापक), या एक व्यवस्थित प्रकार की हिंसा (व्यवस्थित) पर इसका विस्तार शामिल है." लिंचिंग के मामले उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक हैं, पीड़ितों की संख्या पचास से ज्यादा हो गई है और योजनाबद्ध और समन्वित हमले का वही पैटर्न सब में है. इन गतिविधियों की जानकारी का मानसिक रूप लिंचिंग के मामले में दिया गया है, जहां पीड़ितों को चुना जाता है, खींच लिया जाता है और फिर मार दिया जाता है.
यूएनओजीपी के नोट में विस्तार से बताया गया है कि “हमला करने के लिए राज्य या संगठनात्मक नीति को आगे बढ़ाना मानवता के खिलाफ अपराध माना जाना चाहिए. योजना या नीति को स्पष्ट रूप से निर्धारित करने या औपचारिक रूप से अपनाने की आवश्यकता नहीं है और इसलिए परिस्थितियों की समग्रता से अनुमान लगाया जा सकता है.''
इस पर जोर देना जरूरी है कि नरसंहार की योजना या नीति को साफ तौर पर निर्धारित या औपचारिक तौर पर अपनाने की जरूरत नहीं है और इसलिए हालात को देख कर अनुमान लगाया जा सकता है. यहां पेश किया गया मामला- नफरत और भेदभाव की विचारधारा से लेकर हिंसा की वारदातों के साथ-साथ बहिष्कार के लिए कानूनी आधार तक- यह स्थापित करने से कहीं ज्यादा है कि ऐसी योजना का अनुमान हालात देख कर लगाया जा सकता है. वास्तव में, इसे सबसे बेहतर गोलवलकर ने बताया है, वह व्यक्ति जिसे मोदी और भागवत दोनों ना केवल अपने वैचारिक अग्रदूत, बल्कि अपना गुरु मानते हैं.